मंगलवार, जून 30, 2009

फिर से स्कूल खुल गये

गीत

धुले धुले मुखड़े, उजली उजली पोषाकें
राहों में रंग घुल गये
फिर से स्कूल खुल गये

रास्ते गये चहक चहक
भोली सी फुदकती महक
मैदानों के सोये दिल
आज फिर उछल उछल गये
फिर से स्कूल खुल गये

किलकारी मोद भर गयी
कक्षा की गोद भर गयी
सन्नाटा भाग गया जब
कानों में शोर गुल गये
फिर से स्कूल खुल गये

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शनिवार, जून 27, 2009

स्मृति शेष डा. सीता किशोर खरे

श्रद्धांजलि : डा सीताकिशोर खरे
वे लोकचेतना में आधुनिकता के अग्रदूत थे
वीरेन्द्र जैन
गत 24जून 2009 की रात्रि में डा सीता किशोर खरे नहीं रहे। वे दतिया जिले की सेंवढा तहसील में गत पचास वर्षों से साधना रत थे। वे इस दौर के उन दुर्लभ साहित्यकारों में से एक थे जो अपनी प्रतिभा के ऊॅंचे दाम लगवाने के लिए सुविधा के बाजारों की ओर नहीं भागे अपितु अपने जनपद के लोगों के बीच कठिनाइयों से जूझते रहे। उनका गाँव ही नहीं अपितु वह पूरा इलाका ही डकैत ग्रस्त इलाका रहा है और अपने स्वाभिमान की रक्षा करने तथा नाकारा कानून व्यवस्था से निराश हो सिन्ध और चम्बल के किनारे जंगलों में उतर कर बागी बन जाना व अपना मकसद पाने के लिए सम्पन्नों की लूट कर लेना आम बात है। उन्होंने इस समस्या को राजधानियों के ए सी दफ्तरों में बैठने वाले नेताओं अधिकारियों की तरह न देख कर उसके सामाजिक आर्थिक पहलुओं को देखा और उन पर पूरी संवेदना के साथ कलम चलायी जो उनके सातसौ दोहों के 'पानी पानी दार है' संग्रह में संग्रहीत हैं-
तकलीफें तलफत रहत, मजबूरी रिरयात
न्याय नियम चुप होत जब, बन्दूकें बतियात
छल जब जब छलकन लगत, बल जब जब बलखात
हल की मुठिया छोड़ कें, हाथ गहत हथियार
और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि-
दौलत के दरबार में, मचौ खूब अंधेर
खारिज करी गरीब की अर्जी आज निबेर
जे इनके ऊॅंचे अटा बादर सें बतियात
आसपास की झोपड़ी, इन्हें ना नैक सुहात
सारा का सारा वातावरण ही ऐसा हो गया है कि-
कछु ऐसौ जा भूमि के पानी कौ परताप
मिसरी घोरौ बात में भभका देत शराप
का पानी में घुर गयौ का माटी की भूल
गुठली गाड़त आम की कड़ कड़ भगत बबूल
इसमें जमीन की गुणवत्ता भी अपनी भूमिका अदा करती है-
माटी जा की भुरभुरी, उपजा में कमजोर
कैसें हुइऐं आदमी, मृदुल और गमखोर
3 दिसम्बर 1935 को दतिया जिले के ग्राम छोटा आलमपुर में जन्मे डा सीताकिशोर खरे का बचपन में पेड़ से गिरने पर एक हाथ टूट गया था व समय पर समुचित इलाज की सुविधा उपलब्ध न होने से बने जख्म के कारणा उसे काटना ही पड़ा था। अपने एक हाथ के सहारे ही वे मीलों साइकिल चलाते हुये शिक्षा ग्रहण करने जाते थे व अपनी प्रतिभा के कारण उन दिनों भी अध्यापक पद के लिए चुन लिये गये जब विकलांगता को चयन के लिए आरक्षणा का आधार नहीं माना जाता था। अध्यापकी करते हुये भी उन्होंने अध्ययन जारी रखा और एमए पीएचडी की व कालेज के लिए चुने गये जहाँ वे हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे। इस बीच उन्होंने न केवल अपने बन्धु बांधवों को ही पढाया अपितु अपने पूरे परिवेश में शिक्षा और ज्ञान की चेतना जगाने के अग्रदूत बने। अपने ज्ञानगुरू डा राधारमण वैद्य की प्रेरणा से उन्होंने अपने साथियों और सहपाठियों को आगे बढाया और सामूहिक विकास के साथ काम किया जबकि इस दौर में साहित्यकार दूसरों के कंधे पर सवार होकर अपना स्वार्थ हल करते पाये जाते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने भाषा विज्ञान पर बहुत महत्वपूर्ण काम स्वयं किया तथा अपने साथियों सहयोगियों को भी शोध कार्य में मौलिक और महत्वपूर्ण काम करने के लिए प्रेरित किया। 'सर्वनाम, अव्यय और कारक चिन्ह' तथा 'दतिया जिले की पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण' उनके कार्यों की प्रकाशित पुस्तकें हैं। कभी उन्होंने अपने प्रिय कवि मुकुट बिहारी सरोज के गीतों पर ग्वालियर के एक दैनिक समाचार पत्र में स्तंभ लिखे थे जिनका नाम था- सूत्र सरोज के, टीका सीताकिशोर की । इन आलेखों का संकलन भी अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है।
डा सीताकिशोर के गीतों में मुकुट बिहारी सरोज वाली खनक और कड़क पायी जाती रही है, जैसे-
कल अधरों की अधरों से
कुछ कहासुनी हो गयी, तभी तो
ये मंजुल मुस्कान बुराई माने है
या
इतनी उमर हो गयी ये सब करते करते
अब की कैसा बीज बो दिया सारी फसल खराब हो गयी
हम तो ये समझे थे अनुभव
तुम से रोज मिला करता है
पूरा था विशवास कि सूरज
रोज सुबह निकला करता है
ये सब छल फरेब की बातें
तुमको सरल सुभाव हो गयीं
अब की कैसा बीज बो दिया सारी फसल खराब हो गयी
डा सीताकिशोर बेहद संकोची, विनम्र, पर स्पष्ट थे। उन्हें किसी तरह के भ्रम नहीं थे व उनके सपनों के पाँव सामाजिक यथार्थ की चादर से बाहर नहीं जाते थे। गलत रूढियों और परम्पराओं के बारे में उनकी समझ साफ थी पर वे उसे लोक चेतना पर थोपते नहीं थे अपितु उसमें स्वाभाविक विकास के पक्षधर थे। उनका जाना एक सामाजिक सचेतक लोकस्वीकृत साहित्य के अग्रदूत का जाना है। उनकी बात का महत्व था। आज के बहुपुरस्कृत और प्रकाशित स्वार्थी साहित्यकारों की भीड़ के बीच उन जैसी प्रतिभा के साथ इन्सानियत के धनी लोग दुर्लभ हो गये हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शुक्रवार, जून 19, 2009

एक टिप्पणी

मेनें संजय ग्रोवर के ब्लॉग पर उनकी एक पोस्ट पर टिप्पणी लिखी है में इसे अपने पाठक मित्रों के लिय्स भी उपलब्ध करा रहा हूँ
रजनीश ने थोडा घुमा फिरा कर कभी कहा था की समग्र का योग ही ईश्वर है . आठ लाख मील दूर से सूरज की किरणें आती हैं और वृक्षों की पत्तियों पर पड़ती हैं जिसके क्लोरोफिल से आक्सीजन बनती है जिससे हमारी सांस चलती है और जीवन संभव हो पाता है . हम उस आठ लाख मील दूर की चीज से जुड़े हैं और तभी जीवन है पर हम अपने को स्वतंत्र मानते हैं . असल में यह जो नामकरण है यह बदमाशी है . हमें आइन्स्टीन की तरह मनुष्य और प्रकृति के रिश्तों को समझना चाहिए . ये पूजा पाठ इबादत और इनके करने पर भौतिक पुरस्कार और न करने पर दंड सब धूर्तों के चोंचले हैं. मनुष्य ने सदैव अपने अपने समय में अज्ञात के बारे में तरह तरह की कल्पनाएँ की हैं उसकी इस कल्पना वृत्ति का सम्मान करना चाहिए किन्तु हजारों साल पहले की गयी कल्पनाओं को मानना मुर्खता ही होगी जबकि आज हमारे पास अपेक्षाकृत अधिक जानकारियाँ उपलब्ध हैं आइन्स्टीन ने ही कहा था की ज्ञान तो समुद्र की तरह अनंत है और में तो एक छोटा सा बच्चा हूँ जो घोंघे सीपियों से खेल रहा हूँ

मंगलवार, जून 09, 2009

एक बहुत ख़राब दिन

दुर्घटना दर दुर्घटना -एक क्षोभ भरा दिन
वीरेन्द्र जैन
मैं जब सुबह घूमने जाता हूँ तब साथ में मोबाइल नहीं ले जाता ताकि कम से कम एक घंटा तो सुकून से गुजर सके। 8 जून की सुबह जब घूम कर लौटा तो ताला खोलते ही मोबाइल की घंटी सुनाई दी। इतने सुबह मोबाइल पर घंटी आना वैसा ही लगता है जैसे कभी लोगों को तार आने पर लगता होगा। दौड़ कर मोबाइल उठाया और बिना यह देखे कि किस नम्बर से घंटी आ रही है, सुनने के लिए बटन दबा दिया। दूसरी तरफ देश के विख्यात कवि पूर्वसांसद उदयप्रताप सिंह थे। उन्होंने पूछा कहां थे बहुत देर से घंटी कर रहा हूँ, अच्छा सुनो सुबह सुबह तुम्हारे भोपाल में एक कार एक्सीडेंट हो गया है जिसमें कवि ओमप्रकाश आदित्य, नीरजपुरी, और लाढसिंह गुर्जर नहीं रहे व ओम व्यास और जॉनी बैरागी गम्भीर रूप से घायल हैं। ये लोग विदिशा कवि सम्मेलन से लौट रहे थे। इसलिए तुरंत ही वहाँ के पीपुल्स हास्पिटल पहुँचो।
मैं सन्न रह गया मैंने पूछा आप कहाँ पर हैं? वे बोले मैं तो दिल्ली में हूँ, वहाँ से अभी अभी अशोक ने खबर दी है। इतना कह कर उन्होंने फोन बन्द कर दिया, संभवत: दूसरों को जरूरी सूचना देने के लिये। पता नहीं चला कि और कौन कौन था एक्सीडेंट किससे हुआ। मैंने अस्पताल जाने से पहले कविमित्र माणिकवर्मा जी की खोज खबर लेनी जरूरी समझी जो थोड़ी ही दूर पर रहते हैं। फोन उनके यहाँ काम करने वाले लड़के ने अटेैंड किया और नाम पूछने के बाद बताया कि वे बाथरूम में हैं। मैंने पूछा कि कल विदिशा तो नहीं गये थे तो उसने कहा नहीं। थोड़ी राहत की सांस लेकर मैंने कहा कि बाहर आ जायें तो बात करा देना। मैं तेजी से तैयार हुआ एक मिनिट के लिए अखबार के मुखपृष्ठ पर नजर डाली पर घटना एकदम सुबह की थी और अखबार छपने के बाद की थी इसलिए कहीं कोई खबर होने का सवाल ही नहीं उठता था। बाहर आकर देखा कि स्कूटर अचलनीय स्थिति में है इसलिए तुरंत ही सोचा कि क्यों न कवि मित्र राम मेश्राम से चलने का आग्रह किया जाये और उनकी कार से ही चलें। फोन किया तो वे तुरंत ही तैयार हो गये। किसी तरह उनके घर पहुँचा तो उनकी कार ने भी स्टार्ट हाने में थोड़े नखरे दिखाये पर अंतत: वह चल निकली। वहाँ बाहर प्रदीपचौबे अशोक चक्रधर पूर्व विधायक सुनीलम राजुरकर राज समेत कमिशनर भोपाल, संस्कृति मंत्री , संस्कृति सचिव, आईजी पूलिस आदि उपस्थित थे। पता चला कि मृत देहें तो पोस्टमार्टम और फिर उनके गृह नगर भेजे जाने के लिए सरकारी हमीदिया अस्पताल भेजी जा चुकी हैं और वहाँ पर घायलों को बचाने के भरसक प्रयत्न हो रहे हैं। घायलों में ओम व्यास की हालत काफी गम्भीर है तथा जानी बैरागी, भारत भवन के फोटोग्राफर विजय रोहतगी तथा गाड़ी का ड्राइवर खेमचंद खतरे से बाहर है। मंत्री और वरिष्ठ अधिकारियों की उपस्तिथि के कारण अस्पताल प्रबंधन भी सक्रिय होकर रूचि ले रहा था व अस्पताल के मैनेजिंग डायरेक्टर स्वयं वहाँ पर थे। लगभग सारे ही उपस्थित लोग लगातार फोन पर बात कर रहे थे इसका असर यह हुआ था कि हम जैसे अनेक लोग वहाँ पर पहुँच सके थे। लगभग एक घंटे वहाँ रूकने के बाद हम लोग हमीदिया अस्पताल की ओर आये जहाँ मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के डायरेक्टर श्रीराम तिवारी और अस्टिेंट डायरेक्टर सुरेश तिवारी समेत लगभग पूरा संस्कृति विभाग उपस्तिथ था। पोस्टमार्टम पूरा हो चुका था और ताबूतों में शव रखे जाने थे, पर ताबूत उठाने वाला कोई नहीं था, एक पुलिस कानिस्टबल झुंझला कर कह रहा था कि ताबूत भी पुलिस ही उठाये। मेंने उसे सहायता देते हुये समझाया कि ये दुर्घटना है और ये सब सरकारी अधिकारी हैं, ये अपने हाथ से ताबूत तो क्या पानी का गिलास भी नहीं उठाते इसलिए मदद तो करनी ही पड़ेगी। उसी समय सूचना मिली कि हबीब तनवीर साहब भी नहीं रहे तो हम लोग ताबूतों को वाहनों में रखवा कर सीधे श्यामला हिल्स के अंसल अपार्टमेंट्स की ओर तेजी से चल दिये। वहाँ हबीब साहब की मृत देह आ चुकी थी और कमला प्रसाद, लज्जाशांकर हरदेनिया मनोज कुलकर्णी, जया मेहता, समेत दसबीस रंगकर्मी उपस्थित थे। जानकर आशचर्य और दुख हुआ कि हबीबजी के साथ काम करने वाले रंगकर्मियों में से भी कुछ अब तक मजहबी बने हुये थे और कोई कह रहा था कि पैर काबे की ओर नहीं करते या गुशल कराना चाहिये। लगता था कि अगले दिन उनके अंतिम संस्कार होने तक वे लोग हबीब जी की देह के साथ वे सब मजहबी खिलवाड़ कर लेना चाहते थे जो उन्होंने जिन्दगी भर नहीं किये थे।
एक कामरेड की देह को साम्प्रदायिक मुस्लिम, मुसलमान बना कर साम्प्रदायिक हिंदुओं के इस तर्क को बल दे रहे थे कि हबीब तनवीर ने पाेंगा पंडित नाटक एक मुसलमान की तरह किया था और हिन्दू देवी देवतााओं का अपमान किया था।
आठ जून सचमुच मेरे लिए गहरे क्षोभ का दिन रहा।

गाँव का नाम थियेटर मोर नाम हबीब

श्रद्धांजलि 'हबीब तनवीर'
गाँव का नाम थियेटर मोर नाम हबीब
वीरेन्द्र जैन
हबीब तनवीर नहीं रहे। वे उम्र के छियासीवें साल में भी नाटक कर रहे थे।अभी पिछले ही दिनो उन्होंने भारत भवन में अपना नाटक चरनदास चोर किया था तथा उसमें भूमिका की थी।
वे इतने विख्यात थे कि सामान्य ज्ञान रखने वाला हर व्यक्ति उनके बारे में सब कुछ जानता रहा है। कौन नहीं जानता कि उनका जन्म रायपुर में हुआ था और तारीख थी 1923 के सितम्बर की पहली तारीख। उनके पिता हफीज मुहम्मद खान थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा रायपुर के लॉरी मारिस हाई स्कूल में हुयी जहाँ से मैट्रिक पास करके आगे पढने के लिए नागपुर गये और 1944 में इक्कीस वर्ष की उम्र में मेरिस कालेज नागपुर से उन्होंने बीए पास किया। बाद में एमए करने के लिए वे अलीगढ गये जहाँ से एमए का पहला साल पास करने के बाद पढाई छूट गयी। वे नाटक लिखते थे, निर्देशन करते थे, उन्होंने शायरी भी की और अभिनय भी किया। यह सबकुछ उन्होंने अपने प्रदेश और देश के स्तर पर ही नहीं किया अपितु अर्न्तराष्ट्रीय ख्याति भी अर्जित की। वे सम्मानों और पुरस्कारों के पीछे कभी नहीं दौड़े पर सम्मान उनके पास जाकर खुद को सम्मानित महसूस करते होंगे। 1969 में उन्हें प्रतिष्ठित संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला तो 1972 से 1978 के दौरान वे देश के सर्वोच्च सदन राज्य सभा के लिए नामित रहे। 1983 में पद्मश्री मिली, 1996 में संगीत नाटक अकादमी की फैलोशिप मिली तो 2002 में पद्मभूषण मिला। 1982 में एडनवर्ग में आयोजित अर्न्तराष्ट्रीय ड्रामा फेस्टीबल में उनके नाटक 'चरनदास चोर' को पहला पुरस्कार मिला।
वे नाटककार के रूप में इतने मशहूर हुये कि अब कम ही लोग जानते हैं कि पेशावर से आये हुये हफीज मुहम्मद खान के बेटे हबीब अहमद खान ने शुरू में शायरी भी की और अपना उपनाम 'तनवीर' रख लिया जिसका मतलब होता है रौशनी या चमक। बाद में उनके कामों की जिस चमक से दुनिया रौशन हुयी उससे पता चलता है कि उन्होंने अपना नाम सही चुना था। कम ही लोगों को पता होगा कि 1945 में बम्बई में आल इन्डिया रेडियो में प्रोडयूसर हो गये, पर उनके उस बम्बई जो तब मुम्बई नहीं हुयी थी, जाने के पीछे आल इन्डिया रेडियो की नौकरी नहीं थी अपितु उनका आकर्षण अभिनय का क्षेत्र था। पहले उन्होंने वहाँ फिल्मों में गीत लिखे और कुछ फिल्मों में अभिनय किया। इसी दौरान उनके जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ आया और वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ कर इप्टा ( इन्डियन पीपुल्स थियेटर एशोसियेशन)के सक्रिय सदस्य बन गये, पर जब स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इप्टा के नेतृत्वकारी साथियाें को जेल जाना पड़ा तो उनसे इप्टा का कार्यभार सम्हालने के लिए कहा गया। ये दिन ही आज के हबीब तनवीर को हबीब तनवीर बनाने के दिन थे। कह सकते हैं कि उनके जीवन की यह एक अगली पाठशाला थी।
1954 में वे फिल्मी नगरी को अलविदा कह के दिल्ली आ गये और कदेसिया जैदी के हिन्दुस्तानी थियेटर में काम किया। इस दौरान उन्होंने चिल्ड्रन थियेटर के लिए बहुत काम किया और अनेक नाटक लिखे। इसी दौरान उनकी मुलाकात मोनिका मिश्रा से हुयी जिनसे उन्होंने बाद में विवाह किया। इस विवाह में ना तो पहले धर्म कभी बाधा बना और ना ही बाद में क्योंकि दोनों ही धर्म के नापाक बंधनों से मुक्त हो चुके थे। इसी दौरान उन्होंने गालिब की परंपरा के 18वीं सदी के कवि नजीर अकबराबादी के जीवन पर आधारित नाटक 'आगरा बाजार' का निर्माण किया जिसने बाद में पूरी दूनिया में धूम मचायी। नाटक में उन्होंने जामियामिलिया के छात्रों और ओखला के स्थानीय लोगों के सहयोग और उनके लोकजीवन को सीधे उतार दिया। दुनिया के इतिहास में यह पहला प्रयोग था जिसका मंच सबसे बड़ा था क्योंकि यह नाटक स्थानीय बाजार में मंचित हुआ। सच तो यह है कि इसीकी सफलता के बाद उन्होंने अपने नाटकों में छत्तीसगढ के लोककलाकारों के सहयोग से नाटक करने को प्रोत्साहित किया जिसमें उनमें अपार सफलता मिली।
इस सफलता के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 1955 में जब वे कुल इकतीस साल के थे तब वे इंगलैंड गये जहाँ उन्होंने रायल एकेडमी आफ ड्रामटिक आर्ट में अभिनय और निर्देशन का प्रशिक्षण दिया। 1956 में उन्होंने यही काम ओल्ड विक थियेटर स्कूल के लिए किया। अगले दो साल उन्होंने पूरे यूरोप का दौरा करके विभिन्न स्थानों पर चल रहे नाटकों की गतिविधियों का अध्ययन किया। वे बर्लिन में लगभग अठारह माह रहे जहाँ उन्हें बर्तोल ब्रेख्त के नाटकों को देखने का अवसर मिला जो बर्नेलियर एन्सेम्बले के निर्देशन में खेले जा रहे थे। इन नाटकों ने हबीब तनवीर को पका दिया और वे अद्वित्तीय बन गये। स्थानीय मुहावरों का नाटकों में प्रयोग करना उन्होंने यहीं से सीखा जिसने उन्हें स्थानीय कलाकारों और उनकी भाषा के मुहावरों के प्रयोग के प्रति जागृत किया। यही कारण है कि उनके नाटक जडों के नाटक की तरह पहचाने गये जो अपनी सरलता और अंदाज में, प्रर्दशन और तकनीक में, तथा मजबूत प्रयोगशीलता में अनूठे रहे।
वतन की वापिसी के बाद उन्होंने नाटकों के लिए टीम जुटायी और प्रर्दशन प्रारंभ किये। 1958 में उन्होंने छत्तीसगढी में पहला नाटक 'मिट्टीी की गाड़ी' का निर्माण किया जो शूद्रक के संस्कृत नाटक 'मृच्छिकटकम ' का अनुवाद था। इसकी व्यापक सफलता ने उनकी नाटक कम्पनी 'नया थियेटर' की नींव डाली और 1959 में उन्होंने संयक्त मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में इसकी स्थापना की। 1970 से 1973 के दौरान उन्होंने पूरी तरह से अपना ध्यान लोक पर केन्द्रित किया और छत्तीसगढ में पुराने नाटकों के साथ इतने प्रयोग किये कि नाटकों के बहुत सारे साधन और तौर तरीकों में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर डाले। इसी दौरान उन्होंने पंडवानी गायकी के बारे में भी नाटकों के कई प्रयोग किये। इसी दौरान उन्होंने छत्तीसबढ के नाचा का प्रयोग करते हुये 'गांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद' की रचना की। बाद में शयाम बेनेगल ने स्मिता पाटिल और लालूराम को लेकर इस पर फिल्म भी बनायी थी।
हबीबजी प्रतिभाशाली थे, सक्षम थे, साहसी थे, प्रयोगधर्मी थे, क्रान्तिकारी थे। उनके 'चरणदास चोर' से लेकर, पोंगा पंडित, जिन लाहौर नहिं देख्या, कामदेव का सपना, बसंत रितु का अपना' जहरीली हवा, राजरक्त समेत अनेकानेक नाटकों में उनकी प्रतिभा दिखायी देती है जिसे दुनिया भर के लोगों ने पहचाना है। उन्होंने रिचर्ड एडिनबरो की फिल्म गांधी से लेकर दस से अधिक फिल्मों में काम किया है तो वहीं 2005 में संजय महर्षि और सुधन्वा देश पांडे ने उन पर एक डाकूमेंटरी बनायी जिसका नाम रखा ' गाँव का नाम थियेटर, मोर नाम हबीब'। यह टाइटिल उनके बारे में बहुत कुछ कह देता है, पर दुनिया की इस इतनी बड़ी सख्सियत के बारे में आप कुछ भी कह लीजिये हमेशा ही कुछ अनकहा छूट ही जायेगा।
वीरेन्द्र जैन
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