रविवार, मार्च 28, 2010

रोमन में हिन्दी और प्याले में तूफ़ान

रोमन में हिन्दी और वासुदेव गोस्वामी। वीरेन्द्र जैन
असगर वज़ाहत जैसे वरिष्ठ हिन्दी लेखक ने हिन्दी को बचाने के लिए जनसत्तामें दो लेख लिख कर ऐसी बहस छेड़ दी है कि बहुत सारे लोग उत्तेजित हुये घूम रहे हैं। उनका सुझाव था कि इस वैश्वीकरण के दौर में हिन्दी को रोमन लिपि में लिखे जाने पर विचार किया जाना चाहिए जिससे कि हिन्दी की बहुत सारी समस्याएं सुलझ सकती हैं। आज एस एम एस से लेकर ज्यादातर हिन्दी अखबारों में अंग्रेज़ी और रोमन का प्रयोग होने लगा है तथा विज्ञापनों में तो हालात और भी बुरी है। इससे हिन्दी उर्दू के बीच की दूरियाँ भी घटेंगीं
असगर भाई का यह सुझाव नया नहीं है अपितु संविधान के गठन के समय राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से सी राजगोपालाचारी का भी यही सुझाव था । स्मरणीय है कि हिन्दी को सरकारी काम काज़ की भाषा बनाने के लिए संविधानसभा ने सर्व सम्मति से स्वीकृत दी थी किंतु विरोध में केवल एक व्यक्ति ने बहिष्कार किया था और वे थे हिन्दी के सबसे प्रबल पक्षधर राजऋषि पुरुषोत्तम दास टंडन। उन्होंने इसलिए बहिष्कार किया था क्योंकि वे चाहते थे कि अंकों को भी देव नागरी में ही स्वीकार किया जाये जबकि संविधान सभा उन्हें रोमन में प्रयुक्त किये जाने की पक्षधर थी। बहरहाल जब हिन्दी को रोमन में लिखने का विचार आया था तो दतिया के एक हास्य-व्यंग के कवि वासुदेव गोस्वामी ने एक कविता लिखी थी जिसमें बताया गया था कि अगर हिन्दी को रोमन में लिखा गया तो क्या दशा होगी-
पढन लागे मोहन इंगलिश छापा मैय्या जशोदा सें मम्मी बोलें बाबा नंद सें पापा
पढन लागे मोहन इंगलिश छापा पत्नी [patani] को पटनी कर वांच्यो पतिजूpati] हो गए पाटी[paaTee]
बुद्धी[buddhi] उनकी बुड्ढी हो गई मति[maaTi] भी हो गई माटी पढन लागे मोहन इंगलिश छापा ........................... इसी कविता में एक पंक्ति आती है ‘चुटिया’ [चुटिया] कहवे में सकुचावें,............. आदि| यदि कभी कहीं पूरी कविता मिल गई तो ज़रूर ही पुनर्प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

4 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल सहमत नहीं। अगर कोई ये समझता है कि अगर रोमन का सहारा नहीं लेगा तो हिन्दी का विकास नहीं होगा उन्हें श्री प्रभू जोशी का लेख हिन्दी के हत्या के विरूद्ध जरूर पढ़ना चाहिये। प्रभू जोशी लिखते हैं कि किस तरह कई भाषायें बर्बाद हो गई।
    मार्कटूली का लेख भारत में अंग्रेज़ी बनाम हिंदी भी पढ़ने योग्य है।
    यह कैसा दुर्भाग्य है कि हिन्दी के वरिष्‍ठ लेखक भी अब रोमन हिन्दी की वकालात करने लगे हैं। इतने वरिष्‍ठ लेखकों के इस तरह के बयानों से बहुत दुख: होता है।

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  2. यह प्याली में तूफ़ान ही है. क्योंकि इन्हें नहीं पता कि तकनीक ने कहाँ तक प्रगति कर ली है. अब आप चाहे रोमन में लिखें या बंगाली पंजाबी उर्दू में, मुझे पढ़ना होगा तो मैं देवनागरी में कन्वर्ट कर पढ़ लूंगा यदि आप नागरी के लिए निरक्षर हैं तो आप रोमन में बदल कर पढ़िए, कौन रोक रहा है.
    वैसे, भारत में हिन्दी अख़बारों की बढ़ती प्रसार संख्या तो असगर वजाहत से बिलकुल जुदा बात कहती है, है ना?

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  3. असगर वज़ाहत होंगे वरिष्ठ हिन्दी लेखक; किन्तु तकनीकी, तकनीकी की शक्ति, भाषा तकनीकी की वर्तमान दशा और दिशा तथा 'फ्यूचरोलोजी' में लगभग 'अंगूठा छाप' ही हैं। उनके लेख में एक छिपे एजेण्डे की बदबू आ रही है। यह बात उनके हाल ही में उर्दू के लिये मर्शिया पढ़ने और देवनागरी की मृत्यु की दुआ जैसे विरोधाभासी आचरण से भी स्पष्ट हो जाती है।

    असगर, एक स्वतन्त्र भाषा-समुदाय को फिर से गुलामी की ओर ले जाने का सलाह दे रहे हैं। उनके पास वर्तमान में अपनी बात के समर्थन में कहने के लिये एक भी ठोस तर्क नहीं है। इसका प्रमाण है कि अपने ब्लॉग पर वे एक भी टिप्पणी का जवाब नही दे पाये हैं।

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  4. कांग्रेस की यही तो खूबी है कि हर अच्छी बात के विरोध को खुला समर्थन मिलता है. देवनागरी का विकास अपने आप में सभ्यता के विकास के इतिहास को दर्शाता है. पहले लिपि बाद में भाषा खत्म कर दीजिये. यही हिन्दुओं के समूल नाश करने की बुनियाद है.

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