शनिवार, दिसंबर 18, 2021

संस्मरण मेरी गाय – चैरई और रिश्ते

 

संस्मरण

मेरी गाय – चैरई और रिश्ते

वीरेन्द्र जैन


बचपन की यादों में, मैं घर में पली गाय के बारे में नहीं भूल पाता। मैं ना तो कभी गाँव में रहा और ना ही मेरे यहाँ कोई खेत थे। हम लोग जिला मुख्यालय वाले एक कस्बे दतिया में रहते थे। आज़ादी से पहले यह स्टेट हुआ करती थी और कहा जाता है कि कभी एक दीवान एनुद्दीन ने इसे तबियत से संवारा था। कुछ सड़कें बनवायी थीं, नालियां बनवायी थीं, फुटपाथ बनवाये थे, पार्क, फव्वारे और दोनों ओर खजूर के पेड़ों से घिरी एक लम्बी सड़क भी बनवाई थी जिसके दोनों तरफ फव्वारे और गेट बने थे। ये सब कुछ अब नष्ट हो चुका है और इनमें से अधिक से अधिक पर अतिक्रमण हो चुका है। इन दिनों राजनीति में सक्रिय होने का एक ही मतलब रह गया है, सरकारी और जन उपयोगी जमीन पर कब्जा करना। कुछ लोगों के निजी घर तो सर्वसुविधा सम्पन्न व मार्बल, टाइल्स मंडित हो चुके हैं किंतु नगर का सौन्दर्य बिगड़ चुका है। पहले साधारण घर होते थे पर चारों ओर कुछ हवेलियां होती थीं जो राजपरिवारों के लोगों की होती थीं इसके साथ साथ दो हवेलियों की मुझे और याद है जिनमें से एक सुप्रसिद्ध राज गायिका शक्का की, और दूसरी पखावज वादक कुंदऊं सिंह की होती थी। इन्हीं दो हवेलियों के बीच हमारा किराये का मकान था जो नगर के बीच से गुजरने वाली इकलौती पक्की सरकुलर सड़क पर था। तब अतिक्रमण नहीं था इसलिए इसी सड़क से दतिया को सेंवड़ा जाने वाली बस भी गुजरती थी। मेरे किराये का मकान भी पन्नालाल खुशालीराम फर्म का था जिनके परिवार से विन्ध्य प्रदेश विधानसभा के लिए पहले विधायक चुने गये थे। सन्दर्भ के लिए बता दूं कि यह मकान भोपाल की मेयर रही विभा पटेल के चाचाओं का था, और बाद में उनके पिता डा. बलवंत सिंह के हिस्से में आया था।

इसी मकान में मेरा बचपन गुजरा जिसके बाहर पिताजी अपनी गाय बांधते थे जिसे चराने के लिए बरेदी सुबह सुबह ले जाता था और शाम को लौटा कर लाता था। पिताजी भले ही नगर के इकलौते बैंक में बाबू थे जब बैंक में केवल सम्पन्न लोगों का ही आना जाना होता था, इसलिए वे छोटे नगर में सबसे सुपरिचित व सम्मानित थे। किंतु उनके अन्दर बाबूगीरी कभी नहीं आयी और वे हर तरह से एक देशज नागरिक बने रहे। हमारे घर सिरौल गांव से दूध देने के लिए पहलू नाम का दूध वाला आता था जिसके सौजन्य से उन्होंने यह गाय खरीद ली थी। इतनी सीधी गाय मैंने दूसरी नहीं देखी। घर में मैं और मुझ से दो साल बड़ी बहिन थी व मुझ से दो साल छोटा भांजा रहा करता था अर्थात मिला कर तीन बच्चे थे। हम तीनों ही उस गाय के थन से सीधे दूध पीते थे। चूंकि दूध निकालने के हिसाब से हम लोग बहुत छोटे थे इसलिए पिताजी हमारे खुले मुँह में सीधी धार लगा देते थे जो कभी कभी चेहरे पर भी पड़ जाती थी। गाय का नाम उन्होंने चैरई रखा था और उसके नाम से पुकारने पर ही वह चैतन्य हो जाती थी। उसके पूरे शरीर पर हाथ फेर कर हम लोगों को ही नहीं शायद उसे भी वात्सल्य सुख मिलता हो  क्योंकि ऐसा करते समय उसने कभी सींग तो क्या पूंछ भी नही फटकारी। हमारे छोटे से परिवार की जरूरत के हिसाब से भरपूर दूध होता था।  उन दिनों फ्रिज और गैस नहीं होती थी इसलिए माँ चूल्हे की बची आँच मे एक नीचे से गोल बर्तन में रखे रहती थीं जिसे कांसिया कहा जाता था। दिन भर मद्धम आँच पर रखे उस दूध  में बहुत मोटी मलाई पड़ती रहती थी और ऊपर चिकनाई की बूंदे उतराने लगती थीं। उस दूध को हमें पिलाने की कोशिशें की जाती थीं किंतु वह दूध हमें कभी पसन्द नहीं आया, जो शायद पाचन कमजोर होने के कारण हो इसलिए हम लोग सीधे थन वाला दूध ही पीना पसन्द करते थे। पिताजी उसे धारोष्ण दूध कह कर उसकी तारीफों के पुल बांधते हुए कहते थे कि देखो इसी दूध को पीकर बछड़े कैसे उछलते हैं। कभी कभी माँ जिन्हें हम आई कहते थे, दूध को जमा देती थीं और फिर बाद में उससे मक्खन निकालती थीं, जिसे नैनू कहा जाता था। कई बार स्कूल जाने से पहले बासी रोटी पर नैनू चुपड़ कर और उस पर पिसी शक्कर भुरक पुंगी [रोल] बनाकर हमें नाश्ते में दी जाती थी जो इतनी  स्वादिष्ट लगती थी कि उसका स्वाद अभी  तक याद है। हमारे मन में गाय के पूज्य होने जैसा भाव कभी नहीं आया किंतु वह घर के सदस्य जैसी थी। कोई हरे चारे के पूरे दे जाता था जिसे हम लोग उसके सामने बैठ कर धीरे धीरे खिलाते थे।

कई साल बाद पिताजी ने एक पुराना मकान खरीद लिया जिसकी मालकिन दो बहिनें थीं जिसमें से एक संतान रहित विधवा थीं तो दूसरी का निधन हो चुका था और मृत्यु से पहले वे उस मकान का एक कमरा बेच गयीं थीं। उनके पति पिताजी के परिचित थे जिन्हें यह कह कर मना लिया गया था कि उन्होंने अपना हिस्सा ले लिया है। बहरहाल दो हजार के उस मकान में से उन्हें 500/- रुपये भी दिये गये थे और 1500/- रुपये जीवित बहिन को मिले थे। अपने पिता से मिले उस मकान के प्रति वे बहुत भावुक थीं, इसलिए पिताजी ने उन्हें जीवन भर बहिन मानने और इस घर को मायका मानने का आश्वासन दिया था। घर में गाय बांधने की जगह नहीं थी, इसलिए पिताजी ने इन मुँह बोली बहिन को गाय भी उपहार में दे दी थी। जब तक पिता जीवित रहे वे हर रक्षा बन्धन पर राखी बांधने व अन्य त्योहारों पर आती रहीं व उन्हें वैसा ही सम्मान भी मिलता रहा। जब भी वे बुआ आती थीं तब हम लोग भावुक होकर अपनी गाय के बारे में जरूर पूछते थे।

आज जब रिश्ते छीजते जा रहे हैं और सगे रिश्ते भी दूर के रिश्ते होते जा रहे हैं, तब इन रिश्तों की याद करके मन भावुक हो जाता है। मैं नौकरी में बाहर निकल आया, पिताजी नहीं रहे। बुआजी भी नहीं रहीं। इन रिश्तों को याद कर के मुनव्वर राना का शे’र कौंध जाता है-

अमीरे शहर को रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता

गरीबी चाँद को भी अपना मामा मान लेती है 

पिताजी कुछ सपने भी देखते थे जिनमें से एक था कि कभी एक बैलगाड़ी में एक स्टोव और खाना बनाने का सामान रख कर गाड़ी के पीछे गाय को बाँध कर भारत भ्रमण के लिए निकला जाये। यह एक ऐसा सपना था जो सपना ही रहा, पर उन्होंने रिटायरमेंट के बाद मैथिली शरण गुप्त की पुस्तकों के विभिन्न विश्व विद्यालयों के कोर्स में लगवाने के एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में प्रकाशक की ओर से भारत के बहुत सारे हिस्से को देखने का सपना पूरा किया।

  वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

 

स्मरण – अंजनी चौहान

 

स्मरण – अंजनी चौहान

वीरेन्द्र जैन


अंजनी चौहान उन बिरले लेखकों में थे जो लिखने, प्रकाशित होने, सम्मानित होने, पुरस्कृत होने के लालच से मुक्त थे । वे सत्तर के दशक में जब रीवा मेडिकल कालेज में पढते थे, तब से धर्मयुग और कादम्बिनी आदि में छपने लगे थे। ज्ञान चतुर्वेदी जैसे प्रथम श्रेणी के पढाकू छात्र और लेखन के शौकीन जब मेडिकल कालेज में उनके साथ जुड़े तो उन्होंने उनकी ढाल बन कर उन्हें पढने में पूरा ध्यान लगाने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया। उन दिनों रीवा जैसे मेडिकल कालेज में पढने के लिए अनेक भव बाधाओं का सामना भी करना होता था। छात्र ज्ञान चतुर्वेदी के गोल्ड मेडलिस्ट होने में और निरंतर आगे बढने में अंजनी चौहान द्वारा दिये गये संरक्षण की भी महती भूमिका रही है, ऐसा अनेक पुरस्कारों से पुरस्कृत कुशल चिकित्सिक पद्मश्री डा. ज्ञान चतुर्वेदी ने स्वयं स्वीकारा है।

अंजनी दुस्साहसी, मुँहफट होने तक मुखर, और बहुत साफ साफ बोलने वाले रहे। व्यवहारिक समझौते उन्हें नहीं भाते थे। मुख्य मंत्री अर्जुन सिंह हों, दिग्विजय सिंह हों, गृहमंत्री चरण दास महंत हों, या उमा भारती हों, कमलेश्वर हों या कमला प्रसाद हों, वे जो कहना चाहते थे, उसे आमने सामने कहने से कभी नहीं चूके। स्वास्थ विभाग के एक अधिकारी जब उनसे अपने मेडिकल बिलों को वेरीफाई कराने आये तो उन्होंने उनकी जेब में हाथ डाल कर डाक्टरों के लिए पैसे निकाल लिये। अधिकारी के यह कहने पर कि यह आप क्या कर रहे है उन्होंने उन अधिकारी से कहा कि क्या आप हमारे डाक्टरों से उनके विधिवत काम के लिए पैसे नहीं लेते? यदि हमारे डाक्टर झूठ बोल रहे हों तो बताइए, मैं आपके पैसे वापिस करा दूंगा। वे अधिकारी इस मामले में बदनाम थे इसलिए चुपचाप चले गये।

डाक्टरों में से ही कुछ को चिकित्सा के अलावा कुछ प्रशासनिक काम भी देखने होते हैं। अंजनी की सक्रियता को देखते हुए स्वास्थ विभाग ने उनको ज्यादातर समय गैर चिकित्सकीय काम ही सौंपे, जिन्हें उन्होंने बड़े शौक से पूरे किये। जब वे जेपी अस्पताल भोपाल में कुल प्रबन्धन पर निगाह रखने का काम देख रहे थे, उन्हीं दिनों मैं किसी डाक्टर को दिखाने के लिए परचा बनवाने की लाइन में लगा। उन्होंने सीसीटीवी कैमरे पर देखा तो अन्दर से चल कर हाल तक आये और मेरा पर्चा बनवा कर विशेषज्ञ डाक्टर के पास ले गये दिखाया और छोड़ने के लिए बाहर तक आये। मुझे स्कूटर पर आया देख कर नाराजगी व्यक्त की और लगभग निर्देश देते हुए कहा कि आगे से आप स्कूटर से नहीं चलेंगे, अगर किसी ने टक्कर मार दी तो बुढापे में परेशान हो जायेंगे।  

उनके दुस्साहस पूर्ण किस्सों पर तो ज्ञान चतुर्वेदी पूरी किताब लिख चुके हैं। उन्हें दुहराना तो ठीक नहीं पर विषम पारिवारिक परिस्तिथियों में भी उन्होंने बेटे को इतना काबिल बनाया कि जुकरवर्ग तक ने उसके काम की सराहना की है। पिछले दिनों व्हाट्स एप्प पर उनके छड़ी लेकर चलने के वीडियो देखे तो लगा कि यह उनके मजाक का कोई नया अन्दाज होगा, फिर भी उनसे सीधे पूछने की जगह ज्ञानजी को फोन लगाया किंतु वह काल नहीं लग सकी। ज्ञानजी की बहुआयामी व्यस्तता को देखते हुए मैं उन्हें अनावश्यक परेशान करना ठीक नहीं समझता। सो बात आयी गयी हो गई। अंजनी की मृत्यु का समाचार मिलने के बाद जब ज्ञानजी को दो तीन काल किये तब पता लगा कि अंजनी जी सचमुच गम्भीर रूप से बीमार थे।

फिर मुनीर नियाजी की पंक्तियां याद आयीं- हमेशा देर कर देता हूं मैं। विनम्र श्रद्दांजलि  

 वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

   

शनिवार, दिसंबर 11, 2021

श्रद्धांजलि / संस्मरण दिनेश चन्द्र दुबे, उर्फ दिनेश भाई साहब

 

श्रद्धांजलि / संस्मरण

दिनेश चन्द्र दुबे, उर्फ दिनेश भाई साहब

वीरेन्द्र जैन


दिनेश चन्द्र दुबे का नाम पहली बार मैंने दिनेश भाई साहब के रूप में ही सुना था। उनके तीन छोटे भाई मेरे साथ पढे या रहे और वे उन्हें इसी नाम से सम्बोधित करते थे। सीएमओ पद से सेवानिवृत्त प्रेमचन्द दुबे व डा. प्रकाश चन्द दुबे तो बीएससी में मेरे साथ पढते थे और इसी रिश्ते से पब्लिक प्रसीक्यूटर रहे हरीश अपने साहित्यिक शौक में मेरे साथ जुड़े और सर्वाधिक आत्मीय मित्रों में से एक रहे। हरीश अपनी अधिकांश मन की बातों को मेरे साथ बांट लेने व विश्लेषित करना चाहता था। मैं भी किसी भी अन्य की तुलना में अपनी अनेक बातें उस से साझा कर सकता था क्योंकि हम दोनों ही यह मानते थे कि हम दोनों इसके लिए सुपात्र हैं। जब कभी मैं दुखी होता था तब वह कहता था कि हम मध्यमवर्गीय लोगों में पीढीगत तनाव स्वाभाविक है। अपनी बात के समर्थन में वह अपने घर की कुछ निजी बातें भी बताता था जिससे मुझे लगने लगता था कि – दुनिया में कितना गम है, अपना दुख कितना कम है।  

सात आठ बहिन भाई के उस कुनबे में सब कुछ अनियोजित था और अपनी शिक्षा के लिए हरीश को कभी सुरेश भाईसाहब [एडवोकेट ग्वालियर] , या दिनेश भाई साहब मजिस्ट्रेट के यहाँ रहना पड़ा। भाइयों के अपने अनुशासनात्मक नियमों और भाभियों के लिए अयाचित मेहमान से उपजे द्वन्द से निबटने में उसे कथा साहित्य से जो दृष्टि मिली उसने उसे दृष्टा बना दिया था और वह सारे संकटों को हँस कर सह सकता था। इसी क्रम में उसने अपने भाइयों के जीवन के बारे में जो बातें बतायीं, उसी से मैंने दिनेश भाई साहब को जाना।  उनके पास रहते हुए उसने मेरे बारे में भी शायद उन्हें कुछ अच्छा अच्छा बताया होगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे मेरे प्रति मित्रता का भाव रखने लगे थे। उन दिनों मैं देश भर की पत्रिकाओं में छोटी छोटी व्यंग्य रचनाओं के माध्यम से खूब प्रकाशित हो रहा था। दिनेश जी में प्रकाशन के प्रति गहरा रुझान था और वह इस सीमा तक था कि 1976 के दौरान जब धर्मयुग में उपसम्पादक की जगह निकली तो उन्होंने उस के लिए आवेदन किया था। संयोग से मैं उन्हीं दिनों मुम्बई में धर्मयुग कार्यालय मे गया था तो मनमोहन सरल जी के साथ बातचीत में प्रसंग निकल आया। जब मैंने उनके आवेदन की चर्चा की तो सरल जी ने आश्चर्य से पूछा कि वे तो मजिस्ट्रेट के पद पर पदस्थ हैं। हरीश के माध्यम से मैं उन्हें जितना जान पाया था उसके आधार पर मैंने उन्हें बताया कि भले ही वे मजिस्ट्रेट के पद पर हैं, किंतु तोते की जान कहीं और बसती है। तब तक उनकी कहानियां धर्मयुग सारिका आदि में छप चुकी थीं और भी अनेक पत्रिकाओं में वे छप रहे थे। उनका पद भी इसमें मदद कर रहा था।

उन दिनों हिन्दी में ‘आज़ाद लोक’ और ‘अंगड़ाई’ नाम से दो पत्रिकाएं प्रकाशित होती थीं जिनमें प्रकाशित  कथाओं की कथावस्तु अश्लील मानी जाती थी। दिनेशजी इन पत्रिकाओं में कथात्मक स्तम्भ लिखते थे। पत्रिका का सम्पादक प्रकाशक लेखकों में सबसे ऊपर उनका नाम छापता था और साथ में प्रथमश्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट लिखना भी नहीं भूलता था। इस तरह वह अपनी पत्रिकाओं को थोड़ी वैधता और गरिमा प्रदान करने की कोशिश कर लेता था। अपने उक्त स्तम्भ के बारे में दिनेश जी का मुझसे कहना था कि वे तो केवल किसी बलात्कार, देह व्यापार के किसी मुकदमे की केस डायरी लिख देते हैं और उनमें अश्लीलता जैसी कोई चीज पिरोयी नहीं जाती। इसी निजी बातचीत में उन्होंने यह भी कहा था कि ये पत्रिका मुझे एक कहानी के चार सौ रुपये देती हैं जिनके सहारे मैं ईमानदार बना हुआ हूं। उल्लेखनीय है कि उनकी न्यायिक सेवाओं के प्रारम्भिक दौर में उनकी ईमानदारी और कठोर अनुशासन की बहुत ख्याति रही है। टीकमगढ जिले में कोई नामी गुंडा था जिसे पुलिस अदालत का सम्मन तामील नहीं कर पाती थी और बार बार आकर यह कह देती थी कि वह मिलता ही नहीं है। दिनेश जी ने पुलिस इंस्पेक्टर से कहा कि अपनी जीप बुलाओ और उस जीप में खुद बैठ कर आरोपी के घर पहुंचे और अन्दर घुसकर उसे गरेबान से पकड़ कर पीटते हुए ले आये। मजिस्ट्रेट के काम करने का यह तरीका बहुत चर्चा का विषय रहा।

उनकी कोर्ट कुछ दिनों के लिए टीकमगढ की जतारा तहसील में भी लगती थी। उन्होंने धर्मयुग में प्रकाशित अपने न्यायिक संस्मरणों में उसकी एक घटना की चर्चा की है जिसमें न्याय के लिए बार बार चक्कर लगाती एक बुढिया कहती है कि उसे हर बार फैसले की जगह ‘ जौ कागज कौ टूंका मिल जात है’ [अगली तारीख की कगज की पर्ची] । बाद में फिल्मी दुनिया का ऐसा ही डायलाग बहुत चर्चित हुआ था कि तारीख पै तारीख, तारीख पै तारीख... । हो सकता है कि डायलाग लेखक ने इसे इसी सच्चे संस्मरण में से लिया हो।  

जब उन्होंने मुझे आज़ादलोक और अंगड़ाई में लिखने की मजबूरी बतायी थी उन्हीं दिनों की बात है कि देश भर के प्रथमश्रेणी मजिस्ट्रेटों ने अपनी वेतंनवृद्धि की मांगों को लेकर दिल्ली में जलूस निकाला था और देश को बताया था कि उनकी तनख्वाहें बैंक के चपरासियों से भी कम हैं। तब तत्कालीन कानून मंत्री या वित्तमंत्री ने कह दिया था ‘ तो जाकर बैंक में चपरासी हो जाओ’। उसे याद करते हुए वे बहुत तल्खी के साथ कहते थे कि वीरेन्द्र तुम बैंक में बाबू हो और तुम्हारी तनख्वाह मुझ से भी ज्यादा है।

इसी से जुड़ा एक और किस्सा है कि एक जिले में एक महिला वकील जो सोशल एक्टविस्ट भी थीं उन से ऐसे बोलीं जैसे वे उनका बहुत बड़ा रहस्य जान गयी हों कि मजिस्ट्रेट साब आप तो बहुत पढे लिखे प्रतिष्ठित  साहित्यकार हो, पर ऐसी पत्रिकाओं में क्यों लिखते हो। उन्होंने उत्तर दिया कि यह तो मैं बाद में बताऊंगा, पहले तो आप यह बताओ कि ऐसी पत्रिकाएं आप तक कैसे पहुंच गयीं?  महिला वकील चुपचाप चली गयीं।

दिनेशजी दुस्साहसी, निर्भय और बेपरवाह थे। उन्होंने अपनी शर्तों पर जीवन जिया। वे अफसरों की दावतों में छुरी कांटे से खाने की जगह हाथ से खाना शुरू कर देते थे जिनकी देखादेखी दूसरे अनेक लोग भी उनका अनुशरण करते थे। वे रूढियों, परम्पराऑं के अन्धे गुलाम नहीं थे। जब वे सागर में पदस्थ थे तब उन्होंने अपनी एक बेटी की शादी वहाँ के एक बड़े वकील के बेटे से कर दी थी। शादी के दूसरे दिन मैं किसी काम से सागर गया तो एडवोकेट महेन्द्र फुसकेले बोले यार यह तुम्हारा दोस्त कैसा है, पूरी शादी में इसने अपने समधी से इस तरह का व्यवहार किया जैसे कोर्ट में कोई मजिस्ट्रेट अपने वकील से करता है। जब मैं उन से घर पर मिलने गया तब तक वे अपने सारे मेहमानों को विदा कर चुके थे। उन्होंने शादी के बारे में तो कोई बात नहीं की किंतु तुरंत वीसीआर खोल कर बैठ गये और बोले देखो मेरी कहानी पर एक फिल्म बनी है।

एक विधवा से दूसरा विवाह कर लिया, पहली पत्नी गाँव चली गयीं जहाँ उनकी पैतृक जमीन थी, किंतु कुछ वर्षों बाद वहाँ उनके नौकर ने उनकी हत्या कर दी। एक बेटा अविवाहित रहा, बेटी का तलाक हो गया किंतु वे सब सहन करते गये।  

पिछले वर्षों में उन्हें सुनायी देना कम हो गया था और अगर किसी समारोह में मिल जाते तो खुद जोर जोर से बोलते और सामने वाले को भी बाध्य करते। इससे समारोह के श्रोताओं और कार्यक्रम में व्यवधान पड़ता। किंतु वे निरपेक्ष रह कर अपनी बात करते रहते। हर बार उनकी किताबों की संख्या बढ जाती। एक फिल्म में भूमिका निर्वहन के लिए वे दण्डित भी किये गये और नौकरी छोड़ना पड़ी।

किसी की परवाह किये बिना, उन्होंने घटनाओं से भरा जीवन जिया। ऐसे लोग मुझे बहुत भाते रहे हैं, पर उनका प्रशंसक होते हुए भी कभी उनका अनुशरण नहीं कर सका। उनका मित्र होने पर गौरवान्वित महसूस करता रहा हूं । वे अनेक दंतकथाएं छोड़ गये हैं इसलिए याद आते रहेंगे।

दिनेश भाईसाहब को विनम्र श्रद्धांजलि।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

 

 

शुक्रवार, अगस्त 27, 2021

श्रद्धांजलि / संस्मरण वाहिद काज़मी

 

श्रद्धांजलि / संस्मरण वाहिद काज़मी

एक मस्त मलंग यायावर का चला जाना

वीरेन्द्र जैन


वाहिद काज़मी मेरे ऐसे दोस्त थे जिनसे मैं कभी नहीं मिला, किंतु ऐसे इकलौते दोस्त भी थे जिनसे मैंने अपनी आदत के विपरीत अपने जीवन की निजी बातें भी पत्र में लिखी थीं। आज जब उनके निधन का समाचार मिला तो विचार करने के लिए विवश हुआ कि पता नहीं ऐसा क्या था जो मैं उनके साथ अपना अंतर मन साझा कर सका।

पिछले पचास साल से जब से मैंने पहले पढना और फिर लिखना सीखा तब से देश भर की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विषयों व विधाओं पर उनका लिखा हुआ पढने को मिला। सबसे ज्यादा मुझे उनके नाम ने आकर्षित किया था- स्वामी वाहिद काजमी। ये वही दिन थे जब रजनीश जी जो तब आचार्य रजनीश हुआ करते थे, ने अपने प्रवचनों और वक्तव्यों से पूरे हिन्दी क्षेत्र के पढने लिखने सोचने विचारने वालों के बीच तहलका मचा दिया था और लाखों लोगों की तरह मैं भी उनके भाषा माधुर्य और तार्किकता के प्रभाव में था। उन दिनों मैं अमृता प्रीतम, और रजनीश की किताबें तलाश तलाश कर पढ रहा था। एक अंग्रेजी के पत्रकार ने उन पर जो लेख लिखा था उसका शीर्षक था – प्लेजर आफ रीडिंग रजनीश। आप उन्हें मानें या न मानें किंतु रजनीश को पढने में किसी कथा या व्यंग्य साहित्य को पढने का मजा तो आता ही था। वाहिद काजमी के आगे स्वामी लग जाने से यह संकेत तो मिल ही र्हा था कि एक अपेक्षाकृत कट्टर समुदाय का व्यक्ति भी रजनीश के विचारों से प्रभावित हुआ है व अपनी धर्मिक कट्टरता को छोड़ कर अपना चुनाव खुद करने का साहस दिखा रहा है। किसी भी क्षेत्र की क्रांतिकारिता  मुझे लुभाती थी क्योंकि इससे अपनी सोच और विचार को बल मिलता था।

हम अपने नगर के सभी लोगों को नहीं जानते किंतु फिर भी अगर सुदूर कोई मिल जाता है तो आत्मीयता उमड़ आती है। वाहिद काजमी ने संतों विशेष कर सूफी संतों के बारे में बहुत खोज खोज कर लिखा है और इसी क्रम में उन्होंने 50-55 साल पहले दतिया के एक सूफी संत ऐन सांई पर भी एक लेख कादम्बिनी में लिखा था और कादम्बिनी के पुराने अंक देखते हुए उस पर दोबारा नजर पड़ गयी थी। लगा कि जब उसे पहली बार पढा होगा तभी वाहिद काजमी का नाम कहीं दिमाग में आत्मीय लोगों में दर्ज हो गया होगा। तब तक मुझे यह पता नहीं था कि वे ग्वालियर के मूल निवासी हैं और हमारी दतिया के पड़ोसी हैं।

जब मुझे पत्रिकाओं में छपने का शौक जागा तो हर नई पत्रिका मुझे चुनौती की तरह लगती थी कि इसमें छपना है,  इस शिखर पर चढना है। इसलिए हर स्तर की पत्रिकाओं के सम्पर्क में आता गया और अनेकों में एक बार छप कर छोड़ दिया। मैंने देखा कि लगभग उन सारी पत्रिकाओं में कहीं न कहीं वाहिद काज़मी मौजूद मिलते थे। हंस, वर्तमान साहित्य से लेकर दक्षिण समाचार तक की बहसों में हम लोग शामिल मिलते थे और लगभग एक ही तरफ होते थे। स्मरणीय है कि दक्षिण समाचार श्री मुनीन्द्रजी द्वारा सम्पादित साप्ताहिक टेबुलाइज्ड पत्र था जिसमें साहित्य को विशेष स्थान मिलता था। मुनीन्द्र जी हिन्दी की उन पुरानी साहित्यिक पत्रिकाओं में से एक कल्पना के सम्पादक मंडल के प्रमुख रहे थे जिसमें उनके साथ भवानी प्रसाद मिश्र, प्रयाग शुक्ल, ओम प्रकाश ‘निर्मल’ आदि अनेक लोगों ने काम किया था जो बाद में साहित्य के आकाश में सूरज की तरह चमके। हरिशंकर परसाई का व्यंग्य वहीं से स्तम्भ की तरह छपा जिसका नाम ‘और अंत में’ था। मुक्तिबोध की सुप्रसिद्ध कविता “ अंधेरे में “ वहीं पहली बार छपी थी और तब उसका शीर्षक दिया गया था “ सम्भावनाओं के दीप अंधेरे में”। जब मेरा ट्रांसफर हैदराबाद कर दिया गया था जिसे परसाई जी के शब्दों कहें कि फेंक दिया गया था तो मैंने इस चुनौती और भय मिश्रित दुस्साहस की सूचना अपने तमाम परिचितों को दी थी। परिणाम यह हुआ था कि जिससे भी सम्भव हुआ उसने हैदराबाद के अपने परिचितों को पत्र लिखा। शायद सबसे अधिक पत्र मुनीन्द्र जी को ही मिले होंगे और सम्भव है कि उसमें मेरी साहित्यिक औकात के बारे में कुछ अतिरंजित बातें भी लिखी हों। बहरहाल मुझे मुनीन्द्र जी का विशेष स्नेह मिला और लिखने के लिए दक्षिण समाचार जैसा खुला प्लेटफार्म मिला। मैंने उस खुलेपन का भरपूर उपयोग किया। दक्षिण समाचार कल्पना से जुड़े रहे देश भर के सभी प्रमुख साहित्यकारों के पास पहुंचता रहा व उसके सहारे मैं भी पहुंचता रहा। मेरे गद्य व्यंग्य लेखन ने वहीं से गति पकड़ी। मैं हैदराबाद से स्थानांतरित भी हो गया किंतु दक्षिण समाचार में प्रकाशित होना जारी रहा। इस पत्र में स्वामी वाहिद काजमी भी समय समय पर लिखते रहते थे जिसमें मेरा और उनका पता भी छपता रहता था। इसी के सहारे उनसे तब छुटपुट पत्रव्यवहार शुरू हुआ जब मैं 1990 में लीड बैंक आफिस में दतिया वापिस लौट आया था। शायद इसी दौरान मुझे ज्ञात हुआ कि वे ग्वालियर के ही रहने वाले हैं और अपने स्वतंत्र लेखन के शौक में अकेले जिन्दगी गुजार रहे हैं। मैंने भी ऐसी जिन्दगी गुजारनी चाही थी किंतु अपनी जिम्मेवारियों से मुँह न मोड़ सकने के कारण वैसा नहीं कर सका। जब कोई ऐसा करता दिखता था तो मेरे मन में उसके प्रति बड़ी श्रद्धा उमड़ती रही। वाहिद काजमी के प्रति श्रद्धा व स्नेह में शायद इस कारक की भी भूमिका रही हो।

जब मैं भोपाल आकर रहने लगा तब कई वर्षों बाद उनका पत्र आया कि आपके नाम के मेरे एक मित्र दतिया में भी हैं। उत्तर में मैंने लिखा कि मैं वही हूं और नौकरी छोड़ कर अब भोपाल ही रहने लगा हूं व ज्यादातर समय यहाँ अकेले ही रहता हूं क्योंकि अभी बच्चे दतिया में ही हैं। इसी क्रम में निजी बातों और निजी अनुभवों का सिलसिला चल निकला। बात यहाँ तक पहुंच गयी कि उन्होंने अम्बाला छोड़ कर भोपाल में बसने का प्रस्ताव कर दिया व रहने का ठिकाना मिलने तक मेरे यहाँ ही रहने का प्रस्ताव कर डाला। मैं असमंजस में पड़ गया क्योंकि मैं उनके समान स्वतंत्र नहीं था व मेरा परिवार आता जाता रहता था जिसे किसी भी तरह के बाहरी व्यक्ति का घर में रहना बिल्कुल भी पसन्द नहीं आ सकता था, चाहे वह कोई रिश्तेदार ही क्यों न हो।     

उन्हें सुनने में समस्या थी इसलिए वे टेलीफोन का प्रयोग नहीं करते थे इसलिए उनसे जितनी भी बात हुयी वह पत्रों के माध्यम से ही हुयी। उनकी स्मृति जरूर बहुत अच्छी थी। एक बार उन्होंने दस साल पहले धर्मवीर भारती पर लिखा एक लेख मांग लिया जो मुझे भी याद नहीं था। फिर उन्होंने बताया कि वह फलां सन में दक्षिण समाचार में प्रकाशित हुआ था। संयोग से वह मिल गया और मैंने उन्हें भेज दिया किंतु मैं उनकी स्मृति पर चमत्कृत था। इसी तरह उन्होंने किसी पत्रिका के महिला विशेषांक के लिए मुझसे लेख मांगने के लिए प्रतिष्ठित लघु पत्रिका सम्बोधन के सम्पादक को लिख दिय। सम्पादक का पत्र आया तो मैं असमंजस में था पर उन्होंने ही याद दिलाया कि हंस में छिड़ी एक बहस में जो मेरे विचार थे उसे ही विस्तार देकर लिख दूं। वह अच्छा खासा लेख बन गया जो अन्यथा मैंने नहीं लिखा  होता।

जब शीबा असलम फहमी ने अपनी पत्रिका ‘हैड लाइंस प्लस’ निकाली तो राजेन्द्र यादव के इशारे पर मैंने उसमें नियमित लिखना शुरू कर दिया और देखा कि वहाँ भी वाहिद काजमी अपनी मौलिक खोजों के साथ मौजूद हैं। उनके एक शीर्षक का नाम तो अभी भी याद है जिसमें उन्होंने बताया था कि औरंगजेब का एक नाम नौरंगीलाल था और वह होली भी खेलता था।

उन्होंने सैकड़ों साल पहले के संतों की खोज तो की किंतु उनके निजी जीवन के बारे में ऐसे ही फुटकर फुटकर् सुनने को मिला। वे ग्वालियर में आंतरी से थे। शिक्षा में बीएससी पूरी नहीं कर सके। घर छोड़ कर चले आये व विभिन्न शहरों में रहते हुए अंततः 1989 में अम्बाला के पुल चमेली पर स्थित होटल में स्थायी निवास बना लिया। अपना खाना खुद बनाते थे और आजीविका के लिए स्वतंत्र लेखन पर निर्भर थे। उन्होंने शायराओं की विलुप्त पांडुलिपियों पर बहुत काम किया व विस्मृत हो गये संत साहित्य को सामने लाये। उनकी सहायता से सैकड़ों छात्रों ने पीएचडी की व उन्होंने बिना किसी लोभ लाभ के उनकी मदद की। वे चित्रांकन में भी महारत रखते थे भले ही अंतिम वर्षों में उनके हाथ कांपने के कारण यह विधा छोड़नी पड़ी। मेरे पास उनके जो दर्जनों पत्र हैं वे बहुत ही छोटे छोटे किंतु स्पष्ट सुन्दर अक्षरों में लिखे गये हैं। मैं उन्हें संक्षिप्त पत्र लिखता थ किंतु वे विस्तार से उत्तर देते थे।

4 दिसम्बर 1945 को जन्मे वाहिद काजमी ने ‘रूपा की चिट्ठी’ पत्रिका में कई वर्ष काम किया। कहानी लेखन महाविद्यालय के महाराज कृष्ण जैन के सहयोगी रहे, हिन्दी के जाने माने साहित्यकार ‘रावी’ के बहुत आत्मीय रहे। पता नहीं यह गिनती कितनी सही है क्योंकि संख्या ज्यादा भी हो सकती है, पर उनके मित्र बताते हैं कि उनके एक हजार से ज्यादा लेख, समीक्षाएं, व्यंग्य, संस्मरण, और कहानियां प्रकाशित हैं। उन्होंने दो सौ से अधिक उर्दू उपन्यासों के अनुवाद किये हैं। उनकी एक कहानी लानतव उनकी जीवनी आज भी केरल विश्वविद्यालय में स्नातक के छात्रों की अंग्रेजी पुस्तक रीडिंग एंड रियलिटीका हिस्सा है। क्रमशः उनकी सुनने की क्षमता कम होती गयी थी किंतु उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर संगीत पर ढाई सौ से अधिक लेख लिखे जिनमें से बहुत सारे काका हाथरसी की संगीत कार्यालय से प्रकाशित पत्रिका संगीत में प्रकाशित हुये। संगीत अमृत महोत्सव में उन्हें संगीत मर्मज्ञ की उपाधि से विभूषित किया गया था। हरियाणा सरकार के 10 बड़े खंडों में विभक्त साहित्य हरियाणा इनसाइक्लोपीडियामें भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। इसके लिए न केवल उन्होंने लिखा, बल्कि वह एक खंड की परामर्श समिति के सदस्य भी रहे। उनकी सिने संगीतपुस्तक भी विशेष वर्ग में लोकप्रिय रही। इसमें सिने संगीत पर उनके गूढ़ शोध लेख शामिल हैं।

सभी धर्मों को मानने का दावा करने वाले वाहिद कजमी मानते थे कि मैं इतने धर्मस्थलों तक कैसे जा सकता था इसलिए मेरी कर्मभूमि ही मेरा धर्मस्थल रहा है। एक मुस्लिम परिवार में पैदा होकर भी वे नवाज पढने कभी मस्जिद नहीं गये। वे मेडिकल कालेज को अपनी देह दान कर गये थे किंतु कोरोना पाजटिव होकर ठीक हुये लोगों की देह मेडिक़ल कालेज स्वीकार नहीं करते इसलिए उनके मित्रों ने परम्परागत रूप से उनका अंतिम संस्कार कर दिया था।

उनके निधन की सूचना मुझे उनकी मृत्यु के चार महीने बाद अचानक अम्बाला के विकेश निझावन से बातचीत होने पर लगी। कोरोना काल में सूचनाओं का भी लाक डाउन रहा क्योंकि जब मैंने उनसे परिचित साहित्यकार राम मेश्राम और अनवारे इस्लाम से पूछा तो उन्हें भी इस खबर का पता नहीं था।

 

भविष्य में जब कोई उन पर शोध करेगा तब पता चलेगा कि हमने कोरोना काल में ना जाने  कितने लोगों को ऐसे ही खो जाने दिया था।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

  

 

सोमवार, अगस्त 16, 2021

स्मरण नामवर सिंह - हमने फिराक को देखा है

 

स्मरण नामवर सिंह - हमने फिराक को देखा है

वीरेन्द्र जैन


फिराक गोरखपुरी ने कहा था

आने वाली नस्लें तुम पर फक्र रश्क करेंगी हमअस्रों

जब उनको ये मालूम होगा तुमने फिराक को देखा है  

हम लोग जिन्होंने नामवर सिंह को देखा है, वे भी ऐसे ही फक्र के हकदार होंगे। नामवर सिंह ने पूरे देश के कम से कम छह चक्कर लगाये थे व अमेरिका को छोड़ कर पूरी दुनिया में घूम चुके थे। ऐसा करते हुए वे देश और दुनिया के इतने सारे लोगों से मिले होंगे कि सब को याद रखना सम्भव नहीं, किंतु जिन लोगों से वे मिले होंगे उनके जीवन में वह क्षण इतिहास बन गया होगा और उन्हें याद होगा। आज जब नामवर सिंह दुनिया में 93 वर्ष बिता कर विदा हो चुके हैं तो अपनी ज़िन्दगी के उन ऎतिहासिक क्षणों की याद आना स्वाभाविक है जब हमने  “ फिराक को देखा था”।

हिन्दी साहित्य का पाठक और फिर छोटा मोटा लेखक हो जाने के बाद हजारों लेखकों के दिमाग में यह सपना रहा है कि काश उनकी किसी किताब पर नामवर सिंह की निगाह पड़ जाये और अगर कुछ लिख दें तो वह धन्य हो जाये। मेरे लिए तो यह सपना देखना भी दुर्लभ था। जब कहीं नामवर सिंह का लेख पढने को मिल जाता तो किसी धार्मिक पाठ की तरह जरूर पढता था। साहित्य की राजनीति की चर्चाओं में जब उन्हें अपनी राजनीति सोच के नेतृत्व में पाया तो एक आत्मीयता सी महसूस हुयी, दूसरी ओर अपनी सोच को भी ताकत सी मिलती दिखी। नामवर जी के दुश्मन मुझे अपने दुश्मन दिखने लगे। हाथरस में बागला कालेज के प्रोफेसर डा. रामकृपाल पांडे कभी जोधपुर विश्वविद्यालय में उनके वाइस चांसलर रहते नियुक्त हुये थे और राजनीतिक कारणों से हटाये गये थे। मैं 1976 में जब हाथरस में पदस्थ हुआ तो पांडे जी मेरे मित्र बने, व उनके बारे में बहुत सारी बातें बताया करते थे। मैनेजर पांडे जी भी उनके ही साथ थे और उनके साथ भी वही व्यवहार हुआ था।  

उनका पहला भाषण 1982 में जबलपुर में सुनने को मिला था। मैं पहली बार बैंक मैनेजर पोस्ट हुआ था व चार्ज लेने की प्रक्रिया में था, दूसरी ओर जिसे चार्ज देना था वह टाल रहा था। मुझे भी कोई जल्दी नहीं थी व इस प्रकार वेतन लेकर भी लगभग खाली बैठा था। अचानक ज्ञानरंजन जी का फोन आया कि नामवर जी का भाषण है और फलां फलां हाल में पाँच बजे पहुंचो। मैं लगभग कथा वार्ता सुनने वाले भक्त की तरह श्रद्धा भाव से पहुँच गया था। ज्ञान जी से पत्र व्यवहार तो पहले भी रहा था किंतु साथ ताजा था इसलिए मैं उम्मीद कर रहा था कि ज्ञानरंजन जी के सहारे नामवर जी से परिचय के साथ उन्हें प्रणाम का अवसर मिल जाये। किंतु पूरे भाषण के बाद भी ज्ञानरंजन जी नहीं दिखे। पूछने पर पता चला कि वे तो अपने घर पर होंगे। यह बात बाद में पता चली थी कि ज्ञान जी आम तौर पर नेपथ्य में रह कर ही काम करते हैं और मंच से बचते हैं। नामवर जी को सामने से सुनने का वह पहला अवसर था। बाद में 1986 में जब प्रगतिशील लेखक संघ का स्वर्ण जयंती समारोह का ऎतिहासिक आयोजन लखनऊ में हो रहा था तब मैं बैंक में इंस्पेक्टर था और उन दिनों लखनऊ की ही ब्रांच का आडिट कर रहा था, सो छुट्टी लेकर पूरा कार्यक्रम देखा था। तब कैफी आज़मी, शौकत आज़मी, नागार्जुन आदि अनेक साहित्य के सितारों के साथ लाइन में लग कर लंच लेने का गौरव महसूस किया था। तब तक मैं इस निष्कर्ष पर पहुँच चुका था कि किसी विशिष्ट व्यक्ति से तब तक मत मिलो जब तक कि ऐसा कोई कारण न हो कि वह तुम्हें याद रख सके। 1994 में जब मैं भोपाल पदस्थ हुआ तब नामवर जी समेत हिन्दी उर्दू साहित्य के सभी सितारों को बार बार सुनने का मौका मिलता रहा। मैंने आफिस से छुट्टी लेकर भी उन्हें सुनने का शौक पूरा किया है। राजेन्द्र यादव ने तो एक बार कहा था कि आप लोग तो नामवर जी को यहीं भोपाल में बसा लो ताकि उन्हें बार बार आने जाने की तकलीफ न उठाना पड़े। विभिन्न विश्व विद्यालयों, यूजीसी के कार्यक्रमों, साक्षात्कारों आदि के लिए उनका भोपाल ही नहीं देश भर में आना जाना लगा रहता था। हिन्दी साहित्य की उच्च शिक्षा के क्षेत्र में स्थान बनाने के लिए उनकी कृपादृष्टि जरूरी मानी जाती थी। कुछ लोग तो उन्हें हिन्दी साहित्य का डान भी कहने लगे थे।

शिवपुरी में कथाकार पुन्नी सिंह जी ने प्रगतिशील लेखक संघ के तत्वाधान में ‘दलित कलम’ के नाम से एक आयोजन किया था जिसमें नामवर सिंह, राजेन्द्र यादव, मैनेजर पांडे, कमला प्रसाद. भगवत रावत के साथ साथ दलित साहित्य से जुड़े अनेक मराठी लेखक आमंत्रित थे। दतिया से डा. के. बी. एल. पान्डेय, राजनारायन बोहरे, कामता प्रसाद सड़ैया के साथ मैं भी पहुंचा था। इस अवसर पर उपस्थिति का लाभ लेने के लिए अनेक लोगों ने अपनी अपनी पुस्तकों का विमोचन करा लेना चाहा था। कुछ ही महीने पहले व्यंग्य कविताओं की मेरी एक पुस्तक छपी थी ‘देखन में छोटे लगें’ । मेरे एक मित्र ने उन्हीं दिनों नई प्रैस डाली थी और जिद करके मेरी किताब छापने के लिए चाही। मजबूरन मैंने पूर्व में धर्मयुग कादम्बिनी आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित व्यंग्य कविताएं, क्षणिकाएं आदि को समेट कर उन्हें दे दी थीं जिन्हें पुस्तक का रूप देने का उन्होंने पहला प्रयोग कर डाला था। उन दिनों मैं  जो अच्छा पढ रहा था उसे देखते हुए यह प्रयास बचकाना सा था किंतु राज नारायन बोहरे जी जो खुद भी प्रैस मालिक के मित्र थे ने कुछ पुस्तिकाएं साथ रख ली थीं। इस आयोजन के एक भाग में पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम भी रखा गया था और मुझे आश्चर्य में डालते हुए मेरी किताब भी उनमें शामिल थी। इसका विमोचन किन्हीं मराठी लेखक ने किया था जिनका नाम मैं अक्सर भूल जाता हूं। शाम को राजनारायन बोले कि नामवर जी बगैरह को किताब भेंट करने चलते हैं। मुझे ऐसा लगता था कि वह किताब मेरे [अपने अनुमानित] कद को घटायेगी इसलिए मैंने साफ मना कर दिया और कहा कि ऐसी किताब उन्हें देने का कोई मतलब नहीं, और देना हो तो तुम खुद ही दे देना। और वैसा ही हुआ।

एक बार जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तब एक सेमिनार में लगभग सभी वक्ताओं ने सरकार पर पाठ्यक्रमों के भगवाकरण का आरोप लगाया पर जब नामवर जी के बोलने का नम्बर आया तो वे बोले कि पाठ्यक्रम वे कुछ भी बदल लें पर उसे पढायेगा तो अध्यापक ही। यह उनके उस आत्मविश्वास की झलक देता था कि देश की उच्च शिक्षा के क्षेत्र में जिस परीक्षण से गुजर कर नियुक्तियां हुयी हैं, वे प्रोफेसर पाठ्यक्रमों में बदलाव के बाद भी न्याय करेंगे। भोपाल आकर वे कहते थे कि कमला प्रसाद और भगवत रावत मेरी दो आँखें हैं। दोनों लोग ही सरकार की अकादिमियों में बड़े बड़े पदों पर रहे थे और समय समय पर उनसे मार्गदर्शन लेते रहते थे। पाठक मंच योजना से लेकर अन्य जो भी अच्छी योजनाएं मध्य प्रदेश में लागू हुयीं उन्होंने हिन्दी साहित्य को जनता के बीच बचाये रखने में बहुत मदद की। पुस्तकों के चयन और महत्वपूर्ण साहित्य के रचनाकारों को सम्मानित किये जाने में भोपाल ने जो बढत ली, उसमें नामवर जी के मार्गदर्शन और कमलाप्रसाद जी की कर्मठता का बड़ा योगदान रहा।   

मैं सदैव साहित्य के हाशिए के लोगों में रहा क्योंकि न तो विश्वविद्यालीन लोगों जैसा अकेडिमक था और ना ही किसी चर्चित कृति का रचनाकार था, पर पाठक ठीक ठाक रहा। कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव जैसे लोगों का प्रशंसक व पाठक रहा। इसी तरह के अध्ययन के सहारे एक दो बार नामवर जी के विचार को काटने का दुस्साहस भी किया और उनकी नाराजी भी झेली। मैं ना तो किसी पद पर था और ना ही किसी पुरस्कार की दौड़ में था इसलिए निर्भय था। एक कार्यक्रम में दूधनाथ सिंह की कहानी  शायद ‘नमो अन्धकार:’ पर उन्होंने कुछ कहा जिससे मैं सहमत नहीं था। मैंने कोई सवाल पूछ लिया जो उन्हें नागवार गुजरा। उन्होंने किंचित आवेश में कहा कि दूधनाथ सिंह मेरे रिश्तेदार हैं किंतु आलोचना में रिश्तेदारी नहीं चलती।

ऐसे ही इलाहाबाद के सत्यप्रकाश जी द्वारा आयोजित किसी बड़े होटल में एक वर्कशाप था और मैं भी भागीदार था। इस कार्यक्रम में नामवरजी और दूधनाथ सिंह जी दोनों आमंत्रित थे। उन्हीं दिनों मेरी नई किताब आयी थी। जिन लोगों की भी पिछले दिनों चार छह लोगों की किताबें आयी थीं वे सभी दोनों लोगों को किताबें भेंट कर धन्य हो रहे थे किंतु मैं जानता था कि नामवर जी को तो उन किताबों के पन्ने पलटने का भी मौका नहीं मिलेगा किंतु दूधनाथ सिंह जी अवश्य एक बार मेरे व्यंग्य पाठ के कार्यक्रम में मेरे व्यंग्य की प्रशंसा कर चुके थे। नामवर जी कनखियों से देख रहे थे कि चलन के विपरीत मैंने उन्हें किताब न देकर केवल दूधनाथ सिंह जी को किताब दी थी। बाद में आपसी बातचीत में उन्होंने दूधनाथ सिंह जी पर व्यंग्य भी किया था कि अब तो तुम्हें किताबें भी मुझ से ज्यादा मिलने लगी हैं।

म.प्र. में सरकार बदल गयी थी और देश भर में सबसे अधिक सक्रिय प्रदेश की सांस्कृतिक नीति लगभग लकवाग्रस्त हो गयी थी। पूर्व मंत्री व अर्जुन सिंह के पुत्र अजय सिंह ने एक प्रतिरोध सभा आयोजित की थी जिसमें नामवर सिंह जी भी आमंत्रित थे। सारे लेखक एक स्वर से सरकार को कोस रहे थे और विरोध का आवाहन कर रहे थे। संचालक रामप्रकाश जो मुझे बोलने के लिए कहना भूल गये थे को अचानक याद आया तो कार्यक्रम के अध्यक्ष नामवर सिंह जी से ठीक पहले मुझ से बोलने के लिए कहा। मैंने धारा के विपरीत जाकर कहा कि हम लोग कितने पंगु हो गये हैं कि सांस्कृतिक नीति पर भी अपना विरोध दर्ज नहीं करा पाते और इस विरोध के लिए भी राजनेताओं [अजय सिंह] की पहल का मुँह देखते हैं। स्मरणीय है कि श्री कमला प्रसाद जी साहित्य के क्षेत्र में जो भी उल्लेखनीय कर सके हैं, उसमें अर्जुन सिंह और अजय सिंह जी का विशेष सहयोग रहा था। अजय सिंह जी मंत्री रहते हुये कमलाप्रसाद जी के सभी सुझाव मानते रहे। मेरे बोलने से वातावरण में कुछ तनाव सा पैदा हो गया था, जिसे महसूस करके नामवर सिंह जी ने अपने प्रभावी वक्तव्य से दूर किया।

नईम जी की पहली पुण्यतिथि देवास में मनायी गयी थी जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में नामवरजी को आमंत्रित किया गया था। आयोजकों में मेरे मित्र श्री राम मेश्राम विशेष प्रेरक की भूमिका में उपस्थित थे और उनके साथ मैं भी अपने प्रिय कवि को श्रद्धा सुमन अर्पित करने गया था। तब उनके साथ दोपहर का भोजन करने और कुछ बातचीत का भी मौका मिला था किंतु ना ही उनकी आँखों में कोई पहचान उभरी थी और ना ही मैं ने अपने परिचय का कोई प्रयास किया।

स्मृतियां बहुत छोटी छोटी हैं और सार्वजनिक रूप से इनका कोई महत्व भी नहीं है, किंतु मुझे याद हैं क्योंकि नामवर जी का कद बहुत बड़ा रहा है, इसलिए क्षमा याचना के साथ वही पंक्ति दुहराते हुए दर्ज कर रहा हूं कि मैंने फिराक को देखा है।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

       

 

सोमवार, जून 28, 2021

धर्मवीर भारती – संस्मरण धर्मवीर भारती- साहित्य के कुम्भकार थे

 

धर्मवीर भारती – संस्मरण

धर्मवीर भारती- साहित्य के कुम्भकार थे

वीरेन्द्र जैन

[ आज एक व्हाट’स एप्प ग्रुप ‘व्यंग्यकार’ में शरदजोशी का एक भाषण सुना जो उन्होंने धर्मवीर भारती के सम्मान में आयोजित एक समारोह में दिया था। इससे मुझे लगभग 25 वर्ष पहले लिखा अपना एक लेख याद आ गया जो ‘हैदराबाद समाचार’ [नया नाम दक्षिण् समाचार] में 15 अक्टूबर 1997 में प्रकाशित हुआ था। मैं तो इसे भूल ही गया था किंतु बेहद प्रतिभाशाली लेखक स्वामी वाहिद काज़मी [ अम्बाला] ने 2004 में याद दिला कर इसे मांग लिया था जिससे मुझे यह आत्म संतोष मिला था कि लिखा हुआ कहीं न कहीं दर्ज होता है। पता नहीं वाहिद काज़मी अब कहाँ हैं, लगभग एक दशक से उनसे सम्पर्क नहीं हुआ। वे फोन का स्तेमाल नहीं करते थे और पत्रों का उत्तर भी नहीं दे रहे। किसी को पता हो तो सूचना देने की कृपा करें। ]

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जब भारतीजी धर्मयुग के सम्पादक थे, उस दौरान मुझसे कई बार किशोरों ने पूछा था कि क्या इस पत्रिका का नाम इसीलिए ‘धर्मयुग’ है, क्योंकि इसके सम्पादक धर्मवीर भरती हैं। हर बार मेरा उत्तर नकार में होता था, पर हर बार ऐसा लगता था कि मेरे नकार में ज्यादा दम नहीं है। भले ही तथ्य के रूप में मेरी बात सही हो, पर ‘धर्मयुग’ ने भारतीजी के कार्यकाल से भारतीजी के कार्यकाल तक ही अपने को शिखर पर बनाये रखा और उनके जाने के बाद उसका क्रमशः उतार प्रारम्भ हुआ, जो उसे बन्द होने तक ले गया।

सन 1972 के होली अंक के लिए नये रचनाकारों से रचनाएं आमंत्रित की गयीं थीं और कुल प्रप्त लगभग 3100 रचनाओं में से धर्मयुग ने चौदह-पन्द्रह रचनाओं का चुनाव किया था। इन रचनाकारों में सूर्यबाला, प्रभु जोशी, सुरेश नीरव, आदि के साथ मेरा भी नाम सम्मलित था। [ तब मेरा नाम पूरा था अर्थात वीरेन्द्र कुमार जैन ] मेरी व्यंग्य रचना के चुनाव के बाद ही धर्मयुग ने इति नहीं कर दी, अपितु पत्र भेज भेज कर रचनाएं आमंत्रित कीं, ये पत्र मुझ जैसे नये रचनाकार के लिए किसी पुरस्कार से कम महत्व के नहीं थे। इसलिए मैंने भी अपना सम्पूर्ण श्रम और प्रतिभा का स्तेमाल करते हुए धर्मयुग की अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयास किया व मेरी रचनाएं उसी गर्मजोशी के साथ प्रकाशित भी हुईं। संयोग से मेरे हमनाम वरिष्ठ साहित्यकार श्री वीरेन्द्र कुमार जैन को ऐसा लगा कि हास्य-व्यंग्य हल्के स्तर की रचनाएं हैं और समकालीन साहित्यकारों को यह गलतफहमी हो सकती है कि वे हास्य-व्यंग भी लिखने लगे हैं। वे वरिष्ठ और आदरणीय थे और भारतीजी से पहले उनका नाम भी धर्मयुग सम्पादक के रूप में प्रस्तावित था। उनके इस प्रस्ताव का भारतीजी को भी बुरा लगा कि मेरे नाम की रचनाओं का प्रकाशन बंद कर दिया जाए। उन्होंने विनम्रता पूर्वक कहा कि मैं इस नाम का प्रकाशन बन्द कर दूंगा पर आप मुझे विश्वास दिला दीजिए कि उसके बाद कोई व्यक्ति वीरेन्द्र कुमार जैन नाम नहीं रखेगा, और रखेगा तो लिखेगा नहीं। और फिर मैं धर्मयुग में ही तो रोक सकूंगा पर आप कौन कौन सी पत्रिकाओं को रोक सकेंगे।

वे निरुत्तर होकर चले गये पर उन्होंने अपने प्रयासों में कमी नहीं आने दी। उन दिनों वे महावीर स्वामी पर अपना उपन्यास ‘अनुत्तर योगी’  लिख रहे थे और धर्मयुग आदि के मालिकों में से एक श्री श्रेयांस प्रसाद जैन को अपना लिखा हुआ सुनाने जाते थे क्योंकि श्रेयांस प्रसाद जी ने उन दिनों आँखों का आपरेशन कराया हुआ था और वे कुछ पढ नहीं पाते थे। इस स्थिति का लाभ लेते हुए जब उन्होंने दबाव बनाया तो भारतीजी को कहना पड़ा कि मैं इसे रोकूंगा तो नहीं पर इसके नाम में कुछ परिवर्तन का प्रयास करूंगा। भारती जी के सुझाव अनुसार मेरे नाम के साथ मेरे नगर का नाम भी धर्मयुग में लिखा जाने लगा। यह प्रयोग धर्मयुग के लिए सर्वथा नया था। इससे मेरी भी पूरे देश में एक अलग पहचान बन गयी थी।

‘धर्मयुग’ भले ही साहित्य-प्रधान पत्रिका रही हो पर वह मध्यमवर्गीय हिन्दी भाषी परिवारों की इकलौती साप्ताहिक पत्रिका का दर्जा पा सकी जिसकी पाँच लाख प्रतियां तक प्रकाशित हुईं।  उसमें समकालीन राजनैतिक, सामाजिक घटनाओं से लेकर महिलाओं, बच्चों, फिल्मों आदि सभी के बारे में इतनी संतुलित और विश्वसनीय सामग्री प्रकाशित होती थी कि आज अनेक लोगों के पास उनके कई वर्षों के अंक संकलित हैं।

हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में चमकने वाले अनेकानेक सम्पादक धर्मयुग से ही निकले हैं। इनमें सुरेन्द्र प्रताप सिंह, राजकिशोर, योगेन्द्र कुमार लल्ला, हरिवंश, सुदीप. शीला झुनझुनवाला, कन्हैयालाल नन्दन, आदि अनगिनित नाम हैं और रचनाकारों का तो कोई अंत ही नहीं है।

भारतीजी का अनुशासन बहुत कठोर था। वे किसी से भी ‘धर्मयुग’ कार्यालय में नियत समय के अलावा नहीं मिलते थे और अपने स्टाफ से भे याही अपेक्षा रखते थे। रचनाओं का अंतिम चुनाव वे स्वयं  करते थे और प्रतिभा को पूरा महत्व देते थे। साहित्य की राजनीति वे इतने खूबसूरत तरीके से करते थे कि उनके ऊपर सीधे सीधे कोई उंगली नहीं उठ सकती थी। यहाँ तक कि वे सम्पादकीय भी नहीं लिखते थे।

साहित्य के लिए पूरा जीवन समर्पित कर देने वाले व प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के लिए वे सदैव याद किये जायेंगे।

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[शरद जोशी का भाषण सुनते समय उक्त लेख में अप्रकाशित रह गई एक घटना याद आयी। 1975 में मैं कुछ दिनों के लिए मुम्बई में था और एक दिन धर्मयुग कार्यालय में गया तो सरल जी आदि से मिल कर जब आने लगा तो पाठक जी जो कार्यालय का प्रबन्धन देखते थे, ने कहा कि भारती जी से मिल कर जाना, उन्होंने पिछले दिनों तुम्हें पत्र लिखवाया था शायद मिला नहीं होगा। भारती जी एक बजे से पहले किसी से नहीं मिलते थे और मिलने वालों में एक महिला भी प्रतीक्षा रत थीं जो मुझ से पहले से बैठी थीं। भारती जी ने पहले मुझे बुलवा लिया तो वे बाहर स्टाफ से असंतोष के साथ पूछने लगीं कि ये कौन थे और इन्हें क्यों बुलवा लिया। जब लगभग 15 मिनिट बाद में बाहर आया तब उनका नम्बर आया। बाहर मुझे बताया गया कि वे उभरती हुयी फिल्मी कलाकार सविता बजाज थीं जो सहयोगी भूमिकाओं के साथ साथ धर्मयुग में फिल्मों पर लिखती भी थीं। उस दिन भारती जी ने नाम परिवर्तन के बारे में तो विस्तार से बताया ही था, साथ में याद किया कि उनके एक मित्र श्री बाबूलाल गोस्वामी दतिया में वे कैसे हैं? मैंने जब गोस्वामी जी को पत्र लिख कर बताया तो उनका भारती जी से सम्वाद स्थापित हुआ व उन्होंने एक खोजपूर्ण ऐतिहासिक लेख उनसे लिखवाकर धर्मयुग में प्रकाशित किया था। ]

रविवार, जून 27, 2021

कबीर जयंती पर कुछ औघड़ विचार

 

कबीर जयंती पर कुछ औघड़ विचार

वीरेन्द्र जैन




महीनों हो गये, कुछ भी नहीं लिखा। कविता जैसा जो कभी कुछ लिखता था उसे छोड़े तो वर्षों हो गये। लगता है कि अब बहुत लोग लिख रहे हैं, और अच्छा लिख रहे हैं। वे अखबारों में प्रकाशित भी हो रहे हैं, उनकी पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, समीक्षाएं भी आ रही हैं. गोष्ठियां विमोचन आदि के प्रमोशन कार्यक्रम भी चल रहे हैं। कई पुस्तकों को तो बिना जुगाड़ जमाये पुरस्कार भी घोषित हो रहे हैं. मिल भी रहे हैं। जब इतने सब के बाद भी समाज में कोई हलचल नहीं हो रही तो लगने लगा कि क्यों दूसरों के प्रतियोगी बनें! जिन्हें इस माध्यम से कुछ उम्मीदें हैं, उनके लिए जगह छोड़ दें। इसी बीच कोरोना आ गया मेल मुलाकातें बन्द हो गयीं। ‘मौखिक प्रकाशन’ तक बन्द हो गया और सारा जोर सोशल मीडिया पर आ गया। मैं भी फेसबुक पर अपनी भड़ास निकालने लगा। इसमें भी कुछ लोग विधा तलाशने लगे तो कुछ विषय वस्तु पर नाक भों सिकोड़ने लगे। लोग इतने परम्पारावादी हैं कि अभिव्यक्ति के किसी भिन्न स्वरूप को सहन ही नहीं करना चाह्ते। उन्हें वही मात्रिक छन्द या रामकथा जैसी कहानियों के आसपास ही सब कुछ होते दिखना चाहिए। गिंसवर्गों को पेंट की जिप खोलना पड़ती है। हलचलें उससे भी नहीं होतीं।

कबीर, नानक, दयानन्द सरस्वती. विवेकानन्द, गायत्री परिवार समेत महाराष्ट्र के सुधारवादी संत सहित गांधी और कम्युनिष्ट भी सामाजिक जड़ता नहीं तोड़ सके। शायर को कहना पड़ा कि ‘ गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं,’  या ‘पुकारने की हदों तक तो हम पुकार आये ‘ । प्रतीक्षा बनी रही कि माटी का वह दिन कब आयेगा जब वह कुम्हार को रूंदेगी! इस आशावाद से ऊब होने लगी। इसके उलट वैज्ञानिक उपलब्धियों का दुरुपयोग यथास्थितिवाद को मजबूत करने वाली शक्तियां करने लगीं। तर्क के स्तेमाल सत्य के अन्वेषण के लिए नहीं अपितु अभियुक्त के वकील की तरह होने लगे। राही मासूम रजा की वह नज़्म बार बार याद आती है – लगता है बेकार गये हम।   

यह अकेली मेरी तकलीफ नहीं है अपितु जिसने भी सामाजिक परिवर्तन के सपने देखे थे वे सभी बेचैन हैं। कबीर अपने समय की सबसे बेचैन आत्मा रहे होंगे। इसीलिए वे हाथ में लाठी लेकर बाज़ार में निकल पड़े होंगे और पाखंडी अनुयायियों से कहने को विवश हुए होंगे कि जिसमें अपना घर जला देने का साहस हो वही मेरे साथ आये। वे रूढवादियों से तू तड़ाक की भाषा में बात करने लगते हैं और कहते हैं कि –

तू बामन बमनी का जाया, आन द्वार से क्यों न आया

तू तुर्की तुर्किन का जाया,  भीतर खतना क्यों ना कराया

मूढ मुढाये हरि मिले तो सब कोई ले मुढाय, बार बार के मूढते, भेड़ ना बैकुंठ जाय

कर का मनका छांड़ के, मन का मनका फेर

मन ना रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा

दुनिया ऐसी बावरी पाथर पूजन जाय, घर की चाकी क्यों ना पूजै जिसका पीसा खाय

कांकर पाथर जोड़ के मस्ज़िद लयी बनाय, ता पर मुल्ला बांग दे, क्या बैरा भया खुदाय

तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखन की देखी

वे स्वर्ग भेजने वाली काशी में नहीं मगहर में मरना चाहते हैं, जहाँ के बारे में मान्यता है कि वहाँ मरने वाले नर्क में जाते हैं और तथाकथित ईश्वर को चुनौती देते हुए कहते हैं कि

‘जो कबिरा काशी मरे, तू को कौन निहोर’

वे एक साथ हिन्दू मुसलमान दोनों को चुनौती देते हुए कहते हैं-

साधो. देखो जग बौराना

हिन्दू कहे मोय राम पियारा, तुरक कहे रहिमाना

आपस में दुई लड़े मरत हैं मरम ना कोई जाना

साधो देखो जग बौराना

कबीर अपने समय की व्यवस्था को जो खुली चुनौती देते हुए अपने बिना लिखे शब्दों को जन जन की जुबान तक पहुंचा देते हैं जो लिखने छपने की स्थिति आने तक सैकड़ों साल लोगों को याद रहते हैं और पीढियों तक सम्प्रेषित होती रहते हैं। कविता की ताकत उसके मुहावरे में बदल जाने से ही पता चलती है।

यही कारण रहा कि अपने समय की सत्ता की व्यवस्था को चुनौती देने में उनके समतुल्य हरिशंकर परसाई ने विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में जो स्तम्भ लिखे उनके शीर्षक कबीर और गालिब की पंक्तियों को ही बनाये।  

कबीर की कविता जन मानस में गहरी खुबी हुई है, पर जरूरत है उसे आचरण में उतारने की। आज खुद को कबीरपंथी कहनेवाले भी कबीर की दुकानें खोल के बैठे हैं, कोई सत्य के पक्ष में लुकाठी लेकर बीच बाजार में खड़ा नहीं होता।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023