रविवार, सितंबर 23, 2012

यह नफरत फिल्म से है या अमरीका से


यह नफरत फिल्म से है या अमरीका से
वीरेन्द्र जैन
      अफगानिस्तान में रूसी सेना की उपस्थिति के खिलाफ लादेन को पैदा करने वाले अमेरिका को जब लादेन और तालिबानों से तकलीफ होने लगी तब उसने इस्लाम और उसके मानने वालों को ही दुनिया का दुश्मन सिद्ध कराने के लिए अपने प्रचारतंत्र को लगा दिया। इसी का परिणाम रहा कि इसे सभ्यताओं का युद्ध बतलाया जाने लगा और दुनिया को मुस्लिम बनाम गैर-मुसलमान में बाँटने की कोशिशें की जाने लगीं। दुनिया भर में नकौला वसीली की फिल्म इनोसेंट आफ मुस्लिमस पर उठी हिंसक प्रतिक्रिया को इन्हीं सन्दर्भों में समझने की जरूरत है। फिल्म के निर्माता हैं नकौला वसीलीहैं। नाकौला वसीली कभी मिश्रवासी थे, जिन्होंने बाद में अमेरिका आकर अमेरिकी नागरिकता स्वीकार कर ली थी। नाकौला वसीली ईसाई हैं, और उन्हें मिश्र में जो कटु अनुभव हुए उसके फलस्वरूप वे इस्लाम के दुश्मन हो गये। यह वैसा ही है जैसे कि देश के विभाजन के बाद पंजाब सिन्ध से पलायन करने को मजबूर हुए हिन्दुओं में से कुछ  ने हिन्दुस्तान आकर एक साम्प्रदायिक संगठन को निरंतर पोषित किया है जो रात-दिन मुसलमानों के खिलाफ विष वमन कर ध्रुवीकरण करता रहा है और जिसके परिणाम स्वरूप अब भारत में भी कट्टरवादी मुसलमानों के संगठन जड़ें पकड़ने लगे हैं। केरल असम और उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में कट्टरवादी मुसलमानों ने अपनी अलग राजनीतिक पार्टी बना ली है और विधानसभा में पहुँच कर वे भी धर्म निरपेक्ष राजनीति को कमजोर करने में लग गये हैं। पिछले दिनों बर्मा और असम के बहाने , मुम्बई, लखनऊ, इलाहाबाद, आदि में हुयी हिंसक घटनाओं में यही तत्व सक्रिय रहे हैं।  
      तात्कालिक सवाल यह है कि क्या एक प्रतिशोध से भरे व्यक्ति द्वारा बनायी गयी विवादास्पद फिल्म का निर्माण इतना बड़ा अपराध हो सकता है कि पूरी दुनिया के अमरीकी दूतावासों पर न केवल प्रतीकात्मक हमले हों अपितु इतने भयंकर हिंसक हमले हों जिसमें केवल दूतावासों को ही आग के हवाले नहीं किया जाये अपितु राजदूतों और दूसरे कर्मचारियों को भी निर्ममता पूर्वक मार डाला जाये! सच तो यह है कि यह गुस्सा उक्त विवादास्पद फिल्म के बहाने अमेरिका के खिलाफ घर बना चुके गुस्से की गलत प्रतिक्रिया है। इस तरह के दिशाहीन गुस्से ने अमेरिकी दूतावासों के आसपास स्थित दुनिया भर के दूतावासों पर खतरा बढा दिया है जो चिंता का विषय है। इसके दुष्परिणाम से दुनिया मुस्लिम और गैर मुस्लिम जैसे विभाजन की शिकार हो सकती है क्योंकि अन्धा गुस्सा विवेकहीन होता है। पाकिस्तान में तो उग्र भीड़ को नियंत्रित करने में एक ही दिन में 19 लोग मारे जा चुके हैं जिससे धर्मान्धों का गुस्सा और भड़क सकता है।
      जहाँ तक धार्मिक प्रतीकों के अपमान का सवाल है ऐसे अपमान तो हर धरम आस्था के प्रतीकों के खिलाफ होते रहे हैं। हिन्दू देवी देवताओं के चित्रों को तो जूते चप्पलों, और अन्दर गारमेंट्स पर आये दिन दिखाया जाता है। सलमान रश्दी ने तो जब सैटेनिक वर्सेस लिखी तब उसकी हत्या करने के लिए ईरान आदि के कट्टरपंथियों ने उसके सिर पर करोड़ों का इनाम घोषित कर दिया था पर किसी ने भी उसके इंगलेंड सरकार या उसके दूतावासों के खिलाफ कोई हिंसक कार्यवाही नहीं की। डेनमार्क के जिस कार्टूनिस्ट ने धार्मिक आस्था के खिलाफ कार्टून बनाया था उसके खिलाफ भी इनाम तो घोषित किया गया किंतु उस देश की सरकार, या जनता के खिलाफ कुछ भी नहीं कहा गया। तस्लीमा नसरीन जैसी लेखिका को आस्थावानों की आस्थाओं को ठेस लगानेवाले लेखन के लिए बांगलादेश छोड़ना पड़ा था और भारत में शरण लेनी पड़ी किंतु किसी भी अन्य देश के मुस्लिमों ने बांगलादेश या भारत की सरकार के खिलाफ कोई कार्यवाही तो छोड़िए विरोध तक व्यक्त नहीं किया। जब हिलेरी क्लिंटन ने बार बार यह कह दिया है कि उक्त फिल्म निर्माण में अमेरिकी सराकार की कोई भूमिका नहीं है, तब भी हिंसक घटनाओं का जारी रहना इस बात का संकेत है कि इसके पीछे फिल्म की भूमिका कम और अमेरिकी नीतियों के प्रति नफरत की भावना अधिक है। इराक और अफगानिस्तान में भारी नुकसान झेल चुके अमेरिका को इस बारे गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है, क्योंकि इन घटनाओं का दुनिया में दूरगामी प्रभाव होगा। विचारणीय यह है कि इन हिंसक हमलों में मुस्लिम राष्ट्रों के कट्टरवादी तत्व शामिल हैं जो ऐसे सारे देशों में अपनी उपस्थिति बतला रहे हैं और उन देशों की सरकारें भी उन्हें समस्याओं की तरह देख रही हैं। अपने साम्राज्यवादी इरादों को पूरा करने के लिए कट्टरवादी संगठनों को पैदा करना खुद के लिए भी कितना खतरनाक होता है इसका सबक अकेले अमेरीका को ही नहीं दुनिया के सारे सामाराज्यवादी देशों को सीखना चाहिए क्योंकि जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वे इसे दुहराने को अभिशप्त होते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, सितंबर 20, 2012

खुले बाज़ार के डिग्री व्यापार से जनित संकट और दूरगामी प्रभाव


               खुले बाज़ार के डिग्री व्यापार से जनित संकट और दूरगामी प्रभाव  
                                                                                   वीरेन्द्र जैन
       गत दिनों भोपाल के रेलवे भर्ती बोर्ड आफिस पर जूनियर इंजीनियर की भर्ती हेतु आयोजित की जाने वाली परीक्षा के प्रत्याशियों ने हंगामा कर दिया था क्योंकि उन्हें समय से प्रवेश पत्र ही नहीं मिल सके थे। इस हंगामे के कारण ही बेरोजगारी की दारुण दशा के एक और दृष्य के सच्चे दर्शन हो सके। जिस पद के लिए ये परीक्षार्थी एकत्रित हुए थे उसके आंकड़े चौंकाने वाले हैं। उक्त परीक्षा के लिए कुल 125 पद विज्ञापित किये गये थे जिसके लिए सवा लाख आवेदन प्राप्त हुए थे जिसमें से कुल चालीस हजार को परीक्षा में बैठने के लिए प्रवेश पत्र जारी किये गये थे जिसमें से भी पाँच हजार लोगों तक समय से प्रवेश पत्र नहीं पहुँच सके थे और वे डुप्लीकेट प्रवेश पत्र पाने के लिए गुहार लगा रहे थे, जो हंगामे में बदल गया।
       पिछले वर्षों में शिक्षा का जो निजीकरण हुआ है जिसके परिणाम स्वरूप जगह जगह पर प्राईवेट इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, आदि आदि कोर्सों के कालेज खुल गये जो मनमानी फीस लेकर भी अपने यहाँ सुयोग्य शिक्षकों की व्यवस्था नहीं कर रहे हैं क्योंकि इससे उनका अन्धा मुनाफा कम होता है। कालेजों के पास न उचित भवन हैं और न ही पुस्तकालय, न होस्टल हैं, न प्रयोगशालाएं फिर भी उन्हें अनुमति मिल जाती है क्योंकि ऐसे अधिकांश कालेज या तो नेताओं व उनके परिवारों के हैं या उनमें उनकी कोई हिस्सेदारी है। इन कालेजों का पढाई से कोई वास्ता नहीं है अपितु उनका इकलौता काम मोटी फीस लेकर डिग्री दे देना है और कैम्पस में कुछ कम्पनियों के भर्ती विभाग के अधिकारियों को छात्रों के खर्चे पर बुलवाकर कुछ को छोटी मोटी अस्थायी नौकरी दिलवा देना है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां इन लड़कों को जो पैकेज देकर निचोड़ रही हैं वह वेतन इसी काम के लिए उनके देश में देय वेतन से बहुत कम होता है जबकि यहाँ वही अधिक लगता है। ऐसी नौकरी भी कुछ लोगों को ही मिलती है तथा बाकी के लोग जगह जगह साक्षात्कार देते फिरते हैं और निराशा में डूब जाते हैं। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश में मनरेगा के अंतर्गत 3200 रुपये वेतन के ग्राम रोजगार सहायक  की नौकरी पाने के लिए एमएससी, एम ए., ही नहीं एमबीए, एमसीए भी आवेदन कर रहे हैं, व कर्ज लेकर भी लाखों रुपयों की रिश्वत देने को तैयार हैं। मध्य प्रदेश में 23हजार खाली पदों पर अब तक जिन 8210 लोगों को चुना गया है जिनमें से एक हजार से भी अधिक पोस्ट ग्रेजुएट या अधिक  है।
       स्मरणीय है कि अमेरिका में काम करने वाले कम्प्यूटर इंजीनियरों के बारे में पिछले दिनों एक कम्पनी प्रमुख ने कहा था कि भारत में कोई प्रतिभा विस्फोट नहीं हो गया है, भारत के जो लोग हमारे यहाँ काम करते हैं वे वैसे ही  हैं जैसे किसी शर्राफ की दुकान के बाहर गहने चमकाने का काम करने वाले बैठे रहते हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में काम करने वाली यह पीढी अपनी जीवन पद्धति ऐसी बदल चुकी होती है कि वे अपनी कमाई में से जो कुछ भी खर्च करते हैं उसका एक बड़ा हिस्सा वापिस विदेशी कम्पनियों को पहुँच जाता है| भले ही उसी स्तर के भारतीय उत्पाद अपेक्षाकृत कम कीमत में उपलब्ध हो, किंतु उन्हें विदेशी वस्तु के उपयोग की आदत पड़ चुकी होती है। बिजनैस मेनेजमेंट की डिग्री रखने वाले विदेशी ब्रांडेड आइटम खरीदते समय उसके उत्पादन मूल्य और बाज़ार मूल्य की गणना नहीं कर पाते, और खुशी खुशी अत्यधिक मुनाफा लुटाते रहते हैं।
       डिग्री मिलने के बाद भी नौकरी न मिलने के कारण युवा अब ऐसी शिक्षा से विरत होने लगे हैं। इस वर्ष इंजीनियरिंग कालेजों में एडमीशन न होने का संकट छाया हुआ है। मध्य प्रदेश में अभी तक चालीस हजार सीटें खाली हैं जिनके भरने की कोई उम्मीद नहीं है। उल्लेखनीय यह है कि तकनीकी शिक्षा विभाग, इंजीनियर कालेज संचालक एसोसियेशन के मना करने के बाद भी आल इंडिया काउंसिल फार टेक्निकल एजूकेशन ने इस साल आठ हजार सीटें बढा दी थीं जिससे प्रदेश में इंजीनियरिंग की सीटों की संख्या 96 हजार पहुँच गयी है।
       प्राइवेट मेडिकल कालेजों की सीटों पर डोनेशन के आधार पर बेची गयी सीटों के सौदे के खुलासे सामने आये हैं, जिनमें एक एक सीट के लिए चालीस पचास लाख चुकाये जाने के समाचार जाँच में हैं। तय है कि इतनी बड़ी राशि चुकाने वाले अभिभावकों ने यह राशि स्वस्थ तरीके से नहीं कमाई होगी तथा अपर्याप्त योग्यता वाले जो डाक्टर इन कालेजों से डिग्रियां लेकर निकलेंगे वे गाँवों में जाकर गरीबों की सेवा नहीं करेंगे अपितु अपने अपने नर्सिंग होम्स खोलकर आने वाले मरीजों को आखिरी बूंद तक निचोड़ने का काम ही करेंगे। इस दलाली में जो आरोपी पकड़े गये हैं वे विभिन्न राजनीतिक दलों में अपनी सुविधानुसार सम्मलित होकर उनमें विकृति पैदा करते हुए, सही नेतृत्व को हाशिए पर धकलते रहे हैं। इससे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं भी कुप्रभावित हो रही हैं।  
       इसी निजीकरण के चलते शिक्षा में जो व्यावसायीकरण बढा है उसने बड़े नगरों की अर्थ व्यवस्था में बहुत सारे विपरीत प्रभाव पैदा किये हैं। हास्टलों की कमी के कारण छात्र मिलकर फ्लेटों को किराये से लेने लगे हैं जिससे फ्लेटों के किराये लगभग दुगने हो गये हैं और आम नौकरी पेशा व्यक्तियों के सामने गम्भीर संकट खड़े हो रहे हैं। मकान मालिक कम किराया देने वाले पुराने किरायेदारों से मकान खाली कराने के लिए दबाव बनाने लगे हैं, और उसके लिए वैध अवैध तरीके अपनाने लगे हैं। इस तरह रहने वाले युवाओं के झुंड सैकड़ों की संख्या में उग आये नये नये फास्ट फूड सेंटरों पर देखे जा सकते हैं जो अनुपयोगी डिग्री के लिए अपने स्वास्थ को दाँव पर लगाते देखे जा सकते हैं। कम आय वाले निम्न मध्यम वर्ग के जो छात्र एजूकेशन लोन लेकर पढने को आते हैं उनमें से कई अधिक आय वाले अपने सहपाठियों की जीवन शैली के कुप्रभाव में सहज अपराध की ओर मुड़ रहे हैं। पिछले दिनों जंजीर, मोबाइल, पर्स आदि छीनने, मोटर साइकिलें चुराने आदि की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुयी है, और पकड़े गये लोगों में इन्हीं कालेजों के छात्र पाये गये हैं। आगामी वर्षों में जब नौकरियों में और भी कमी आयेगी तब शिक्षा ऋण लेकर पढे डिग्रीधारी नौजवानों में बैंक का कर्ज चुकाने के दबाव में फ्रस्ट्रेशन और बढेगा। यह फ्रस्ट्रेशन देश की राजनीतिक सामाजिक स्थितियों पर गहरा प्रभाव डालेगा। ऐसा लगता है कि राजनेताओं के निहित स्वार्थों के कारण इस क्षेत्र की गम्भीरता पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जो खतरनाक हो सकता है।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, सितंबर 17, 2012

लोकतंत्र की गाड़ी को अराजकता की ओर ले जाने का प्रयास


                     लोकतंत्र की गाड़ी को अराजकता की ओर ले जाने का प्रयास  
                                                                                  वीरेन्द्र जैन
                आजकल पता ही नहीं चल रहा है कि इस देश में कोई सरकार है भी या नहीं! जिसके मन में जो आ रहा है वह बिना सोचे समझे बोले चला जा रहा है और कुछ लोग तो कानून की परवाह किये बिना उस पर अमल भी करने लगे हैं। पहले कभी खालिस्तान आन्दोलन चलाने वालों ने ऐसा किया था किंतु वे इसे विद्रोह समझ कर ही कर रहे थे और उसका खतरा उठाने के लिए तैयार भी थे, और उठाया भी। तत्कालीन सरकार और प्रधानमंत्री ने एक सीमा तक ही इसे सहा था और फिर अपरेशन ब्लू स्टार किया गया था भले ही उसके लिए देश की लोकप्रिय प्रधानमंत्री को अपनी जान देनी पड़ी हो। अगर कोई संविधान की शपथ लेकर किसी पद पर बैठता है तो उसका दायित्व हो जाता है कि वह संविधान की रक्षा करे। पर बड़े खेद की बात है कि संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए कतिपय लोग हिंसा की धमकियां दे रहे हैं और सरकार लोकतंत्र के नाम पर न देख सुन रही है और न ही कुछ कर रही है, जबकि किसी व्यक्ति के अधिकार उस सीमा तक ही हैं जब तक उसके कामों से दूसरे के अधिकारों का हनन नहीं हो रहा हो।
       पिछले दिनों मुम्बई में राज ठाकरे ने बिहारियों को खुले आम धमकी देते हुए घुसपैठिया कहा और उन्हें महाराष्ट्र से निकाल देने की धमकी दी। यह संविधान में दिये देश के नागरिकों को देश के किसी भी भाग में बसने के अधिकार को खुली चुनौती है और परोक्ष में देश के संविधान को ही चुनौती है। अगर वे ऐसा कुछ करने की कोशिश करते हैं तो यह काम वे अपने बाहुबलियों की दम पर करेंगे अर्थात उनकी सेना देश और संविधान की रक्षा के लिए नियुक्त सशस्त्र बलों से टक्कर लेगी। वैसे तो उन्होंने अपने दल का नाम महाराष्ट्र नवनिर्माण ‘सेना’ ही रख छोड़ा है और वे जिस दल से निकल कर आये हैं, उसका नाम भी शिव ‘सेना’ है जो उनकी इस धमकी का मौखिक समर्थन कर रही है। शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे भी जिस भाषा में बात करते हैं वह किसी लोकतांत्रिक समाज की भाषा नहीं है। अभी हाल ही में उन्होंने कहा कि वे पाकिस्तानी क्रिकेटरों को यहाँ नहीं खेलने देंगे। यह भाषा किसी तानाशाह की भाषा है। उन्हें किसी भी विषय पर आन्दोलन करने और सरकार को विवश करके उसको बातचीत के लिए सहमत करने का अधिकार तो है किंतु एक निर्वाचित संस्था द्वारा लिए गये फैसले के विरुद्ध धमकी की भाषा में बात करने का मतलब पूरी व्यवस्था को चुनौती देना होता है।  किसी भी संप्रभुदेश में एक ही सेना हो सकती है और ये दूसरी सेनाएं एक राजनीतिक दल की जगह एक सेना की तरह ही काम कर रही हैं और भारतीय सेना को चुनौती देती सी लगती हैं। इन दलों में दूर दूर तक आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। स्मरणीय है कि उन्होंने कुछ ही दिन पहले मुस्लिमों के एक संगठन द्वारा मुम्बई में की गयी हिंसा के खिलाफ एक बड़ी और शांत रैली निकाली थी जिसकी सबने प्रशंसा की थी। किसी भी लोकतंत्र में असहमत होने और संविधान में वांछित परिवर्तन के लिए सदन और सदन से बाहर मांग उठाने का अधिकार तो है किंतु जब तक वैसा परिवर्तन नहीं हो जाता तब तक तत्कालीन संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार ही चलना पड़ेगा, और इसका खुले आम उल्लंघन अपराध की श्रेणी में आता है। खेद है कि कुछ दल या संगठन इस तथ्य को भुला कर मनमानी करने लगते हैं। पिछले दिनों मुस्लिमों के कुछ संगठनों ने मुम्बई, लखनऊ, इलाहाबाद, आदि जगहों पर जो दृष्य उपस्थित किया उन सब को ठीक ही कानून के दायरे में लाया गया है और समुचित कठोर कार्यवाही अपेक्षित है। पर, क्या राज ठाकरे के बयानों पर सरकार चुप बैठी रहेगी? 1993 में हुए दंगों पर श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट पर सरकार ने अब तक कार्यवाही न करके कानून व्यवस्था तोड़ने वालों के हौसले बढाये हैं। बिडम्बनापूर्ण यह है कि यही सरकार एक कार्टूनिस्ट को सरकार के विरोध में एक बैनर टांगने पर देश द्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लेती है।
       गुजरात में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में एक चुनी हुयी सरकार काम कर रही है। 2002 में गोधरा में साबरमती एक्सप्रैस की बोगी संख्या 6 में घटित आगजनी के बाद सरकार द्वारा संरक्षित जो नरसंहार घटित हुआ उसके बाद नरेन्द्र मोदी को वहाँ शासन करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं रह गया था। पूरे देश व भाजपा को छोड़ कर देश की सभी राजनीतिक पार्टियों ने उनके आचरण की तीव्र निन्दा की पर उनकी सरकार को भंग करने की माँग नहीं की और लोकतंत्र के हित में उन्हें सहन करते आ रहे हैं, क्योंकि राज्य की जनता ने उन्हें आम चुनावों में बहुमत दिया है। दूसरी ओर एक विवादास्पद संत वेष में रहने वाला व्यापारी उन्हें सरेआम चुनौती देता है कि अगर उसे सोमनाथ में अपना तम्बू नहीं गाड़ने दिया गया जिसे वह सत्संग का नाम देता है तो वह मोदी सरकार को उखाड़ फेंकेगा। उल्लेखनीय है कि सम्बन्धित के आश्रम में दो बच्चों की सन्दिग्ध मृत्यु के बाद स्थानीय लोग उसके तम्बू गाड़ने का विरोध कर रहे थे और आपसी संघर्ष की आशंका के कारण अनुमति नहीं दी गयी थी। क्या किसी चुनी हुयी सरकार को उखाड़ फेंकने की धमकी देना किसी अपराध का हिस्सा नहीं है, भले ही वह एक बाबा की वेषभूषा में विचरण करता हो ?   
        कोर्ट द्वारा गुजरात सरकार की एक मंत्री को अपने क्षेत्र में कराये गये नरसंहार के लिए अपराध के बारह साल बाद सजा दी गयी है। उल्लेखनीय है कि इस दौरान मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सब कुछ जानते हुए भी न केवल उसे विधायक के लिए टिकिट दिया अपितु चुने जाने के बाद मंत्री भी बनाया। सजा मिलने के बाद विश्व हिन्दूपरिषद के स्वयंभू अध्यक्ष तीन सौ भगवा वेषधारियों के साथ फैसले के विरोध में प्रदर्शन करते हैं और उन पर अदालत की अवमानना का कोई प्रकरण दर्ज नहीं होता। ऐसा लगता है कि कुछ संगठन धर्म के नाम पर लोकतांत्रिक समाज की सभी महत्वपूर्ण संस्थाओं को ठेंगे पर रख रहे हैं। इसी संघ परिवार की राजनीतिक शाखा भाजपा ने कोयला के ब्लाक आवंटन पर आयी सीएजी रिपोर्ट के नाम पर संसद नहीं चलने दी। भाजपा देश का दूसरा बड़ा राजनीतिक दल है और उसके समुचित संख्या में सदस्य बताये जाते हैं, पर एक जनान्दोलन करने की जगह उन्होंने संसद नहीं चलने दी जो बहस और विमर्श का मंच है। ऐसा उन्होंने पहली बार किया हो ऐसा भी नहीं है अपितु गत पाँच साल में उन्होंने जनता के बीच जाने की जगह सदैव ही संसद में गतिरोध उत्पन्न किया है। ऐसा लगता है कि वे तय किये बैठे हैं कि जब तक सत्ता उन्हें नहीं मिलती तब तक वे लोकतंत्र की सारी संस्थाओं को नहीं चलने देंगे। सेना और पुलिस के सेवानिवृत्त कर्मियों को दल में शामिल करने की उन्होंने गुप्त मुहिम चला रखी है जिसके कारण उनके सदस्यों में ऐसे लोगों की संख्या बहुत है। वे न्यायिक फैसलों और विभिन्न आयोगों की जाँच रिपोर्टों को तभी मानते हैं जब वे उनके पक्ष में होती हैं अन्यथा उनका विरोध करते हैं। प्रशासन को भ्रष्ट करने में इनके द्वारा शासित राज्यों के मंत्रियों ने संकल्प ले रखा है तथा ईमानदार अधिकारियों की गलत पदस्थापना के द्वारा वे उन्हें सबक सिखाते रहते हैं।
       पंजाब में भाजपा की गठबन्धन वाली अकाली दल की सरकार है और यह सरकार प्रदेश के एक मुख्यमंत्री की हत्या के आरोप में सजा पाये व्यक्ति की फाँसी की सजा को माफ करवाने के लिए जोर डालती है और उसे ज़िन्दा शहीद घोषित करती है। बंगाल की मुख्यमंत्री केन्द्र सरकार के निर्देश के बाद भी बंगलादेश जाने से इंकार कर देती हैं और देश हित के कुछ महत्वपूर्ण फैसले नहीं हो पाते। गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी यदा कदा केन्द्र को कोई टैक्स न चुकाने की धमकी देते रहते हैं। जम्मू कश्मीर राज्य, जो निरंतर सेना की सुरक्षा में है, की सरकार तो अलगाववादियों के दबाव में कभी भी कुछ भी कहती रहती है, जो देश के हितों के विपरीत भी चला जाता है।
       कुल मिला कर कह सकते हैं कि अलगाववादी, नक्सलवादी, क्षेत्रवादी, भाषावादी, आरक्षणवादी, धार्मिक कट्टरपंथी ही नहीं अपितु पंजीकृत राष्ट्रीय दल भी ऐसे आचरण कर रहे हैं जिससे संविधान और देश की सुरक्षा पर गम्भीर खतरा महसूस किया जा रहा है। ऐसी ही स्थितियां कठोर शासन की माँग बना देती हैं जो प्रारम्भ में तो राहत देता हुआ सा लगता है पर बाद में निरंकुश, स्वार्थी और दमनकारी होने लगता है, और अंत में आंतरिक संघर्ष की स्थितियां ला देता है। इसलिए जरूरी है कि देश के सभी राजनीतिक दल अपने आचरणों को संविधान के दायरे तक सीमित करके चलें। जो दल और उसके नेता निजी स्वार्थ में इस अराजकता को पैदा कर रहे हैं उन्हें शायद इसके दुष्परिणाम की कल्पना नहीं है।   
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, सितंबर 15, 2012

मोदी का अहंकार रावण के समतुल्य हो गया है


                     मोदी का अहंकार रावण के समतुल्य हो गया है  
वीरेन्द्र जैन
       नरेन्द्र मोदी द्वारा गुजरात का शासन सम्हालते ही भाजपा का पराभव शुरू हो गया था और गुजरात में व्यक्ति मोदी ने पार्टी भाजपा का स्थान लेना शुरू कर दिया था। गुजरात, देश के दूसरे, विशेष कर गोबरपट्टी [काऊ बेल्ट] वाले, राज्यों की तुलना में शांति प्रिय राज्य रहा है जिसे दूसरे शब्दों में बनिया राज्य कहा जा सकता है। एक आम गुजराती का सारा ध्यान व्यापार बढाने और धन कमाने में लगा रहता है, इसलिए वह कोई लफड़ा पसन्द नहीं करता।  गुजरात के एक पत्रकार मित्र ने बताया कि वैसे तो गुजरात के मुसलमान भी आम गुजराती की तरह व्यापार में रुचि रखने वाले लोग हैं, किंतु प्रदेश में जितने भी असामाजिक तत्व रहे हैं उनमें मुसलमानों की संख्या अधिक रही। ये असामाजिक तत्व शांति पसन्द लोगों को अपनी हिंसक शक्ति और दुस्साहस से डराते धमकाते रहे हैं और एक तरह के आतंक का वातावरण बनाते रहे हैं। परिणाम यह हुआ कि अपनी अलग पहचान बनाने के लिए एक जैसा स्वरूप धारण करने वाली पूरी मुस्लिम कौम कुछ लोगों के कारण बदनाम हो गयी। 1969 में अहमदाबाद में हुए साम्प्रदायिक दंगों और 2002 में पूरे गुजरात में हुए मुसलमानों के नरसंहार ने भाजपा को खाद पानी देकर बढाया है। पूरी कौम के प्रति नफरत या दूरी का वह बीज वहाँ सहज ही उग आया था जिसे दूसरे स्थानों पर भाजपा को जबरन बोना पड़ता है। कांग्रेसी सरकारों ने भी साम्प्रदायिकता के विरोध के नाम पर सबसे स्पष्ट और मुखर हिन्दू साम्प्रादायिकता का जिस तरह विरोध किया उससे संघ परिवारियों को उन्हें मुस्लिम पक्षधर प्रचारित करने में आसानी हो गयी और अफवाहों से जनित नफरत रखने साधारण लोगों ने संघ परिवारियों को ही तारणहार मान लिया। यही कारण रहा कि गान्धी के गुजरात में भाजपा की जड़ें जम गयीं और कांग्रेस कमजोर होती गयी। दूसरी ओर 1991 से नई आर्थिक नीतियाँ लागू होने से हुए परिवर्तनों से लाभ लेने के प्रति गुजराती समाज स्वाभाविक रूप से संवेदनशील साबित हुआ, जिससे वहाँ औद्योगिक विकास का ग्राफ ही नहीं बढा, अपितु औद्योगिक विकास ही विकास का मानदण्ड बनता गया। आज गुजरात में सरकारी सहयोग से औद्योगिक लाबी इतनी सशक्त है कि श्रमिकों के संगठनों को सिर उठाने का भी अवसर नहीं मिलता। इसे ज़ीरो लेबर अनरेस्ट स्टेट कहकर प्रचारित किया जाता है।  
       सामंती सोच वाले समाज में शत्रु का संहार करने वाले को नायक मानने की परम्परा है और ऐसी ही धार्मिक पौराणिक कथाएं भी हैं। मासूम लोगों के दिमागों में पूरी मुस्लिम कौम के प्रति नफरत बोने का जो काम संघ परिवार के विभिन्न संगठन निरंतर करते रहते हैं उसे अवसर आने पर सहज रूप से भुना लेते हैं। 27 फरबरी 2002 को गोधरा रेलवे स्टेशन के पास साबरमती एक्सप्रैस की बोगी नम्बर 6 में हुयी आगजनी को
रामभक्तों/ कारसेवकों से भरी पूरी ट्रैन में मुसलमानों द्वारा आग लगा देने की अफवाह फैलाने में वे सफल रहे जिसने पूर्व से संवेदनशील बना दिये गये जनमानस को क्षोभ से भर दिया था। इसी का परिणाम था कि गुजरात सरकार द्वारा प्रेरित व संरक्षित बाहुबलियों ने जो कुछ किया उसके प्रति समाज के कुछ हिस्सों से उन्हें समर्थन मिला जो बाद में आम चुनावों के परिणामों में प्रकट भी हुआ। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस जनता को यह बता पाने में असफल रही कि पूरी ट्रैन में आग नहीं लगी थी अपितु एक बोगी संख्या 6 में आग लगी थी। अगर इस सच को वे पहुँचा पाते तो संवेदनशील लोगों को पता चलता कि एक बोगी में किसी खास व्यक्ति या व्यक्ति समूहों को ही लक्षित किया गया था और उस हमले का पूरी ट्रैन में सवार कारसेवकों से कोई मतलब नहीं था। यह सम्भव कर देने पर पूरी घटना को जो साम्प्रदायिक रूप दे दिया गया था वह बदल जाता। पर कांग्रेस के पास सच बताने का कोई वैसा तंत्र नहीं है जबकि साम्प्रदायिकों के पास निरंतर दुष्प्रचार का एक बड़ा तंत्र मौजूद है। यदि वे सच बता पाते तो इस सच को जानकर भी लोगों की आँखें खुल जातीं कि इस आगजनी में मरने वाले 59 लोगों में से कारसेवकों की संख्या केवल दो थी जो इस बात का प्रमाण होता कि इस नृशंस घटना को अंजाम देने वाले अपराधियों का अयोध्या गये  कार सेवकों पर हमला करने का कोई इरादा नहीं था। अगर ऐसा हुआ होता, जो होना चाहिए था, तो लोगों की नाराजी कानून और व्यवस्था ठीक से न सम्हालने वाली राज्य सरकार या रेलवे पुलिस के प्रति होती न कि दूसरे समुदाय के मासूम लोगों के प्रति। तब लोग यह भी सोचते कि अगर हमलावरों का गुस्सा कार सेवकों के खिलाफ होता तो वे अयोध्या जाने वालों पर हमला करते न कि वहाँ से लौट कर आने वालों पर। पर यह सम्भव नहीं हुआ और एक षड़यंत्रकारी राष्ट्रव्यापी संगठन ने गुजरात राज्य में न केवल एक बड़ा नरसंहार ही किया अपितु दुष्प्रचार के सहारे उसका राजनीतिक लाभ भी उठाया।
       गुजरात में हुए नरसंहार पर गैर भाजपा दलों ने एक और भूल की कि उन्होंने अपना पूरा विरोध वहाँ के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को केन्द्रित कर के किया जबकि इसमें पूरा संघ परिवार ही सम्मिलित था। परिणाम स्वरूप साम्प्रदायिकता के प्रति संवेदनशील समाज के हिस्सों में मोदी अकेले ही नायक/खलनायक हो गये। उस समय पूरी भाजपा एक साथ मोदी के पक्ष में एकजुट हो गयी थी तथा देश के तत्कालीन गृहमंत्री अडवाणी हर कदम पर मोदी की वकालत करने लगे थे। औद्योगिक घरानों से जुड़ी सेठाश्रित पत्रकारिता का मुँह बन्द रखने के लिए तत्कालीन केन्द्र सरकार और गुजरात सरकार ने विज्ञापनों की बाढ ला दी थी जिससे सच का एक बड़ा हिस्सा लोगों तक नहीं पहुँच सका था। दूसरी ओर अधिकांश राजनीतिक दल हतप्रभ थे, एनडीए के कई दल साथ छोड़ गये थे व विपक्ष की आलोचना से घबरा कर अटल बिहारी वाजपेयी ने स्तीफा देने का मन बना लिया था जो जसवंत सिंह के हस्तक्षेप से रुका था, जिसका खुलासा उन्होंने पार्टी से न्काल दिये जाने के बाद किया था। जितने बड़े स्तर पर मोदी का राजनीतिक विरोध हुआ उतने ही बड़े स्तर पर संघ परिवार उनके प्रति रक्षात्मक हुआ जिससे पार्टी और गुजरात के बहुसंख्यक समुदाय में मोदी का कद और महत्व बढा।
       जब केन्द्र की अटल बिहारी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार से लेकर भाजपा की दूसरी राज्य सरकारें आर्थिक भ्रष्टाचार में डूबी हुयी थीं तथा उनके कारनामे दिन प्रतिदिन प्रकाश में आ रहे थे तब गुजरात से ऐसी खबरों का अकाल रहा। जब देश में भ्रष्टाचार प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बनकर उभर रहा था तब मोदी और उनके मंत्रिमण्डल पर भ्रष्टाचार के आरोप कम से कम लगे। अटलबिहारी वाजपेयी की अस्वस्थता और लालकृष्ण अडवाणी के ज़िन्ना प्रशंसा प्रकरण के बाद जिस तरह से उन्हें अपमानित करके अध्यक्ष पद से हटाया गया उससे उनका कद घट गया था। जब उनको प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाने का कार्ड भी नहीं चल सका और उम्र लगातार बढती जा रही थी तब भाजपा में शिखर नेतृत्व पर शून्य निर्मित होने लगा। संघ ने भाजपा के अध्यक्ष पद पर जब गडकरी जैसे सामान्य कद के नेता को थोप दिया और निर्विरोध रूप से उनका कार्यकाल पूरा ही नहीं करवाया अपितु एक कार्यकाल और बढवाने के लिए पार्टी संविधान में संशोधन भी करवा दिया तब शिखर के शून्य को भरने के लिए विख्यात और कुख्यात नरेन्द्र मोदी ने स्वय़ं को प्रस्तुत करने का विचार बनाया जिसे चन्द पूंजीपतियों और औद्योगिक घरानों ने हवा दी। अब नरेन्द्र मोदी स्वयं को भाजपा और संघ से भी ऊपर समझने लगे हैं। वे संघ की इच्छा के विपरीत संजय जोशी को पार्टी से निकलने को मजबूर कर देते हैं, प्रवीण तोगड़िया की परवाह नहीं करते, भाजपा के हित में काम करने वाले आशाराम बापू और उनके बेटे के नाम वारंट निकलवा देते हैं, उनके विरोधी हरेन पंड्या की हत्या हो जाती है, नरसंहार के बदनाम आरोपियों को मंत्री पद देते हैं, असहमत सरकारी अधिकारियों को नौकरी छोड़ना पड़ती है, उनसे असहमत जिसकी भी हत्या हो जाती है उसे वे आतंकी घोषित करवा देते हैं, अल्प संख्यक आयोग, महिला आयोग, मानव अधिकार आयोगों की उन्हें परवाह नहीं है, मुख्य चुनाव आयुक्त लिंग्दोह की अश्लील प्रतीकों से निन्दा करते हैं तथा अपने अहं में गुजरात के सभी वरिष्ठ नेताओं को पार्टी छोड़ कर दूसरी पार्टी बनाने को मजबूर कर देते हैं। न वे पार्टी में किसी की परवाह करते हैं और न ही पार्टी के बाहर संवैधानिक संस्थाओं की। पौराणिक कथाओं से प्रतीक लें तो उनका अहं रावण जैसा अहं हो गया है। उनकी पार्टी में भी अब न वे किसी नेता पर भरोसा करते हैं और न कोई बडा नेता उन पर भरोसा करता है। पार्टी में जो उनसे सहमत नहीं है वह उनका दुश्मन है। सम्भावना यही है कि यदि  उन्होंने बड़ी ज़िम्मेवारी के लिए प्रत्याशी बनने की ज़िद ठानी तो पार्टी में महाभारत  होना तय है।   
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, सितंबर 10, 2012

उत्तर प्रदेश का भविष्य और देश


उत्तर प्रदेश का भविष्य और देश

वीरेन्द्र जैन


                उत्तर प्रदेश देश का सबसे महत्वपूर्ण प्रदेश है जिसको लम्बे समय तक देश को नेतृत्व देने का अवसर मिला है। इस प्रदेश में पिछली विधानसभा में बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला था और इस बार समाजवादी पार्टी को बहुमत से सरकार बनाने का अवसर मिला है। पर यह परिवर्तन प्रदेश को किसी सही दिशा की ओर ले जाने वाला परिवर्तन नहीं बन पा रहा है। मायावती की सरकार तथाकथित ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के कारण बनी थी जिसका सही मतलब यह था कि बहुजन समाज पार्टी के दलित वोट और सतीश चन्द्र मिश्रा के नेतृत्व में ब्राम्हणों के वोट एकजुट हो गये जिसमें कुछ मुस्लिम मत मिल जाने से पूर्ण बहुमत प्राप्त सरकार का गठन हो सका था। पर उन्होंने दलितों के पक्ष में ऐसा कुछ नहीं किया जिसके लिए बहुजन समाज पार्टी का गठन हुआ था। इस बार के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी के यादव और कुछ पिछड़ी जातियों के वोटों को मुस्लिमों का समर्थन मिल गया जिससे उनकी विजय सम्भव हो सकी। उक्त दोनों ही सरकारें जातिवादी वोटों और सीटों के सही समंवय का परिणाम हैं। चुनाव विश्लेषक भले ही मायावती शासन काल में घटित कई घोटालों और खराब कानून व्यवस्था को इस चुनाव में उनकी पराजय का कारण बतलाते रहते हों किंतु सच तो यह है कि बहुजन समाज पार्टी को इस बार पिछले चुनाव में मिले मतों की तुलना में 37 लाख मत अधिक मिले थे, पर अधिक मतदान और सही गठबन्धन से समाजवादी पार्टी को अपेक्षाकृत अधिक मत मिल जाने के कारण उन्हें सरकार बनाने का अवसर मिल गया। सत्ता के इन परिवर्तनों से केवल सत्तारूढ होने वाली पार्टी ही बदली पर व्यवस्थागत परिवर्तन के कोई संकेत नहीं मिले।  
       चुनावों के दौरान समाजवादी पार्टी को भी भरोसा नहीं था कि उसे पूर्ण बहुमत मिल जायेगा और उसे किसी से गठबन्धन की जरूरत नहीं पड़ेगी इसलिए उसने अपने भावी मुख्यमंत्री का नाम घोषित नहीं किया था। यह सहज रूप से उम्मीद की जा रही थी कि अगर समाजवादी पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनती है तो उसके मुखिया मुलायम सिंह ही होंगे। किंतु पूर्ण बहुमत मिल जाने के बाद कतिपय अस्पष्ट कारणों से मुलायम सिंह ने प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद अपने कम अनुभवी बेटे को दिया और स्वयं किंग-मेकर की भूमिका में रहने का फैसला किया। दूसरी ओर लोकसभा में यूपीए सरकार को समर्थन देने वाले दलों के आंकड़े और उन दलों में से कई का नेतृत्व ऐसा है कि केन्द्र सरकार को कभी भी समाजवादी पार्टी के समर्थन पर निर्भर होना पड़ सकता है। जाहिर है कि यह समर्थन  उन्हीं की शर्तों पर मिलेगा इसलिए देश में एक स्थिर सरकार के लिए समाजवादी पार्टी के नेतृत्व को कुछ ज़िम्मेवार और सुलझे हुए नेताओं की जरूरत होगी। मुलायम सिंह पर उमर अपना असर दिखाने लगी है और वे राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार चुनने से लेकर वोट डालने तक में भूलें करने लगे हैं।
        समाजवादी पार्टी अब केवल नाम की समाजवादी पार्टी है और मुलायम सिंह लोहियाजी के शिष्य से भूतपूर्व शिष्य में बदल चुके हैं। जब से वे अमर सिंह के सम्पर्क में आये थे तब से उन्होंने समाजवादियों वाला संघर्ष का रास्ता छोड़ दिया था और एन केन प्रकारेण सत्ता हथियाने की गैर समाजवादी राजनीति करने लगे थे। उनको मिले जातिवादी समर्थन को अमर सिंह ने कार्पोरेट जगत में विनिवेश करवा दिया था और उसके बोनस पर सौदेबाजी की राजनीति करने लगे थे। उनका मूल आधार जातिवादी होकर रह गया था, जो सत्ता के पक्षपाती  लाभों से उपकृत व भविष्य में भी ऐसी ही उम्मीदों के सहारे उन्हें समर्थन देकर अपनी जातीय अस्मिता को तुष्ट करने वाले लोगों से बना था। इस समर्थन को जब संघ परिवार के संगठनों से आतंकित हो कर भाजपा को हराने के लिए कृत संकल्प मुस्लिमों का थोक समर्थन मिलता है तो उनकी जीत का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। जब किसी पार्टी से कार्पोरेट जगत के हित सधने लगते हैं तो अपने व्यावसायिक हित में उनकी भी ज़िम्मेवारी हो जाती है कि वे उसकी जीत के लिए यथा सम्भव मदद करें। नोएडा का जो शराब व्यावसायी मायावती का सबसे हितैषी और वित्तपोषक था तथा विधानसभा चुनाव के दौरान जिसके पास से करोड़ों रुपये बरामद किये गये थे वही आज उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार का मित्र बन चुका है।
       आम जनता उत्तर प्रदेश में जिस बाहुबली राज्य से मुक्ति चाहती थी दुर्भाग्य से वह उसे नसीब नहीं हुआ है, नये मुख्यमंत्री के पास भले ही एक मासूम चेहरा हो किंतु वह स्वाभाविक मुखिया होने की जगह थोपे गये मुखिया हैं, उनके पास मुख्यमंत्री बनने के लिए भले ही विधायकों का समर्थन हो किंतु किसी जनहितैषी परिवर्तनकारी कार्यक्रम को लागू करने के लिए समर्थन नहीं है जिससे जनप्रतिनिधियों से जुड़े निहित स्वार्थों पर आँच आती हो। कहने की जरूरत नहीं कि आज की राजनीति में विशेष रूप से उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में सबसे अधिक आर्थिक सामाजिक अपराध जनप्रतिनिधियों से जुड़े लोग ही करते हैं। आज उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्यों में उन लोगों की अच्छी खासी संख्या है जिन्होंने चुनाव के समय दिये गये शपथ पत्र में उन पर चल रहे आपराधिक प्रकरणों की जानकारी में गम्भीर आरोपों को सूचित किया है। इन सूचियों में बहुत गम्भीर अपराधों के आरोपों को देख कर सिर चकरा जाता है, कि कैसे लोग जनप्रतिनिधि बन कर आ गये हैं।
       पार्टी की विजय सुनिश्चित करने में जिस मुस्लिम समर्थन ने भूमिका निभायी थी उसके मुखिया आजम खान हैं जो अमर सिंह द्वारा किये गये दुर्व्यवहार से खिन्न होकर पार्टी छोड़ कर चले गये थे। अमर सिंह का स्तीफा स्वीकार करने के बाद आजम खान को मुलायम सिंह मना कर पार्टी में लाये थे और मीडिया के सामने गले लगा कर कैमरामेनों को ‘भरत-मिलाप’ जैसा दृष्य शूट करने का अवसर दिया था। वे पूर्व से ही पार्टी के वरिष्ठ नेता थे और मना कर दुबारा बुलाये जाने के बाद और अधिक महत्वपूर्ण हो गये थे। चुनावों में अचम्भित करने वाली जीत दर्ज करने के बाद तो उनका कद पार्टी मुखिया मुलायम सिंह के बराबर हो गया था। जब मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहा तो वे स्वय़ं को मुख्यमंत्री का स्वाभाविक उम्मीदवार समझने लगे थे तथा ये उम्मीद पूरी न होने पर उन्हें ठेस लगी थी। मन मार कर उन्होंने अखिलेश के नेतृत्व में काम करना तो मंजूर कर लिया है किंतु दूसरी ओर वे समानंतर सरकार चला रहे हैं व आये दिन अखिलेश को उनके कारण अपने फैसले पलटने पड़ते हैं।
        अखिलेश के शपथ ग्रहण समारोह में जो दृष्य उपस्थित हुआ था वह भविष्य के संकेत दे गया था। मुख्यमंत्री के समर्थन में आये युवाओं ने न केवल शपथ ग्रहण के मंच पर ही कब्जा कर लिया, शपथ ग्रहण की मेज को तोड़ दिया, डायस को गिरा दिया अपितु सजावट के लिए लगाये गये फूल पत्तियों को नोंच कर फेंक दिया। वे चयनित मंत्रियों की कुर्सियों पर बैठ गये और बार बार अपीलें करने के बाद भी नहीं उठे। नई सरकार को उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने की धमकी देनी पड़ी। चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद इस प्रदेश के विभिन्न नगरों में निकाले गये विजय जलूसों में जिस तरह की उद्दंडताका प्रदर्शन हुआ था उसमें गोली लगने से एक बच्चे की मौत तक हो गयी थी, और पूरे प्रदेश में गुण्डागिर्दी का भय व्याप्त हो गया था। इन जलूसों में ऐसा लग रहा था जैसे लोकतांत्रिक चुनाव न जीता हो अपितु किसी राजा के सैनिकों ने युद्ध जीता हो और वे विजित देश को लूटने के लिए निकल पड़े हों।
       इस चुनाव में पहली बार कुछ ऐसी मुस्लिमवादी पार्टियां मैदान में उतरी थीं जिनका प्रचार था कि मुसलमानों का हित किसी सेक्युलर पार्टी का समर्थन देने में नहीं अपितु अपनी एक अलग पार्टी बना कर दबाव बनाने में है। केरल और असम में सफल हो चुकी ऐसी पार्टियां भले ही चुनावी जीत हासिल न कर सकी हों किंतु चुनाव के दौरान किये गये दुष्प्रचार द्वारा उन्होंने वातावरण को तो विषाक्त कर ही दिया है। जब भी दूसरे समुदाय के कट्टरवादी संगठनों द्वारा कुछ साम्प्रदायिक हरकतें की जायेंगीं तब ये लोग पूरे सेक्युलर समाज को कटघरे में खड़ा करके उत्तेजना फैला सकते हैं। गत दिनों असम के सम्बन्ध में फैलायी गयी अफवाहों के आधार पर लखनऊ और इलाहाबाद में जो हिंसा फूटी उसके पीछे यही सोच निहित थी। समाजवादी पार्टी भले ही मुस्लिम वोट जुड़ने के कारण जीती हो किंतु उसने अपने समर्थक मुसलमानों को मिला कर एक कट्टर धर्मनिरपेक्ष फोर्स बनाने के लिए कोई काम नहीं किया जो हर तरह के साम्प्रदायिकों के साथ डट कर टक्कर ले सके, जबकि यह काम प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए था। मुस्लिमों के समर्थन के चक्कर में वे कट्टर साम्प्रदायिक मुस्लिमों की पक्षधरता करने को भी राजनीतिक कर्म समझने लगे हैं। [यह ऐसी गलती है जिसे दूसरी गैर भाजपा सरकारें भी कर रही हैं और इस बात को भुला रही हैं कि इससे अंततः बहुसंख्यक साम्प्रदायिक शक्तियों को मजबूत होने का मौका मिलता है।] इस तरह के भावुक उन्माद के प्रति कठोर कानूनी कार्यवाही के साथ साथ धार्मिक समाज और कट्टरतावादी समाज के भेद को उजागर करने की भी बहुत जरूरत होती है। अखिलेश के नेतृत्व वाली सरकार ने जिन युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देने की और उनसे कुछ काम लेने की योजना घोषित की है उन्हें फिल वक़्त समाज में साम्प्रदायिक सौहार्द मजबूत करने और कट्टरवादियों को समाज से अलग थलग करने के काम में लगाना चहिए। समाजवादी पार्टी का जो मुख्य बल है वह सामंती सोच के ऐसे बाहुबलियों से भरा है जो सत्ता को अवैध धन कमाने और अपनी ताकत का लोहा मनवाने के लिए स्तेमाल करते हैं। विभिन्न स्थानों से जो समाचार आ रहे हैं वे समाजवादी पार्टी की लोकप्रियता की गिरावट के संकेत दे रहे हैं। नगर निगमों के चुनावों में भाजपा का उभार और मथुरा में हुए उपचुनाव में तृणमूल कांग्रेस की विजय, कोसीकलाँ और बरेली के साम्प्रदायिक दंगे, लखनऊ इलाहाबाद में कट्टरतावादियों के हिंसक उपद्रव इस बात के सूचक हैं कि समाजवादी पार्टी की जीत केवल चुनावी जीत है और समाज पर उनकी पकड़ नहीं है। यदि जल्दी ही उन्होंने कोई राजनीतिक कार्यक्रम हाथ में नहीं लिया तो बहुत सम्भव है कि उनके जोशीले समर्थक उन्हीं की सरकार को हिलाने लगें। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि देश का भविष्य उत्तर प्रदेश के भविष्य से जुड़ा है।
वीरेन्द्र जैन
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