बुधवार, फ़रवरी 21, 2018

तिरंगे पर खतरा


तिरंगे पर खतरा

वीरेन्द्र जैन
उपरोक्त शीर्षक से हर भारतीय का चौंकना स्वाभाविक है, क्योंकि तिरंगा हमारी राष्ट्रीय भावना का प्रतीक है। यह भावना हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान ही पैदा और विकसित हुयी जब तिरंगे को पहले कांग्रेस और फिर बाद में राष्ट्रीय झंडे के रूप में स्वीकार किया गया। राष्ट्रीय ध्वज में अशोक चक्र और कांग्रेस के ध्वज में चरखा लगा कर भेद किया गया था, किंतु स्वतंत्रता आन्दोलन की प्रमुख पार्टी होने के कारण व उसके बाद सबसे पहले सत्तारूढ होने के कारण सामान्य लोगों को इस भेद का पता ही नहीं था। उस दौरान यह कहा जाता था कि वोट देने का अधिकार सब को है किंतु वोट लेने का अधिकार सिर्फ काँग्रेस को है।
तिरंगे का विरोध प्रारम्भ से ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा किया गया था, जो मानते थे कि हिन्दुस्तान का राष्ट्रीय ध्वज भगवा होना चाहिए। उन्होंने तो यह भी कहा था कि जब हमारे यहाँ मनु स्मृति है तो अलग से संविधान की क्या जरूरत है। इसी विश्वास के कारण आज़ादी के पचास साल तक आर एस एस कार्यालय पर तिरंगा नहीं फहराया गया और ऐसी कोशिश करने वालों के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट भी करवायी गयी। शायद आम लोगों ने इसी कारण से आज़ादी के बाद लम्बे समय तक भारतीय जनसंघ, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी के रूप में प्रकट हुआ, को राष्ट्रीय दल के रूप में स्वीकारता नहीं दी व उसे एक सम्प्रदाय विशेष के सवर्ण जाति की पार्टी ही मानते रहे।
अच्छा व्यापारी अपने ग्राहकों को लुभाने के लिए उसकी भावुकता को भुनाता है। एक बार मैं एक पार्क में बैठा हुआ था, जहाँ सामने की बेंच पर एक निम्न मध्यम वर्गीय दम्पति अपने छोटे बच्चे के साथ बैठा था। बच्चा शायद पहला और इकलौता ही रहा होगा। बच्चे को देख कर एक आइसक्रीम वाला झुनझुना बजाने लगा तो बच्चा आइसक्रीम के लिए मचलने लगा जो उसे दिलवायी गयी, फिर पापकार्न, चिप्स, गुब्बारा आदि बेचने वाले क्रमशः आते गये और बच्चे के प्रति अतिरिक्त प्रेम से भरे परिवार की जेब खाली होती गयी। अंततः उन्हें शायद समय से पहले ही पार्क छोड़ कर जाना पड़ा। जिस तरह व्यापारी भावुकता को भुना रहे हैं, उसी तरह राजनीतिक दल व उससे जुड़े संगठन भी यही काम कर रहे हैं। वे धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, आदि की भावनाओं को पहले उभारते हैं और फिर उसके प्रमुख प्रतिनिधि की तरह प्रकट होकर चुनावों में उनके वोट हस्तगत कर लेते हैं। जिस तिरंगे को संघ परिवार ने पसन्द नहीं किया था उसी के सहारे उन्होंने वोटों की फसल काटनी शुरू कर दी क्योंकि जनता अपने तिरंगे के प्रति भावुक थी।
कर्नाटक के हुगली में ईदगाह से सम्बन्धित विवादास्पद स्थान पर भाजपा नेता उमा भारती को तिरंगा फहराने के लिए भेजा गया था व इस तरह पैदा किये गये संघर्ष में गोली चलाने की नौबत आ गयी थी जिसमें कई लोग मारे गये थे। इस मामले में भाजपा ने विषय को भटकाने के अपने पुराने हथकण्डे का प्रयोग करते हुए बयान दिया था कि अगर भारत में तिरंगा नहीं फहराया जायेगा तो क्या पाकिस्तान में फहराया जायेगा! जबकि यह सवाल तिरंगा फहराने का नहीं था अपितु फहराये जाने वाले स्थान के मालिकत्व और उपयोग का था। वे तिरंगे पर लोगों की श्रद्धा को अपने पक्ष में भुनाना चाहते थे। बाद में जब इसी मामले में उमा भारती को सजा हुयी तो भाजपा ने उन्हें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से हटाने की प्रतीक्षित योजना का आधार बना लिया था। इसका विरोध करने के लिए उमा भारती ने पार्टी की अनुमति के बिना तिरंगा यात्रा निकाल कर अपना पक्ष रखना प्रारम्भ कर दिया तो उन्हें कठोरता से रोक दिया गया था। जिस तिरंगे को ईदगाह मैदान में फहराना चाहते थे उसे जनता के बीच ले जाने से इसलिए रोक दिया गया क्योंकि दोनों ही बार तिरंगा केवल साधन था। पहली बार वह ध्रुवीकरण के लिए उपयोग में लाया जा रहा था किंतु दूसरी बार वह व्यक्ति विशेष के नेतृत्व को बचाये रखने के लिए उपयोग में लाया जा रहा था।
बाद में तो तिरंगे को एक ऐसा परदा बना लिया गया जिससे हर अनैतिक काम को ढका जाने लगा। जेएनयू के तत्कालीन अध्यक्ष कन्हैया कुमार को जब कोर्ट में ले जाया जा रहा था तब भाजपा समर्थित वकीलों के एक गिरोह ने कोर्ट परिसर में ही उस पर हमला कर दिया था व उस कुकृत्य को ढकने व लोगों की सहानिभूति के लिए उनके ही कुछ साथी कोर्ट परिसर में तिरंगा फहरा रहे थे।
तिरंगे के दुरुपयोग की ताजा घटना तो जम्मू में घटी है जो बेहद शर्मनाक है। एक आठ वर्षीय मासूम लड़की से बलात्कार और हत्या के आरोपी को छुड़ाने के लिए उसके समर्थकों ने तिरंगा लेकर प्रदर्शन किया। इस घटना में तिरंगे की ओट एक ऐसे जघन्य अपराध के लिए ली गयी जो पूरी मानवता को शर्मसार करने वाला है। इस निन्दनीय घटना का विरोध संघ परिवार के किसी संगठन ने नहीं किया अपितु जो लोग इसमें सम्मलित थे वे ही भाजपा के पक्ष में निकाले गये प्रदर्शनों में देखे जाते हैं। ऐसा ही राजस्थान में शम्भू रैगर द्वारा की गयी घटना के बाद उसकी पत्नी के पक्ष में धन एकत्रित करने की अपीलों और उसके समर्थकों द्वारा कोर्ट के ऊपर चढ कर तिरंगे की जगह भगवा ध्वज फहराने में देखने को मिला। इसकी आलोचना करने में संघ परिवार के संगठन आगे नहीं आये जिससे उनकी भावना का पता चलता है।
जो लोग तिरंगे को भगवा ध्वज में बदल देना चाहते हैं वे लोग कुटिलता से उसका उपयोग गलत जगह करके उसे बदनाम करने का खेल खेल रहे हैं। इसी के समानांतर गत दिनों भोपाल में तीन तलाक के पक्ष में हुए मुस्लिम महिलाओं के सम्मेलन के दौरान कहा गया कि वे शरीयत से अलग संविधान को महत्व नहीं देतीं इसलिए तीन तलाक कानून का विरोध कर रही हैं।
यह समय संविधान और राष्ट्रीय प्रतीकों के लिए खतरनाक होता जा रहा है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

                  

मंगलवार, फ़रवरी 06, 2018

पकौड़ा - एक कटाक्ष का विश्लेषण

पकौड़ा - एक कटाक्ष का विश्लेषण  
वीरेन्द्र जैन
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      प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनावों के दौरान ऐसे भाषण दिये और चुनावी वादे किये थे जो अव्याहारिक थे और किसी भी तरह से चुनाव जीतने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये थे। उन्होंने मुहल्ले के बाहुबलियों जैसा 56 इंची सीना वाला बयान दिया था जो लगातार मजाक का विषय बना रहा। हर खाते में 15 लाख आने की बात को तो उनके व्यक्तित्व के अटूट हिस्से अमित शाह ने जुमला बता कर दुहरे मजाक का विषय बना दिया और उनके हर वादे को जुमले होने या न होने से तौला जाने लगा। पाकिस्तान के सैनिकों के दस सिर लाने वाली शेखी और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के वास्तविक दबाव में सम्भव सैनिक कार्यवाही में बहुत फर्क होता है जो प्रकट होकर मजाक बनता रहा। इसी तरह के अन्य ढेर सारे बयान और वादों के बीच रोजगार पैदा करने वाली अर्थ व्यवस्था न बना पाने के कारण प्रति वर्ष दो करोड़ रोजगार देने के वादे का भी हुआ, जिसे बाद में उन्होंने एक करोड़ कर दिया था और इस बजट में उसे सत्तर लाख तक ले आये। जब शिक्षित बेरोजगारों को नौकरी न मिलने से जनित असंतोष के व्यापक होते जाने की सूचनाएं उन तक पहुंचीं तो उन्होंने किसी भी मीडिया को साक्षात्कार न देने के संकल्प को बदलते हुए ऐसे चैनल से साक्षात्कार के बहाने अपने मन की बात कही जो उन्हीं के द्वारा बतायी जाने वाली बात को सवालों की तरह पूछने के लिए सहमत हो सकता था। इसमें उन्होंने रोजगार सम्बन्धी अपने वादे को सरकारी नौकरियों से अलग करते हुए कहा कि स्वरोजगार भी तो रोजगार है जैसे आपके टीवी चैनल के आगे पकौड़े की दुकान भी कोई खोलता है तो वह भी तो रोजगार है। उनके इस बयान को नौकरी की आस में मोदी-मोदी चिल्लाने वाले शिक्षित बेरोजगारों ने तो एक विश्वासघात की तरह लिया ही, सोशल मीडिया और विपक्ष ने भी खूब जम कर मजाक बनाया। यह मजाक अब न केवल सत्तारूढ दल को अपितु स्वयं मोदी-शाह जोड़ी को भी खूब अखर रहा है। राज्यसभा में दूसरे वरिष्ठ सदस्यों का समय काट कर विश्वसनीय अमित शाह को समय दिया गया, जिन्होंने पकौड़े के प्रतीक को मूल विषय मान कर उसी तरह बचाव किया जैसे कि मणि शंकर अय्यर के चाय वाले बयान को चाय बेचने वालों पर आक्षेप बना कर चाय पर चर्चा करा डाली थी।
सच तो यह है कि पकौड़े के रूप में जो कटाक्ष किये गये वे पकौड़े बेचने या उस जैसे दूसरे श्रमजीवी काम को निम्नतर मानने के कटाक्ष नहीं थे। पकौड़े बेचने के लिए किसी भी बेरोजगार को मोदी सरकार की जरूरत नहीं थी, वह तो काँग्रेस या दूसरे गठबन्धनों की सरकार में किया जा सकता था या लोग करते चले आ रहे थे। एक कहावत है कि ‘ बासी रोटी में खुदा के बाप का क्या!’ उसी तरह पकौड़े बेचने के लिए सरकार बदलने की जरूरत नहीं पड़ती। एक आम बेरोजगार ने मोदी सरकार से यह उम्मीद लगायी थी कि दो करोड़ रोजगार में उसे भी उसकी क्षमतानुसार नौकरी मिल सकेगी। पकौड़े बनाने जैसी सलाह से उसका विश्वास टूटा है। किसी भी कटाक्ष का पसन्द किया जाना समाज की दशा और दिशा का संकेतक भी होता है। यही कारण था कि न मुस्काराने के लिए जाने जाने वाले अमित शाह की भाव भंगिमा और भी तीखी थी। हो सकता है उसके कुछ अन्य कारण भी रहे हों।
पकौड़े के प्रसंग से एक घटना याद आ गयी। मैं कुछ वर्ष पहले बैंक में अधिकारी था और बैंक के लीड बैंक आफिस में पदस्थ था। यह कार्यालय बैंक ऋण के माध्यम से लागू होने वाली सरकारी योजनाओं के लिए बैंक शाखाओं और सरकारी कार्यालयों के बीच समन्वय का काम करता है। उन दिनों आई आर डी पी नाम से एक योजना चल रही थी जो गाँव के ग्रामीणों को पलायन से रोकने के लिए उन्हें स्थानीय स्तर पर रोजगार देने के प्रयास की योजना थी। इस योजना में सरकार की ओर से अनुदान उपलब्ध था जो अनुसूचित जाति- जनजाति के लिए 50% तक था। कलैक्टर के पास एक शिकायत पहुंची कि एक हितग्राही को बैंक मैनेजर ऋण देने में हीला हवाली कर रहा है। इस शिकायत को देखने के लिए उन्होंने उसे हमारे कार्यालय को भेज दिया। सम्बन्धित बैंक मैनेजर से बात करने पर उसने बताया कि उक्त आवेदन मिठाई की दुकान के लिए था और हितग्राही दलित [बिहारी भाषा में कहें तो महादलित] था। उसका कहना था कि उसकी दुकान से उस छोटे से गाँव में मिठाई कोई नहीं खरीदेगा, इसलिए योजना व्यवहारिक नहीं है। पकौड़ा योजना भी दलितों के हित में नहीं होगी क्योंकि इसमें कोई आरक्षण नहीं चलता।
इसी तरह अगर पकौड़ा बेचने तक केन्द्रित रहा जाये तो गाँवों और कस्बों में इस तरह की दुकानें आज भी इन जाति वर्गों की नहीं मिलतीं। आचार्य रजनीश ने गाँधी जन्म शताब्दी में गाँधीवाद की समीक्षा करते हुए कहा था कि गाँधीजी जाति प्रथा और बड़े उद्योगों के एक साथ खिलाफ थे, किंतु जाति प्रथा तो बड़े उद्योगों के आने से ही टूटेगी। बाटा के कारखाने में काम करने वाला मजदूर होता है जबकि गाँव में जूता बनाने वाला अछूत जाति में गिना जाता है। जातिवाद की समाप्ति के लिए कोई भी राजनीतिक सामाजिक दल कुछ नहीं कर रहा अपितु इसके उलट वोटों की राजनीति के चक्कर में सभी और ज्यादा जातिवादी संगठनों को मजबूत बनाने में सहयोगी हो रहे हैं। दुष्यंत ने लिखा है -
जले जो रेत में तलुवे तो हमने यह देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गये 
बेरोजगारी की स्थिति भयंकर है और बिना उचित नीति के किसी भी पार्टी की सरकार इतने शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार नहीं दे सकती स्टार्ट-अप, स्किल इंडिया, आदि के प्रयोग फलदायी नहीं हो रहे। इसके उलट सत्तारूढ दल चुनावी सोच से आगे नहीं निकल पाता, मोदीजी हमेशा चुनावी मूड में रहते हैं जिसे अभी हाल ही में हमने आसियान सम्मेलन के दौरन असम में दिये उद्बोधन के दौरान देखा। दावोस और बैंग्लुरु में तो वो बहुत ही गलत आंकड़े बोल गये जिससे पद की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची। वोटों की राजनीति पारम्परिक कुरीतियों को मिटाने की जगह उन्हें सहेजने का काम कर रही है। यह अच्छा संकेत नहीं है।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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गुरुवार, फ़रवरी 01, 2018

दिशाहीन समय में भटकते भटकाते लोग







दिशाहीन समय में भटकते भटकाते लोग
वीरेन्द्र जैन


कम लोगों को याद होगा कि 1947 के विभाजन के समय पर जो यादगार कहानियां लिखी गयी थीं, उनमें से एक कहानी का शीर्षक ‘बारह बजे’ था जो बाद में ‘सरदार जी’ के नाम से भी प्रकाशित हुयी थी। कहानी में एक सिख की मानवीयता का चित्रण था जो अपनी जान पर खेल कर भी कुछ मुस्लिम महिलाओं की जान बचाता है। कहानी बताती है कि पहले कुछ लोग उस सिख से बारह बजे की याद दिला कर मजाक भी किया करते थे जिस पर वह उत्तेजित भी हो जाता था तथा लड़ने को आ जाता था, किंतु भीषण साम्प्रदायिकता के दौर में जब कोई किसी पर भरोसा नहीं कर रहा था तब एक विरोधी समझे गये व्यक्ति के अन्दर छुपा मानव तलवार लेकर उनकी रक्षा करता है। इस कहानी को एक विशेषांक में सारिका ने तब पुनर्प्रकाशित किया था जब देश में खालिस्तानी आतंकवाद का जोर था। उस समय सारिका के सम्पादक कन्हैया लाल नन्दन हुआ करते थे। परिणाम यह हुआ कि कट्टर सिखों की एक बड़ी भीड़ ने टाइम्स दिल्ली के दरियागंज कार्यालय पर हमला कर दिया था जिसमें टाइम्स का एक गार्ड भी मारा गया था। इन हमलावरों में से शायद किसी ने भी वह कहानी नहीं पढी थी, जिसकी तारीफ कभी राजेन्द्र सिंह बेदी और खुशवंत सिंह जैसे लोग भी कर चुके थे। 
पद्मावती फिल्म जिसे बाद में बदल कर पद्मावत कर देना पड़ा ऐसा ही उदाहरण है। जब दूरदर्शन पर ‘तमस’ सीरियल आता था तब सीरियल प्रारम्भ होने से पहले एक वाक्य आता था ‘ जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वे उसे दुहराने को अभिशप्त होते हैं’। उक्त फिल्म देखने के बाद यह वाक्य बुरी तरह याद आया। पद्मावत फिल्म देखने के लिए मुझे झारखण्ड यात्रा में समय निकालना पड़ा क्योंकि जैसे लोगों द्वारा जिस तरह से उसका विरोध किया जा रहा था उसका अहिंसक प्रतिरोध फिल्म देख कर ही किया जा सकता था। अब फिल्म देखने के बाद मैं कह सकता हूं कि मेरी रुचियों और समझ के हिसाब से यह ‘बाहुबली’ की तरह खराब फिल्म है और पिछले अनेक अनुभवों के आधार पर माना जा सकता है कि बहुत सम्भव है कि इसके विवाद को फिल्म निर्माता ने स्वयं ही प्रोत्साहित किया हो।
जिस फिल्म को थोड़ी कतरव्योंत के बाद सेंसर बोर्ड ने पास कर दिया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने प्रदर्शन के लिए दो बार अनुमति दे दी। जिसके विरोध के ढंग के खिलाफ राष्ट्रपति तक को परोक्ष में बयान देना पड़ा, जिसे भाजपा शासित अनेक राज्यों में प्रदर्शन की अनुमति दी गयी हो उसे मध्य प्रदेश राजस्थान और गुजरात में प्रदर्शित नहीं होने दिया गया। पिछले दिनों तो कथित करणी सेना के इतिहासकारों, और राजघरानों के 6 सदस्यीय के पैनल ने भी हरी झण्डी दे दी तथा बीबीसी लन्दन समेत विदेशी चैनलों ने अपनी समीक्षा में यह भी लिख दिया था कि यह राजपूतों की अतिरंजित प्रशस्ति और मुसलमानों को खलनायक ठहराने वाली फिल्म है, पर फिल्म देखे बिना विरोध करने की ज़िद पर अड़े लोगों के विरोध के कारण अभी भी यह फिल्म इन राज्यों में प्रदर्शित नहीं हुयी है।
इस फिल्म को एक तरफ रखते हुए भी देखने की बात यह है कि हमारे देश के कथित शिक्षित और सम्पन्न लोगों के सूचना के माध्यम कितने सही हैं? हमारी सरकारों की जानकारी के अगर यही माध्यम हैं तो किसी भी तरह की झूठी अफवाह फैलाने में सक्षम लोग समाज में कभी भी आग भड़का सकते हैं। अगर शम्भू रैगर किसी व्यक्ति की हत्या करके उसका वीडियो बना कर वायरल कर सकता है, और मान भी लिया जाये कि वह विक्षिप्त था तो उसके पक्ष में कैसे एक भीड़ न्यायालय पर चढ कर भगवा झंडा फहरा देती है! क्या यह सामान्य घटना है? आखिर क्यों और कैसे वे सारे ट्रालर जो अशिष्ट भाषा में भाजपा के पक्ष में बुद्धिजीवियों के खिलाफ विषवमन करते हैं, शम्भू रैगर के पक्ष में बोलने लगते हैं और उसकी पत्नी के नाम पर लाखों रुपयों का फंड जमा हो जाता है!
दूसरी ओर यह सत्य भी सामने आता है कि इस फिल्म में उन्हीं घरानों का पैसा लगा है जो भाजपा को भी बड़ा चन्दा देते हैं और यही कारण है कि भाजपा शासित राज्यों में से ही कुछ राज्य न केवल फिल्म को प्रदर्शित होने देते हैं, अपितु टाकीजों को समुचित सुरक्षा भी देते हैं। फिल्म की भरपूर कमाई के आंकड़ों के प्रचार के बाद जब यह फिल्म प्रतिबन्धित राज्यों में दिखायी जायेगी तो यहाँ भी भरपूर धन्धा करेगी।
क्या यह कार्पोरेट घरानों के हित में राष्ट्रवादी भावनाओं को भुनाने का खेल है? क्या इसीलिए अवैज्ञानिकता फैला कर बेरोजगारों के गुस्से को आपस में लड़वा कर भटकाने का खेल है? यह क्या है कि अचानक मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री पद्मावती को राष्ट्रमाता घोषित कर देता है और उसकी मूर्ति और मन्दिर बनवाने के संकल्प लिये जाने लगते हैं। ऐतिहासिक पद्मावती जो कुछ भी थीं, या उनमें व्यक्तियों या समाजों की जो भी आस्था हो, वह 2018 में ही क्यों पूजनीय हो जाती है, जब एक बड़ी लागत की फिल्म आती है।
जो लोग सोच रहे हैं कि इस तरह से वे राजनीतिक लाभ की स्थिति में हैं, तो वे शायद कमंडल, मंडल वाले समय को भूल गये हैं। कूटनीति दुधारी तलवार होती है जो उनको खुद भी नुकसान पहुँचा सकती है।  
वीरेन्द्र जैन
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