मंगलवार, दिसंबर 29, 2009

तिवारी प्रकरण के कुछ दूसरे कोण्

तिवारी प्रकरण के कुछ दूसरे कोण
वीरेन्द्र जैन
वैसे तो कई लोगों ने इस घटना पर तरह तरह के सन्देह करते हुये तब भी जाँच की माँग की है जब लोग जाँच के नाम से ही घृणा करने लगे हैं, किंतु मैं इस विषय पर कुछ वस्तुनिष्ठ [आब्जेक्टिव] रूप से बात करना चाहता हूं, और यह मान कर बात करना चाहता हूं कि कथित घटना अक्षरशः वैसी ही है जैसी बतायी जा रही है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसे मामलों में अधिक रुचि का प्रदर्शन समाज में व्याप्त कुण्ठाओं के कारण होता है। लोग ऐसे प्रकरणों में सामाजिक कारणों की जगह व्यक्तिगत रूप में रस लेने के कारण उस पर गलत दिशा में अतिरिक्त महत्व देने लगते हैं जिससे कई बार घटना की असली भयावहता पर ध्यान नहीं जाता। कथित घटना के कई अन्य पहलू भी हैं, जैसे-
राज्यपाल यदि राज्य में किसी को राज्य सरकार के मंत्रियों की तरह खदानें और पट्टे देने का वादा कर रहा है तो तय है कि राज्य शासन भी कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ कर रहा है जो राज्यपाल की अनाधिकार सिफारिश पर गलत काम कर देता रहा है। यह इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि पिछले दिनों राज्य के मुख्यमंत्री एक दुर्घटना का शिकार हो चुके हैं [जिसकी जाँच जारी है] और उनकी सम्पत्ति के व्योरे और उस सम्पत्ति को अर्जित करने का काल चौंकाने वाला है।
एक नक्सल प्रभावित राज्य के राजभवन में सुरक्षा तंत्र को धता बताते हुये यदि स्टिंग आपरेशन सम्भव हो रहा है और बिना रोक टोक के वीडियो केमरा तक अन्दर पहुँच रहा है तो इसका मतलब है कि सुरक्षा तंत्र में कहीं बड़ी चूक है। ऐसी चूक देश के लिये बहुत मँहगी पड़ सकती है।यही हाल संसद भवन में नोटों की गिड्डियाँ पहुँचने के मामले का भी रहा है जिसकी जाँच को दबा दिया गया।
दिवंगत मुख्य मंत्री के पुत्र ने जो खुद एक संसद सदस्य भी हैं खुद को मुख्य मंत्री चुने जाने के लिये कांग्रेस हाईकमान के आदेशों निर्देशों की अनदेखी करना और खुली गुटबाज़ी का प्रदर्शन किया है और निरपेक्ष पत्रकारों का मानना है कि आन्ध्र प्रदेश के ताज़ा हालात के लिये कांग्रेस की गुटबाज़ी भी ज़िम्मेवार है। ये स्टिंग आपरेशन जिस समय प्रकाश में आया है उससे इस सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इसका आन्ध्र के ताज़ा हालात से कोई सम्बन्ध हो!
भारतीय समाज में रहने वाले किसी राज नेता की 86 वर्ष की उम्र में भी सेक्स पर ऐसे नियंत्रण की कमी कि एक व्यक्ति जो देश के सर्वोच्च पद तक पहुँचते पहुँचते रह गया हो, अपना राजनीतिक कैरियर दाँव पर लगा दे। काम तो स्वाभिक है, प्राकृतिक है, पर अपनी सामाजिक भूमिका के अनुसार उस पर नियंत्रण रखा जाता है। जिसे उसके वशीभूत होकर सामाजिक नैतिक दायित्व ही दिखाई न दे, हमारे देश में ऐसे व्यक्ति को कामान्ध के नाम से पुकारा गया है।
कुछ लोग इसे बिल क्लिंटन और मोनिका लेविंस्की वाले मामले से तुलना करने लगे हैं किंतु दोनों में ही मूलभूत अंतर यह है कि बिल और मोनिका के बीच उपजे सम्बन्ध कार्यालय में साथ काम करने से उपजे सम्बन्ध हैं, जबकि उक्त सम्बन्ध विशेष रूप से इसी काम के लिये आमंत्रित की गयी लड़कियों के साथ बनाये गये सम्बंध हैं। मोनिका ने क्लिंटन के साथ सम्बन्धों को स्वयं स्वीकारते हुये आरोप लगाया था किंतु इस मामले में स्टिंग आपरेशन के द्वारा खुलासा हुआ है और सम्बन्धित लड़कियाँ सामने नहीं आयी हैं। अंततः क्लिंटन ने सब स्वीकार कर लिया था किंतु तिवारी जी इंकार किये जा रहे हैं और इसे षड़यंत्र बतला रहे हैं। उनकी राजनीतिक महात्वाकांक्षायें अभी भी शेष हैं।

अब सवाल यह है कि जब उजागर हो गये क्रिस्टीन कीलर कांड में अमेरिका इंगलेंड, पाकिस्तान रूस, आदि के राजनेताओं से लेकर माओ, बिल- क्लिंटन, आदि बहुत सारे लोग शक्ति पाने के बाद अपना अंतिम लक्ष्य सेक्स को बनाते रहे हैं तो क्या राजनीति में सेक्स की भूमिका और सेक्स की नैतिकता पर पुनर्विचार नहीं किया जाना चाहिये? गान्धी जैसे महात्मा ने भी अपने अंतिम वर्षों में अपने ब्रम्हचर्य को परीक्षा के लिये प्रस्तुत करना चाहा था। आरोपित ब्रम्हचर्य वाले बहुत सारे सामाजिक धार्मिक संगठनों के लोगों की सच्चाइयाँ रोज खुल रही हैं और उससे हज़ारों गुना दबी ढकी रह जाती हैं। रजनीश ने अपने समय में बहुत सही सवाल उठाया था कि इस विषय को दबा छुपा कर नहीं रखना चाहिये। अप्राकृतिक वर्जनाओं से जो छद्म पैदा होता है वह समाज को झूठा बना कर कहीं अधिक बड़ा नुकसान करता है।
किसी के द्वारा अपनी प्राकृतिक कमजोरी को छद्म पूर्वक उज़ागर कर दिये जाने से उसके ढेर सारे योगदान क्या धूल में मिला दिये जाना चाहिये? वे तब अपराधी बनते हैं जब वे सच्चाई से इंकार करते हैं और झूठे आदमी को समाज के नेतृत्व का अधिकार नहीं दिया जा सकता।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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शनिवार, दिसंबर 26, 2009

चोरियों पार चुप रहने की मजबूरी या चालाकी ?

चोरियों पर चुप रहने की भाजपा की मजबूरी या चालाकी
वीरेन्द्र जैन
भाजपा टैक्स बचाने वाले व्यापारियों की प्रिय पार्टी रही है, और कहा जाता रहा है कि जब ऐसा कोई व्यापारी लुट जाता था या उस के यहाँ चोरी हो जाती तो उसकी मजबूरी होती थी कि वह लूटी गयी पूरी रकम की रिपोर्ट नहीं लिखा पाता था क्योंकि अगर वह ऐसा करता तो इनकम टैक्स वाले पूछते कि इतना पैसा कहाँ से आया जबकि तुम्हारे खाते तो इतनी रकम दिखा ही नहीं रहे हैं। लगता है व्यापारियों की प्रिय पार्टी का भी यही हाल है और वह --जैसा आया वैसा गया- की तर्ज़ पर चुप लगा कर बैठ जाने में ही अपना ज्यादा भला समझती है। ताज़ा घटना क्रम यह है कि जिस दिन नितिन गडकरी को भाजपा के नये अध्यक्ष के रूप में स्थापित किया गया उसी दिन उनके स्वागत समारोह के दौरान उनकी जेब से बटुआ चोरी चला गया। उस अवसर पर यह अनुभव् अकेले नये भाजपा अध्यक्ष को ही नहीं मिला अपितु उस दौरान अठारह लोगों की जेब से बटुये गायब हो गये और कई लोगों के मोबाइल और घड़ियां भी अंतर्ध्यान हो गयीं। यह इस बात का नमूना था कि भाजपा को कैसे लोगों का नेतृत्व करना है। पर पार्टी इस अवसर पर चुप लगा गई और दिल्ली सरकार की कानून व्यवस्था को कोसने की भी ज़रूरत नहीं समझी।
याद करने वाली बात तो यह है कि पिछले ही दिनों भाजपा के मुख्यालय की तिजोरी से बिना ताला टूटे या सैंध लगे कुछ राशि गायब हो गयी थी और यह रकम दो तीन सौ रुपयों की नहीं थी जो एक गरीब आदमी की महीने भर की पेंसन होती है अपितु यह रकम दो करोड़ साठ लाख रुपयों की थी। यह रकम जिस कक्ष में रखी तिजोरी से गायब हुयी थी वह कक्ष भाजपा अध्यक्ष के ठीक सामने वाला कक्ष है जहाँ पर ज़ेड श्रेणी सुरक्षा प्राप्त आडवानी जी का आना जाना लगा रहता था इसलिये उक्त स्थल को विशेष सुरक्षा प्राप्त होती है। रोचक बात यह रही कि भाजपा ने इस मामूली रकम के लिये पुलिस में रिपोर्ट लिखाने की ज़रूरत भी नहीं समझी थी। संगठन के प्रभारी महामंत्री राम लाल ने पत्रकारों द्वारा कुरदने पर बताया था कि जांच का काम एक प्राईवेट जासूस कम्पनी को दे दिया है। उस जांच का क्या हुआ यह किसी को पता नहीं है।
जब भाजपा सांसद के एल शर्मा का देहांत हुआ था तब भी उनकी एक महिला मित्र ने उनके घर में रखी एक अलमारी पर अपना दावा किया था जबकि भाजपा नेतृत्व का कहना था कि अलमारी किसी की हो पर पैसा पार्टी का है, और वह महिला दिवंगत के साथ अपनी मित्रता रही होने का गलत फायदा उठा रही है।
मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री ने जब विदिशा में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं का चिंतन शिविर आयोजित किया था जिसमें इतने वरिष्ठ नेता सम्मलित थे कि साधारण कार्यकर्ता को दूर दूर तक फटकने की भी अनुमति नहीं थी तब शिवराज सिंह की हीरे की अंगूठी गायब हो गयी थी जिसे वो किसी भरोसे के ज्योतिषी की सलाह पर पहिने हुये थे। मध्य प्रदेश में ही विधान सभा चुनाव से पूर्व मुख्य मंत्री ने साइकिल से सचिवालय जाने के नाम सुर्खियां बटोरने का काम किया था जिसके लिये नई साइकिलें मंगवाई गयीं थीं जो बाद में कहां गायब हो गयीं यह पता ही नहीं चला। मुख्यमंत्री ने जब दूसरी बार प्रदेश के मुख्य मंत्री की शपथ ली थी तब वह आयोजन खुले मैदान में किया था जिसके लिये पूरे प्रदेश से भीड़ जुटायी गयी थी। इस रैली में आये हुये लोगों की पचासों घड़ियां और मोबाइल गायब हो गये थे जबकि सारे ही भागीदार किसी न किसी भाजपा नेता के कोटे से आये हुये थे। मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री जब ए सी पंडाल में केन्द्र सरकार के खिलाफ अनशन पर बैठे थे तब उनके साथ बैठे हुये लोगों की मोटर-साइकिलें गायब हो गयी थीं। भोपाल और इन्दौर जैसे नगरों में आये दिन जंजीरें खींचे जाने की घटनायें हो रही हैं किंतु ना तो भाजपा वालों को कोई शिकायत हुयी और ना ही उन्होंने कोई आन्दोलन ही किया, जबकि राम सेतु के लिये वे लोगों का जीना हराम कर देते हैं।
पता नहीं यह भाजपा की मज़बूरी है या चालाकी है। हो सकता है कि नव नियुक्त अध्यक्ष कम से कम अपने बटुये की खातिर ही कुछ सुधारात्मक कदमों को तलाश सकें। समाचार यह भी है कि नये अध्यक्ष को पहली चुनावी सौगात में उनके अपने क्षेत्र में भाजपा की हार प्राप्त हुयी है जहाँ विधान परिषद के स्थानीय निकाय चुनाव में कांग्रेस के राजेन्द्र मुलाक निर्वाचित हुये हैं।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, दिसंबर 22, 2009

मेरा अमृता प्रीतम साहित्य से प्रेम


मेरा अमृता प्रीतम साहित्य से प्रेम
वीरेन्द्र जैन

यह कालेज के अंतिम वर्ष थे जब मैं अमृता प्रीतम के कथा साहित्य नीरज के गीत और आचार्य रजनीश के भाषणों पर आधारित साहित्य को भीतर तक उतार कर पढता था। एक रूमान बुरी तरह हावी था जो मुझे अपने हम उम्रों से अलग करता था और गम्भीर लोगों से, जो अक्सर ही मुझ से उम्र में बड़े होते थे, से जोड़ता था। बाकी संस्मरण तो बहुत सारे हैं किंतु जब अमृता प्रीतम का निधन हुआ तब मैंने लोकमत समाचार और नई दुनिया में जो लेख लिखे उसमें से एक नेट की दुनिया में अमृता प्रीतम के दीवानों के लिये पुनर्प्रस्तुत कर रहा हूं। आप जिस भी अमृता प्रीतम को पसन्द करने वाले को जानते हों उस तक अवश्य पहुँचाने के लिये कुछ श्रम करें तो मुझे खुशी होगी।
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स्मृति शेष ः अमृता प्रीतम
अनाम रिश्तों की चितेरी
वीरेन्द्र जैन
जैसे कोई कटी पतंग बिजली के तारों में अटक जाती है ठीक वैसे ही अमृता प्रीतम पिछले कई महीनों से बिस्तर पर अटकी पड़ी हुयी थीं। मरीजों से सवाल दर सवाल करने वाले डाक्टरों ने जबाब दे दिया था। वे अचल और लगभग अचेत हो गयी थीं। जीवन के लक्षण कम से कम हो गये थे, केवल उनका दिल था जो धड़क रहा था और सांसे थीं जो आ जा रही थीं। ऐसा शायद इसलिये क्योंकि अमृता प्रीतम ने पूरा जीवन इन्हीं दो क्रियाओं के सहारे जिया था।
वे कवियत्री और कथा लेखिका के रूप में जानी जाती थीं पर उनके पाठकों के लिए इन विधाओं में भेद करना सम्भव नहीं था क्योंकि उनकी कथायें भी कवितायें ही होती थीं। उनकी रचनायें दिल से दिल के बारे में दिल के लिए लिखी जाती थीं। वे जीवन को गणित के सरल सवालों की तरह नहीं मानती थीं और ना ही वैसे सवाल उनकी रचनाओं के विषय होते थे। जीवन उनके लिये एक संश्लिष्ट प्रक्रिया थी तथा उसके सवाल हल होने की जगह नये सवाल पैदा करते हैं। भावनाओं को शब्द देने में उन्हें महारत हासिल थी पर शब्द दे देने से भावनाओं का रूप परिवर्तित नहीं होता था अपितु वे शब्दाकार में आकर भी वैसी ही बनी रहती थीं। उनके उपन्यास -एस्कीमो स्माइल- का यह प्रारम्भिक वाक्य देखिये
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एकता को अपना आप एक औरत की तरह नहीं एक सड़क की तरह लगा, सड़क, जो जो हमेशा एक ही जगह पर रहती है, पर फिर भी कहीं से आती है और कहीं जाती है। एकता के मन की हालत भी एक ही जगह पर थी, पर यह हालत इंसान की उस तवारीख की तरफ से आ रही लगती थी जो आज तक लिखी गयी है और उस तवारीख की तरफ जा रही लगती थी जो आज तक नहीं लिखी गयी।
अमृता प्रीतम ने आम प्रचलित रिश्तों से जन्मी कहानियाँ नहीं लिखीं अपितु इंसानी रिश्तों के नए-नए आयाम तलाशे और उन अनाम रिश्तों की भावनाओं को पूरी गहराई से चित्रित किया। एक जगह वे लिखती हैं कि जिस राजेन्द्र सिंह बेदी की कहानियाँ पंजाब से चल कर लन्दन, पेरिस तक पहुँच जाती हैं पर उसके मन की बात वहीं की वहीं खड़ी रहती है तथा सड़क पार करके सामने रहने वाली तक नहीं पहुँच पाती।
एक जगह वे लिखती हैं- लोग समय की दीवार पर अपना नाम नहीं लिख पाते, लोग दिलों की दीवार पर अपना नाम नहीं लिख पाते इसलिये ऎतिहासिक इमारतों की दीवारों पर अपना नाम लिख देते हैं।
अमृता प्रीतम के उपन्यास की एक नायिका जब अपना रिश्ता तोड़ कर उस स्टेशन पर उतरती है जहाँ से उसे हमेशा गाड़ी बदलना होती है तो वह निकट के होटल में बैठ कर काफी पिया करती है। वर्षों से उसे एक खास बैरा उसे काफी सर्व करता है पर उस बार जब एक नया बैरा काफी ले जाने लगता है तो पुराना बैरा उससे काफी की ट्रे छीन कर अपने वर्षों पुराने काफी पिलाने के रिश्ते की दुहाई देकर कहता है कि मैं इन्हें तब से काफी पिला रहा हूँ जब ये छोटी सी बच्ची थी। नायिका इस रिश्ते और तोड़ कर आये रिश्ते की तुलना करते हुये सोचती है कि कौन सा रिश्ता सच्चा था। उन्होंने अपने जीवन से भी रिश्तों की व्यापकता को दर्शाया है। वे साहिर लुधियानवी से प्रेम करती थीं और जीवन की वह रात उनके जीवन की सबसे बहुमूल्य रात्रि रही जब जुकाम से पीड़ित साहिर के सीने पर गर्म तेल की मालिश की। साहिर का छूट गया गन्दा रूमाल उनकी सबसे बड़ी धरोहर रही। अपने अंतिम वर्ष उन्होंने चित्रकार इमरोज़ के साथ बिताये तथा अपने रिश्ते को कभी परिभाषा में बांधने की कोई कोशिश नहीं की। यह रिश्ता दुनिया के सारे रिश्तों से ऊपर रहा।
डाक्टर देव, नीना, नागमणि, अशु, एक सवाल, बन्द दरवाज़ा, हीरे की कनी, रंग का पन्ना, धरती सागर और सीपियाँ, एक थी अनिता, सब में उनकी नायिकाएँ अपने रिश्तों की गहराइयों को सामने लाकर समाज से सवाल करती हैं कि जो रिश्ते तुमने बना दिये हैं वे कितने थोथे और अधूरे हैं। मनुष्य मनुष्य के बीच रिश्तों के अनगिनित आयाम हैं।
उनके लिये तो गुलज़ार की वे पंक्तियाँ ही सटीक बैठती हैं कि प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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सोमवार, दिसंबर 21, 2009

अलग तेलंगाना राज्य और मधु कोडाओ की संभावनाएं

अलग तेलंगाना राज्य और मधु कौड़ाओं की सम्भावनाएं
वीरेन्द्र जैन
केन्द्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय ने आरोप लगाया है कि भाजपा नेता अर्जुन मुंडा मधु कौड़ा से भी बड़े घोटालेबाज हैं जिन्होंने अपने कार्यकाल में अरबों रुपयों का महा घोटाला किया है। श्री सहाय ने कहा कि मधु कौड़ा ने तो अपने शासन काल में 15 से 20 खदानों के ही पट्टे दिये थे जबकि अर्जुन मुंडा ने अपने कार्य काल के दौरान 35 से 40 पट्टे दिये थे। अगर कौड़ा के लिये इंटेरपोल की मदद ली जा रही है तो मुंडा के लिये कहां जाना होगा! उन्होंने याद दिलाया कि 2005 में अर्जुन मुंडा की सरकार बनवाने के लिये भाजपा, मधु कौड़ा, एनौस एक्का, हरि नारायण राय जैसे निर्दलीय विधायकों, जो बाद में मंत्री बने और अब भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बन्द हैं को विमान से जयपुर ले गयी थी। यह नव गठित राज्य में भ्रष्टाचार का बीज बोने जैसा काम था।
मधु कौड़ा पर लगे आरोप और उनके खातों की जांच से निकली जानकारी आम आदमी के लिए सचमुच आंखें खोल देने वाली है और इससे भी भयानक इस बात की आशंका है कि ये जो जनजाति के लोग हैं वे भ्रष्टाचार के मामले में बहुत सिद्ध हस्त न होने के कारण पकड़ में आ गये हैं किंतु विकसित समाज के जो नेता जांच के घेरे में नहीं आ पाये हैं वे कितने भ्रष्ट होंगे! यदि ठीक से जाँच हो तो उसके परिणामों को देखकर देश की जनता का विश्वास हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर टिका रहेगा या नहीं! जनता की समझ में अब साफ साफ आने लगा है कि जो लोग देश और समाज की सेवा के नाम से वोट मांगते हैं वे मंत्री बनने के लिये इतने उतावले क्यों दिखते हैं और मंत्री बनते ही उनके चारों ओर सम्पन्नता और भव्यता का उजास कैसे विकसित हो जाता है। बिना प्रेस की कोट और कमीज़ पहिनने वाले समाजवादी नेता के पास रक्षा मंत्री बनने के बाद पन्द्रह करोड़ की दौलत कैसे प्रकट होने लगती है। क्या कारण है कि मुख्य मंत्री पद से हटा दिये जाने के बाद संघ परिवार के मदन लाल खुराना, कल्याण सिंह, उमा भारती, अर्जुन मुंडा, शंकर सिंह बघेला, केसू भाई पटेल आदि बिफरने लगते हैं और अपने पितृ मातृ संगठन के खिलाफ ही कुछ भी बोलने लगते हैं।
असल में इसकी जड़ में छोटे राज्यों का गठन भी एक है। मधु कौड़ा को निर्दलीय जीतने और इकलौते सदस्य होने के बाबज़ूद भी मुख्य मंत्री बनने का मौका इसी लिये मिल सका क्योंकि छोटे राज्य में पक्ष और विपक्ष के सदस्यों की संख्या में अंतर कम होता है व प्रत्येक निर्दलीय सद्स्य का अपना महत्व होता है, जिसकी कीमत बहुत होती है और आम तौर पर उसे मंत्री बनाना ही पड़ता है। यही कारण है कि हरियाणा जैसा राज्य अपने दल बदल के कारण शुरू से ही विख्यात रहा है। गोआ और उत्तर पूर्व के अधिकांश राज्य पूरे कार्यकाल अस्थिर बने रहते हैं उत्तराखंड में बिना निर्दलीय सद्स्यों के सहयोग के सरकार नहीं बन पाती और फिर भी बीच के समय में मुख्य मंत्री बदलना पड़ता है। छोटे राज्यों के गठन से केवल चन्द कुंठित राजनेताओं को मुख्य मंत्री मंत्री आदि के पद मिल जाते हैं और सरकारी अफसरों को प्रमोशन के अवसर आदि मिल जाते हैं जिससे भ्रष्टाचार के अवसर और धन की वासना में अटूट विस्तार होता है। छोटे राज्य बनने से गरीब और आम आदमी को कभी भी कोई फायदा नहीं हुआ और ना ही राज्य का ही विकास हुआ है [हरियाना और हिमाचल के विकास के पीछे भी उनकी भौगोलिक स्तिथि है न कि छोटा राज्य] यही कारण है कि इस मांग के पीछे जितने राजनेता होते हैं उतनी जनता नहीं होती। छत्तीसगढ के गठन के समय उसकी मांग के लिये कभी दो सौ आदमियों से ज्यादा का ज़लूस नहीं निकला पर फिर भी छत्तीसगढ बन गया क्योंकि नेताओं को पद चाहिये थे।अलग बुन्देलखण्ड के लिये कुछ सत्ता कामी लोग लगातार लगे रहे हैं पर वे जनता को सक्रिय नहीं कर सके। अगर बुन्देलखण्ड राज्य बना तो वह राजनीतिक गुणा भाग के कारण बनेगा न कि जन आन्दोलन के कारण।
अलग तेलंगाना राज्य के लिये नेताओं की मांग पुरानी थी और उसे लगातार बहलाया फुसलाया तथा वादा करके झुठलाया जा रहा था किंतु जब आन्ध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री के असामायिक निधन के बाद उनके उत्तराधिकारी के सवाल पर तलवारें खिंच गयीं तब उस अवसर का लाभ उठाते हुये टी चन्द्र शेखर राव ने अनशन प्रारम्भ कर दिया और उससे घबराकर केन्द्र सरकार ने अलग तेलंगाना राज्य की मांग मानने जैसी गलती कर ली। यदि वहाँ सत्तारूढ दल में राजनीतिक संकट न आया होता तो चन्द्र शेखर राव की बात मानने का सवाल ही पैदा नहीं हो रहा था। अगर हिंसक आन्दोलन की आशंका के आधार पर छोटे राज्यों की मांग मानी जाने लगी तो निहित स्वार्थ ऐसे आन्दोलनों को और प्रोत्साहित करेंगे। इसलिये ज़रूरी हो गया है कि राज्य बनाने के लिये भूगोल, भूमि के प्रकार, प्रशासनिक नियंत्रण, सुगम यतायात, भाषा आदि को दृष्टिगत रखते हुये कुछ नियम बनाये जायें जिनके आधार पर ही राज्यों का गठन सुनिश्चित हो तथा ऐसी दूसरी सारी मांगों को केवल संसद में ही उठाने के नियम बनें। यदि ऐसा नहीं हुआ तो विघटन की श्रंखला कभी खत्म नहीं होगी क्योंकि हर गाँव की एक अलग पहचान है। दूसरी ज़रूरत यह है किसी भी क्षेत्र के विकास में पक्षपात नहीं होना चाहिये तथा जानबूझ कर किये गये किसी भी पक्षपात को देशद्रोह की श्रेणी में गिना जाना चाहिये। आखिर क्या कारण है कि तेलंगाना का विकास आन्ध्र प्रदेश के हिस्से के रूप में नहीं हो पा रहा। कश्मीर, उत्तर पूर्व, माओवादी, हिन्दूवादी आदि आतंकी संकटों के इस दौर में राज्यों के गैर गम्भीर विघटनवादी आन्दोलनों को रोकना देश की सुरक्षा के लिये बहुत ज़रूरी हैं।
वीरेन्द्र जैन
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छोटे राज्यों का प्रश्न और भाजपा का अवसरवाद

छोटे राज्यों का प्रश्न और भाजपा का अवसरवाद
वीरेन्द्र जैन
सत्ता लोलुपता के लिये भाजपा की गुलांटें किसी मदारी के करतबों जैसी दिखती हैं। इन करतबों में उसकी तथाकथित राष्ट्रवाद की पोल भी खुल जाती है। ताज़ा उदाहरण के रूप में उसके अलग तेलंगाना राज्य से उठे विवादों पर दिये विरोधाभासी बयानों को लिया जा सकता है। जो लोग जनता की मांगों पर कोई अभियान नहीं चलाना चाहते वे ऐसे शार्टकट अपनी सुविधा के अनुसार तलाशते रहते हैं।
जब मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, के बँटवारे में उसे सम्भावनायें नज़र आ रहीं थीं तो उसने अलग छत्तीसगढ उत्तराखण्ड और झारखण्ड का समर्थन किया इसमें रोचक यह है कि छत्तीसगढ की मांग के लिये कभी दो सौ लोगों से ज्यादा का ज़लूस नहीं निकला। अपने सबसे बड़े विरोधी सीपीएम की सरकार को संकट में डालने के लिये अलग गोरखालेंड की मांग को सही ठहराते हुये , गोरखा नेशनल फ्रंट का समर्थन किया जबकि सीमंत क्षेत्रों में ऐसे अलगाववादी आन्दोलन राष्ट्रीय एकता के लिये खतरनाक हो सकते हैं। वह तेलंगाना राज्य की मांग के समर्थन में है क्योंकि उससे कांग्रेस संकट में आती है और इससे उसे किसी गठबन्धन के सहारे मौका मिल सकता है। किंतु वही भाजपा अलग बुन्देलखण्ड, हरित प्रदेश, पूर्वांचल, और बृज प्रदेश के लिये सहमत नहीं है। अलग विदर्भ में सम्भावना सूंघ रही है किंतु गठबन्धन सहयोगी बाल ठाकरे की अनुमति न मिलने के कारण खतरा मोल लेने को तैयार नहीं है।
भाजपा एक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल है जो स्वयं को सैद्धांतिक दल बताते नहीं थकता। वह अपनी सीटों के आधार पर कांग्रेस के बाद दूसरा सबसे बड़ा दल भी है। किंतु यदि ऐसा है तो एक राजनीतिक दल के रूप में आखिर वह क्यों स्पष्ट घोषित नहीं करती कि राज्यों के पुनर्गठन के बारे में उसकी नीति क्या है। यदि अलग तेलंगाना राज्य का समर्थन किया जा सकता है तो अलग बुन्देलखण्ड का क्यों नहीं किया जा सकता जो तेलंगाना की तुलना में अधिक उपयुक्त मामला है। पिछले दिनों भाजपा के अनेक नेता बुन्देलखण्ड के बारे में कह चुके हैं कि उनकी पार्टी बुन्देलखण्ड राज्य का समर्थन करती है, और उनकी ही पार्टी से निकली व उसमें फिर से जाने को उतावली उमा भारती खुल कर पृथक बुन्देलखण्ड का समर्थन कर रही हैं।
दरअसल छोटे राज्यों की मांग समावेशी विकास की मांग को भटकाने का एक तरीका है। भौगोलिक विविधिता वाले देश में उत्पादन और राजस्व प्राप्ति के क्षेत्र समान नहीं होते हैं जबकि किसी भी राज्य का स्थापना व्यय लगभग समान होता है। केन्द्रीय कर्मचारियों का जब वेतन या मँहगाई भत्ता बढाया जाता है तो राज्य कर्मचारी भी उसकी मांग करने लगते हैं, और उन्हें यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक राज्य में राजस्व प्राप्ति का केन्द्र या दूसरे किसी राज्य से मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। यदि राज्य बड़ा होता है तो एक क्षेत्र की कमी की भरपाई दूसरे क्षेत्र से हो जाती है। कहीं पर कच्चा माल उत्पादन हो सकता है और कहीं पर कुशल कारीगर उपल्ब्ध होने के कारण उसको उपयोग के लायक बनाने वाली मिलें लगाई जा सकती हैं। ऐसी अवस्था में दोनों क्षेत्र ही विकास कर सकते हैं जबकि बँटवारे की दशा में अलग अलग राज्यों के टैक्स मिला कर उत्पादन को बाज़ार में मँहगा करके उसे बाज़ार से बाहर भी कर सकते हैं।
छोटे राज्यों के पीछे आम तौर पर वे नेता होते हैं जो स्वयं को सरकार में होने का सुपात्र समझते हैं किंतु सरकार बनाने वाले ऐसा नहीं समझते। सरकार में उचित स्थान न पाने वाले नेता और दल अपने नेतृत्व की क्षमता का प्रदर्शन ऐसे बँटवारे की माँग करके करते हैं। ऐसी माँग हमेशा उस क्षेत्र की जनता के विकास की मांगों से जुड़ी नहीं होती। राज नेता हमेशा राज्य की भाषा में ही बात करते हैं जबकि जनता की ज़रूरत उसकी मौलिक सुविधायें और विकास के अवसरों की होती हैं। राजनेता उन ज़रूरतों की मांग को उठने से पहले ही उन्हें अलग राज्य जैसे आन्दोलनों में भटका कर अपने हित में स्तेमाल करने लगते हैं। वे नहीं बताते कि अलग राज्य बन जाने के बाद वे व्यवस्था में ऐसा क्या परिवर्तन ला सकेंगे जिससे जनता की हालत में सुधार होगा य जहाँ पर छोटे राज्य बन गये हैं वहाँ केवल मधु कौड़ाओं की सम्पत्ति के अलावा क्या विकास हुआ है। कई बार तो सत्तारूढ दल भी जनता के आन्दोलनों की दिशा भटकाने के लिये ऐसे आन्दोलनों को पीछे से प्रोत्साहित करते रहते हैं।
यदि बिना उचित विचार के छोटे राज्यों की मांगें मान ली जाती हैं तो फिर ऐसे आन्दोलनों की बाढ को नहीं रोका जा सकता क्योंकि हमारा देश बहुराष्ट्रीयताओं का देश है और नेताओं को प्राप्त राजसी सुविधाओं के कारण उन्हें पाने का लालच रखने वाले नेता अनंत हैं। इसलिये ज़रूरी है कि एक बार फिर ऐसा राज्यों का पुनर्गठन आयोग बने जो किसी राज्य की पहुँच का क्षेत्र, सम्वाद की भाषा, सांस्कृतिक एकता, शिक्षा, स्वास्थ व उद्योगों की उपस्तिथि के साथ साथ उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता का मूल्यांकन करते हुये आवश्यक सुझाव दे व प्रमुख मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों द्वारा मिले सुझावों के आधार पर सर्व सम्मति से स्वीकृत करा सके। विकास की कमी को विकास की पूर्ति से ही दूर किया जा सकता है। ज़रूरत इस बात की है कि-
· सरकारें राज धर्म निभाते हुये पक्षपात न करें
· कमजोर क्षेत्रों की पहचान पूर्व घोषित हो और इन क्षेत्रों के विकास को प्राथमिकता मिले
· सरकार में रहने वाले नेताओं को कम से कम व्यक्तिगत सुविधायें हों और उनका जीवन सादगी पूर्ण हो ताकि सुविधाओं के लालची सत्ता में आने के लिये जनता की ज़रूरतों के मूल आन्दोलनों को न भटका सकें
· नेताओं का ज़ीवन पारदर्शी हो तथा उन्हें प्रति वर्ष अपनी और अपने परिवार की सम्पत्ति की घोषणा करना अनिवार्य हो।
· किसी स्वार्थवश अलगाववादी आन्दोलन भड़काने वालों के खिलाफ सार्वजनिक रूप से देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाये
सच्चाई यह है कि चाहे छोटे राज्य का आन्दोलन हो या राम मन्दिर बनाने के नाम पर बाबरी मस्ज़िद तोड़ने का अभियान हो ये सब सता की मलाई के लिये ललचाते नेतओं के हथकण्डे हैं और ये सत्ता के आस पास ही घूमते रहते हैं। जब इन्हें सता मिल जाती है तो ये वह सब कुछ भूल जाते हैं जिसके नाम पर इन्होंने मासूम लोगों को हिंसक आन्दोलनों में लगाया होता है।
वीरेन्द्र जैन
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फोन 9425674629

गुरुवार, दिसंबर 17, 2009

लोकतंत्र का सरकस और करतब्

इस लोकतंत्र के सरकस में कैसे कैसे करतब हैं
वीरेन्द्र जैन
मध्य प्रदेश में नगर निकायों के चुनाव परिणाम घोषित हो गये हैं और ये परिणाम मिले जुले हैं। मध्य प्रदेश के सन्दर्भ में मिले जुले परिणामों का अर्थ होता कि भाजपा और कांग्रेस के बीच का बँटवारा।यहाँ पर अन्य दल होते हुये भी नहीं हैं। नगर निकायों के इन परिणामों पर दोनों ही दल अपने अपने सिद्धांतों की जीत बता कर जनता को बहलाने की हास्यास्पद कोशिश कर रहे हैं।
प्रदेश में ये चुनाव ईवीएम मशीनों की जगह बेलेट पपेर से कराये गये जिसमें अधिकारिओं की मिली भगत से हेर फेर सम्भव है और इसी हेर फेर से बचने के लिये ईवीएम का निर्माण किया गया था। भोपाल जैसे नगर में जहाँ दूसरे छोटे नगरों की तुलना में साक्षरता का प्रतिशत अधिक है 22000 वोट खारिज किये गये जबकि जीत हार कुल 5000 से भी कम मतों से हुयी। कांग्रेस प्रत्याशी ने आरोप भी लगाया था कि मतदान पेटियाँ ला रहा एक ट्रक सात घंटे तक पता नहीं कहाँ भटकता रहा। खारिज किये हुये अधिकांश मत दो जगह मुहर लगने के कारण खारिज हुये। पहचान पत्र की कोई ज़रूरत नहीं समझी गयी। इन पंक्तियों के लेखक ने जब स्वयं हे अपना पहचान पत्र दिखाया तो पीठासीन अधिकारी ने कहा कि इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। रोचक यह है कि भोपाल नगर निगम क्षेत्र में 22000 मत खारिज़ कराने वाले मतदातों ने इतनी समझदारी भी जतायी कि नगर निगम अध्यक्ष के लिये एक पार्टी को वोट दिया और पार्षद के लिये दूसरी पार्टी को वोट दिया जिससे कांग्रेस के 39 पार्शद चुने गये और भाजपा के27 पार्षद चुने गये। जिन समझदार मतदाताओं ने अध्यक्ष पद के लिये 22000 वोट खारिज़ कराये उन्हीं मतदाताओं ने पार्षद पद के उम्मीद्ववारों को चुनते समय ऐसी गलतियां नहीं कीं। भोपाल नगर निगम क्षेत्र में अधिकांश् मतदाता नौकरी पेशा हैं।
सुप्रसिद्ध हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय वाले सागर नगर में लोग भाजपा और कांग्रेस से इतने नाराज थे कि उन्होंने न केवल किन्नर कमला बाई को 43000 वोटों के अंतर से जिता दिया अपितु कांग्रेस उम्मीदवार की जमानत तक जप्त करा दी। मजबूरी ये थी कि पार्षद पद के लिये दूसरे किन्नर उम्मीदवार नहीं थे इसलिये उन्हें भाजपा, कांग्रेस बसपा, भाजश और रांकापा आदि को जिता कर काम चलाना पड़ा। भिंड की गोहद नगर पालिका में अद्यक्ष माकपा का जीता है जबकि 18 पार्षदों में से उसका कुल एक ही पार्षद जीत सका है। टीकमगढ में अध्यक्ष निर्दलीय जीता है पर 12 पार्सद कांग्रेस के और 11 पर्षद भाजपा के जीते हैं। ज्यादातर जगहों में अध्यक्ष किसी पार्टी का है और पार्षद किसी दूसरी पार्टी के जीते हैं इससे दोनों ही पार्टियां कह सकती हैं कि हमारी नीतियों की जीत हुयी है।

मंगलवार, दिसंबर 15, 2009

क्रांतिकारी युवा नेतृत्व की सफलता ही कांग्रेस और देश को बचा सकती है

क्रांतिकारी युवा नेतृत्व की सफलता ही कांग्रेस और देश को बचा सकती है
वीरेन्द्र जैन
भले ही कांग्रेस आज केन्द्र की सता में है किंतु न तो वह अपनी अकेली दम पर सत्ता में है और ना ही वह अपनी राजनीतिक ताकत की दम पर सत्ता में है अपितु चुनावी राजनीतिक प्रबन्धन और एक बेडौल बेढंगा सिद्धांतहीन गठबन्धन उसे सत्ता में बनाये हुये है। आम चुनाव के बाद उसका बहुमत बनाने वाले दलों में से समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, बहुजन समाज पार्टी, आदि उससे विमुख हो चुके हैं और उसकी सरकार में सम्मलित डीएमके और तृणमूल कांग्रेस प्रति दिन उसके संकटों को बढा रहे हैं। कांग्रेस की आज सबसे बड़ी ज़रूरत एक राजनीतिक दल के रूप में उसकी पुनर्स्थापना की है, जिसके लिये केवल राहुल गाँधी दिग्विजय सिंह को साथ लेकर प्रयास कर रहे हैं। आज की कांग्रेस में सत्ता की जगह संगठन को महत्व देने के ये दुर्लभ उदाहरण हैं। कह सकते हैं कि ये दोनों महासचिव एक नई कांग्रेस गढने का प्रयास कर रहे हैं।

पिछले दिनों अपने उत्तर प्रदेश के दौरे पर गये हुये राहुल गाँधी ने जो सन्देश दिये हैं और अगर वे उन पर सचमुच कायम रह कर सफलता पूर्वक अमल करवा पाते हैं, तब ही कांग्रेस का उद्धार सम्भव है अन्यथा स्वार्थी समर्थन पर टिकी वर्तमान कांग्रेस सरकार कभी भी अल्पमत में आ सकती है। बिखरी और देश के मानस से अस्वीकृत् हुयी भाजपा के अलावा दूसरा कोई ऐसा बड़ा दल नहीं है जो राष्ट्रव्यापी हो। भाजपा का भी 143 लोकसभा क्षेत्रों में कोई अस्तित्व नहीं है, तथा बामपंथी दलों की उपस्तिथि और भी क्षीण है, इसलिये कांग्रेस के पराभव का मतलब विभिन्न क्षेत्रीय, जातिवादी, भाषावादी, साम्प्रदायिक, दलों का उभार और निजी स्वार्थ के अधार पर सिद्धांतहीन गठबन्धन सरकारों का बार बार गठन और बार पतन ही होगा। इस दशा का दुष्परिणाम राष्ट्रीय एकता पर खतरे के रूप में सामने आ सकता है। चीन के किसी अखबार में भारत को 26 टुकड़ों में टूटने की सम्भावना कुछ ऐसी ही आशंका को देखते हुयी ही की गयी होगी।
स्मरणीय है कि राहुल गाँधी ने अपने उत्तर प्रदेश दौरे के दौरान कहा था कि मेरे सामने 2012 कोई लक्ष्य नहीं है अपितु युवाओं का संगठन ही मेरा लक्ष्य है। चुनाव तो 2012 के बाद में भी आयेंगे आते रहेंगे। मैं इस प्रदेश की राजनीति में बदलाव लाना चाहता हूं और मेरा इकलौता लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा युवाओं को राजनीति में लाना है। में युवाओं के लिये काम करना चाहता हूं।
यदि राहुल गाँधी युवाओं को राजनीति की ओर मोड़ लेते हैं तो ये तय है कि ये युवा, बिल्डरों, सरकारी सप्लायरों, ठेकेदारों, माफिया गिरोहों, गुंडों, और लालची लम्पट खांटी बूढे नेताओं का स्थान लेंगे। उनके इस बयान से आज के राहुल गाँधी में उस राजीव गाँधी की झलक मिलती है जिसने प्रधान मंत्री बनने के बाद पहले कांग्रेस के अधिवेशन में कांग्रेस को माफिया से और सरकार को भ्रष्टाचार से मुक्त करने का संकल्प व्यक्त किया था। 85 पैसे और पन्द्रह पैसे वाली सच्चाई भी उसी दौरान सामने आयी थी व बेहद विवादास्पद और चर्चित हुयी थी। किंतु बाद में राजीव गांधी ने भी परिवर्तन के प्रयास से हाथ खींच लिये थे क्योंकि उनकी भी समझ में आ गया था कि इस राजनीतिक व्यवस्था में स्वच्छ प्रशासन और सिद्धांत की राजनीति सम्भव नहीं है। बाद में तो कांग्रेस को परिवर्तित करने का उनका संकल्प बिल्कुल टूट गया था और वे कांग्रेस को नहीं अपितु कांग्रेस ही उन्हें चलाने लगी थी।

तय है कि राहुल गांधी के सामने दो ही विकल्प हैं कि या तो वे इसी कांग्रेस के रंग में रंग कर प्रधान मंत्री पद को सुशोभित करने लगें या सरकार और कुर्सी को ठोकर पर रखते हुये कांग्रेस संगठन को घोषित सिद्धांतों पर अमल कराते हुये उसका निर्मम आपरेशन करें और विपक्ष में बैठने की मानसिक तैयारी के साथ करें। उसके बाद जो कांग्रेस बचेगी उस पर बाद में वही जनता भरोसा करेगी, जो आज उससे नफरत करती है। यह भरोसा कांग्रेस को फिर से सत्ता में ला सकता है। आज के राहुल गांधी दूसरे विकल्प की ओर जाते हुये दिख रहे हैं किंतु यह रास्ता त्याग और लम्बे संघर्ष का रास्ता है। यह रास्ता निरंतर चुनौतीपूर्ण है और अगर उन्होंने सचमुच अपनाया तो यह रास्ता एक समय उनकी पार्टी को स्लिम अर्थात छरहरी और फुर्तीली कर सकता है। प्रारम्भ में भले ही उन्हें अकेलापन लगे, पर यदि वे युवाओं का एक बड़ा संगठन खड़ा करके उसका स्वाभाविक नेतृत्व बनाये रख सके तो यह ताकत क्रांतिकारी होगी जो उन्हें अपने पूर्वजों से आगे ले जा सकती है।इससे जो राहुल गान्धी उभरेगा वह विरासत में मिली कुर्सी के आरोप से मुक्त होगा और अपनी अलग पहचान रखेगा।

इस समय जब किसी भी समय की तुलना में सर्वाधिक युवा आबादी हमारे पास में है तब युवाओं को अपने साथ कर लेना सबसे बड़ी राजनीतिक आवश्यकता है। आर एस एस ने भी भाजपा को युवा अध्यक्ष चुनने का निर्देश यही सोचकर दिया है। तमिलनाडु में करुणानिधि ने सन्यास लेने की घोषणा कर दी है। पंजाब में प्रकाश सिंह बादल ने अपने बेटे सुखवीर को कमान सौंपने का फैसला ले ही लिया है, मायावती युवा हैं मुलायम सिंह ने अपने बेटे बहू को आगे बढाना प्रारम्भ कर दिया है सीपीएम में युवा नेतृत्व है तेलगुदेशम और बीजू जनता दल भी युवा नेताओं के दल हैं। पूरी राजनीति में युवा नेतृत्व आ रहा है तब कांग्रेस जैसी राष्ट्रव्यापी पार्टी के राहुल गाँधी यदि अपने साथ समर्पित कार्यकर्ताओं की टीम बना लेते हैं तो वे सबसे आगे होंगे, बशर्ते वे कांग्रेस में छाये लम्पट युवाओं को दूर रख सकें और सिद्धांतों के लिये काम करने वालों को जोड़ सकें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
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रविवार, दिसंबर 13, 2009

pratham spandan smmaaan

प्रथम स्पन्दन सम्मान समारोह की गरिमामय् शुरुआत
भोपाल में ललित कलाओं के प्रशिक्षण प्रबन्धन एवं शोध के लक्ष्य को लेकर स्थापित हुयी संस्था स्पन्दन द्वारा घोषित प्रथम समान समारोह का प्रारम्भ भोपाल के भारत भवन में 12 दिसम्बर 2009 को हुआ। इस अवसर पर हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार गोविन्द मिश्र की अध्यक्ष्ता में स्पन्दन शिखर सम्मान, आलोचना पुरस्कार,कृति पुरस्कार कथा पुरस्कार, और चित्रकला पुरस्कार प्रदान किये गये। जो क्रमशः शीमती मृदुला गर्ग, शम्भु गुप्त, पंकज राग, प्रियदर्शन, और आदित्य देव को प्रदान किये गये। शिखर सम्मान की राशि रु.31000/- तथा शेष पुरस्कारों की राशि रु.11000/- है। संस्था की संयोजक कथा लेखिका श्रीमती उर्मिला शिरीष ने बताया कि ये पुरस्कार संस्था की ओर से प्रति वर्ष दिये जायेंगे एवं अगले वर्ष से इसमें संगीत आदि अन्य ललित कलाओं को भी सम्मलित करके नौ विधाओं तक बढाया जायेगा। हिन्दी के वरिष्ठ कवि राजेश जोशी ने सम्मानित रचनाकारों की सृजन धर्मिता पर वक्तव्य दिया। कार्यक्रम का संचालन प्रख्यात कला समीक्षक विनय उपाध्याय ने किया। इस अवसर पर चयन समिति के सदस्यओं सहित श्री नन्द किशोर आचार्य, हरीश पाठक, कमला प्रसाद, मंजूर एहतेशाम, डा.ज्ञान चतुर्वेदी, वीरेन्द्र जैन,इक़बाल मज़ीद, राम प्रकाश त्रिपाठी, मनोहर वर्मा, संतोष चौबे, विजय दत्त श्रीधर, मदन सोनी, नीलेश रघुवंशी, प्रेम शंकर शुक्ल, मुकेश वर्मा, महेन्द्र गगन, बलराम गुमास्ता, आनन्द सिंह, आदि शताधिक साहित्य और दूसरी कलाओं से जुड़े लोग उपस्थित थे। संस्था की सचिव गायत्री गौड़ और अध्यक्ष डा. शिरीष शर्मा ने अतिथियों का स्वागत किया।
इस कार्यक्रम के आयोजन में युनियन बेंक आफ इंडिया, राजस्थान पत्रिका, ग्रेसलेंड इंटेरनेशनल, म.प्र.पर्यटन विकास निगम, दुर्गा पेट्रोल पम्प, राजगढ वन मण्डल, एको विकास समिति, रय्न हाउस आदि ने सहयोग किया जो सरकारी संरक्षण से मुक्त संस्कृति की ओर बढने की तर्फ देखा जा रहा है। स्मरणीय है कि पिछले दिनों प्रदेश की भगवा सरकार ने संस्कृति में अनेक तरह की विकृतियों का समावेश किया है जिससे सच्चे कलाधर्मी निरंतर असंतुष्ट चल रहे थे।

रविवार, दिसंबर 06, 2009

मेरा 6 दिसम्बर और शुभकामनाओं की दिशा

मस्ज़िद नहीं देश को तोड़ने का दिन
वीरेन्द्र जैन
6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्ज़िद के टूटने से मुझे काफी धक्का लगा था।
मुझे एक पुरानी और बीमार इमारत के टूटने का गम नहीं था क्योंकि ये मन्दिर मस्ज़िद चर्च गुरुद्वारे तो इसी शताब्दी में टूट जाने वाले हैं, किंतु मस्ज़िद के पीछे जो षड़्यंत्रकारी ताकते^ थीं उनके षड़यंत्र के सफल हो जाने और भारत सरकार के लाचार हो जाने का दुख था। एक संविधान विरोधी ताकत ने कानून व्यवस्था को अंगूठा दिखा दिया था और पूरा देश टुकर टुकर देखता रह गया था। मस्ज़िद तोड़ने वालों को न मन्दिर से पहले मतलब था और ना बाद में ही रहा। वे पहले भी केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों में रहे थे पर तब उन्हें इसकी याद तक नहीं आयी थी। वे बाद में भी सत्ता में रहे पर तब भी नहीं आयी। वे जब संसद में कुल दो सीटों पर सिमिट गये तब उन्हें एक नया शगूफा चाहिये था तो उन्हें बाबरी मस्ज़िद का बहाना मिल गया। मुसलमान अगर उन्हें मस्ज़िद दे भी देते तो वे फिर काशी मथुरा और उसके बाद दीगर साढे तीन सौ इमारतें चाहिये थीं। सच तो यह है कि उन्हें साम्प्रादायिक ध्रुवीकरण चाहिये ताकि बहुसंख्यकों के वोट लेकर सत्ता हथिया सकें। उन्हें केवल इस बहाने सीधे सच्चे सरल लोगों को बेबकूफ बनाना था जिससे वे भ्रष्टाचार में डूब सकें सो उन्होंने किया और विचार विहीन, संगठन विहीन धन पिपासु कांग्रेस निरीह सी देखती रह गयी।
यह एक परतंत्रताबोध की बैचेनी थी। लोकतत्र के सारे मूल्यों का ध्वंस और लाठी की ताकत के उदय ने तीखी घृणा को जन्म दिया। तब से लगातार मैंने अपना नये साल का सन्देश कवितानुमा भेजना शुरू किया और लगातार दसियों साल तक ऐसा किया। इन सन्देशों की बानगी देखिये।
1993 का शुभकामना सन्देश
एक मन्दिर से बड़ा है आदमी
एक मस्ज़िद से बड़ा है आदमी
आदमी से है बड़ा कुछ भी नहीं
किसी भी ज़िद से बड़ा है आदमी
धूप कोई भेद है करती नहीं
हवा कोई भेद है करती नहीं
धर्म कोई हो वही औषधि लगे
दवा कोई भेद है करती नहीं
जा रहा परमाणु युग को विश्व जब
हम पुराने जंगली बर्बर न हों
भूख बेकारी अशिक्षा से लड़ें
आपसी संघर्ष से ज़र्ज़र न हों
1994 का शुभकामना सन्देश
आदमी को आदमी से काटती
कोई भी हरकत न हो नव वर्ष में
श्रेष्ठतम उपलब्धियों के शिखर पर
कोई बौना कद न हो नव वर्ष में
पादपों के विकासों को रोकता
एक भी बरगद न हो नव वर्ष में
सत्यता शालीनता हो शांति हो
ज़िन्दगी संसद न हो नव वर्ष में
है यही शुभकामना शुभ काम हों
हर्ष हो “हर्षद”* न हो नव वर्ष में

*{उस वर्ष हर्षद मेहता काण्ड बहुत चर्चा में रहा था
और संयोग से 31 दिसम्बर 1993 की रात में हर्षद नहीं रहा।

जैसे उसने नये वर्ष में न रहने का सन्देश सुन लिया हो}

शनिवार, दिसंबर 05, 2009

गज़ल को भाषा की तरह प्रयोग करने वाले दुष्यंत कुमार्

गज़ल को भाषा की तरह प्रयोग करने वाले दुष्यंत कुमार
वीरेन्द्र जैन
दुष्यंत हमारे समय के ऐसे बेहद महत्वपूर्ण कवि शायर हैं जिन्होंने -लीक छोड़ तीनों चलें, शायर सिंह सपूत् वाली कहावत को चरितार्थ करके दिखाया। उनकी लोकप्रिय गज़लों को भले ही उर्दू गज़ल के उस्ताद गज़ल मानने से इंकार करते हों, जिसका आग्रह वे स्वयं भी नहीं करते थे, किंतु यह तय है कि उन्होंने जिस गज़ल को प्रारम्भ किया बाद में उसे हज़ारों लोगों ने आगे बढाया। शेक्सपियर भी कहते थे -आई डू नाट फालो इंगलिश, इंगलिश फालोज मी- इसी तरह दुष्यंत के बारे में भीकह सकते हैं कि वे गज़ल का अनुशरण करते थे अपितु गज़ल ने उनका अनुशरण किया और उनकी दी हुयी शैली में लोग लिखते चले गये।
पिछले दिनों अट्टहास की एक गोष्ठी में श्री लाल शुक्ल जी ने सुनाया था कि एक समय इलाहाबाद में ट्रेश लेखन का चलन चला था और सारे बड़े बड़े लेखक ट्रेश लेखन कर रहे थे। दुष्यंत कुमार ने भी धर्मयुग के होली अंक के लिये ऐसी ही एक गज़ल लिखी थी और फिर धर्मवीर भारती ने भी अपना उत्तर उसी अन्दाज़ में लिखवाया था और वह उत्तर भी उन्हीं से लिखवाया था। दुष्यंत कुमार ने अपनी बात और उनका उत्तर दोनों ही गज़ल के अन्दाज़ में लिखे थे। आप भी उनका अन्दाज़ देखिये और मज़ा लीज़िये।
दुष्यंत का गज़ल पत्र
पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर,
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर,
अब ज़िन्दगी के साथ ज़माना बदल गया,

पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर
कल मैक़दे में चेक दिखाया था आपका,

वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर,
शायर को सौ रुपए तो मिलें जब गज़ल छपे,

हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर,
लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप,

शी! होंठ सिल के बैठ गये ,लीजिए हुज़ूर॥

धर्म वीर भारती का उत्तर बकलम दुष्यंत कुमार्

जब आपका गज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर,
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर,
ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है,

हम् घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर,
भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई,

महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर,
पारिश्रमिक का क्या है बढा देंगे एक दिन

पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर,
शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम,

हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर...
ये दोनों ही गज़लें धर्मयुग के होली अंक 1975 में प्रकाशित हुयी थीं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
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शुक्रवार, नवंबर 27, 2009

प्रो. मटुक नाथ पर प्राणघातक हमला

प्रो. मटुकनाथ और उनकी मित्र ज़ूली पर प्राण घातक हमला और एक पुस्तक लेखक बाबा को मार मार कर अधमरा किया
वीरेंद्र जैन
दिनांक 27 नवम्बर को भोपाल के रवीन्द्र भवन के अप्सरा रेस्ट्राँ में एक पुस्तक के विमोचन का कार्यक्रम का समाचार पढने पर मालूम हुआ कि पुस्तक एक बाबा ने लिखी है और उसका विमोचन बिहार के चर्चित प्रो. मटुक नाथ और उनकी मित्र ज़ूली के हाथों होने वाला है तो ज़िज्ञासा वश में भी पहुंच गया क्योंकि पिछले ही दिनों उनको कालेज से निकाले जाने पर मैंने एक फीचर एजेंसी के माध्यम से उनके पक्ष में एक लेख लिखा था इसलिये उनकी प्रतिक्रिया जानने की जिज्ञासा थी। उसी रेस्ट्राँ में नर्मदा बचाओ आन्दोलन की भी प्रेस कांफ्रेंस चल रही थी इसलिये प्रदेश भर का प्रिंट और विजुअल मीडिया वहाँ उपस्थित था। पुस्तक समाज शास्त्र से सम्बन्धित थी और उसका नाम था विवाह एक नैतिक बलात्कार। किंतु संघ और भाजपा के एक ज़ेबी संघटन संस्कृति बचाओ संघ ने प्रो. मटुक नाथ को बीच ही में रोक लिया और उनके साथ बेहद अपमानजनक व्यव्हार किया जिससे उन्हें प्राण बचा कर रवीन्द्र भवन के एक कक्ष में छुप जाना पढा। इसी बीच पुलिस अधिकारियों ने बाबा को फोन करके कार्यक्रम स्थगित करने का निर्देश दिया जिसे उन्होंने मेरी उपस्थिति में फोन पर यह कह्ते हुये मानने से मना कर दिया कि यह उनके मौलिक अधिकारों का हनन है और घोषित कार्यक्रम में आमंत्रित अतिथि का भी अपमान है। उसके बाद उक्त संगठन के लोगों ने पूरे देश के मीडिया के सामने और पुलिस की उपस्तिथि में उक्त लेखक को मार मार कर अधमरा कर दिया। खून से लथपथ बाबा को अज्ञात स्थान पर भाग जाना पड़ा। प्रदेश के प्रसिद्ध प्रकाशक को भी भागना पड़ा तथा प्रो. मटुकनाथ और उनकी मित्र ज़ूली को रवीन्द्र भवन के कक्ष में कैद रहना पड़ा। जिस समय में यह लिख रहा हूं उस समय तक वे वहाँ से बाहर नहीं निकल सके थे।

स्मरणीय है कि प्रदेश में इसी तरह पिछले दिनों प्रो. सभरवाल की भी हत्या पूरे मीडिया के सामने कर दी गयी थी और फिर भी प्रदेश सरकार ने आरोपियों को बचा लिय जिसका ज़िक्र न्यायाधीश ने अपने फैसले में भी किया। इस फैसले के बाद प्रदेश के एक मंत्री ने ज़लूस निकाला मिठाइयाँ बाँटीं और कहा कि उन्हें इतनी खुशी तो अपने मंत्री बनने से भी नहीं हुयी थी।
आखिर फासिज्म और किसे कहते हैं?

गुरुवार, नवंबर 26, 2009

ओबामा के टोटकों में नहीं फंसे मनमोहन्


ओबामा के टोटकों में नहीं फँसे मनमोहन
वीरेन्द्र जैन
राजनीति में भावुकता का सहयोग लेने का सिलसिला बहुत पुराना है। अगर हम सिकन्दर और पुरू के बीच में हुये युद्ध के बाद पुरु को राज्य वापिस मिलने की घटना को याद करें या हुमायुं को राखी भेजने की घटना की ओर दृष्टि दौड़ायें तो पाते हैं कि जो काम तलवार से सम्भव नहीं हुये वे भावुकता से हो गये हैं। हमारे देश की लोकतांत्रिक राजनीति में भी देखें तो मोहन दास करम चन्द गान्धी, महात्मा ही नहीं अपितु पूरे देश के बापू की तरह स्वीकृत होकर और जवाहर लाल नेहरू बच्चों के चाचा बन कर राजनीति को संचालित करते रहे। तिलक गणेशोत्सवों की धार्मिक परम्परा को समूह उत्सवों में बदल कर उसे स्वंत्रता संग्राम के लिये प्रयोग कर सके तो आज़ादी के बाद संघ परिवार की राजनीतिक शाखा ने कभी जनसंघ या फिर भाजपा के नाम पर लोगों की धार्मिक भावनाओं को साम्प्रदायिकता में बदल कर सत्ता पाने के औज़ारों में बदला।
वैश्वीकरण के ज़माने में भावनाओं को भुनाने का व्यापार देशों की सीमायें तोड़ चुका है और वह अंतर्राष्ट्रीय हो गया है। ईसाई मिशनरियां तो काफी दिनों से पूरी दुनिया में अपना सेवा कार्य करके धर्म प्रचार करती रही थीं पर पिछली शताब्दी से तेल उत्पादक देशों के सहयोग से मुस्लिम ब्रदरहुड ने देश की सीमाओं से बाहर निकल कर मुसलमानों को एकजुट किया है।विश्व हिन्दू परिषद आदि संस्थाओं ने भी 36 देशों में अपनी शाखायें खोल रखी हैं और धर्म के नाम वहाँ बसे हिन्दुओं से समुचित आर्थिक सहयोग प्राप्त कर रहे हैं।
भावनाओं के आधार पर स्वाभाविक सम्बन्ध विकसित करना बुरी बात नहीं है किंतु जब किसी इतर लक्ष्य के लिये किसी दूसरी भावना को आधार बनाया जाता हो तो यह एक किस्म का धोखा होता है जो सही नहीं है। हमारी भावनाओं से खिलवाड़ करने में ताज़ा नाम सन्युक्त राज्य अमेरिका के प्रेसीडेंट ओबामा का आता है जिन्होंने भारत की ताज़ा स्तिथि का आकलन करने के बाद उसके व उसकी जनता को बरगलाने के सारे हथकण्डे अपनाये हैं। जब उन्होंने चुनाव लड़ा था तभी उन्होंने अपनी जेब में चाबी के गुच्छे की तरह हनुमानजी की एक छोटी सी मूर्ति रखे होने का प्रचार कराया था ताकि वहां रह रहे भारतियों के वोट मिल सकें। विश्व हिन्दू परिषद को मदद करने वाली सोनल शाह को उन्होंने अपने सलाहकारों की टीम में सम्मलित करके हिन्दूवादी भारतियों को परोक्ष सन्देश दिया। पिछले दिनों अपने व्हाइट हाउस में उन्होंने दीवाली और गुरुपर्व मनाया।
हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ताज़ा अमेरिका यात्रा के दौरान उन्होंने फिर नये शगूफे छोड़े। ओबामा की पत्नी मिशेल ओबामा ने लीक किया कि ओबामा अपने पास हमेशा महात्मा गान्धी की मूर्ति रखते हैं और गान्धी जी के आदर्शों पर चल कर परिवर्तन के अग्रदूत बने हैं। मनमोहन सिंह को दिये भोज में उन्होंने भले ही हिन्दुस्तान के उद्योगपति रतन टाटा, मुकेश अम्बानी, इन्द्रानूयी आदि को बुलाया था पर मनमोहन सिंह के लिये विशेश तौर पर शाकाहारी भोजन तैयार करवाया गया था। अपने भाषण में भी उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के 60 साल पहले दिये भाषण का ज़िक्र करते हुये कहा कि समान भविष्य के लिये दोनों देश अपने साझा अतीत से मजबूती हासिल कर सकते हैं।
किंतु दूध का जला छाँछ भी फूंक फूंक कर पीता है इसलिये हमारे प्रधानमंत्री ने अफग़ानिस्तान में स्वयं अपनी टांग फँसाने से बचते हुये कहा कि अमेरिका को अभी वहाँ बने रहना चाहिये।

कूटनीति जब समझ में आ जाये तो स्तेमाल करने वालों को हास्यास्पद बना देती है।ओबामा को अपनी नौटंकी का शायद ही कोई लाभ मिले!
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, नवंबर 25, 2009

लिब्रहिन आयोग की रिपोर्ट और उमा भारती की कूटनीति

लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट और उमा भारती की कूटनीति
वीरेन्द्र जैन्
मैं समझता हूं कि लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट को सदन के पटल पर रख दिये जाने के बाद अब किसी को यह जानने की ज़रूरत शेष नहीं रह जानी चाहिये कि इस रिपोर्ट के सामने आने में सत्तरह मह्त्वपूर्ण वर्ष क्यों लग गये जिस कारण इस पर नौ करोड़ का खर्च आया।रिपोर्ट से साफ है कि आरोपियों ने जो कि देश के लोकप्रिय नेता थे और इस बीच प्रधान मंत्री और उपप्रधान मंत्री और गृह मंत्री जैसे सर्वोच्च पदों पर आसीन रहे थे, अपने अपराध बोध के कारण आयोग के साथ सहयोग नहीं किया। अब स्पष्ट है कि आयोग चाहता रहा होगा कि आरोपी अपने किये की सज़ा पायें। वैसे भी जैसा कि सी बी आई के पूर्व निर्देशक जोगिन्देर सिन्ह ने कहा है कि ये आयोग तो केवल जनता को बहलाने के लिये होते हैं। सच है क्योंकि कौन नहीं जानता था कि अपराधी कौन कौन हैं। किसने रथ यात्रायें निकालीं, उन रथ यात्राओं में कैसे कैसे नारे लगाते हुये उन्हें अल्प संख्यकों की बस्तियों में से गुज़ारा गया और विरोध करने पर पूरी तैयारी के साथ साम्प्रदायिक हिंसा फैलायी गयी जिससे वोटों का ध्रुवीकरण हो सके और दो सीटों तक सिमिट गयी पार्टी को आधार मिल सके। सब जानते हैं कि इतनी सारी भीड़ किसने एकत्रित की थी और यात्रा के अंतिम दिन् वाराणसी में आडवाणी ने साफ साफ कहा था कि अबकी कारसेवा बिना साधनों के नहीं होगी। ढेर सारी मीडिया रिपोर्टें थीं और देशी विदेशी फोटोग्राफरों द्वारा खींचे गये फोटुओं के सबूत थे जो बता रहे थे कि उस दिन वहाँ कौन कौन उपस्तिथ था।
अगर कुछ नहीं था तो तत्कालीन सत्तारूढ दल के पास समान संख्या में मुक़ाबला करने वाला जन बल नहीं था, इसलिये उसने टालने के लिये वक़्त देना ज़रूरी समझा।आज एक धर्म निरपेक्ष सरकार सता में है और भले ही उसके पास हुड़दंगियों की वैसी टोली नहीं हो पर सैनिक और अर्ध सैनिक बलों पर तो उसका नियंत्रण है जो हुड़दंगियों का मुक़ाबला कर सकते हैं। उम्मीद की जाना चाहिये कि इस अवसर पर कम से कम हुड़दंगियों का मुक़ाबला करने में सभी धर्म निरपेक्ष दल एकजुट होंगे जो लम्बे अर्से से बाबरी मस्ज़िद तोड़कर साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने वालों के खिलाफ कार्यवाही की मांग करते रहे हैं।
राजनीति का शौक न केवल तरह तरह के स्वांग बनाने, और अगर उससे राजनीतिक लाभ मिल रहा हो तो, उसे बनाये रखने को विवश करता है इसका उदाहरण देखना हो तो उमा भारती को देख लेना ही काफी होगा। साध्वी भेष में रहने वाली यह राजनेता भाजपा द्वारा सत्ता प्राप्ति के लिये किये जाने वाले इस राजनीतिक अभियान की ही उपज रही थीं जिन्हें बचपन से धार्मिक प्रवचनों के कारण मिली लोकप्रियता को भुनाने के लिये भाजपा नेता विजया राजे सिन्धिया ने पार्टी में सम्मलित कर लिया था। दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीति ने अपने लाभ के लिये एक धार्मिक काम में लिप्त लड़की को धार्मिक काम छोड़ देने को विवश किया था। तत्कालीन सत्तारूढ दल की अलोकप्रियता ने उमा भारती को साध्वी से भाजपा सांसद में बदल दिया था पर जिस स्वरूप ने उसे यह अवसर दिलाया था उसे न त्यागना भी उनकी मजबूरी बन गयी थी। ऊपर से साध्वी और भीतर से राजनीतिज्ञ इस युवती ने भाजपा की मजबूरी को खूब भुनाया और अपनी मनपसन्द सुरक्षित सीट से टिकिट लिया, सांसद बनी रही, केन्द्र में मंत्री बनी, फिर प्रदेश की मुख्य मंत्री बनी। जब भाजपा ने उसकी ज़िदें और शर्तें मानने से इंकार कर दिया तो अलग पार्टी बनायी और भाजपा की भरपूर छीछालेदर की। चुनाव लड़े और हारने के बाद फिर भाजपा में सम्मलित होने के लिये एड़ी चोटी का जोर लगाया पर अपनी वाचालता के कारण कुछ ऐसे मनभेद पैदा कर लिये थे कि भाजपा में दुबारा सम्मलित नहीं हो सकीं। किसी तरह उनके गठबन्धन में ही सम्मलित होने का प्रयास किया पर पहले से ही गुटबाज़ी से ग्रस्त पार्टी ने कोई खतरा मोल लेना ठीक नहीं समझा। लिब्रहन आयोग की रिपोर्ट उनके लिये छींके की तरह टूटी है यही कारण है कि आरोपियों में सबसे पहली और मुखर प्रतिक्रिया उमा भारती की ही रही। उन्होंने कहा कि अगर कोई नेता ज़िम्मेवारी नहीं लेना चाहते तो मैं अकेले ज़िम्मेवारी लेने के और राम मन्दिर के लिये फांसी पर चढने को तैयार हूं। स्मरणीय है कि इससे पूर्व भी वे यह कह चुकी थीं कि भाजपा नेताओं को 6 दिसम्बर 92 की ज़िम्मेवारी से भागना नहीं चाहिये क्योंकि वे सब वहां मौज़ूद थे। पर उस समय उनका यह बयान भाजपा नेताओं को ब्लेकमेल करने की चाल की तरह लिया गया था। अब वे फिरसे यही बयान दे रहीं हैं और भाजपा नेताओं से दोहरेपन से बाहर आने को प्रेरित कर रहीं हैं। भले ही अब माना जा रहा है कि ये इतने दिनों से निष्क्रिय राजनीतिज्ञ के सुर्खियों में आने के हथकंडे हैं किंतु उमा जी की स्वीकरोक्ति और गवाही मुकदमे में महत्वपूर्ण हो सकती है। इससे पूर्व वे दूसरे अभियुक्त कल्याण सिंह से भी गुफ्तगू कर चुकी हैं और उन्होंने भी लगभग ऐसा ही बयान दिया है जिससे अडवाणी की मुश्किलें और बढ गयी हैं। अब या तो वे इन लोगों के आगे झुक कर समझौता करें या फिर सज़ा भुगतने के लिये तैयार रहें। दूसरी ओर उमा भारती और कल्याण सिन्ह से किया गया समझौता वैंक्य्या नायडू, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, शिवराज सिंह चौहान आदि को किसी भी तरह मंज़ूर नहीं होगा जिससे भाजपा में संकट और बड़ेगा। संकट के समय भाजपा को जो इकलौता हल सूझता है वह साम्प्रदायिक दंगों का ही होता है। इसलिये अगर अतिरिक्त सावधानी नहीं बरती गयी तो इस समय भाजपा प्रेरित दंगों की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शनिवार, नवंबर 21, 2009

भाजपा में खाने और दिखाने के दांत्

भाजपा के खाने और दिखाने के दांत
रामलला की फिर से याद आने का रहस्य
वीरेन्द्र जैन्
भाजपा की राजनीति में जो कहा जाता है हमेशा चीजें वैसी ही नहीं होतीं। बहुत कुछ ऐसा घटता रहता है जिसका पता आम लोगों को नहीं होता। हाल ही में भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन के साथ साथ युवा नेतृत्व की बड़ी बड़ी बातें की गयीं किंतु उनका मतलब युवा नेतृत्व को कमान सौंपना भर नहीं था। जिस पार्टी को संघ ने तरह तरह के षड़यंत्र रच कर खड़ा किया और पूरे देश से रंग बिरंगे फिल्मी कलाकार, क्रिर्केट खिलाड़ी, भगवाभेषधारी, राजा रानी, दलबदलू आदि लोग तलाश कर जिसकी झांकी सजाई उसे वह थोथे आदर्शों पर कुर्बान नहीं कर सकती। पिछले लोक सभा चुनाव में ही उसने भोपाल लखनऊ और मन्दसौर समेत अनेक स्थानों में जिन लोगों को टिकिट दिये थे वे युवा अवस्था को वर्षों पीछे छोड़ चुके हैं।
सच तो यह है कि बाबरी मस्ज़िद तोड़ने के बारे में लिब्राहन आयोग ने सत्तरह साल लगा कर जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी उसे छह माह होने वाले हैं और सरकार को आगामी 31 दिसम्बर के पहले कार्यवाही रिपोर्ट देश के सामने पेश करना होगी। जिन भाजापा के बड़े बड़े कद वाले नेताओं के घेरे में आने की सम्भावना है वे अब उम्र दराज़ हो चुके हैं। यदि सरकार चाहेगी तो उनमें से कई नेताओं को जेल की हवा खाना पड़ सकती है। यही कारण है कि भाजपा, जिसका जनाधार निरंतर सिकुड़ता जा रहा है और उसकी हुड़दंग बिग्रेड के सदस्य अवैध कमाने में संलग्न हो गये हैं इस रिपोर्ट से आशंकित है और वह सम्भावित अपराधियों को उम्र के आधार पर छूट दिलाने के रास्ते तलाश रही है।
जिन उमा भारती ने मुख्य मंत्री पद से हटाये जाने पर भाजपा और उसके नेताओं को पानी पी पी कर कोसा था वे पिछले कई महीनों से उसमें प्रवेश पाने के लिये एड़ी चोटी का जोर लगा रहीं थीं।पर जब उनको यह समझ में आ गया कि संघ परिवार की नज़र में वे अब लाभ का सौदा न होकर एक बोझ हैं तो वे किसी तरह एन डी ए में सम्मलित होने के लिये गुहार लगाने लगीं थीं पर उनकी यह गुहार भी यह कह कर अस्वीकार कर दी गयी कि एन डी ए में सम्मिलित होने के लिये कम से कम एक सांसद का होना ज़रूरी है। वे चाहती थीं कि जब अपराधियों के प्रति कार्यवाही की घोषणा के बाद भाजपा जो हुड़दंग मचाये उस समय वे अकेली न पड़ जायें। कल्याण सिंह का भाजपा की ओर वापिस जाने के पीछे भी यही रहस्य है तथा बिना किसी बात के बाल ठाकरे बिग्रेड द्वारा मुम्बई में हुड़दंग शुरू कर देने के पीछे दूर तक सोची रणनीति नज़र आती है।
भाजपा इस मामले पर अकेली पड़ सकती है क्योंकि एन डी ए के सबसे बड़े सहयोगी जेडी(यू) और अकाली भी इस समय उनसे कन्नी काटना चाहेंगे।एन डी ए में भाजपा के सबसे बड़े संरक्षक ज़ार्ज़ तो अब शरद यादव और नीतिश की कृपा पर हैं। सपा के अमर सिंह को भी समझ में आ गया है अब कांग्रेस उन्हें मायावती को साथ लेकर फंसा सकती है और उनके इकलौते राज्य में भी अब उनका समर्थन नहीं रहा है इसलिये उन्होंने इस रिपोर्ट पर तुरंत कार्यवाही की मांग कर डाली। यदि कानून व्यवस्था के बहाने कांग्रेस कुछ कमजोरी दिखाती है तो समाजवादी पार्टी ज्यादा शोर मचा कर अपने मुस्लिम वोट बैंक को लुभाने का प्रयास कर सकती है।
इस समय राज्य सरकारों को सुरक्षित रखना उसके लिये बहुत ज़रूरी हो गया है क्योंकि गुजरात के अनुभव से उसे समझ में आ गया है कि सरकार के होने पर बड़े से बड़ा अपराध भी दब सकता है। इसीलिये भाजपा ने हर तरह से झुक कर और सारे घोषित सिद्धांतों से समझौता करते हुये एक समर्पित ईमानदार महिला मंत्री को निकाल कर कर्नाटक में समझौता किया।
अब न केवल कल्याण सिंह् को ही रामलला याद आने लगे हैं अपितु बाल ठाकरे को भी मन्दिर् बनवाने की याद आने लगी है। उन्हें उम्मीद है कि धर्म भीरु जनता शायद फिर उनके झांसे में आ जाये। बहुत सम्भव है कि कुछ भावनात्मक मुद्दों को उछलने की बाढ ही आ जाये

शुक्रवार, नवंबर 20, 2009

क्या ये नेता जनता को बिल्कुल मूर्ख समझते हैं?

क्या ये नेता जनता को बिल्कुल मूर्ख मानते हैं?
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों से देश में घटित कुछ घटनाओं से राजनेताओं की समझ पर एक ओर तो तरस आ रहा है और दूसरी ओर गुस्सा भी आ रहा है कि ये लोग जो स्वयं तो इतने अदूरदर्शी हैं कि इन्हें वह सच भी दिखाई नहीं देता जो एक सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी देख लेता है, वहीं ये जनता को इतनी मूर्ख मानते हैं कि जब ये जो कुछ भी कहेंगे उसे जनता मान लेगी।
मुलायम सिंह् यादव के संघर्ष का सम्मान करने वाले और उनके साथ सहानिभूति रखने वाले सारे लोगों ने उन्हें समझाया था कि कल्याण सिंह का साथ न केवल उन्हें घनघोर अवसरवादी और सिद्धांतहीन प्रचारित करेगा अपितु बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के लिये ज़िम्मेवार होने के कारण उन्हें मुस्लिम वोटों से हाथ धोना पड़ सकता है जो उनकी चुनावी सम्भावनाओं को प्रभावित करेगा। किंतु उनकी दिशा इतनी अमरान्ध (अमर सिन्ह के प्रेम में अन्धे) हो चुकी है कि उन्हें किसी भी और की बात समझ में नहीं आती। स्मरणीय है कि मुलायम सिंह समाजवादी आन्दोलन की उपज थे व राम मनोहर लोहिया के चेले समझे जाते रहे थे। बाद में मण्डल आन्दोलन के बाद वे पूरे उत्तर प्रदेश में पिछड़े लोगों के नेता के रूप में उभरे। उत्तर प्रदेश में 1989 में अपने राजनीतिक उद्देश्य के लिये संघ परिवार के लोगों द्वारा अयोध्या में फैलायी जा रही साम्प्रदायिक हिंसा को कठोरता पूर्वक दबाने और साम्प्रदायिकता के विरोध में कानून व्यवस्था की पक्षधरता करने के कारण उन्होंने मुसलमानों के समर्थन को कांग्रेस से खिसका कर अपने पक्ष में कर लिया। बाद में जब नरसिम्हा राव के कार्यकाल में बाबरी मस्ज़िद तोड़ दी गयी तो उत्तर प्रदेश में मुसलमान वोट थोक में उनके पक्ष में हो गये व कांग्रेस अपने इस स्थायी वोट बैंक से वंचित हो गयी। मंडल के बाद मुलायम के यादव वोट पक्के होते ही मुसलमान के वोट जुड़ने के कारण उनका उत्तर प्रदेश पर एक छत्र राज हो गया। कांग्रेस से मुस्लिम वोट खिसकने के कारण उसका परोक्ष लाभ भाजपा को भी मिला। देश के सबसे बड़े प्रदेश पर मुलायम का अधिकार हो जाने पर उन्हें अमर सिंह जैसे नेता ने घेरे में ले लिया और उनकी कमियों की भरपाई करते हुये उनके जनसमर्थन का विदोहन कुछ बड़े उद्योगघरानों के हित में कराने लगे।
अमर सिंह के इशारे पर लोधी वोटों के लालच में कल्याण सिंह को समाजवादी पार्टी के निकट लाने का जो इकतरफा फैसला उन्होंने लिया उससे उनका चुनाव जीतने का आधार ही खिसक गया। 2009 के चुनाव में उन्होंने अपने बेटे को दो जगह से चुनाव लड़वाया जो दोनों जगह से जीत गया। बाद में दूसरी सीट से स्तीफा दिला कर वहां से किसी सक्रिय पार्टी सदस्य को टिकिट देने के बजाय अपनी बहू को ही टिकिट दे दिया जिसकी अब तक राजनीति में कोई भूमिका नहीं रही थी। वे समझ रहे थे कि फिरोज़ाबाद की वह सीट उनकी झोली में है और वहां की जनता इतनी मूर्ख है कि वह मुलायम सिन्ह परिवार के पांचवें सदस्य को भी चुन कर भेज देगी। पर एक ज़मीनी नेता को यह भी नहीं दिखाई दिया कि ऊंट किस करवट बैठ रहा है और लोग जाति के आधार पर एक सीमा तक ही सोचते हैं। इस बुरी हार के बाद मुलायम ने जो किया वह और भी अधिक शर्मनाक था। उन्होंने बयान दिया कि कल्याण सिंह् कभी भी समाजवादी पार्टी में नहीं थे और न होंगे। सारे लोग जानते हैं कि उन्होंने लोकसभा चुनाव में एक मंच से भाषण दिया और मुलायम ने उन्हें लाल टोपी पहनाई। वे विनम्रता पूर्वक उनसे नाता तोड़ सकते थे और अपनी भूल के लिये जनता से क्षमा मांग सकते थे पर उन्होंने ऐसा न करके एक ज्वलंत सच को झुठलाने की कोशिश की। अमर प्रेम में मुलायम सिंह अन्धे हो सकते हैं पर जनता को तो दिखता है। दूसरी ओर कल्याण सिंह् ने गुहार लगा दी कि मुलायम धोखेवाज़ हैं (जो उन्हें समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद् ही समझ में आया) इसके बाद उन्होंने भी कह दिया कि वे स्वयं सेवक थे और स्वयं सेवक रहेंगे। विनय कटियार ने पार्टी से बिना पूछे ही उनका तुमुल स्वर से स्वागत भी कर दिया जबकि दो बार पार्टी से बाहर जाने के बाद उन्होंने भाजपा को जिन शब्दों में याद किया वे बहुत ही आपत्तिजनक थे। उन्होंने अटल बिहारी को पियक्कड़ कहा था और कहा था कि भाजपा ने राम लला को पोलिंग एजेंट बना दिया है। विधान सभा चुनावों के दौरान उन्होंने कमान अपने हाथ में लेने की ज़िद की थी पर हार के बाद आयोजित किसी भी समीक्षा बैठ्क में वे गये ही नहीं। कहने वाले कहते हैं कि चुनाव फंड के लिये आये हुये धन के बड़े गोपनीय हिस्से का हिसाब उन्होंने किसी को नहीं दिया। इस दौरान पार्टी के भीतर और बाहर उनकी जिन शब्दों में निन्दा की गयी थी उसके बाद उनका पार्टी में वापिस जाना और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं का पलक पांवड़े बिछाना जनता में ऐसी राजनीति के प्रति जुगुप्सा पैदा करता है। उमाभारती से मुख्य मंत्री पद छीने जाने और भाजपा नेतृत्व द्वारा वादा करके भी फिर नहीं देने के बाद उन्होंने अटल बिहारी को छोड़ कर बाकी के नेताओं को जिन शब्दों में याद किया था उनकी प्रतिक्रिया में उस समय के संघ प्रमुख सुदर्शन ने उनके जातीय संस्कारों पर दोष मढ दिया था। उन्होंने जनता से वादा किया था कि वे भाजपा को समूल नष्ट करके ही मानेंगीं। बड़ामल्हरा चुनावों के दौरान उन्होंने मुख्य मंत्री पर उनकी हत्या के आरोप लगाये थे। वेंक्य्या नायडू, सुषमा स्वराज और अरुण जैटली के खिलाफ तो उन्होंने क्या क्या नहीं बोला था। वही उमा भारती पिछले दिनों से भाजपा में घुसने के बहाने तलाशती हुयी भीगी बिल्ली बनी बैठीं थीं पर जब अडवाणी चौकड़ी के प्रमुख नेताओं ने उनकी दाल नहीं गलने दी तो अब कहने लगी हैं कि वे भाजपा में तो कभी नहीं जायेंगीं पर राजग का भाग ज़रूर बन जाना चाहेंगीं। यह पिछले रास्ते से प्रवेश का प्रयास है। वे जनता को इतना मूर्ख समझ बैठीं हैं कि जैसे उसे तो कुछ भी याद नहीं रहता।
जब मधु कौड़ा के यहां छापा पड़ा और चार हज़ार करोड़ तक की अघोषित सम्पत्ति के संकेत समेत घर से दो क्विंटल सोना बरामद हुआ उस पर भी वे पहले तो अस्पताल में भरती हो गये और फिर बयान दिया कि यह उन्हें फंसाने का षड़्यंत्र है। नेता लोग फंस जाने पर जिस तरह से बीमार हो जाते हैं उससे डर लगता कि अगर कभी कोई नेता सचमुच बीमार हो जाये तब भी लोग उसे झूठ न समझें।
मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार के अनेक मंत्रियों के यहां करोड़ों की दौलत मिलने के बाद भी लोकसभा चुनावों तक तो उनसे दूरी बना कर रखी गयी पर चुनाव हो जाते ही उन्हें फिर से मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया गया।
ये तो चन्द ताज़ा उदाहरण हैं, किंतु जनता के सामने खुले झूठ और नंगी ढीठता पूर्वक अनैतिक हरकतें होते रहने से उसका विश्वास नेताओं के साथ साथ व्यवस्था से भी उठता जा रहा है। किसी नेता के साथ दुर्घटना होने पर जनता में सहानिभूति की जगह एक हिंसक खुशी देखी जाने लगी है। माओवादियों की हिंसा से भी लोग इसलिये नाराज़ हैं कि वे निरीह नागरिकों और विवश सरकारी कर्मचारियों और सिपाहियों को हिंसा का शिकार बनाते हैं। आम तौर पर लोग यह कहते हुये उनकी निन्दा करते हैं कि ये बेचारे गरीब लोगों को मार रहे हैं और नेताओं से कुछ नहीं कहते। आशंका बलवती हो रही है कि कल के दिन अगर वे कुछ नेताओं पर हमले का प्रयास करने लगें तो जनता का एक बड़ा तबका उनसे सहानिभूति न रखने लगे। इसलिये ज़रूरी है कि हमारे नेताओं के आचरण ऐसे हों जिससे उन्हें जनता का समर्थन मिले और वे उसे सच्चा नेतृत्व दे सकें। किसी भी राजनीतिक दल या गठबन्धन को भ्रष्टाचारी और अनैतिक व्यक्ति को दूर करने में देर नहीं करना चाहिये अन्यथा उस दल व गठबन्धन को तो नुकसान होगा ही, देश और लोकतंत्र को भी बड़ा नुकसान होगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

मंगलवार, नवंबर 17, 2009

बाल ठाकरे और सचिन के बीच चुनाव हो

बाल ठाकरे को सचिन के विरुद्ध चुनाव लड़ने का साहस करना चाहिये
वीरेन्द्र जैन
मुम्बई के कुछ माफिया गिरोहों के खिलाफ कांग्रेस सरकार द्वारा पाले गये एक गुंडे ने अपनी राजनीतिक पार्टी बना ली और उगाही की गयी राशि से जो गिरोह जोड़ा उसकी दम पर अपने आप को नेता समझ रहा है। जब इस गिरोह के आमात्य रहे व्यक्ति ने अपना अलग गिरोह बना लिया तो यह गुंडा बौखला गया है और सन्निपात में अनाप शनाप बकने लगा है। जब पिछले दिनों कोर्ट ने उसे सज़ा सुनायी थी तब उसने अपनी वृद्धावस्था की दुहाई देते हुये क्षमा याचना की थी और सज़ा में माफी पायी थी। पर अब लग रहा है कि उसकी माफ की गयी सज़ा पर भी पुनर्विचार होना चाहिये। जिसे देश और प्रांत की प्राथमिकताओं का ज्ञान नहीं है उसके साथ वैसा ही व्यवहार होना चाहिये जैसा कि भिन्डरावाले,के साथ हुआ था या जम्मू कश्मीर या उत्तर पूर्व के अलगाववादियों के साथ हो रहा है। खेद तो यह है कि स्वयँ को राष्ट्रवादी होने का ढिंढोरा पीटने वाली भ्रष्ट भाजपा और संघ के प्रवक्ता अपने चुनावी लाभ के लिये मुंह में दही जमा कर बैठ गये हैं। अगर आज अटल बिहारी बोल सकने सक्षम होते तो बहुत सम्भव था कि वे उचित ज़बाब देते। अटलजी ने इन्दिरा गान्धी द्वारा अमेरिका के सातवें बेड़े से डरे बिना जब बांगला देश के स्वतंत्रता अभियान में अग्रणी भूमिका निभायी थी तब उन्हें दुर्गा कहा था। इसे कहते हैं राष्ट्र भक्ति। खेद है कि अब केवल दलाल ही दलाल अपनी तूती बज़ाने में लगे हैं। यदि बाल ठाकरे को स्वयं के राजनीति में होने का भ्रम है तो उसे सचिन् के खिलाफ देश के किसी भी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव में उतरने की चुनौती देना चाहिये उससे पता चल जायेगा कि इस देश में किसकी राजनीति और कैसी राजनीति स्वीकार है। केन्द्र की यूपीए सरकार केवल गरीब आन्दोलनकारियों पर ही लाठी चार्ज कर पाती है तथा बाल ठाकरों और शाही इमामों के चरण चूमती है।

सोमवार, नवंबर 16, 2009

कौन बनेगा भजपा अध्यक्ष ?

कौन बनेगा भाजपा अध्यक्ष?
वीरेन्द्र जैन
पिछले दिनों आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत लगातार एक सुर में दो बातें बोल रहे हैं, पहली तो यह कि हम भाजपा के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करते और चूंकि भाजपा में संघ के स्वयं सेवक सक्रिय हैं इसलिए संघ मांगे जाने पर सुझाव देता है। और दूसरी तरफ वे लगातार, बिना यह बताये हुये कि सलाह किसने मांगी है, यह कहते रहते हैं कि पार्टी अध्यक्ष युवा होना चाहिये, वह अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार और वैंक्यया नायडू जैसी दिल्ली में रहने वाली चौकड़ी में से नहीं होगा। इस तरह उन्होंने आडवाणी और उनके हनुमानों के साथ साथ मुरली मनोहर जोशी, विजय कुमार मल्होत्रा समेत अनेक वरिष्ठ नेताओं की आशाओं पर भी तुषारापात कर दिया। भले ही भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावेडकर कहते रहें कि पार्टी संविधान के अनुसार कोई भी सदस्य अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ सकता है। पर सब जानते हैं कि पार्टी सदस्यों के बिना चाहे जो संस्था आडवाणी जैसे कद्दावर नेता को उनके पाकिस्तान में दिये गये एक बयान के आधार पर बाहर का रास्ता दिखा सकती है तब पार्टी में कैसा और कहाँ का लोकतंत्र! अगर लोकतंत्र होता तो उमा भारती चिल्लाती हुयी बाहर नहीं जातीं कि मुख्यमंत्री बनाने से पहले विधायक दल की राय तो ले लो, और 57 विधायक साथ में नत्थी किये वसुंधरा राजे राष्ट्रीय अध्यक्ष से गुहार लगाने के बाद भी विधायक दल के नेता पद से स्तीफा देने के लिए विवश नहीं होतीं। उपरोक्त संभावितों के संघ प्रमुख द्वारा तय पात्रता से बाहर हो जाने के बाद पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी का नाम उछला जिससे सभी हतप्रभ हो गये थे किंतु बाद में नितिन गडकरी का नाम आने से गोपी नाथ मुंडे सकते में आ गये थे जो आजकल प्रमोद महाजन की विरासत को सम्हालते हुये बताये जाते हैं और महत्वपूर्ण हैं। बाद में गडकरी ने कह दिया कि वे अध्यक्ष पद का 'चुनाव लड़ने' के इच्छुक नहीं हैं।
भाजपा का जो चरित्र निर्मित हो गया है उसके अनुसार विधायक मंत्री मुख्यमंत्री पद के लिए तो मारकाट मची रहती है किंतु संगठनों के पद के लिए वे ही लोग उत्सुक रहते हैं जिन्हें संसद या विधानसभाओं में कोई स्थान नहीं मिल पाता। जब से बंगारू लक्ष्मण स्टिंग आपरेशन में नोटों की गिड्डियां दराज में डालते व डालरों में मांगते देश भर में देख लिये गये हैं तब से अध्यक्ष पद और भी अनाकर्षक हो गया है। स्मरणीय है कि आडवाणी के स्थानापन्न अध्यक्ष वैंकैया नायडू के प्रति उमा भारती समेत कई सक्रिय नेता चपरासियों की तरह व्यवहार करते थे। संघ के निर्देश पर आडवाणी को बिना बात किये हुये अध्यक्ष पद से निकाल बाहर करने से भी पद की गरिमा गिर गयी है व लगातार पराजित होती पार्टी में सम्मान की तुलना में अपमान के अवसर अधिक पैदा हो गये हैं। अध्यक्ष राजनाथ सिंह यदि महाराष्ट्र में किसी को संगठन की जिम्मेवारी सोंपते हैं तो मुंडे की धमकी के बाद आडवाणाी उनके निर्णय को पलट देते हैं। अनुशासन का यह हाल है कि पार्टी आफिस में रखी तिजोरी से ढाई करोड़ रूपये गायब हो जाते हैं और पार्टी रिपोर्ट भी नहीं लिखा पाती। यही कारण है कि भाजपा के नेता संगठन की जगह विधायक सांसद मंत्री या कारपोरेशन्स के पदाधिकारी जैसे मलाईदार पद पाना अधिक पसंद करते हैं और न बनाये जाने पर मार काट पर उतर आते हैं।
अभी हाल ही में भाजपा शासित मध्यप्रदेश में मंत्रिमंडल का विस्तार किया गया था पर इस विस्तार के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री के प्रति भाजपा के सदस्यों ने जो विचार व्यक्त किये उससे न केवल मुख्यमंत्री की अपितु पूरी भाजपा का चरित्र सामने आ गया। पिछले कार्यकाल के दौरान कुछ मंत्रियों ने भ्रष्टाचार से जो करोड़ों रूपये कमाये थे उन्हें अपने निकट के रिश्तेदारों और नौकरों चाकरों के नाम पर रख छोड़ा था। आयकर विभाग ने इस भ्रष्टाचारी पैसे के ट्रस्टियों के घरों और लॉकरों पर छापा मार कर अटूट दौलत और प्रापर्टी के कागजात बरामद किये थे। एक मंत्री के ड्राइवर के नाम से लिये गये लाकर में ही सवा करोड़ बरामद हुये थे। उसके तुरंत बाद हुये विधानसभा चुनावों में उक्त मंत्रियों को इस आधार पर टिकिट दिया गया था कि वे अपनी अवैध कमाई की दौलत को ही चुनावों में झोंकेंगे और पार्टी से कोई सहायता नहीं मागेंगे। ऐसा हुआ भी और इस अवैध दौलत के सहारे वे चुनाव जीत भी गये। विधानसभा चुनावों के कुछ समय बाद ही लोकसभा के चुनाव थे इसलिए इन बदनाम मंत्रियों को लोक दिखावे के लिये मंत्रिमंडल से दूर रखा गया ताकि मतदाता को धोखे में रखा जा सके। दूसरी ओर अपने भ्रष्टाचार की कमाई से पार्टी और पार्टी नेताओं की मदद करने वाले इन नेताओं को आश्वस्त करने के लिए मंत्रिमंडल में स्थान खाली रखे गये। धोखा केवल जनता ने ही नहीं खाया अपितु सत्तारूढ पार्टी के विधायक भी धोखे में रहे और खाली स्थानों पर अपनी उम्मीदवारी जताने लगे। कुछ को तो उच्च नेताओं ने आश्वासन भी दे दिया था। किंतु लोकसभा चुनाव निबटाने के बाद जब मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ तब उन्हीं दागी मंत्रियों को फिर से कैबिनेट में स्थान दे दिया गया, जिससे मंत्री बनने का सपना देखने वालों के सिर पर गाज गिर गयी। मंत्री पद के आहत उम्मीदवारों ने अपने समर्थकों से न केवल प्रर्दशन कराये अपितु मुख्यमंत्री का पुतला भी फूँँका। एक जिस पूर्व मंत्री के पुत्र पर हत्या का आरोप है और जिसे मंत्री नहीं बनाया गया उसने तो राष्ट्रीय अध्यक्ष से अपनी व्यथा सुनायी और मंत्रिमंडल में सम्मिलित किये गये मंत्रियों के कच्चे चिट्ठे का वह भाग भी खोला जो राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए अज्ञात था। इन मंत्रियों के चक्कर में किसी महिला विधायक को मंत्री नहीं बनाया गया जबकि छह विधायक प्रतीक्षा में थीं। कहते हें कि एक महिला विधायक तो फूट फूट कर घन्टों रोयीं।
संघ प्रमुख ने पुणे में भाजपा के लोगों से जड़ों की ओर लौटने का आवाहन किया। यह कह कर उन्होंने बहुत गलत समय पर सही बात की है। जड़ों की ओर लौटने का मतलब भाजपा को उदार खुले द्वार की पार्टी से जनसंघ के दौर की कट्टर हिन्दूवादी पार्टी बनाना है। पर तब से अब तक गंगा में बहुत सारा पानी बह चुका है। आज की भाजपा को संघ की जरूरत सलाह के लिए नहीं है अपितु चुनावों और चुनाव की दृष्टि से किये जाने वाले आन्दोलनों के लिये है। आज की भाजपा एक सत्ताकांक्षी नहीं अपितु सत्ता लोलुप पार्टी है जिसके नेताओं का लक्ष्य सत्ता से अपना व अपने परिवार का वैभव बनाना व अटूट दौलत कमाना है। नब्बे प्रतिशत से अधिक भाजपा के जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचार से दौलत बना चुके हैं तथा पार्टी व उसके सहयोगी संगठन अपने शासन वाले राज्यों में सरकारी मदद से अरबों रूप्यों की जमीनें जायजादें अपने संगठनों के नाम पर करवा चुके हैं। संघ से भाजपा में आये सदस्य भी समान गति से भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और संघ में वापिस लौटने की जगह राज्यसभा में पहुंचने के लिए प्रयास रत रहते हैं। मध्यप्रदेश जैसे राज्य तो बाहर के लोगों के लिए स्वर्ग हैं और यहाँ के कार्यकर्ताओं को राज्यसभा-लोक सभा में भेजने की जगह यहाँ खुलने वाले उद्योगों में मजदूरी सुनिश्चित करने की गुहार यहाँ के मुख्यमंत्री लगा रहे हैं। आज की भाजपा के लोग वापिस जनसंघ होने और स्वयंसेवकों के लिए अनुशंसित आचरण करने नहीं जा रहे हैं। यदि ऐसा करने के लिए कहा गया तो इनमें से अधिकांश पार्टी छोड़ कर कोई दूसरी सुविधाजनक पार्टी तलाश लेंगे क्योंकि सत्ता के लिए सिद्धांतहीन दलबदल करने कराने के ये अभ्यस्त हो चुके हैं। अब ये एक पार्टी नहीं अपितु सत्ता के लाभ बटोरने वाले गिरोह की तरह काम कर रहे हैं। इनके आन्दोलन और रैलियां इनके घोषित उद्देशयों के लिए नहीं होतीं अपितु चुनावों में अपनी संभावनाएं बनाने के लिए होती हैं। रैलियों में स्वत:स्फूर्त लोग नहीं अपितु किराये के लोग लाये जाते हैं। यह किराया कभी नगद और कभी सरकारी योजनाओं में उनका जायज हक दिलाने के अहसान की तरह चुकाया जाता है।
भाजपा के लिए अब एक तरफ कुँआ तो दूसरी तरफ खाई है। यदि वे किसी ईमानदार और संघ के सिद्धांतों का पालन करने वाले व्यक्ति को कमान सोंपते हैं तो पार्टी की चुनावी संभावनाएं इस हद तक सिकुड़ जायेंगीं कि अगले दस साल तक तो वे सत्ता में आने के बारे में सोच भी नहीं सकते। और यदि वे किसी उम्रदराज खांटी नेता के हाथ में ही कमान दिये रखना चाहते हैं तो संघ का आधार खत्म होता चला जायेगा। ऐसे में यह सवाल मुँह बाये खड़ा है कि (देखें)-
कौन बनेगा भाजपा अध्यक्ष?

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शनिवार, नवंबर 14, 2009

पते पलटने का मन-वीरेन्द्र जैन्

पते पलटने का मन
आम तौर पर पता निम्नानुसार लिखा जाता है
प्रति,
श्री राम भरोसे मिश्र
मकान नम्बर 420/3
बटोली नगर
किले के पीछे
झांसी (उ.प्र.)
पिन 403 404
मेरे हिसाब से सबसे पहले लिफाफा, छंटाई वाले जिस डाक कर्मी के हाथ आता है उसकी पहली ज़रूरत नगर का नाम जानने की होती है। उसके बाद वाले पोस्टमैन को कालोनी का नाम और फिर उसके बाद वाले को मकान का नम्बर और नाम की ज़रूरत होती है। तो फिर पता ऐसे क्यों नहीं लिखा जाता जैसे
पिन 403404
झांसी
किले के पीछे बटोली नगर
मकान नम्बर 420/3 राम भरोसे मिश्र्
यदि किसी को इस समबन्ध में कुछ कहना हो तो कृप्या बतायें।

बुधवार, नवंबर 11, 2009

एक और आतंकी हमला

हिन्दी में शपथ के बहाने
मुम्बई में एक और आतंकी हमला
वीरेन्द्र जैन्
अभी मुम्बई पर 26 नवम्बर 2008 को हुये आंतकी हमले को एक साल भी नहीं बीता था कि एक और आतंकी हमला हो गया जो किसी ताज़ होटल में नही अपितु देश के संविधान पर लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण इमारतों में से एक विधान सभा भवन में हुआ। इसने पिछले दिनों संसद भवन पर हुये हमले की याद दिला दी। यह हमला इसलिये भी और ज्यादा भयानक है क्योंकि यह केवल इमारतों या व्यक्तियों पर किया गया हमला भर नहीं है अपितु यह हमारी लोक्तांत्रिक व्यवस्था और उसकी सरकार पर सीधा सीधा पूर्व चुनौती देकर किया गया हमला है।
इमारतें फिर से दुरस्त हो जाती हैं किंतु एक बार खोया हुआ विश्वास जल्दी वापिस नहीं लौटता। यह हमला न केवल हमें भिंडरवाला के खालिस्तान आन्दोलन से हुये नुकसान की ही याद दिलाता है अपितु कश्मीर समेत उत्तर पूर्व के राज्यों में चल रहे अलगाववादी आन्दोलनों की कड़ी में एक और राज्य को जोड़ने का काम करता है।
राज ठाकरे और उनके विधायकों द्वारा किये गये कामों की आलोचना के लिये शब्दों की ज़रूरत नहीं है क्योंकि वे शब्दों में तर्कों की भाषा में बात ही नहीं कर रहे हैं और ना ही किसी बहस की अपेक्षा ही रखते हैं। उनका सीधी सीधी चुनौती ताकत की है। हिन्दी का स्थान, शपथ की भाषा-चयन का अधिकार, राष्ट्रीय एकता का सवाल और संघीय व्यवस्था आदि की बातें तो तब की जा सकती थीं जब वे इस तरह का कोई सवाल उठाते। वे तो साफ साफ कहते हैं कि जैसी मेरी मर्ज़ी है वैसा करो या आमने सामने ताकत से टकराने के लिये तैयार रहो। लगभग ऐसी ही स्तिथियों में भिंडरावाले ने आपरेशन ब्लू स्टार की नौबत ला दी थी जिसमें हज़ारों मासूम लोग मारे गये थे तथा बाद में देश की प्रधान मंत्री को भी शहीद होना पड़ा था। जब इस तरह से संविधान को खुली चुनौती दी जा रही हो और पूर्व घोषणा के अनुसार ही कानून तोड़ा जा रहा हो तो सरकार के चुप बैठने का मतलब उसके न होने के बराबर है। लगता है राज ठाकरे को इसकी प्रेरणा संघ परिवार द्वारा नरसिन्हाराव सरकार को खुली चुनौती के साथ बाबरी मस्ज़िद तोड़ने और उससे उपजे ध्रुवीकरण से सत्ता सुख भोगने से मिली होगी। जब सत्तरह साल तक सुनवाई करते रहने वाली लिब्राहन आयोग के बाद भी दोषियों को सज़ा नहीं मिलेगी तो ऐसी प्रवृत्तियों का प्रसार होना सहज है। जब श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट के बाद भी बाल ठाकरे का कुछ नहीं बिगड़ेगा तो उनके उत्ताराधिकार के सवाल पर अलग हुये राज ठाकरे उसी रास्ते पर क्यों नहीं जायेंगे! नक्सलवादी तो दुरूह जंगलों में छुप कर सरकार को चुनौती देते हैं किंतु राज ठाकरे जैसे लोग तो बीच शहर में बैठ कर गैर कानूनी बातें कर रहे हैं। कांग्रेसी और एनसीपी नेताओं को सरकार में मलाईदार पद लेने से अधिक किसी बात में दिलचस्पी नहीं है और यदि राज ठाकरे द्वारा भाषायी-भावनाओं से भटकायी गयी जनता तक सही बात नहीं पहुंचती है तो एक बार फिर व्यापक हिंसा से बचा नहीं जा सकता।यदि ऐसा हुआ तो यह राज ठाकरे की ही जीत होगी।
राज ठाकरे के विधायकों द्वारा लोकतंत्र के मन्दिर में किये गये कृत्य की भले ही सारे द्लों द्वारा निन्दा की गयी किंतु इस आलोचना में शिवसेना मुखर नहीं रही और भाजपा की प्रतिक्रिया भी बेहद सुप्त सी और गोलमोल है जिससे कभी भी इधर उधर हुआ जा सकता है। औपचारिक बयान भी शाहनवाज़ खान से दिलवाया गया है। स्मरणीय है कि वरुण गान्धी के मामले में भी शाहनवाज़ और मुख्तार अबास नक़वी से ही बयान दिलवाया गया था और जब उन्होंने वरुण के बयान की आलोचना कर दी थी तो पूरे चुनाव के दौरान उन दोनों को ही उक्त दृश्य पटल से गायब कर दिया गया था जिससे यह सन्देश गया कि ये मुसलमान तो ऐसा बोलेंगे ही।
यह न हिन्दी का मामला है और न ही मनसे व समाजवादी का ही झगड़ा है अपितु यह केवल लाठी और लोकतंत्र का झगड़ा है। राज ठाकरे अपने चाचा के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने आप को एक ऐसे गिरोह के मुखिया में बदल देना चाहते हैं जिसके इशारे पर देश की आर्थिक राजधानी में रहने वाले अपनी काली गोरी कमाई में से एक उचित हिस्सा उनके लिये उगलते रहें। जो काम मुम्बई के माफिया गिरोह करते आ रहे हैं वही काम बाल ठाकरे परिवार राजनीतिक पार्टी के नाम पर करता है। उनकी धमकी पर किसी भी कलाकार को फिल्म में से निकाला जा सकता है या किसी कलाकार को ब्लेकलिस्टेड किया जा सकता है। हंगल जैसे श्रेष्ठ्तम कलाकार तक इसका शिकार हो चुके हैं और अमिताभ बच्चन जैसे तथाकथित महानायक उनके दरवाजे पर ढोक देते हैं। राजनीति में अपना प्रभाव बनाने के लिये वे कोई भावनात्मक मुद्दा उठाते हैं जो धर्म क्षेत्र भाषा जैसे किसी भी विषय का हो सकता है। देश में बढती बेरोज़गारी के खिलाफ कोई आन्दोलन छेड़ने की बजाय वे स्थानीय निवासियों को इस आधार पर बरगलाते हैं कि उनकी बेरोजगारी और उससे जनित गरीबी के कारण ये दूसरे राज्य से आये हुये लोग हैं। वे इस बात को छुपा जाते हैं कि दूसरे राज्य से जो लोग आये हैं वे वहां फैली बेरोजगारी के कारण ही आये हैं और कम वेतन में काम करने तथा अपनी कुशलता के कारण स्थानीय लोगों की तुलना में पहले रोज़गार पा गये हैं। वे यह भी नहीं बताते कि ये रोजगार पैदा करने वाले और देने वाले भी हिन्दी भाषी राज्यों से ही आये हैं।। मुम्बई में सारे बड़े बड़े संस्थान जो सर्वाधिक रोजगार पैदा करते हैं ,वे गैर मराठी भाषी लोगों द्वारा ही स्थापित और संचालित हैं। जिस फिल्म उद्योग में सर्वाधिक धन लगा हुआ है उसमें मराठी भाषी कितने लोग हैं?
राज ठाकरे से बाल ठाकरे का झगड़ा केवल उत्तराधिकार का है इसलिये उनकी कार्यविधि के बारे में बात करते समय दोनों में भेद नहीं किया जा सकता। राज ठाकरे भले ही बाल ठाकरे की सम्पत्ति के सच्चे उत्तराधिकारी न हों किंतु उनकी दूषित राजनीति के सच्चे उत्तराधिकारी वे ही थे। बाल ठाकरे ने भले ही गलती कर दी हो किंतु उनके समर्थकों ने वास्तविक उत्तराधिकारी की पहचान में कोई गलती नहीं की। ताज़ा हथकण्डा राज ठाकरे को बाल ठाकरे की विरासत के और अधिक पास ले जायेगा।
इस सोची समझी घटना का एक आयाम यह भी है कि यह रोज़गार की मांग करने वालों को आपस में ही लड़ा कर उनके संघर्ष की दिशा को भटकायेगा। अवसर की तलाश में बैठी भाजपा मौका देखकर अपने पत्ते खोलेगी पर यही अवसरवादी रुख उसकी छवि को और गिरा देगी।

शुक्रवार, नवंबर 06, 2009

श्रद्धांजलि प्रभाष जोशी

क्या वे सचिन के 17000 रन पूरे करने के लिये प्रतीक्षा कर रहे थे?
वीरेन्द्र जैन्
शायद उन्हें सचिन के 17000 रन पूरे होने की प्रतीक्षा थी। अपने पिछले जन्मदिन पर लिखे कागद कारे में उन्होंने आगामी मृत्यु को सूंघ लेने के साफ साफ संकेत दे दिये थे।
वे ऐसे इकलौते वरिष्ट सम्पादक विचारक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता थे जिन्हें समाज राजनीति अर्थ व्यवस्था आदि की बराबरी पर क्रिकेट को रखने में कोई परेशानी नहीं होती थी जबकि हम जैसे कई लोग जब किसी विशेष महत्व के विषय पर उनके धारदार लेख की प्रतीक्षा में जनसत्ता का इंतज़ार कर रहे होते, तब प्रथम पृष्ठ पर उतनी ही धार के साथ क्रिकेट पर उनका लेख देख कर कोफ्त होती थी। बाद में पता चला कि वे एक अखकार के सम्पादक के रूप में जन रुचियों के प्रति कितने सम्वेदन शील थे।
एक बार जब वे भारत भवन में आये थे और बातचीत में उनसे उनके सती प्रथा वाले सम्पादकीय के बारे में जिज्ञासा व्यक्त की तो उन्होंने कहा था कि एक सम्पादक का काम भी एक बेट्स मैन की तरह होता है जिसको एक दो सेकिंड में फैसला ले लेना होता है कि इस आती हुयी बाल को खेलना है छोड़ना है, हिट करना है या डिफेंसिव रहना है! और ये एक दो सेकिंड बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। इस त्वरित फैसले में की गयी गलती कई बार खिलाड़ी को भारी भी पड़ जाती है । सम्पादक के लिये भी ऐसे ही क्षण बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।

रविवार, नवंबर 01, 2009

समीक्षा मेरे मुंह में ख़ाक -लेखक मुश्ताक अहमद यूसुफी

मेरे मुंह में खाक्””
मुश्ताक अहमद यूसुफी के उपन्यास का हिन्दी अनुवाद
वीरेन्द्र जैन
मुश्ताक अहमद यूसुफी की किताब - मेरे मुंह में खाक- के हिन्दी में प्रकाशित होने की सुचना के साथ ही इस बारे में कोई दूसर विचार नहीं आया सिवाय इसके कि इसे खरीदना है और पढना है। यह इस्दलिये कि इससे पहले में उनकी किताब- आबे गुम- का अनुवाद -खोया पानी के अंश पहले लफ्ज़ में और फिर पुस्तकाकार पढ कर मुग्ध हो चुका था। -राग दरबारी- के बाद यह दूसरी पुस्तक ठी जिसके पढने का आग्रह में सेकदों दूसरे लोगों से कर चुका था। एक बेहद अच्छे शायर तुफैल चतुर्वेदी अपनी शायरी के साथ साथ इस बात के लिये भी सराहे जायेंगे कि उन्होंने न मुश्ताक अहमद यूसुफी की किताबों का अनुवाद किया अपितु उसे प्रकाशित करके हिन्दी पाठ्कों तक पहुंचाया। मुझे ऐसा कहना चाहिये फिर भी में नहीं कहता कि यूसुफीजी भारतीय उपमहाद्वीप के सर्वश्रेष्ठ हास्य लेखक हैं पर इतना ज़रूर कह सकता हूं कि हास्य व्यंग्य की असंख्य पुस्तकें पढ जाने के बाद भी मैंने इससे बेहतर कोई भी हास्य पुस्तक नहीं पढी। पुस्तक का फ्लेप मैटर सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने और भूमिका डा. ज्ञान चतुर्वेदी ने तैयार की है और वे दौनों भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं।
मैंने जब भी युसुफी जी की किताब के बारे में लिखने की सोची तो में यह नहीं तय कर पाया कि कहां से शुरुआत की जाये क्योंकि सिरे से आखिर तक पूरी किताब ऐसे ऐसे ज़ुम्लों से भरी हुयी है कि पढते समय अंडरलाइन करता गया तो पूरी किताब ही अंडरलाइन हो गयी जैसे कि कम्प्यूटर में सलेक्ट आल का विकल्प होता है।
कहा गया है और सही कहा गया है कि दृष्टा ही सृष्टा होता है भोक्ता सृष्टा नहीं होता। उनकी पुस्तकें पढ कर लगता है कि वे किसी विदेह की तरह इस पूरी दुनिया को देखते और इस फानी दुनिया के कार्य कलापों”को ऐसे ज़ुमलों में व्यक्त करते हैं कि इस नटखट दुनिया की शैतानियों”पर एक वात्सल्य भरा आनन्द महसूस होता है। ऐसा लगता है कि पाठक भी हंस कर प्रभु से प्रार्थना करता महसूस होता है कि- हे प्रभु इन्हें माफ कर देना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।
उक्त पुस्तक में एक जगह वे अपने पात्र के मुंह से कहलवाते हैं- हर वह जानवर जिसे मुसलमान खा सकते हैं पाक है, इस कारण से मुस्लिम देशों में बकरों को अपनी पवित्रता के कारण खासा नुकसान पहुंचा है।
अपनी भूमिका में वे लिखते हैं कि स्वयं प्राक्थान लिखने में वही आसानी और फायदे निहित हैं, जो खुद्कुशी में होते हैं, यानि देहांत की तिथि, हत्या का उपकरण,और हत्या के स्थान का चयन मृतक खुद करता है।
वे कहते हैं कि यह किताब चराग तले के पूरे आठ साल बाद प्रकाशित हो रही है। जिन प्रशंसकों को हमारी पहली किताब में ताज़गी, ज़िन्दादिली और जवानी का अक्श नज़र आया, सम्भव है कि उन्हें बुज़ुर्गी के आसार दिखायी दें। इसका कारण हमें तो यही लगता है कि उनकी (पाठक) उम्र में आठ साल की बढोत्तरी हो चुकी है।
aaआगे कहते हैं कि इंसान को हैवाने ज़रीफ (प्रबुद्ध जानवर्) कहा गया है लेकिन यह हैवानों के साथ बड़ी ज्यादती है, इसलिये कि देखा जाय तो इंसान अकेला वह जानवर है जो मुसीबत से पहले मायूस हो जाता है।
अगर आप को इस किताब की कोई ऐसी प्रति मिल जाय जो इससे पहले कोई आलोचक पढ चुका हो तो आपको हर पेज पर ढेरों हाईलाइट किये हुये वाक्य मिल जायेंगे, पर आप आलोचक की आलोचना करते हुये कहेंगे कि जो वाक्य उसने हाईलाइट करने से छोड़ दिये हैं वे क्यों छोड़ दिये हैं!
में उनके उदाहरण देने की गलती नहीं करूंगा जैसा कि अच्छी पार्टी के बुफे भोजन के बाद लगता है कि फलां आइटम तो खा ही नहीं पाये!
इस हाईटेक ज़माने में आपको इस किताब को प्राप्त करने के लिये कोई चिटठी पत्री ड्राफ्ट मनी आर्डर की ज़रूरत नहीं है अपितु आप केवल लफ्ज़ के खाता संख्या 2629020000251 में बैंक आफ बड़ोदा में 300/-रुपये ज़मा करने के बाद वहीं से मोबाइल नम्बर 9810387857 पर पूरा पता एस एम एस कर दें तो आपको अति शीघ्र डाक या कोरिअर से किताब मिल जायेगी।
में अंत में केवल इतना ही कह सकता हूं कि शिषृ हास्य व्यंग्य को पसन्द करने वाला कोई भी व्यक्ति जो उक्त राशि व्यय कर सकता हो अगर इस किताब को स्टाक खत्म होने से पहले मंगा कर नहीं पढेगा तो यह उसका दुर्भाग्य होगा। अगर में इसका परकाशक होता तो यह भी लिखना देता कि पसन्द न आने पर पैसे वापिस्।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

शुक्रवार, अक्तूबर 30, 2009

युवाओं के वैवाहिक अधिकार का सवाल

प्रो मटुकनाथ बर्खास्तगी प्रसंग
युवाओं के वैवाहिक अधिकार की सुरक्षा का सवाल
वीरेन्द्र जैन
हमारे जैसे लोकतांत्रिक देश में संवैधानिक कानून और सामाजिक नैतिक नियम हमेशा एक ही दिशा में नहीं चलते इसलिए इनमें टकराव भी होता रहता है। अभी हाल ही में गौ हत्या, धर्म परिवर्तन, सगोत्र विवाह व प्रेम विवाहों पर कानून और जाति समाजों के बीच तीखे टकराव देखने को मिले हैं।ऐसे अवसरों पर गैर कानूनी रीति रिवाजों के पक्ष में खड़े जाति समाजों को कानून व्यवस्था तथा वोटों के लिए तरह तरह से समझौता करने वाले दल व उसके नेता न तो कानून के पक्ष में खुल के खड़े हो पाते हैं और ना ही पारंपरिक रीति रिवाजों को ही सही ठहरा पाते हैं।
कानूनन विवाह नितांत व्यक्तिगत मामला है किंतु इसमें जाति समाज का अनावश्‍यक हस्तक्षेप व्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करता रहता है। स्मरणीय है कि जो दल एक गठबंधन बना कर पूर्व राजे महाराजों के प्रिवीपर्स व विशेष अधिकारों को समाप्त करने तथा आम आदमी के हित में बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के खिलाफ खुल कर सामने आये थे व इन कदमों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता व नागरिक अधिकारों का हनन बता रहे थे वे ही सगोत्र विवाह के नाम खुले आम हत्याएं कर देने के सवाल पर मुँह में दही जमा कर बैठे रहे। इस अवसर पर उन्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता का स्मरण नहीं आया अपितु केवल हरियाणा में आगामी विधान सभा चुनाव भर दिखाई दिया। जिन राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि बलात्कार और बेबेफाई को छोड़ कर औरत मर्द के सारे सम्बंध जायज हैं , उनके चेले न तो सगोत्र विवाह पर हत्याएं कर देने वालों के खिलाफ कुछ बोले और ना ही प्रो मटुकनाथ को बिहार में बर्खास्त कर देने के सवाल पर ही मुँह खोल सके जबकि बिहार में तो इन दिनों पक्ष और विपक्ष दोनों ही जगह समाजवादी पृष्ठभूमि से निकले लोग ही सक्रिय हैं।
उल्लेखनीय है कि गत 20 जुलाई 2009 को पटना विश्‍वविद्यालय के बी एन कालेज में हिन्दी विभाग के प्रो मटुकनाथ चौधरी को बर्खास्त कर दिया गया। वे गत तीन साल से निलंबित चल रहे थे जबकि विश्‍वविद्यालय के नियमों के अनुसार किसी भी परिस्तिथि में विश्‍वविद्यालय कर्मचारी को एक साल से अधिक समय तक निलंबित नहीं रखा जा सकता। यह निलंबन इसलिए लंबा खिंचा क्योंकि विश्‍वविद्यालय यह फैसला नहीं कर पा रहा था कि जिन कारणों से वे उन्हें हटाना चाहते हैं वे नियमों और कानून की दृष्टि से उचित नहीं हें। किंतु प्रेम को छूत का रोग मानने वाला विश्‍वविद्यालयीन प्रशाासन अपने परिवार की लड़कियों के प्रति चिंतित था और उन्हें छूत की बीमारी मान कर हटाना चाहता था। रोचक यह है कि ज्ञान के शिखर संस्थानों में बैठे इन लोगों ने उन पर ऐसे विरल आरोप लगाये कि उन पर कोई भी हँस सकता है व कोई भी न्याय करने वाला उन्हें खारिज कर सकता है।
स्मरणीय है कि हिन्दी साहित्य के प्रो ड़ा मटुकनाथ चौधरी द्वारा साहित्य पढाने के दौर में, जिसे मुक्तिबोध संवेदनात्मक ज्ञान कहते थे, अपनी एक छात्रा का प्रेम पा बैठे जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। प्रो मटुकनाथ एक ईमानदार प्राध्यापक थे और जो लोग भी बिहार की विश्‍वविद्यालयीन राजनीति से परिचित हैं वे जानते हें कि वहाँ अधिकतर विभागों में पक्षपात जातिवाद सिफारिश, आदि के द्वारा हित साधन का काम खुले आम चलता है। एक बाहुबली प्रोफेसर ने कई अन्य लोगों के साथ मिलकर उन पर 'ए' ग्रेड देने का दबाव बनाया, पिस्तौल भी दिखायी, नारे लगवाये, तथा समारोह में पालतू छात्रों से उपद्रव कराया पर वे अपने निर्णय से नहीं हिले। ईमानदारी का अपना स्वाभिमान होता है। प्रोफेसर मटुकनाथ नियमित रूप से अपनी कक्षाएं ही नहीं लेते थे अपितु कमजोर छात्रों की अतिरिक्त कक्षाएं भी लेते थे। उनके अध्यक्षीय कार्यकाल में कई गोष्ठियां व सेमिनार आयोजित हुये। उन्होंने कालेज की पत्रिका खोज निकलवायी और ऐसे कामों में अपना हाथ बनाने वालों को उससे दूर रखा। वे इसलिए उक्त शिक्षकों की आंख की किरकिरी बन बैठे किंतु जब उन्हें और कोई बहाना नहीं मिला तो उन्होंने बाहुबली छात्रों को उकसा कर व मीडिया को बुलाकर उनके मुंह पर कालिख मलवायी क्योंकि वे प्रेम पाने और उसका प्रतिदान देने के 'अपराधी' थे। रोचक समाचारों की भूखी मीडिया ने उनके मुख पर कालिख मले जाने के दृश्य ही प्रसारित नहीं किये अपितु इस विषय को लंबा खींचने के लिए विश्‍वविद्यालय में उनसे कई साक्षात्कार लिये। कई चैनलों ने तो इस विषय पर बहस भी आयोजित करवायी।
विश्‍वविद्यालय ने उन पर आरोप लगाया था कि बगैर प्राचार्य की अनुमति के बी एन कालेज परिसर में 11 जुलाई 2006 को बाहरी छात्रों को सम्बोधित किया जिनमें जूली नाम की एक महिला भी थी। मीडिया ने इस घटना को प्रसारित किया।
उत्तर देने के लिए उन्हें केवल एक दिन का समय दिया गया। उन्होंने उत्तर दिया कि मीडियाकर्मियों और बाहरी लोगों को कालेज परिसर में आने से रोकने का काम विश्‍वविद्यालय प्रशासन का है। जब वे वहाँ पहुंंचे तब भीड़ पहले से मौजूद थी इसलिए उसे न रोकने की जिम्मेवारी प्रशासन की बनती है। उन्होंने कहा कि क्या शिक्षक के पास उनके मित्र नहीं आ सकते? रही छात्रों की बात तो उनकी कक्षा में डिस्टेंस एजूकेशन डायरेक्टरेट के कितने छात्र हमेशा से आते रहे हैं पर इससे पूर्व कभी कोई कार्यवाही नहीं हुयी।
अपने जबाब को प्रो मटुकनाथ ने विधिवत रिसीव कराया था किंतु कालेज प्रशासन ने विश्‍वविद्यालय को लिख कर दिया कि प्रो मटुकनाथ ने उत्तर ही नहीं दिया। परिणाम स्वरूप जाँच बैठायी गयी जिसने कुल मिलाकर दो आरोप गढे। पहला तो यह कि उन्होंने कालेज प्रशासन की अनुमति के बगैर छात्रों को और बाहरी लोगों को सम्बोधित किया और दूसरा अपना घर रहते हुये विश्‍वविद्यालय का फ्लैट आवंटित करवाया। उन्होंने तीसरा काम यह किया कि उन्हें 15 जुलाई 2009 से निलंबित कर दिया।
प्रो मटुकनाथ ने अपने अधिकारों के अर्न्तगत आरोपों के साक्ष्य और सम्बंधित कागजों की जानकारी चाही तो विवविद्यालय को जबाब देते नहीं बना। उन्होंने कोई कागज उपलब्ध नहीं करवाया।
सवाल यह है कि प्रेम और विवाह के संवैधानिक अधिकार के खिलाफ जाने वाले समाज के एक वर्ग को समझाइश देने के लिए क्या किया जा रहा है! जिन राधा कृष्ण, हीर रांझा लैला मंजनू, सोनी महिवाल, आदि की प्रेम कथाएं हमारे लोक साहित्य लोक नाटय, और फिल्मों की हजारों कथाओं की आधार भूमि हें और लाखों युवा लगातार उनसे प्रेरणा लेते रहते हैं तब उन व्यस्क युवाओं द्वारा लिए गये फैसलों के खिलाफ हत्यारों की कार्यवाहियों का उस तरह से विरोध क्यों नहीं किया जाता जिस तरह से किया जाना वांछित है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो फिर से सती प्रथा, देवदासी प्रथा, बालविवाह, समेत अनेक कुप्रथाओं की वापिसी हो सकती है।
पता नहीं क्यों किसी भी आधुनिकतावादी प्रगतिशील राजनीतिक दल को यह जरूरी नहीं लग रहा कि युवाओं के वैवाहिक अधिकार को जाति समाजों की गिरफ्त से बाहर निकाला जाये व उनके लिए एक जाति और पंथ मुक्त पृथक समाज को गठित किया जाये जो उनके अधिकारों की रक्षा के लिए न केवल संगठित हो अपितु पुराने समाजों का मुकाबला भी करे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल (मप्र)
9425674629

मंगलवार, अक्तूबर 06, 2009

घूँघट वाली महिला ब्लॉगर भाग-2

घूंघट वाली महिला ब्लागर भाग -2
मेरे इस ब्लाग पर उम्मीद से अधिक टिप्पणियां हुयीं हैं। यह लगभग वैसा ही है जैसे कि मोटर साइकिल चलाते हुये किसी भी लड़के से अगर कोई छोटा बच्चा टकरा जाता है जिसमें गलती आम तौर पर बच्चे की बेध्यानी और उसके ट्रैफिक के प्रति सावधानियों का ज्ञान न होने की होती है पर फिर भी गलती हमेशा ही मोटरसाइकिल वाले की ही मानी जाती है। इसी तरह भीड़ में अगर कोई महिला किसी पुरूष पर धक्का मारने का आरोप लगाती है तो भले ही उसे भ्रम हुआ हो या उसका आरोप गलत हो पर भीड़ हमेशा ही उस पुरूष को ही आरोपी मानते हुये महिला की पक्षधरता करती है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि पहली स्तिथि में मोटर साइकिल वाले की वर्गीय स्तिथि के कारण प्रतिक्रिया उसके खिलाफ होती है तथा दूसरे मामले में लोग महिला की सहानिभूति जीतना चाहते हैं। ये दोनों ही स्तिथियां सत्य को नुकसान पहुँचाती हैं। मेरी पोस्ट के बारे में भी ऐसा ही हुआ है।
· इस पोस्ट पर विपरीत टिप्पणी करने वालों में नब्बे प्रतिशत पुरूष हैं जबकि बेहतर यह होता कि लवली कुमारी की तरह इतने प्रतिशत महिलाएं अपना पक्ष रखतीं।
· ऐसा लगता है कि लोगों ने पोस्ट को बिना पड़े ही अपने हाथ आजमाने शुरू कर दिये ताकि वे महिलाओं से सहानिभूति अर्जित करने में पहल पा सकें।
· पोस्ट में मेरी आपत्ति अपनी पहचान छुपाने वाली सभी महिलाओं से नहीं है। मैंने केवल उन महिलाओं की बात की है जो अपनी पोस्ट में या अपनी टिप्पणियों में बड़ी बड़ी क्रान्तिकारी बातें करती हैं किंतु अभी भी भीगी बिल्ली बनी अपनी पहचान को छुपाये रखना चाहती हैं। जो महिलाएं घूंघट को बड़ों के प्रति सम्मान या लाज को औरत का जेवर आदि समझती हैं उनके परदे के पीछे छुप कर बात करने से मुझे कोई आपत्ति नहीं है किंतु तस्लीमा नसरीन की परंपरा में झंडा उठाने का दम भरने वाली यदि बुरका पहिन कर आयेंगीं तो मुझे अटपटा लगता है और मैं उनकी कलम से उनके तर्क जानना चाह रहा था। दुर्भाग्य से वे तो नहीं बोलीं पर उनके चंपू बाहें चढा कर आ गये और कहने लगे कि क्यों वे महिलाओं को छेड़ता है। कुछ जो खुद भारतीय संस्कृति के पुरातन नशे में रहते हैं वे तो कहने लगे कि ये तो नशे में बहक गया है।
· मेरे एक टीचर मित्र थे जो उम्र में तो काफी बड़े थे पर बौद्धिक मित्रता मानते थे क्योंकि उन दिनों हम दोनों ही रजनीश को पढ रहे थे व उस समय उस छोटे कस्बे में उनसे रजनीश के कथनों पर मुग्ध होकर बात करने वाला कोई दूसरा नहीं था। वे कहते थे कि यह बहुत विचित्र बात है कि प्रेमिकाएं कहती हैं कि वे प्रेम में दिल दे रही हैं, जान दे सकती हैं, पर शादी से पहले शरीर से हाथ मत लगाना। ऐसी प्रमिकाओं के लिए वे कहते थे कि वे झूठी प्रेमिकाएं होती हैं। प्रेम में दिल और जान के आगे शरीर महत्वहीन है। जिसे आत्मा दी जा सकती है जो अमर है उसे नश्वर शरीर से हाथ नहीं लगाने दिया जा सकता है! ऐसी प्रमिका प्रेमिका नहीं हो सकती जो अपने प्रेमी पर इतना अविश्वास कर रही हो और जिसको विवाह का पाखंडी सामाजिक बंधन अधिक विश्वसनीय लगता हो क्योंकि वह कानूनी अधिकार दिलाता है। ऐसा प्रेम पति फांसने वाला प्रेम है। सच्चा प्रेमी तो वैसे भी प्रेम रस में इतना मगन रहता है कि उसको देह महत्वहीन ही लगती है। मीरा हजारों साल पहले हुये माने गये कृष्ण से प्रेम कर सकती हैं और अपने वैधानिक पति से कह सकती हैं कि जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।
दरअसल महिलावादी क्रान्तिकारिता भी अपनी उम्र फोटो व पता छुपा कर नहीं की जा सकती। इसके लिए सिमान दि बाउवा तस्लीमा नसरीन या प्रभा खेतान का पूरा जीवन पढना ही नहीं समझना भी पड़ेगा। खेद है कि चौराहे पर ऐसे ही अवसरों की ताक में बैठे रहने वाले ठलुओं ने एक वैचारिक बहस को गलत पटरी पर उतार दिया।

सोमवार, अक्तूबर 05, 2009

घूँघट वाली महिला ब्लोगर

महिला ब्लागर
पिछले दिनों कुछ महिला ब्लागरों की पोस्टें देखने को मिलीं जिनमें कही गयी बातों के कारण उनका प्रोफाइल देखने की इच्छा हुयी। उन्होंने अपनी पोस्टों में बातें तो बड़ी क्रान्तिकारी की थीं या दूसरे के कथन पर अपनी बोल्ड टिप्पणियां दी थीं किंतु अपने प्रोफाइल में वही पुराना परंम्परागत रवैया अपनाया हुआ था। अपनी जन्म तिथि को तो शायद ही किसी ने घोषित किया हो, अनकों ने अपना फोटो नहीं डाला हुआ था और अधिकतर ने अपना निवास स्थान और अपने कार्यालय का अता पता नहीं दिया हुआ था। ये सारी ही बातें एक आम महिला में देखी जाती हैं किंतु वे महिलाएं अपने ब्लागों पर बड़ी बड़ी बोल्ड बातें नहीं करतीं।
यह समय जैन्डर मुक्ति का समय है तथा ब्लाग पर आने वाली महिलाएं तो सारी दुनिया के सामने अपने मन को खोल देने वाले मंच पर आ रही हैं, ऐसे में यह संकोच उनके दावों के साथ मेल नहीं बैठा पाता। देह उघाड़ने की तुलना में मन का खोलना कम कठिन नहीं होता पर यहाँ तो उम्र व रंग रूप व परिचय तक छुपा कर क्रान्तिकारी बना जा रहा है। यहीं विश्वसनीयता का प्रश्न खड़ा होता है व सारा किया धरा बेकार लगने लगता है।
मैं मीरा बाई को देश की पहली फेमनिस्ट मानता हूँ जिन्होंने 'संतन ढिंग बैठ बैठ' लोक लाज को चुनौती दी थी और 'गोबिन्दा को मोल लेकर' घोषित कर दिया था के जिसके सिर पर मोर मुकुट है वही मेरा पति है। अपने विद्रोह के लिए उन्होंने जहर का प्याला भी पिया था और आंसुओं के जल से सींच सींच कर प्रेम की बेल बोयी थी।

शनिवार, अक्तूबर 03, 2009

सार्वजनिक स्थलों से पूजा घर कब तक हटेंगे ?

सार्वजनिक स्थलपर पूजा घर
इस विलंबित महत्वपूर्ण फैसले पर अमल की तैयारियां क्या हैं?
वीरेन्द्र जैन
गत दिनांक 20 अक्टूबर 2009 को सुप्रीम कोर्ट की एक बैंच के जस्टिस दलवीर भंडारी और मुकुंदकम शर्मा ने अपने एक फैसले में कहा है कि सार्वजनिक जगहों पर पूजा स्थलों के निर्माण न होने देने को राज्य सरकारें सुनिश्चित करें। यह फैसला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह लोकतंत्र के हित में है। जहाँ जहाँ आधुनिक सोच और वैज्ञानिक विचारधारा का प्रभाव कम होता है वहाँ वहाँ लोकतंत्र को भटकाने के लिए लोगों की भावनाओं का दुरूपयोग धर्मस्थलों के द्वारा ही किया जाता है। आज हमारे देश में स्कूलों अस्पतालों और दूसरे बेहद जरूरी स्थलों से कहीं बहुत ज्यादा पूजाघर बने हैं और वे सभी धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने के उद्देशय से नहीं बने हैं। किसी भी धार्मिक स्थल के निर्माण के पूर्व किसी भी तरह के सर्वेक्षण कराने की बाध्यता नहीं होती कि
प्रस्तावित धार्मिकस्थल कितने लोगों की आवश्यकता है,
वहाँ पूर्व में स्थापित धार्मिक स्थल क्या उस आवश्यकता की पूर्ति कर पा रहे हैं या नहीं,
उसकी स्थापना के लिए धन संग्रह की व्यवस्था क्या है व उसके नियमित संचालन के लिए निरंतर प्राप्त होने वाली आय के बारे में क्या योजना है,
उक्त धर्मस्थल में धार्मिक कार्य सम्पन्न कराने के लिए सुपात्र व्यक्ति की उपलब्धता की क्या स्थिति है,
धार्मिक स्थल की सुरक्षा की क्या व्यवस्था है, और
उक्त धार्मिक स्थल की स्थापना से कहीं दूसरे की स्वतंत्रता और शांति में अनुचित हस्तक्षेप तो नहीं हो रहा
क्या सम्बंधित विभागों से निर्माण की अनुमति है, आदि।
हमारी भाषा में आंख मूंद कर धर्म के मुखौटों के पीछे भटक जाने वालों के लिए एक शब्द आता है 'धर्मान्ध'। यह शब्द अपने आप में इतना स्पष्ट है कि सब कुछ बोल जाता है। यह शब्द धर्म के प्रति पूरी श्रद्धा रखते हुये भी विवेक के महत्व को न भूलने का संदेश देता है जिससे धार्मिक भावनाओं के आधार पर कोई धोखा नहीं दे सके। उत्तर भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्रों में सर्वाधिक प्रचलित राम कथा में दर्शाया गया है कि सीता हरण के लिए रावण साधु का भेष धारण करके आता है अर्थात धार्मिक विश्वासों का दुरूपयोग करके उन्हें धोखा देता है। यह कथा धर्म के मामले में भी विवेक को न भूलने की सलाह देती है जबकि धर्म के नाम पर धोखा देने वाले आम तौर पर यह कहते पाये जाते हैं कि धर्म के बारे में बहस नहीं करना चाहिये और ना ही धार्मिक भेषभूषा वाले व्यक्ति के कथनों पर संदेह करना चाहिये। इसके उलट उत्तर भारत में वैष्णव हिंदुओं के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ रामचरित मानस के रचियता गोस्वामी तुलसी दास बार बार 'विवेक' पर जोर देते हैं-
भनति मोर सब गुन रहित विश्व विदित गुन एक
सो विचार समझें सुमति, जिनकें विमल विवेक
हमारे यहाँ प्रचलित एक कहावत में कहा गया है-
पानी पीजे छान कर, गुरू कीजे जान कर
अर्थात बिना विवेक का स्तेमाल किये किसी को भी गुरू नहीं बना लेना चाहिये और उसका अन्धानुकरण नहीं करना चाहिये। दुर्भाग्य से हमारे देश में धर्म के बारे में चर्चा विर्मश और बहसें तो कम से कम होती जा रही हैं व उत्सवधर्मी धार्मिक कर्मकांड बढते जा रहे हैं जिससे धार्मिकों की जगह धर्मान्ध पैदा हो रहे हैं। दूसरी ओर इन्हीं धर्मान्धों की भावनाओं से लाभ उठाने वालों ने धर्म के प्रतीकों का दुरूपयोग करना तेज कर दिया है। सार्वजनिक स्थल पर पूजा स्थल बनाने का काम भी ऐसा ही हैं। आज प्रत्येक कचहरी, पुलिस लाइन, रेलवे स्टेशन, सैनिक स्थल, रेलवे स्टेशन, अस्पतालों आदि स्थानों पर सभी धर्मों के पूजा स्थलों की भरमार हो गयी है व पुराने पुराने ऐतिहासिक पूजा स्थल बीमार होते जा रहे हैं व उनमें पशु विश्राम करते हैं व कुत्ते पेशाब करते हैं।
गाजर घास की तरह जगह जगह उग आये ये पूजा स्थल न केवल असमंजस व निराशा में घिरे व्यक्तियों का भावनात्मक विदोहन करने के लिए कचहरी व अस्पतालों जैसी जगहों पर बनाये जाते हैं अपितु सुरक्षा में सेंध लगाने के लिए सैनिक स्थलों पर या रिश्वतखोरी व दलाली आदि के लिए पुलिस थानों और पुलिस लाइनों आदि सरकारी स्थानों में बनाये जाते हैं। एक पुलिस अधिकारी ने तो थाने में इसलिए मंदिर बनवाया था ताकि उसे रिश्वत के पैसे को हाथ लगाने का खतरा न लेना पड़े। वह पैसे को उस मंदिर में चढा देने को कहता था तथा पुजारी शाम को वह राशि उसके घर पर पहुँचा देता था।
अतिक्रमण करने का साधन भी ऐसे ही पूजा घर बनते हैं तथा घरों के बाहर अतिक्रमण करके बने चबूतरों पर या लॉन में इसलिए बना दिये जाते हैं ताकि अतिक्रमण तोड़ने वालों को धर्म के नाम से डराया जा सके अथवा उनका विरोध करने के लिए एक भीड़ आसानी से जुटायी जा सके। बाजारों में दुकान के बाहर सामान सजाने वाले दुकानदार भी कोने पर पूजा स्थल बनवा देते हैं ताकि वहाँ से वाहन किनारा करते हुये निकलें व अतिक्रमण विरोधी दश्ता विरोध की संभावना को देखते हुये कार्यवाही में संकोच करे। घने बाजारों में जहाँ जगह ज्यादा कीमती होती है वहाँ थोड़ी सी भी खाली जगह पर लोग पेशाब करने लगते हैं जिससे बाजार पर असर पड़ता है। इसे रोकने के लिए उन स्थानों पर पूजा घर बनवा दिये जाते हैं। बनारस और कानपुर में जहाँ पान और जर्दा खूब खाये जाते हैं वहाँ कार्यालयों की सीढियों के कोने में लोग पान थूकने लगते हैं जिसे रोकने के लिए उन कोनों में कई जगह छोटी छोटी मूर्तियां स्थापित कर दी गयी हैं ताकि लोग गन्दगी न करें।
आाम तौर पर देखा गया है कि साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले दूसरे सम्प्रदाय के बहुमत वाले मुहल्ले के किनारों पर अपने पूजा स्थल स्थापित करके अपने लोगों को एकत्रित करने का स्थान बना देते हैं। उनका प्रयास रहता है कि इससे कम संख्या में रहने वाले हमारे भाई बन्धु एक जुट हो सकेंगे। पर यही स्थल कभी बड़े विवाद को आमंत्रित कर के साम्प्रदायिक दंगे करवा देते हैं। यही साम्प्रदायिकता एक किस्म की राजनीति को लाभ पहुँचाती है जिससे वह राजनीति ऐसे सम्वेदनशील स्थानों के निर्माण को प्रोत्साहन देती है ताकि आवश्यकता पड़ने पर उसका स्तेमाल कर सके। दूसरी ओर इसी सम्वेदनशीलता के कारण वोटों की राजनीति करने वाले इनकी स्थापना का कभी विरोध नहीं करते।
आम तौर पर सवर्ण व सम्पन्न हिंदू अपने घर के अन्दर मंदिर बनवाया करते थे या जाति समाजों के अलग अलग मंदिर होते थे। उनके यहाँ पूजा आरती भी सुबह और शाम होती है। सड़कों और सार्वजनिक स्थलों पर मंदिर निर्माण उनकी परंपरा का हिस्सा नहीं हैं। इसी तरह छोटे छोटे मजार और मस्जिदें भी किन्हीं इतर कारणों से सड़कों के किनारों पर या बीच में आयी हैं। उक्त पूजा स्थल किन्हीं निहित स्वार्थों के कारण ही अस्तितव में आये हें और इनको हटाये जाने का वे विरोध भी करेंगे तथा धर्मांध लोगों को बरगलाकर भीड़ भी जुटाने की कोशिश करेंगे। वोटों की राजनीति करने वाले भी या तो ऐसे ही गलत लोगों का साथ देंगे या चुप लगा जायेंगे। ऐसी दशा में सुप्रीम कोर्ट का आदेश अपनी मूल भावना में कैसे अमल में आयेगा! ऐसे स्थलों के विरोध में कार्यवाही करने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलवाना चाहिये और पहचाने गये ऐसे स्थलों पर की जाने वाली कार्यवाही पर सहमति प्राप्त करना चाहिये।
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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शुक्रवार, अक्तूबर 02, 2009

गाँधी दर्शन में सादगी और स्वतंत्रता का अंतर्संबंध

गांघी दर्शऩ में सादगी और स्वतंत्रता का अंर्तसम्बंध
वीरेन्द्र जैन
हमारी आजादी की लड़ाई के सबसे बड़े कप्तान मोहनदास करम चंद गांधी को महात्मा गांधी के नाम से पुकारा गया है
गांधीजी साधनों और सेना के बिना भी आजादी की लड़ाई में इसलिए सफल हो सके क्यों कि वे सबसे पहले अपने आप को स्वतंत्र कर सके थे। स्वतंत्रता की लड़ाई का नेतृत्व वही कर सकता है जो स्वयं में स्वतंत्र हो। गांधीजी ने सबसे पहले अपनी गुलामी की जंजीरें हटायीं। आम तौर पर गांधीजी की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने वाले लोग भी उनके ब्रम्हचर्य और नशा मुक्ति सम्बंधी सिद्धांतों से सहमत नहीं होते तथा उन्हें इन मामलों में गांधीजी के तर्क बेहद बचकाने लगते रहे हैं। मैं समझता हूँ कि उन्हें गांधीजी के पूरे जीवन र्दशन के सन्दर्भ में इन पर पुर्नविचार करना चाहिये।
अपनी आत्म कथा 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में वे लिखते हें कि सैक्स उनकी कमजोरी थी व जब उनके पिता की मृत्यु हो रही थी तब भी वे अपने कमरे में पत्नी के साथ दाम्पत्य जीवन का देहधर्म निभा रहे थे तभी बाहर से किसी ने आवाज देकर उन्हें पिता की मृत्यु की सूचना दी थी जिसे सुन कर उन्हें बड़ा धक्का लगा था और ग्लानि हुयी थी। बाद के दिनों में यही ग्लानि उन्हें सदैव सालती रही और अंतत: ब्रम्हचर्य तक ले गयी। जब श्री लंका के एक आयोजन में वे कस्तूरबा गांधी के साथ गये हुये थे तब सभा संचालक ने भूल वश कह दिया कि बड़ी खुशी की बात है कि गांधीजी के साथ उनकी माँ भी आयी हुयी हैं, तब गांधीजी ने अपने भाषण में उनकी भूल को बताते हुये कहा था कि उनके शब्दों का मान रखते हुये आज से मैं उन्हें माँ ही मानना प्रारंभ कर देता हूँ। सच तो यह है कि गांधीजी ने धीरे धीरे वे सारी चीजें छोड़ दीं जिनके बारे में उन्हें लगता था कि वे उन्हें गुलाम बना रही हैं। अपनी देह के सुख और सुविधाओं की गुलामी से मुक्त होने का जो प्रयोग कभी जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी ने किया था कुछ कुछ वैसा ही प्रयोोग गांधीजी ने देश के स्वतंत्रता संग्राम के लिए अपने जीवन के साथ किया। बचपन में कभी उन्होंने शौकिया तौर पर माँसाहार भी किया था और बाद में भी वे आज के 'हिंसक शाकाहारियों' की तरह के शाकाहारी नहीं हुये अपितु उन्होंने अपने भोजन पर नियंत्रण रखा व स्वयं के लिए शाकाहार चुना। उनके निकट के लोगों में जवाहरलाल नेहरू प्रतिदिन एक अंडे का नाश्ता किया करते थे और जब बचपन में इंदिराजी ने उनसे पूछा था कि क्या मैं अंडा खा सकती हूँ बापू!, तो उन्होंने कहा था कि यदि तुम्हारे घर में खाया जाता हो और तुम्हारी रूचि हो तो खा सकती हो। खान अब्दुल गफ्फार खाँ जिन्हें दूसरा गांधी या सीमांत गांधी के नाम से पुकारा जाता था उनके सबसे आज्ञाकारी लोगों में से एक रहे व काँगेस के ऐसे विरले नेताओं में से एक थे जो विभाजन के सबसे ज्यादा खिलाफ थे व गाँधीजी द्वारा विभाजन स्वीकार कर लिए जाने पर गांधीजी के कंधे पर सिर रख कर फूट फूट कर रोये थे, माँसाहारी थे, व गाँधीजी ने उन्हें कभी भी माँसाहार से नहीं रोका। गाँधीजी का अनशन करना या नमक खाना छोड़ देना उनके आत्म नियंत्रण के प्रयोग भी रहे होंगे। नशा मुक्ति की बात करने के पीछे भी गांधीजी की दृष्टि गुलामी से दूर रहने की रही होगी, क्योंकि नशा अपना गुलाम बना लेता है।
एक देशी कहावत है कि नंगे से भगवान भी डरता है, वह दर असल ऐसी सत्ता से भयभीत होने का प्रतीक है जिसकी कोई कमजोरियाँ नहीं हों। जो जितना अधिक कमजोरियों से मुक्त होगा उससे समाज उतना अधिक डरेगा। सारे सामाजिक नियम व कानून व्यक्तियों की कमजोरियों पर ही पल रहे हैं इसीलिए आत्मघाती लोगों पर कोई भी रोक संभव नहीं हो पाती। मौत की सजा सबसे बड़ी सजा होती है और जो जान देने पर ही उतर आया है उसको इससे अधिक सजा दे पाना कानून के हाथ में नहीं होता। बीबी बच्चों के प्रेम की भावुकता के बंधन से मुक्त रहने के लिए ही क्रान्तिकारी लोग शादी नहीं करते रहे। समाज भी अपने नियंत्रण में रखने के लिए ही व्यक्तियों को सामाजिक बंधनों में बांधने के प्रति सर्वाधिक सक्रिय रहता है। जाति समाजों के मुखिया लोग भी समाज के लोगों की शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार, मकान आदि पर ध्यान देने की जगह शादियों पर ही अपना ध्यान सीमित रखते हैं। सामाजिक गुलामी बनाये रखने की यह सबसे बेहतर जंजीर उनके पास रहती है इसीलिए वे जाति समाज में ही विवाह के नियम को सबसे कठोरतापूर्वक पालन कराते हैं। पुराने समय में राजा सबसे स्वतंत्र और शक्तिशाली व्यक्ति हुआ करता था इसलिए उसे किसी भी जाति समाज में विवाह करने की छूट मिली हुयी थी।
सभ्यता सुविधाएँ देती है। जैसे जैसे नई नई सुविधाएँ पैदा होती जाती हैं वैसे ही वैसे आदमी गुलामी में घिरता जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो व्यक्ति जितनी अधिक सुविधाओं का उपयोग करता है वह उतना ही अधिक गुलाम होता है। उससे भी अधिक गुलाम बनाने वाली वे सुविधाएँ हैं जो कहीं अन्य जगह से नियंत्रित होती हैं। आज बिजली, मोबाइल, कुकिंग गैस, टीवी, इन्टरनैट, पैट्रोल चलित वाहन आदि उच्च और मध्यम वर्ग की दैनिक उपयोगिता की वस्तुओं में आ गयी हैं किंतु इनका नियंत्रण इनके हाथ में नहीं है। अपने कमरों को एयर कन्डीशन्ड करा लेने वाले बिजली के चले जाने पर कीड़े मकोड़ों की तरह बाहर बिलबिलाने लगते हैं। बिजली उत्पादन और वितरण के केन्द्र पर बैठे व्यक्ति लाखों करोड़ों लोगों को एक साथ एक जैसा सोचने और प्रतिक्रिया देने को मजबूर कर देते हैं। बिजली के बिना घर की बोरिंग भी काम नहीं दे सकती तथा इनवर्टर की भी एक सीमा होती है। तत्कालीन केन्द्रीय संचार मंत्री प्रकाश चन्द्र सेठी के व्यवहार से जब टेलीफोन विभाग के कर्मचारी नाराज हो गये थे तब उन्होंने पूरे देश के टेलीफोन ठप करके देश को लगभग जाम कर दिया था और तब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी को हस्तक्षेप करना पड़ा था व बाद में सेठी जी को स्तीफा भी इसी कारण से देना पड़ा था। आज मोबाइल या इन्टरनैट की कनेक्टीविटी फेल हो जाने पर करोड़ों लोग हाथ पर हाथ धर कर बैठने को मजबूर हो जाते हैं, तथा लाखों कार्यालय और संस्थानों के काम रूक जाते हैं। पैट्रोल और गैस की सप्लाई बन्द हो जाने पर पूरा का पूरा शहर मुश्किल से दो चार दिन ही गुजार पायेगा।
आज आतंकवाद के विश्वव्यापी हो जाने के बाद कहा नहीं जा सकता कि ऐसी स्थितियाँ कब उपस्थित हो जायें। ऐसे में एक बार फिर से गांधीजी याद आते हैं जो किसी भी तरह की पर निर्भरता के सख्त खिलाफ थे। उनकी खादी और चरखा ही नहीं, प्राकृतिक चिकित्सा भी आजादी की प्रतीक थी। वे कहते थे कि हमें उस सामग्री से अपने मकान बनाना चाहिये जो हमारे निवास के दस मील के दायरे में पायी जाती है। वे लंदन में पढे थे, दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने वकालत की थी व दुनिया भर में घूमे थे, दुनिया के बड़े बड़े राजनेताओं, लेखकों, पत्रकारों, आदि से उनका पत्र सम्पर्क रहा पर वे सदैव ही किसी भी तरह की परनिर्भरता के खिलाफ ही रहे। अपने को वैष्णव हिंदू कहने वाले गांधीजी गाय नहीं, बकरी पालते थे और उसी का दूध पीते थे व लोगों को पीने की सलाह देते थे। असल में बकरी उनकी 'खादी' थी जो अपने भोजन के लिए भी अपने पालक को ज्यादा गुलामी नहीं देती।
सादगी और स्वतंत्रता का सीधा सम्बंध है। अपने आत्मिक उत्थान के लिए ऋषिमुनि जंगल की ओर प्रस्थान करते थे तथा सन्यास का मतलब ही होता था ईश्वर या प्रकृति की गोद में जाकर बैठ जाना। इस तरह प्राकृतिक हो जाना ही आध्यात्मिक हो जाना भी है जो एयर कंडीशंड आश्रमों और हरिद्वार जैसे अनुकूल मौसम वाली जगहों पर गैस्टहाउस बना कर रहने पर संभव नहीं होता।
देशों की स्वतंत्रताएं उनके लोगों की स्वतंत्रता पर ही निर्भर करती हैं और लोगों की स्वतंत्रताएं उनके अधिक से अधिक प्राकृतिक होने पर निर्भर करती हैं। इसलिए जो देश जितना कम सुविधाजीवी होगा उसकी स्वातंत्र चेतना उतनी अधिक होगी।
वीरेन्द्र जैन
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