मंगलवार, मार्च 31, 2015

भाजपा की सदस्य संख्या



भाजपा की सदस्य संख्या
वीरेन्द्र जैन
       देश में सत्तारूढ भारतीय जनता पार्टी जब अपनी ऎतिहासिक विजय के बाद बहुत तेजी से अलोकप्रिय हुयी है और प्रतिष्ठापूर्ण दिल्ली विधानसभा का चुनाव बुरी तरह हार चुकी है, तब उसने दावा किया है कि वह पूरे दक्षिण एशिया की सबसे बड़ा पार्टी बन गयी है। उनका दावा है कि पिछले दिनों चले सदस्यता अभियान के बाद उसके दस करोड़ के लक्ष्य के समक्ष आठ करोड़ बयासी लाख सदस्य हो चुके हैं और हर रोज तेरह से चौदह लाख नये सदस्य बन रहे हैं। किसी भी दल की सही सदस्य संख्या का पता लगाने वाली कोई संस्था कार्यरत नहीं है और चुनाव आयोग भी मान्यता का स्तर तय करने के लिए दल को मिले मतों को आधार बनाती है। रोचक यह है कि दूसरा कोई भी राजनीतिक दल अपने सदस्यों की संख्या में गिरावट नहीं महसूस कर रहा है जिसका मतलब हुआ कि उनके सदस्यों की संख्या में वृद्धि का आधार या तो नये मतदाता होंगे या वे लोग होंगे जो अभी तक किसी दल के सदस्य नहीं थे।
       राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी को छोड़ कर किसी भी दूसरे दल में पार्टी लेवी की नियमितता उसकी सदस्यता की शर्त नहीं है इसलिए उनकी सदस्य संख्या पुष्टि का कोई तरीका नहीं है। माकपा में आय के अनुरूप जो लेवी व्यवस्था है वह बहुत आदर्श व्यवस्था है और उसे दल के रजिस्ट्रेशन के लिए सभी दलों में अपनाये जाने की स्थितियां बनायी जाना चाहिए। इस दल में कम आय वालों को कम दर से व अधिक आय वालों से अधिक दर पर लेवी ली जाती है। यह व्यवस्था पार्टी को दौलत वालों के कब्जे से बचाती और अपने सदस्यों की संख्या के साथ साथ उनकी आय पर निगाह भी रखती है। यदि सारे दल इस व्यवस्था को अपना लें तो किसी को भी बड़े बड़े पूंजीपतियों के पास चन्दा माँगने नहीं जाना पड़ेगा और उनकी पार्टी सदस्यों के योगदान से ही चल सकेगी। राजनीतिक दल तभी राजनीतिक दलों की तरह चल पाते हैं जब सदस्य स्वयं उनके पास सदस्यता का अनुरोध करते हुए आयें व पार्टी के लक्ष्य में सहयोगी होने की इच्छा बताते हुए उसके अनुशासन के पालन के लिए सहमति दें।
       भाजपा और उसके पर्यवेक्षक अगर चाहे तो कुछ ही बातों से अपनी सदस्यता की असलियत को परख सकते हैं। अभी हाल ही में देश के प्रधानमंत्री ने लोगों से गैस अनुदान त्यागने की अपील की है और भाजपा अपने   सदस्यों से गैस अनुदान त्यागने का अनुरोध कर सकती है। यदि इस आवाहन के बाद उसे सफलता मिल जाती है तो उसकी सदस्यता की पुष्टि हो जायेगी। भाजपा चाहे तो अपने सभी सदस्यों से दोपहिया वाहन चलाते समय किसी रंग विशेष का हेल्मेट पहिनने का अनुरोध कर सकती है और इससे किसी भी क्षेत्र विशेष में उसके सदस्यों के अनुपात और अनुशासन प्रियता का पता चल सकेगा। उल्लेखनीय है कि आम आदमी पार्टी ने लाखों लोगों को सफेद टोपी पहिनवा कर दिल्ली में अपने समर्थन का संकेत दे दिया था जिसके जबाब में भाजपा ने अपनी परम्परा से हटकर भगवा टोपियां  धारण कर ली थीं और काँग्रेस के लोग भी तिरंगी टोपी में दिखने लगे थे। स्मरणीय है कि प्रजा सोशलिस्ट और सोशलिस्ट पार्टी की लाल टोपी दिखना बन्द होने के बहुत बाद गले में भगवा दुपट्टा डालने की परम्परा भाजपा ने ही शुरू की थी। प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत के आवाहन पर यदि भाजपा के दस करोड़ लोग अपने परिवेश को स्वच्छ करने के लिए कोई भी सामूहिक कदम उठा लें तो कम से कम देश का पूरा पश्चिमी हिस्सा गन्दगी से मुक्त हो सकता है, व सदस्यता के पुष्टि हो सकती है।
       भाजपा द्वारा घोषित संख्याएं पहले भी गलत साबित होती रही हैं। उल्लेखनीय है कि आम चुनावों के समय उन्होंने सभी नागरिकों के खातों में पन्द्रह लाख रुपये जमा करने का वादा किया था किंतु बाद में उसे चुनावी जुमला कह कर लाखों लोगों के भरोसे को ठेस पहुँचायी है। ट्विटर पर नकली फालोअर बनवा कर भ्रम पैदा करा चुकी इस पार्टी के आंकड़ों का अक्टूबर 2013 में लन्दन की एक कम्पनी ने पर्दाफाश करते हुए गड़बड़ी पकड़ी थी और बताया था कि मोदी के दस लाख फालोअर्स का दावा करने वाली साइट के आधे से अधिक फालोअर्स नकली हैं। सोशल साइट पर भाजपा के पक्ष में लिखने और भाजपा के कामों की उचित समीक्षा करने वालों को गाली देने के लिए हजारों की संख्या में नकली फेस बुक ट्वीटर एकाउंट भी बनाये गये थे। अभी भी गाली गलौज की भाषा में लिखने वाले नकली देशभक्तों की जाँच की जाये तो इनके प्रचारतंत्र का खेल समझ में आ सकता है। कश्मीर में सैकड़ों मन्दिरों के टूटने का सच और 1989 में अयोध्या में सैकड़ों लोगों के मारे जाने की अफवाह की सच्चाई वी जी वर्गीज और दूसरे लोगों की जाँच रिपोर्ट में सामने आ चुकी हैं।
       अगर भाजपा की सदस्य संख्या सचमुच में उतनी ही है जितनी बतायी जा रही है तो इस प्रबन्धन का लाभ उनके कार्यक्रमों को मिलना चाहिए। वे नानाजी देशमुख की तरह भले ही देह्दान के लिए लोगों को प्रेरित न कर सकें तो भी नेत्रदान, रक्तदान समेत सम्पूर्ण साक्षरता और टीकाकरण आदि से तो सदस्यों को जोड़ा ही जा सकता है। सत्तासुख की जगह अगर कर्तव्यों से यह संख्या बल जुड़ सके तो उनकी राजनीति सफल रहेगी और सदस्यों में ज्यादा जोगी मठ उजाड़ जैसी नौबत नहीं आयेगी।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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मंगलवार, मार्च 24, 2015

चहचहाटों में बदलती अभिव्यक्ति की आज़ादी



चहचहाटों में बदलती अभिव्यक्ति की आज़ादी

वीरेन्द्र जैन
       प्रेमचन्द ने आज से अस्सी साल पहले अपने एक लेख में लिखा था कि साम्प्रदायिकता राष्ट्रवाद का मुखौटा लगा कर आती है। सुप्रसिद्ध व्यंगकार हरिशंकर परसाई की लघुकथाओं और आर के लक्ष्मण के कार्टूनों ने इन्हीं जैसे  बहुत सारे मुखौटों को नोंचने का काम किया है। स्वार्थी तत्व समाज में मान्य आदर्शों की ओट लेकर समाज विरोधी काम करते रहते हैं। इसी तरह अभिव्यक्ति की आज़ादी की ओट में गलत बयानी करने, अफवाह फैलाने, और चरित्र हनन करने, का काम किया जा रहा है। जब किसी आदर्श की ओट में गलत काम किया जाता है तो वह आदर्श बदनाम होने लगता है जिससे नुकसान समाज का होता है। जब इस विकृति की ओर उंगलियां उठायी जाती हैं तो उसे अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला बताया जाने लगता है। अभिव्यक्ति की आज़ादी, झूठ बोलने की आज़ादी में बदलती जा रही है, जबकि आदर्श सच की अभिव्यक्ति और उसकी आज़ादी का है।
       सोशल मीडिया में बेनामी अभिव्यक्ति की सुविधा होने से इसकी ओट में ढेर सारे ऐसे काम किये जा रहे हैं जिन्हें लोकतंत्र विरोधी कहा जा सकता है। अभिव्यक्ति की आखिर ऐसी आज़ादी क्यों होनी चाहिए जिसमें इस अधिकार को प्रयोग करने वाले नागरिक की कोई पहचान न हो और उसके कथन की जिम्मेवारी लेने वाला कोई न हो। अभिव्यक्ति का अधिकार नागरिकों के लिए है भूतों के लिए नहीं। उसमें भी जब ऐसे अधिकांश कथन किसी व्यक्ति, समूह, आस्था, समाज हतैषी संस्थाओं या राजनीति विशेष को गलत आधार पर बदनाम करने और विद्वेष फैलाने के लिए व्यक्त किये जा रहे हों। उल्लेखनीय है कि ऐसी अभिव्यक्ति का दुरुपयोग 2014 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में एक पार्टी विशेष के समर्थको, एजेंटों द्वारा ध्रुवीकरण करने के लिए व्यापक रूप से किया गया था और अब उसकी सत्ता की रक्षा में किया जा रहा है।
       नागरिकों को सच्ची अभिव्यक्ति की आज़ादी की पूर्ण पक्षधरता करते हुए भी अदृश्य अमूर्त की आपराधिक अभिव्यक्ति की आज़ादी की वकालत नहीं की जा सकती जिसकी जिम्मेवारी लेने को कोई नजर नहीं आ रहा हो, और जिस में बनावटी नाम से अभिव्यक्ति की जा रही हो। यह बात स्पष्ट रूप से समझ ली जानी चाहिए कि किसी भी सशक्तीकरण कानून का दुरुपयोग उस समाज का दुगना नुकसान करता है जिसके हित में यह कानून लाया गया होता है क्योंकि उससे कानून पर से भरोसा उठता है। इसलिए जितना जरूरी उस कानून को लाना होता है उसका दुरुपयोग रोकना उससे ज्यादा जरूरी होता है। समाज के निहित स्वार्थ जब ओढी हुयी नैतिकितावश उस अधिकार का सीधे सीधे विरोध नहीं कर पाते तो उसे विकृत करने लगते हैं। दहेज विरोधी कानून का ऐसा ही परिणाम हुआ है जिनकी सुनवाई में विभिन्न अदालतों ने भी यह पाया है कि ज्यादातर मामले पारिवरिक कलह या खराब दाम्पत्य सम्बन्धों के होते हैं जिन्हें इस तरह प्रस्तुत कर के जनता के बीच इस कानून के प्रति नफरत पैदा की जा रही है। इस कानून से दहेज प्रथा रोकने में तो कोई प्रभावी मदद नहीं मिली है, किंतु इसके दुरुपयोग को देखते हुए अदालतों को आरोपियों के प्रति नरम होना पड़ा है। अब समाज में दहेज के आरोपियों के प्रति कोई नफरत देखने को नहीं मिलती। अगर दबंगों के भय, कमजोर और अपराधियों का सहयोगी शासन प्रशासन व न्याय व्यवस्था शिकायतकर्ताओं या व्हिसल ब्लोअरों को अपनी पहचान गुप्त न रह पाने के कारण खतरे में डालते हैं तो इसका हल वहाँ ही निकाला जाना चाहिए जहाँ ये कमजोरियां हैं। इन कमजोरियों के कारण बड़े अपराध की जनक झूठ बोलने की आज़ादी को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता। मुज़फ्फरनगर का उदाहरण सबसे ताज़ा है।
प्रैस की आज़ादी का सवाल भी ऐसा ही है। इस क्षेत्र में दलालों, चापलूसों, चाटुकारों की चाँदी है तो सच बोलने वाले पत्रकारों को हँसी का पात्र बनाया जाता है और वे हर तरह से पिछड़ते जा रहे हैं। हम आज जिस लोकतंत्र को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नाम से बताते हैं, वह झूठ की बुनियाद पर खड़ा भ्रष्ट तंत्र है। अधिकतर मीडिया हाउसों के मुखिया यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं करते कि अगर हम सच्ची पत्रकारिता करेंगे तो अखबार को ज्यादा दिन नहीं चला सकते। सरकारी विज्ञापन लेने के लिए नब्बे प्रतिशत अखबार सरकुलेशन के गलत आंकड़े देते हैं, पर विज्ञापन की दरें बदलवाने के लिए कोई सामूहिक अभियान नहीं चलाते। हर तीसरे दिन कोई न कोई नेता यह कहता हुआ नज़र आता है कि हमारे बयान को उसकी भावना के विपरीत आधा अधूरा या तोड़ मोड़ कर छापा गया है और कई मामलों में ऐसा होता भी है। मीडिया के पास अपने विचार व्यक्त करने के लिए केवल सम्पादकीय पृष्ठ होते हैं, शेष में उसे जैसा देखा या कहा गया है वैसा ही छापना चाहिए। खेद है कि हम जिस मीडिया की स्वतंत्रता की वकालत करते हैं वह वैसा मीडिया रहा ही नहीं है। इसका बड़ा हिस्सा किसी न किसी नेता, दल या कार्पोरेट हाउस का पिछ्लग्गू बन गया है, और खबरें देने की जगह, खबरें तोड़ने मरोड़ने, बदलने, अफवाहें उड़ाने, के साथ साथ खबरें दबाने का माध्यम बन कर रह गया है। होना तो यह चाहिए कि हर गलत खबर का खंडन शीघ्र से शीघ्र, उसी स्थल पर उतने ही बड़े आकार में छापने की अनिवार्यता हो और हर गलत खबर के लिए जिम्मेवार को रेखांकित किया जाये। भ्रष्टाचार और अपराध के हर बड़े भण्डाफोड़ के साथ इस बात को भी याद किया जाना चाहिए कि उस क्षेत्र में इतने सूचना प्रतिनिधि काम करते रहे और फिर भी इतने लम्बे समय तक अपराध कैसे चलता रहा। पत्रकारों को जितना सम्मान मिलता है और जितनी पूछ परख होती है उसके अनुपात में वे सामाजिक जिम्मेवारी महसूस नहीं करते। कुछ क्षेत्रों में तो उन्हें वेतन और सुविधाएं भी समुचित मिलती हैं। खेद की बात है कि पत्रकारों को जो सरकारी सुविधाएं उनके काम के लिए मिलना चाहिए वे अपनी जिम्मेवारियों से हटने के लिए मिलती हैं और अगर वे सरकारी अपराधियों के अनुरूप काम नहीं करते तो उन सुविधाओं के छिनने का खतरा बना रहता है। प्रदेश की राजधानियों में ही देखें तो आये दिन सीबीआई, इनकम टैक्स, लोकायुक्त, आर्थिक अपराध ब्यूरो आदि के छापे पड़ते रहते हैं जिनमें करोड़ों अरबों रुपयों के दुरुपयोग सामने आते रहते हैं, किंतु हजारों की संख्या में सरकारी सुविधाएं पाने वाले पत्रकारों में से किसी ने भी कभी भी ये मामले नहीं उठाये होते हैं। यदा कदा जब कोई ऐसा मामला आता भी है तो उसमें पत्रकारिता का कोई योगदान नहीं होता अपितु वह राजनीतिक या नौकरशाही की आपसी प्रतिद्वन्दिता का परिणाम होता है। इसमें पत्रकार का काम पोस्टमैन से अधिक नहीं होता। इनमें से कौन अभिव्यक्ति की आज़ादी चाहता है और इनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए कौन लड़ेगा!
       इस नक्कारखाने में तूती की अभिव्यक्ति घुट रही है पर हम फिर भी सच्ची अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए कोई संग्राम नहीं लड़ रहे और इस तरह खुद भी अपना गला घोंट रहे हैं। सोशल मीडिया केवल इन तूतियों की आवाजों की चहचहाटों को दर्ज करने का माध्यम बन रहा है, पर इसमें जो गलत चल रहा है उस पर कोई अंकुश नहीं है। इस कारण उससे बड़ी उम्मीदें नहीं पालना चाहिए। मुक्तिबोध ने कहा था- अब हमें अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे..........। जो खतरे उठाने से डरते हैं उनकी आज़ादी उनकी झूठ बोलने की सुविधा है।

वीरेन्द्र जैन                                                                           
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शुक्रवार, मार्च 20, 2015

फिल्म समीक्षा- दम लगा के होइसा कुछ साहित्यिक कृतियों का फिल्मी रूपान्तरण



फिल्म समीक्षा- दम लगा के होइसा
कुछ साहित्यिक कृतियों का फिल्मी रूपान्तरण

वीरेन्द्र जैन
       फिल्म विधा डायरेक्टर का माध्यम है, अन्य लोग तो उसके सहयोगी होते हैं। मैंने भी इस फिल्म का नाम और कलाकारों के नाम देख कर कोई स्टंट फिल्म समझ इसकी उपेक्षा कर दी थी किंतु फेसबुक पर कुछ विश्वसनीय साहित्यिक मित्रों की प्रसंशा पढ कर ही इस फिल्म को देखने का मन बना। फिल्म देख कर लग रहा है कि अगर इसे देखना चूक गया होता तो कुछ सचमुच ही कुछ ऐसी कमी रह जाती, जैसी की बहुत चर्चित किताबें पढना छूट जाने पर रह जाती है।
       नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद फिल्में लगातार चमकदार उजली होती गयी हैं जिनमें देशी विदेशी पर्यटन स्थल, साफ सुथरी सड़कें ऊंची ऊंची इमारतें, बड़ी बड़ी गाड़ियां, भव्य और सर्व सुविधायुक्त निवास स्थल और अत्यंत उदार जीवनशैली दिखाने वाली फिल्में बन रही थीं जिनका देशी परम्पराओं से मेल होने पर भव्य और खर्चीली शादियां और हनीमून ही आकर्षक विषय होते गये हैं। जबकि सच यह है कि न केवल अंतर्जातीय प्रेमविवाह के कारण अपितु एक ही गोत्र के होने के कारण सैकड़ों युवा आये दिन मारे जा रहे हैं। इसके समांतर ऐसे भी फिल्म निर्माता रहे हैं जिन्होंने इन विषयों से हट कर भी फिल्में बनायी है पर लागत निकालने के लिए उन्हें भी समझौते करने पड़े हैं। ऐसे फिल्म निर्माता बहुत ही कम हुए हैं जिन्होंने कम लागत में मौलिक विषय पर अच्छी फिल्में बनाने का खतरा उठाया हो।
       ‘दम लगा के होइसा’ यशराज फिल्म्स के बैनर तले आदित्य चोपड़ा की शरत कटारिया द्वारा निर्देशित कुल पन्द्रह करोड़ में बनी एक ऐसी ही फिल्म है जिसे देख कर राजेन्द्र यादव का उपन्यास सारा आकाश और मोहन राकेश का नाटक आधे अधूरे याद आता है। इस दौर का युवा अजीब से द्वन्द में फंसा हुआ है जिसे एक ओर तो आधुनिकता की चकाचौंध आकर्षित करती है जिसके दबाव में उसका मन पतंग की तरह हवा में उड़ना चाहता है किंतु परम्परा के मंजे से सुती हुयी यथार्थ की डोर नीचे वालों के हाथों में है। इस द्वन्द में वह घुटता है क्योंकि वह उस निम्न वर्ग का सदस्य है जो अपनी सवर्ण हैसियत के कारण अपने को मध्यम वर्ग का समझता है। अपने पिता की कमजोर आर्थिक हैसियत के कारण नायक ऐसी शिक्षा नहीं ग्रहण कर पाता जो कोई ठीक ठाक सी नौकरी पा सके इसलिए कैसिटों की दुकान खोल कर बैठा है। यह दुकान भी भी नई तकनीक से सीडी, डीवीडी आ जाने के कारण बन्द होने के कगार पर है और कैसिटों में लगी हुयी उसकी लागत डूबने वाली है। उसका पिता इसीलिए अपनी जाति की एक मोटी किंतु शिक्षित लड़की से उसकी मर्जी के बिना शादी कर देने के लिए दबाव बनाता है ताकि उस लड़की के वेतन से घर चल सके। उसे बेमन से यह शादी करना पड़ती है किंतु वह उसके साथ दाम्पत्य सम्बन्ध नहीं बना पाता। नये सामाजिक मूल्यों ने उसके मन में अपनी पत्नी के लिए जो सपने बोये थे उन्हें झटका लगता और तीव्र विकर्षण पैदा होता है। वे दोनों ही नहीं, उनके परिवार भी अपनी अपनी जगह आधे अधूरे हैं, दोनों की मजबूरियां हैं। पुराने तरह के संकरी गलियों में बेतरतीब ढंग से विकसित हुये छोटे छोटे घर हैं जिनमें कबाड़े की तरह बेतरतीब गृहस्थी के सामान ठुंसे पड़े हैं और नवविहाहित को इकलौता कमरा देने के कारण माँ बाप और साथ रहने वाली परित्यक्ता बुआ को बरामदे में सोना पड़ता है। यह वह समाज है जिसके इस वर्ग की लड़कियों को ब्रा और गाउन खरीदने में संकोच होता है और बेचने वाला दुकानदार भी संकोच में रहता है। ये आर्थिक और सामाजिक स्थितियां तथा कुंठाएं हैं जो तनावपूर्ण सामाजिक सम्बन्ध पैदा करते हैं। नगरों के पुराने मुहल्लों में ठुंसे इन निम्न मध्यम वर्ग के लोगों द्वारा इतना भी साहस नहीं है अपनी परिस्थिति के अनुरूप नये सामाजिक मूल्यों का निर्माण करें और स्वीकार करें। दूसरी ओर नायक को शाखा बाबू भी घेरे रहता है जो दुहरे जीवन मूल्य जीते हुए पुरानी परम्पराओं को ढोने की शिक्षा देता रहता है। गुस्से में नायक एक बार तो उससे भी कह देता है कि वह निर्मल नामक लड़के के पेंट में घुसे रहते हैं। यही शाखाबाबू शादी व्याह के मौके पर पीने में भी संकोच नहीं करते। आश्चर्य है कि हर विरोध के अवसर को भुनाने वाले संघ परिवार ने इस फिल्म का विरोध नहीं किया।  
       फिल्म में बहुत यथार्थवादी स्थितियों में वास्तविक गली मुहल्ले मकानों में शूटिंग की गयी है जिससे फिल्मी नकलीपन से दूर देश की एक बड़ी आबादी को अपनी कहानी लगती है। कहानी के समापन के लिए जो रूपक गढा गया है उसमें दम लगा कर अपनी मिली हुयी गृहस्थी का बोझ ढोने की मानसिकता बना लेने को ही श्रेयस्कर बताया गया है। पश्चिमी बाज़ार द्वारा थोपा गये बाहरी सौन्दर्यबोध की तुलना में आत्मा की गहराई से जो प्रेम पैदा हो वही सच्चा प्रेम है जो अंत में पैदा होता है। इन अर्थों में यह एक सच्ची प्रेम कथा भी है।
       फिल्म में स्टार के रूप में आयुष्मान खुराना हैं तो मोटी लड़की की भूमिका में भूमि पेंडेकर ने भी अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है। अतिथि कलाकार के रूप में कुमार सानू हैं तो लड़के के पिता की भूमिका में लोकप्रिय टीवी कलाकार संजय मिश्रा ने अपनी भूमिका बखूबी निभायी है।   
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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बुधवार, मार्च 18, 2015

श्रद्धांजलि राजेन्द्र अनुरागी : एक बच्चे का निधन



[आज नीरज जी की एक पोस्ट पर ओशो आश्रम में हुये कवि सम्मेलन का चित्र पोस्ट हुआ है, उस चित्र में श्री राजेन्द्र अनुरागी जी भी दिखायी दे रहे हैं। चित्र देख कर अनुरागी जी की याद आयी तो उन पर लिखा श्रद्धांजलि लेख तलाश किया जो अपने ब्लाग पर नहीं मिला, क्योंकि तब मेरा ब्लाग शुरू ही नहीं हुआ था। फाइल में से तलाश कर देखा तो उस लेख को ब्लाग के द्वारा साझा करने का मन बना। अगर देख सकें तो बतायें कि क्या मन ने सही काम किया है?] 
श्रद्धांजलि राजेन्द्र अनुरागी
एक बच्चे का निधन

वीरेन्द्र जैन
       तारीख 13 दिसम्बर 2008। स्थान श्री राजेन्द्र अनुरागीजी का निवास जिसकी दीवारें तरह तरह की लोक कलाओं से सुसज्जित हो रही हैं तथा जिसकी नाम पट्ठिका पर लिखा है ‘‘अनुरागिणः’’ जो संस्कृत में अनुरागी का बहुवचन होता है। चार दिन पहले ही उनका साक्षात्कार लेने के लिए मेरे पुराने मित्र नेहपालसिंह वर्मा हैदराबाद से आये थे तथा उस दौरान मैं उनके साथ था तब अनुरागीजी ने बताया था कि अब मेरे घर में सब अनुरागी लिखते हैं इसलिए घर का नाम अनुरागी के बहुवचन में बदल दिया गया है।
       घर के बाहर सैकड़ों लोग उनकी अंतिम यात्रा में सम्मिलित होने के लिए एकत्रित हैं और आपस में बात कर रहे हैं -क्या उम्र रही होगी?
       इकत्तीस का जन्म था इसलिए सतत्तर साल के हो गये थे- कोई उत्तर देता है। पचहत्तर के बाद की मृत्यु को मंगल मरण माना जाता हैकोई अपना ज्ञान बघारता है। अच्छी उम्र पायी थी, भरा पूरा परिवार और यशपूर्ण जीवन जियाकोई कहता है। सब लोग अपनी अपनी तरह से गम्भीरतापूर्वक कुछ न कुछ कह रहे हैं।
       मैं कुछ नहीं कहता।
       कह भी नहीं सकता क्योंकि मैं उन लोगों से पूरी तरह सहमत नहीं हूं। मेरे लिए यह एक वृद्ध की मृत्यु नहीं है क्यों कि वे कभी बूढे हुये ही नहीं। बूढों के मरने को मंगल मरण मानना चाहिये पर एक बच्चे की मृत्यु पर कठोर से कठोर ह्नदय भी करूणा से भर जाता है। वे पूरी उम्र एक बच्चे की तरह रहे। वैसे ही सरल, सहज, और मुस्कान बिखेरते।
                ईसामसीह ने कहा है कि स्वर्ग के दरवाजे उनके लिए खुले हैं जिनके ह्नदय बच्चों की तरह हैं। आज जब बच्चों में से भी बचपन छीन लिया जा रहा है तथा कच्ची नींद में से उठा कर उन्हें केजी की कक्षाओं में धकेला जाने लगा है वैसे में अपनी उम्र के आठवें दश्क में भी बच्चों की सी मुस्कान बिखेरने वाला कोई चला जाता है तो उसे हम किसी उम्रदराज व्यक्ति के जाने की तरह नहीं ले सकते। यह एक मासूम बच्चे के साथ घटी ऐसी दुर्घटना है जो पूरे शहर को दहला देती है। वे कोई राजनेता नहीं थे कि उनकी अंतिम यात्रा में जाकर लोग अपना कद बढाने की कोशिश करें। वहॉं उपस्थित सैकड़ों लोगों में से प्रत्येक व्यक्ति को लग रहा था कि कोई उसका बेहद अपना चला गया है।
       मेरी उनसे पहली मुलाकात भी 1980 में निगमबोधघाट पर दिल्ली में हुयी थी। मैं उन दिनों गाजियाबाद में पदस्थ था और हजारी प्रसाद द्विवेदी के अंतिम संस्कार में सम्मिलित होने के लिए वहॉं पहुँच गया था। अंतिम संस्कार के बाद भवानी प्रसाद मिश्र किसी से उनका परिचय करा रहे थे कि ये गीतकार राजेन्द्र अनुरागी हैं और हमारे मध्यप्रदेश के हैं। उन्हीं दिनों मैंने धर्मयुग में उनका कोई गीत पढा था जो बहुत अच्छा लगा था तथा मन में आया था कि कभी संभव हुआ तो अनुरागी जी से भेंट करूंगा। थेाड़ी ही देर में हम लोग जैसे बहुत पुराने परिचित हो गये थे तथा मैंने अपने परिचय में मध्यप्रदेश का होना भी जोड़ दिया था। उसके बाद दूसरी मुलाकात तब हुयी जब मेरा ट्रांसफर भोपाल हो गया व मैथलीश्रण गुप्त जयंती पर आयोजित एक कवि सम्मेलन में मैंने कविता पढी जो वहॉं पसंद की गयी। अनुरागीजी ने भी मुक्त कंठ से प्रशंसा की तो मैंने पिछली मुलाकात की याद दिलायी और वे बहुत खुश हुये। उसके कुछ दिन बाद मैं तुलसी नगर स्थित उनके निवास के पास से निकला तो सोचा कि उनसे मिलता चलूं। घर गया तो वैसा ही आत्मीय स्वागत। पर थेाड़ी देर की बातचीत के बाद ही लगा कि वे मुझे उस रूप में नहीं पहचान रहे थे जो मैं समझ रहा था। असल में तो वे मुझे पहचान ही नहीं रहे थे अपितु मेरे बैंक में होने का जिक्र आने पर उन्हें लगा कि उनके पास किसी हिन्दी की प्रतियोगिता को जॉंचने के लिए जो उत्तरपुस्तिकाएं आयी हुयी हैं उनमें अपने पक्ष में उनकी विशेष कृपा पाने के लिए आया हुआ कोई हूं। मुझे दुख हुआ व अपने आप पर ग्लानि हुयी कि मंचीय प्रशंसा पर मुझे अपनी पहचान की ऐसी गलतफहमियॉं नहीं पालना चाहिये थीं।
       फिर खयाल आया कि कुछ तो है जो इससे परे हट कर भी है। इस जमाने में जब लोग अपने सगे से सगे रिश्ते पर भी भरोसा नहीं करते तब कोई बिना ये जाने हुये कि सामने वाला कौन है इतनी आत्मीयता और प्रेम में घन्टा भर गुजार देता है। अपने घर में घुमाता है, उसी समय उनकी छोटी बेटी अपने पालतू कुत्ते को टूथब्रुश करा रही होती है जिसे देख कर तालियॉं बजा कर खुश होता है, ऐसा काम करने वाला कोई साधारण आदमी नहीं है और हिसाबी किताबी तो बिल्कुल ही नहीं यह तो सचमुच दिल की बात दिल से कहने व करने वाला कवि ही है।
       मैं रजनीश का कभी भक्त नहीं हुआ और ना ही कभी उनके ध्यान आदि के प्रयोग ही किये पर सत्तर से सतत्तर तक  मैंने उनका पूरा साहित्य पढा ही नहीं था अपितु ऐसे दूसरे पाठकों को भी जोड़ा था जो बाद में भक्त में बदल गये थे। जब मुझे अनुरागी जी के रजनीश के सहपाठी होने का पता चला तो मेरा सारा शिकवा गिला जाता रहा और दिल से दिल का सम्बंध बन गया। बाद में पता चला कि मुझ पर बड़े भाई की तरह स्नेह करने वाले प्रसिद्ध कहानीकार से. रा. यात्री अनुरागीजी के साथ नरसिंहपुर के कालेज में व्याख्याता रह चुके हैं। एक बार जब में यात्रीजी को लेकर उनके घर पहुँचा तो अनुरागीजी किवाड़ के पीछे छुप जाते हैं और अचानक ही होकर के प्रकट होते हैं। मुझे लगता है कि इस समय ना हुये रसखान या सूरदास जिन्होंने कृष्णकथा की बाल लीलाओं पर सारी दुनिया को न्येाछावर करने की बात कही है। पर ये जो बड़ी उम्र के बच्चे हैं’ इन पर तो पूरा ब्रम्हाण्ड ही न्येाछावर किया जा सकता है। यात्रीजी का बेटा भी उनके साथ में था वे उसका परिचय कराते हैं तो अनुरागी जी की पुलक देखते ही बनती है और वे अपनी बहू से कहते हें कि देखो तुम्हारा देवर आया है इसे एक पप्पी तो दो। मैं नहीं जानता कि किसी बीस पच्चीस साल के युवक के प्रति अपनी बहू को ऐसा कह सकने वाला कोई दूसरा कवि आज हिन्दुस्तान में है। सारी बात एक निश्छल हॅंसी में बदल जाती है पर मैं अभिभूत हूं उस परिवार के प्रति जिसमें ऐसे निश्छल मजाक संभव हैं और परिवार की पीढियों के बीच में ऐसा प्रेम व मै़त्री भाव है।
       पिछले कुछ सालों से परिवार के लोग उनको अकेले बाहर नहीं जाने देते थे पर एक बार वे मेरे साथ घर पर जल्दी वापिस आने का कह कर निकल पड़े। बाहर निकल कर बोले मीनाल रेसीडेंसी चलते हैं। कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि जापान के एक सन्यासी हैं जो रजनीश् के जन्मस्थल पर एक बहुत बड़ा अस्पताल बनवा रहे हैं, उनसे मिलने चलते हैं। हम लोग अपने खटारा स्कूटर से ही उनसे मिलने पहुँचे और काफी देर बैठ कर वापिस लौटे। उस घर में भी वे वैसे ही सबसे आत्मीय थे जैसे कि सदा रहते हैं। वहॉं भी उनका वही सम्मान था। रास्ते में रूक कर वे गोलगप्पे पीने का प्रस्ताव करते हैं जो मानना ही पड़ता है। वापिस लौटने पर वे मुझे घर से कुछ पहले ही उतार देने को कहते हैं ताकि कहीं मैं घर पर यह नहीं बता दूं कि हम लोग इतनी दूर स्कूटर से यात्रा कर के आये हैं। बातचीत में उन्होंने एक लेखक मित्र का नाम लिया था जो उनके अनुसार बहुत ही प्यारे मित्र हैं, पर उन्होंने सावधान भी किया था कि उनके घर पर उनका जिक्र ना किया करूं क्योंकि पत्नी उन्हें पसंद नहीं करतीं।
       मृत्यु से चार दिन पहले जब मैं हैदराबाद के मित्र नेहपालसिंह वर्मा को लेकर उनके पास गया तो वे बाहर बैठे हुये अपने मालिश वाले की प्रतीक्षा कर रहे थे, पहली नजर में वे नेहपालजी को पहचान नहीं सके पर फिर तुरंत ही बेहद आत्मीय हो गये। कुछ ही समय पूर्व वे हैदराबाद के इनकमटैक्स कमिश्नर के अनुरोध पर एक कार्यक्रम में वहॉं भागीदारी करके आये थे। मालिशवाले आजकल दुर्लभ हो गये हैं और डाक्टर जैसी फीस लेकर भी कठिनाई से समय निकाल पाते हैं, थोड़ी ही देर में वह आ भी गया था पर वे हम लोगों के साथ बैठने के चक्कर में उसे टाल देना चाहते थे। पर हमारे व घर के सभी लोगों के आग्रह पर वे उसे थोड़ा संक्षिप्त रूप देने पर मान गये। हम लोगों ने उनकी जीवन गाथा के बारे में भाभी से बात कर लेना उचित समझा और वह ठीक भी रहा क्योंकि इतने विस्तार से शायद वे भी नहीं बता पाते और अपने बारे में बताने पर संकोच करते। इस बीच हम लोगों का भेाजन लग गया था तथा हम लोगों के साथ भोजन करने के चक्कर में वे स्नान को स्थगित कर देना चाहते थे। उन्हें फिर मनाना पड़ा व वे चिड़िया स्नान के सुझाव पर नहाने गये। हम लोगों ने इस बीच में  उनके आने से पहले ही खाना खा लिया। फिर उन्होंने अपनी ताजा रचनाएं सुनायीं। उन रचनाओं में मृत्युबोध का स्वर बहुत मुखर था जिसमें से एक गीत का भाव तो यह था कि मृत्यु तो मौसम की तरह है उससे घबराना कैसा! नेहपालजी ने वह सारा गीत नोट किया जिसे वे साक्षत्कार के साथ गोलकुण्डा दर्पण में प्रकाशित करने वाले हैं। साक्षात्कार के बिुदुओं को उससे पूर्व बताना उनके साथ ज्यादती होगी। नेहपालजी गोलकुण्डा दर्पण में अनेक वर्षों से खाका नामक स्तंभ लिख रहे हें जिसमें देश भर के प्रमुख कवियों के जीवन परिचय और साक्षात्कार छापते हैं।
बाहर आकर मैंने उनके गीतों के बारे में अपनी आशंका नेहपालजी को बतायी तो उन्होंने भी सहमति व्यक्त की। पर यह उम्मीद नहीं थी कि यह आशंका इतनी जल्दी सच में बदल जायेगी।
       आम तौर पर विज्ञापनों के एसएमएस ही अधिक आते हैं इसलिए मैंने राजरकुर राज द्वारा किया गया एसएमएस नहीं देखा पर थोड़ी ही देर से राम मेश्राम जी का फोन आया तो पता चला। उसी समय एसएमएस भी खोल कर देखा तो उसमें भी वही समाचार था। एकदम से धक्का लगा। सब कुछ अनायास सा हो गया था। मेरे पहुँचने तक तो भोपाल के सभी प्रमुख लोग वहॉं पहुँच चुके थे। उनसे प्रेम करने वाले इतनी संख्या में हैं यह पहली बार पुष्ट हुआ। उनका निधन रात्रि में ढाई बजे हुआ था इसलिए अखबारों में समाचार भी नहीं आ पाया था। यदि समाचार आया होता तो न जाने कितने लोग और होते।
       वे मृत्यु से भयभीत हुये बिना उसके स्वागत में गीत गाते हुये गये हैं। ऐसा साहस कोई गीतकार ही कर सकता है। हम तो इतना ही कह सकते हैं कि-
मजनूं जो मर गया है तो जंगल उदास है
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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वीरेन्द्र जैन
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