सोमवार, दिसंबर 31, 2012

असली दोषी का सुधार कौन करेगा!


असली दोषी का सुधार कौन करेगा?
वीरेन्द्र जैन

       दिल्ली की बस में गैंग रेप की शिकार युवती की मृत्यु के बाद भड़की जनभावनाओं को देखते न्याय व्यवस्था द्वारा उस पर हमला करने वालों को जल्दी से जल्दी कानून सम्मत कठोरतम सजा देने का दायित्व बनता है। भले ही फाँसी की सजा से मृतक की वापिसी नहीं होती किंतु कठोर सजा से समाज में वह माहौल बनता है जिसके डर से दूसरा कोई वैसा अपराध करने से पहले कुछ क्षण सोचने को विवश हो सकता है। किसी एक मामले में दी गयी सजा उस पीड़ित को न्याय देने तक ही सीमित नहीं रहती अपितु वह सम्भावित अपराधों को रोकने का भी काम करती है। पर जब न्याय व्यवस्था इस या उस कारण से लम्बे समय तक आरोपियों को सजा नहीं दे पाती तो वह अपराधों को बढाने के लिए भी जिम्मेदार होती है। उल्लेखनीय है कि जब सराकारी और गैरसरकारी लोग इस मामले में फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन की माँग कर रहे थे तब वे देर से न्याय मिलने के दोष पर भी परोक्ष में टिप्पणी कर रहे थे जिसमें न्याय को अन्याय के समकक्ष रख दिया जाता है। किसी लोकतांत्रिक समाज में बढती हिंसा उस समाज में न्याय व्यवस्था के कमजोर होने का प्रतीक भी होती है।
       संवैधानिक न्याय के समानांतर सामाजिक न्याय भी चलता है और कई बार वह संवैधानिक न्याय से भिन्न अधिक कठोर या कमजोर होता है। हमारे समाज में स्त्रियों के खिलाफ होने वाले अपराधों में संवैधानिक न्याय और सामाजिक न्याय में बहुत भेद हैं। जहाँ किसी भी वालिग स्त्री या पुरुष को बिना जाति, धर्म, गोत्र, या भाषा पर विचार किये [शादी की तय उम्र पर] विवाह करने का अधिकार है वहीं समाज में विधर्मी से, दूसरी जाति वाले से ही नहीं अपितु अपने गोत्र में विवाह करने पर भी हजारों सम्भावनाशील नौजवानों, नवयुवतियों की हत्याएं प्रति दिन हो रही हैं और इन हत्यारों को सजा देने के लिए कोई फास्ट ट्रैक कोर्ट नहीं बनाये जा रहे। मैं पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी भाषी क्षेत्र में हुयी इन हत्याओं का रिकार्ड रख रहा हूं और पाता हूं कि कोई सप्ताह ऐसा नहीं जाता जब किसी न किसी आनर किलिंग का समाचार सामने न आये। इन प्रकरणों में भी घर की बेटी बहिन को अधिक सरलता से मार देने की घटनाएं ज्यादा घट रही हैं। बिडम्बनापूर्ण यह है कि वोटों के चक्कर में इन हत्यारों की खिलाफत करने का काम राजनेता या राजनीतिक दल नहीं कर रहे हैं क्योंकि इन हत्यारों को अपने जाति समाज का समर्थन प्राप्त है।    
       नारी के खिलाफ यौन अपराधों के पीछे सबसे बड़ा दोष हमारी सामाजिक सोच का है जिसके अनुसार अपराध से पीड़ित महिला के साथ सहानिभूति की जगह लोग उसी को दोषी ही नहीं अपितु चरित्रहीन भी समझते हैं और वह सामाजिक उपहास का पात्र भी बनती है। यही कारण होता है कि पीड़ित महिलाएं इन अपराधों को छुपाने का प्रयास करती हैं और अपराधी समाज में सम्मानित घूमते हैं। घर परिवार के कमजोर लोग भी अपना गुस्सा महिला पर ही उतारते हैं क्योंकि समाज में उक्त अपराध के लिए उस परिवार को भी जिम्मेवार माना जाता है जो अपने घर की महिलाओं को स्वतंत्रता पूर्वक विचरण करने की अनुमति देते हैं। सामाजिक मान्यता यह है कि महिलाओं को पुरुष या घर के नियंत्रण में रहना चाहिए और कम से कम बाहर निकलना चाहिए। पर्दा और घूंघट प्रथा ही नहीं अपितु अभिजात्य वर्ग में ‘असूर्यपश्या’ [जिसको सूरज भी नहीं देख सके] होना ही उसकी सुरक्षा का आधार माना गया था। बिडम्बना पूर्ण स्थिति यह है कि कुल अपराध का बहुत कम हिस्सा ही सामने आ पाता है जिससे अपराधियों के हौसले बुलन्द होते रहते हैं। मजदूर जातियों और वर्गों की महिलाओं को अपने जीवन यापन के लिए बाहर निकलने की मजबूरी रही है जिससे सबसे अधिक यौन अपराध उन्हीं जातियों की महिलाओं के खिलाफ होते रहे हैं जो प्रयास करने के बाद भी उच्च वर्ग और वर्ण के खिलाफ न्याय भी पा सकने में समर्थ नहीं हो पातीं। यदि कोई अविवाहित लड़की  बलात्कार की शिकार हो जाती है तो यौन शुचिता को विवाह की शर्त मानने वाले हमारे समाज का कोई भी व्यक्ति उससे विवाह करने के लिए तैयार नहीं होता और न ही उसके परिवार के लोग उस लड़की को बहू बनाने के लिए तैयार होते हैं। यही कारण है कि कुँवारी लड़कियों के खिलाफ सबसे अधिक यौन अपराध होते हैं और उन्हें ही सबसे अधिक छुपाया जाता है। इसलिए यौन अपराधों के खिलाफ कोई भी कानूनी मुहिम शुरू करने के साथ साथ जरूरी है कि समाज में कुछ धारणाओं को बदलने का अभियान चलाया जाये। यौन अपराधों के खिलाफ आगे आने वाले पुरुषों को बड़े स्तर पर यह घोषित करना होगा कि वे स्वयं या परिवार में ऐसी किसी लड़की को विवाह के लिए अपात्र नहीं समझेंगे जिसके खिलाफ कभी यौन अपराध हुआ हो। समाज में प्रतिष्ठित महिलाओं समेत उन सारी महिलाओं को इस बात के लिए प्रेरित करना होगा कि उनके जीवन में जब भी कोई किसी भी तरह के यौन अपराध का प्रयास हुआ हो तो वे उसका खुलासा करें ताकि निर्दोष पीड़िताएं किसी हीन भावना का शिकार न हो सकें। बंगलादेश की प्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन ने अपने लेखन में इस तरह का प्रयास किया है और समाज के कुछ जाने माने लोगों के चेहरों की असलियत को उजागर किया है। पिछले दिनों विख्यात पत्रिका हंस में भी कुछ लेखिकाओं ने आत्मस्वीकार श्रंखला के अंतर्गत हमारे दोहरे समाज की सच्चाईयों को सामने लाने का प्रयास किया था। जब से सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी बढी है तब से उनका घर से निकलना भी जरूरी हुआ है और स्वतंत्र महिला को घरेलू महिला की तरह सम्मान की दृष्टि से न देखने वाला समाज उनके घर से बाहर निकलने को उनकी कमजोरी समझ कर आक्रामक हो जाता रहा है। इस सोच में अपेक्षित बदलाव की गति बहुत धीमी है।
       परिवार नियोजन के संसाधन विकसित होने के बाद यौन सम्बन्धों के बहुत से नये आयाम सामने आये हैं, क्योंकि यौन सम्बन्धों से गर्भधारण का परिणाम स्वैच्छिक हो गया है। यही कारण है कि बिना विवाह के यौन सम्बन्धों में बढोत्तरी हुयी है और लिव इन रिलेशन जैसे नये तरह के सम्बन्धों को कानूनी मान्यताएं मिली हैं भले ही समाज ने अभी उन्हें पूरी तरह से मान्यता न दी हो। इस मामले में स्वाभाविक रूप से पुरुषों द्वारा ही प्रस्ताव किये जाते रहे हैं और नारी के मौन को या कमजोर इंकार को उसकी स्वीकृति माना जाता रहा है। परिवर्तन के दौर में समाज कई स्तरों पर काम करता है और नारी के इंकार के बारे में भ्रम होना सहज सम्भव है। इसे ठीक से न समझने वाले लोग भी इंकार को लज्जा समझ कर ज्याद्ती कर जाते हैं। अधिक खुले समाज की समझ में भी अब यह बात आ जानी चाहिए कि नारी के इंकार का मतलब इंकार ही है। 
       जो राजनीति पूरे तंत्र पर नियंत्रण करती है उसका एक बड़ा हिस्सा सिद्धांतहीन होकर उसे सत्ता, सम्पत्ति पाने का साधन बना बैठा है। यौन अपराधों के बड़े बड़े मामले इसी क्षेत्र में घटित हो रहे हैं जिनमें से अनेक तो सार्वजनिक हो चुके हैं जब कि दबावों में अधिकांश सामने नहीं आ पाते। कैसी बिडम्बना है कि जो लोग स्वयं ही शपथ पत्र देकर कह रहे हैं कि उन पर यौन अपराधों के प्रकरण दर्ज हैं उनको भी राजनीतिक दल संसद या विधान सभा के लिए टिकिट दे रहे हैं। पिछले दिनों सांसदों और विधायकों की ऐसी सूची मीडिया में सामने आयी है पर बड़े बड़े वक्तव्य देने वाले किसी भी राजनीतिक दल ने अपने ऐसे सदस्यों से स्तीफा नहीं माँगना तो दूर उनके लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट में प्रकरण चलाने की माँग भी नहीं की है।
       कानूनी परिवर्तन के साथ सामाजिक परिवर्तनों का बीड़ा उठाना भी बहुत जरूरी है और उसके लिए वे ही व्यक्ति या संस्थाएं आगे आ सकती हैं जिनका समाज में कुछ प्रभाव है। जिन युवाओं ने आगे आकर इस घटना पर अपने गुस्से की अभिव्यक्ति दी है उन्हीं पर यह जिम्मेवारी भी आती है कि वे सामाजिक परिवर्तन के लिए भी पहल करें। स्मरणीय है कि अपने अछूतोद्धार और साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए ही गान्धीजी पुरातनपंथियों की नफरत के शिकार बने थे और उन्हें अपनी जान गँवानी पड़ी थी। उनकी मूर्ति लगाने वालों ने उनके आदर्शों और कामों को छोड़ दिया है जबकि सच यह है कि बिना सामाजिक परिवर्तन के समानांतर कोई भी राजनीतिक परिवर्तन सफल नहीं हो सकता। देखना होगा कि समाज के दोषों में सुधार लाने का बीड़ा कौन उठाता है!
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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बुधवार, दिसंबर 19, 2012

अनुदान के नगद भुगतान की योजना और सामाजिक संरचना


अनुदान के नकद भुगतान की योजना और सामाजिक संरचना
वीरेन्द्र जैन
       1985 में कांग्रेस के मुम्बई अधिवेशन के अवसर पर श्री राजीव गान्धी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दिये पहले भाषण की बहुत प्रशंसा हुयी थी जिसमें राजनैतिक कुटिलताओं से मुक्त देश के एक शुभेक्षु युवा की मासूम छवि नजर आयी थी। इसी भाषण का वह वाक्य बहुत चर्चित हुआ था जिसमें उन्होंने कहा था कि हम दिल्ली से जो एक रुपया गरीबों के लिए भेजते हैं तो उसमें से उनके पास कुल पन्द्रह पैसे ही पहुँच पाते हैं। विपक्षियों ने इसका अर्थ यह लगाया था कि पिचासी पैसे भ्रष्टाचार की भेंट चढ जाते हैं जिसके लिए सरकार और सत्तारूढ दल ही जिम्मेवार हैं जिसकी स्वीकरोक्ति स्वय़ं कांग्रेस के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री ने स्वय़ं की है, वहीं सत्तारूढ दल और नौकरशाही ने उसकी व्याख्या इस तरह की थी कि गरीबों के सशक्तीकरण की जो योजनाएं लागू की जाती हैं उनको संचालित करने के खर्चे में ही पिचासी प्रतिशत राशि खर्च हो जाती है व हितग्राही के हिस्से में कुल पन्द्रह पैसे ही आते हैं। गत दिनों विभिन्न तरह के अनुदानों को सीधे उस अनुदान के पात्रों के बैंक खातों में जमा करने की योजना ने राष्ट्रीय स्तर पर वैसी ही उत्तेजना पैदा की है।
       उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों अन्ना हजारे के नाम पर भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़े गये अभियान को जनता का मुखर और मौन दोनों तरह का जबरदस्त समर्थन मिला था तथा विभिन्न सूचना माध्यमों ने उस आन्दोलन का व्यापक प्रचार प्रसार किया था। भले ही बाद में वह आन्दोलन पूरी तरह से बिखर गया और उसकी सामने आयी विसंगतियों ने उसे हास्यास्पद स्तिथि तक पहुँचा दिया पर जनता के समर्थन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आम जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त है और वह उसके खिलाफ छेड़े जाने वाले किसी भी आन्दोलन को बिना सोचे समझे भी समर्थन देने के लिए तैयार हो जाती है। गत दिनों मध्यप्रदेश समेत अधिकांश राज्यों में सीबीआई, आयकर विभाग, या लोकायुक्त द्वारा मारे गये छापों में सरकारी अधिकारियों या मंत्रिमण्डल के सदस्यों के निकट रिश्तेदारों के पास से करोड़ों रुपये की सम्पत्तियां मिलने से भी भ्रष्टाचार की व्यापाकता के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। अधिकांश भ्रष्टाचार विकास योजनाओं या कमजोर वर्ग के सशक्तिकरण के लिए लागू की गयी योजनाओं में होता रहा है जिससे उस कमजोर वर्ग तक वह अनुदान पूरा नहीं पहुँच पाता है जिसे देने के लिए योजनाएं घोषित और कार्यांवित की जाती रही हैं। नकद भुगतान योजना सरकार और लाभ देने के लिए चयनित समुदाय के बीच सक्रिय ‘बिचौलियों’ को हटाने का प्रयास है।
       विपक्ष द्वारा इस योजना की जो औपचारिक आलोचना हो रही है उसमें आशंकाएं अधिक व्यक्त की जा रही हैं, जिससे यह संकेत मिलते हैं कि उन्हें योजना से नहीं अपितु उसके कार्यांवित करने की क्षमता पर भरोसा नहीं है। यह योजना भ्रष्टाचार से पीड़ित जनमानस को एक मरहम की तरह लग रही है पर छुटभैए राजनेताओं, नौकरशाहों या भ्रष्टाचार से लाभांवित होने वाले लोगों को निजी कारणों से अप्रिय लग रही है।
       यदि इस योजना के व्यवहारिक पक्ष को देखा जाये तो ऐसा लगता है कि हमारी सरकारें अभी इस स्थिति में नहीं हैं जो इस योजना को लागू कर सकें। हमारे पास अभी तक कोई जनसंख्या रजिस्टर तैयार नहीं है और न ही जनता को उनकी आय के अनुसार सही वर्गीकृत करता हुआ कोई विश्वसनीय सर्वेक्षण मौजूद है। एक कस्बे में एक अध्यापक और एक व्यापारी का लड़का एक ही कक्षा में पढते थे और दोनों ही प्रथम आते थे, पर एक स्कालरशिप ऐसी थी जो आयकर न देने वाले परिवार के प्रतिभाशाली बच्चों को ही मिलती थी। सेठजी की आमदनी बहुत अधिक थी पर वे सही टैक्स नहीं चुकाते थे पर अध्यापक को आयकर की सीमा में होने के कारण मिलने वाले वेतन से आयकर सीधे कट जाता था जिस कारण व्यापारी के लड़के को तो स्कालरशिप मिलती थी पर अध्यापक के लड़के को स्कालरशिप नहीं मिलती थी। दुखी अध्यापक इसी कारण से सरकार के घनघोर विरोधी हो गये थे। जहाँ किसी किसी दफ्तर के चपरासी तक के पास करोड़ों रुपये निकलते हों वहाँ ऐसी योजनाओं के क्रियांवयन के पहले बहुत सारे दूसरे काम करने होंगे, जिनमें सबके आधार कार्ड तैयार करना और सबकी सही आय का सही सही आकलन करना जरूरी है।
       किसी भी अनुदान को देने के पीछे कोई न कोई कारण या लक्ष्य होता है इसलिए यह जरूरी होता है कि दिया गया अनुदान उसी घोषित लक्ष्य की पूर्ति करता हो। उदाहरण के लिए अगर शिक्षा के लिए दिये गये किसी अनुदान को नगद भुगतान में बदल दिया जाता है और सम्बन्धित बच्चे के परिवार के लोग उस राशि को अपने अन्धविश्वास से प्रेरित कार्यों में खर्च कर देते हैं तो उस अनुदान का लक्ष्य ही बदल जायेगा। उल्लेखनीय है कि इन दिनों लाखों की संख्या में धर्मगुरु की वेशभूषा में घूम रहे ठग सामान्य सरल आस्थावान भावुक लोगों का धन हड़पने के लिए सक्रिय हैं जिनके कारनामे यदा कदा प्रकाश में आते रहते हैं। इसलिए नगद भुगतान की योजना के साथ साथ सम्बन्धित कार्य के क्रियांवयन को सुनिश्चित किये जाने की व्यवस्था भी करनी होगी। हमारी बहुत सारी योजनाएं एक आदर्श पूंजीवादी समाज की मान्यता के आधार पर बनायी जाती हैं जबकि हमारे समाज का बड़ा हिस्सा अभी भी सामंती मानसिकता में जकड़ा हुआ है। मैं अपनी बैंकिंग सेवा के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में घर के बुजर्ग की भव्य तेरहवीं करना या बच्चों की शादी की धूमधाम में पानी की तरह पैसा बहाना, ट्रैक्टर ऋण की किश्त चुकाने की तुलना में प्राथिमिकता पर आते हैं जबकि कृषि विकास के लिए ऋण देने से सम्बन्धित हमारी योजनाओं में इनका कोई स्थान नहीं होता है और हम सोचते रह जाते हैं कि फसल अच्छी होने के बाद भी ऋणों की वसूली क्यों नहीं हो रही।
       किसी व्यवस्था में किये गये आर्थिक विकास उस देश के सामाजिक विकास के समानुपाती होते हैं, पर हमारे यहाँ विदेशी अनुदान प्राप्त गैरसरकारी संगठनों की संख्या में जबरदस्त बढोत्तरी के बाद भी सामाजिक परिवर्तन के लिए आन्दोलन छेड़ने वाली संस्थाएं समाप्तप्रायः हो गयी हैं। स्मरणीय है कि देश में आज़ादी की लड़ाई लड़ने के साथ साथ गान्धीजी ने राजतंत्र को समाप्त करने की नींव भी डाली थी। वे अपने लक्ष्य को इसलिए पा सके क्योंकि उन्होंने अपनी राजनीतिक लड़ाई के साथ साथ समाज सुधार के आन्दोलन भी किये। अछूतोद्धार, जाति प्रथा उन्मूलन, कुष्ट रोगियों की सेवा, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना, स्वदेशी आन्दोलन में चरखे और खादी का प्रचार, आश्रमों का संचालन, सर्वधर्म प्रार्थना सभाएं आदि साथ साथ चलाये और न केवल जनता को अपने साथ जोड़ा अपितु उसे शिक्षित भी किया।

      
                नगद अनुदान देकर विचौलियों को निर्मूल करने का विचार अच्छा तो है किंतु यह देखना भी जरूरी है कि यह विचार अपने लक्ष्य में सफल भी हो इसलिए उसकी कमियों को दूर करने के लिए जरूरी उपाय भी समानांतर रूप से चलाये जाने चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, दिसंबर 05, 2012

गुजरात में चुनाव जीतने का नकली आत्मविश्वास्


गुजरात में चुनाव जीतने का नकली आत्मविश्वास 
वीरेन्द्र जैन
       गोएबल्स के अनुसार अगर एक झूठ को जोर शोर से सौ बार बोला जाये तो लोगों को उसके सत्य होने का भरोसा होने लगता है। यह सिद्ध हो चुका है कि झूठ को प्रचारित करने और अफवाहें फैलाने के मामले में संघ परिवारियों का कोई सानी नहीं है और इसी हथियार के भरोसे वे गुजरात विधानसभा के चुनावों में मोदी की सुनिश्चित जीत का प्रचार लगातार कर रहे हैं। हमारे यहाँ के मतदाताओं को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहले प्रकार के मतदाता तो वे हैं जो किसी राजनीतिक दल में सक्रिय हैं, और किसी भी हालत में उसी दल को वोट करते हैं, भले ही दल ने किसी भी तरह के गम्भीर अपराधों के आरोपी को प्रत्याशी बनाया हो। दूसरी तरह के मतदाता वे हैं जो राजनीतिक रूप से जागरूक हैं और दल के सिद्धांत, घोषणापत्र, अथवा प्रत्याशी के गुणदोष, पिछले कार्यकलाप, के अनुसार अपना मत तय करते हैं। तीसरे तरह के अदूरदर्शी मतदाताओं में जातिवादी, क्षेत्रवादी तथा बिकाऊ मतदाता आते हैं जो व्यक्तिगत या तात्कालिक लाभ को देखते हुए उम्मीदवार की घोषणा के बाद उसकी जाति देख कर या मतदान वाले दिन पैसे, शराब साड़ी कम्बल आदि के अनुसार वोट देते हैं। तीनों तरह के मतदाताओं के मत का मूल्य एक समान होता है, यही कारण है सत्ता या विपक्ष के कामकाज का एक सा असर पड़ने के बाद भी देश के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग परिणाम आते हैं।
       गुजरात के आगामी विधानसभा चुनावों में व्यापक तौर पर मोदी की जीत का वितान बाँधा जा रहा है। स्मरणीय है कि हिन्दू साम्प्रदायिकता से प्रभावित एक छोटे से वर्ग को छोड़ कर, मोदी इस समय देश के सबसे बड़े खलनायकों में गिने जाते हैं, और ऐसा मानने में उनके दल का भी एक बड़ा हिस्सा सम्मलित है। भाजपा के बहुत सारे लोग यह मानते हैं कि एनडीए के क्षरण और केन्द्र में उनकी सरकार के पतन के पीछे गुजरात में 2002 में हुए नरसंहार की बड़ी भूमिका थी। यहाँ तक कि बाहर के देश भी उन्हें अपने यहाँ नहीं देखना चाहते रहे और उन्हें बीजा देने से इंकार कर चुके हैं। तीन वर्ष पूर्व हुए 2009 के लोकसभा चुनाव के नतीजे बताते हैं कि कांग्रेस और बीजेपी के मतों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। 26 लोकसभा सीटों में कांग्रेस ने 12 सीटों पर जीत दर्ज की थी व 14 सीटें बीजेपी को मिलीं थीं। मत प्रतिशत के लिहाज़ से देखें तो कुल मतदान 47.89 फीसदी हुआ था जिसमें से 46.5 फीसदी वोट बीजेपी को और 43.5 फीसदी वोट कांग्रेस को मिले थे।  वोटों की गिनती के हिसाब से बीजेपी को कुल 81 लाख 28 हज़ार 858 वोट मिले थे जबकि कांग्रेस को 75 लाख 79 हज़ार 957 वोट मिले। निर्दलीयों के खाते में 5 फीसदी वोट गए यानी 10 लाख वोट उन्हें भी हासिल हुए। आंकड़ों से साफ है कि बीजेपी से बहुत ज्यादा पीछे कांग्रेस नहीं है। उल्लेखनीय है के गत दिनों पश्चिम बंगाल में पराजित होने वाले बाममोर्चे को पिछले चुनावों में मिले वोटों से नौ लाख वोट अधिक मिले थे व उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को पिछले चुनावों से 37 लाख वोट अधिक मिले थे किंतु मतदान प्रतिशत अभूतपूर्व ढंग से बढ जाने के कारण ये सत्तारूढ दल पिछड़ गये थे। इस बार गुजरात में भी मतदान प्रतिशत का बढना तय है इसलिए मतदान के पुराने अनुपातों से अनुमान लगाना कठिन होगा।
       यहाँ यह उल्लेख करना जरूरी लगता है कि गुजरात के इन विधानसभा चुनावों में भाजपा का कोई नाम ही नहीं ले रहा अपितु पूरा चुनाव मोदी बनाम कांग्रेस के तौर पर लड़ा जा रहा है। यह केवल मोदी के दुष्कर्मों द्वारा अर्जित पहचान का ही परिणाम है कि उन्होंने स्वयं को पार्टी से ऊपर प्रचारित करवा लिया है। स्वयं को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी प्रचारित कराने से न केवल सबसे शिखर के नेता पूर्व प्रधान मंत्री पद प्रत्याशी लालकृष्ण अडवाणी ही असंतुष्ट रहे हैं, अपितु आरएसएस के बहुत महत्वपूर्ण नेता व पूर्व प्रवक्ता एम.जी. वैद्य ने तो यह तक कह दिया है कि भाजपा के अध्यक्ष गडकरी के खिलाफ लगाये गये भ्रष्टाचार के आरोपों की मुहिम में नरेन्द्र मोदी का हाथ है। इससे भी तय है कि भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष नितिन गडकरी समेत संघ और भाजपा के अनेक नेता भले ही भाजपा की जीत चाह रहे हों किंतु मोदी की जीत नहीं ही चाह रहे होंगे। भाजपा से छिटके प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल जिन्हें पटेल जाति के मतों सहित संघ के एक वर्ग का समर्थन भी प्राप्त है, ने मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ रही कांग्रेस की उम्मीदवार के समर्थन में अपने उमीदवार का नाम वापिस ले लिया है।  स्मरणीय है कि गत दिनों हुआ भाजपा का जो राष्ट्रीय अधिवेशन मुम्बई में हुआ था उसे नरेन्द्र मोदी गुजरात में कराने पर अड़े हुए थे किंतु संघ और गडकरी ने उनके प्रस्ताव को ठुकराते हुए अधिवेशन स्थल मुम्बई में ही रखा था। स्मरणीय यह भी है कि इस अधिवेशन के दौरान मोदी ने तब तक इसमें भाग लेना मंजूर नहीं किया था जब तक कभी उनके साथ गुजरात में प्रचारक रहे संजय जोशी को बिना किसी घोषित आरोप के पार्टी से निकल जाने को नहीं कह दिया गया। यह आदेश संघ के अनुशासन से चलने वाले नेताओं ने कितने बेमन से किया इसका संकेत तो इसी बात से मिल जाता है कि अगले दिन आमसभा के लिए श्री अडवाणी और सुषमा स्वराज आदि वहाँ नहीं रुके थे। भाजपा की पत्रिका कमल सन्देश में पत्रिका सम्पादक प्रभात झा ने अपने सम्पादकीय में मोदी की निन्दा की थी, ऐसी ही आलोचना भाजपा के मुखपत्र आर्गनाइजर ने भी की थी। गुजरात में कभी संजय जोशी बतौर संघ प्रचारक नरेन्द्र मोदी से अधिक लोकप्रिय और वरिष्ठ रहे थे तथा उनके चाहने वाले वहाँ अभी भी समुचित संख्या में हैं जिसका प्रमाण उन्हें स्तीफा देने को मजबूर किये जाने के बाद उनके समर्थन में लगाये गये लाखों पोस्टरों से मिल जाता है। स्मरणीय यह भी है कि जिस हिन्दू साम्प्रदायिकता के सहारे स्वयं को गुजरात का शासक बनाये हुए हैं उसके सबसे बड़े खिलाड़ियों में से एक हिन्दुत्व के स्वयंभू ठेकेदार डा, प्रवीण तोगड़िया पिछले कई सालों से उनके सबसे बड़े विरोधी हैं। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ निलम्बित आईपीएस संजीव भट्ट की पत्नी कांग्रेस के टिकिट पर चुनाव लड़ रही हैं। उल्लेखनीय है कि  उनके पति ने जाँच समितियों को 2002 के दंगों के लिए जिम्मेवार लोगों के बारे में सच सच बता दिया था जिस कारण उन पर झूठे आरोप लगा कर उन्हें निलम्बित कर दिया गया है और उनके परिवार ने केन्द्र सरकार से सुरक्षा की गुहार लगायी है। एक ईमानदार और समर्पित पुलिस अधिकारी के साथ हुए इस तरह के व्यवहार से प्रदेश के ईमानदार और सक्रिय पुलिस अधिकारियों में रोष होना स्वाभाविक है जो प्रशासनिक अधिकारियों के साथ मिल कर मोदी को सत्तारूढ होने के अतिरिक्त लाभ नहीं लेने देंगे।
       उत्तरांचल में सरकार के जाने, यूपी में मुँह की खाने और पंजाब में ग्राफ के गिरने, कर्नाटक में येदुरप्पा के इशारे पर सरकार के लटकने की स्थिति आ जाने के बाद पार्टी के रूप में भाजपा आगे बढती हुयी नजर नहीं आती जिसकी स्वीकरोक्ति पिछले दिनों ही श्री अडवाणी ने यह कह कर की थी कि लोग भाजपा को कांग्रेस के विकल्प के रूप में नहीं देख रहे। पिछले दिनों भ्रष्टाचार के बड़े बड़े खुलासों में कोई भी ऐसा नहीं था जिसके छींटों से भाजपा के नेता मुक्त हों। भाजपा शासित अन्य राज्यों में तो प्रतिदिन कोई न कोई खुलासा हो ही रहा है जिससे दल के रूप में भाजपा को अपेक्षाकृत बेहतर छवि का लाभ भी नहीं मिल रहा। गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति के मामले में मोदी ने लगातार आठ साल तक जो टालामटोली की उससे उनकी सरकार के अन्दर चल रही गतिविधियों के संकेत मिलते हैं। मोदी की सरकार में ही गृहमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहे गोरधन भाई जदाफिया ने मोदी के कार्यकाल में एक लाख करोड़ के 17 घोटालों का आरोप लगाया है और जिसके लिए वे देश के राष्ट्रपति से भी गत वर्ष सितम्बर में मिल चुके हैं।
       यह आत्मविश्वास की कमी का ही परिणाम है कि वे ट्विटर पर नकली फालोअर बनवा कर भ्रम पैदा करा रहे हैं, गत अक्टूबर में लन्दन की एक कम्पनी ने ट्विटर के आंकड़ों का पर्दाफाश करते हुए यह गड़बड़ी पकड़ी थी और बताया था कि दस लाख फालोअर्स का दावा करने वाली साइट के आधे से अधिक फालोअर्स नकली हैं। यही हाल टाइम पत्रिका के मुखपृष्ठ पर आने और कवर स्टोरी छपने का है। उल्लेखनीय है कि मोदी कारवान के पत्रकार से मिलने से इंकार कर देते हैं पर टाइम के पत्रकार से मिलने के लिए सहर्ष राजी हो जाते हैं! यहां पर उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि एक समय टाइम ने बिहार कैडर के आइएएस गौतम गोस्वामी को 2004 में पर्सन ऑफ द इयरपुरस्कार से नवाजा था। बिहार में आई बाढ़ के दौरान उनके काम की काफी सराहना हुई थी, लेकिन बाद में बाढ़ पीडि़तों के फंड में बड़े पैमाने पर हुए घोटाले में उनका नाम उजागर हुआ था। प्रैस के साथ मोदी के सम्बन्धों का हाल यह है कि उन्होंने टाइम्स आफ इंडिया के अहमदाबाद संस्करन के सम्पादक भरत देसाई, और टाइम्स चैनल के राहुल सिंह के विरुद्ध देशद्रोह का मामला बनवाया था। दंगा पीड़ितों की मदद करने वाली कम्युनल काम्बेट की सम्पादक तीस्ता शीतलवाड़ के विरुद्ध अनेक मुकदमे चलवाये। दूसरी ओर साम्प्रदायिक आधार पर खबरें लिखने वाले ‘सन्देश’ और ‘गुजरात समाचार’ की प्रशंसा की। 
       गुजरात चुनाव में काँटे की टक्कर है क्योंकि एनडीए के घटक दल ही नहीं स्वयं भाजपा का एक गुट, संघ व विश्वहिन्दू परिषद भी मोदी के खिलाफ है इसलिए चुनाव परिणाम हमेशा की तरह अनिश्चितता भरे हैं व मोदी की सुनिश्चित जीत बतायी जाने वाली सभी खबरें झूठी और बनावटी हैं।

वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, नवंबर 28, 2012

कसाव को फाँसी, भाजपा के गले की फाँस


कसाब को फाँसी भाजपा के गले की फाँस  
वीरेन्द्र जैन 
            जो लोग झूठ के हथियारों से लड़ाई लड़ते हैं, उन्हें पराजय के साथ शर्मिन्दगी भी झेलेना पड़ती है। कसाब को फाँसी के बाद भाजपा की हालत कुछ ऐसी ही हो गयी है।
       दर असल भाजपा के पास हमेशा से ही राजनैतिक मुद्दों का अभाव रहा है और वह अपने जनसंघ स्वरूप के समय से ही ऐसे मुद्दों का सहारा लेती रही है जो परम्परावादी लोगों के बीच भावुकता भड़का कर चुनाव जीतने  वाले मुद्दे थे और जिनका जनहित से दूर दूर का भी नाता नहीं रहा। 1967 में उन्होंने गौहत्या विरोध के नाम पर साधुओं के भेष में रहने वाले भिक्षुकों को एकत्रित करके संसद पर हमला करवा दिया था, जो भारतीय संसद पर हुआ पहला हमला था, पर इसके योजनाकारों को कभी कोई सजा नहीं मिली। सुरक्षा में मजबूरन पुलिस को गोली चलाना पड़ी थी जिसमें छह सात निरीह भावुक लोग मारे गये थे। इस गोली कांड का सहारा लेकर उन्होंने पूरे देश के लोगों को भड़काने की कोशिश की थी जिसमें वे काफी हद तक सफल रहे थे और सीधे सरल आस्थावान हिन्दुओं के बीच जनसंघ उत्तर भारत में एक प्रमुख वोट बटोरू दल के रूप में उभर आया था। बाद में तो राम मन्दिर, रामसेतु, राम वनगमन मार्ग, ही नहीं काशी मथुरा समेत साढे तीन सौ धर्मस्थलों की सूची तैयार कर ली थी जहाँ पर मुस्लिमों से टकराहट लेकर मतों का ध्रुवीकरण कराया जा सकता था। राम जन्मभूमि मन्दिर के नाम पर कराये गये दंगों का इतिहास अभी पुराना नहीं हुआ है, और बाबरी मस्जिद को ध्वंस करने वालों को अभी तक सजा नहीं मिल सकी है। 1984 से 1992 तक कभी रामशिला पूजन और कभी अस्थिकलश यात्रा के बहाने पैदा किये गये दंगों से जनित ध्रुवीकरण ने उन्हें दो सीटों से दो सौ तक पहुँचा दिया था। यही कारण रहा कि वे हमेशा ही ऐसे मुद्दे तलाशते रहे। सोनिया गान्धी के राजनीति में सक्रिय होते ही उन्होंने धर्म परिवर्तन के नाम पर ईसाई धर्मस्थलों और उनके स्कूलों व अस्पतालों पर अकारण हमले शुरू कर दिये थे, व ईसाई मिशनरियों को जिन्दा जलाने लगे थे, ताकि इस बहाने सीधे सरल आस्थावानों को ईसाइयत विरोध के नाम पर कांग्रेस के विरुद्ध किया जा सके। ईसाई विरोध के नये नये आयाम तलाशने के चक्कर में उन्होंने दो रुपये के उस सिक्के को भी अपना हथियार बनाना चाहा जिस पर चार रेखायें एक दूसरे को काट रही थीं जिसे उन्होंने ईसाइयों के क्रास की तरह प्रचारित करते हुए बड़ा विरोध किया जैसे कि इस सिक्के पर बने क्रास जैसे चिन्ह के कारण हिन्दू चर्च में जाकर ईसाई धर्म अपना लेगा।   
      यह दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्ज़िद ध्वंस की ही प्रतिक्रिया थी कि जनवरी 1993 में पूरी मुम्बई में विस्फोट हुए व दर्जनों जानें जाने के साथ अरबों रुपयों की सम्पत्ति नष्ट हुयी। बाद में ऐसी ही प्रतिक्रियाएं दिल्ली, जम्मू, गुजरात, बनारस, कानपुर, पुणे, आदि पचासों जगहों पर हुयीं और जन धन का नुकसान हुआ। इस प्रतिक्रिया के बहाने हुए ध्रुवीकरण को तेज करने के लिए संघ-भाजपा परिवार के संघटनों से जुड़े लोगों ने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में सफाई के साथ आतंकी घटनाएं कीं व मीडिया मैनेजमेंट द्वारा सारा सन्देह मुस्लिमों की ओर मोड़ दिया गया था, जिसके बारे में प्रैस परिषद के अध्यक्ष बनने के बाद जस्टिस काटजू ने बहुत स्पष्ट ढंग से मीडिया की निन्दा की थी। यदि मालेगाँव, मडगाँव, कानपुर आदि में निर्माणाधीन बमों में असमय विस्फोट होने की दुर्घटनाएं नहीं हुयी होतीं तो किसी को पता भी नहीं चलता कि अजमेर, हैदराबाद, समझौता एक्सप्रैस आदि में विस्फोट की घटनाओं के पीछे वे लोग नहीं थे जो प्रचारित किये गये थे, और वर्षों से जेलों में बन्द थे।
      मुम्बई में पाकिस्तान से आये हुए तालिबानी आतंकवादियों द्वारा ताज, ओबेराय, ट्राईडेंट होटलों तथा इजरायलियों की बस्ती वाले नरीमन प्वाइंट वाले स्थान पर किये गये हमलों में चुन चुन कर अमेरिकियों को मारने व रेलवे स्टेशन पर और एक अस्पताल पर अँधाधुन्ध फायरिंग से सुरक्षा बलों का ध्यान भटकाने की योजना को पूरा करते हुए जिस हमलावर को जीवित पकड़ा गया था उसका नाम कसाब था। शायद यह सन्योग ही हो कि इन घटनाओं में आतंकवाद विरोधी सैल के वे महत्वपूर्ण अधिकारी भी मारे गये थे जिन्होंने आतंकी घटनाओं में हिन्दुत्ववादी आतंकियों को पकड़ा था और जल्दी ही कोई बड़ा रहस्य उजागर करने वाले थे। जीवित पकड़े गये आतंकी को जल्दी से जल्दी मार देने के लिए, नेतृत्व में वकीलों के बाहुल्य वाला दल भाजपा सर्वाधिक उतावला था, व इस माँग को वह अपनी राष्ट्रभक्ति की नकाब से में लपेट कर उठा रहा था। ऐसा करते हुए वह भारतीय न्याय प्रक्रिया के प्रावधानों के प्रति भी आँखें बन्द किये हुए था। उसने एक ऐसे कैदी के बारे में अतिरंजित व्ययों का प्रचार करना शुरू किया जिसमें किसी सम्वेदनशील कैदी को दी गयी सुरक्षा का खर्च भी सम्मलित था। ऐसा करके वे और सभी तरह के मीडिया में फैले हुए उनके प्रचारक यह दुष्प्रचार करने में लगे हुए थे कि देश की सरकार, पुलिस, और न्याय व्यवस्था इस दुर्दांत हमलावर को बचाने में लगी है व उसे विशिष्ट स्वादिष्टतम भोजन और सुख सुविधाएं उपलब्ध करा रही है। सुरक्षा व्यवस्था व न्याय व्यवस्था के ऊपर आने वाले सारे व्यय को उसके ऊपर हुए व्यय के रूप में प्रचारित किया जा रहा था व कसाब को सरकार के दामाद के रूप में बता कर पूरे देश की व्यवस्थाओं का अपमान किया जा रहा था। सच यह था कि कसाब के खाने पर चार साल में 42,313 रूपये, कसाब के कपडों पर 1,878 रूपये और चिकित्सा पर 39,829रूपये मात्र खर्च किए गए।इन प्रचारकों ने इस दौरान कभी भी इस मापदण्ड से साध्वी के भेष में रहने वाली प्रज्ञा सिंह ठाकुर, दयानन्द पाँडे आदि पर हुए व्यय का हिसाब नहीं लगाया और लगाया हो तो उसे सार्वजनिक नहीं किया। उल्लेखनीय यह भी है कि जब तक ये हिन्दू आतंकवादी नहीं पकड़े गये थे तब तक आतंकवाद सरकार के खिलाफ भाजपा का मुख्य मुद्दा हुआ करता था पर इन आतंकियों के पकड़ में आने के बाद भाजपा ने आतंकवाद का विरोध करना बन्द कर दिया क्योंकि वह तो आतंकवाद के नाम पर पूरे मुस्लिम समाज को कटघरे में खड़ा कर ध्रुवीकरण ही कराना चाहती थी जो अब सम्भव नहीं रह गया था। अब जब कसाब पर हुए खर्च के आँकड़े सामने आ गये हैं तब भी इन्होंने अपने दुष्प्रचार पर शर्मिन्दा होकर क्षमा माँगने की जरूरत नहीं समझी।
      देश में सब जानते और चाहते थे कि कसाब को फाँसी ही होगी और होना भी चाहिए थी क्योंकि किसी भी न्याय के पास इससे बड़ी कोई दूसरी सजा नहीं है। वह एक क्रूरतम अपराध का औजार था और अधिकतम सम्भव दण्ड का पात्र था। एक लोकतांत्रिक देश की न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान करते हुए यह सजा हुयी भी, किंतु संघ परिवार ने जिस तरह से इस स्वाभाविक प्रक्रिया के बीच में जो दुष्प्रचार किया वह परोक्ष में बहुत कपटपूर्ण था। प्रचारित यह किया गया कि यूपीए सरकार वोट बैंक के चक्कर में कसाब जैसे दुर्दांत अपराधी की सजा को टाल रही है और उस पर करोड़ों फूंक रही है। जाहिर है कि वोट बैंक से उनका मतलब मुस्लिम वोट बैंक से था और इस तरह वे परोक्ष में देश के पूरे मुस्लिम समाज को पाकिस्तान के इस आतंकी से सहानिभूति रखने वाला बताते हुए उन्हें गद्दार बता रहे थे, जबकि पूरे देश में कहीं भी किसी मुस्लिम संगठन ने इन आतंकियों के प्रति सहानिभूति नहीं दिखायी थी। मुम्बई के मुस्लिम समाज ने तो मारे गये आतंकियों को अपने कब्रिस्तान में दफनाने से ही मना कर दिया था। पर ध्रुवीकरण से अपने दल का विस्तार करने वाले इनके संगठक ऐसा कोई भी अवसर नहीं छोड़ते हैं अपितु जो नहीं होता है उसे भी अपने झूठ के सहारे पैदा करने की कोशिश करते हुए इससे होने वाले देश के नुकसान के बारे में भी नहीं सोचते।
      उल्लेखनीय है कि कसाव और उसके स्थानीय सहयोगी बताये गये लोगों का मुकदमा लड़ने वाले वकील की गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी जिस के कारण उन दो लोगों को अदालत ने ससम्मान बरी कर दिया था जिन पर सहयोग का आरोप बनाया गया था। यदि उन लोगों को यह वकील नहीं मिला होता तो शायद उन्हें भी आरोपानुसार सजा मिल गयी होती, पर उस वकील की हत्या किसने की यह अभी तक रहस्य बना हुआ है, इस हत्या की जाँच की माँग भाजपा ने करना जरूरी नहीं समझा क्योंकि न्याय और अन्याय की उनकी अपनी परिभाषाएं या मान्यताएं हैं जो भारतीय संवैधानिक न्याय व्यवस्थाओं से भिन्न हैं। बहरहाल कसाब की फाँसी से इकलौते बच रहे आतंकी का अंत भी हो गया है, पर भाजपा के हाथ से दुष्प्रचार का एक बड़ा कार्ड छिन गया है और वे यह भी नहीं बता पा रहे हैं कि अगर अपनी न्याय व्यवस्था को धता बताते हुए यही काम कुछेक महीने पहले हो जाता तो देश का कितना भला हो जाता! कोई आश्चर्य नहीं कि ये लोग कोई और नया मुद्दा तलाश लें पर जैसे जैसे इनकी कलई खुलती जा रही है इनके मुद्दे भी मुर्दों में बदलते जा रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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सोमवार, नवंबर 19, 2012

दिवंगत बाला साहेब ठाकरे- जिन्होंने हमेशा भाजपा पर अंकुश रखा


दिवंगत बाला साहब ठाकरे -जिन्होंने हमेशा भाजपा पर अंकुश रखा
वीरेन्द्र जैन
       बाला साहब ठाकरे ने हिन्दुत्व और मराठी जातीयता की राजनीति को आधार बनाया था, व इस के आधार पर उन्होंने जो संगठन खड़ा किया था उससे देश की आर्थिक राजधानी में व्यापार कर रहे कुबेरों की नस दबाने में सफल रहे थे। जिस दौरान मुम्बई में जो बड़े स्मगलर और माफिया गिरोह थे उनके सरगना कुछ मुस्लिम थे इसलिए उन्होंने अपना संगठन बनाने के लिए हिन्दुत्व का सहारा लिया तथा कुछ साउथ इंडियन थे जिनसे टकराने के लिए उन्होंने महाराष्ट्र में मराठी का नारा उछाला। उनके काम से सुरक्षा पाने वाले धनपतियों ने उन्हें धन और साधन दोनों ही उपलब्ध कराये तथा इस तरह अर्जित धन को उन्होंने संगठन के लिए खर्च किया और पूरी मुम्बई में जगह जगह शिवसेना के स्थानीय कार्यालय बनाये जहाँ एक भयानक शेर के चित्र के नीचे कैरम व शतरंज खेलते हुए बाहुबली युवा देखे जा सकते थे। ये उनकी सेना थे और इसीलिए उन्होंने अपने संगठन का नाम शिवसेना रखा जो लगभग भारतीय पुलिस और न्याय व्यवस्था के समानांतर कार्यरत रही। प्रारम्भ में उन्होंने युवाओं को खर्च दिया पर बाद में अपनी संगठन की दम पर ये स्थानीय कार्यालय आत्म निर्भर होते गये थे। क्षेत्र में प्रत्येक अवैध काम करने वालों को इन संगठनों को वैसे ही हफ्ता देना पड़ता था जैसे कि पूरे देश की पुलिस वसूल करती है। बड़े स्तर पर व्यवसाय करने वालों को भी अपनी सुरक्षा के नाम पर मोटी रकम चुकानी पड़ती थी। क्रमशः उनकी संगठन क्षमता बढती गयी और देश के सबसे महत्वपूर्ण नगर निगम पर अधिकार करने से प्रारम्भ कर उन्होंने प्रदेश की राजनीति में अपने पैर फैला लिये, तथा भाजपा के साथ मिलकर एक बार प्रदेश में सरकार भी बनायी। गठबन्धन की राजनीति में क्षेत्रीय दलों की पूछ परख बढ जाने से राष्ट्रीय राजनीति में भी दखल देने लगे थे।
       महाराष्ट्र की राजनीति में अपना स्थान बना कर बाला साहब ठाकरे ने राष्ट्रीय दल भाजपा की राजनीति को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया क्योंकि उन्होंने जो साम्प्रदायिक आधार लिया था उसी पर भाजपा काम करती है और इस तरह वे महाराष्ट्र में भाजपा के प्रतियोगी रहे। दूसरी ओर उन्होंने भाजपा के साथ जब भी गठबन्धन किया तब अपनी शर्तों पर किया, और बड़ा हिस्सा अपने लिए सुरक्षित रखा। जल्दी से जल्दी सत्ता हथियाने के लालच में भाजपा ने स्वाभिमान बेच कर देश भर में जो समझौते किये हैं उनमें बाला साहब के साथ किये गये समझौतों में सबसे अधिक नीचा देखना पड़ा है। इसका कारण यह था कि शिवसेना की कार्यनीति और दल का आधार उन्हें महाराष्ट्र से बाहर के सपने नहीं देखने देता था, और महाराष्ट्र में उन्होंने इतना बड़ा संगठन खड़ा कर लिया था कि भाजपा को उनके साथ समझौता करने को मजबूर होना पड़ता था। दूसरी ओर बाला साहब की कोई मजबूरी नहीं होती थी कि वे झुक कर समझौता करें। उनका सिद्धांत था कि -
दोस्ती हो तो मेरे तौर पै हो
बरना ये मेहरबानी किसी और पै हो
       उल्लेखनीय है कि भाजपा ने अपनी सत्ता लोलुपता में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबन्धन किया। यहाँ पर भी उनके गठबन्धन साथी को उस समय सत्ता में आने की बहुत जल्दी नहीं थी तथा वे भी झुकना नहीं चाहते थे इसलिए बसपा से अधिक विधायक होने के बाद भी भाजपा ने छह छह महीने मुख्यमंत्री बनने का बेहद हास्यास्पद समझौता किया। भाजपा बड़ी और राष्ट्रीय पार्टी थी फिर भी पहला मुख्यमंत्री बनने की शर्त बहुजन समाज पार्टी की मानने को मजबूर हुए। उस समय पहली बार मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और धर्म बहिन बनीं थी तथा वह जातिवाद पर आधारित बहुजन समाज पार्टी की नेतृत्व वाली पहली सरकार थी जो भाजपा की मदद से बनी थी। इस पर भाजपा का मजाक उड़ाते हुए कार्टूनिस्ट रहे बाला साहब ठाकरे ने कहा था कि यह छह छह महीने की सरकार क्या होती है? अगर कुछ पैदा ही करना था तो कम से कम नौ नौ महीने की सरकार तो बनाते।  उनके इस बयान के बाद से भाजपा की बहुत ही छीछालेदर हुयी थी और बाद में तो मायावती ने छह महीने बाद भी स्तीफा देने से इंकार कर दिया था। पाकिस्तान के प्रति अपनी नफरत का मुखर प्रदर्शन करने वाले बाला साहब ने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मुशर्रफ की भारत यात्रा के दौरान सुषमा स्वराज का उनको आदाब करते हुए चित्र के प्रकाशन पर कहा था कि यह मुद्रा तो मुजरे की मुद्रा है तथा सुषमा जी को इसकी क्या जरूरत पड़ गयी थी। वे अपने मित्र शरद पवार को भी आलू का बोरा कहा करते थे।
       पिछले राष्ट्रपति चुनाव के दौरान उन्होंने अपने बड़े गठबन्धन पार्टनर भाजपा के उम्मीदवार के खिलाफ कांग्रेस की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल का खुला समर्थन किया था जिसे उनकी मराठी राजनीति की मजबूरी बताया गया था किंतु इस चुनाव के दौरान भी उन्होंने कांग्रेसी उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का समर्थन करके यह बता दिया था कि वे भाजपा के पिछ्लग्गू नहीं हैं। महाराष्ट्र में जहाँ संघ का मुख्यालय है, भाजपा की बड़त को रोक कर उन्होंने देश को भाजपा की जकड़ में आने से बहुत हद तक रोके रखा है। उनकी विचारधारा और कार्य प्रणाली से बहुत से लोगों को असहमतियां रही हैं पर कभी विषस्य विष औषधिम की तरह उनके अंकुश के परिणाम सकारात्मक भी रहे हैं। अटल बिहारी की सरकार को तो उन्होंने इतना मजबूर कर रखा था कि अपने पिता के नाम पर भी डाक टिकिट जारी करवा लिया था। आज जहाँ जहाँ भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली राज्य सरकारें हैं वहाँ की मानव अधिकारों के दमन की खबरें रोंगटे खड़े कर देती हैं, तब ऐसा लगता है कि अगर कोई सार्थक विरोध पैदा नहीं हो पा रहा हो तो कम से कम कोई प्रतियोगी ही पैदा हो जाये जो इन निरंकुश सरकारों पर लगाम लगा सके। बाला साहब के सारे दबावों के बाद भी भाजपा कभी उनके खिलाफ मुँह खोलने की हिम्मत नहीं जुटा सकी, उनके निधन से भाजपा पर लगाम लगाये रखने वाला एक महत्वपूर्ण सवार नहीं रहा है। दुखद यह है कि उनकी विरासत जिन लोगों के हाथों में जाने वाली है उनकी रीड़ मजबूत नजर नहीं आती।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, नवंबर 02, 2012

त्योहारों को मनाने की परतंत्रताएं


समाज
त्योहारों को मनाने की परतंत्रताएं
वीरेन्द्र जैन
            त्योहार खुशियों से जुड़े होते हैं। कहा जाता हैं कि त्योहार आते हैं,खुशियां लाते हैं। भले ही त्योहारों का खुशियों से सीधा सम्बन्ध जोड़ा जाता है पर सदैव ऐसा होता नहीं है। हिन्दी के एक सर्वाधिक लोकप्रिय कवि गोपालदास नीरज ने कहा है- ''खुशी जिसने खोजी वो धन ले के लौटा''। त्योहारों  का सम्बन्ध धन से है तब ही वे खुशियां ला पाते हैं।
            खुशियों के लिए धन इसलिए जरूरी होता है क्योंकि खुशियां मनायी जाती हैं और खुशियां मनाने का काम अकेले नहीं हो सकता। अकेले बैठे बैठे अगर आप हँसते मुस्कराते हैं तो पागल समझे जा सकते हैं। ठहाकों के लिए मित्र रिशतेदार परिवार या कुछ अन्य लोगों का होना जरूरी है। खुशी का प्रतीक पटाखों वाला अनार बताया जाता है या फव्वारा- क्योंकि खुशियां फूटती हैं वैसे ही जैसे कि अनार फूटता है या फव्वारा अपनी नन्हीं नन्हीं बूंदें बिखेरता है। यह फूटना और बिखेरना इकतरफा नहीं होता अपितु बहुआयामी होता है- अपना पैगाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे - की तरह खुशियां फैल और बिखर जाना चाहती हैं। यह दान का उफान होता है जो खुशी की ऊष्मा से आता है। अगर हम खुश हैं तो मन कुछ बांटने को, कुछ लुटा देने को करेगा। उसके लिए जरूरी है आपके पास कुछ होना चाहिये। बड़ा आदमी मिठाई बांटता है तो छोटा आदमी इलाइचीदाने या गुड़ चने का प्रसाद चढा कर प्रसाद के नाम पर बांट देता है। यह फैलना और बिखरना कोई निवेश नहीं होता है कि और अधिक पाने की आशा में बीज बोया जा रहा हो। ईसाई धर्म में शायद इसीलिए कहा गया होगा कि एक ऊंट भी सुई के छेद से गुजर सकता है किंतु एक कंजूस आदमी को स्वर्ग में प्रवेश नहीं मिल सकता। कंजूस आदमी कभी खुश होता नहीं देखा जाता क्योंकि उसे लगता हे कि हँसे तो फॅसे। खुश होने के अवसरों पर भी वह विगत या सम्भावित दुखों की कल्पना से अपने को संतुलित कर खुश होने से बच लेता है।

            त्योहारों की तिथियां निर्धारित रहती आयी हैं क्योंकि वे हमारी उत्पादन व्यवस्था से जुड़े होते थे। उनकी परम्परा की स्थापना के समय कृषि ही मुख्य उत्पादन था जो मौसमों पर आधारित थी व मौसम का समय चक्र निर्धारित था। जब फसल आती थी तो त्योहार मनाये जाने की स्थितियां पैदा होती थीं। नये कपड़े गहने आदि को खरीदने की क्षमता तभी आती थी। यह वही समय होता था जब नित्य के एकरस भोजन से ऊबा मन स्वादिष्ट ऊर्जायुक्त खाद्य सामग्री खरीद सकता था, खा सकता था, खिला सकता था।

            जैसे जैसे उत्पादन के साधन बदले वैसे वैसे कृषि आदि परंपरागत साधनों पर हमारी निर्भरता कम होती गयी। जमीनों पर कारखाने लगे भवन बने व किसान श्रमिकों में बदलता गया। साल भर तपाने के बाद समुच्य में आने वाली खुशियों के पल छोटे छोटे होकर साल की बारह 'पहली' तारीखों में बंट गये। वेतन वालों को फसल पकने कटने और बिकने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।

            कृषि में भी सिंचाई के साधन आये, जल्दी व अधिक फसल देने वाले बीज आये, खाद और खरपतवार व कीटनाशक आये तथा ट्रैक्टर हार्वेंस्टर आदि आये जिनकी मदद से कम समय में अधिक फसलें मिलने लगीं। मंडियों की व्यवस्थाएं सुधरीं जिससे जल्दी ही नहीं, अपितु कभी कभी तो एडवांस भुगतान भी मिलने लगे और इस तरह धन प्रवाह के समय में परिवर्तन हुआ। खुशियों के आने की सामूहिकता भंग हुयी। फसलें महाजनों के दबाव से नहीं अपितु बाजार भाव देख कर अपनी अपनी सुविधाओं से बेची जाने लगीं।

            दूसरी ओर खुशियों की अभिव्यक्ति के प्रतीक तो वे त्योहार बना लिये गये थे जिन्हें पुराण कथाओं से निकाल कर लाया गया था जिस कारण उनकी तिथियां निश्चित थीं। इन तिथियों पर त्योहार मनाते मनाते वे एक आदत का हिस्सा हो गये थे। और आदतें आसानी से नहीं छूटतीं। गांव की अन्य सेवाओं से जुड़े लोग भी किसानों के धनप्रवाह की व्यवस्था पर ही निर्भर थे व उसी के अनुसार त्योहार मनाने के अभ्यस्त हो गये थे पर अब उनके पास भी धन का प्रवाह एक मुश्त होने की जगह क्रमश: होने लगा था। लोग कभी भी नये कपड़े बनवाने लगे थे व बरतन गहने खरीदने लगे थे। सेवा क्षेत्र से जुड़े ये लोग त्योहार तो तिथियों पर ही मनाते पर कर्ज लेकर मनाते और ब्याज देकर किश्तों में चुकाते। त्योहार जिन्दा तो रहे पर उनकी चमक कम हुयी क्योंकि ये आदतों और लोक लिहाज से मनाये जाने लगे। वहां त्योहार तो रह गये  पर खुशियां नहीं हैं केवल एक लकीर पीटना भर है।

            विकास के साथ एक नव धनाडय वर्ग उदित हुआ जिसके पास उसकी मूलभूत आवश्यकताओं से बहुत अधिक पैसा आ गया। उसे खर्च करने के लिये अवसर तलाशे गये, जिसकी पूर्ति में नये नये उत्सव या तो पैदा किये गये, आयात किये गये या भूले बिसरे उत्सवों में नयी जान फूंकी गयी। जन्मदिन मनाने की परम्परा जो बच्चों तक सीमित थी बूढों तक पहुंच गयी। विवाह की वर्षगांठ मनायी जाने लगी। विवाह के पच्चीस साल होने पर सिल्वर जुबली के रूप में पुर्नविवाह  जैसे आयोजन होने लगे। करवा चौथ में भव्यता जुड़ने के साथ साथ वैलन्टाइन डे, मदर्सडे, फादर्सडे, न्यू इयर्स डे आदि भी मनाये गये। पर ये सभी उस उच्चमध्यमवर्ग और उससे ऊपर ही रहे। ये नये त्योहार निम्न आयवर्ग  तक नहीं पहुंच सके।

            निम्नमध्यमवर्ग और निम्नवर्ग सबसे दुखी अवस्था में है जहां एक ओर से उसकी गरदन परंपरागत सामंती समाज की सोच दबोचे हुये है वहीं दूसरी ओर से पूंजीवाद ने दबोच रखी है। धर्मिक आतंक से डराता सामंती सोच उसे परंपरागत ढंग से त्योहार मनाने को विवश किये हुये है तो पूंजीवादी सोच ने उसे मनाये जाने के ढंग बदल कर उसकी पहुंच से दूर कर दिया है। पूंजीवादी व्यवस्था में त्योहार भी आदमी की  व्यक्तिगत खुशी का आयोजन है जिसे उसको अपनी जेब  देख कर ही मनाना चाहिये। त्योहार के लिए वेतन के बदले उसे एडवांस तो मिल सकता है पर भत्ता नहीं। जो एडवांस मिला है वह वेतन से कटेगा। अगर कोई व्यक्ति नहीं मनाता है तो समाज की उंगलियां उठती हैं और मनाने पर महाजन की।

            हम दो युगों के संक्रमणकाल में जी रहे हैं और हमारा चरित्र क्रान्तिकारी नहीं है। ऐसा बहुत कुछ है जिसे हम (मध्यमवर्गीय) सही समझते हैं किंतु उसे अपनाने का साहस नहीं है। हमारे हाथ नया आसमान छूना चाहते हैं पर हमने अपने ही पांवों में बेड़ियां डाल रखी हैं। हम इस पार से उस पार जाना चाहते हैं पर जा नहीं पाते। शरीर से यहां होते हुये भी मन से वहां हैं। त्योहार फिर आ रहे हैं और हम बिना कोई प्रश्न किये हुये उन्हें मनाने के लिए फिर जुट जायेंगे । नई नई विदेशी कम्पनियों द्वारा उत्पादित सामग्री के विज्ञापन हमें बतायेंगे कि हम अपना त्योहार कैसे मनायें। देश के नामी गिरामी सितारे माडल बन कर हमारी प्रथाओं में महीन परिवर्तन करते चले जायेंगे  जिसे हम स्वीकार करते चले जायेंगें। ये परिवर्तन इतने अधिक हो रहे हैं कि हमारे त्योहारों के स्वरूप ही बदल गये पर हमें कोई शिकायत नहीं हुयी। हमारी दीवाली में गोबर चूने की जगह डिस्टेम्पर आ गये, दीपों की जगह विद्युत झालरों ने ले ली और हम मेहमानों का स्वागत गुझिया पपड़िया की जगह कोका कोला से करने लगे। उत्तर भारत में चौराहों पर बड़े बड़े पंडाल लगाकर दानवाकार मूर्तियों की स्थापना कर इस्लामिक संस्कृति की तरह सामूहिक पूजा प्रार्थना ने कब प्रवेश कर अपनी पक्की जगह बना ली हमें पता ही नहीं चला। आज क्या मजाल हैं कि मुहल्ला स्तरीय नेतृत्व विकसित करने के अभियान में चंदाखोर बाहुबलियों के आगे कोई ये कह सके कि इसका हमारी परंपरा से कुछ भी लेना देना नहीं है क्योंकि हमारी पूजा अर्चना विधिवत स्थापित देवालयों में व्यक्तिगत ही होती रही है। यह सोची समझी नीति है जो आज गरवा के आयोजनों का काम बड़ी बड़ी कम्पनियां करवा रही हैं।

            पता नही हम अपनी संस्कृति स्वयं निर्मित करने और उस पर अमल करने लायक स्वतंत्रता कब पा सकेंगे।

वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, अक्तूबर 27, 2012

गडकरी के कारनामों की ज़िम्मेवारी संघ पर भी आती है


                 गडकरी के कारनामों की ज़िम्मेवारी संघ पर भी आती है
                                                                                                                         वीरेन्द्र जैन
      जब कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह गत एक वर्ष से लगातार यह सवाल पूछ रहे थे कि गडकरीजी के पास इतना पैसा कहाँ से आया तो दुर्भाग्य से न तो मीडिया और न ही प्रशासन इसे गम्भीरता से ले रहा था। उनके इस बयान को केवल एक राजनीतिक बयान मान कर हाशिए पर कर दिया गया था, जबकि सच्ची बात तो यह है दिग्विजय सिंह के पिछले सारे बयान तथ्यात्मक और गम्भीर प्रकृति के रहे हैं, जो बाद में सच साबित हुए हैं। संघ परिवार तो उनके बयानों से इतना भयग्रस्त रहता है कि उसने तो कभी भी उन पर गम्भीर प्रतिक्रिया नहीं की, अपितु छिछले तरीके से उन्हें हास्यास्पद बता गाली गलौज कर उनसे बचने की कोशिश की। सोशल मीडिया के प्रमाण बताते हैं कि संघ परिवार ने ऐसे लोगों की एक बड़ी टीम बना रखी है जो सैकड़ों छद्म नामों से उन सभी महत्वपूर्ण लेखकों, पत्रकारों, व राजनेताओं को गाली गलौज करके हतोत्साहित करने, और उनकी छवि खराब करने की कोशिश करते रहते हैं, जो संघ परिवार के कार्यों की समीक्षा करते हैं। आज जब सच्चाइयां सामने आ रही हैं तब ये भी जरूरी है कि सोशल मीडिया में ऐसे छद्मनाम धारी खाते खोलने वालों की न केवल तलाश की जाये अपितु उनके इस अपराध के उद्देश्य के बारे में गहन पूछ्ताछ की जाये ताकि समाज में साम्प्रदायिकता के बीज बोकर देश की दिशा को गलत रास्ते पर ले जाने के षड़यंत्र का पर्दाफाश हो सके। उल्लेखनीय है कि अपने सारे साम्प्रदायिक हिंसक कारनामों, उनके खुलासों, अदालत की टिप्पणियों, आयोगों की रिपोर्टों के बाद भी नरेन्द्र मोदी गुजरात में लोकप्रियता इसलिए बनाये हुए हैं क्योंकि अपने झूठ के सहारे संघ परिवार ने समाज के एक हिस्से में साम्प्रदायिकता की जड़ें गहरी कर दी हैं, और यह काम एक दिन में नहीं हुआ है। प्रतिक्रिया में मुस्लिम और ईसाई धर्म को मानने वाले लोगों ने भी अपने अपने राजनीतिक दल बनाने शुरू कर दिये हैं जिनका असर केरल और असम में प्रत्यक्ष दिखने लगा है। इसलिए जरूरी है कि साम्प्रदायिकता से मुकाबले का काम भी उसी निरंतरता और सक्रियता से किया जाये जितनी निरंतरता और सक्रियता से साम्प्रदायिक बीज बोये जा रहे हैं। खेद की बात है कि सत्तारूढ यूपीए में सम्मलित दलों में दिग्विजय जैसे दूरदर्शी लोग अल्पसंख्यक हो गये हैं।
     
      इस बात का अब शायद ही किसी को सन्देह हो कि भाजपा संघ का ही एक सहायक संगठन है और उसकी सारी प्रमुख नीतियां व सांगठनिक निर्णय संघ द्वारा ही लिए जाते हैं जिन्हें लागू करना भाजपा के लिए जरूरी होता है। भाजपा अध्यक्ष के रूप में गडकरी के चयन के प्रति जब भाजपा के अन्दर कोई कल्पना तक नहीं कर रहा था तब संघ द्वारा उन्हें अध्यक्ष के रूप में लाद दिया गया था। उनके इस चयन के प्रति न केवल पूरा मीडिया अपितु स्वयं भाजपा के बड़े बड़े नेताओं के मुँह खुले रह गये थे। स्मरणीय है कि उन दिनों जब संघ प्रमुख से भाजपा के अगले अध्यक्ष के बारे में पूछा गया था तब उन्होंने कहा था कि दिल्ली के गेंग डी फोर, अर्थात वैंक्य्या नायडू, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, और अनंत कुमार में से कोई नहीं। बाद में हुआ भी ऐसा ही और एक फासिस्ट संगठन ने पूरी भाजपा पर गडकरी को थोप दिया था। इतना ही नहीं गडकरी को दूसरा कार्यकाल देने के लिए संविधान में संशोधन भी उन्हीं के निर्देश पर किया गया जिसका मूल लक्ष्य गडकरी को दुबारा अध्यक्ष पद पर पदारूढ करना रहा था।

      संघ की कार्यप्रणाली को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि वे श्री गडकरी के कार्यकलापों से अनभिज्ञ रहे होंगे या बाद में दिग्विजय सिंह जैसे संघ विरोधी नेताओं द्वारा सवाल उठाये जाने पर जिज्ञासाएं न पैदा हुयी हों, किंतु उन्होंने सब कुछ जानते हुए भी न केवल गडकरी को भाजपा पर थोपा अपितु दूसरे कार्यकाल के लिए भी रास्ता बनवाया। सच तो यह है कि गडकरी का कार्यकाल किसी भी पूर्व अध्यक्ष से अधिक अच्छा नहीं रहा था जिन्हें ऐसी विशेष सुविधा मिली हो। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में पहले से अच्छा परिणाम देने के बाद भी जब कान्ग्रेस के अपेक्षाओं के अनुरूप परिणाम नहीं आये तो उस जिम्मेवारी का अहसास राहुल गाँधी समेत कांग्रेस के जिम्मेवार नेताओं पर देखा जा सकता था, किंतु वोटों और सीटों के मामले में पहले से पिछड़ने के बाद भी भाजपा के लोगों के समक्ष गडकरी के चेहरे पर कोई शर्म नहीं थी क्योंकि उनका भविष्य पार्टी नहीं अपितु संघ द्वारा तय किया जाना था और जब तक संघ उन्हें चाहता तब तक वे किसी की परवाह नहीं करना चाह्ते। उनके कार्यकाल में हुए विधानसभा चुनावों में गोआ जैसे छोटे राज्य को छोड़ कर कहीं भी सफलता नहीं मिली। अपनी अध्यक्षता के बाद पहली रैली के दौरान ही वे चक्कर खाकर बेहोश हो गये थे जिन्हें संयोग से वयोवृद्ध अडवाणीजी के कन्धों का सहारा मिल गया अन्यथा कोई बड़ी घटना भी सम्भावित थी। इसी दौरान उन्होंने अपने शरीर की चर्बी कम कराने के लिए शल्य चिकित्सा करायी। जब पूरा देश गम्भीर राजनीतिक गतिविधियों से उद्वेलित था तब मुख्य विपक्षी दल के अध्यक्ष गडकरीजी अपने परिवार के साथ विदेश भ्रमण के लिए चले गये। राज्य सभा के चुनावों में उन्होंने जिस तरह से अपने धनी मित्रों को टिकिट दिये उससे पार्टी में ही विद्रोह की स्थिति खड़ी हो गयी और झारखण्ड में अपने सबसे मुखर नेता श्री आहलूवालिया को नहीं जिता सके। अध्य्क्ष बनने के बाद उन्होंने जिस तरह से पार्टी को ठुकराने वाले नेताओं पर कृपादृष्टि करने का अहसान प्रदर्शित करना चाहा था उसके उत्तर में उन्हें कभी पार्टी के थिंकटैंक कहे जाने वाले गोबिन्दाचार्य से जो अपशब्द सुन कर मौन रह जाना पड़ा था वैसा व्यवहार उन जैसा  स्वाभिमानहीन व्यक्ति ही कर सकता है। उनकी कार में मृत पायी गयी लड़की की घटना हो या उनके बेटों की शादी में दौलत के शर्मनाक प्रदर्शन का मामला हो, शरद पवार और उनके भतीजे अजीत पवार से उनके व्यापारिक सम्बन्धों का मामला हो, संघ ने कभी भी कोई आपत्ति प्रकट नहीं की। कहा जाता है कि नरेन्द्र मोदी के साथ अपनी पिछली बैठक में संघ ने उन्हें गडकरी के एक और कार्यकाल के लिए मनाने की कोशिश की थी और शायद उसमें सफल भी हो गये थे।
      स्मरणीय है कि अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में पैट्रोल पम्प और गैस एजेंसियों के आवंटन में संघ के लोगों के हित में जो पक्षपात किया गया था और अटलबिहारी वाजपेयी ने जिस पर अपना त्यागपत्र देने की पेशकश तक कर दी थी, उससे संघ की शुचिता पर सन्देह के दाग लग चुके हैं। गडकरी के कारनामों के खुलासों और संघ द्वारा उन्हें अध्यक्ष बनाने व बनाये रखने की कोशिशों से ये सन्देह फिर से उभर आये हैं। ऐसे आचरणों की निरंतरता से आश्चर्य नहीं कि भविष्य में जब भ्रष्ट जननायकों की सूची और फोटो प्रकाशित हों तो उनमें संघ के पदाधिकारिय़ों के नाम भी सम्मलित दिखाई दें। गडकरी के खिलाफ साबित होने वाले किसी भी आरोप से संघ को मुक्त नहीं माना जा सकता।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629

          

शनिवार, अक्तूबर 20, 2012

सड़क पर धर्म


सड़क पर धर्म
वीरेन्द्र जैन

     एक समय था जब लोग धर्म के लिए धार्मिक स्थलों और धर्म के पालकों व प्रचारकों  के पास स्वयं जाते थे, किंतु प्रत्येक धर्म में उसके जन्म के एक निश्चित समय के बाद पाखंड और जड़ता घर करती जाती है तथा धर्म के बारे में बिना प्रश्न किये विश्वास करने की परंपरा के कारण कुछ निहित स्वार्थ अपना उल्लू सीधा करने लगते हैं। यही कारण होता है कि निश्चित समय खण्ड (युग) के बाद एक प्रवर्तक नया धर्म प्रारम्भ करता है। दो धर्मों के संधि काल में धर्म प्रचारकों के हित में लगी हुयी ताकतों के भय से व्यक्ति अपनी शंकायें और असहमतियां तो प्रकट नहीं कर पाता किंतु वह उस युग के तथाकथित धार्मिक स्थलों और व्यक्तियों से बचने लगता है।

इस दौर में अपने कमजोर होते अस्तित्व को बचाने के लिए अब धर्म स्वयं ही सड़क पर उतर आने को मजबूर हो गया है व तथा कथित धर्म प्रचारक अपने आश्रमों को छोड़ छोड़ कर नगर नगर घूमते फिरने लगे हैं। उनका यह कहना कि वे अपने शिष्यों के विशेष आग्रह पर पधारे हैं लगभग ऐसा ही होता है जैसे कोई सिनेमा हाल वाला लाउडस्पीकर से प्रचारित करवाता है कि जनता की जबरदस्त मांग पर फलां फलां फिल्म लग गई है। यह किसी को भी नहीं पता कि जनता ने कब किससे कहाँ पर यह जबरदस्त मांग की हुयी होती है।

     आज धर्म का मंदिरों मस्जिदों आश्रमों में दम घुटने लगा है इसलिए वह खुली हवा में सड़क पर पसरने लगा है जहाँ रास्ते से गुजरने वालों को अपने भक्तों में शामिल  दिखा कर वह चैन की साँस ले पाता है। सड़कों पर आने के कारण रास्ते संकरे हो जाते हैं व संकरे रास्तों पर फंसने के लिए विवश लोगों को कुछ क्षणों के लिए वहाँ रूकना ही पड़ता है। यह लगभग ऐसा ही है जैसे त्योहारों के अवसरों पर दुकानदार अपनी दुकान से बाहर निकल कर सड़क पर पसर जाते हैं ताकि ग्राहक आगे न बढ सके। यद्यपि इससे लोग असुविधा महसूस करते हैं किंतु धर्म के व्यवसायियों के झूठ से जुट जाने वाली विवेकहीनों की हिंसक भीड़ से भयभीत लोग अपनी असुविधाओं को चुपचाप झेल जाते हैं।

हमारी बहुचर्चित सहिष्णुता के सच्चे दर्शन यहीं होते हैं।

     सड़कों पर गणेश प्रतिमाओं के पंडाल लगाकर स्वतंत्रता आन्दोलन में जातिपांत विहीन जन समर्थन जुटाने के प्रयास का सफल प्रयोग लोकमान्य तिलक ने किया था जिसे उद्देश्य की महत्ता के कारण हम अब तक प्रशंसा के भाव से याद करते हैं। किंतु एक सुनिश्चित राजनीतिक लक्ष्य के लिए प्रारंभ किया गया यह अभियान आज परंपरा बन गया है व धार्मिक अनुष्ठान समझा व बताया जा रहा है। सांप्रदायिक और जातिवादी राजनीति भी इसका गलत उपयोग करने लगी है तथा अपने अपने राजनीतिक लाभ के लिए इन पंडालों के बीच आपस में व्यापारिक प्रतियोगिताएं भी होने लगी हैं। वे एक दूसरे से बड़ी मूर्ति लाकर व अधिक सुशोभित जगमगाहट भरा पंडाल सजाकर व्यावसायिक द्वेष से काम करने लगे हैं। इनके इस तमाशे के लिए स्वाभाविक रूप से धन नहीं जुटता इसलिए इसे जुटाने के लिए क्षेत्र के बाहुवलियों या छुटभइये राजनेताओं की सेवाएं जुटायी जाती हैं। ये लोग सार्वजनिक धन का दुरूपयोग करने के अभ्यस्त लोग होते हैं इसलिए दबाव बनाकर खर्च से बहुत अधिक धन जुटाया जाता है व इस शेष धन का उपयोग अधार्मिक कार्यों में ही किया जाता है। इस दौरान स्थायी धर्मस्थलों में जाने वाले लोग वहां नहीं जा पाते व उन धर्मस्थलों में चढायी जाने वाली दान की राशि में गतिरोध आ जाता है।

     सड़क पर उतर आये इस धर्म में भक्त नहीं, भीड़ जुटायी जाती है जिसके लिए तरह तरह की आकर्षक झाकियाँ सजायी जाती हैं जिनके प्रति बच्चे उत्सुक होते हैं व उन बच्चों के कारण उनके मातापिता को भी आना पड़ता है। यह सारा कृत्य धार्मिक आस्था का प्रमाण नहीं है अपितु ताकतवरों द्वारा धर्मभीरूओं को बरगलाने या ब्लैकमेल करने का ढंग है। वे भीड़ को बढाने के लिए प्रसाद भी वितरित करते हैं तथा भंडारा भी करते हैं। भीड़ से भीड़ बढने के सिद्धांत के अनुसार अधिकतर पंडालों में सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर प्रचलित सुगम संगीत फूहड़ मनोरंजन से लेकर हाउजी नामक जुआ भी चलाया जाता है। दान की रसीदों की लाटरी निकाली जाती है व दानदाताओं के नाम बार बार पुकार कर दूसरों को प्रोत्साहित करने का खेल चलता है।

     आज से दो दशक पूर्व तक नवरात्रि के अवसर पर केवल बंगालियों के मुहल्ले में ही दुर्गा झांकी सजायी जाती थी किंतु गणेश पंडालों से जनित आय से उत्साहित लोग इस में भी उसी लक्ष्य व उत्साह से कूद पड़े और व्यवसाय के सारे नियम कायदे इस पर लागू कर दिये। अब जहां जितना बड़ा बाजार होता है वहाँ की झांकी भी उतनी ही बड़ी होती है। यह इस बात का प्रमाण है कि इन झांकियों की भव्यता का अनुपात भक्ति से नहीं अपितु बाजार से सही बैठता है। बच्चों के खिलौने गृहस्थी के सामान चाटपकौड़ी और झूले आदि में लपेट कर तथाकथित धर्म भी निगल लिया जाता है। इन दिनों त्योहारों का अर्थ बाजार से खरीददारी हो गया है। इन आयोजनों में भजन संगीत के टेप चलाये जाते हैं जिससे कभी धर्म से जुड़ी गायन और संगीत की शिक्षा का अभ्यास नहीं हो पाता। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए भी बाहर से संगीत पार्टियां बुला ली जाती हैं और स्थानीय कलाकारों को अपनी प्रतिभा प्रदर्शन के अवसर ही नहीं मिल पाते। 

      कभी देवी देवताओं के स्थल ऊंची कठिन पहाड़ियों पर बनाये जाते थे तथा वहां पहुंचने का कष्टसाध्य श्रम ही व्यक्ति की भावनात्मक गहराई को प्रकट करता था। आज वे स्थल वीरान पड़े रहते हैं तथा व्यकित की दान देने की क्षमता को सड़क पर उतर आये तमाशों द्वारा बटोर लिए जाने के कारण वे आर्थिक तंगी झेलते हुये मरम्मत के अभाव में नष्ट हो रहे हैं। बाजार से जुड़ा सड़क वाला नया धर्म  पुराने धर्म को निगलता जा रहा है। लगभग ऐसा ही हाल प्रवचनकारी संतों का है जिनके प्रवचनों के आयोजनों हेतु करोड़ों का बजट बनता है पर उनके प्रवचनों का समाज पर कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। ये प्रवचनकारी स्वयं तो किसी फिल्म स्टार वाली पारिश्रमिक राशि लेते ही लेते हैं  तथा अपने साथ पूरा बाजार भी साथ लिए फिरते हैं। उनकी पब्लिीसिटी का खर्च भी कई कई लाख का होता है।

     सच तो यह है कि यह 'मेटामारफोसिस' एक मरते हुये उद्योगपति के मेकअप की तरह है जिसके शेयरों के रेट बनाये रखने के लिए उसे स्वस्थ और जीवित बताया जा रहा हो। बढते वैज्ञानिक युग में वैश्वीकरण के दौर में डूबते धर्म की रक्षा के प्रयास और और तेज होंगे जो आक्रामक भी हो सकते हैं क्योंकि कहा गया है कि ' सम टाइम्स अटैक इज दि बैस्ट वे आफ डिफैंस'। सच तो यह है कि आज धर्म के उदात्त, करुणामयी, और सबजन हिताय पक्ष को पुनर्जीवित करने, और इन मज़मेबाजों के चंगुल से मुक्त कराने की जरूरत है।
वीरेन्द्र जैन
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