बुधवार, सितंबर 23, 2020

बदलते कानून और सामाजिक जिम्मेवारी से मुक्त व्यापारी व उद्योगपति

 


बदलते कानून और सामाजिक जिम्मेवारी से मुक्त व्यापारी व उद्योगपति 

वीरेन्द्र जैन

सरकारें कानून बनाती हैं और हर तरह के नियमों व कानूनों को जनता के हित में उठाये गये कदम बताती हैं। सच तो यह है कि यह सरकारों के चरित्र और उनकी क्षमता पर निर्भर करता है कि ऐसे बदलते कानून वास्तव में जनता के हित में होते हैं या नहीं, और अगर होते भी हैं तो क्या सरकार में उनके अक्षरशः पालन कराने की क्षमता भी है या नहीं। सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, न्यायिक फैसलों को पालन कराने वाली मशीनरी का चरित्र और क्षमता आदि पर निर्भर करता है कि कानूनों का अंतिम परिणाम क्या निकलता है।

हर सरकार प्रति वर्ष करोड़ों रुपये यह बताने के विज्ञापनों में फूंकती है कि उसने जनता के हित में क्या क्या किया है। मुझे सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण का एक कार्टून याद आता है जिसमें किसी चुनावी सभा में कोई मंत्री किसी गांव में सभा करते हुए लम्बे लम्बे हाथ फटकार कर बता रहे हैं कि उन्होंने जनता और गरीबों के लिए क्या किया है, वहीं दूसरी ओर कुछ फटेहाल श्रोता बैठे हुये हैं और एक व्यक्ति दूसरे से कह रहा है कि हमारे लिए इतना कुछ हो गया और हमें पता ही नहीं चला। सुप्रसिद्ध कवि आनन्द मिश्र एक कविता सुनाते थे-

बादल इतना बरस रहे हैं

पौधे फिर भी तरस रहे हैं

यही चमन को अचरज भारी

पानी कहाँ चला जाता है

सचमुच में हाल यही है। इन सारे विज्ञापनों के बीच उसी अखबार में खबर छपी होती है कि किसी अधिकारी, किसी इंजीनियर, किसी इंस्पेक्टर या बाबू के यहाँ छापे में करोड़ों की सम्पत्ति बरामद हुयी है। ये छापे उन हजारों इसी तरह के लोगों में से किसी एक के यहाँ पड़ते हैं और सूचनाएं बताती हैं कि इस तरह के पदों पर नियुक्त नब्बे प्रतिशत से अधिक लोग इसी तरह से काम करते हैं और पैसा बनाते हैं, आलीशान मकान बनवाते हैं, सोने चाँदी के गहने खरीदते हैं और बेनामी सम्पत्तियां खड़ी करते हैं, जो सबको दिखती है। ये सारी कमाई उसी कथित विज्ञापित विकास में से निकाली गयी होती है जो केवल विज्ञापन देने के काम आता है, जबकि सच्चाई कुछ और होती है। पदों पर बैठे लोगों की अनुपात से बहुत अधिक सम्पत्ति, विकास के विज्ञापनों का खोखलापन बताती है। यह बताती है कि वैसा कुछ नहीं हुआ है, जैसा बताया जा रहा है।

पूंजीवादी व्यवस्था में किसी व्यापारी, किसी उद्योगपति की कोई सामाजिक भूमिका नहीं होती। उसका काम केवल अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होता है। जब मुनाफा कम होने लगता है तो वह उस व्यापार से हाथ खींच लेता है और उद्योगों में तालाबन्दी कर देता है। बड़े बड़े कार्पोरेट घराने, जो अपने ग्रुप के दूसरे कारखानों से अनाप शनाप मुनाफा कमा रहे होते हैं, भी घाटे के कारखानों को बन्द करने, मजदूरों को बिना उचित मुआवजे के निकाल देने और बैंकों के कर्जे पचाने में गुरेज नहीं करते। किसी भी नियम या कानून में प्राइवेट कम्पनी या व्यापारी की बढती भूमिका को देख कर ही यह समझ लेना चाहिए कि इसका लाभ व्यापारी को ही मिलेगा। इसलिए अगर व्यापारी और उनकी राकनीतिक पार्टियां अगर किसी कानून के समर्थन में हैं तो लाभ मजदूर किसान को नहीं होगा। दूसरी बात यह है कि किसी भी व्यापार, व्यवसाय में लाभ की एक सीमा होती है। अगर किसी प्रोजेक्ट में उसके किसी एक घटक को लाभ का बड़ा भाग मिलना सुनिश्चित हो  रहा है, और उसकी भागीदारी उसकी मर्जी पर हो तो दूसरे घटकों को नुकसान होना तय है। इसके विपरीत यदि व्यापारी की जगह सरकार भागीदार है तो उसकी कुछ सामाजिक जिम्मेवारी होती है। वह नुकसान उठा कर भी मेहनतकश को बेसहारा नहीं छोड़ सकती व उनकी न्यूनतम जरूरतों को पूरा करती है। सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन भी देती है। यही कारण है कि लोग कम वेतन पर भी सरकारी नौकरी करना पसन्द करते हैं।

जो लोग प्राइवेट संस्थानों में हुये लाभों की तुलना वैसे ही सरकारी संस्थानों से कर के प्राइवेट संस्थानों की पक्षधरता करते हैं, वे ऐसा करते समय यह भूल जाते हैं कि सरकारी संस्थान इसी दौर में  सामाजिक उत्थान और कमजोर वर्ग के सशक्तीकरण की जिम्मेवारियां भी पूरी कर रहे होते हैं। क्या प्राइवेट संस्थान दलितों, पिछड़ों को सामाजिक बराबरी के स्तर पर लाने के लिए आरक्षण देकर प्रोत्साहित कर रहे होते हैं? क्या प्राइवेट संस्थान महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देते हुए उनको मातृत्व लाभ से जुड़ी वैसी ही सुविधाएं और छुट्टियां आदि देती है? क्या उन्हें उचित समय पर प्रमोशन और वेतन वृद्धियां आदि देती है? क्या स्वास्थ सुविधाएं देती है? क्या छुट्टियों में परिवार सहित घूमने जाने आदि की सुविधाएं देकर उनके स्वास्थ की चिंता करती है? क्या अपना मकान बनाने के लिए ऋण या रहने के लिए सरकारी मकान देती है? क्या सेवानिवृत्ति पर पेंशन देती है? अगर सरकारी संस्थानों की प्राइवेट संस्थानों से तुलना करनी है तो इन सब मानवीय सुविधाओं का कुछ मौद्रिक मूल्य तय करें और फिर मूल्यांकन करके देखें।

तरह तरह के दावों के बीच कृषि सम्बन्धी नये कानूनों में प्राइवेट व्यापारियों की भूमिका और उनकी हित में अनेक कदम उठाने वाली सरकार की आतुरता को देखते हुए भी मूल्यांकन करना होगा। इसके लिए अध्यादेश लाने की जरूरत नहीं थी। इसे पास कराने के लिए लोकतंत्र की सारी मर्यादाओं को ताक पर धरना जरूरी नहीं था। सरकार आश्वासन दे रही है, किंतु उसे कानून का हिस्सा नहीं बना रही। सत्तारूढ नेताओं ने इससे पहले भी अनेक आश्वासन दिये थे जिनकी उसने उपेक्षा की है। यही कारण है कि जनता का भरोसा उस पर से उठ चुका है। किसान अन्दोलित है, मजदूर परेशान है। कोरोना बढ रहा है, चीन और पाकिस्तान दोनों ओर से सीमा पर मामला संवेदनशील होता जा रहा है। राम जन्मभूमि मन्दिर, तीन तलाक, धारा तीन सौ सत्तर से अब लोगों को बरगलाया नहीं जा सकता।

 

वीरेन्द्र जैन

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शुक्रवार, सितंबर 18, 2020

सुशांत सिंह का दांव कहीं भाजपा को उल्टा तो नहीं पड़ेगा?

सुशांत सिंह का दांव कहीं भाजपा को उल्टा तो नहीं पड़ेगा?

वीरेन्द्र जैन


आज की राजनीति इतनी अमानवीय है कि अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षाओं के लिए किसी को भी बलिवेदी पर चढा सकती है। इस दौर का गिरोह झूठ को सच और सच को झूठ बनाने व उसे प्रचारित करने के लिए पूरा तंत्र सुसज्जित कर के पहले भक्तों को और फिर देश को भटका रहा है। मीडिया पर इतना नियंत्रण है कि समाचार भले ही लिख लिया जाये किंतु वह जनता की पहुंच के स्तर तक छप नहीं सकता, प्रसारित नहीं हो सकता।

गोवा में भाजपा ने गठबन्धन सरकार बनायी थी जिसके कुछ घटकों ने साफ साफ कह दिया था कि वे भाजपा का नहीं अच्छी छवि वाले मनोहर पारीकर को समर्थन दे रहे हैं, और इस सरकार को यह समर्थन पारीकर के मुख्यमंत्री बने रहने तक ही सीमित है। दुर्भाग्यवश पारीकर अस्वस्थ हुये व जांच में एडवांस स्टेज के कैंसर से पीड़ित पाये गये। उन्हें अंतिम दिनों में आराम की सख्त जरूरत थी वहीं दूसरी ओर मोदी-भाजपा को सरकार बचाने के लिए उस पद पर पारीकर की जरूरत थी। उनसे इसी हालत में काम लिया गया और बजट भी पेश कराया गया ताकि सरकार बची रहे। ऐसी ही अवस्था में उनका निधन हुआ। अरुण जैटली हों, सुषमा स्वराज हों, अनंत कुमार हों, अनिल माधव दवे आदि की जरूरत प्रशासनिक निर्विकल्पता नहीं, अपितु राजनीतिक अधिक रही। एक बहुत बड़ी संख्या में सदन की सदस्यता के प्रत्याशी केवल संख्या बल के लिए सामने लाये जाते हैं और उनकी छवि के सहारे बहुमत बना कर मनमानी का अधिकार प्राप्त कर लिया जाता है। दल बदल से लेकर विधायकों के सौदे तक में उनकी पितृ संस्था के पाखंडी आदर्शवाद को कोई आपत्ति नहीं होती। उदाहरण इतने अधिक और जगजाहिर हैं कि उनका अलग से उल्लेख करने की कोई जरूरत नहीं।

इसी क्रम में इन्होंने आगमी बिहार विधानसभा के चुनावों को देखते हुए बालीवुड कलाकार सुशांत सिंह की दुखद मृत्यु पर दांव खेला और इसके लिए अपने सारे संसाधन झौंक दिये। इनका प्रयास आईपीएस भट्ट की तरह कुछ लोगों को जेल में डालने और कुछ आई ए एस को मुख्यधारा से हटा कर, गुजरात में नरसंहार के बाद भी असत्य आधारित भावनात्मक प्रचार से चुनावी लाभ उठाने जैसी योजना का हिस्सा लगता है। अब सीबीआई की जाँच के बाद सामने आये संकेतों से पुष्ट हो चुका है कि सुशांत सिंह ने आत्महत्या ही की है। सीबीआई के संकेतों के बाद उसके पिता ने भी स्वीकार कर लिया था किंतु बाद में उसका बयान बदलवा दिया गया। जिस शिवसेना को काँग्रेस समझ कर इन्होंने राजनीतिक षड़यंत्र  शुरू करवाया, वैसा ही आक्रामक जबाब अगर शिव सेना ने दिया तो भाजपा को भागते राह नहीं मिलेगी। उसके पालतू मीडिया ने आगे बढ बढ कर दो महीने तक इतने अतिरेक में काम किया कि इस विषय पर स्टोरी करने की प्रतियोगिता शुरू हो गयी। इसमें सुशांत सिंह की जिन्दगी का वह निजी पक्ष भी सामने आ गया जिसके ढके रहने पर उसकी एक मनमोहक कलाकार की स्वच्छ छवि बची रह सकती थी। इसी क्रम में यह भी सामने आ गया कि वह अपने घर से दूर होने के प्रयास में ही इंजीनियरिंग की शिक्षा को छोड़ कर बालीवुड भाग आया था, और कि वह अपने पिता को पसन्द नहीं करता था। उसे अपनी बहिनों और उनके पतियों पर भी भरोसा नहीं था, इसलिए वह अपने आसपास रहने वाली लड़कियों में ही दिली सुकून  तलाशता था, उनसे ही अपने दिल की बातें साझा करता था। अपने घर से लेकर व्यवसाय तक में वह प्रोफेशनल प्रबन्धकों पर ही निर्भर था। इसी क्रम में उसे सफलताएं भी मिलती रहीं और कम उम्र में ही उसने अपनी कल्पना से अधिक पैसा व यश कमा लिया। इसके सहारे वह बालीवुड की वर्जना मुक्त जिन्दगी का पर्याप्त आनन्द भी उठाने लगा। यही वह समय था जब वह चरस और मारजुआना आदि के नकली आनन्द का शिकार हो गया। आचार्य रजनीश जब अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे उसी समय दुनिया में हिप्पीवाद फैला था और यौनानन्द की सीमा से अधिक आनन्द की तलाश करने वाला समाज  मेडीटेशन की कठिन राह पर आकर्षित हुआ था। इस साधना की कठिनाई का सरल हल उन्हें उस समय के इसी तरह के नशे एलएसडी में मिलने लगा था। तब रजनीश जी ने अपना एक प्रवचन इसी विषय  पर दिया था जो बाद में “एलएसडी, ए फाल्स वे आफ मेडीटेशन” के रूप में प्रिंट मीडिया में सामने आया था। इसमें वे मानते हैं कि इस तरह के नशे भी ध्यान में मिलने वाले आनन्द के जैसा भ्रम देते हैं और यह शार्टकट आदमी को भटका देता है।

बिहार के आगामी चुनावों की राजनीति ने इस राजनीतिक हथकण्डे में उसकी मृत्यु के काफी समय के बाद सुशांत के पिता और उसकी बहिनों को इस आत्महत्या को हत्या बताने के लिये उकसाया। कहानी बनाने के लिए उसमें रिया चक्रवर्ती उसके परिवार को मुख्य साजिशकर्ता ठहराया व राजनीतिक रंग देने के लिए दिशा सालियान की आत्महत्या के समय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बेटे की काल्पनिक  उपस्थिति व मुम्बई पुलिस द्वारा जाँच में लापरवाही बरतने के आरोप लगा कर गठबन्धन सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की। ऐसा इसलिए किया ताकि बिहार में रिपोर्ट दर्ज करायी जा सके और रिया चक्रवर्ती को बिहार पुलिस के दबाव में मनमाना बयान दिलवाया जा सके। और इसी बहाने पिंजरे के तोते के आरोपों वाली सीबीआई को शामिल किया जा सके। फिल्मी दुनिया जैसे व्यव्साय में टैक्सों से बचने के लिए दो नम्बर की समानांतर व्यवस्था चलती है जिसका एक जाल जैसा बन जाता है। एक का काला धन दूसरे के पास भी काले धन के रूप में ही पहुंचता है। जब भी इस क्षेत्र में विस्तार से जाँच होगी तो कहीं न कहीं कुछ न कुछ निकल ही आयेगा जबकि इस जाल से जुड़े सभी लोग उसके लिए जिम्मेवार नहीं होते। रोचक यह है कि फिल्मी दुनिया को नशे की दुनिया बताने वाले व इसका विरोध करने वाले काले धन के विषय को नहीं छेड़ रहे। ईडी की जांच रिपोर्ट के बारे में भाजपा के प्रवक्ता समेत सब गुपचुप हैं।   

भाजपा की यह कोशिश थी कि सुशांत को बिहार के सपूत के साथ मुम्बई की गैर भाजपा सरकार द्वारा हुयी ज्यादती की तरह चुनाव में प्रस्तुत किया जाये। उन्होंने फिल्म उद्योग में चल रहे नेपोटिज्म के आरोप के बहाने मुस्लिम कलाकारों और गैर मुस्लिम कलाकारों के बीच तनाव का खेल भी खेलना चाहा, ताकि इसके सहारे चुनावों में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा मिल जाये। किंतु उनकी सभी चालें बिफल हो गयीं। फिल्म उद्योग हमेशा से साम्प्रदायिकता मुक्त है। अपने निकट के किसी भी व्यक्ति को एक मौका अवश्य मिल जाता है किंतु वह अपनी प्रतिभा से ही आगे बढ पाता है। ना तो अमिताभ बच्चन अपने पुत्र को प्रमोट करने में सफल हो सके और ना ही हेमा मालिनी अपनी बेटियों को। सलीम खान के दूसरे बेटे भी सलमान नहीं बन सके ना ही नितिन मुकेश मुकेश की जगह ले सके। मौका सबको दिया गया। भाजपा के सरकारी लाभांवित कलाकार भी इस मुहिम को आगे नहीं बढा सके। केवल अयोग्यता से असफल हुए व्यक्ति ही अपनी कुंठाएं इस तरह से व्यक्त करते रहे हैं।

मीडिया खबरों के अनुसार तीन तीन केन्द्रीय एजेंसियां अपनी गहन जाँच के आधार पर जिस निष्कर्ष पर पहुंचती दिख रही हैं वह यह है कि सुशांत सिंह लम्बे समय से चरस का आदी था और अपने फार्म हाउस पर पार्टियां किया करता था। पिछले एक साल से वह फिल्मों में कैरियर के सपने देखने वाली रिया चक्रवर्ती के साथ लिव इन में रह रहा था जो उसके प्रेम में थी। इसी भावना में लाकडाउन के दौरान उसने सुशांत के लिए पाउडर मंगवाने में अपने भाई की मदद ली। यह कलाकार डिप्रैशन का भी शिकार था किंतु अपनी प्रोफेशनल जरूरतों के अनुसार इस बात को सार्वजनिक नहीं होने देना चाहता था। रिया उसका इलाज करा रही थी व उसके इलाज को प्रोफेशनल कारण से ही गोपनीय रखना चाहती थी। उसके पैसे का हिसाब उसकी मैनेजर देखती थी जिसका पता ईडी की रिपोर्ट के बाद लगेगा। इससे भी छवि में निखार नहीं आयेगा। कंगना का उत्पाती प्रवेश भी विषय को और मचायेगा, अपना प्रारम्भिक नुकसान वह करा ही चुकी है, फिल्म उद्योग भी सशंकित हो जायेगा। भाजपा को इससे भी मदद नहीं मिलने वाली क्योंकि बिहार सरकार से निराश वहां का मजदूर मुम्बई वापिस जाने की राह देख रहा है।

क्या यह दांव भाजपा को उल्टा ही पड़ेगा?  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023


मंगलवार, सितंबर 15, 2020

षड़यंत्रकारी राजनीति के मुकाबले आक्रामक राजनीति

 

षड़यंत्रकारी राजनीति के मुकाबले आक्रामक राजनीति 


वीरेन्द्र जैन

इस समय पूरा देश कुछ मीडिया चैनलों द्वारा प्रस्तुत राजनैतिक दंगल देख रहा है। पिछले तीस सालों में ऐसे दृश्य देखने को नहीं मिले थे जैसे इन दिनों देखे जा रहे हैं।

आजादी मिलने पर स्वतंत्रता आन्दोलन की सबसे बड़ी अहिंसक फौज के रूप में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस देशवासियों के सामने थी और उसे सरकार बनाने का पूरा नैतिक अधिकार था। दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में कम्युनिष्ट पार्टी थी जो रूस चीन से लेकर पूरी दुनिया में चर्चित हो रहे कम्युनिष्ट आन्दोलनों की प्रतिनिधि के रूप में स्वाभाविक विपक्ष थी। इसी दौरान देश ने बंटवारे, साम्प्रदायिक हिंसा और गाँधीजी की हत्या के रूप में बड़े बड़े हादसे देख लिये थे। गाँधीजी की हत्या के बाद अपने ऊपर लगे प्रतिबन्ध को हटवाने के लिए आर एस एस ने पटेल को लिखित वादा किया था कि वे सामाजिक संगठन के रूप में ही काम करेंगे और चुनावों में भाग नहीं लेंगे। बाद में सरदार पटेल के निधन के बाद संघ ने अपने चार स्वयंसेवक भेज कर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में भारतीय जनसंघ की स्थापना करायी थी। संघ से भेजे गये लोगों में अटल बिहारी बाजपेयी और लालकृष्ण अडवाणी प्रमुख थे। 1951 से 1971 तक  इस दल को 3% से लेकर 6% तक वोट मिलते रहे जबकि 1977 में इन्होंने अपनी पार्टी का विलय जनता पार्टी में कर दिया और सरकार बनने पर कहीं अधिक प्रतिशत में सत्ता में भागीदारी प्राप्त की। बाद में 1980 में इन्हीं के पूरे मन से विलय न करने व इनकी समानांतर रूप से संघ की सदस्यता बनाये रखने के आरोपों के कारण ही पहली बार बनी गैरकांग्रेसी जनता पार्टी सरकार टूटी और इन्हें जैसे गये थे वैसे ही वापिस होना पड़ा। बाद में इन्होंने ही दल का नाम बदल कर भारतीय जनता पार्टी रख लिया, जिसके कार्यक्रम और घोषणापत्र वही रहे जो जनसंघ के थे। उस समय से ही यह स्पष्ट हो गया था कि यह संगठन सत्ता पाने के लिए कुछ भी कर सकता है। ये लोग ही देश में दलबदल को प्रोत्साहित करने वालों और धन के सहारे वोट प्राप्त करने वालों की दुष्प्रवृत्ति के जन्मदाता के रूप में अंकित हुये हैं, जो बाद में दूसरे दलों में भी फैली। ये पार्टी व्यापारियों, उद्योगपतियों के पक्ष में खड़ी होने वाली पार्टी के रूप में जानी जाती थी इसलिए उसे धन की कमी कभी नहीं रही। बाद में तो राज छिन जाने से नाराज पूर्व राजा रानियों का भी समर्थन उसे मिलने लगा क्योंकि 1969 में कम्युनिष्टों के दबाव में इन्दिरा गाँधी ने पूर्व राजा रानियों के विशेष अधिकार व प्रिवी पर्स को खत्म कर दिया था।

साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिकता फैलाना दो अलग अलग बातें हैं। साम्प्रदायिकता तो अपने परम्परागत धर्म को सर्वश्रेष्ठ और दूसरे के धर्म को गलत मानने के भाव के कारण पैदा हो जाती है किंतु इसी भाव में जानबूझ कर गलत बातें डालकर या सूत्रों की गलत व्याख्या कर के, अपने निहित स्वार्थों के लिए साम्प्रदायिकता फैलायी जाती है और हिंसा के लिए संसाधन उपलब्ध कराये जाते हैं। संघ परिवार का यह विश्वास रहा है कि लोकतंत्र में चुनाव सिर गिनने से होते हैं और अगर चुनावों को धार्मिक आधार पर समाज को बांट कर कराये जायेंगे तो बहुसंख्यक धर्मावलम्बी ही चुनाव जीतेंगे। इसलिए देश की सत्ता पर अधिकार करने के लिए यह संस्था एक ओर तो राजतंत्र के इतिहास की गलत जानकारी व उसे अपने लक्ष्य के अनुसार व्याख्यायित करने का काम करती है, वहीं दूसरी ओर उन मुद्दों को तलाशती है जिनके आधार पर दो समाजों के बीच संघर्ष हो चुका हो या होने की सम्भावना हो। इसलिए समाजों के बीच समरसता और धर्मनिरपेक्षता की बात करने वालों को भी ये बराबर के दुश्मन मानते हैं। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जगायी गयी राष्ट्रभक्ति की भावना को भी ये एक काल्पनिक हिन्दूराष्ट्र से जोड़ कर इसका विदोहन करने का प्रयास करते हैं। वे ऊपर से शरीफ दिखते हैं और प्राकृतिक व निजी आपदाओं के समय अपने संगठन से साम्प्रदायिक आधार पर मदद करके अपना विस्तार करते हैं। देश के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक मुसलमान हैं जिनके खिलाफ होकर इनको अपना लक्ष्य आसानी से मिल जाता है क्योंकि वे सातसौ साल तक इस देश के शासक वर्ग में रहे हैं और उनके सत्ता संघर्ष को साम्प्रदायिक रूप देकर इन्हें आसानी से अपने संघर्ष की जगह मिल जाती है। मुसलमानों के कुछ नेताओं ने धर्म के आधार पर देश को विभाजित करा के इन्हें एक मजबूत आधार दे दिया है, जबकि पाकिस्तान से अधिक मुसलमान तो धर्म निरपेक्ष भारत में रह गये थे।

भारत में रह गये मुसलमान इनकी हरकतें देख कर रक्षात्मक रूप से साम्प्रदायिक होते गये और इसी आधार पर एकजुट हो उन्हें वोट करने लगे जो भाजपा को हरा रहा होता था। बिना राजनीतिक कर्म किये सत्तारूढ होती रही कांग्रेस के लिए ये एकजुट मुसलमान बड़ी पूंजी साबित हुये। दलितों के वोट बैंक से मिलकर कांग्रेस ने दशकों तक निर्बाध शासन किया जबकि संघ परिवार बिना शोर शराबे के अपना काम करता रहा व इतिहास एवं समाज को विकृत करता रहा।

किसी राजतंत्र की तरह अपना विशेष अधिकार समझने वाले काँग्रेसी सत्ताखोर होते गये। उन्होंने सत्ता के सहारे न केवल धन संचय किया अपितु चुनावी मुकाबलों में भाजपा के साथ धन के प्रयोग की प्रतियोगिता भी करने लगे। एक ओर सरकारें जनता से धन खींचती थीं तो दूसरी ओर ये सत्ताखोर सरकारी व्यवस्था में सेंधें लगा कर उस धन को चूसते रहते थे। क्रमशः वे विलासी होते गये, उन की सम्पत्ति बेतहाशा बढती रही और  रिश्तेदार लाभ के पदों को सुशोभित करते रहे। सुरक्षित वोटों के भरोसे कांग्रेसियों ने राजनीतिक विमर्श ही बन्द कर दिया। उनकी राजनीति अपने नेता के जयकारे तक सीमित हो गयी।

बाद में जब 1969 में श्रीमती गाँधी ने काँग्रेस में विभाजन का सामना किया और उन्हें बहुमत के लिए कम्युनिष्टों की जरूरत पढी तो दबाव में उन्होंने पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेष अधिकार बन्द कर दिये व 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इससे मिले व्यापक समर्थन के कारण उन्होंने कुछ लोकप्रिय नारे दिये और भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी की मदद से अपनी छवि निखारी। इससे दक्षिणपंथी विपक्ष एकदम से हमलावर हो गया। परिणामस्वरूप इमरजैंसी व संजय गाँधी के उभरने जैसे संकट सामने आये। संजय गाँधी ने इमरजैंसी में भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी को दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका तब उन्हें अपनी भूल समझ में आयी, जिसे उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार की और वाममोर्चे के हिस्से बने। काँग्रेस पहली बार केन्द्रीय सत्ता से बाहर हुयी पर 1980 में जनता ने जनता पार्टी के प्रयोग को ठुकरा दिया जिससे इन्दिरा गाँधी दोबारा सत्ता में आ गयीं। संजय गाँधी का एक दुर्घटना में निधन हुआ। दलितों ने अपनी अलग पार्टी बना ली और इमरजैंसी की ज्याद्तियों के कारण मुसलमान सशंकित हो गये थे, सीपीआई उससे अलग हो चुकी थी, ऐसे में अलगाववादी खालिस्तानी आन्दोलन हिंसक हो उठा। कांग्रेसजन, जो सत्ता में लूट को ही राजनीति मानने लगा था मुकाबला करने में असमर्थ साबित हुआ। कमजोर इन्दिरा गाँधी ने स्वर्ण मन्दिर में छुपे आतंकियों पर हमला करने का दुस्साहसिक फैसला लियी जिसके परिणाम स्वरूप मिले एक धोखे में उन्हें अपनी जान गंवाना पड़ी। उसके बाद सहानिभूति की लहर में काँग्रेस ने सीटें तो जीत लीं, किन्तु अपेक्षाकृत अनुभवहीन राजीव गाँधी को उनकी प्रकृति और रुचि के विरुद्ध प्रधानमंत्री पद सौंपना पड़ा। नेतृत्व की कमजोरी से नियंत्रण ढीला पड़ता रहा, क्षेत्रीय दल मजबूत होते गये। मौका देख कर उनके वित्तमंत्री व्हीपी सिंह ने टंगड़ी मार दी, बोफोर्स कांड का वबंडर खड़ा कर दिया गया। लिट्टे भारत के ही खिलाफ उठ कर खड़ा हो गया। शाहबानो के फैसले के खिलाफ एकजुट हुये मुसलमानों ने ब्लैकमेल कर फैसले को पलटने को मजबूर कर दिया। सरकार पलट गयी और कमजोर हो चुकी काँग्रेस का एक हिस्सा व्हीपी सिंह के साथ हो लिया क्योंकि उसे तो सत्ता चाहिए थी। मध्यावधि चुनाव हुये और इसी दौरान राजीव गाँधी की हत्या हो गयी। काँग्रेस नेतृत्व विहीन हो गयी शेष बचे काँग्रेसी दूसरे को नेता मानने के लिए तैयार नहीं थे।  सब को केक में से दूसरे से बड़ा हिस्सा चाहिए था।

यह वही समय था जब भाजपा ने मौका ताड़ लिया। वैसे तो उसके पास काँग्रेस की नीतियों से अलग कोई आकर्षक और बेहतर नीतियां थी ही नहीं सो उसने साम्प्रदायिकता का सहारा लियी और उसके लिए रामजन्म भूमि मन्दिर का भूमिगत मुद्दा उछाल दिया जगह जगह दंगे करा दिये, अडवाणी जी को एक डीसीएम टोयटा वाहन को रथ का रूप देकर घुमाना शुरू किया और योजनानुसार मुस्लिम बहुल इलाकों में उत्तेजक नारे लगवाते हुये खून खराबा करते गये। उसी समय से मीडिया की खरीद शुरू हो गयी और मनमुताबिक रिपोर्टें सामने आती रहीं। पूरा देश ही ध्रुवीकृत हो गया होता अगर व्हीपी सिंह समय से मंडल कमीशन का दांव नहीं खेल देते। केवल राम जन्मभूमि मुद्दे, व्यापारियों के धन, और संघ के संगठन के सहारे उन्होंने दो से दो सौ तक का सफर किया और अंततः अटलबिहारी की सरकार बनवा ही ली। असत्य, अर्धसत्य, तोड़ेमोड़े सत्य से सफेद झूठ तक व सिद्धांतहीन गठबन्धन से लेकर सांसदों, विधायकों की खरीद फरोख्त से लगातार सत्ता से जुड़े रहे। अपने खरीदे हुये मीडिया से वे अपने सारे खोटे सिक्के चलाते रहे। इस बीच काँग्रेस निरीह सी देखती रही उसने इनके किसी भी खतरनाक प्रयोग का विरोध नहीं किया अपितु छींका टूटने की प्रतीक्षा में टकटकी लगाये रही। जब छींका टूट गया तो जय जय बरना अघाये आलसी की तरह चुपचाप लेटे रहे अथवा आफर मिला तो दल बदल लिया। वह कैंसर के मरीज की तरह धीरे धीरे घुलती रही। बीच में जो मौके आये उसमें किसी काँग्रेसी के किसी प्रयास का कोई योगदान नहीं रहा। यूपीए की दो सरकारें बनने में भाजपा के प्रति जनता की नफरत का ही नकारात्मक योगदान रहा। किंतु भाजपा केन्द्र की मुख्यधारा की राजनीति में आ चुकी थी। यूपीए सरकारों के दौरान भी राजनीतिक एजेंडा उसी ने तय किया। 

इन दिनों महाराष्ट्र में घटित घटनाक्रम इतना ही है कि भाजपा ने जिस शिवसेना नामक शेर पर इतने लम्बे समय से सवारी की थी वही पलट कर सामने आ गया। अब ना तो इन्हें निगलते बन रहा था ना ही उगलते। सुशांत सिंह की मौत के मामले में इन्होंने एक षड़यंत्र के सहारे मुम्बई पुलिस और ठाकरे सरकार को कटघरे में खड़ा किया व सीबीआई और ईडी के साथ साथ एनसीबी को भी लगा दिया। पहले दो में मुँह की खायी तो तीसरी जाँच एजेंसी को मुख्य जाँच एजेंसी की तरह बीच में ले आया गया, जिसमे अपराध तो था किंतु देश भर में चलते रहने वाला अपराध था। उसके सहारे किसी विशेष राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। इस अपराध में इससे पहले कितने लोगों को सजा हुयी? जबकि छापों में जो माल बरामद होता है उसके आधार पर ना जाने कितने लाख लोग उसका सेवन करते होंगे। इसी काम में चर्चित होने को उतावली एक हीरोइन और एक टीवी एंकर को भी लगा दिया गया। वे सोच रहे थे कि लुंज पुंज जर्जर काँग्रेस की तरह शिवसेना पूंछ दबा कर बैठ जायेगी। किंतु उनकी सोच गलत निकली। उसने भले ही राजतंत्र के तानाशाहों की तरह व्यवहार किया किंतु देखना होगा कि दुश्मन कौन था व उसका इतिहास और चरित्र क्या रहा है। ये जैसे को तैसा का सन्देश किसी हीरोइन को नहीं अपितु एक षड़यंत्रकारी पार्टी को दिया गया है।

यह भूलने की बात नहीं है कि भाजपा परिवार के सारे प्रयोग लुंज पुंज काँग्रेस के काल में ही पलते रहे हैं जो ठीक तरह रक्षात्मक भी नहीं हुयी। यदि 1995 में तत्कालीन सरकार ने और कांग्रेस पार्टी ने गणेशजी की मूर्तियों को दूध पिलाने की ही ठीक से जाँच करा के कार्यवाही की होती तो अफवाहें फैलाने के षड़यंत्रों की इतना प्रसार न हो पाता। काँग्रेस ज़िन्दा तभी बच सकती है जब वह आक्रामक होकर काम करेगी। इसके लिए काँग्रेसियों को अपना चरित्र बदलना होगा। शिवसेना ने वही किया है।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023      

गुरुवार, सितंबर 10, 2020

कंगना रनौत प्रकरण में नारीवादियों पर हमला

 

कंगना रनौत प्रकरण में नारीवादियों पर हमला

वीरेन्द्र जैन

First fully directed film of Kangana Ranaut will be Aparajita Ayodhya | Kangna  Ranaut ने कियाअगली फिल्म Aparajitha Ayodhya का ऐलान, खुद करेंगी डायरेक्शन!  | Hindi News, बॉलीवुड

जब शिवसेना के गठबन्धन वाली महाराष्ट्र सरकार ने कंगना रनौत का अवैध निर्माण तोड़ने की कार्यवाही शुरू की तब परोक्ष में कंगना का समर्थन करने वाली भाजपा की सोशल मीडिया सेना ने एक ओर तो उसकी एकाध अच्छी फिल्मी भूमिका को उसके व्यक्तित्व से जोड़ते हुए उसके अंश पोस्ट करना प्रारम्भ कर दिये तो दूसरी ओर नारी वादियों पर हमला करना शुरू कर दिया कि वे अब क्यों नहीं बोल रहे है। सवाल उठता है कि जब नारीवादी या मानव अधिकारवादी अपनी बात कहते हैं तब क्या ये लोग उनका समर्थन कर रहे होते हैं? ये और ऐसे आरोप केवल उनके पक्ष को कमजोर करने के लिए उछाले जाते हैं, जिसका साफ मतलब उनकी छवि को धूमिल करके उनके पक्ष को कमजोर करना होता है। उल्लेखनीय है कि जब एक जीनियस लोकप्रिय युवा कलाकार सफदर हाशमी की हत्या हुयी थी और पूरी दुनिया में उसकी भर्त्सना हो रही थी तब जनसत्ता के एक सम्बाददाता ने उनके साथ मारे गये एक मजदूर राम बहादुर का मामला इसलिए उछाला था ताकि सफदर की हत्या के खिलाफ उठ रहे वैचारिक आन्दोलन के समर्थकों को कमजोर किया जा सके। इसके विपरीत सच यह था कि सीटू ने मजदूर के परिवार को अपनी ओर से पचास हजार की सहायता उपलब्ध करायी थी। ये लोग जब आये दिन मजदूरों के दमन पर एक वाक्य भी नहीं बोलते वे कला जगत को असंवेदनशील सिद्ध करने के लिए मजदूर राम बहादुर पर कलम चला रहे थे।

नारीवाद कोई जातिवादी आरक्षण जैसा नहीं है कि उसके लाभ जातिमुक्त समाज के निर्माण के मूल लक्ष्य को ही पलीता लगा दें और जातिवाद को बनाये रखने में मदद करें। यह कमजोरों के पक्ष में उठी आवाज है। जरूरी नहीं कि हर नारी कमजोर हो और उसे नारीवादियों के समर्थन की जरूरत हो। उदाहरण के लिए झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को ही लें, उनके बारे में अंग्रेज इतिहासकारों ने ही सबसे पहले लिखा कि इतने पुरुषों के बीच वह अकेली मर्द की तरह लड़ रही थी। उनके साथ जुड़ा मर्दानी का विशेषण यहीं से लिया गया है। रजिया सुल्तान हों, मीरा बाई हों, या अहिल्या बाई से लेकर सामाजिक आन्दोलनों में सक्रिय अनेक महिलाएं नारीवादियों की समर्थन को मजबूर नहीं रहीं। नारीवाद का आन्दोलन तो सिमोन द बुउवा के उस कथन से संगठित हुआ है जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द सेकिन्ड सेक्स’ में व्यक्त किया है। इसमें उन्होंने कहा है कि हम नारियां मानव जाति में एक भिन्न जेंडर तो हैं, किंतु दोयम दर्जे के जेन्डर  नहीं हैं, और उतने ही मनुष्य हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि परिवार नियोजन के साधनों के विकास के बाद नारी की गुलामी की एक बड़ी जंजीर कटी है। सुप्रीम कोर्ट के एक प्रतिष्ठित वकील और नारीवाद पर खुल कर लिखने वाले अरविन्द जैन अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि श्रीमती इन्दिरा गाँधी का अपनी बहू मनेका गाँधी के साथ सम्पत्ति का मुकदमा चला, जो हाईकोर्ट तक गया और फैसला इन्दिरा गाँधी के पक्ष में हुआ। फैसले के बाद इन्दिराजी ने वही सम्पत्ति वरुण गाँधी के नाम कर दी। वरुण उस समय तक वयस्क नहीं हुये थे इसलिए नेचुरल गार्जियन के रूप में उनकी मां मनेका गाँधी के पास वह सम्पत्ति वापिस पहुंच गयी। जब ऐसा ही होना था तो श्रीमती इन्दिरा गाँधी अपने परिवार की प्रतिष्ठा को चौराहे पर क्यों ले गयीं? अरविन्द जी लिखते हैं कि इन्दिरा जी अपने पूरे व्यक्तित्व में और खास तौर पर उस समय किसी नारी की तरह नहीं अपितु किसी पुरुष की तरह व्यवहार कर रही थीं।

अगर ऐसे में कोई नारीवादी उनके पक्ष में नारी और अबला के नाम पर कुछ बोलता तो वह नारीवाद का गलत स्तेमाल कर रहा होता। इसी तरह तस्लीमा नसरीन की पक्षधरता उनके नारी होने के नाम पर नहीं की जा सकती। वे ज्यादा और जल्दी उत्तेजित व हिंसक व्यवहार करने वालों को जानबूझ कर छेड़ती हैं और सरकारों को कटघरों में खड़ा करते हुए अपनी सुरक्षा की चुनौती पेश करती हैं। सरकार और सारे प्रगतिशील किंकर्तव्यविमूड़ होकर रह जाते हैं और वे अपनी लोकप्रियता को व्यवसाय बना कर लाभ में रहती हैं। अगर तस्लीमा के एक्टविस्म को छोड़ दिया जाये तो साहित्यिक मानदण्डों पर उनकी रचनाएं वह स्तर नहीं रखतीं, जिस स्तर की ख्याति उन्हें मिली हुयी है। यह एक ऐसा हथकण्डा बन गया है जिसे लोकप्रियता का व्यापार करने वाले अनेक लोग अपना चुके हैं और अपना रहे हैं। कंगना रनौत उनसे अलग नहीं हैं। जहाँ विरोध नहीं होता है, वहाँ वे विरोध पैदा करती हैं और उसका लक्ष्य किसी महत्वपूर्ण चर्चित व्यक्ति को बनाती हैं ताकि ज्यादा चर्चा हो, ज्यादा ख्याति मिले।

नारीवादियों ने कंगना रनौत का विरोध भी नहीं किया या उनसे किसी गुंडे की तरह बदला लेने वाली शिवसेना का समर्थन भी नहीं किया, भले ही उनका कदम विधिसम्मत था। नारीवादी हों या मानवाधिकारवादी उनकी समझ साफ है और वे हर पीड़ित के पक्ष में खड़े होना चाहते हैं। किंतु नकली घाव बना कर हाथ पैरों पर पट्टी बाँध कर धर्मस्थलों में जाने वालों की दया से कमाई करने वालों के प्रति सजग भी हैं।

सोशल मीडिया के जो सैनिक आज कंगना के पक्ष में खड़े होकर शिवसैनिकों का विरोध कर रहे हैं, वे ही जब तक भाजपा से उनका गठबन्धन था तब तक उनका समर्थन करते थे। आज पूरे देश में न जाने कितने कानून ऐसे हैं जिनका पालन नहीं होता और वे अपने विरोधियों के खिलाफ स्तेमाल करने के लिए सुरक्षित रखे जाते हैं। उत्तर प्रदेश के दो बड़े दल सीबीआई के डर से केन्द्र सरकार का अघोषित समर्थन करते हुए अपने समर्थकों को ठग रहे हैं। यही हाल दक्षिण के कुछ प्रमुख दलों का है। अब तो सीबीआई आदि एजेंसियों के साथ साथ न्यायपालिका के एक हिस्से पर स्तेमाल होते जाने के आरोप लगे हैं, और वे गलत भी नहीं लगते। रिया चक्रवर्ती के मामले में कुछ कुछ ऐसा ही हो चुका है। दुखद यह है कि बिका हुआ मीडिया ही मुख्य धारा बना हुआ है और वह खुली सौदेबाजी के आधार पर झूठ को स्थापित कर रहा है।
     

 

वीरेन्द्र जैन

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