सोमवार, नवंबर 23, 2020

श्रद्धांजलि अरविन्द जैन : इस समय में क्या कोई इतना भी भला हो सकता है

 


श्रद्धांजलि

अरविन्द जैन : इस समय में क्या कोई इतना भी भला हो सकता है

वीरेन्द्र जैन

शोक सम्वेदना के अवसरों पर कई बार यह सुनने को मिलता रहा है, कि अच्छे लोगों की भगवान को भी जरूरत होती है, इसलिए वह उन्हें जल्दी बुला लेता है। समझ में नहीं आने वाली समस्त घटनाओं को लोग भगवान की मर्जी कह कर संतोष पाने का प्रयास करते हैं। इस बात में भरोसा न होने के बाबजूद भी मुझे यह वाक्य याद आ गया। अवसर था श्री अरविन्द जैन के निधन के समाचार का। खबर सुन कर मैं हक्का बक्का रह गया।

अरविन्द जी रिश्ते में मेरे भांजेदामाद लगते थे। जब मेरी बड़ी बहिन की शादी हुयी थी तब मैं कुल एक वर्ष का था इसलिए मेरे आठ भांजे भांजियों में से अधिकांश मेरे हम उम्र से रहे हैं। अरविन्द जी और मुझ में कई समानताएं थीं। पहली तो यह कि हम दोनों ही बैंक की नौकरी में थे। दूसरी यह कि वे भी एक मध्यमवर्गीय परिवार से आते थे व दोनों के पिता आदर्शवादी, परहितकारी और समाजसेवी रहे। उनके पिता एक आदर्शवादी अध्यापक थे और उन्होंने अपने पुत्र को भी यही शिक्षा दी थी। मैंने तो अपने साहित्यिक लगाव के कारण एक कदम के बाद प्रमोशन के लिए प्रयास नहीं किया किंतु अरविन्द जी अपनी मेहनत, लगन और समर्पण से स्टेट बैंक आफ इन्दौर में स्केल थ्री मैनेजर के पद तक पहुंचे। सरकारी योजनाओं के अंतर्गत दिये जाने वाले ऋणों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण जो गिरोह तैयार हो जाता है उसे ईमानदार व्यक्ति पसन्द नहीं आता। इसी द्वन्द में उन्होंने अपने शिखर के काल में नौकरी को ठोकर मार दी और सेवा निवृत्ति के कई साल पहले स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली थी। वे कहते थे कि जो ऋण हमारे कार्यकाल से पहले के प्रबन्धकों ने दबाव और लालच में बांटे हैं, उनमें रिकवरी का लक्ष्य पूरा न होने के लिए उत्तराधिकारी को कैसे जिम्मेवार ठहराया जा सकता है, जबकि सरकारी विभाग इसमें कोई मदद नहीं कर रहा हो। यह सच भरी सभा में कहने का साहस उनमें था। ऐसा ही दुस्साहस मैं भी करता रहा हूं। हम दोनों के साथ एक प्लस प्वाइंट यह रहा है कि हम लोगों के काम में ऐसी कोई त्रुटि नहीं थी कि नाराज होकर अधिकारी बदला ले सकें। जो वे कर सकते थे वह उन्होंने मेरे दूर दराज तक 15 स्थानंतरण करके किया था। मैंने सब सहन किया और अपनी जरूरतें कम से कम रखीं जिससे काम चल गया। उन्होंने भी इसी तरह के दण्ड सहे और अंततः नौकरी को ठोकर मार कर चले आये। इसके लिए भी शायद उन्होंने मुझ से कुछ प्रेरणा ली हो क्योंकि उनसे पहले मैं स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति योजना की ओट लेकर समय से नौ साल पहले सेवा निवृत्ति ले चुका था। आम तौर पर जब एक से जाब में काम करने वाले लोग मिलते हैं तो डीए वेतन या पेंशन संशोधन आदि के बारे में ही बातें करते हैं किंतु उन्होंने कभी इस तरह की बातें नहीं कीं।

अरविन्द जी के बारे में कोई नहीं कह सकता कि कभी उन्होंने निजी हित के लिए झूठ बोला हो, गलत बयानी की हो, या किसी को धोखा दिया हो। उनका हमेशा एक सात्विक हँसमुख व्यक्तित्व नजर आता था। व्यवहारिकता इतनी थी कि हर रिश्ते में उनके उपहार सामने वाले की तुलना में इक्कीस ही रहते थे और उन्होंने कभी ये कोशिश नहीं कि किसी का कुछ अधिक उनके पास रह जाये। उनके जीवन की बैलेंस शीट में वे हमेशा भारी ही रहे। बड़ी संख्या में रिश्तेदारियों के बाबजूद उन्होंने कभी किसी का विवाह समारोह या जीवन के अन्य संस्कारों में भाग लेने में चूक नहीं की। वे ऐसे अपवाद थे कि उनके पीठ पीछे भी उनकी बुराई करने वाला कोई कभी नहीं मिला।   

हम लोगों में एक अंतर रहा कि वे परम्परागत रूप से धार्मिक थे और प्रतिदिन गाँधी टोपी लगा कर मन्दिर जाते थे और एक घंटे से अधिक पूजा करते थे, पर्व के दिनों में जूते भी नहीं पहिनते थे, जबकि मैं घोर नास्तिक व धार्मिक कर्मकांड का विरोधी रहा। इसके बाबजूद भी वे इतने उदार, सहिष्णु और पंथनिरपेक्ष थे कि अन्य कट्टर धार्मिकों की तरह ना तो मुझ से और ना और किसी दूसरे धर्म के मानने वालों से ही नफरत करते थे। वे जैन परम्परा का पालन करते हुए रात्रि से पहले भोजन कर लेते थे किंतु हम जैसे दूसरे लोगों को रात्रि भोजन करने या जैन परम्परा में वर्जित प्याज लहसुन आदि खुद ही परोस देते थे। एक बार मैंने कई लोगों के बीच में कह दिया कि जैन मुनियों की संलेखना तो एक तरह से आत्महत्या है तो उन्होंने बिना उत्तेजित किये हुए कहा कि नहीं आत्महत्या तो टेंशन से की जाती है और संलेखना इन्टेंशन से की जाती है, इसलिए दोनों अलग हैं। मुझे लगा था कि ये पढे लिखे धार्मिक हैं और दूसरों से भिन्न हैं।

परिचितों, रिश्तेदारों से निरंतर सम्पर्क बनाये रखने के लिए मोबाइल फोन आने के बाद वे प्रत्येक के जन्मदिन. वैवाहिक वर्षगांठ आदि पर उसके पूरे परिवार को फोन करते थे, बधाई देते थे। उन्हें सारे बच्चों के नाम याद थे। जब उनके पिता बहुत बीमार थे उस दिन भी उन्होंने बारह जून को पहले मेरे जन्मदिन की सुबह फोन करके बधाई दी, और बाद में बताया कि पिताजी का निधन हो गया है।

सादा जीवन और पर्याप्त पेंशन के कारण उन्हें कोई अभाव नहीं रहा व उनके सेवानिवृत्त होने तक उनके दोनों पुत्र काम पर लग चुके थे, अपनी बीमार मां के अंतिम दिनों में उन्होंने अपने धार्मिक नियम भी शिथिल कर के जो सेवा की वह कोई श्रवण कुमार भी शायद नहीं कर सके। माँ के निधन के बाद उन्होंने परिवार को साथ लेकर जो तीर्थयात्राएं शुरू कीं तो पूरा देश लांघ डाला। आये दिन फेसबुक पर डले स्टेटस से पता चलता था कि वे कहाँ पर हैं। प्रसिद्ध जैन मुनियों के प्रवास पर हजारों की संख्या में जैन श्रद्धालु पहुंचते हैं, ऐसे अवसरों पर वे भी उनमें से एक स्थायी व्यक्ति होते थे।

अधिक धार्मिकता की झौंक में नासमझ लोग साम्प्रदायिकता की चपेट में आ जाते हैं किंतु अरविन्द जी ने साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखे मेरे लेखों और पोस्टों को हमेशा लाइक किया, जो उनकी विचारधारा को प्रकट करता है। अपने से जुड़े किसी भी व्यक्ति का जाना बुरा लगता है किंतु आपके मन में जिस व्यक्ति के प्रति अपार प्रशंसा व श्रद्धाभाव हो उसका जाना और भी बुरा लगता है। अरविन्द जी का स्वास्थ इतना अच्छा, व जीवन सादा था कि यह उम्र उनके जाने की नहीं थी किंतु कोरोना काल में भी अपने तीर्थयात्रा प्रेम में कहीं संक्रमित हो गये और जब तक पता चला तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

अब जब भी किसी रिश्तेदार को अपने जन्मदिन की याद आयेगी उसे अरविन्द जी की याद अवश्य आयेगी।   

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

मो. 9425674629

   

मंगलवार, नवंबर 03, 2020

श्री विनोद निगम का मेरा प्रिय गीत ' खुली चांदनी का गीत' - [संस्मरण]

 श्री विनोद निगम का मेरा प्रिय गीत ' खुली चांदनी का गीत' - [संस्मरण]

शरद पूर्णिमा और होली की रात चाँद अपनी पूरी प्रखरता से चमकता है।
चन्द्रमा को Luna कहा जाता है और इस दिन सबसे अधिक लोगदीवाने होते हैं इसीलिए इन दीवानों/ पागलों को Lunatic कहा जाता है। इन रातों को सबसे अधिक लोग आत्महत्या भी करते हैं।
बात 1968-69 की रही होगी, तब मेरी उम्र 18-19 वर्ष की थी। उन दिनों कादम्बिनी में प्रकाशित एक गीत पढा जिस पर में मुग्ध हो गया। गीतकार का नाम छपा था विनोद निगम। वह गीत मेरे प्रिय गीतों में शामिल रहा। उस गीत के गीतकार का कद मेरी निगाह में बहुत ऊंचा रहा और उसी के अनुसार उनकी उम्र का अनुमान भी बना। लगभग 40 साल उनके कभी दर्शन नहीं हुये। जब मैं भोपाल रहने लगा तब जन सम्पर्क के अधिकारी रघुराज सिंह ने उन पर केन्द्रित एक कार्यक्रम आयोजित किया जिसमें उन्होंने बोलचाल की शैली में लिखे गये अनेक गीत व कविताएं सुनायीं। जो अच्छी लगीं। तब तक मैं अपने प्रिय गीत के रचनाकार का नाम भूल चुका था। फिर किसी को उल्लेखित करने के लिए मैंने गीत को तलाशा तो नाम देखने पर याद आया कि ये तो वही विनोद निगम जी हैं जो उम्र में मुझ से कुछ ही वर्ष बढे हैं। दो चार बार उनसे मुलाकात हो चुकी है किंतु वे मुझे गीत प्रेमी व्यक्ति और रचनाकार के रूप में नहीं पहचानते, पर मैं उनका प्रशंसक हूं। क्यों हूं इसके लिए आप उक्त गीत पढ कर देखें =
खुली चाँदनी का गीत
और अधिक इस खुली चांदनी में मत बैठो
जाने कब, संयम के कच्चे धागे
अलग अलग हो जाएँ
वैसे ही यह उम्र
बहुत ज्यादा सहने के योग्य नहीं है
जो अधरों पर लिखा हुआ है
वह कहने के योग्य नहीं है
फिर यह बहकी हवा सिर्फ
बैठे रहने के योग्य नहीं है
और अधिक इस खुली चाँदनी में मत बैठो
जाने कब यह आकर्षण
सारी मर्यादाएँ धो जाए
इस खामोशी में
वैसे ही अस्थिर और निरंकुश है मन
फिर इतना सामीप्य किसी का
झुकी डाल सा सहज समर्पण
भरी नदी के खुले किनारों सा
नम नयनों का आमन्त्रण
और अधिक मनचली चाँदनी में मत बैठो
जाने कब यह आकर्षण
सारी मर्यादाएँ धो जाए
मौसम का यह रंग
स्वयं पर भी कौई विश्वास नहीं है
फिर ये भीगी हुई बहारों के दिन हैं
सन्यास नहीं है
जो स्वाभाविक है
उसको कुछ दूर नहीं है पास नहीं है
और अधिक विषघुली चाँदनी में मत बैठो
जाने कब, चंदन-क्षण,
जीवन भर के लिये तपन बो जाएँ
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