शनिवार, दिसंबर 28, 2019

प्रेमचन्द से राजेन्द्र यादव तक के देखे सपनों का पूरा होना


प्रेमचन्द से राजेन्द्र यादव तक के देखे सपनों का पूरा होना
वीरेन्द्र जैन


आज अगर राजेन्द्र यादव होते तो बहुत खुश होते।
जनवरी 1993 में हंस के सम्पादकीय में उन्होंने एक अलग रुख लिया था। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़ने पर, जब सभी बुद्धिजीवी , पत्रकार , सम्पादक राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता एक स्वर से कट्टर हिन्दुत्व की निन्दा कर रहे थे तब उन्होंने उस मुस्लिम नेतृत्व की आलोचना की थी  जिसने कुछ वर्ष पहले ही शाहबानो मामले पर दिल्ली के बोट क्लब पर पाँच लाख की रैली निकाल कर एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी थी।
उन्होंने लिखा था कि तुम लोगों ने बाबरी मस्ज़िद तुड़वा ली। बहुत दावे कर रहे थे कि ईंट से ईंट बजा देंगे, पर यह भूल गये थे कि तुम अल्पसंख्यक हो और जब संख्या बल के आधार पर टकराने की कोशिश करोगे तो बहुसंख्यक ही जीतेंगे। ऐसा करके तुम बहुसंख्यकों को एकजुट होने व हमलावर होने को उकसाने का काम करोगे। किसी भी देश में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की गारंटी उनकी अलग से एकता नहीं अपितु एक धर्म निरपेक्ष व्यवस्था ही देती है।
पिछले दिनों सिटीजनशिप अमेन्डमेंट बिल और फिर एक्ट में धार्मिक आधार पर जानबूझ कर भेदभाव किया गया था ताकि मुसलमानों का विरोध धार्मिक विभाजन पैदा करे और कम पढे लिखे या अन्धभक्तों हिन्दुओं को लगे कि यह विरोध अनावश्यक व बेमानी है। खुद को चाणक्य समझने वाले लोगों ने पिछले अनुभवों के आलोक में, अपनी समझ से बहुत चतुराई भरी चाल चली थी, ताकि बेरोजगारी, मन्दी आदि से प्रताड़ित जनता साम्प्रदायिकता के तनाव में इन्हें भूल जाये व विधानसभा चुनावों में उन्हें फिर जिता दे। बहुत हद तक वे सफल भी हुये किंतु हमारी चुनाव प्रणाली, जो कभी एक दल को लाभ दे जाती है, वही कभी नुकसान भी कर जाती है।
बिल के षड़यंत्र को समझ कर न केवल मुस्लिमों ने अपितु देश भर के धर्मनिरपेक्ष लोगों ने एकजुट होकर षड़यंत्र को उजागर किया व आन्दोलन में एकजुटता दिखायी। महाराष्ट्र राज्य की पराजय के बाद झारखण्ड में हुयी पराजय के साथ बिल के सामूहिक विरोध ने इसे साम्प्रदायिक बनने से रोका और धर्मनिरपेक्ष आधार पर दलों में एकजुटता स्थापित हुयी। यह पराजय न केवल आरएसएस के इशारों पर नाचने वाली भाजपा की पराजय थी अपितु यह ओवैसी के फैलते प्रभाव की पराजय भी थी। उल्लेखनीय यह है कि यह एकता बिना किसी परम्परागत नेतृत्व के बनी है और जनता की समझ की एकता है। इसमें लिंग भेद के बिना जो शिक्षित युवा एकत्रित हुये उन्होंने सारे बहकावों और दुष्प्रचार के साथ साथ सारे लालचों को भी ठुकरा दिया। कुछ गैरसरकारी संगठन और वामपंथी कला समूह तो इस दिशा में लगातार सामर्थ्यभर प्रयास करते रहे हैं जिसने बीज का काम किया। यह सब उन्होंने अपना कर्तव्य मान कर किया।
राजेन्द्र यादव का भी यही सपना था। उन्होंने हंस के माध्यम से लगभग तीन दशक तक इस मशाल को जलाये रखा और बेहद सुलझे तरीके से परिस्तिथियों का विश्लेषण सामने लाते रहे। सम्पादकीय आलेखों के माध्यम से यह काम पहले प्रेमचन्द, कमलेश्वर, और उत्तरार्ध में प्रभाष जोशी ने भी किया। आज उन सब के सपने सफलता की ओर बढ रहे हैं।  
फैज़ के शब्दों में कहें तो –
जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जायेंगे
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [.प्र.] 462023
मो. 9425674629
 
  

‘मैटिनी शो’ महिला निर्देशकों की फिल्मों पर आधारित समारोह


‘मैटिनी शो’ महिला निर्देशकों की फिल्मों पर आधारित समारोह
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों भोपाल में मध्यप्रदेश महिला मंच और इंटरनैशनल एसोशिएन आफ विमेन इन रेडियो एंड टेलीविजन [इंडिया चैप्टर] की ओर से महिलाओं द्वारा निर्देशित फिल्मों का तीन दिवसीय समारोह आयोजित हुआ जिसमें डाक्यूमेंटरी/ शार्ट फिल्म/ एनिमेशन एक्स्पेरीमेंटल तरह की 29 फिल्मों का प्रदर्शन हुआ। कार्यक्रम का नाम ‘द मैटिनी शो’ रखा गया था। यद्यपि यह एक ज़ेन्डर आधारित प्रदर्शन था किंतु फिल्मों की विषयवस्तु और निर्माण के आधार पर ऐसा कोई भेद महसूस नहीं किया जा सकता था। वैसे भी फिल्म भले ही डायरेक्टर’स मीडिया माना जाता हो किंतु उसके निर्माण में कुल व्यक्तियों की जो संख्या लगती है उससे उसे किसी ज़ेंडर विशेष की फिल्म नहीं माना जा सकता। इस समारोह की अधिकांश फिल्में भी ऐसी ही थीं। फिल्मों की अवधि दो घंटे से लेकर 6 मिनिट तक थी। इसमें राजनीतिक फिल्मों से लेकर बच्चों की फिल्मों तक विविधता थी।
अनियमित कोयला मजदूर बाबूलाल भुइंया के औद्योगिक सुरक्षा बल द्वारा मार दिये जाने व उसके बलिदान से अन्य मजदूरों में पैदा हुयी जागरूकता की कहानी से समारोह का प्रारम्भ हुआ, तो इसमें पंजाब में नशे की आदत से मुक्त कराने वाले पुनर्वास केन्द्रओं द्वारा उनके परिवारों की भूमिका को रेखांकित किया गया था। समारोह में हैदराबाद विश्व विद्यालय के प्रतिभाशाली दलित छात्र रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिए विवश करने के प्रतिरोध में उसके अंतिम पत्र से जनित छात्र उत्तेजना की कथा कहने वाली फिल्म भी थी। 2002 में हुये साम्प्रदायिक नरसंहार में अपने जले हुये घर को देख कर नास्टलाजिक होते सायरा और सलीम की फिल्म भी थी।
जीवन और राजनीतिक संघर्ष में महिलाओं की भूमिका को दर्शाने वाली फिल्में भी समुचित संख्या में थीं। इन फिल्मों में कश्मीर की महिलाओं का प्रतिरोध आन्दोलन भी था जो गीतों, तस्वीरों और साक्षात्कार के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। उत्तरी छत्तीसगढ के बलरामगढ जिले की किशोरी मीना खाल्को की पुलिस मुठभेड़ में की गयी हत्या से पहले यौन हिंसा को दबाने की कोशिश और दोषियों को दण्डमुक्त हो जाने पर फिल्म ‘एनकाउंटरिंग इनजस्टिस’ भी है। सत्ता के खिलाफ सच बोलने का साहस करती महिला पत्रकारों द्वारा चुकाई गयी कीमत को दर्शाती फिल्म ‘वैलवेट रिवोल्यूशन’ है जिसे छह महिला निर्देशकों ने अपने अपने आब्जर्वेशनों से बनाया है। जो लोग धर्म नैतिकिता और जातिवाद के सहारे राजनैतिक चालें चल रहे हैं उनके बारे में बताने वाली फिल्म ‘तुरुप’ है।
इस समारोह में जीवन के विभिन्न रंगों को दिखाने वाली फिल्में भी थीं जो पीछे जाकर भी देखती हैं। ऐसी ही भावुक कर देने वाली फिल्म ‘द अदर सोंग’ है जो बनारस व लखनऊ की तवायफों के अतीत में ले जाकर उनकी वर्तमान दशा को बताती है। ‘पिछला वरका’ में पाकिस्तान छोड़ कर आयी महिलाएं ताश के पत्तों में अपनी दुपहरियां बिताती हुई अतीत की यादों को कुरेदती रहती हैं। एक महत्वपूर्ण फिल्म ‘बाल्खम हिल्स अफ्रीकन लेडी ट्रुप’ है जो विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक कारणों से यौन हिंसा का शिकार हुयी चार महिलाओं द्वारा एक थिएटर ग्रुप के माध्यम से अपनी कहानी कहने पर बनी फिल्म है। इस अभिव्यक्ति से वे अपने शोषण से जन्मी हीन भावना और मानसिक प्रताड़ना से मुक्ति पाती हैं। ट्रांस ज़ेंडर की समस्याओं और उनके बारे में नासमझियों को बताती फिल्म ‘बाक्स्ड’ है तो हैदराबाद में शेखों द्वारा लड़कियों की खरीद फरोख्त और उनके यौन शोषण और उससे आज़ादी की कहानी कहती फिल्म ‘स्टिल आई राइज’ है। दृढतापूर्वक दहेज का विरोध करती लघु फिल्म ‘अपराजिता’ है, तो वज़न कम करने के चक्कर में कुछ और खोज लेने की कहानी ‘डब्ल्यू स्टेन्ड्स फार’ है। अपने पुरुष मित्र के घर में उसकी माँ द्वारा मासिक धर्म के दाग लगने पर किया गया व्यवहार व पुरुष मित्र की प्रतिक्रिया के बाद उसके बारे में विचार बदल देने की कथा ‘स्टैंस’ में कही गयी है। पश्चिमी बंगाल के नन्दीग्राम में दो लड़कियों की आत्महत्या और उनके परिवारियों के व्यवहार पर ‘इफ यू डेयर डिजायर’ है। हर रोज हिंसा का सामना करने वाले कश्मीर में सामाजिक मानदण्डों से उबरने के लिए कला का सहारा लेने के प्रयास की कहानी ‘द स्टिच’ है। ‘डेविल इन द ब्लैक स्टोन’ में बीड़ी बना एक साथ रहने वाली तीन महिलाएं प्रति परिवार दस किलो चावल दो रुपये किलो मिलने की खबर सुन अलग अलग झोपड़ी बना लेती हैं, किंतु जिस को सर्वेक्षणकर्ता समझ रही होती हैं वह मस्जिद के लिए चन्दा मांगने वाला निकलता है और तीनों घरों को चन्दा एकत्रित करने के लिए अलग अलग डब्बा थमा कर चला जाता है। गुस्से में वे डिब्बा फेंक देती हैं।
प्लास्टिक कचरे पर बनी ‘पिराना’, पुराने जहाजों को तोड़े जाने वाले चिटगाँव बन्दरगाह पर बनी ‘द लास्ट राइट्स’ चाय की बदलती दुकानों और बेचने वालों पर बनी फिल्म ‘चाय’ है तो आवासीय विद्यालय में दृष्टि विकलांगों पर केन्द्रित फिल्म ‘कोई देखने वाला है’ भी दिखायी गयी हैं।
एक बच्चे के जन्मदिन पर उसके पिता द्वारा केक का आर्डर देने वाली दुकान की तलाश और बच्चे की मनमानियों की कहानी ‘द केक स्टोरी’ है जिसमें बच्चे ने बेहतरीन एक्टिंग की है। इसके साथ ही साथ ‘केली’ ‘फ्राइड फिश’ ‘डिड यू नो’ ‘अद्दी’ और ‘डेजी’ एनीमेशन फिल्में थीं।
सच है कि मैटिनी शो स्वतंत्र महिलाओं का शो ही रहता आया है। शायद यही सोच कर आयोजकों ने इस समारोह क नाम ‘मैटिनी शो’ रखा होगा। सिनेमा में रुचि रखने वालों, लघु फिल्म निर्माताओं, औए फिल्म समीक्षकों की संख्या कुछ और अधिक रुचि लेती तो उत्तम था।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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रविवार, दिसंबर 08, 2019

श्रद्धांजलि/ संस्मरण- स्वयं प्रकाश जितने वजनदार उतने ही विनम्र थे स्वयं प्रकाश


श्रद्धांजलि/ संस्मरण- स्वयं प्रकाश
जितने वजनदार उतने ही विनम्र थे स्वयं प्रकाश 
कहानीकार स्वयं प्रकाश के लिए इमेज परिणाम
वीरेन्द्र जैन
मैं लम्बे समय तक कहानियों का नियमित पाठक रहा हूं जिसका शौक कमलेश्वर के सम्पादन के दौर में निकलने वाली सारिका से लगा था। सारिका के समानांतर कथा आन्दोलन के दौर में जो कहानियां लिखी गयीं, उनके बारे में कहा जा सकता है कि अगर प्रेमचन्द आज लिख रहे होते तो वैसी ही यथार्थवादी कहानियां लिखते। मुझे याद नहीं कि मैं कब किस कहानी को पढ कर स्वयं प्रकाश का प्रशंसक बन गया पर उनका नाम मेरे लिए ऐसा ब्रांड बन चुका था जिसे किसी पत्रिका में देख कर मैं सबसे पहले उसी कहानी को पढता था, और उन्होंने कभी निराश नहीं किया। सारिका के अलावा अनेक लघु पत्रिकाओं में उनकी कहानियां मिल जाती थीं जिनमें सव्यसाची जी द्वारा सम्पादित उत्तरार्ध [उत्तरगाथा], ज्ञानरंजन जी के सम्पादन में निकलने वाली पहल, कमलाप्रसाद जी द्वारा सम्पादित वसुधा, से रा यात्री द्वारा सम्पादित वर्तमान साहित्य आदि तो थी हीं, धर्मयुग और हंस में भी पढने को मिल जाती थीं। वैसे उनकी कहानियां हिन्दी की सभी लघु और बड़ी पत्रिकाओं में छपती रहीं हैं। मेरे पढने की सीमा था उनके छपने की कोई सीमा नहीं थी।
उनसे पहली मुलाकात भारत भवन के किसी कार्यक्रम में हुयी थी जिसमें वे आमंत्रित थे और बगल में एक थैला दबाये हुये सीढियां उतर रहे थे। थैला उस रैग्जिन का बना था जिसे आमतौर पर रोडवेज बसों के कंडैक्टर- ड्राइवर सीट पर चढी हुयी गहरे हरे से रंग की रेग्जिन से बनवा लेते रहे हैं। उनकी इस सादगी भरी पहचान की चर्चा कभी श्री राज नारायण बौहरे और प्रो. के बी एल पांडेजी कर चुके थे। आमंत्रितों में उनका नाम था इसलिए थैला देख कर ही मैंने पहचान लिया था। मैंने पुष्टि करने के अन्दाज में पूछा था- स्वयं प्रकाश जी? उन्होंने बिन मुस्कराये या पहचाने जाने की खुशी के विनम्र सहमति में सिर हिलाया, और पूछा आप? मैंने अपना नाम बताया और कहानी उपन्यास के क्षेत्र में गलतफहमी से बचाने के लिए कहा कि मैं दतिया वाला हूं, डूब वाला नहीं। वे बोले कि डूब वालों को मैं पहचानता हूं और फिर गत महीने हंस में किसी कहानी पर छपी मेरी पत्र प्रतिक्रिया की चर्चा की व प्रशंसा करते हुए कहा कि वह संतुलित टिप्पणी थी। मैं धन्य हो गया था और लगा था कि छोटे छोटे प्रयास भी बेकार नहीं जाते। बाद में राजेन्द्र यादव जी से भी मेरी इस बात पर सहमति बनी थी कि मैं कहानियों पर टिप्पणियां ही लिखा करूंगा और मैंने अनेक वर्षों तक हंस में कहानियों पर पत्र टिप्पणियां लिखीं, जिसे मैं पाठकीय समीक्षा मानता रहा।
दूसरी मुलाकात इस मुलाकात के एकाध वर्ष के अंतराल में ही हुयी थी जब वे बनमाली पुरस्कार ग्रहण करने आये थे। इस अवसर पर उनके द्वारा कही गयी बातों का मुझ पर बहुत गहरा असर हुआ था। इसमें उन्होंने कहा था कि “जूलियस फ्यूचक के अनुसार लेखक तो जनता का जासूस होता है जिसे हर अच्छी- बुरी जगह जाकर जानकारी एकत्रित करना होती है, इसलिए वह कथित सामाजिक नैतिकिता की परवाह में किसी जगह प्रवेश से खुद को रोक नहीं सकता। उसे चोर, उचक्कों. सेठों और शराबियों, सबके बीच जाना पड़ेगा। मैंने अच्छा कामरेड दिखने की कोशिश में अपनी अज्ञानता में भूल कर दी कि बहुत लम्बे समय तक किसी धर्मस्थल में नहीं गया। अब मुझे पता ही नहीं कि मन्दिर में क्या क्या बदमाशियां चल रही हैं या वहां का कार्य व्यवहार कैसे चलता है”।
2001 में मैं पुनः भोपाल आकर रहने लगा व उसके कुछ ही वर्ष बाद स्वय़ं प्रकाश जी भी सेवा निवृत्त होकर भोपाल रहने लगे। मेरे एक साहित्यकार मित्र जब्बार ढाकवाला आई ए एस थे और वे भी स्वयं प्रकाश जी के लेखन को बहुत पसन्द करते थे। उनके पास समुचित संसाधन थे किंतु वे बड़े पद के कारण घिर आने वाले अयोग्य व चापलूस साहित्यकारों से दूर भी रहना चाहते थे इसलिए उन्होंने एक छोटा सा ग्रुप बना लिया था जो किसी न किसी बहाने लगभग साप्ताहिक रूप से मिल बैठ लेता था। इसमें ढाकवाला दम्पत्ति के अलावा डा. शिरीष शर्मा, उर्मिला शिरीष, डा, विजय अग्रवाल प्रीतबाला अग्रवाल, आदि तो थे व अवसर अनुकूल आमंत्रितों में स्वयं प्रकाशजी, गोबिन्द मिश्र, डा. बशीर बद्र, डा. ज्ञान चतुर्वेदी, अंजनी चौहान, श्रीकांत आप्टे, मुकेश वर्मा,बनाफर चन्द्र आदि आदि भी होते थे। बाद में व्यापक स्तर तक चलने वाले स्पन्दन पुरस्कारों की श्रंखला का विचार भी इसी ग्रुप के विचार-मंथन से निकला था। ढाकवाला दम्पत्ति बाहर से आने वाले प्रमुख व चर्चित साहित्यकारों की मेजबानी करने में प्रसन्नता महसूस करते थे। मैं स्थायी  आमंत्रित था इसलिए मुझे अनेक ऐसे लोगों से निजी तौर पर मिलने का मौका मिला जिनसे मैं इतनी निकटता से अन्यथा नहीं मिल पाता। इसी मिलन में हम लोग जन्मदिन मनाने की कोशिश भी करते थे और स्वयं प्रकाश जी का साठवां जन्मदिन भी मनाया था जिसमें उनसे कुछ बेहतरीन कहानियां सुनी थीं। इस अवसर पर एक रोचक प्रसंग यह हुआ कि जब वे बाहर जूते उतारने लगे तो मौसम को देखते हुए मैंने कहा कि पहिने आइए, आजकल तो सभी घरों में चलते हैं। स्वयं प्रकाशजी ने कहा कि तुम व्यंग्यकार लोग किसी को नहीं छोड़ते, कि तभी जब्बार ने कहा कि तुम्हें कैसे पता कि आज मेरा और तन्नू जी [उनकी पत्नी] का झगड़ा हुआ है। उनका जन्मदिन ठहाकों से ही शुरू हुआ था। उनकी बेटी की शादी में लड़के वालों ने मैरिज गार्डन के बाहर बैनर लगवा दिया था ‘ भटनागर परिवार आपका स्वागत करता है ‘। मैंने मजाक में उनसे कहा कि मुझे पता नहीं था कि आप भटनागर हैं, तो वे धीरे से बोले कि मुझे भी खुद पता नहीं था। फिर इतने जोर से ठहाका लगा कि आसपास लोग देखने लगे।
वे जितने बड़े लेखक थे उतने ही सादगीपसन्द और विनम्र थे। मुझे दूर दूर तक हुये अपने बार बार ट्रांसफरों के कारण अनेक लेखकों से मिलने का मौका मिला है जो अधिक से अधिक समय अपने बारे में ही बात करना पसन्द करते हैं या अपनी बातचीत में वे बार बार ‘सुन्दर वेषभूषा’ में उपस्थित हो जाते हैं। स्वयंप्रकाश जी को मैंने कभी अपने बारे में बात करते हुए या अनावश्यक रूप से खुद को केन्द्र में लाते नहीं देखा। एक बार एक स्थानीय पत्रिका के नामी सम्पादक ने जनसत्ता में प्रकाशित उनके एक लेख को बिना पूछे अपनी पत्रिका में छाप लिया। मैंने फोन करके उनसे जानकारी होने के बारे में पूछा तो उन्होंने इंकार कर दिया, बोले जनसता अकेला अखबार है जो अपनी प्रकाशित सामग्री पर कापीराइट रखता है और इस आशय का नोट अपनी प्रिंट लाइन में लिखता है। मैंने उन्हें पत्रिका का अंक उपलब्ध करवा दिया किंतु उन्होंने उन्हें फोन तक नहीं किया। दिल्ली के एक प्रकाशक मेरे घर आकर रुकते थे और चाहते थे कि मैं उन्हें भोपाल के लेखकों से मिलवाऊं। मैंने यह काम किया भी और अन्य लोगों के अलावा उन्हें स्वयंप्रकाश जी से भी मिलवाया था। मेरे अनुरोध पर उनको एक किताब भी देने का वादा किया था, बाद में उनके अनुभव उस प्रकाशक के बारे में अच्छे नहीं रहे। पर उस प्रकाशक से मेरे अनुभव भी कहाँ अच्छे रहे थे!
उनके उपन्यास ‘ईंधन’ पर मैंने पाठक मंच के लिए समीक्षा लिखी तो उसे लगे हाथ छपने के लिए भी भेज दी. जिसे लोकमत समाचार नागपुर ने तुरंत छाप दी, जो शायद पहली समीक्षा थी। कुछ दिनों बाद मिलने पर मैंने उनकी प्रतिक्रिया जानना चाही तो बोले अरे तुम्हारी समीक्षा थी, मैं तो दिल्ली वाले वीरेन्द्र जैन को पत्र लिखने वाला था। उनकी बीमारी की खबर जब कुछ देर से मुझे मिली तो मैंने  फोन कर पूछा, किंतु उन्होंने कहा कि मैं बिल्कुल ठीक हूं, कोई बात नहीं। बात बदल कर वे दूसरी बातें करते रहे। जबकि सच यह था कि उन्हें ऐसी बीमारी थी जो आम लोगों को होने वाली सामान्य बीमारी से बिल्कुल अलग थी। उनका हीमोग्लोबिन खतरनाक रूप से बढ जाता था। डायलिसिस के अलावा डाक्टरों के पास कोई इलाज नहीं था।
 पिछले दिनों जब उन्हें म.प्र. सरकार का शिखर सम्मान घोषित हुआ था तब मुँह से बेशाख्ता निकला था- बहुत सही फैसला। वैसे पुरस्कार/ सम्मान  उन्हें पहले भी बहुत मिल चुके थे जिनमें से कोई भी उनके पाठकों द्वारा उनकी कहानियों, उपन्यासों की बेपनाह पसन्दगी से बड़ा नहीं था। आमजन की कहानियों को उन्हीं की भाषा में कहते हुए भी वे जिस विषय को उठाते थे उसमें ताजगी होती थी, वह अभूतपूर्व होता था। कथा इस तरह से आगे बढती थी जैसे वीडियोग्राफी की जा रही हो, बनावट बुनाहट बिल्कुल भी न हो। उनके कथानकों में झंडे बैनर नारे कहीं नहीं दिखते थे पर फिर भी वे वह बात कह जाते थे जिसे दूसरे अनेक लेखक उक्त प्रतीकों के बिना नहीं कह पाते।
विभिन्न सामाजिक विषयों पर लिखे गये उनके लेखों का संग्रह ‘रंगशाला में दोपहर’ को पढने के बाद मैंने भी अपने बिखरे बिखरे विचारों को लेखबद्ध किया जो विभिन्न समय पर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुये, अन्यथा वे केवल निजी बातचीत का विषय होकर रह जाते। उनकी अलग अलग कहानियों के गुणों पर बहुत सारी बातें की जा सकती हैं, पर अभी नहीं।
उन्हें पूरे दिल से श्रद्धांजलि। उनका साथ, उनकी कहानियां व उनके पात्र जीवन भर साथ रहेंगे।
वीरेन्द्र जैन
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