शनिवार, अगस्त 24, 2013

शर्म इनको मगर नहीं आती

शर्म इनको मगर नहीं आती
वीरेन्द्र जैन

       कहा जाता है कि हमारे देश में अधिकांश आत्महत्याएं सामाजिक सम्मान के घटने या घटने के भय से की जाती हैं। यह सामाजिक सम्मान हमारी मूलभूत आवश्यकताओं के समानांतर अनिवार्यता की सूची में आता है। जो लोग अपने स्वार्थों के समक्ष सामाजिक सम्मान का ध्यान नहीं रखते उन्हें बेशर्म कहा जाता है। एक कहावत में ऐसे लोगों की निन्दा यह कह कर की गयी है- सौ सौ जूते खांय तमाशा घुस के देखेंगे।
       भारतीय जनता पार्टी भले ही लोगों को उकसाने के लिए बार बार राष्ट्रीय स्वाभिमान, सांस्कृतिक स्वाभिमान आदि की बातें करती रहती हो किंतु अपने स्वार्थों के लिए बंगारुओं, येदुरप्पाओं की यह पार्टी अपने स्वाभिमान और लोक लाज की जरा भी परवाह नहीं करती। बंगारू को नरेन्द्र मोदी हैदराबाद की आमसभा में मंच पर सादर स्थान देते हैं और येदुरप्पा को पार्टी में वापिस लाने के लिए उनके निहोरे किये जा रहे हैं। भाजपा में प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के रूप में उछाले जा रहे नरेन्द्र मोदी को अमेरिका ने वीजा देने से इंकार करके उनके बारे में अपना मूल्यांकन बता दिया था पर इसके बाद भी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान उनको वीजा दिये जाने के लिए प्रयास किया था जिसे स्वीकार नहीं किया गया। उन्होंने यह अपेक्षा उन कारणों को दूर किये बिना और उन गलतियों के प्रति प्रायश्चित किये बिना ही की थी जिनके कारण उन्हें वीजा से वंचित किया गया था। पिछले दिनों ब्रिटिश उच्चायुक्त और मोदी की भेंट हुयी थी जिसे भाजपा की ओर से इस तरह प्रचारित किया गया था जैसे सारे पश्चिमी देशों ने उन्हें अच्छे चरित्र का प्रमाण पत्र दे दिया हो। अब ऐसे प्रचार से उपज रही गलतफहमियों को दूर करने के लिए उच्चायुक्त जेम्स बेवेन ने जमिया मिलिया विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम के दौरान स्पष्ट किया है कि नरेन्द्र मोदी से बातचीत का  मतलब उनका समर्थन करना नहीं है। उन्होंने कहा कि हमें भी मानवाधिकार उल्लंघन पर चिंताएं हैं। गुजरात दंगों में हमारे भी तीन नागरिक मारे गये थे और हम भी उनके लिए मुकदमा एवं न्याय चाहते हैं। उन्होंने साफ किया कि ब्रिटिश सरकार की ओर से नरेन्द्र मोदी को ब्रिटेन आने का न्योता नहीं दिया गया है।
       अमिताभ बच्चन गुजरात पर्यटन के ब्रांड एम्बेसडर बनाये गये हैं और वे अपनी लोकप्रियता के सहारे गुजरात के पर्यटन स्थलों और सांस्कृतिक मेलों के लिए पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए अनुबन्धित हैं। पिछले दिनों यू ट्यूब पर जारी किये गये एक फर्जी वीडियो पर अपनी गहरी नाराजी प्रकट की और इसे अपलोड करने वाले के खिलाफ वैधानिक कार्यवाही की चेतावनी दी है। वे इस वीडियो के माध्यम से नरेन्द्र मोदी को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में समर्थन करते हुए दिखते हैं। 70 वर्षीय इस वयोवृद्ध कलाकार ने 2007 में ‘लीड इंडिया’ नामक एक अभियान के लिए अपनी आवाज दी थी जिसका बड़ी चालाकी से स्तेमाल करते हुए मोदी का समर्थन करने वाला वीडियो बना लिया है। इस वरिष्ठ कलाकार ने अपने ब्लाग के अलावा ट्विटर पर भी इस फर्जीवाड़े की सूचना दी है। सवाल उठता है कि गुजरात में ब्रान्ड एम्बेसडर की जिम्मेवारियां स्वीकार करने के बाद भी इस बुजुर्ग को मोदी के प्रचार से जुड़ना अपमानजनक क्यों लगता है?  
       गुलशन नन्दा की तरह अपने अंग्रेजी उपन्यासों के लिए लोकप्रिय युवा लेखक चेतन भगत को कुछ व्यावसायिक अखबार स्तम्भकार के रूप में छापते हैं जिनमें वे लगातार मोदी के पक्ष में युवाओं के बीच प्रचार सा करते रहे थे पर गत दिनों उन्होंने भी मोदी की अपने विरोधियों के खिलाफ लगातार आक्रमकता को एक नकारात्मक गुण के रूप में पहचानते हुए सवाल उठाया है कि वे अपने सकारात्मक पक्ष को सामने लेकर क्यों नहीं आते!  क्या उन्हें भी अपना सकारात्मक पक्ष नकली, अधूरा, या ऐसा लगता है जिसमें उनका कोई योगदान नहीं है।
       स्मरणीय है कि कई वर्ष पहले देश के बुजुर्ग स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने अनुपम खेर को संघ का पक्षधर कह दिया था तो इस बेहतरीन कलाकार को इतना बुरा लगा था कि उन्होंने इस वरिष्ठ राष्ट्रीय नेता के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज़ कर दिया था। देश के सर्वाधिक सम्मानीय बुद्धिजीवियों को संघ से जुड़ा होना बताया जाना एक गाली की तरह लगता है पर इसके नेताओं को यह विचार करने की जरूरत महसूस नहीं होती कि स्वय़ं को एक सांस्कृतिक संगठन बताने वाले इस संगठन से देश के सांस्कृतिक कर्मी क्यों दूर रहते हैं। जिन फिल्मी कलाकारों को राज्यसभा आदि में भेजने का लालच देकर ये जोड़ भी लेते हैं उनमें से ज्यादातर इनकी चुनावी सभाओं तक में जाने का मेहनताना वसूलते हैं, या धर्मेन्द्र की तरह अफसोस करते हुए कहते हैं कि इस संगठन ने मुझे बहुत इमोशनली ब्लेकमेल किया।
        औद्योगिक विकास के नाम पर नवधनाड्य वर्ग के नवशिक्षित आधुनिक युवाओं को आकर्षित करने के लिए वे जो प्रयास कर रहे हैं उसको चौरासी कोस की परिक्रमा के बहाने दंगों की भूमिका तैयार करना पसन्द नहीं आ सकता। निकट भविष्य में दोनों में से कोई एक रास्ता पकड़ना होगा जिनमें से कोई अकेला रास्ता मंजिल तक नहीं जाता।
............और दो नावों पर पैर रखने वालों का परिणाम तो सबको पता ही है।       
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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मंगलवार, अगस्त 20, 2013

नये कम्पनी कानून के प्रावधान और सामाजिक ज़िम्मेवारियां

नये कम्पनी कानून के प्रावधान और सामाजिक ज़िम्मेवारियां

वीरेन्द्र जैन
      कंपनी अधिनियम 1956 को बदलकर एक नया कंपनी कानून बनाने की कवायद पिछले लगभग दो दशकों से चल रही थी। पिछले 8 अगस्त को राज्य सभा द्वारा कंपनी विधेयक को पारित करने के बाद कंपनी अधिनियम 2013 का रास्ता साफ हो गया है। अन्य महत्वपूर्ण बातों के अलावा इसमें कुल लाभ का दो प्रतिशत सामाजिक दायित्वों के लिए व्यय करने की अनिवार्यता का प्रावधान भी है।
      अभी तक सामाजिक दायित्व दूसरों पर डालने को कानून के दायरे में नहीं रखा गया था क्योंकि इसे सरकार का काम माना जाता था जो जनता से वसूले गये कर से उसका निर्वहन करती थी। सामाजिक संगठन अपनी मर्जी से कुछ समाज हितैषी काम करते थे उसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता था। आयकर की धारा 80 जी के अंतर्गत कुछ चयनित सामाजिक संगठनों को दिये गये दान में कुछ छूट देती थी पर उनके द्वारा किये बताये गये कार्यों का कोई निरीक्षण नहीं करवाती थी जिसके परिणाम स्वरूप कुछ धार्मिक संगठन काले धन को सफेद बनाने के लिए इस सुविधा का लाभ लेते रहे हैं। एक टीवी चैनल द्वारा इस मनी लांड्रिंग को उजागर करने के लिए स्टिंग आपरेशन किया गया था पर बाबाओं, साधुओं के भेष में रहने वाले इन आर्थिक अपराधियों पर किसी कार्यवाही की खबर नहीं है। इसलिए जरूरी हो जाता है कि सामाजिक दायित्वों के लिए किये गये इस प्रावधान के बारे में स्पष्ट दिशा निर्देश ही नहीं हों अपितु उनका सही अनुपालन सुनिश्चित किये जाने के लिए उन पर नियंत्रण की व्यवस्था भी हो।
      हमारा समाज अर्धसामंतवादी अर्धपूंजीवादी समाज है। इसका परिणाम यह है कि पूंजीवाद में जो प्रगतिशीलता होती है उसे सामन्ती सोच निष्क्रिय कर देती है। आज़ादी के बाद देश के पहले दस पूंजीपतियों ने चेरिटी [परोपकार] के नाम पर अनाप शनाप धर्मस्थलों का निर्माण करवाया। आज देश भर के राज्यों की राजधानियों और महानगरों में बिड़ला मन्दिर विधानसभाओं के समानांतर मिल जायेंगे। पिछले दिनों दिवंगत बाबा जयगुरुदेव से लेकर सत्य सांई बाबा तक की अटूट सम्पत्ति सामने आयी है जिसकी विरासत पर उठे मतभेद भी बताते हैं कि उसके संग्रह के पीछे कोई साफ सुथरा स्पष्ट लक्ष्य नहीं था। अगर उसमें से कहीं स्कूल अस्पताल आदि का दिखावा भी किया गया था तो वह भी कुल आय के एक प्रतिशत के बराबर भी नहीं था। समाज में उच्च और मध्यम वर्ग के पास जो सरप्लस [अतिरेक] पैदा होता है उसका बड़ा हिस्सा सामंतवादी मूल्यों से प्रभावित समाज में धार्मिक चेरिटी की ओर चला जाता है। इसका दोहन करने के लिए न केवल परम्परागत विश्वासों को नया रंग रोगन दिया जा रहा है अपितु नयी नयी तकनीक का सहारा लेकर नये नये असंख्य धार्मिक नेता पैदा हो रहे हैं। विडम्बना यह है कि परम्परागत विश्वासों के सहारे धन निकालने वाले ये लोग खुद पूंजीवादी मूल्यों में भरोसा करते हैं और उसी के हथकण्डे अपनाते हुए धन संग्रह करते हैं और उसका निवेश करते हैं। उपरोक्त धर्म गुरुओं के निधन के बाद जो विवाद पैदा हुए उससे इस सत्य का पता चला कि इस संग्रीहत धन को व्यय करने की ना तो कोई घोषित योजना उनके पास होती है और न ही उनके इस संग्रह की कोई पारदर्शिता होती है। धार्मिक स्थलों तक में जब बड़े बड़े हादसे हो जाते हैं तब भी इस संस्थानों से एक पैसे की भी सहायता पीड़ितों को नहीं मिलती और ना ही तीर्थों के पुनुरोद्धार और धार्मिक उत्सवों के लिए कोई धन दिया जाता है। धार्मिक आश्रमों में ऐसे जमा धन के कारण आये दिन चोरियां, गबन से लेकर हत्याएं तक हो रही हैं। पिछले दिनों से दक्षिण के एक शंकराचार्य पर ऐसा ही हत्या का मुकदमा दर्ज़ है जिस पर फैसले को निरंतर विलम्बित कराने की कोशिश चल रही है।
      कार्पोरेट कम्पनियों और स्वैच्छिक संगठनों के बीच पुल का काम करने वाला एक संगठन है जिसका नाम ‘दसरा’ है। गत दिनों गत दिनों मुम्बई के ताज होटल में एक तीन दिवसीय कार्यशाला सम्पन्न हुयी थी। ‘दसरा’ के निर्देशक मानस राठा के अनुसार देश में वैसे तो तीन लाख तीस हजार पंजीकृत स्वयंसेवी संगठन हैं जिसमें से लगभग दो हजार पेशेवर ढंग से सार्थक काम कर रहे हैं। इनमें से 40 संगठनों को पिछले चार साल में कार्पोरेट घरानों ने कुल एकसौ दस करोड़ रुपयों की मदद की है। इसके समानांतर 2013 में धार्मिक संस्थानों को दिये गये कुछ ऐसे दानों को देखें जो किसी तरह समाचारों में आ गये तो अंतर पता चलता है।
7/1/13-- शिर्डी साईं बाबा संस्थान के उपकार्यकारी अधिकारी यशवंत माने ने बताया कि संस्थान को दस दिन में 13 करोड़ का दान चढावे में मिला है।
11/2/13 – नागपट्टनम। भगवान अमिर्थकडेवर के मन्दिर में देवी अबिरामी को पाँच करोड़ रुपये कीमत की नवरत्न अंगिया पहनायी गयी है।
22/6/13—दिल्ली के एक अनाम पेशेवर ने मुगलकालीन सोने के सिक्कों की माला चढाई जिसकी कीमत सोलह लाख रुपये है।
11/7/13—कोलकाता- चैतन्य महाप्रभु की जन्मस्थली मायापुर में विश्व का सबसे बड़ा मन्दिर तैयार हो रहा है जो पाँच लाख वर्गफीट में फैला होगा। इस्कान के इस मन्दिर की लागत लगभग पाँच सौ करोड़ आयेगी। इसके लिए आटोमोबाइल कम्पनी फोर्ड के संस्थापक के प्रपौत्र एलफर्ड फोर्ड डोन ने सौ करोड़ रुपये दान दिये हैं।
28/7/13—अम्बाजी। गुजरात के इस प्रसिद्ध तीर्थ में अहमदाबाद के एक श्रद्धालु ने पाँच किलो सोना दान दिया। अभी तक इस मन्दिर को अड़तीस किलो सोना दान में मिल चुका है।
      इसके विपरीत मध्यप्रदेश की सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत 2007 में ‘फंड ए स्कूल’ योजना शुरू की थी जिसके अनुसार पूंजीपति सरकारी स्कूलों के विकास के लिए दान कर सकते थे लेकिन योजना शुरू होने के बाद से अब तक प्रदेश के किसी पूंजीपति ने इसमें रुचि नहीं ली जबकि इसमें आयकर की धारा 80 बी के अंतर्गत आयकर में पाँच प्रतिशत छूट का प्रावधान भी है। योजना में आयकर लाभ लेते हुए न्यूनतम पचास हजार से लेकर दसलाख तक का दान दिया जा सकता था। इसलिए अगर सरकार अपनी ज़िम्मेवारियों से बच कर कम्पनी कानून के द्वारा लाभ का दो प्रतिशत सामाजिक दायित्वों के लिए उद्योगपतियों को सौंप रही है तो उसे उसका क्षेत्र भी निर्धारित करना चाहिए ताकि उसका सही स्तेमाल हो और जिसका लाभ समाज के सभी वर्गों को किसी जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि के भेदभाव के बिना मिल सके। 
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, अगस्त 18, 2013

चुनावों में जाति के नाम पर भटकाव कब तक ?

चुनावों में जाति के नाम पर भटकाव कब तक ?
वीरेन्द्र जैन
       हमारे स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नायकों में से एक सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था- तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा। यह कर्म और प्रतिफल का सिद्धांत दर्शाता है।
       किसी भी त्याग की अपेक्षा के लिए कुछ लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं। लोग धर्मिक सलाहों पर दान देते समय भी कल्पित सुखदायी स्वर्ग में अपना स्थान सुरक्षित होने की संभावनाओं से प्रभावित रहते हैं। किंतु चुनावों में जातिवाद पर अधारित समर्थन एक निरर्थक भटकाव के अलावा कुछ भी नहीं है।
       बहुलताओं से भरे हमारे देश के लोकतंत्रातिक विकास में जो प्रमुख बाधाएं सामने आ रही हैं उनमें साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रीयता, भाषावाद, आदि प्रमुख हैं, जिनके सहारे चन्द नेता एक पहचान देने के भ्रम में जनता से अन्ध समर्थन हथिया लेते हैं और अवसर पाकर उस समर्थन से प्राप्त ताकत का सौदा जनविरोधी शक्तियों के साथ कर लेते हैं। देश के कुछ प्रमुख राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, राजस्थान, आदि चुनावों में जातिवाद की बीमारी से इस तरह ग्रसित हैं कि कई राज्यों में देश के प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दल, हाशिये पर आ गये हैं। उल्लेखनीय है कि अपनी जाति के व्यक्ति को सरकार के प्रमुख पद पर देखने के झूठे आत्म गौरव के अलावा जातिवाद से प्रभावित इन मतदाताओं को कोई हित नहीं हुआ है। सच तो यह है कि सभी नागरिकों को एक समान मानने वाले संविधान के अनुसार उन्हें अपनी जाति के नेता के पदासीन होने पर विशिष्ट लाभ मिल भी नहीं सकता है। पर विडम्बना है कि जातिवाद से भ्रमित मतदाताओं के बड़े वर्ग को अब तक यह सच्चाई समझ में नहीं आ रही है, और स्वार्थी राजनेता उन्हें समझने भी नहीं देना चाहते। रोटी, रोजगार, मकान, स्वास्थ, शिक्षा, सद्भाव, , सड़क, सफाई, बिजली, पानी, व निर्धनता उन्मूलन आदि जीवन से जुड़ी समस्याओं और उसके स्तर को सुधारने हेतु सच्चा संघर्ष करने वालों की तुलना में अपनी जाति का उम्मीदवार प्राथमिकता पा जाता है।
              उल्लेखनीय है कि बहुजन समाज पार्टी ने दलितों के एक खास वर्ग को जाति के आधार पर प्रभावित किया हुआ है और उस जाति का अन्धसमर्थन ही उनका मूल आधार है, किंतु राज्यसभा में चुन कर भेजने के मामले में उन्होंने आम तौर पर अपनी समर्थक जाति को आधार नहीं बनाया और सम्पन्न तथा सवर्णों को अपने वोट देकर भरपूर सौदा किया। जब जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं, उस काल में दलितों की दशा में ना तो आर्थिक और ना ही सामाजिक दशा में कोई अंतर आया। दलित जातियों को आरक्षण से मिलने वाले लाभ भी वैसे ही मिले जैसे कि किसी भी अन्य सरकार में मिलते रहे हैं। मुलायम सिंह ने अपने कार्यकाल में अपनी जाति से मिले चुनावी समर्थन का लाभ ठाकुर अमर सिंह और उनके माध्यम से देश के चुनिन्दा उद्योगपतियों को ही पहुँचाया। यादव जाति के अन्ध समर्थन से चुनाव जीते मुलायम सिंह ने ही, श्रीमती जया बच्चन और अनिल अम्बानी जैसे लोगों को राज्यसभा में भेजा, व अमिताभ बच्चन को उत्तर प्रदेश का ब्रान्ड एम्बेसडर बनाया जो अब नरेन्द्र मोदी के गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर बने हुए हैं व अब उनके समर्थक बनते जा रहे हैं । कर्नाटक में जातिगत वोटों के आधार पर चुने हुए विधायकों ने अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता को दरकिनार करते हुए विजय माल्या जैसे उद्योगपतियों को राज्यसभा में पहुँचाया है। गत दिनों हरियाना के एक नेता ने राज्यसभा में पहुँचने की कीमतों का खुलासा करते हुए उन अफवाहों की लगभग पुष्टि ही कर दी है जो हर बार हवाओं में तैरती रहती थीं। गत दिनों झारखण्ड में भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष के प्रिय राज्य सभा उम्मीदवार के चुनाव में लगने वाला धन चुनाव पूर्व ही पकड़ा जा चुका है, और उस कारण चुनाव को स्थगित करना पड़ा था। यह बहुत स्पष्ट है कि राज्यसभा या किसी दूसरे अपरोक्ष चुनाव में चुने जाने वाले सम्पत्तिशाली उद्योगपतियों, व्यापारियों, की भरमार क्यों और कैसे होती जा रही है। इसके साथ यह भी तय है कि इन सौदों में बिकने वाले लोगों में वे ही लोग अधिक होते हैं जो बिना किसी राजनीतिक आधार के जातिवाद जैसे हथकण्डों के सहारे चुने गये होते हैं।
       बहुजनसमाज पार्टी के तरीके से प्रभावित होकर उसी पार्टी में से अनेक उप दल पैदा हो गये हैं, इसमें से निकले नेताओं ने बंसोड़ों, कुशवाहाओं, कुर्मियों, पासवानों, आदिवासियों आदि के वैसे ही जातिवादी दल बना लिये हैं और  जातिवाद उभार कर उससे मिले समर्थन के चुनाव पूर्व सौदे भी करने लगे हैं। ये दल वोट काटने का काम करते हैं। चुनावों से पूर्व ये जगह जगह जातिवादी रैलियां करके अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर सौदों का आधार तैयार करते हैं। जहाँ दो प्रमुख दलों के बीच सीधा चुनाव होता है वहाँ वे दल अपने सुरक्षित वोटों से इतर वोटों को अपने विरोधी के पक्ष में जाने से बचाने के लिए ऐसे जातिवादी दलों को चुनाव लड़ने के लिए आर्थिक मदद करते हैं। आर्थिक रूप से कमजोर जातियों के इन नेताओं के पास उपलब्ध संसाधन चमत्कृत करते हैं, पर जातिवाद के नाम पर बहका हुआ मतदाता इस पर विचार ही नहीं करता। 
       जातियों व क्षेत्रीयता के इस अन्धत्व में राजनीतिक विचार गुम हो जाते हैं जो कुछ राजनीतिक दलों के विचार के प्रति प्रतिबद्धता की कलई खोलते हैं। स्मरणीय है कि जब कांग्रेस ने ज्ञानी जैल सिंह को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार घोषित किया था तब उनका समर्थन करने के लिए कांग्रेस का घोर विरोधी अकाली दल साथ आ गया था व श्रीमती प्रतिभा पाटिल के समर्थन में एनडीए का सबसे महत्वपूर्ण घटक शिवसेना अपने गठबन्धन को तोड़कर आगे आ गया था। ऐसा क्षेत्रीयतावाद भी जातिवाद का दूसरा रूप है।   
       दलितों और पिछड़ों के साथ होते रहे सामाजिक भेदभाव के कारण उन्हें प्रतिशोध में शासक वर्ग में शामिल होना एक क्षणिक मानसिक संतोष दे सकता है किंतु पिछले दिनों, ब्राम्हणों, वैश्यों और ठाकुरों के भी जातिवादी सम्मेलन होने लगे हैं जिनमें राजनीतिक विचारों से परे अपनी जाति के व्यक्ति को टिकिट देने का दबाव सभी राजनीतिक दलों पर डाला जाने लगा है। इन सम्मेलनों में यह घोषणा की जाती है कि उनकी जाति का समर्थन उसी दल को मिलेगा जो उनकी जाति के लोगों को संबसे ज्यादा टिकिट देगा। रोचक यह है कि कोई इस बात की चर्चा नहीं करता कि जब जब जिस जाति का व्यक्ति पद पर रहा है तो उस जाति के लोगों का क्या भला हुआ? किसी भी जातिवादी नेता के पास जातिविशेष के विशिष्ट उत्थान की कोई योजना नहीं होती।
       खेद है कि आज़ादी के 66 साल बाद भी राष्ट्रीय राजनीतिक दल इस बीमारी को रोकने का कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं अपितु उसी के बीच से अपने लिए रास्ता निकालने की कोशिश कर रहे हैं।                  
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, अगस्त 09, 2013

पुस्तक समीक्षा -- झोले से झांकती हरी पत्ती

पुस्तक समीक्षा
झोले से झांकती हरी पत्ती- नरेन्द्र गौड़ का कविता संग्रह
वीरेन्द्र जैन

मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी से रामविलास शर्मा पुरस्कार प्राप्त काव्य संग्रह ‘गुल्लक’ के बाद नरेन्द्र गौड़ का दूसरा कविता संग्रह ‘इतनी तो है जगह’ के नाम से आया था। ‘झोले से झांकती हरी पत्ती’ उनका तीसरा कविता संग्रह है। कई समाचार पत्रों के साहित्य सम्पादक होने के अनुभवों से सम्पन्न नरेन्द्र गौड़ की रचनाएं 1969 से ही देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। उन्होंने कविताओं के अलावा संगीत पर भी आलेख लिखे हैं।
इस कविता संग्रह में उनकी चालीस कविताएं संकलित हैं। ये कविताएं अपने आस पास के दृष्य उकेरती हैं और अपने समय के साथ टकराती हुयी लगती हैं। बहुत सारी कविताओं वे अपने ज़िये स्थानों, व्यक्तियों, और वस्तुओं को याद करते हुए गलत दिशा में हो रहे परिवर्तनों को रेखांकित करते हैं। ‘माँ का सन्दूक’ नामक कविता में वे लिखते हैं-
मायके जाते-आते समय
खो न जाएं इस भय से
पिता लिख गये थे आइल पेंट से
टेड़े मेड़े अक्षरों में
सन्दूक पर माँ का नाम
और माँ के नहीं रहने पर इसी सन्दूक में से जो वस्तुएं निकलती हैं उनमें से वह कुछ नहीं मिलता जिसकी तलाश आज की पीढी को रहती है, क्योंकि-
ठुस्सी, बिछिया, करधन झूमर
अँगूठी, मंगल सूत्र तक गिरवी रखे गये
तुम लोगों [बच्चों] की पढाई लिखाई में ..
...... पल्लू पकड़ मचलने, रूठने, पैर पटकने की
हमारी ढेरों ज़िदें माँ के सन्दूक में मिलीं
आँसुओं के समुन्दर में डूबे सन्दूक में
माँ की आँखें मिलीं
इसी तरह  ‘सबसे छोटी थी मैं’ कविता में घर की सबसे छोटी लड़की सबको बड़ा होने और बनने को याद करते हुए उनके ‘तितर बितर’ होने तक की गवाह है, जिसकी उपलब्धि केवल अनगिनित चोट के निशान हैं। ‘बहुत छोटी सी खुशी’ में बचपन की सखी के सब्जी मंडी में मिलने पर यादों का कौंधना है जिसकी प्रतीति उसके साथ खरीदी मूली के की झोले के बाहर से झाँकती हरी पत्ती कराती है, जो खुशी की तरह बाहर फूट रही है। ‘शहर से दूर पुलिया’ में नगरों के काफी हाउसों या क्लबों की तरह कस्बों की पुलियाओं का जो महत्व है, उसे याद किया गया है। गाँवों, कस्बों के आस पास ऐसी असंख्य पुलियाएं हजारों स्मृतियों की गवाह बनी हुयी हैं।
व्यतीत स्मरण [नास्टेलजिया] के रूप में अपने पुराने मित्रों को सम्बोधित करते हुए कई कविताएं हैं जिनमें राम प्रकाश त्रिपाठी, भगवत रावत, विष्णु नागर, चन्द्रकांत देवताले, रतन चौहान, नवीन सागर, आदि साहित्यकार मित्रों को बहुत भावुकता से याद किया गया है। इनके अलावा वे मांगूड़ी की बाई, कबूड़ी बाई, और कस्बे की महादेवी, को कविता के विषय बनाते हैं। लोकप्रिय और बहुचर्चित व्यक्तियों [सेलिब्रिटीज] को भी वे कविता में लाते हैं और उनके बहाने अपने समय की विसंगतियों को उकेरते हैं। ‘अमिताभ नहीं होकर ठीक किया मैंने’ ‘मधुबाला [बीस कविताएं]’, ‘बराक ओबामा से मेरी मुलाकात’, ‘योगाभ्यास[बाबा रामदेव]’, आदि कविताओं के द्वारा वे सेलिब्रिटीज के पीछे अन्धे होकार भागने वालों को थोड़ा वैचारिक होने के लिए झकझोरते हैं।
आम आदमी के रूखे सूखे जीवन में खुशियां कैसे कभी कभी, गाहे-बगाहे, कौंध जाती हैं इसकी झलक  ‘झोले से झाँकती हरी पत्ती’ में बचपन की सखी के अचानक सब्जी मंडी में मिलने से मिलती है, या किसी मधुर कंठी का किसी कांता प्रसाद के नाम आये गलत काल से मिलती है। कभी कभी थोड़ी देर को खुशी करोड़पति बन जाने के सपने से भी मिल जाती है, या बरसात में जींस पहिन कर जाने की मजबूरी में हम उम्र मित्रों से मिली ईर्षा जगाती प्रतिक्रिया से मिल जाती है।
आदमी इस दौर में निरंतर भयग्रस्त होते जाने को विवश हो गया है क्योंकि हादसों पर हादसों ने उसे भौंचक्का कर दिया है-
लावारिस वस्तुओं से सावधान
इन दिनों इतना अधिक प्रचारित है
कि पहले जहाँ आदमी को आदमी पर शक था
अब वस्तुएं भी शक के दायरे में शुमार हैं
सहयात्री मेरी तरफ समोसा बढाता है
फ़िर यह कहते हुए मठरी कि उसकी
माँ के हाथ की बनी है
मैं लेने से मना कर देता हूँ
कितना बुरा ज़माना है
समोसे मठरी बराबर भी नहीं रहा
आदमी का आदमी पर विश्वास
कई कविताओं में अपने समय के कवियों के चरित्रों, संस्थाओं, पुरस्कारों आदि में आयी गिरावट पर असंतोष व्यक्त करती हुयी अनेक कविताओं के साथ यह संग्रह खट्टे मीठे संस्मरणों में ले जाने में सक्षम है।
वीरेन्द्र जैन
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छद्म की राजनीति करने वाले संघ परिवारी ही क्यों होते हैं

छद्म की राजनीति करने वाले संघ परिवारी ही क्यों होते हैं
वीरेन्द्र जैन

       जब से नरेन्द्र मोदी को भाजपा चुनाव प्रचार का चेयरमैन बनाया गया है और भाजपा की ओर से उन्हें प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाये जाने की अफवाहों से पक्ष विपक्ष में तीखी प्रतिक्रियाएं हुयी हैं, तब से सोशल मीडिया पर नरेन्द्र मोदी समर्थक पोस्टों की बाढ ला दी गयी है, जिनके द्वारा नरेन्द्र मोदी को शक्तिमान की तरह चित्रित किया जा रहा है, व उनके विरोधियों के लिए निम्नतम स्तर पर गालियां दी जा रही हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर झूठ बोलने और अफवाहें फैलाने की स्वच्छन्दता चाहने वाले इन इंटरनेट उपयोगकर्ताओं के सभी एकाउंट असली नहीं हैं, क्योंकि सोशल मीडिया पर कई छद्म नामों से एक से अधिक एकाउंट खोलने पर कोई पाबन्दी नहीं है। उल्लेखनीय है कि गुजरात के गत विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने ट्विटर पर नकली फालोअर बनवा कर भ्रम का वातावरण बनाया था पर लन्दन की एक कम्पनी ने ट्विटर के आंकड़ों का पर्दाफाश करते हुए यह गड़बड़ी पकड़ी थी और बताया था कि दस लाख फालोअर्स का दावा करने वाली उक्त साइट के आधे से अधिक फालोअर्स नकली हैं। यही हाल टाइम पत्रिका के मुखपृष्ठ पर मोदी के आने और कवर स्टोरी छपने का था।
       यह इस बात का संकेत है कि किसी माल को विक्रय योग्य बनाने में उपयोग लायी जाने वाली विधि की तरह मोदी की लोकप्रियता की छवि गढी जा रही है। अमिताभ बच्चन कभी नेहरू परिवार के निकटतम लोगों में हुआ करते थे जिन्होंने कांग्रेस की ओर से हेमवती नन्दन बहुगुणा जैसे बड़े नेता के खिलाफ चुनाव लड़ अपनी फिल्मी लोकप्रियता की दम पर उन्हें हराया था वे ही बाद में मुलायम सिंह के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश के ब्रांड एम्बेसडर बने थे तथा जिनकी अभिनेत्री पत्नी अभी भी समाजवादी पार्टी की सांसद हैं, को गुजरात सरकार के पर्यटन विभाग ने अपना ब्रांड एम्बेसडर नियुक्त किया हुआ है जो परोक्ष में गुजरात के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम मुख्यमंत्री की छवि को अमिताभ की लोकप्रियता के साथ मिला कर बदलने का ही खेल है, जिसमें अमिताभ की पिछली रजनीतिक सम्बद्धताओं को भी भुला दिया गया है। जिनका चरित्र जितना गँदला रहता है उन्हें छवि सुधारने की उतनी ही कोशिश करनी पड़ती है। जिसका कद जितना छोटा होता है उसे उतनी ही ऊंची ऎड़ी के जूते पहिनने पड़ते हैं। मोदी का यही प्रयोग चल रहा है।
       अतीत में रूस से मँगायी जादुई स्याही से लेकर एवीएम मशीन की गड़बड़ियों के आरोपों तक अपनी चुनावी हार के भाजपा सैकड़ों कपोल कल्पित कारण गिनाती रही है जबकि उसी चुनाव प्रक्रिया के अंतर्गत समय समय पर वे विधान सभा और लोक सभा में विजयी भी होते रहे हैं। जीत जाने पर उन्हें चुनाव प्रक्रिया में कोई दोष नज़र नहीं आता और वे उसे लोकतंत्र की जीत बतलाते हैं। जब उनके लोग सीबीआई और आयकर की जाँचों में फँसते हैं तब उन्हें ये संस्थाएं दोषपूर्ण व पक्षपाती नज़र आने लगती हैं। सीएजी की सम्भवनाओं को दर्शाने वाली अतिरंजित रिपोर्ट भी विपक्षियों के खिलाफ होने पर उन्हें विश्वसनीय लगती है किंतु उनकी अपनी सरकारों के खिलाफ होने पर गलत लगती है। यथार्थ से दूर सारे उजाले और अँधेरे उनकी सुविधानुसार किसी रंगमंचीय नाटक के प्रकाश व्यवस्था की तरह होते हैं।
       ये निर्मतियां भाजपा के हित में संघ परिवार के सारे संगठन करते हैं। कमंडल की राजनीति को कमजोर करने के लिए जब वी पी सिंह मंडल कमीशन की सिफारिशों को कार्यांवित किये जाने की योजना लेकर आये थे तब आत्मदाह की देशव्यापी खबरें फैलायी गयी थीं जिनमें से अधिकांश झूठी और अतिरंजित थीं जिन्हें प्रायोजित समाचार माध्यमों से फैलाया गया था। बाद में जब एक पत्रकार मणिमाला ने टाइम्स आफ इंडिया के लिए उन घटनाओं की फालोअप स्टोरी की थी तब सामने आया था कि उस दौरान देश में हुयी किसी भी युवा की आत्महत्या या अस्वाभाविक मृत्यु को आरक्षण के खिलाफ किये जाने वाले बलिदान में बदलवा दिया गया था। एक लड़की ने अपने प्रेमी की किसी दूसरी जगह सगाई होने पर जहर खा लिया था, तो एक लड़की के साथ चार लड़कों ने बलात्कार करके उसकी हत्या कर दी थी जिसे मंडल कमीशन के खिलाफ युवा आक्रोश बता दिया गया था। दिल्ली में तो एक दसवीं कक्षा के लड़के पर जबरदस्ती मिट्टी का तेल छिड़क कर जलाने की कोशिश हुयी थी, जो संयोग से बच गया था, और सच्चाई बयान कर गया था। दीपा मेहता जब हिन्दू विधवाओं की दारुण दशा को लेकर बनारस में ‘वाटर’ नामक फिल्म बना रही थीं तब विहिप के लोगों ने निर्माण के दौरान ही तीव्र विरोध किया था। इसी दौरान खबर आयी थी कि इस फिल्म के विरोध में एक व्यक्ति ने गंगा में कूद कर जान दे दी। इसका परिणाम यह हुआ था कि दीपा मेहता ने शूटिंग रद्द कर दी थी और फिल्म समेट ली थी। बाद में मृत बताया गया वही व्यक्ति अन्य शहर में देखा गया व उसने बताया कि इस तरह के स्टंट करना उसका पेशा है। बाद में दीपा मेहता ने उक्त फिल्म की शूटिंग श्रीलंका में करके फिल्म बनायी थी भले ही शबाना आज़मी उसके लिए समय नहीं दे सकी थीं। अंतर्राष्ट्रीय चित्रकार एमएफ हुसैन के चित्रों से देश में कुछ खास स्थानों के हिन्दुओं की भावनाएं आहत हुयी थीं और वहाँ वहाँ उन्होंने बजरंगदली व्याख्या करके इतने मुकदमे लदवा दिये थे कि दुनिया के श्रेष्ठ चित्रकारों में गिने जाने वाले इस कलाकार को देश छोड़कर जाना पड़ा और वहीं अपने प्राण त्यागे। हिन्दुस्तान के अंतिम बादशाह बहादुर शाह ज़फर की तरह उन्हें दो गज ज़मीन भी नसीब नहीं हुयी।
       हिंसक घटनाएं करने व अपना आतंक कायम करने का काम नक्सलवादी भी करते हैं किंतु वे इसे अपनी राजनीति बतलाते हैं और अपने द्वारा किये गये कामों की जिम्मेवारी लेते हुए खतरा उठाने को तैयार रहते हैं, किंतु दूसरे सम्प्रदाय के लोगों के नाम से बम विस्फोट करके साम्प्रदायिक दंगों का माहौल बनाने का काम करने के आरोप में ये कथित हिन्दुत्ववादी राजनीति के लोग ही पकड़े गये हैं, जो साधु साध्वियों के नकली भेष में रहते रहे हैं और अपने ही संगठन के लोगों की हत्या के लिए भी जिम्मेवार माने गये हैं। भाजपा के विभिन्न नेताओं के साथ इनकी निरंतर मुलाकातों के सचित्र प्रमाण भी उपलब्ध हैं।
       क्या कारण है कि सोशल मीडिया पर सबसे गन्दी भाषा में अपने विरोधियों पर टिप्पणी करने वाले मोदी समर्थक ही हैं। दिन भर में एक ही विषय पर ज्यादा से ज्यादा गाली गलौज़ भरी टिप्पणियां करके भी नेट पर अपना कम से कम परिचय देने और अपनी पहचान छुपाने वाले संघ समर्थक ही हैं, जो अपने को हिन्दुत्व समर्थक और राष्ट्रवादी बतलाते हैं पर यह छुपाते हैं कि वे राष्ट्र में कहाँ रहते हैं, या क्या काम करते हैं। नेट पर अगर छद्म एकाउंट्स की पहचान की जायेगी तो सबसे ज्यादा एकाउंट्स इन्हीं लोगों के निकलेंगे जो स्वयं को मोदी समर्थक बतला रहे हैं। इनका नकलीपन बतलाता है कि इन्हें भी अपने असली स्वरूप की सामाजिक स्वीकरोक्ति पर सन्देह है।          
 वीरेन्द्र जैन
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