शनिवार, अक्तूबर 15, 2011

अडवाणी-मोदी मतभेद का प्रचार कहीं पुरानी चाल तो नहीं

            अडवाणी-मोदी मतभेद का प्रचार कहीं पुरानी चाल तो नहीं
                                                            वीरेन्द्र जैन
      पिछले दिनों मीडिया द्वारा अगले प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा उम्मीदवार के लिए वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण अडवाणी और नरेन्द्र मोदी के बीच प्रतियोगिता होने की कहानियां बड़े जोर शोर से प्रचारित की जा रही हैं। इस प्रचार से प्रभावित होकर भाजपा की स्वस्थ समीक्षा करने वाला मीडिया भी उनकी पुरानी चाल में फँसता नजर आ रहा है। सच तो यह है कि संघ परिवार का भाजपा नामक राजनीतिक मोर्चा अच्छी तरह जानता है कि उसकी साम्प्रदायिक नीतियों के कारण भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग उन्हें पसन्द नहीं करता, पर वे इस बात को भी जानते हैं कि साम्प्रदायिक दुष्प्रचार से प्रभावित एक ऐसा वर्ग भी है जो आक्रामक हिन्दुत्व की छवि का प्रशंसक है और वही उनका आधार है। सत्ता में आने और गठबन्धन का नेतृत्व करने के लिए उसे दोनों तरह की शक्तियों को साधना जरूरी होता है इसलिए वे दुहरेपन के सबसे बड़े प्रतीक की तरह प्रस्तुत होते हैं।
      स्मरणीय है कि स्वतंत्रता के बाद जनसंघ के विस्तार के पूर्व हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व हिन्दू महासभा करती थी, जिसकी जगह ही धीरे धीरे जनसंघ ने हथिया ली थी जो न केवल हिन्दुत्व की ही बात करती थी अपितु उसके ऊपर देशभक्ति का एक मुखौटा भी लगा कर चलती थी। स्वत्रंता संग्राम के दौर में देश भक्ति के प्रति समाज में गहरा सम्मान था, पर इस संग्राम में संघ ने भाग नहीं लिया था इसलिए वे इसका मुखौटा लगाने की जरूरत महसूस करते थे व इस मुखौटे के कारण उनकी साम्प्रदायिक कुरूपता छुप जाती थी जो केवल साम्प्रदायिक दंगों के समय ही प्रकट होती थी। जब राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था तो उस नारे का सर्वाधिक उत्साह से स्वागत करने वालों में जनसंघ सबसे आगे थी जिसने संविद सरकारों में घुसपैठ बनाने के लिए कुछ नेताओं की ऐसी छवि प्रचारित की कि वे संघ की साम्प्रदायिक पहचान के विपरीत कुछ उदार दिखें। जहाँ अटल बिहारी वाजपेयी की ऐसी ही छवि निर्मित कर दी गयी थी, वहीं अडवाणी को आक्रामक हिन्दुत्व के समर्थकों का नेतृत्व करने के लिए छोड़ दिया गया था। 1977 में जब जनता पार्टी का गठन हुआ था तब जनता पार्टी का संविधान स्वीकार करने वाले सब गैर कांग्रेसी दलों को अपना अपना दल जनता पार्टी में विलीन करने का आवाहन किया गया था। जनसंघ ने इस प्रस्ताव को एक रणनीति के रूप में स्वीकार करने का ढोंग तो किया किंतु उसके अन्दर ही अन्दर वे अपना अलग अस्तित्व बनाये रहे। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में शामिल होने के मामले में अटल और अडवाणी एक ही भाषा बोलने लगे थे, और जनता पार्टी को उदार व जनसंघ को संकीर्ण दल बतलाने लगे थे। बाद में लोकदल के चौधरी चरण सिंह और राजनारायण ने इनकी गतिविधियों को पकड़ लिया और दोहरी सदस्यता को छोड़ देने की चेतावनी दी। जनता पार्टी का विभाजन भी इसी दोहरी सदस्यता के कारण हुआ और देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार का पतन भी इसी दोहरी मानसिकता के कारण हुआ।
      जनता पार्टी के टूटे हुए हिस्सों को पचाने की दृष्टि से इन्होंने अपने पुराने नाम भारतीय जनसंघ को छोड़ कर जनता पार्टी के आगे भारतीय जनसंघ का भारतीय जोड़ कर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। समाजवादी पृष्ठभूमि से निकली सुषमा स्वराज उसी दौर में भाजपा से जुड़ीं। प्रारम्भ में इन्होंने प्रचार के लिए अपनी नीतियों में श्रीमती इन्दिरा गान्धी के समाजवाद की लोकप्रियता को देखते हुए उसे गान्धीवादी समाजवाद के रूप में अपने कार्यक्रम में सम्मलित किया था। यह उसी तरह था जिस तरह सेक्युलरिज्म की लोकप्रियता को देखते हुए ये अपने को सच्चा सेक्युलर और अपने से असहमत दलों को स्यूडो सेक्युलर बताते रहे। बाद में जब इनके चरित्र पर गान्धीवादी समाजवाद  बेतुका लगा तो इन्होंने उससे मुक्ति पा ली थी। स्मरणीय है कि 1985 के चुनावों में जब ये लोकसभा में कुल दो सीटों तक सिमिट गये थे तब इन्हें अचानक चार सौ साल पहले के रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद को मुद्दा बनाने की याद आयी और इन्होंने उसके लिए राष्ट्रव्यापी अभियान छेड़ दिया और अडवाणीजी रथ यात्रा पर निकल पड़े। उसी समय यह सावधानी बरती गयी कि दंगा उत्पादक रथयात्रा अडवाणीजी निकालेंगे और इसी दल के अटल बिहारी साधु से बने दिखेंगे ताकि जरूरत पढने पर उन्हें आगे रख कर गैर कांग्रेसी दलों से समर्थन जुटाया जा सके। स्मरणीय है कि 5 दिसम्बर 1992 को लखनउ में हुयी बैठक में अटल बिहारी वाजपेयी भी मौजूद थे जिन्हें बाबरी मस्जिद ध्वंस की योजना का पता तो था पर योजनानुसार उन्हें उससे दूर रख कर दिल्ली सरकार के साथ और संसद में गोलमोल दलीलें देने का कार्य सौंपा गया था। यह भी स्मरणीय है कि इस अवसर पर अटलजी ने संसद में कहा था कि जिस समय बाबरी मस्जिद टूट रही थी तब अडवाणीजी का चेहरा आंसुओं से भरा हुआ था, और अडवाणीजी तो कारसेवकों को रोक रहे थे पर वे मराठीभाषी होने के कारण उनकी भाषा नहीं समझ सके थे। यह बात अलग है कि प्रत्येक चुनाव में अडवानीजी प्रचार करने के लिए महाराष्ट्र जाते रहे हैं और हिन्दी में ही वोट मांगते रहे हैं।
      1998 में सरकार बनने पर अटल बिहारी की अलग सी छवि काम आयी और समर्थन देने वाले बाइस दलों में से बीस ने केवल अटलजी के नाम पर ही समर्थन दिया था। कभी बामपंथियों के गठबन्धन में सम्मलित रही तेलगुदेशम ने तो मंत्रिमण्डल में सम्मलित हुये बिना ही बाहर से समर्थन दिया था जो गठबन्धन का सर्वाधिक सद्स्यों वाला दल था। इस अवसर पर उसने कहा था कि वह सिर्फ और सिर्फ अटलजी को ही समर्थन दे रहा है। इसी तरह ममता बनर्जी, रामविलास पासवान, जयललिता, नवीन पटनायक, फारुख अब्दुल्ला, शरद यादव, आदि ने संघ से असहमति दर्शाते हुए अटल जी के नाम पर ही समर्थन देकर धर्म निरपेक्ष जनता के बीच अपना चेहरा बचाया था।
      भाजपा, जो अब फिर से सत्ता में आने के सपने देखने लगी है, ने एक बार फिर एक चेहरा उदार और एक कट्टर दिखाने का खेल प्रारम्भ कर दिया है। सम्भावित प्रधानमंत्री के रूप में गुजरात में 2002 के बदनाम मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को सबसे कट्टर प्रचारित कर के यह भ्रम पैदा किया जा रहा है कि लाल कृष्ण अडवानी उदार चेहरा हैं इसलिए कट्टर नरेन्द्र मोदी को आने से रोकने के लिए उन्हें स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। एक ओर जहाँ एनडीए के सबसे बड़े हिस्सेदार दल के नीतीश कुमार, नरेन्द्र मोदी के हाथ के साथ हाथ उठाते हुए फोटो छ्पने के बाद भाजपा कार्यकारिणी को दिया जाने वाला लंच केंसिल कर देते हैं और मोदी को विधानसभा चुनाव के प्रचार हेतु बिहार आने पर गठबन्धन तोड़ देने की धमकी देते हैं, वहीं सोची समझी नीति के अंतर्गत वे अडवाणी के रथ को हरी झण्डी दिखा कर उन्हें उदारता का प्रमाण पत्र दे रहे होते हैं। गत वर्षों में जिन्ना की प्रशंसा पर अडवाणीजी को अध्यक्ष पद से निकाल बाहर कर देना भी उनकी छवि को उजली करने की तरह था, पर बाद में हुए लोकसभा चुनाव में उन्हें ही प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाना भी एक चालाकी का ही हिस्सा रहा होगा। जाहिर है कि बहुत सारे उदारवादी लोग मोदी के कारनामों से आतंकित होकर अडवाणी को समर्थन देने की सोच सकते हैं, और फिर से धोखा खा सकते हैं। सच तो यह है कि ऊपर से भोले दिखने वाले मोदी और अडवाणी में कोई मतभेद नहीं है। वे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, अक्तूबर 12, 2011

दिशाहीन उथल-पुथल भरा समय

                     दिशाहीन उथल पुथल भरा समय
                                                               वीरेन्द्र जैन
      वर्ष 2011 का तीन चौथाई भाग बीत चुका है। वर्ष का यह भाग दुनिया और देश में हलचलों से भरा रहा है। दुनिया के हर कोने में कुछ ऐसा लगता रहा है कि जो कुछ चल रहा है वह ठीक नहीं है उसमें बदलाव चाहिए। वहीं दूसरी ओर बदलाव की ये चाहत कोई स्पष्ट विकल्प तलाशने में भी असमर्थ रही है जिससे एक विश्वव्यापी झुंझलाहट सी दर्ज होकर रह गयी है।
      काहिरा आदि में सत्ता पलट देने के बाद आयी नई सत्ता के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गये हैं। अफगानिस्तान और ईराक में लम्बे समय से जमी अमेरिका व उसके मित्र देशों की फौजें थक चुकी हैं और सम्मान जनक तरीकों से वापिस निकलना चाहती हैं किंतु वहाँ सक्रिय आतंकवादियों ने ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद भी हार नहीं मानी है वे अब भी संघर्ष के मोर्चे पर डटे हैं और उन फौजों तथा उनके दूतावासों  पर हमले कर रहे हैं। पूरे पाकिस्तान में लगातार इस तरह की आतंकी गतिविधियां संचालित हो रही हैं कि समझ में नहीं आता कि परमाणु हथियार रखने वाले उस देश पर किस का नियंत्रण है। जिस अमरीकी सहायता की दम पर वह देश पल रहा था, अब उसने उस से भी टकराहट मोल ले ली है जिससे उसकी चीन पर निर्भरता बढ सकती है और क्षेत्रीय संतुलन में परिवर्तन आ सकता है। अमेरिका स्वयं भी आर्थिक संकटों से टूट रहा है और वहाँ चुनाव सिर पर आ गये हैं। जनता की बैचैनी वहाँ भी प्रकट होने लगी है। वहाँ युवाओं के बड़े बड़े प्रदर्शन हो रहे हैं।
      अपने देश में राजनीतिक संकटों की शुरुआत तो गठबन्धन सरकारों के जन्म से ही शुरू हो गयी थी जो उन गठबन्धनों से और बढती रही जो बिना किसी न्यूनतम साझा कार्यक्रम के बनते हैं। इसमें समर्थन देने वाले दल अपने समर्थन की पूरी पूरी कीमत वसूलते रहते हैं जिसके पारिणामस्वरूप गठबन्धन का प्रमुख दल चकरघिन्नी बन जाता है। जिन राजनीतिक दलों का गठन किसी सुचिंतित राजनीतिक विचारों और कार्यक्रमों के बिना होता है वे निहित स्वार्थों के गिरोहों में बदल कर रह जाते हैं और उनमें सम्मलित व्यक्तियों की आस्थाएं उन्हें तत्काल लाभ दिला सकने वाले राजनेताओं में होती हैं। इन्हें अखबारी भाषा में कार्यकर्ता, पर आम भाषा में समर्थक, चमचे, पिछलग्गे, आदि कहा जाता है। केन्द्र या राज्य में सत्तारूढ या सत्ता में आ सकने की सम्भावना रखने वाले प्रमुख दलों में ऐसे राजनेताओं की भरमार है। जब इस तरह के कुछ नेता इकट्ठे हो जाते हैं तो वे परस्पर हित के लिए दल के अन्दर ही गुट बना लेते हैं। इन्हीं समर्पित समर्थकों के कारण ही वे चुनाव जीतने के लिए अपने एक विशिष्ट क्षेत्र को अनुकूल बना लेते हैं, और इसी क्षेत्र की दम पर वे अपने दल के नेता पर दबाव डालते रहते हैं और दबाव में न आने पर सुविधानुसार दलबदल करते रहते हैं। नेता के दल बदलते ही उसका समर्थन भी उसके साथ दल बदलता रहता है। अपने चुनाव क्षेत्र को सुरक्षित रखने के लिए ऐसे राजनेता सभी तरह के व्यक्तिगत तुष्टीकरण तो करते हैं, पर सार्वजनिक कामों में रुचि नहीं लेते।
      सूचना तकनीक के प्रसार ने प्रशासन में पारदर्शिता का प्रवेश करा दिया है। इसलिए अब जनता के बहुत सारे लोग बहुत कुछ जानते जा रहे हैं। पिछले वर्षों में सभी तरह के गठबन्धन किसी ना किसी रूप में सत्ता में रह चुके हैं, और आम जनता ने केवल भ्रष्टाचार को ही बढते हुए पाया है। उसने सत्ता पाने के लिए की जाने वाली अमानवीय घातें-प्रतिघातें भी देखी हैं। सत्ता मिलने से पहले जिनके जीवन एक आदर्श हुआ करते थे वे और उनका जीवन दर्शन सत्ता मिलने के बाद किस तरह से बदला है, जनता उसकी प्रत्यक्ष गवाह रही है। जिन नेताओं के पास साइकिल हुआ करती थी उनके घरों के बाहर दर्जनों की संख्या में बड़ी बड़ी गाड़ियां खड़ी रहती हैं। उनकी संतति और निकट के रिश्तेदार ही कुकिंग गैस, पैट्रोल पम्प, आदि एकाधिकार वाले व्यापार के एजेंसियां पा रहे हैं या सरकारी ठेकेदार, सप्लायर अथवा बिल्डर बन रहे हैं। महत्वपूर्ण पदों पर बैठने वाले अधिकारियों में 70 प्रतिशत से अधिक चयन इन्हीं परिवारों में से हो पाता है। यही कारण है कि सारे बड़े उद्योगपति और व्यापारी अपनी पसन्द की सरकार बनवा कर लाभांवित होने के लिए अपने खजाने खोल देते हैं और लागत का कई गुना वसूल करने के लिए अपनी सुविधानुसार नीतियां बनवा लेते हैं। 545 सदस्यों वाले सदन में तीन सौ से अधिक करोड़पतियों का होना इसी बात का प्रमाण है कि अधिक सम्पत्ति वाले लोग या तो सीधे सदन में दाखिल हो रहे हैं या अपने प्रतिनिधियों को वहाँ भेज रहे हैं। घनश्याम दास बिड़ला का वह कथन ऎतिहासिक बन गया है जब प्रधानमंत्री पद के लिए श्री मोरारजी भाई देसाई और श्रीमती इन्दिरा गान्धी के बीच चुनाव होने वाला था तब उन्होंने कहा था कि मोरारजी कैसे प्रधान मंत्री बन जाएंगे जबकि दो सौ सांसद तो मेरेहैं।
      विचारधारा हीन राजनीति का परिणाम तो यह ही होता है कि अरुण जैटली के साथ मंच साझा करने के सवाल पर जब दो गुट कानपुर में भिड़ गये और एक दूसरे का सिर फोड़ दिया, या भ्रष्टाचार के विरोध में हटाये गये उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री को पार्टी का वरिष्ठ उपाध्यक्ष बना दिया गया। जिन भ्रष्ट मंत्रियों के ड्राइवरों के लाकरों से करोड़ों निकलते हैं उन्हें ही निरंतर मलाईदार विभाग देकर मुख्यमंत्री संतुष्ट नजर आते हैं। एक छोटे प्रदेश में निर्दलीय को मुख्यमंत्री बनाना पड़ता है और वह एक साल में ही पाँच हजार करोड़ का धन एकत्रित कर लेता है। विमान दुर्घटना में जब एक मुख्यमंत्री का निधन हो जाता है तो उसका पुत्र हजारों करोड़ की आमदनी एक साल में दिखा कर सर्वाधिक आयकर दाता बन जाता है और अपनी अलग पार्टी बना कर मुख्य मंत्री बनने के सपने देखने लगता है। एक मुख्यमंत्री को अवैध खनन के मामले में बमुश्किल हटाया जाता है तो उसे अग्रिम जमानत माँगनी पड़ती है और उसके मंत्रिमण्डल के मंत्रियों के यहाँ छापे पड़ने के बाद जेल भेज दिये जाते हैं। एक बुजुर्ग मुख्यमंत्री के दो पुत्र उत्तराधिकार के लिए खूनी संघर्ष करते हैं और जब एक का अखबार दूसरे के खिलाफ कुछ छाप देता है तो दूसरा अखबार के दफ्तर पर हमला करा देता है जिसमें कई जानें जाती हैं। सब कुछ प्राचीन राजतंत्र की चल रहा है।
        यही कारण है कि राजनीतिक दलों द्वारा जनता की समस्याओं पर बुलवायी गयी रैलियों के अवसर पर जनता एकत्रित नहीं होती। इन रैलियों में या तो दल के वे सक्रिय सदस्य आते हैं जो दल के नेताओं को प्रभावित करना चाहते हैं या किराये के लोग जुटाये जाते हैं। वहीं दूसरी ओर अन्ना हजारे, ही नहीं रामदेव तक के आवाहन पर लोग स्वतःस्फूर्त ढंग से आ जाते हैं जो देश की राजनीतिक पार्टियों के लिए दर्पन दिखाने की तरह है। जिन लोगों के आवाहन पर जनता एकत्रित हो रही है उनके पास भी किसी वैकल्पिक व्यवस्था का ब्लूप्रिंट नहीं है।
      ये बेहद निराशा का समय है ऐसे ही समय में देश और उनकी सरकारें आपस में टकराने लगती हैं। ऐसे ही समय में समझदारी की परीक्षा होती है।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, अक्तूबर 10, 2011

श्रद्धांजलि जगजीत सिंह

श्रद्धांजलि:जगजीतसिंह
वे हमारे लिए गाते थे, इसलिए अपने लगते थे

वीरेन्द्र जैन  
                
जगजीत सिंह हमारे लिए वैसे ही अपने थे जैसे कि दुष्यंत कुमार थे। अगर क्लासिक म्यूजिक एक खास क्लास के लिए होता है तो हम कह सकते हैं कि जगजीत सिंह जैसे लोगों का गायन हम निम्न मध्यम वर्गीय लोगों की सम्वेदना को स्पर्श करता था इसलिए अपने जैसा लगता था। उन्होंने गाने के लिए भी जिन गजलों का चुनाव किया था वे न तो कठिन उर्दू की थीं और न ही हास्यास्पद संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के शब्दों से भरी हुयी थीं अपितु उस भाषा की थीं जिसे हिन्दुस्तानी कहा जाता है, और जो मुँह चड़ी हुयी बोल चाल की भाषा में लिखी जाती हैं। उनके द्वारा गायी हुयी गजलों और नज्मों के रचनाकार मिर्जा गालिब, गुलजार, निदा फाजली, कृष्ण बिहारी नूर, आदि होते थे। सुप्रसिद्ध गीतकार नीरज के गीत की पंक्तियां हैं-
अपनी वाणी प्रेम की वाणी
घर समझे न गली समझे
या इसे नन्द लला समझे
या इसे बृज की लली समझे
हिन्दी नहीं यह उर्दू नहीं यह
यह है पिया की कसम
इसकी स्याही आँखों का पानी
दर्द की इसकी कलम
लागे किसी को मिसरी सी मीठी
कोई नमक की डली समझे
      इसी तरह की भाषा और सहज सम्वेदना की गजलें गाने वाले जगजीत सिंह को देश के संगीत प्रेमियों की ओर से जो प्यार मिला था उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। प्रवासी भारतीयों के बीच भी वे बेहद लोकप्रिय थे और अपने वतन की ओर से उन्होंने जो चिट्ठी इन प्रवासियों को भेजी थी उसे सुनकर कई लोग विदेश से अच्छी अच्छी नौकरियां छोड़ कर वापिस लौट आये थे।
      बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी, उनकी प्रिय नज्म थी और जब उन्हें पहली बार स्वतंत्र रूप से गाने का अवसर मिला तो उन्होंने इसी नज्म से शुरुआत की थी। एक बार कनाडा मैं एक महिला ने उनसे पूछा कि क्या वे कभी चेयरिटी के लिए गाते हैं, और उनके मुँह से हाँ सुनने के बाद उन्होंने कहा कि वे एक गुरुद्वारे के लिए चेयरिटी का कार्यक्रम करती हैं। यह सुनने के बाद जगजीत सिंह ने कहा कि वे गुरुद्वारों के लिए आयोजित चेयरिटी के लिए नहीं गाते।

रविवार, अक्तूबर 09, 2011

भाजपा में वरिष्ठ नागरिकों की दशा

                      भाजपा में वरिष्ठ नागरिकों की दशा
                                                              वीरेन्द्र जैन
      पिछले दिनों विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस 1 अक्टूबर को नई दिल्ली में आयोजित एक गैर सरकारी संस्था सम्पूर्णा की ओर से वरिष्ठ नागरिकों क सम्मान किया गया था। इस सम्मान समारोह में भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा था कि न केवल समाज सेवी संस्थाएं और सरकार अपितु औद्योगिक घरानों को भी वरिष्ठ नागरिकों की सेवा के लिए आगे आना चाहिए ताकि वरिष्ठ नागरिकों के अनुभव का प्रयोग देशहित में किया जा सके। उस समय ऐसा लगा था कि वे देश के बड़े औद्योगिक घरानों के प्रमुख मुकेश अम्बानी, रतन टाटा आदि ने गुजरात में औद्योगिक लाभ की अनुकूलता के लिए मोदी की जो तारीफें की थीं उससे प्रभावित होकर ही प्रधानमंत्री पद हेतु लालायित अडवाणीजी ने उनसे अनुभव अर्थात उन्हें न भुलाने का परोक्ष सन्देश दिया था। पर पिछले दिनों मध्य प्रदेश में घटित घटनाक्रम से ऐसा लगा कि इस राजनीतिक दल में बहुत सारे वयोवृद्ध सचमुच ही यूज अंड थ्रो से पीड़ित चल रहे हैं।
      गत दिनों भोपाल के पूर्व भाजपा सांसद सुशील चन्द्र वर्मा ने पार्टी में अपनी उपेक्षा से दुखी होकर छत से कूद कर आत्महत्या कर ली। गत 19 साल से लगातार उनके ड्राइवर रहे श्री रामवीर गौड़ ने इस दुखद अवसर पर संवाददाताओं को बताया कि वे भाजपा नेतृत्व द्वारा अपनी उपेक्षा से बहुत दुखी रहते थे। स्मरणीय है कि भाजपा ने देश की सत्ता हथियाने के अभियान में अनेक क्षेत्रों के लोकप्रिय लोगों को पार्टी में सम्मलित किया था, श्री वर्मा भी उनमें से एक थे। वे मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव रहे थे और अपनी ईमानदारी, समझदारी, व कार्य के प्रति समर्पण के लिए बहुत मशहूर थे। बाबुओं का शहर कही जाने वाली मध्यप्रदेश की इस राजधानी में सरकारी कर्मचारियों और कायस्थ समाज ने श्री वर्मा को जिताने के लिए जी जान लगा दी थी और उनके कारण ही 1967 में जगन्नाथ राव जोशी [जनसंघ] के बाद 1989 में भोपाल से पहली बार कोई भाजपा का सांसद चुना गया था। बाद में भी श्री वर्मा लगातार 1991, 1996, 1998 में चुने जाते रहे थे। उनकी अपनी लोकप्रियता और सम्पर्कों ने ही मध्य प्रदेश की राजधानी में भाजपा को जड़ें जमाने का मौका दिया था। वरिष्ठ आईएएस अधिकारी रहे इस राजनेता ने अवसर आने पर अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री सुन्दरलाल पटवा का भी सार्वजनिक विरोध करने से गुरेज नहीं किया था।
      19 वर्ष तक पुत्रवत स्नेह पाये उनके ड्राइवर श्री रामवीर गौड़ ने दुखी मन से पत्रकारों को बताया था कि उसे याद नहीं कि उनके द्वारा पोषित यह सीट उनसे छीन लेने के बाद शायद ही कोई भाजपा नेता उनसे मिलने घर आया हो, पर जब तक उनके पास कुर्सी थी तब तक नेताओं की कतारें लगी रहती थीं। मुख्यमंत्री बनने के बाद एक बार बाबूलाल गौर उनसे सदस्यता का फार्म भरवाने के लिए आये थे, पर उन्होंने साफ इंकार कर दिया था। जो अडवाणीजी हर बार टिकिट देने से पहले उनसे बात करते थे उन्होंने भी उनका टिकिट काटने और उमा भारती को टिकिट देने से पहले उनसे बात भी नहीं की थी। खुद को नजरान्दाज किये जाने का यह दुख उन्हें लगातार सालता रहता था यही कारण था कि वर्माजी उसके बाद कभी भी भाजपा के किसी भी कार्यक्रम में नहीं गये।
      स्मरणीय है कि जिस तरह देश में कार्यरत बहु राष्ट्रीय कम्पनियां देश के जवान खून की प्यासी हैं और अच्छे वेतन का लालच देकर उन्हें चूस चूस कर फेंक रही हैं उसी तरह भाजपा भी किसी भी क्षेत्र में लोकप्रियता प्राप्त व्यक्ति की लोकप्रियता को भुना कर उसे फेंक देने में भरोसा रखती है। वर्तमान में भोपाल के सांसद कैलाश जोशी दशकों तक मध्यप्रदेश विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे हैं जिनके द्वारा विधानसभा में की गयी बहसों का एक संकलन पिछले दिनों प्रकाशित हुआ है। इस संकलन को पढकर उनके गौरवमयी इतिहास का पता चलता है। पर भाजपा द्वारा सुषमा स्वराज को सुरक्षित सीट देने के लिए श्री जोशी का टिकिट काटा जा रहा था जिसे पाने के लिए उन्हें जी जान लगा देनी पड़ी थी। मध्य प्रदेश में ही लगातार जीतने का रिकार्ड बनाने वाले वरिष्ठ बाबू लाल गौर को हटाकर युवा शिवराज सिंह को बैठा दिया गया जबकि बहुमत उमा भारती के साथ था। इन्हीं बाबूलाल गौर ने जब अभी हैड क्वार्टर नागपुर जा कर प्रदेश की जर्जर सड़कें और शासन- प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार की शिकायत की तो मुख्यमंत्री के चापलूसों द्वारा उनको बुढापे में मुख्यमंत्री पद के लिए ललचाने वाला व्यक्ति कह कर उनकी खिल्ली उड़ाई गयी। प्रदेश में न केवल मुख्यमंत्री ही वरिष्ठता को लाँघ करके ही बनाया गया अपितु पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष पद भी स्थानीय वरिष्ठों की उपेक्षा कर बाहर के लोगों से भर दिया गया। जो अडवाणीजी औद्योगिक क्षेत्र के लोगों से अनुभव को सम्मान देने की अपील करते हैं वे ही अपनी पार्टी शासित राज्यों में अनुभव को दूर रखे जाने पर मौन बने रहते हैं।
      उम्र की वरिष्ठता के कारण जब भाजपा के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता अटल बिहारी वाजपेयी सार्वजनिक जीवन से दूर होने को विवश हो गये पर पोस्टरों पर से उनके फोटो न छापे जाने का फैसला तो नीति के रूप में लिया गया। सिकन्दर बख्त, जेना कृष्णमूर्ति मदनलाल खुराना, से लेकर केशुभाई पटेल तक एक लम्बी श्रंखला है। फिल्म अभिनेता धर्मेन्द्र तक को यह कह कर विदा होना पड़ा था कि इस पार्टी ने मुझे बहुत इमोशनली ब्लेकमेल किया। उधार के सिन्दूर से सुहागन बनी फिरती इस पार्टी का आधार जिन लोकप्रिय व्यक्तियों की लोकप्रियता पर टिका हुआ है यदि सुशील चन्द्र वर्मा की शहादत से समय रहते उन्हें समझ आ गयी तो वे इस पार्टी को उमाभारती और शत्रुघ्न सिन्हा की तरह नचाने लगेंगे।
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