बुधवार, अक्तूबर 12, 2011

दिशाहीन उथल-पुथल भरा समय

                     दिशाहीन उथल पुथल भरा समय
                                                               वीरेन्द्र जैन
      वर्ष 2011 का तीन चौथाई भाग बीत चुका है। वर्ष का यह भाग दुनिया और देश में हलचलों से भरा रहा है। दुनिया के हर कोने में कुछ ऐसा लगता रहा है कि जो कुछ चल रहा है वह ठीक नहीं है उसमें बदलाव चाहिए। वहीं दूसरी ओर बदलाव की ये चाहत कोई स्पष्ट विकल्प तलाशने में भी असमर्थ रही है जिससे एक विश्वव्यापी झुंझलाहट सी दर्ज होकर रह गयी है।
      काहिरा आदि में सत्ता पलट देने के बाद आयी नई सत्ता के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गये हैं। अफगानिस्तान और ईराक में लम्बे समय से जमी अमेरिका व उसके मित्र देशों की फौजें थक चुकी हैं और सम्मान जनक तरीकों से वापिस निकलना चाहती हैं किंतु वहाँ सक्रिय आतंकवादियों ने ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद भी हार नहीं मानी है वे अब भी संघर्ष के मोर्चे पर डटे हैं और उन फौजों तथा उनके दूतावासों  पर हमले कर रहे हैं। पूरे पाकिस्तान में लगातार इस तरह की आतंकी गतिविधियां संचालित हो रही हैं कि समझ में नहीं आता कि परमाणु हथियार रखने वाले उस देश पर किस का नियंत्रण है। जिस अमरीकी सहायता की दम पर वह देश पल रहा था, अब उसने उस से भी टकराहट मोल ले ली है जिससे उसकी चीन पर निर्भरता बढ सकती है और क्षेत्रीय संतुलन में परिवर्तन आ सकता है। अमेरिका स्वयं भी आर्थिक संकटों से टूट रहा है और वहाँ चुनाव सिर पर आ गये हैं। जनता की बैचैनी वहाँ भी प्रकट होने लगी है। वहाँ युवाओं के बड़े बड़े प्रदर्शन हो रहे हैं।
      अपने देश में राजनीतिक संकटों की शुरुआत तो गठबन्धन सरकारों के जन्म से ही शुरू हो गयी थी जो उन गठबन्धनों से और बढती रही जो बिना किसी न्यूनतम साझा कार्यक्रम के बनते हैं। इसमें समर्थन देने वाले दल अपने समर्थन की पूरी पूरी कीमत वसूलते रहते हैं जिसके पारिणामस्वरूप गठबन्धन का प्रमुख दल चकरघिन्नी बन जाता है। जिन राजनीतिक दलों का गठन किसी सुचिंतित राजनीतिक विचारों और कार्यक्रमों के बिना होता है वे निहित स्वार्थों के गिरोहों में बदल कर रह जाते हैं और उनमें सम्मलित व्यक्तियों की आस्थाएं उन्हें तत्काल लाभ दिला सकने वाले राजनेताओं में होती हैं। इन्हें अखबारी भाषा में कार्यकर्ता, पर आम भाषा में समर्थक, चमचे, पिछलग्गे, आदि कहा जाता है। केन्द्र या राज्य में सत्तारूढ या सत्ता में आ सकने की सम्भावना रखने वाले प्रमुख दलों में ऐसे राजनेताओं की भरमार है। जब इस तरह के कुछ नेता इकट्ठे हो जाते हैं तो वे परस्पर हित के लिए दल के अन्दर ही गुट बना लेते हैं। इन्हीं समर्पित समर्थकों के कारण ही वे चुनाव जीतने के लिए अपने एक विशिष्ट क्षेत्र को अनुकूल बना लेते हैं, और इसी क्षेत्र की दम पर वे अपने दल के नेता पर दबाव डालते रहते हैं और दबाव में न आने पर सुविधानुसार दलबदल करते रहते हैं। नेता के दल बदलते ही उसका समर्थन भी उसके साथ दल बदलता रहता है। अपने चुनाव क्षेत्र को सुरक्षित रखने के लिए ऐसे राजनेता सभी तरह के व्यक्तिगत तुष्टीकरण तो करते हैं, पर सार्वजनिक कामों में रुचि नहीं लेते।
      सूचना तकनीक के प्रसार ने प्रशासन में पारदर्शिता का प्रवेश करा दिया है। इसलिए अब जनता के बहुत सारे लोग बहुत कुछ जानते जा रहे हैं। पिछले वर्षों में सभी तरह के गठबन्धन किसी ना किसी रूप में सत्ता में रह चुके हैं, और आम जनता ने केवल भ्रष्टाचार को ही बढते हुए पाया है। उसने सत्ता पाने के लिए की जाने वाली अमानवीय घातें-प्रतिघातें भी देखी हैं। सत्ता मिलने से पहले जिनके जीवन एक आदर्श हुआ करते थे वे और उनका जीवन दर्शन सत्ता मिलने के बाद किस तरह से बदला है, जनता उसकी प्रत्यक्ष गवाह रही है। जिन नेताओं के पास साइकिल हुआ करती थी उनके घरों के बाहर दर्जनों की संख्या में बड़ी बड़ी गाड़ियां खड़ी रहती हैं। उनकी संतति और निकट के रिश्तेदार ही कुकिंग गैस, पैट्रोल पम्प, आदि एकाधिकार वाले व्यापार के एजेंसियां पा रहे हैं या सरकारी ठेकेदार, सप्लायर अथवा बिल्डर बन रहे हैं। महत्वपूर्ण पदों पर बैठने वाले अधिकारियों में 70 प्रतिशत से अधिक चयन इन्हीं परिवारों में से हो पाता है। यही कारण है कि सारे बड़े उद्योगपति और व्यापारी अपनी पसन्द की सरकार बनवा कर लाभांवित होने के लिए अपने खजाने खोल देते हैं और लागत का कई गुना वसूल करने के लिए अपनी सुविधानुसार नीतियां बनवा लेते हैं। 545 सदस्यों वाले सदन में तीन सौ से अधिक करोड़पतियों का होना इसी बात का प्रमाण है कि अधिक सम्पत्ति वाले लोग या तो सीधे सदन में दाखिल हो रहे हैं या अपने प्रतिनिधियों को वहाँ भेज रहे हैं। घनश्याम दास बिड़ला का वह कथन ऎतिहासिक बन गया है जब प्रधानमंत्री पद के लिए श्री मोरारजी भाई देसाई और श्रीमती इन्दिरा गान्धी के बीच चुनाव होने वाला था तब उन्होंने कहा था कि मोरारजी कैसे प्रधान मंत्री बन जाएंगे जबकि दो सौ सांसद तो मेरेहैं।
      विचारधारा हीन राजनीति का परिणाम तो यह ही होता है कि अरुण जैटली के साथ मंच साझा करने के सवाल पर जब दो गुट कानपुर में भिड़ गये और एक दूसरे का सिर फोड़ दिया, या भ्रष्टाचार के विरोध में हटाये गये उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री को पार्टी का वरिष्ठ उपाध्यक्ष बना दिया गया। जिन भ्रष्ट मंत्रियों के ड्राइवरों के लाकरों से करोड़ों निकलते हैं उन्हें ही निरंतर मलाईदार विभाग देकर मुख्यमंत्री संतुष्ट नजर आते हैं। एक छोटे प्रदेश में निर्दलीय को मुख्यमंत्री बनाना पड़ता है और वह एक साल में ही पाँच हजार करोड़ का धन एकत्रित कर लेता है। विमान दुर्घटना में जब एक मुख्यमंत्री का निधन हो जाता है तो उसका पुत्र हजारों करोड़ की आमदनी एक साल में दिखा कर सर्वाधिक आयकर दाता बन जाता है और अपनी अलग पार्टी बना कर मुख्य मंत्री बनने के सपने देखने लगता है। एक मुख्यमंत्री को अवैध खनन के मामले में बमुश्किल हटाया जाता है तो उसे अग्रिम जमानत माँगनी पड़ती है और उसके मंत्रिमण्डल के मंत्रियों के यहाँ छापे पड़ने के बाद जेल भेज दिये जाते हैं। एक बुजुर्ग मुख्यमंत्री के दो पुत्र उत्तराधिकार के लिए खूनी संघर्ष करते हैं और जब एक का अखबार दूसरे के खिलाफ कुछ छाप देता है तो दूसरा अखबार के दफ्तर पर हमला करा देता है जिसमें कई जानें जाती हैं। सब कुछ प्राचीन राजतंत्र की चल रहा है।
        यही कारण है कि राजनीतिक दलों द्वारा जनता की समस्याओं पर बुलवायी गयी रैलियों के अवसर पर जनता एकत्रित नहीं होती। इन रैलियों में या तो दल के वे सक्रिय सदस्य आते हैं जो दल के नेताओं को प्रभावित करना चाहते हैं या किराये के लोग जुटाये जाते हैं। वहीं दूसरी ओर अन्ना हजारे, ही नहीं रामदेव तक के आवाहन पर लोग स्वतःस्फूर्त ढंग से आ जाते हैं जो देश की राजनीतिक पार्टियों के लिए दर्पन दिखाने की तरह है। जिन लोगों के आवाहन पर जनता एकत्रित हो रही है उनके पास भी किसी वैकल्पिक व्यवस्था का ब्लूप्रिंट नहीं है।
      ये बेहद निराशा का समय है ऐसे ही समय में देश और उनकी सरकारें आपस में टकराने लगती हैं। ऐसे ही समय में समझदारी की परीक्षा होती है।
वीरेन्द्र जैन
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