रविवार, अक्तूबर 31, 2010

अरुन्धति और सटोरिया देशभक्ति

अरुन्धति, और सटोरिया देशभक्ति
वीरेन्द्र जैन
कश्मीर समस्या पर अरुन्धति के बेबाक बयान ने देश में तहलका मचा दिया है। उन्होंने वह कह दिया है जिसे रेत में गरदन छुपाये हुए कोई शुतुरमुर्ग सुनना नहीं चाहता। ‘नब्रूयात सत्यम अप्रियम” को मानने वाले वर्ग को अप्रिय सत्य सुनने को मजबूर कर दिया गया है। “ए बुल इन द चाइना शाप” की तरह अरुन्धति के अप्रिय वचन भ्रष्टाचार के क्षीरसागर में डूबे हुए लोगों को खतरे की घंटी की तरह लग रहे हैं। उन्होंने जो कहना चाहा उसे निर्भयता से कहा। कहने के बाद यह नहीं कहा कि उनके बयानों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है या उनका आशय यह नहीं था। उन्होंने जो कहा वह स्वयं कहा किसी छद्म नाम से नहीं कहा या अपने किसी मित्र, परिचित, रिश्तेदार के नाम से नहीं कहा। किसी साध्वी का भेष बना बम विस्फोट कराने के बाद उससे इंकार करने की तरह नहीं कहा। अगर उनका कथन गैरकानूनी है तो उसके लिए वे कानून द्वारा निर्धारित सजा को भोगने के लिए तैयार हैं। कहीं न कहीं सत्ता और व्यवस्था से जुड़े लोगों को उनका बयान बेचैन कर गया है पर वे उसका जबाब नहीं दे पा रहे अपितु अरुन्धति पर मुकदमा चलाने, फाँसी देने, देश निकाला देने आदि के फतवे जारी कर रहे हैं। सत्तारूढ कांग्रेस ने प्रारम्भ में बयान का अध्य्यन करने, मुकदमा चलाने, के बाद कहा है कि सरकार अरुन्धति पर मुकदमा चला कर उन्हें अनावश्यक प्रचार नहीं देना चाहती इससे अलगाववादियों को ही मौका मिलेगा। अर्थात उनके कहे को अनकहा मान लिया जाये। असल में कश्मीर की मूल समस्या यही है कि देश के कर्णधार कश्मीर पर चर्चा से बचना चाहते हैं। इस बात पर बिना विचार किये हुये कि अरुन्धति ने सही कहा या गलत कहा, उन्हें किस जगह, किन लोगों के साथ क्या कहना चाहिए था या क्या नहीं कहना चाहिए था, उनको इस बात के लिए साधुवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने गत साठ सालों से लगातार दरी के नीचे दबा कर रख दिये जाने वाले मुद्दे को बीच आंगन में लाकर खड़ा कर दिया है। भीष्म साहनी की सुप्रसिद्ध कहानी चीफ की दावत में जब एक कर्मचारी के यहाँ बड़े साहब को खाना खाने के लिए आमंत्रित किया जाता है तो चापलूसी में उनके सामने घर की सारी सुन्दर और अच्छी चीजें ही सामने लाने की कोशिश की जाती है और इस कोशिश में बूढी, कमजोर और बीमार माँ को एक कोठरी में कैद कर दिया जाता है ताकि चीफ के सामने कुछ भी असुन्दर न आये। आज अरुन्धति ने उस माँ को कोठरी से निकाल कर ड्राइंग रूम में ठीक उस समय खड़ा कर दिया है जब देश की सरकार के सबसे खास मेहमान आने वाले थे।
यह मुसीबत केवल सरकार के सामने ही नहीं है अपितु देश के प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के सामने उस से भी बड़ी समस्या खड़ी हो गयी है। उसका अस्तित्व तो देशभक्ति के नकाब में ढका छुपा रहकर ही सुरक्षित रहता है। उसकी देशभक्ति तो उन सटोरियों के धन्धे वाली देशभक्ति है, जिसके आधार पर वे देश की टीम को जिताने का माहौल बनवाकर सट्टा लगवा देते हैं पर जब सट्टे में अच्छी बुकिंग हो जाती है तो उसे हरवाने के लिए खिलाड़ियों को फिक्स कर लिया जाता है। अधिकतम लाभ इसी में निहित होता है। भाजपा देश की कीमत पर भी सत्ता की राजनीति करती रहती है। देशभक्ति की राजनीति से चुनाव जीतकर वे क्या करते हैं यह अब किसी से छुपा नहीं है। वे जानते हैं कि इस विषय में सच क्या है, किंतु संवाद को दबाना और केन्द्र सरकार को समस्या के लिए गरियाना उनकी चुनावी रणनीति है। ये वही लोग हैं जो इमरजैंसी में छुपते फिरे थे और जो पकड़े गये थे वे बाद में माफी माँग कर जेल से बाहर आये थे। इतना ही नहीं जब उनकी सरकार आयी तो उस जेल यात्रा के लिए उन्होंने जिन्दगी भर के लिए पेंशन की व्यवस्था कर ली। पर अब वे स्वतंत्र और निर्भीक आवाज के साथ संवाद न करके उसे दबाना चाहते हैं।
डा. हरिवंश राय बच्चन ने एक साक्षात्कार में कहा था कि मैं आजाद को भी इतनी आजादी देना चाहूंगा कि वो अगर चाहे तो गुलामी स्वीकार कर सके। लोकतंत्र और स्वतंत्रता इस सीमा तक होनी चाहिए। किंतु भाजपा का चरित्र अपने आप में फासिस्ट है और उसी के अनुसार उसकी भाषा और आचरण भी फासिस्ट हैं। इनके अनुषांगिक संगठन विचारों से असहमत होने पर पुस्तकें जलाते हैं, कलाकृतियां जलाते हैं, फिल्में नहीं बनने देते बन जाएं तो चलने नहीं देते, प्रेम को प्रतिबन्धित करना चाहते हैं और वेलंटाइन डे पर हिंसक हमले करते हैं। वे समाज में ड्रेस कोड लागू करवाने की कोशिश करते हैं। ये ही किसी साम्राज्यवादी की तरह किसी भी आजादी के विचार पर फासिस्ट भाषा में विषवमन करने लगते हैं।
कश्मीर की आजादी का सवाल एक विवेकहीन भावुक विचार है जो सैन्य संगठनों के कठोर नियंत्रण में लम्बे समय तक रहने के कारण मजबूत हुआ है। अपने भौगोलिक, राजनीतिक और अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के पेंच में कश्मीर स्वतंत्र राज्य नहीं रह सकता। उसे हिन्दुस्तान या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ रहना ही होगा। कश्मीर का कुल क्षेत्रफल कुल जम्मू-कश्मीर राज्य का 15% है और भारत के नियंत्रण वाले भाग का कुल 7% है। आजादी की माँग करने वाला यह हिस्सा कुल 4500 वर्गकिलोमीटर होगी अर्थात भूटान के दसवें हिस्से के बराबर। इसकी सीमा किसी समुद्र किनारे से नहीं लगती और वेटिकन सिटी व लक्समवर्ग व एकाध अन्य को छोड़ कर दूसरा कोई ऐसा स्वतंत्र राष्ट्र अस्तित्व नहीं बनाये रख सका। तय है कि इसे पाकिस्तान हड़पने की कोशिश करेगा जिसे या तो उन्हें स्वीकारना पड़ेगा या और कठिन संघर्ष करना पड़ेगा। आजाद होने की दशा में यह तीन तरफ से पाकिस्तान, चीन और भारत से घिरा होगा। पाकिस्तान के हालात देखते हुए कश्मीर का पाकिस्तान के साथ होना हिन्दुस्तान के साथ होने से किसी भी स्तर पर बेहतर नहीं कहा जा सकता। भारत में पाकिस्तान समेत दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा मुसलमान हैं और अपने मजहबी मामलों में अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र हैं। भारत की अर्थव्यवस्था पाकिस्तान की तुलना में अधिक मजबूत और आत्मनिर्भर है तथा भारत में एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है। किसी विदेशी हमले या विद्रोह की स्तिथि में, उसका मुकाबला करने में सक्षम सैन्यशक्ति उसके पास है। पाकिस्तान के नियंत्रण वाले आजाद कश्मीर की तुलना में हिन्दुस्तान के साथ वाला कश्मीर अधिक स्वतंत्र है। आवश्यकता है कि कश्मीर में विदेशी घुसपैठियों को रोका जाये, अलगाववादियों पर कठोर कार्यवाही की जाये और सही प्रतिनिधित्व को राज्य की सत्ता सौंपी जाये। इसके लिए संवाद कायम किया जाना और उसे निरंतर बनाये रखना बेहद जरूरी है। यह चाहे जैसे भी हो। अरुन्धति वह पहली गैर कश्मीरी भारतीय महिला हैं जिन्होंने उनकी आवाज के साथ आवाज मिलायी है। जिनकी आवाज को पर मनन करने के लिए असहमति के बाद भी सुना जाना चाहिए और उन्हें आगे सम्वाद के लिए माध्यम बनाना चाहिए। सत्ता के सटोरियों द्वारा पैदा की गयी अंध राष्ट्रभक्ति अरुन्धति को फाँसी देने की माँग कर रही है वह वैसी ही भावुक और बचकानी है, जैसी कि कश्मीर की आजादी की हवाई माँग है।
संवाद के साथ साथ उन बाधाओं को दूर किया जाना चाहिए जिन के कारण अपना भला बुरा सोचने की कश्मीरी दृष्टि धुंधलाई हुयी है। अरुन्धति ने देश और कश्मीर दोनों ही जगह संवाद की सम्भावनाएं पैदा की हैं।



वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शनिवार, अक्तूबर 30, 2010

क्या भगवा आतंकवाद भी आस्था का मामला है?


क्या भगवा आतंकवाद भी आस्था का मामला है
वीरेन्द्र जैन

अयोध्या के राम जन्मभूमि मन्दिर – बाबरी मस्जिद मालिकाना विवाद का फैसला आने से पहले जब संघ परिवार के लोगों को लग रहा था कि न्यायिक सम्भावनाओं के अनुसार उनके पक्ष के लोग मुकदमा हार जायेंगे तब उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया था कि आस्था के सवालों को अदालत में हल नहीं किया जा सकता। यह वे तब कह रहे थे जब लगातार साठ सालों से मुकदमा चल रहा था और उनके पक्ष के लोग भी अदालत की कार्यवाही में भाग ले रहे थे। इतना ही नहीं मस्जिद को तोड़े जाने के बाद आडवाणी ने कहा था कि फैसले में होने वाली देरी से नाराज होने के कारण लोगों ने उस विवादित ढांचे के मस्जिदनुमा स्वरूप को तोड़ दिया जिसे वे मन्दिर मानते थे और जिसमें 1949 से रामलला की मूर्ति विराजमान थी। यही लोग उस विवादित स्थल के दो तिहाई भाग को मिल जाने पर अदालत के फैसले को स्वीकार करके खुशी व्यक्त कर रहे थे। कुछ दिनों बाद जब दूसरे पक्ष द्वारा सुप्रीम कोर्ट जाने का निर्णय किया गया तो वे फिर आस्थावानों को उकसाने वाले बयानों पर उतरने के लिए साधु संतों को आगे कर दिया। चित भी मेरी, पट भी मेरी, अंटा मेरे बाप का।
पद पर आने के लिए संविधान की शपथ लेने वाले इस दक्षिणपंथी दल को लोकतंत्र के स्तम्भों पर कितना भरोसा है यह उसके बयानों से पता चलता है। जब देश में आतंकवादी घटनाएं घटती थीं तब त्वरित और सबसे पहले होने की दौड़ में मीडिया खबरों की जगह अनुमानों के आधार पर जिम्मेवारी डाल देता था जिसके अनुसार प्रत्येक आतंकी घटनाओं के लिए मुस्लिम आतंकियों का हाथ बता दिये जाने से संघ परिवार के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कार्यक्रम को बल मिलता था। जाँच एजेंसियों के काम की गोपनीयता के कारण आम जन को भी वे लगभग उसी बहुप्रचारित दिशा में कार्य करती हुयी महसूस होती थीं। किंतु मालेगाँव, मडगाँव, कानपुर आदि में समयपूर्व या अपने निर्माण स्थल में ही फट गये बमों के कारण जो सच सामने आया उसने कहानी ही बदल दी। वहाँ न केवल गैर मुस्लिम आतंकी ही दुर्घटना के मृतकों में थे अपितु उनके निवास से मुस्लिम पहनावे के वस्त्र और् नकली दाढियाँ भी बरामद हुयीं। जाँच के दौरान जो लोग चिन्हित हुये उनसे पूछ्ताछ के आधार पर प्राप्त सबूतों से जो लोग सन्देह के घेरे में आये वे संघ परिवार से जुड़े हुये लोग थे। आजकल मोबाइल की काल डिटेल से अपराधियों के सम्पर्कों और घटनाओं के समय उनकी उपस्तिथि के स्थलों की पुष्टि आसान हो जाती है। इस तरह के मामलों में जाँच एजेंसियां बहुत सावधानी पूर्वक काम करती हैं और पर्याप्त प्रमाण मिलने से पूर्व संदिग्ध की निगरानी करती हैं।
आतंकी घटनाओं का उद्देश्य केवल अपने शत्रु की हत्या करना नहीं होता अपितु अनेक बार वे समाज में उपस्थित साम्प्रदायिक विद्वेष को साम्प्रदायिक दंगों में बदलने के लिए की जाती हैं। साम्प्रदायिक दल अफवाहों के द्वारा लोगों को भड़काते हैं। आतंकी कार्यवाहियां करने वाले कई बार अपने ही समुदाय के लोगों को उकसाने के लिए अपने ही धार्मिक समारोहों की भीड़ के बीच ही बम विस्फोट करके उन्हें उत्तेजित करने की कोशिश करते हैं। मडगाँव में साइकिल पर रख कर बम ले जाने वाले हिन्दू आतंकी अपने ही समुदाय के धार्मिक आयोजन के बीच बम विस्फोट कराने के लिए ले जा रहे थे जो बीच में ही फट गया। समाज में पूर्व से ही फैलायी गयी साम्प्रदायिकता आतंकी घटनाओं के लक्ष्य के लिए आधार भूमि का काम करती है किंतु जब समाज में समझदारी होती है तो लोग आतंकियों का आशय समझ कर अपने प्रतिद्वन्दी वर्ग के प्रति उत्तेजित नहीं होते। पिछले वर्षों में मुम्बई लोकल ट्रेन बम विस्फोट, दिल्ली सदर बाजार में दीवाली के अवसर पर हुआ विस्फोट, वाराणसी में एक मन्दिर समेत अनेक स्थलों पर किये गये बम विस्फोटों के बाद भी लोगों का शांत बने रहना साम्प्रदायिकता के निष्प्रभावी होने की सूचना है। जब अजमेर की दरगाह में हुए विस्फोटों की जाँच में मिले सबूतों के आधार पर खोजबीन की गयी तो उसमें संघ के कार्यकर्ताओं के सम्मलित होने के साफ संकेत मिले। पर अब आरएसएस और संघ परिवार का राजनीतिक मुखौटा भाजपा के लोग इन सन्दिग्धों के बचाव में अनाप शनाप बयान देने में लग गये हैं जिनमें से यह भी एक है कि यह उन्हें बदनाम करने की कोशिश है। स्मरणीय है कि समय समय पर संघ और भाजपा यह कहने से नहीं चूकते कि दोनों अलग संगठन हैं और संघ एक सांस्कृतिक संगठन है तथा उसका भाजपा के दैनिन्दिन कार्यों से कुछ भी लेना देना नहीं है। यदि यह सच है तो कोई राजनीतिक बदले के लिए संघ के पदाधिकारी को क्यों फँसाने की कोशिश करेगा। हमारे यहाँ एक स्वतंत्र न्यायपालिका है और यदि कोई जाँच एजेंसी अदालत के सामने पर्याप्त सबूत नहीं प्रस्तुत कर पाती तो वह आरोपी को ससम्मान बरी कर देती है और आवश्यकता होने पर जाँच एजेंसियों के खिलाफ भी टिप्पणी करती है। जिस आतंकवाद के विरोध में संघपरिवार सबसे अधिक मुखर है और जब पर्याप्त प्रमाणों के आधार पर सन्दिग्धों से पूछ्ताछ की जाती है तो वे जाँच एजेंसी के खिलाफ तरह तरह के आरोप लगा कर उसका मनोबल गिरा रहे हैं। यही काम उन्होंने करकरे के खिलाफ भी किया था जिनकी 26\11\2008 को मुम्बई में किये गये हमलों के दौरान मृत्यु हो गयी थी। असल में संघ परिवार का जो दोहरा चरित्र है वही उन्हें परेशानी में डालता है। यह कतई जरूरी नहीं है कि भाजपा और संघ सिद्धांत रूप से उन आतंकी गतिविधियों में सम्मलित हों किंतु वे जिन कुतर्कों और इतिहास की गलत व्याख्या के आधार पर अपने कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करते हैं उससे किसी अतिउत्साही कार्यकर्ता के हिंसक आन्दोलन में कूद पड़ने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। जरूरी होता है कि कार्यकर्ताओं की गतिविधियों और कार्यप्रणाली पर निगाह रखी जाये और उसके सिद्धांतों से विचलित होने की दशा में उसके निष्कासन की कार्यवाही की जाये। यदि उच्च पदाधिकारियों को उसकी गतिविधियों का संज्ञान बाद में होता है तो यह काम एक क्षमा के साथ बाद में भी किया जा सकता है। किंतु संघ परिवार का इतिहास यह रहा है कि वे कभी भी अपनी गलतियों के लिए क्षमा नहीं माँगते तथा दुनिया की आँखों देखी सच्चाई को भी ढीठ बयानों से झुठलाने की कोशिश करते हैं। महात्मा गाँधी की हत्या से लेकर बाबरी मस्जिद तोड़ने और गुजरात में निर्दोष मुसलमानों का नरसंहार करने तक उन्होंने कभी भी भूल नहीं स्वीकारी। झूठ का सहारा भले ही कभी तात्कालिक लाभ दिला दे, किंतु सार्वजनिक जीवन में वह व्यक्ति को अन्दर से कमजोर करता है। इसी कमजोरी को ढकने के लिए वह कठोरता अपनाते अपनाते हिंसक हो जाता है। ये लोग दलबदल करने, करवाने, संसद में सवाल पूछने के लिए पैसे लेने, सांसदनिधि बेचने, सदन न चलने देने से लेकर अनियंत्रित भ्रष्टाचार के द्वारा विधायिका को तो पर्याप्त नुकसान पहुँचाते ही रहे हैं, अब कार्यपालिका को काम न करने देने और न्यायपालिका के आदेशों को आस्था के नाम पर नकारने की बात करके पूरे तंत्र को नष्ट करने की सतत कोशिश कर रहे हैं।
सवाल उठता है कि इनका यह काम नक्सलवादियों, अलगाववादियों और आतंकवादियों से किस तरह भिन्न है? क्या भगवा आतंकवाद भी इनकी आस्था का सवाल है जिस पर अदालत विचार नहीं कर सकती।

वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, अक्तूबर 22, 2010

फैसला नहीं जनहित में एक समाधान

फैसला नहीं किंतु जनहित में एक समाधान वीरेन्द्र जैन
एक सम्पन्न सेठ एक बार यात्रा पर जाने के लिए प्रातः जब घर से निकले तो उनके रात्रि कालीन चौकीदार ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया कि वे जिस हवाई जहाज से यात्रा करने वाले हैं उससे न जायें क्योंकि उसने रात्रि में सपने में देखा कि उस हवाई जहाज का एक्सीडेंट हो गया है। वैसे तो सेठजी इन बातों को दकियानूसी मानते थे पर कुछ सोच कर उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी। संयोग से उस दिन वह् जहाज सचमुच दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उसमें सवार सभी यात्री मारे गये। उसके कुछ दिन बाद वे जब एक ट्रेन से जाने वाले थे तो उसी रात्रि कालीन चौकीदार ने एक बार फिर हाथ जोड़ते हुये बताया कि उसने सपने में देखा कि उस ट्रेन का एक्सीडेंट हो गया है इसलिए कृपया उस ट्रेन से न जायें। सेठजी ने यात्रा स्थगित कर दी और एक बार फिर ऐसा संयोग हुआ कि उस ट्रेन का एक्सीडेंट हो गया और एक बार फिर सेठजी की जान बच गयी। सेठजी ने उस चौकीदार को बुलाया और उसे पाँच लाख रुपयों की राशि इनाम में देते हुए बोले कि तुमने हमारी जान बचायी है इसके लिए यह मामूली सी राशि दे रहा हूं और इसी के साथ तुम्हें नौकरी से निकाल रहा हूं। खुशी और दुख एक साथ झेलते हुए जब उसने सेठजी से कारण जानना चाहा तो वे बोले कि तुमने हमारी जान बचायी उसके लिए यह चेक है, किंतु हमने तुम्हें रात की चौकीदारी के लिए रखा है न कि सोने और सपने देखने के लिए। तुमने हमारी जान बचाने के लिए जो कुछ किया वह पुरस्कार के योग्य है किंतु अपनी ड़्यूटी ठीक तरह नहीं निभाने के कारण तुम्हें नौकरी से मुक्ति देना भी जरूरी है।
ठीक इसी तरह रामजन्म भूमि मन्दिर और बाबरी मस्जिद भवन भूमि विवाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिये गये फैसले ने हमारी जान बचा दी है भले ही उसे मुकदमे के इतिहास और उसकी संवेदनशीलता को देखते हुए जनहित में न्याय की जगह समाधान माना जा रहा हो।
इस फैसले ने देश को एक नये मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। विवादित भूमि- भवन का यह बँटवारा यदि समाज में शांति बनाये रखने व हिंसक साम्प्रदायिकों से लोगों की जान माल की रक्षा के पवित्र लक्ष्य को ध्यान में रख कर किया गया है, जैसा कि विभिन्न न्यायविदों द्वारा समझा जा रहा है, तो ये हमारी व्यवस्था पर गम्भीरतापूर्वक विचार का विषय है। इस फैसले का स्पष्ट संकेत है कि न्यायपालिका हमारे समाज और शासन-प्रशासन को इतना सक्षम नहीं मानती जो संवैधानिक न्याय का शांतिपूर्वक परिपालन करा सके। इसलिए उसने अपनी ओर से सरकारों की क्षमता के अनुरूप ऐसा फैसला देने का प्रयास किया है जो सीधे सीधे किसी को भी आहत न महसूस होने दे और अपने स्वार्थ में साम्प्रदायिक शक्तियां इसका अनुचित लाभ न उठा सकें। उन्हें आभास रहा होगा कि इतने लम्बे चले विवाद में राजनीतिज्ञों के पड़ जाने से वे किसी भी पक्ष को न तो फैसला स्वीकार करने देंगे और न ही समझौता करने देंगे। अंततः इसका अंतिम फैसला सुप्रीम कोर्ट से होना होगा तथा समाज में शांति चाहने वाले लोग यही चाहेंगे कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी तब तक चले, जब तक कि समाज इतना परिपक्व न हो जाये कि न्यायपालिका के अंतिम फैसले को विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर ले।
कानून और व्यवस्था राज्य सरकारों की जिम्मेवारी होती है और भिन्न भिन्न राज्यों में भिन्न भिन्न राजनीतिक दलों या गठबन्धनों की सरकारें हैं। इनमें से कुछ राजनीतिक दल ऐसे भी हैं जो अपनी सांगठनिक क्षमता की दम पर साम्प्रदायिक हिंसा से लाभ उठाते रहे हैं व गैर राजनीतिक आधार पर अपना विस्तार करते रहे हैं। इस सण्भवना से इंकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे राजनीतिक दल और संगठन उसे एक चुनावी लाभ के अवसर की तरह लें। ऐसा सोच इसलिए भी सम्भव है कि पिछले कुछ वर्षों में कुछ राज्य सरकारों ने अपने चुनावी लाभ के लिए राजधर्म का पालन नहीं किया था। इसी विवादित स्थल को अदालत के फैसले के पूर्व ही ढोल धमाकों के साथ ध्वस्त कर दिया था और राष्ट्रीय एकता परिषद में उसकी रक्षा का वादा करने के बाद भी तत्कालीन सत्तारूढ मुख्यमंत्री आज अपने उस कृत्य पर गर्व करते घूम रहे हैं। इस घटना के लिए षड़यंत्र रचने वालों की जाँच को ही सम्भवतः देश में शांति बनाये रखने के लिए अठारह साल तक खींचा गया था और आज तक उसकी अंतिम रिपोर्ट अपनी परिणति की प्रतीक्षा कर रही है। गुजरात में साबरमती एक्सप्रैस की बोगी नम्बर 6 में लगी आग के बाद पूरे प्रदेश में सरकारी इशारे पर निर्दोष और कमजोर मुसलमानों का नर संहार किया गया था व उसके अपराधियों को आठ साल बाद कोई सजा नहीं मिल सकी है, सारे अपराधी सोचे समझे कमजोर अभियोजन और गवाहों पर पड़े दबावों के कारण छूट गये हैं। बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद आहत मुस्लिम संगठनों ने पूरे मुम्बई में जगह जगह बम विस्फोट करके सैकड़ों निर्दोष नागरिकों को मौत के मुँह में धकेल दिया था जिन में से कई को फाँसी की सजा घोषित हुयी है, किंतु जिस जिस घटना की प्रतिक्रिया में बम विस्फोट हुये उसके अपराधी अभी भी बड़े बड़े संवैधानिक पदों को भोगते हुये आराम से हैं व और बड़े सपने देख रहे हैं। जब तक सुप्रीम कोर्ट का फैसला आये तब तक का समय यह अवसर देता है कि इस बीच समाज एक ऐसा सशक्त धर्मनिरपेक्ष संगठन तैयार कर ले जो अदालत के फैसले को लागू करवाने लायक व्यवस्था बना सकने में प्रशासन का सहयोगी हो और इतना सक्षम हो कि साम्प्रदायिक सद्भाव को तोड़ने वाली किसी भी रंग की शक्तियों से मुकाबले के लिए तैयार हो।

साम्प्रदायिक ताकतों का दुस्साहस धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के अभाव में ही उफान लेता है और अपने पक्ष की सरकार में ही हिंसा फैलाता है। जहाँ जहाँ धर्मनिरपेक्ष शक्तियाँ सक्रिय होती हैं वहाँ साम्प्रदायिकता कोने में दुबक जाती है। यह चिन्ता का विषय है कि उत्तर पश्चिम भारत में अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए समाज को तोड़ने वाली शक्तियाँ अधिक संगठित और साधन सम्पन्न हैं जिसका दुष्प्रभाव न्यायिक फैसलों तक पहुँचता है। इस फैसले का एक खतरा यह भी हो सकता है कि साम्प्रदायिक शक्तियों की विध्वंसक क्षमता अपने अनुसार फैसला करवाने के लिए अपनी हिंसक मनोवृत्ति को और अधिक धार देने लगे। विनय कटियार और महंत अवैद्यनाथ जैसे लोगों ने संकेत देने शुरू कर दिये हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023 मो. 9425674629

मंगलवार, अक्तूबर 19, 2010

jhaankiyaan- Trade of recreation and polatical instruments झांकियां- मनोरंजन का व्यापार और राजनीतिक औजार्

झांकियाँ- मनोरंजन का व्यापार और राजनीतिक औजार
वीरेन्द्र जैन
पूरा मध्य और पश्चिम-मध्य भारत सांस्कृतिक अतिक्रमण का शिकार हो गया है। यह अतिक्रमण न केवल पश्चिमी संस्कृति की ओर से हुआ है अपितु देश के दूसरों क्षेत्रों की संस्कृति का भी हुआ है। उनकी अपनी राम लीलाएं, रासलीलाएं, और भागवत कथा आदि की परम्पराएं हाशिये पर धकेल दी गयी हैं और गणेश, दुर्गा की झांकियों व गरबा नृत्य के आयोजनों के द्वारा महाराष्ट्र, बंगाल और गुजरात की संस्कृति केन्द्र में आ गयी है।
जातिवादी से विभाजित समाज में मन्दिर प्रवेश से वंचित दलितों पिछड़ों को स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागी बनाने की दृष्टि से तिलक ने सार्वजनिक स्थलों पर गणेश की झांकियां सजाने की परम्परा डलवायी जो पूरे महाराष्ट्र में जहाँ गणेशजी को मुख्य देवता की तरह पूजा जाता है, प्रभावकारी रही और बिना किसी जातिगत भेदभाव के झांकियों में लोग सामूहिक रूप से इकट्ठे होने लगे। इस सामूहिकता ने आजादी के आन्दोलन को बल पहुँचाया। ये झांकियां आजादी के बाद भी पूरे महाराष्ट्र में लगती रहीं। इस विचार का स्तेमाल आजादी के बाद की राजनीति ने अपने तरह से किया। देश के आजाद होते समय जो साम्प्रदायिक दंगे हुये उसने उस समय और उसके बाद भी संगठित धार्मिक समाज की भावना को अपनी सत्ता लोलुपता के लिए भुनाने की कूटनीति को जन्म दिया। आज से 25 वर्ष पूर्व जब एक चुनाव में पराजित राजनीतिक दल द्वारा रामजन्मभूमि मन्दिर के विवाद को उभारा गया तब समाज में धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए वे सारी तरकीबें अपनायी गयीं जिनसे राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता हो। इसमें सामूहिक रूप से महाराष्ट्र और बंगाल की गणेश और दुर्गा की झांकियों की परम्परा को मध्यभारत में आयातित किया गया। वैज्ञानिक चेतना के विकास से विकसित उपकरणों ने समाज को जो सुविधाएं प्रदान कीं उसने पश्चिमीकरण के प्रति तीव्र आकर्षण पैदा करने में मदद की, जिसके परिणाम स्वरूप लोगों की रुचि परम्परागत धार्मिक कर्मकाण्डों से हट रही थी इसके लिए उन्हें इन कर्मकाण्डों के लिए के तमाशों के द्वारा आकर्षित करने की कोशिश की गयी व इनमें मनोरंजन का तत्व जोड़ा गया। झांकियों में बिजली की चकाचौंध, डीजे पर पश्चिमी धुनों पर आधारित उत्तेजक संगीत पर मढे गये भजनों और चालू सांस्कृतिक मनोरंजन का स्तेमाल करके युवाओं और बच्चों को आकर्षित किया गया। झांकी स्थलों पर मेलों ठेलों जैसा चाट पकौड़ी पिज्जा डोसा, झूलों, खिलोनों का बाजार लगाया गया। जैसा कि होता है भीड़ को देख कर भीड़ बढती है सो उसका लाभ भी धर्म की राजनीति करने वालों को मिला। रामजन्मभूमि मन्दिर का अभियान प्रारम्भ होने के साथ साथ झांकियों की संख्या और उनके आकार प्रकार व सजावट में अभूतपूर्व उछाल आया जिसके बहाने जगह जगह बाहुवली युवाओं के संगठन बनने लगे जो न केवल अपने संख्या बल के कारण समुचित चन्दा वसूलने लगे अपितु उन्हें लाभांवित होने वाले नेताओं के इशारों पर जहाँ जरूरी थीं वहाँ गोपनीय ढंग से भरपूर ‘धार्मिक सहयोग’ मिलने लगा। इससे मूर्तियों के आकार में वृद्धि हुयी और पण्डालों की संख्या व उनके बाजारू आकर्षण में विस्तार होता गया। बेरोजगार दलित और पिछड़े युवाओं को न केवल काम ही मिला अपितु खेल खेल में धन जुटाने का अवसर भी मिला। धर्म के नाम पर जुटे इन आयोजनों ने आयोजकों को क्षेत्र के मतदाताओं के बीच प्रतिष्ठित और परिचित होने का ही अवसर नहीं दिया अपितु उनके साथ लगने वाले छुटभैयों को अपने शौक पूरे करने के लिए साधनों का रास्ता खोल दिया। जो झांकी मँहगे बाजारों में सजने लगीं वे उसी के अनुसार आकार में बड़ी होने लगीं और उन्हें तरह तरह की लुभावनी सजावट तथा रौशनी से भर दिया गया। व्यापारियों से चन्दा वसूलना अपेक्षाकृत आसान होता है क्योंकि वे किसी भी तरह से काम का नुकसान नहीं चाहते और बाजार भाव उनके हाथ में होने के कारण वे जितना चन्दा देते हैं उससे कई गुना भाव बढा कर अपने ग्राहकों से वसूल लेते हैं। इन झांकियों के समय न केवल सब्जी और फल वाले ही अपने दाम बढा देते हैं अपितु किराना आदि दूसरे दुकानदार भी दिया गया चन्दा अपने ग्राहकों पर डाल देते हैं। यही कारण है सबसे बड़ी झांकियां नगर के सबसे मँहगे बाजारों में लगती हैं। सौ-सौ, दो-दो सौ मीटर की दूरी पर लगी झांकियां इस बात का संकेत देती हैं कि इन का धर्म और पूजा से कोई मतलब नहीं है अपितु अपनी अपनी दुकान की तरह ही इन्हें स्थापित किया जाता है। स्थानीय पार्षद, विधायक, और मुख्यमंत्री के बैनर लगा के इन्हें राजनीतिक बना दिया जाता है। कई बार इसमें अपने को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले दलों के नेता भी अपने चुनावी सम्पर्कों के विस्तार के लालच में सहयोगी हो जाते हैं, जो यह नहीं जानते कि अंत्तोगत्वा इसका लाभ घोषित रूप से धर्म की राजनीति करने वालों को ही मिलेगा। ये झांकियां मुख्य बाजार की दुकानों की तरह मुख्य मार्गों पर अधिक से अधिक रास्ता रोक कर स्थापित की जाती हैं ताकि सड़क से गुजरने वालों की निगाहों से अलक्षित न रह जाये और अनचाहे भी रस्ता चलने वालों को आयोजकों के बड़े बड़े बैनर देखना पड़ें। मार्ग अवरुद्ध होने की उन्हें कोई चिंता नहीं होती, अपितु वे इसे वास्तविक से अधिक बढी हुयी भीड़ का दृष्य रचने के लिए प्रसन्नता देती हैं। दूर दूर तक लगाये लाउडस्पीकर भी निरंतर चीखते रहते हैं और इस कोलाहल से न होते हुए भी यह भ्रम पैदा किया जाता है कि पण्डाल में बहुत सारे लोग हैं। डीजे और सीडी पर बजा कर निश्चिंत हो जाने की नई परम्परा ने हारमोनियम ढोलक पर होने वाले भजनों और रामायण पाठ को परे धकेल दिया है।
पण्डाल के चारों ओर प्लेक्स के विज्ञापन लगे होते हैं जो आयोजकों को अच्छी कमाई करवाते हैं। प्रतिदिन चढावे में और अंतिम दिन सड़क पर ही किये जाने वाले हवन और भण्डारे में भी काफी राशि एकत्रित हो जाती है। अधिकांश पण्डालों के लिए बिजली का कनेक्शन नहीं लिया जाता और सीधे ही खम्भों पर तार डाल के भरपूर रोशनी की जाती है। तथाकथित धर्म के नाम पर रोकने की हिम्मत किसमें है? अनेक पण्डालों में सुरक्षा के नाम पर रात में बैठे रहने वाले युवक नशा करते हैं और ताश खेलते रहते हैं, ज्यादातर जुआ खेलते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम पर भी फूहड़ कार्यक्रम अधिक होते हैं। बच्चों व महिलाओं को हूजी[तमोला] खिलाया जाकर जुए की उत्तेजना का स्वाद लगाया जाता है। सड़कों पर किया गया यह अतिक्रमण और ध्वनि के कारण किया जा रहा प्रदूषण कई बार विवाद और झगड़े का कारण बनता है। संगठित लोग मुँह मांगा चन्दा न देने वालों को विशेष परेशान करने की कोशिश करते हैं, जिस कारण भी विवाद की सम्भावना सदैव बनी रहती है। कई बार रात्रि जागरण, जो असल में दूसरों को अपने धर्म के लिए न सोने देने के कार्यक्रम हैं, बीमारों, कर्मचारियों और परीक्षा देने जाने वाले छात्रों के सामने गम्भीर संकट खड़ा कर देते हैं। समयाविधि पूरी हो जाने के बाद मूर्तियों को सरोवरों में विसर्जित किया जाता है जिससे अब मूर्तियों को अधिक चमकीला और आकर्षक बनाने के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले तरह तरह के रासायनिक पदार्थों से जल प्रदूषण होता है। विसर्जन से पूर्व उन्हें जलूस की शक्ल में ले जाते हैं जिससे सड़कों पर घंटों जाम लगा रहता है, और प्रतिबन्धित क्षेत्र से निकालने की जिद दंगों की आशंका समेत कानून और व्यवस्था की समस्या उत्पन्न करती है। इसके लिए विशेष सुरक्षा बलों को लगाना पड़ता है। ये सारे आयोजन इस क्षेत्र में अपने परम्परागत सांस्कृतिक आयोजनों के अतिरिक्त होने से समाज पर बोझ द्विगुणित हो गया है जबकि जिन क्षेत्रों से ये आयातित किये गये हैं उन्होंने इस क्षेत्र की संस्कृति को अपने क्षेत्र म,एं स्थान नहीं दिया।
इन झांकियों से लाभांवित होने वाला वर्ग, मूर्ति निर्माता, पण्डाल वाले, प्रसाद विक्रेता, लाउडस्पीकर डीजे वाले, चन्दा उगाहने वाले, पंडाल की देखरेख करने और मूर्ति विसर्जित करनेवाले, छुटभैये नेता,समेत धर्म की राजनीति करने वाले दल व गरबा प्रशिक्षण से लेकर उन्हें आयोजित करने वाले संस्थान आदि होते हैं जबकि छात्रों, कर्मचारियों, घरेलू महिलाओं, बीमारों, सड़क पर चलने वाले आटो रिक्सा वाले, दुकानदारों, ठेकेदारों, ग्राहकों, आदि को उपरोक्त लाभ उठाने वालों की भरपाई करना पड़ती है। जब अपने धर्म निरपेक्ष देश में आस्थाओं की स्वतंत्रता है और लालच व दबाव से धर्मपरिवर्तन का प्रयास तथा ईशनिन्दा अपराध है तब किसी भी धर्म में आस्था न रखने वाले नस्तिकों के विश्वासों की रक्षा के लिए कोई कानून क्यों नहीं है? उन्हें क्यों विभिन्न धार्मिकों के निहित स्वार्थों का शिकार होने को विवश होना पड़ता है।
सड़कों चौराहों पर अतिक्रमण करता और ध्वनि प्रदूषण के द्वारा दूसरों की स्वतंत्रता को बाधित करता तथाकथित धर्म कब अपने मुखौटे उतार कर धर्मस्थलों और आश्रमों मठों की ओर लौटेगा, जिसके खाते में अभी तक समाज का नुकसान अधिक दर्ज हो रहा है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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रविवार, अक्तूबर 17, 2010

धर्म के खोटे सिक्के असली धर्म को बाहर किये हैं


धर्म के खोटे सिक्के असली धर्म को बाहर किये हैं
वीरेन्द्र जैन
पिछले कुछ वर्षों से धर्म के नाम पर धोखा देने और सम्पत्ति हड़पने, महिलाओं का यौन शोषण करने, से लेकर हत्या तक के समाचार लगातार प्रकाश में आ रहे हैं। सामाजिक व्यवस्था से निराश आम आम आदमी धार्मिक संस्थानों और उनके गुरुओं के पास बड़ी उम्मीद लेकर जाता है किंतु जब उसकी उम्मीदें वहाँ भी टूटती हैं तो उसके पास कोई चारा नहीं बचता। प्रत्येक धर्म अपने समय में मनुष्य की गहनतम समस्याओं से मुक्ति दिलाने के लिए अस्तित्व में आया होता है, किंतु उस पर अन्धविश्वास करने वाले उसे उसी काल में रोक कर उसकी जीवंतता को नष्ट कर देते हैं जबकि समय बदलता रहता है और लोगों की समस्याएं बदलती रहती हैं। लोगों के विश्वासों का विदोहन करने वाले उसे दूसरी अनजान अनदेखी दुनिया में हल मिलने का झांसा देकर अपनी अक्षमताओं को छुपाये रहते हैं जबकि धर्म अपने जन्मकाल में इसी दुनिया के इसी समय में स्वयं के महसूस करने की वृत्ति को बदलने के लिए पैदा होते रहे हैं।
सुप्रसिद्ध दार्शनिक और तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली डा.राधा कृष्णन जब अमेरिका यात्रा पर गये और जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जान एफ केनेडी उनकी अगवानी करने के लिए पहुँचे तब बरसात हो रही थी। राष्ट्रपति केनेडी ने मजाक में कहा- ओह, प्रैसीडेंट यू ब्राट रेन विथ यू! [राष्ट्रपतिजी आप अपने साथ बरसात लाये हैं] इस पर हमारे दार्शनिक राष्ट्रपति का उत्तर था- प्रैसीडेंट वी केन नाट चेंज इवेंट्स, बट वी केन चेंज अवर एट्टीट्यूड टुवर्ड्स दि चेंजिंग इवेंट्स [राष्ट्रपतिजी, हम घटनाओं को नहीं बदल सकते किंतु घटनाओं के प्रति अपने व्यवहार को बदल सकते हैं]
धर्म आम तौर पर समाज परिवर्तन की नहीं, अपितु घटती घटनाओं के प्रति व्यवहार परिवर्तन की शिक्षा देने का तरीका रहा है। समय व क्षेत्र के अनुसार इस शिक्षा में परिवर्तन अवश्यम्भावी रहता है। धर्म जड़ नहीं हो सकता भले ही उसकी अनेक सलाहें लम्बे समय तक उपयोगी बनी रहने वाली हों। उसे निरंतर कसौटी पर कसे जाने की जरूरत हमेशा बनी रहती है और इसी कसौटी ने निरंतर धर्मों को विकसित किया है, उनमें परिवर्तन किया है, उनका नया नामकरण किया है। जीवंत धर्म को मनवाने के लिए ताकत लालच और अज्ञान का सहारा नहीं लेना पड़ता वह तो स्वयं ही व्यक्ति की जरूरत बन जाता है। स्वर्ग लालच है तो नर्क झूठाधारित भय होता है।
जैसे विश्वासघात वही कर सकता है जिस पर विश्वास किया हो, उसी तरह धर्म के नाम पर उसके अन्धविश्वासी ही धोखा खा सकते हैं। जो लोग भी धर्म के नाम पर धोखा देना चाहते हैं वे कहते रहते हैं कि धर्म के बारे में सवाल मत करो और गुरू के आदेश को आंख बन्द कर मानो। शायद यही कारण है कि मार्क्स को कहना पड़ा कि इससे अफीम का काम लिया जाता है। सच तो यह है कि धर्म जागरण होना चाहिए, धर्म को विवेक को विकसित करने वाला होना चाहिए, जो वह है भी। किंतु निहित स्वार्थी लोग उसे रहस्य बना कर उसके बारे में प्रश्न न उठाने की सलाह देकर उसे अफीम बना देते हैं।

उसमें ये विकृत्तियाँ सदैव से नहीं रहीं। धर्म हमेशा से ऐसा नहीं था। कुछ लोकोक्तियों पर ध्यान दें तो बात समझ में आती है। जैसे कहा जाता रहा है- पानी पीजे छान कर, गुरू कीजे जानकर। जानना विवेक का काम है विश्वास का नहीं। यह परखना भी है। कबीर ने कहा है- जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। ये पंक्तियां भी इसी बात की ओर संकेत करती हैं कि साधु की जाति पूछना जरूरी नहीं है किंतु उसके ज्ञान को जानना परखना जरूरी है। धार्मिक इतिहास बताता है कि पुराने काल में शास्त्रार्थ होते थे जो इस बात का प्रमाण है कि विचारों को आंख मूंद कर नहीं माना जाता था अपितु उस पर अपने तर्क वितर्क सामने रखे जाते थे। हमारी प्राचीनतम राम कथा में भी प्रसंग आता है कि सीता का हरण एक साधु के भेष में धोखा देकर ही किया गया था व कालनेमि धोखा देने के लिए झूठा राम भक्त बन गया था। भारतीय संस्कृति की विशेषता ही यही है कि वह किसी एक किताब या गुरू पर जड़ होकर नहीं रह गया। यहाँ एक ही समाज में शैव, शाक्त, वैष्णव, जैन, बौद्ध, और लोकायत दर्शन आते गये और कुछ अपवादों को छोड़ कर धीरे धीरे सहअस्तित्व के साथ रहते चले गये। लोगों ने विवेक पूर्वक अपने धर्मों का चुनाव किया। बाद में सिख धर्म आया, कबीर पंथी आये और पिछली शताब्दी में आर्य समाज ने बड़ी संख्या में विवेकवान लोगों को प्रभावित किया। साम्राज्यवाद द्वारा फैलायी गयी साम्प्रदायिक राजनीति के उदय के पूर्व तक बाहर से आये इस्लाम और ईसाई धर्म के साथ भी सहअस्तित्व बना रहा है जो जनता के स्तर पर अभी भी कायम है। हिन्दू मुस्लिम राजाओं के बीच धर्म के आधार पर कभी युद्ध नहीं हुए, जैसा कि कुछ साम्प्रदायिक संगठन बताते हैं। दोनों की सेनाओं में ही दोनों धर्मों के सिपाही रहे और उनके बीच राजसत्ता के लिए लड़ाइयाँ हुयीं।
आज के व्यापारिक साधु जब आपराधिक गतिविधियों में पकड़े जाते हैं तो उनकी प्रतिक्रिया बहुत ही हास्यास्पद होती है। जैसे-
सरकार उन्हें फँसा रही है,
सरकार हमारे धर्म के लोगों को परेशान करना चाहती है
यह दूसरे धर्म के लोगों के तुष्टीकरण के लिए किया जा रहा है।
सम्बन्धित अधिकारी विधर्मी है, आदि
उनके अन्धविश्वासी भक्त भी सामने आये सच को नहीं देखना चाहते और उनकी आधारहीन सफाई में भरोसा करने लगते हैं। सच तो यह है कि धार्मिक विश्वासों के आधार पर बने गिरोह ही आज इंसानियत के सबसे बड़े दुश्मन बने हुए हैं। एक भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में भी हिन्दू, मुस्लिम, सिख आदि के नाम पर राजनीतिक दल बने हुए हैं और जो लोकतत्र की भावना का दम घोंट रहे हैं। मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, अकाली दल ही नहीं, आपितु एक झीने परदे के साथ भाजपा, शिवसेना व केरल के ईसाई लोगों के दल आदि भी इसी आधार पर धर्म के मूल स्वरूप को कलंकित कर रहे हैं। लोग अपने धार्मिक अन्धविश्वासों के आधार पर अपने दल का चयन कर रहे हैं, जबकि ऐसे दल अपने स्वार्थ के लिए न केवल उन्हें छल रहे हैं अपितु उन्हें धर्म के मार्ग से भटका रहे हैं। ऐसे ही दल छद्म धर्मगुरुओं को प्रश्रय देते हैं क्योंकि वे परस्पर सहयोगी होते हैं। जैसे खोटे सिक्के असली सिक्के को चलन से बाहर कर देते हैं उसी तरह धर्म के मुखौटे लगाने वाले लोग धर्म की मानवीय भावना को धता बताते हुए उसे नष्ट कर रहे हैं। आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि धार्मिक संस्थाओं और उनके संचालकों के आचरणों को गहराई से परखते रहा जाय और अपने सवालों को बेबाकी से रखने में कोई संकोच न किया जाये। आम तौर पर ऋषि मुनि और दूसरे धर्म गुरु कम से कम साधनोंका प्रयोग करते हुए सादगी से रहते रहे थे जिससे धार्मिक संस्थानों की पारदर्शिता बनी रहती थी, किंतु अब स्तिथि बदल गयी है। धार्मिक संस्थानों के पास अटूट दौलत और अचल सम्पत्तियाँ हैं, जो धर्म के क्षेत्र में विकृत्तियों के लिए जिम्मेवार है। धर्मगुरू मोटी मोटी चारदीवारी में रहते हैं जिनके चारों ओर सशस्त्र गार्डों का पहरा रहता है। उनके पास धन के उपयोग की कोई योजना नहीं है और वे उस धन को समाज के हित में भी नहीं लगा रहे हैं। वे प्राप्त धन पर टैक्स मुक्ति की अनुमति लिए हुए होते हैं और काले धन को सफेद करने का काम करते हैं। जरूरी हो गया है कि धर्म को मानने वाले धर्म में आयी विकृत्तियों के खिलाफ भी निर्भयतापूर्वक मुखर हों। यह धर्म की रक्षा का काम होगा। इससे ही धर्म का भला होगा अन्यथा नकली लोग कानून की पकड़ में आने के पूर्व असली धर्म को नष्ट कर चुके होंगे।
विवेकानन्द की अनास्था और प्रश्नाकुलता ने ही उन्हें उस मंजिल तक पहुँचाया जहाँ से वे पूरे विश्व को सम्बोधित कर सके। यदि वे बचपन से ही अन्धभक्ति में पड़ जाते तो लाखों विवेकशून्य लोगों की तरह बिना कोई पग चिन्ह छोड़े इस दुनिया से कूच कर गये होते।
अविश्वास ही ज्ञान के मार्ग का प्रारम्भ बिन्दु होता है।

वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, अक्तूबर 07, 2010

अयोध्या फैसला कौन कहता है कि कोई जीता हारा नहीं


अयोध्या फैसला---
कौन कहता है कि कोई जीता हारा नहीं
वीरेन्द्र जैन
इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा अयोध्या के राम जन्म भूमि- बाबरी मस्जिद विवाद के बारे में साठ साल बाद जो फैसला आया है उसके बारे में बहुत सारे अखबारों, नेताओं, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने संतोष की साँस लेते हुये कहा है कि कोर्ट द्वारा बहुमत के आधार पर सुनाये गये फैसले से किसी की जीत हार नहीं हुयी है। उनके इस कथन से मेरी विनम्र असहमति है। ऐसा लगता है कि साँस साध कर क्रिकेट का काँटे का मुकाबला देखते हुये देश को मैच के ड्रा हो जाने की सूचना मिली है। मैं मानता हूं कि इस फैसले से से भले ही मुकदमा लड़ रहे पक्षों में से कोई सीधे सीधे यह नहीं कह पा रहा हो कि उसकी जीत हुयी है या हार हुयी है किंतु एक बात तो तय है कि इस फैसले से अमन पसन्द जनता की जीत हुयी है और साम्प्रदायिकता की पराजय हुयी है।
इस मामले में ऐसा भ्रम दिया गया था गोया यह कोई जमीन के मालिकाना हक का विवाद हो, पर ऐसा नहीं था। आज की दुनिया में एक सेंटीमीटर जगह भी ऐसी नहीं है जहाँ पर किसी की जन्म-मृत्यु न हुयी हो या कोई इमारत ऐसी हो जहाँ पर उससे पहले कभी कोई दूसरी इमारत न रही हो। इमारतों के भी मालिक उस काल के कानून व्यवस्था के अनुसार बदलते रहे हैं। फैसला इस बात पर होना था कि वर्तमान में विवादित जमीन का मालिक कौन है? न्याय की देवी ने आँखों से बँधी पट्टी उतार के ममता पूर्वक कुंती की तरह सबको बराबर बराबर बाँट लेने का आदेश दे डाला है। फिर भी सच तो यह है कि इस फैसले से मुकदमे के पक्षकारों में से कोई खुश नहीं हो सकता क्योंकि उन सबकी खुशी तो लड़ाई में छुपी है जिसे टाल दिया गया है। वे तो जनता के रुख को देखते हुये अपनी अप्रसन्नता खुलकर व्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। अगर हाँडी के कुछ चावलों को परखें तो हमें इस का आभास हो जायेगा।
आडवाणीजी ने बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद कहा था कि अदालत के फैसले में देर होने के कारण लोग असंतुष्ट हो गये थे और उनके असंतोष ने बाबरी मस्जिद को उनके रोकने के बाबजूद ध्वंस कर दिया क्योंकि वे उनकी भाषा को नहीं समझ पाये। किंतु शायद आडवाणीजी उनके मन की भाषा को समझते थे और उन्होंने समझ लिया कि बाबरी मस्जिद के टूटने के पीछे क्या भावना काम कर रही थी। पर जब अदालत का फैसला आने का दिन तय हो गया तो उनके संघ परिवार के ही लोग कहने लगे कि राम जन्मभूमि मन्दिर कानून का नहीं आस्था का विषय है और आस्था का फैसला कानून से नहीं हो सकता। इस बात का परोक्ष समर्थन करते हुये स्वय़ं आडवाणीजी ने अपनी वाणी पर संयम रखा और अपनी पार्टी वालों से वाणी पर संयम रखने की सलाह दी ताकि कोई यह न कह बैठे कि वह अदालत का फैसला मानेगा। वे कहते रहे कि इस विषय में अपनी प्रतिक्रिया वे अदालत का फैसला आने के बाद देंगे, अर्थात वोटों के सौदागर फैसले पर जनता का रुख भाँप कर अपनी दिशा तय करेंगे। उनकी पार्टी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष कहते रहे कि केन्द्र की कांग्रेस सरकार को अदालत के आदेश को दरकिनार करते हुये कानून बना कर उसी स्थान पर राम मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। वे यह जानते हुये भी कह रहे थे कि कोई भी कानून संसद से पास होने के बाद ही बनता है और इस समय संसद में कानून को आस्था से ऊपर मानने वालों का बहुमत है जिनमें उनके गठबन्धन के जेडी[यू] जैसे बड़े दल भी शामिल हैं। इस अवसर पर उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि जब केन्द्र में उनकी सरकार थी तब उन्होंने ऐसा कानून बनाने की पहल क्यों नहीं की। पर जनता की समझ में आ गया कि जब कानून अपना फैसला देने वाला था तब उसके फैसले को न मानने की घोषणा के पीछे विवाद को निरंतर बनाये रखने की इच्छा का आशय क्या है। उत्साह में फैसले के तुरंत बाद उनकी पार्टी के प्रवक्ता एडवोकेट रवि शंकर प्रसाद ने फैसले का स्वागत कर दिया किंतु पार्टी के निर्देश के बाद शाम तक उनका रुख बदल गया। यह वैसा ही था जैसा कि पार्टी अध्यक्ष बनते ही नितिन गडकरी ने अयोध्या में मन्दिर मस्जिद साथ साथ बनवाने की इच्छा व्यक्त कर दी थी पर उसके बाद उन्होंने दुबारा कभी यह इच्छा व्यक्त नहीं की क्योंकि उन्हें ऐसा करने से रोक दिया गया था। उनकी विश्व हिन्दू परिषद के लोग जोर शोर से कहने लगे कि पूरे अयोध्या में उन्हें कहीं भी बाबरी मस्जिद मंजूर नहीं है, गोया वे देश की सबसे बड़ी नियामक संस्था हों और जो कुछ वे चाहते हों वही होने दिया जा सकता हो। फैसले का एक सप्ताह बीतने से पहले ही आडवाणीजी कहने लगे कि बाबरी मस्जिद को सरयू के किनारे बनवाया जा सकता है अर्थात जिस स्थान पर कोर्ट ने उसके लिए जगह दी है वहाँ पर बाबरी मस्जिद का बनना आडवाणीजी को मंजूर नहीं है। आस्था के सवाल को कानून से हल न होने की घोषणा करने वाले लोगों ने ही फैसला आने के बाद बेंच के एक न्यायाधीश धर्म वीर शर्मा के सम्मान करने की घोषणा भी कर दी।
मुस्लिम वक्फ बोर्ड को तो पहले दिन से ही फैसला मंजूर नहीं था क्योंकि उनका दावा खारिज कर दिया गया था किंतु उन्होंने अदालत का फैसला मानने के अपने बयान पर कायम रहते हुये मामले को वैधानिक तरीके से सुप्रीम कोर्ट ले जाने की घोषणा कर दी थी। वे यह भी जानते थे कि कोर्ट के फैसले का इतने दिन इंतजार करने के बाद अब उनके पास दूसरा रास्ता नहीं है व शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने पर तत्कालीन सरकार की इतनी फजीहत हो चुकी है कि अब कोई भी सरकार वैसी गलती नहीं करेगी।
इस मामले में सदैव ही गलत परिभाषाएं प्रयुक्त हुयी हैं। विवाद के पक्षकारों को हिन्दू और मुस्लिम कहा गया गोया कि वे हिन्दू या मुसलमानों के वैधानिक प्रतिनिधि हों, और ऐसा करते हुये यह भुला दिया गया कि जमीन का यह विवाद इन शब्दों के प्रयोग से ही साम्प्रदायिक आधार भूमि में बदल जाता है। वैष्णवों में राम पंथ के उपासक उत्तर भारत में ही पाये जाते हैं और हिन्दू के रूप में गिने जाने वाले पंथियों में वे शैवों, शाक्तों और विष्णु के दूसरे अवतारों को मानने वालों से ही नहीं अपितु सिखों, बौद्धों, जैनों, व आदिवासियों से भिन्न हैं। जन्म स्थान और जन्म भूमि में अंतर होता है जन्म भूमि एक विशाल भू भाग होता है और राम कथा के अनुसार पूरी अयोध्या को राम जन्मभूमि कहा जा सकता है। वोटों की खातिर संघ परिवार के लोग यह कह कर बरगलाते रहे हैं कि अयोध्या में भव्य राम मन्दिर निर्माण में बाधा है जबकि सैकड़ों मन्दिरों से भरी अयोध्या में विवादास्पद स्थान पर ही कोर्ट के फैसले से पूर्व मन्दिर का निर्माण ही मुद्दा था, जो अब हल हो चुका है।
कुल मिला कर जनता की अमन पसन्दगी को धार्मिक उत्तेजना में बदलने के प्रयास धीरे धीरे कुलबुलाने की कोशिश करने लगे हैं और ऐसे में परीक्षा निरंतर बनी हुयी है कि अफवाहों हथकण्डों षड़यंत्रों की कोशिशें जीतती हैं या कानून का पालन करने वाली धर्म निरपेक्ष जनता की जीत स्थायी सिद्ध होती है।
वीरेन्द्र जैन
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