झांकियाँ- मनोरंजन का व्यापार और राजनीतिक औजार
वीरेन्द्र जैन
पूरा मध्य और पश्चिम-मध्य भारत सांस्कृतिक अतिक्रमण का शिकार हो गया है। यह अतिक्रमण न केवल पश्चिमी संस्कृति की ओर से हुआ है अपितु देश के दूसरों क्षेत्रों की संस्कृति का भी हुआ है। उनकी अपनी राम लीलाएं, रासलीलाएं, और भागवत कथा आदि की परम्पराएं हाशिये पर धकेल दी गयी हैं और गणेश, दुर्गा की झांकियों व गरबा नृत्य के आयोजनों के द्वारा महाराष्ट्र, बंगाल और गुजरात की संस्कृति केन्द्र में आ गयी है।
जातिवादी से विभाजित समाज में मन्दिर प्रवेश से वंचित दलितों पिछड़ों को स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागी बनाने की दृष्टि से तिलक ने सार्वजनिक स्थलों पर गणेश की झांकियां सजाने की परम्परा डलवायी जो पूरे महाराष्ट्र में जहाँ गणेशजी को मुख्य देवता की तरह पूजा जाता है, प्रभावकारी रही और बिना किसी जातिगत भेदभाव के झांकियों में लोग सामूहिक रूप से इकट्ठे होने लगे। इस सामूहिकता ने आजादी के आन्दोलन को बल पहुँचाया। ये झांकियां आजादी के बाद भी पूरे महाराष्ट्र में लगती रहीं। इस विचार का स्तेमाल आजादी के बाद की राजनीति ने अपने तरह से किया। देश के आजाद होते समय जो साम्प्रदायिक दंगे हुये उसने उस समय और उसके बाद भी संगठित धार्मिक समाज की भावना को अपनी सत्ता लोलुपता के लिए भुनाने की कूटनीति को जन्म दिया। आज से 25 वर्ष पूर्व जब एक चुनाव में पराजित राजनीतिक दल द्वारा रामजन्मभूमि मन्दिर के विवाद को उभारा गया तब समाज में धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए वे सारी तरकीबें अपनायी गयीं जिनसे राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता हो। इसमें सामूहिक रूप से महाराष्ट्र और बंगाल की गणेश और दुर्गा की झांकियों की परम्परा को मध्यभारत में आयातित किया गया। वैज्ञानिक चेतना के विकास से विकसित उपकरणों ने समाज को जो सुविधाएं प्रदान कीं उसने पश्चिमीकरण के प्रति तीव्र आकर्षण पैदा करने में मदद की, जिसके परिणाम स्वरूप लोगों की रुचि परम्परागत धार्मिक कर्मकाण्डों से हट रही थी इसके लिए उन्हें इन कर्मकाण्डों के लिए के तमाशों के द्वारा आकर्षित करने की कोशिश की गयी व इनमें मनोरंजन का तत्व जोड़ा गया। झांकियों में बिजली की चकाचौंध, डीजे पर पश्चिमी धुनों पर आधारित उत्तेजक संगीत पर मढे गये भजनों और चालू सांस्कृतिक मनोरंजन का स्तेमाल करके युवाओं और बच्चों को आकर्षित किया गया। झांकी स्थलों पर मेलों ठेलों जैसा चाट पकौड़ी पिज्जा डोसा, झूलों, खिलोनों का बाजार लगाया गया। जैसा कि होता है भीड़ को देख कर भीड़ बढती है सो उसका लाभ भी धर्म की राजनीति करने वालों को मिला। रामजन्मभूमि मन्दिर का अभियान प्रारम्भ होने के साथ साथ झांकियों की संख्या और उनके आकार प्रकार व सजावट में अभूतपूर्व उछाल आया जिसके बहाने जगह जगह बाहुवली युवाओं के संगठन बनने लगे जो न केवल अपने संख्या बल के कारण समुचित चन्दा वसूलने लगे अपितु उन्हें लाभांवित होने वाले नेताओं के इशारों पर जहाँ जरूरी थीं वहाँ गोपनीय ढंग से भरपूर ‘धार्मिक सहयोग’ मिलने लगा। इससे मूर्तियों के आकार में वृद्धि हुयी और पण्डालों की संख्या व उनके बाजारू आकर्षण में विस्तार होता गया। बेरोजगार दलित और पिछड़े युवाओं को न केवल काम ही मिला अपितु खेल खेल में धन जुटाने का अवसर भी मिला। धर्म के नाम पर जुटे इन आयोजनों ने आयोजकों को क्षेत्र के मतदाताओं के बीच प्रतिष्ठित और परिचित होने का ही अवसर नहीं दिया अपितु उनके साथ लगने वाले छुटभैयों को अपने शौक पूरे करने के लिए साधनों का रास्ता खोल दिया। जो झांकी मँहगे बाजारों में सजने लगीं वे उसी के अनुसार आकार में बड़ी होने लगीं और उन्हें तरह तरह की लुभावनी सजावट तथा रौशनी से भर दिया गया। व्यापारियों से चन्दा वसूलना अपेक्षाकृत आसान होता है क्योंकि वे किसी भी तरह से काम का नुकसान नहीं चाहते और बाजार भाव उनके हाथ में होने के कारण वे जितना चन्दा देते हैं उससे कई गुना भाव बढा कर अपने ग्राहकों से वसूल लेते हैं। इन झांकियों के समय न केवल सब्जी और फल वाले ही अपने दाम बढा देते हैं अपितु किराना आदि दूसरे दुकानदार भी दिया गया चन्दा अपने ग्राहकों पर डाल देते हैं। यही कारण है सबसे बड़ी झांकियां नगर के सबसे मँहगे बाजारों में लगती हैं। सौ-सौ, दो-दो सौ मीटर की दूरी पर लगी झांकियां इस बात का संकेत देती हैं कि इन का धर्म और पूजा से कोई मतलब नहीं है अपितु अपनी अपनी दुकान की तरह ही इन्हें स्थापित किया जाता है। स्थानीय पार्षद, विधायक, और मुख्यमंत्री के बैनर लगा के इन्हें राजनीतिक बना दिया जाता है। कई बार इसमें अपने को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले दलों के नेता भी अपने चुनावी सम्पर्कों के विस्तार के लालच में सहयोगी हो जाते हैं, जो यह नहीं जानते कि अंत्तोगत्वा इसका लाभ घोषित रूप से धर्म की राजनीति करने वालों को ही मिलेगा। ये झांकियां मुख्य बाजार की दुकानों की तरह मुख्य मार्गों पर अधिक से अधिक रास्ता रोक कर स्थापित की जाती हैं ताकि सड़क से गुजरने वालों की निगाहों से अलक्षित न रह जाये और अनचाहे भी रस्ता चलने वालों को आयोजकों के बड़े बड़े बैनर देखना पड़ें। मार्ग अवरुद्ध होने की उन्हें कोई चिंता नहीं होती, अपितु वे इसे वास्तविक से अधिक बढी हुयी भीड़ का दृष्य रचने के लिए प्रसन्नता देती हैं। दूर दूर तक लगाये लाउडस्पीकर भी निरंतर चीखते रहते हैं और इस कोलाहल से न होते हुए भी यह भ्रम पैदा किया जाता है कि पण्डाल में बहुत सारे लोग हैं। डीजे और सीडी पर बजा कर निश्चिंत हो जाने की नई परम्परा ने हारमोनियम ढोलक पर होने वाले भजनों और रामायण पाठ को परे धकेल दिया है।
पण्डाल के चारों ओर प्लेक्स के विज्ञापन लगे होते हैं जो आयोजकों को अच्छी कमाई करवाते हैं। प्रतिदिन चढावे में और अंतिम दिन सड़क पर ही किये जाने वाले हवन और भण्डारे में भी काफी राशि एकत्रित हो जाती है। अधिकांश पण्डालों के लिए बिजली का कनेक्शन नहीं लिया जाता और सीधे ही खम्भों पर तार डाल के भरपूर रोशनी की जाती है। तथाकथित धर्म के नाम पर रोकने की हिम्मत किसमें है? अनेक पण्डालों में सुरक्षा के नाम पर रात में बैठे रहने वाले युवक नशा करते हैं और ताश खेलते रहते हैं, ज्यादातर जुआ खेलते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम पर भी फूहड़ कार्यक्रम अधिक होते हैं। बच्चों व महिलाओं को हूजी[तमोला] खिलाया जाकर जुए की उत्तेजना का स्वाद लगाया जाता है। सड़कों पर किया गया यह अतिक्रमण और ध्वनि के कारण किया जा रहा प्रदूषण कई बार विवाद और झगड़े का कारण बनता है। संगठित लोग मुँह मांगा चन्दा न देने वालों को विशेष परेशान करने की कोशिश करते हैं, जिस कारण भी विवाद की सम्भावना सदैव बनी रहती है। कई बार रात्रि जागरण, जो असल में दूसरों को अपने धर्म के लिए न सोने देने के कार्यक्रम हैं, बीमारों, कर्मचारियों और परीक्षा देने जाने वाले छात्रों के सामने गम्भीर संकट खड़ा कर देते हैं। समयाविधि पूरी हो जाने के बाद मूर्तियों को सरोवरों में विसर्जित किया जाता है जिससे अब मूर्तियों को अधिक चमकीला और आकर्षक बनाने के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले तरह तरह के रासायनिक पदार्थों से जल प्रदूषण होता है। विसर्जन से पूर्व उन्हें जलूस की शक्ल में ले जाते हैं जिससे सड़कों पर घंटों जाम लगा रहता है, और प्रतिबन्धित क्षेत्र से निकालने की जिद दंगों की आशंका समेत कानून और व्यवस्था की समस्या उत्पन्न करती है। इसके लिए विशेष सुरक्षा बलों को लगाना पड़ता है। ये सारे आयोजन इस क्षेत्र में अपने परम्परागत सांस्कृतिक आयोजनों के अतिरिक्त होने से समाज पर बोझ द्विगुणित हो गया है जबकि जिन क्षेत्रों से ये आयातित किये गये हैं उन्होंने इस क्षेत्र की संस्कृति को अपने क्षेत्र म,एं स्थान नहीं दिया।
इन झांकियों से लाभांवित होने वाला वर्ग, मूर्ति निर्माता, पण्डाल वाले, प्रसाद विक्रेता, लाउडस्पीकर डीजे वाले, चन्दा उगाहने वाले, पंडाल की देखरेख करने और मूर्ति विसर्जित करनेवाले, छुटभैये नेता,समेत धर्म की राजनीति करने वाले दल व गरबा प्रशिक्षण से लेकर उन्हें आयोजित करने वाले संस्थान आदि होते हैं जबकि छात्रों, कर्मचारियों, घरेलू महिलाओं, बीमारों, सड़क पर चलने वाले आटो रिक्सा वाले, दुकानदारों, ठेकेदारों, ग्राहकों, आदि को उपरोक्त लाभ उठाने वालों की भरपाई करना पड़ती है। जब अपने धर्म निरपेक्ष देश में आस्थाओं की स्वतंत्रता है और लालच व दबाव से धर्मपरिवर्तन का प्रयास तथा ईशनिन्दा अपराध है तब किसी भी धर्म में आस्था न रखने वाले नस्तिकों के विश्वासों की रक्षा के लिए कोई कानून क्यों नहीं है? उन्हें क्यों विभिन्न धार्मिकों के निहित स्वार्थों का शिकार होने को विवश होना पड़ता है।
सड़कों चौराहों पर अतिक्रमण करता और ध्वनि प्रदूषण के द्वारा दूसरों की स्वतंत्रता को बाधित करता तथाकथित धर्म कब अपने मुखौटे उतार कर धर्मस्थलों और आश्रमों मठों की ओर लौटेगा, जिसके खाते में अभी तक समाज का नुकसान अधिक दर्ज हो रहा है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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