शनिवार, फ़रवरी 27, 2021

श्रद्धांजलि ; कैलाश सेंगर एक और मित्र को अंतिम विदाई

 

श्रद्धांजलि ; कैलाश सेंगर

एक और मित्र को अंतिम विदाई


वीरेन्द्र जैन

कैलाश सेंगर से पहली मुलाकात 1981 में हैदराबाद में हुयी थी। वे प्रसिद्ध लेखक दामोदर खडसे के साथ दक्षिण के किसी सेमिनार से लौट रहे थे कि हैदराबाद के व्यंग्य लेखक और मेरे मित्र प्रो. एम. उपेन्द्र के आग्रह पर, जो उस सेमिनार में उनके साथ थे, एक दो दिन के लिए रुक गये थे। उपेन्द्र जी ने मुझे फोन किया और मैं उनके निवास पर मिलने पहुंचा। खडसे जी से भी मेरी यह पहली मुलाकात थी, किंतु पहली बार दलित साहित्य के रूप में चर्चा में आया दया पवार के उपन्यास ‘वलंतु’ का वे मराठी से अनुवाद कर चुके थे जिसकी बहुत प्रशंसा हुयी थी। ये लोग विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित मेरे छुट्पुट रचनाकर्म से परिचित थे और रही सही कसर एम उपेन्द्र जी पूरी कर चुके थे, जो खुद बहुत अच्छे व्यंग्यकार थे, फिर भी मुझे आदरपूर्ण स्नेह देते थे, और मेरे परिचय में अतिरंजना कर जाते थे।

एक गीतकार के रूप में कैलाश सेंगर अपने क्षेत्र में विख्यात थे, और महाराष्ट्र में गणेशोत्सवों के दौरान होने वाले कवि सम्मेलनों के सितारे कवि थे। अतिथि कवियों के सम्मान में कवि गोष्ठी आयोजित हुयी और इस गोष्ठी में मैंने भी एक व्यंग्य गीत सुनाया, जिसकी पंक्तियां थी –

खूब विचार किये

क्या कहने, खूब विचार किये

रात, दिवस, सप्ताह, महीने साल गुजार दिये

क्या कहने खूब विचार किये

सभा, गोष्ठी, बहस, भाषणों की लग गयी झड़ी

सब कुछ हुआ, समस्या लेकिन अब भी वहीं खड़ी ...................... [आदि]

गोष्ठी के बाद जब हम लोग रात्रि भोजन आदि के लिए बैठे तो कैलाश बोले कि आपके गीत में कहा गया है कि ‘समस्या अब भी वहीं खड़ी’ पर यार समस्या खड़ी थोड़ी रहती है, वह तो पड़ी रहती है, खड़ा तो सवाल होता है। उनका यह कथन ठहाकों में डूब गया। पहले परिचय में इस तरह से अनौपचारिक हो जाना उनकी आदत थी जो जल्दी ही आत्मीय बना देती है। ।

फिर मेरा स्थानांतरण नागपुर हो गया किंतु मैं आगे प्रमोशन के कारण वहाँ कुल तीन महीने ही रह सका। इस बीच वे नागपुर आये तो दामोदर खडसे के साथ मेरे निवास पर भी आये जो खडसे जी के निवास के निकट ही था। उसी समय धर्मयुग से प्राप्त कुछ रचनाओं के स्वीकृति पत्र मेज पर रखे देखे तो जिज्ञासा व्यक्त की, और उनके रखने की जगह पर कटाक्ष भी किया, किंतु यह नहीं बताया कि वे भी देर सवेर धर्मयुग में जाने वाले हैं।    

उनका कटाक्ष जोरदार होता था और प्रतिउत्पन्न्मति में वे उस्ताद थे। 1985 में मैं एक मित्र के साथ तफरीह के लिए मुम्बई गया तो कैलाश जी से धर्मयुग कार्यालय में मिलने गया। तब तक कमलेश्वर जी के प्रति अतिरिक्त आदरभाव प्रकट क्रने के कारण मेरा धर्मयुग से पत्ता कट चुका था, इसलिए और किसी नहीं मिला, व शाम को उन्हें आमंत्रित कर चला आया। वे और दामोदर खडसे जो उन दिनों थाणे में पदस्थ थे, शाम को मेरे ठहरने की जगह पर आये व धर्मयुग के बारे में विस्तार से ठहाकों के साथ चर्चा हुयी। भारती जी को वे सख्त हैडमास्टर कहते थे जो उपसम्पादकों को हिदायत देते रहते थे कि धर्मयुग को जम्पिंग स्टोन मत बनाइए। उल्लेखनीय है कि सुरेन्द्र प्रताप सिंह, उदयन शर्मा, योगेन्द्र कुमार लल्ला से लेकर अनेक लोग जो यशस्वी सम्पादक हुये वे धर्मयुग से ही निकले थे। कैलाश बोले कि मैं 18 तारीख को बीमार पड़ूंगा क्योंकि एक कवि सम्मेलन में भाग लेना है, बरना छुट्टी नहीं मिलेगी। 

बम्बई के बारे में वे कहते थे कि यहाँ ट्रेन, बस या लड़की का पीछा नहीं करना चाहिए क्योंकि हर पाँच मिनिट के बाद दूसरी मिलती है। एक बार कविता सुनाने के दौरान मैं आदतन कुछ देर के लिए रुक गया तो पीछे से धर्मयुग के इस सम्पादक की टिप्पणी आयी- शेष अगले अंक में ।

खूब पत्र व्यवहार रखने वाला मैं पिछले अनेक वर्षों से मित्रों ही नहीं खुद से भी कट सा गया हूं, फेसबुक पर वे नजर आये तो मैंने तुरंत फेसबुकी मित्रता पुनर्जीवित कर ली थी। फिर किसी ने बाताया कि उन्होंने बहुत सी आदतें छोड़ दी हैं, इसी बीच उनकी पत्नी के निधन का समाचार भी आया, किंतु कभी आमने सामने भेंट नहीं हुयी। आज जब उनकी मृत्यु का समाचार मिला तब ही पता चला कि उन्हें आंतों का कैंसर था।

लगातार निकट के लोगों की बीमारियों और मृत्यु के समाचार सुन सुन कर एक बेचारगी का अहसास बढता जा रहा है।  श्रद्धांजलि की औपचारिकता तो निभानी ही है पर कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनकी स्मृति और बातें बार बार याद आती रहती हैं।

वीरेन्द्र जैन

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