सोमवार, जनवरी 17, 2011

क्या माटी कुम्हार को रौंदने लगी है


क्या अब माटी कुम्हार को रौंदने लगी है वीरेन्द्र जैन
कबीरदास ने आज से चार सौ साल पहले ही घोषणा कर दी थी-
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रूंदे मोय
इक दिन ऐसो आयगो, मैं रूंदूंगी तोय
रूपम पाठक नामक महिला ने अपने यौन शोषण के खिलाफ एक बाहुबली विधायक की चाकू मार कर हत्या करके यही चरितार्थ कर दिया है कि जब जुल्म की इंतिहा हो जाती है और कहीं से भी न्याय मिलता नहीं दीखता तो कमजोर से कमजोर इंसान भी अपनी क्षमता के अनुसार प्रतिवार करने को मजबूर हो जाता है। ऐसा ही एक दृष्य नागपुर में देखा गया था जब एक नामी गिरामी गुंडे जिसके ऊपर 26 से अधिक हत्या, बलात्कार और अन्य आरोपों के प्रकरण चल रहे थे और उनसे भी अधिक प्रकरणों में वह कानून की कमजोरियों और अपने आतंक के सहारे मुक्त हो चुका था, को काम करने वाली बाइयों ने सामूहिक हमला कर अदालत के अन्दर ही मार डाला था।
पूर्णिया से जिन भाजपा विधायक राज किशोर केशरी की रूपम पाठक नामक महिला ने हत्या कर दी उसने उन पर यौन शोषण का आरोप लगाया है। यदि मृत विधायक के चरित्र का अध्ययन किया जाये तो गत विधानसभा चुनाव के दौरान ही उनके द्वारा प्रस्तुत किये गये शपथ पत्र से पता चलता है कि उनके ऊपर धारा उन्होंने अपने शपथ पत्र में लिखा है कि वे आईपीसी की दफा 147, 148, 149, 323, 332, 341, 353, 307, 376/43, 379, 426, 427, 504 में अभियुक्त हैं। जो लोग कानून की धाराओं के अर्थ जनना चाहें तो इतना समझ लेना ही काफी है कि आदरणीय विधायकजी पर ये धाराएं कत्ल की कोशिश, चोरी, घूसखोरी, बलात्कार, अपहरण आदि जैसे संगीन आरोपों के लिए लगी थीं। आम तौर पर जब गैर भाजपा शासित राज्यों में धर्म और संस्कृति की ठेकेदार इस पार्टी के नेताओं कार्यकर्ताओं पर कोई आरोप लगता है तो वे कहते हैं कि ये हिन्दुओं के खिलाफ अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करने वाली पार्टियों का षड़यंत्र है, पर यह जानना रोचक हो सकता है कि उपरोक्त आरोप उक्त विधायकजी पर उनकी पार्टी के ही शासन काल में लगे थे, और वह भी पुलिस को मजबूरी में लगाने पड़े होंगे। इस इतिहास को देखते हुए तो लगता है कि न जाने कितने अपराध तो पुलिस ने दाब धौंस दिखा कर दबा दिये होंगे। सच तो यह है कि रूपम पाठक को इस बात का भी भरोसा नहीं रहा होगा कि जो प्रकरण विधायक जी को स्वयं ही अपने शपथ पत्र में लिखने पड़े हैं, उन पर कोई कार्यवाही हो सकेगी। क्योंकि सरकारी संरक्षण में पल रहे अपराधियों को सजा तब मिलेगी जब अभियोजन अपना पक्ष मजबूती से लड़ेगा और गवाह आतंक और लालच से मुक्त रह सकें। गुजरात में 2002 में सरकारी संरक्षण में मारे दिये गये तीन हजार मुसलमानों के लिए किसी को भी सजा नहीं मिल सकी और बेस्ट बेकरी समेत सारे गवाहों को बदल जाने के लिए मजबूर हो जाना पड़ा। मध्यप्रदेश में टीवी चैनल के सामने प्रोफेसर सब्बरवाल की हत्या होना और टीवी पर ही गवाही देने वाले कालेज के चपरासी को अपना बयान बदलना पड़ा। अपने फैसले में न्यायधीश ने साफ साफ कहा कि अभियोजन ने सही तरीके से अपना पक्ष ही नहीं रखा और गवाहों के बदल जाने के कारण मुझे आरोपियों को छोड़ना पड़ रहा है। चाहे दशहरा पर संघ के शस्त्रपूजन के दौरान एक स्वयं सेवक को गोली मारने का अपराध हो या मुख्यमंत्री के नाबालिग पुत्र द्वारा गोली चलाये जाने का मामला हो, पुलिस अधिकारियों का कहना होता है कि क्या करें गवाह ही नहीं मिलते। जहाँ तक भाजपा नेताओं के चरित्र का सवाल है तो किसी समय दिल्ली में मदनलाल खुराना ने धमकी दी थी कि वे एक महीने बाद भाजपा नेताओं के सच्चे किस्से बता देंगे, पर इस बीच उन्हें मना लिया गया। भाजपा का ही एक कुख्यात मुख्यमंत्री संघ से आये हुये एक संगठन सचिव की अश्लील सीडी बनवा कर उसे पत्रकारों तक पहुँचाता है, तो एक भाई सार्वजनिक रूप से धमकी देता है कि अगर मेंने मुँह खोल दिया तो मेरी बहिन को पंखे से लटक जाना पड़ेगा। मध्यप्रदेश के मंत्रियों के चरित्र और आचरण पर उनकी पार्टी के प्रदेश पभारी खुल कर टिप्पणी करते हैं, और एक मंत्री के कर्मचारी की पत्नी पुलिस में शिकायत करती है कि उसका पति उसे मंत्री के साथ सोने के लिए दबाव बनाता है। दिवंगत विधायक राज किशोर केसरी समेत सबके बारे में हाई कमान को पूरी जानकारी रहती है, पर सवाल है कि फिर उन्हें टिकिट क्यों दिया जाता है? चुनाव जीतने के बाद जब पार्टी दावा करती है कि उन्हें उनके जनहितेषी कार्यों के करण समर्थन मिला है, तो किसी खास को टिकिट देने की विवशता क्या पार्टी के अपने कामों के आधार पर मिलने वाले समर्थन को झूठा साबित नहीं करता, यदि ऐसा होता तो किसी भी सच्चरित्र को दिये गये टिकिट के बाद उसे पार्टी के कामों के आधार पर अपेक्षाकृत अधिक समर्थन मिलने की उम्मीद होनी चाहिए। पर सच्चाई सबको पता है।
ऐसे अपराधियों को प्रश्रय और राजनीतिक मंच देने का अपराध भाजपा समेत अनेक बड़ी पार्टियां कर रही हैं। बीमारू राज्यों अर्थात बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और उड़ीसा में यह बीमारी अधिक तेज है और प्रतिरोध का आन्दोलन धीमा है। यही कारण है कि शोषित व्यक्ति का गुस्सा गैरकानूनी तरीकों में प्रकट होने लगता है। चम्बल में पैदा होने वाले बागी भी इसी अन्याय की पैदायश रहे हैं। इन्हें रोकने के लिए जरूरी है कि भ्रष्टाचार विहीन न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना के प्रयास तेज हों, अन्यथा रूपम पाठक जैसी महिलाएं तेजी से अस्तित्व में आ सकती हैं। जो लोग इसमें राजनीतिक षड़यंत्र सूंघ रहे हैं उन्हें समझना चाहिए कि अनेक आधुनिक हथियारों से पटे इस दौर के राजनीतिक षड़यंत्र में चाकू जैसे हथियार का प्रयोग नहीं किया जाता। चाकू जैसा हथियार तो कमजोर और मजबूर का क्षणिक उत्तेजना में उठाया गया हथियार होता है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

रविवार, जनवरी 16, 2011

न्याय व्यवस्था पर गम्भीर सवाल उठाती फिल्म्फिल्म्

नो वन किल्ड जेसिका

न्याय व्यवस्था पर गम्भीर सवाल उठाती फिल्म

वीरेन्द्र जैन

यह एक ऐसी फिल्म है जिसमें नब्बे प्रतिशत यथार्थ है और दस प्रतिशत कहानी होते हुए भी न केवल एक सम्पूर्ण फीचर फिल्म है अपितु बहुत सारी दूसरी फिल्मों से बेहतर और महत्तर सवाल उठाती है। आम तौर पर जब भी किसी कला के माध्यम से व्यवस्था के सवाल उठाये जाते हैं तो वे केवल उस बौद्धिक जगत में चर्चा तक सीमित होकर रह जाते हैं जिसे उन तथ्यों की जानकारी पहले से ही होती है। किंतु रंग दे बसंती, पीपली लाइव, और नो वन किल्ड जेसिका जैसी फिल्में आम जन को भी महत्वपूर्ण सूचनाएं पहुँचाने के साथ उसकी सम्वेदनाओं को झकझोरती हैं। हम कह सकते हैं कि यह फिल्मी एक्टविस्म का प्रारम्भ है।

एक डांस बार में पद और पैसे के मद में अन्धा एक मंत्री का पुत्र तय समय के बाद शराब न देने पर देश की राजधानी में रेस्त्राँ की कर्मचारी एक लड़की को सरे आम गोली मार देता है, किंतु पैसे और दबाव के आगे सारे गवाह टूटते जाते हैं और भरपूर पैसे की मार के आगे एक नामी क्रिमिनल वकील आरोपी को मुक्त करा देता है। डर के मारे उस समय रेस्त्राँ में उपस्थित तीन सौ सम्भ्रांत लोग गवाही देने के नाम पर साफ झूठ बोल जाते हैं कि वे वहाँ से चले आये थे। रेस्त्राँ की मालकिन तक अपनी गवाही में मुकर जाती है। उसके बाद उसकी बहिन की जुझारू लगन और मीडिया के स्टिंग आपरेशन द्वारा एकत्रित सत्य के आधार पर जो जन दबाव बनाया जाता है तो सरकार को उच्च न्यायालय में अपील के लिए विवश होना पड़ता है और सत्ता, पैसा, और संगठन होते हुए भी मंत्री पुत्र को सजा होती है। छह-सात साल तक चले इस घटनाक्रम को देश की जनता ने बार बार भूलने और फिर याद करने की हालत में एक कमजोर प्रभाव की तरह ग्रहण किया हुआ था। इसके फिल्मीकरण के द्वारा जब दर्शक इसे तीन घंटे में देखता है तो उसके मानस पर यह गहरा प्रभाव जरूर पड़ता है कि भले ही व्यवस्था बहुत खराब हालत में है किंतु जन जागरूकता और सक्रियता से उसे ठीक रास्ते पर लाया जा सकता है।

फिल्म एक बहुत ही सशक्त माध्यम है जो बिना शोर किये भी कम से कम समय में बहुत सारी बातें एक साथ कह सकता है। इस फिल्म के माध्यम से कथा में गूंथ कर जो कहा गया है वह विचारणीय है। पहला सवाल मीडिया और उसकी भूमिका का है। स्मरणीय है कि लोगों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए गान्धीजी ने हमेशा ही इस माध्यम का सहारा लिया था। सबसे पहला अखबार उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में निकाला था इसके बाद भी वे यंग इंडिया और हरिजन नामक अखबारों के सम्पादक रहे। दाण्डी मार्च की सफलता के पीछे बीबीसी के वे दो पत्रकार भी थे जिन्हें लगातार अपने साथ रख कर उन्होंने दुनिया भर तक अपनी बात पहुँचायी थी। अपनी कहानियों, उपन्यासों के माध्यम से हिन्दी उर्दू की दुनिया में धाक जमाने वाले सुप्रसिद्ध लेखक प्रेमचन्द ने भी जागरण अखबार का सम्पादन सम्हाला था तथा आज भी उनके लिखे सम्पादकीय इस क्षेत्र के लिए मानक हैं। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर के सभी प्रमुख नेताओं ने किसी न किसी तरह से मीडिया से जुड़ाव रखा। यह फिल्म भी बताती है कि न्याय पाने हेतु जनदबाव बनाने के लिए भी मीडिया ही सहारा बनेगा, भले ही आज का मीडिया पूंजी केन्द्रित होने के कारण अपने आर्थिक लाभ हानि की दृष्टि से ही घटनाओं को उछालने और दबाने का काम कर रहा हो। यह फिल्म, मीडिया में स्टिंग आपरेशन के महत्व को भी बताती है, और उसकी अनिवार्यता को प्रकट करती है।

फिल्म नारी स्वातंत्र और उसकी यौनिकता के अधिकार की ओर भी इशारा करती है। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिला पत्रकार, आत्मविश्वास से अपने पिता से फोन पर कहती है कि वह अपनी चिंता खुद कर लेगी। वही अपने सहयोगी के साथ अपनी मर्जी से सेक्स सम्बन्ध भी बनाती है और अपनी प्रोफेशनल जरूरत पर सेक्स के बेहद निजी क्षणों को त्याग कर मिशन पर निकल जाती है। स्मरणीय है कि इसी देश में पिछले साल एक पिता ने अपनी पत्रकार पुत्री की इसलिए हत्या कर दी थी क्योंकि वह दूसरी जाति के लड़के के साथ सादी करना चाहती थी। अपने प्रोफेशन के लिए समर्पित वह पत्रकार अपनी थकी हुयी सहयोगी को रात के दो बजे भी काम पर निकलने के लिए कहती है और जब वह समय की बात करती है तो वह कहती है तुम कोई दफ्तर में काम करने वाली लड़की नहीं हो जो दस से पाँच तक काम करे। अपने चैनल प्रमुख से अपनी स्टोरी के लिए लड़ जाने वाली पत्रकार यह भी साबित करती है कि पत्रकारिता एक्टविस्म भी है, और इसमें कोई बुराई भी नहीं है।

यह फिल्म गवाहों सबूतों वकीलों दलीलों के बोझ से दबी न्याय व्यवस्था देश की राजधानी में तीन सौ सुशिक्षित सम्पन्न और सम्भ्रांत लोगों के सामने हुयी ह्त्या के प्रकरण पर गवाही न मिलने की कटु सच्चाई को सामने लाकर एक ओर समाज की भयग्रस्तता को प्रकट करती है तो दूसरी ओर मृतक की सहयोगी द्वारा गवाही देने के दौरान वकील द्वारा पूछे गये उसके कपड़ों के रंग के बेहूदे सवालों के जबाब में खीझ कर अपने अंडर गार्मेंट्स तक के बारे में बता कर अपना गुस्सा प्रकट करती है। फिल्म याद दिलाती है कि न्याय मँहगे वकील, पैसों के लालच और हिंसा की धमकियों से डरे हुए गवाहों, पुलिस को घूस देकर बदल दिये गये सबूतों की दम पर टिका है व जिसने वैध या अवैध किसी भी तरह से पैसा कमा लिया हो तो वह न्याय को अपनी जेब में डाल कर चलता है। मीडिया और सोशल एक्टविस्म की सुविधा दूर दराज के इलाकों को कहाँ उपलब्ध है जो कभी कभी जेसिका जैसे प्रकरण में संयोग से मिल जाती है। इस संयोग को भी फिल्म में बताया गया है कि देश के एक हवाईजहाज के अपहरण हो जाने की घटना के कारण प्रारम्भ में जेसिका का प्रकरण उपेक्षित हो जाता है और मीडिया द्वारा तभी उठाया जाता है जब उसके पास कोई बड़ी स्टोरी नहीं होती।

पैसे वालों के चरित्र का चित्रण करते हुए न केवल उनके द्वारा गवाही देने से बचने के लिए सफेद झूठ बोलने को ही दर्शाया गया है अपितु रेस्त्राँ की मालकिन द्वारा चाकलेट खाते हुए मगरमच्छी आँसू बहाने का दृष्य़ भी बहुत कुछ कह जाता है। फिल्म में एक कंट्रास्ट बहुत जोरदार है। जहाँ एक ओर मृतका की माँ हत्यारों को सजा न मिलने के सदमे से अस्पताल में दम तोड़ रही होती है वहीं हत्यारे अपने छूटने की खुशी में वैष्णोदेवी की यात्रा कर रहे होते हैं और जयकारा लगा रहे होते हैं। फिल्म बताती है कि न्याय पाने में अंततः जन दबाव ही काम आता है और मृतका के परिवार द्वारा चर्च में की गयी प्रार्थनाएं और हत्यारों के परिवार द्वारा की गयी तीर्थ यात्राएं कोई काम नहीं आतीं। एक ओर पुलिस की भूमिका में पुलिस इंस्पेक्टर को न्याय के पक्ष में सम्वेदनशील बताया गया है जो मारपीट करके न पूछने के एवज में मंत्री से भी पैसे ले लेता है तो दूसरी ओर उच्च न्यायालय के सामने पेश करने के लिए सबूत भी खुद ही देता है। इसी पुलिस का दूसरा पक्ष बड़े अधिकारियों द्वारा दबाव में सबूतों को बदलवाने के काम का प्रकटीकरण भी है।

फिल्म यह सन्देश देने में सफल है कि इस मरणासन्न व्यवस्था को सामाजिक सक्रियता से सुधारा भी जा सकता है।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

मो. 9425674629

सोमवार, जनवरी 10, 2011

राजनीतिक दलों में लेवी प्रणाली का महत्व


राजनीतिक दलों में लेवी प्रणाली का महत्व
वीरेन्द्र जैन
कोई भी व्यवस्था अपना स्वरूप अकेले नहीं गढ सकती। क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, की तरह व्यवस्था का शरीर भी विधायिका, पुलिस, प्रशासन, न्याय, और फौज से मिल कर ही बनता है। यदि किसी एक क्षेत्र में विकृति आती है तो दूसरा क्षेत्र उस पर लगाम कस कर उसे बहकने से रोक सकता है। किंतु जब विकृति को सारे क्षेत्रों से मदद मिलने लगती है तो पूरा तंत्र प्रभावित हो जाता है। आज भ्रष्टाचार की भी यही दशा है। राजनेताओं के भ्रष्टाचार उनके जिन्दा रहने की मूल आवश्यकताओं के लिए किये गये पथ विचलन नहीं हैं, अपितु इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने की हवस में अधिक से अधिक समय तक सत्ता प्रतिष्ठानों की कुर्सी पाने, उसे बनाये रखने, और उसके लिए आर्थिक संसाधनों को जोड़ने की होड़ का हिस्सा होते हैं। यही होड़ प्रकारांतर आदत में बदल जाती है। भ्रष्टाचार की व्यापकता को देखते हुए ऐसा लगता नहीं है कि किसी सुधारात्मक उपाय से कोई बात बनने जा रही है फिर भी लोकतंत्र के प्रति आस्थावानों द्वारा सुधारात्मक उपाय किये ही जाने चाहिए। लोकतंत्र में सत्ता पाने के लिए जनता से उनका वोट रूपी समर्थन प्राप्त करना होता है जिसके लिए राजनीतिक दल न केवल उन्हें भावनात्मक रूप से भटकाते हैं अपितु उन्हें कुछ राशियां भी भेंट करने लगे हैं। ये राशियां उन्हें पूंजीपतियों से प्राप्त होती है, इसके बदले में पूंजीपति उनसे ऐसी नीतियां बनाने की अपेक्षा करते हैं जिससे उन्हें दिये गये धन से कई गुना लाभ हो। रोचक यह है कि ये पूंजीपति यह राशि किसी एक दल को नहीं देते हैं अपितु इसे स्वीकार करने वाले तमाम सत्तामुखी सम्भावित दलों को देते हैं। हमारे लोकतंत्र की बिडम्बना यह है कि हमारे देश के कुछ प्रमुख बड़े दल अपने सदस्यों के सहयोग से न चलकर पूंजीपतियों के चन्दों से चलते हैं और अपने हिसाब किताब को गोपनीय रखना अपना विशेषाधिकार मानते हैं। जो दल पूंजीपतियों के चन्दे से चलेंगे उनसे यह अपेक्षा व्यर्थ है कि वे उनके विरोध और जनता के पक्ष में नीतियां बना सकेंगे। अतः पहली जरूरत यह है कि राजनीतिक दलों की अर्थ व्यवस्था पारदर्शी हो।
यदि राजनीति को भ्रष्टाचार की गंगोत्री मान कर चला जाये तो सबसे पहला सुधार भी यहीं से करना पड़ेगा। प्रत्येक दल की अर्थ व्यवस्था को उसके सदस्यों के सहयोग तक सीमित करना होगा। इसके लिए आवश्यक होगा कि दलों में उसके सदस्यों से आय के अनुपात में लेवी लेने की व्यवस्था हो और उसे कानूनी रूप दिया जाये। हमारे देश के ही एक बामपंथी दल में ऐसी व्यवस्था है जहां आय के अनुसार सदस्यों से लेवी ली जाती है जो इस प्रकार है-
रु.300/- प्रति माह आय वाले सदस्य को 0.25 रु. प्रति माह्
रु 301/- से 500/- प्रति माह आय वाले सदस्य को रु.0.50 प्रति माह
रु.501/- से 1000/- प्रति माह आय वाले सदस्य को रु.1.00 प्रति माह
रु1001/- से 3000/- प्रति माह आय वाले सदस्य को आय का 1%
रु3001/- से 5000/- प्रति माह आय वाले सदस्य को आय का 2%
रु5001/- से 7000/- प्रति माह आय वाले सदस्य को आय का 3%
रु7001/- से 8000/- प्रति माह आय वाले सदस्य को आय का 4%
और रु8000/- से ऊपर प्रति माह आय वाले सदस्य को आय का 5%
इस व्यवस्था के अनेक लाभ हैं, जिनमें सबसे पहला तो यह कि दल में सदस्यता का उचित रिकार्ड रहता है और बोगस सदस्यता की सम्भावना क्षीण रहती है। इसके द्वारा सदस्यों की आय का भी रिकार्ड पार्टी के पास रहता है जिससे किसी भी तरह के भ्रष्टाचार के संकेत तुरंत मिल सकते हैं। यह जानना रोचक हो सकता है कि आन्ध्र प्रदेश के दिवंगत मुख्यमंत्री वाय एस रेड्डी के पुत्र और इस समय कांग्रेस के विद्रोही सांसद जगन मोहन रेड्डी ने इस वर्ष के लिए रु.84 करोड़ आयकर जमा किया है जिसके अनुसार इस वर्ष उनकी आय रु.500 करोड़ से अधिक होना संभावित है यदि कांग्रेस में सदस्यों की आय के अनुसार लेवी प्रणाली होती तो जगन मोहन को रु.25 करोड़ की लेवी जमा करना पड़ती। यदि लेवी सदस्यता की आवश्यक शर्त होती है तो पार्टी के लिए अधिक राशि देने वाला भी आय के अनुसार कम राशि देने वाले के समान ही होगा और अधिक आर्थिक सहयोग के नाम पर कोई अमर सिंह किसी कम आय वाले लोहियावादी सदस्य से श्रेष्ठ नहीं हो सकता व हेमामालिनिओं, जया बच्चनों और जयाप्रदाओं को राजनीति में प्रवेश से पहले गहन चिंतन करना होगा । दलीय लोकतंत्र के साथ लेवी प्रणाली होने से दल पर पूंजी वाले लोग वर्चस्व नहीं बना सकते जैसा कि अभी लोकसभा में 300 से अधिक करोड़पतियों के पहुँचने से पता चलता है। यह इस बात का प्रमाण है कि सभी दलों में पैसे वालों को टिकिट मिलने में प्राथमिकता मिल जाती है, और सब जीतने के लिए धन झोंकने में समर्थ उम्मीदवारों पर दाँव लगाना चाहते हैं। स्मरणीय है कि गत लोकसभा चुनाव में स्वघोषित करोड़पति प्रत्याशियों की संख्या 1054 से अधिक थी। लेवी प्रणाली होने से पूंजीपति को सभी दलों को चन्दा देने की जगह किसी एक दल की सदस्यता ग्रहण करनी होगी और किसी एक दल को ही अपनी आय के अनुसार लेवी देनी होगी। ऐसी स्तिथि में देश की राजनीति और सदन पूंजीपतियों के दुष्प्रभाव और दबाव से कुछ हद तक मुक्त रह सकेंगे।
जब राजनीति भ्रष्टाचार से मुक्त होगी तो वह प्रशासन के भ्रष्टाचार की अनदेखी भी नहीं कर सकेगी, और ना ही उसे न्यायपलिका को भ्रष्ट करने का विचार आयेगा। आज हमारी व्यव्स्था को जो क्रोनी केपटलिस्म, और बनाना स्टेट का नाम दिया जा रहा है, लेवी प्रणाली लागू होने पर ऐसे निन्दक आरोपों से भी मुक्ति मिल सकेगी। जब सभी प्रमुख दलों पर पूंजीपति अधिकार करते जा रहे हैं तो राजनीति को उनकी दया दृष्टि और उनके अहसान से बचाने का यही तरीका हो सकता है कि लेवी प्रणाली को रजिस्टर्ड दलों में सदस्यता की आवश्यक शर्त बनायी जाये और चन्दे की दम पर उन्हें बँधुआ बनाने के दबाव से मुक्ति दिलायी जाये। एक आत्मनिर्भर पार्टी ही सच्ची वैचारिक राजनीति कर सकती है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629