शुक्रवार, नवंबर 27, 2015

अमर मुलायम फिर से गलबहियां करते हुये

अमर मुलायम फिर से गलबहियां करते हुये
                                                                            वीरेन्द्र जैन

      कभी अपने आप को मुलायम सिंह का हनुमान और कभी टेलर बताने वाले अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद धमकी दी थी कि अगर उन्होंने मुँह खोल दिया तो सपा नेता जेल में होंगे। बहरहाल उनका मुँह नहीं खुल सका था व राजनीति में उन्होंने काँग्रेस अध्यक्ष के दरवाजे पर ढोक देने और जयप्रदा से दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रचार करके देख लिया था पर अंत में मुलायम सिंह की शरण में आना पड़ा।
      जहाँ तक मुलायम सिंह से उनकी पुरानी मित्रता का सवाल है तो उसे वे तिलांजलि दे चुके थे। वे एक दूसरे के पूरक रहे हैं। ठाकुर अमर सिंह के राजनीतिक उत्थान और उसके सहारे हुये उनके आर्थिक उत्थान में यादव जाति के समर्थन से नेता बने मुलायम सिंह यादव का समुचित योग दान रहा था। दूसरी ओर राजनीति में अर्थजगत के महत्व को उन्होंने ही पहलवान मुलायम सिंह को समझाया था। इस दौरान वे दो जिस्म एक जान थे। उनके ब्रेकअप प्रमाण तो उनके निम्नांकित बयानों से ही मिलता रहा था जिनका ना तो उन्होंने कभी खण्डन किया और ना ही ये कहा था कि ये प्रैस ने तोड़ मरोड़ कर छाप दिये हैं-  
 -मुम्बई। अमर सिंह ने कहा कि सपा का अर्थ मुलायम सिंह और उनका परिवार है और कुछ नहीं।[अगस्त 2010]
      -इलाहाबाद। समाजवादी पार्टी के पूर्व महा सचिव अमर सिंह ने रविवार को सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव पर अब तक का सबसे करारा हमला बोला है। अमर ने कहा है कि उनके जीने से ज्यादा जरूरी है मुलायम सिंह यादव का मरना। मुलायम सिंह ने मुसलमानों को हमेशा धोखा दिया है। [10 अगस्त 2010]
      -रायबरेली। सोनिया के संसदीय क्षेत्र रायबरेली में दंगल प्रतियोगिता के उद्घाटन में शामिल होने आये समाजवादी पार्टी के निष्कासित नेता अमर सिंह ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गान्धी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जम कर तारीफ की साथ ही सोनिया गान्धी को अच्छे व्यक्तित्व वाली दुनिया की सबसे बेहतर नेता भी बताया। [1 सितम्बर 2010]
लखनउ। अमर सिंह ने यहाँ आयोजित देश के मौजूदा हालात और मुसलमान विषय पर आयोजित कार्यक्रम में कहा कि चौदह साल तक जिनकी जबान को कुरान की आयत और गीता का श्लोक समझा उन्हीं ने हमें रुसवा किया। मुलायम सिंह ने ही कल्याण सिंह को सपा में शामिल किया। व्यक्तिगत रूप से में कल्याण सिंह को मुलायम सिंह से बेहतर व्यक्ति मानता हूं क्योंकि वे साफ बात करते हैं और अपने कार्यों को स्वीकार करते हैं। कभी हमारे बगलगीर रहे मुलायम वर्ष 2003 में जनादेश की वजह से नहीं बल्कि मेरी कलाकारी से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने रह सके थे। राज बब्बर को समाजवादी पार्टी में लाने और विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठ विष्णु हरि डाल्मियाँ के बेटे संजय डाल्मियाँ को पार्टी का कोषाध्यक्ष और सांसद बनाने वाले मुलायम सिंह ही हैं। [19 अक्टूबर 2010]
      नई दिल्ली। मुलायम सिंह मेरे घर पर कब्जा किये हुये हैं और खाली नहीं कर रहे हैं। महारानी बाग का यह घर मैंने ही मुलायम सिंह को दिया था जिसका किरायानामा राम गोपाल के नाम से बना हुआ है जो मुलायम सिंह के निकट के रिश्तेदार हैं [नवम्बर 2010]
      कभी सोनिया गान्धी को प्रधानमंत्री न बनने देने के लिए विदेशी मूल का मुद्दा उछालने वाले अमर सिंह उस समय प्रति दिन मुलायम सिंह को कोसते रहते हैं। ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब वे मुलायम सिंह और उनके रिश्तेदारों, भाई भतीजों के खिलाफ असंसदीय भाषा में कुछ न कुछ नहीं कहते रहे हों। अपने एक बयान में उन्होंने कहा था आजम खान यह समझ लें कि अगर मैंने मुँह खोल दिया तो मुलायम सिंह यादव मुश्किल में पड़ जायेंगे, उनको जेल जाना पड़ सकता है, जो आजम खान मुझे दलाल कह रहे हैं, पहले वे जरा यह बताएं कि मैंने उन्हें क्या क्या दिया है। मुझे सप्लायर कहने वाले समाजवादी पार्टी के अन्य नेता भी आगे आकर बताएं कि मैंने उन्हें या मुलायम सिंह को क्या सप्लाई किया है,
इतना सब कुछ कह लेने के बाद उन्होंने और क्या छुपा लिया, और क्या छुपाना चाहते थे? यह राजनीतिज्ञों की भाषा नहीं अपितु ब्लेकमेलरों की भाषा थी। पता नहीं कि वे सार्वजनिक रूप से अपने पूर्व मित्र जिन मुलायम सिंह यादव के मरने तक की कामना करते थे उन्हें जेल जाने से वे क्यों बचाना चाहते रहे? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसी कोई बात कहने पर वे खुद किसी अधिक बड़े मामले में सम्मलित हों और उसी से बचने के लिए वे गोलमाल भाषा में धमकी देते रहे हों।
       जनाधार विहीन नेता हमारे लोकतंत्र के लिए एक बड़े तमाशे की तरह हैं जो जनता को निरी मूर्ख और स्मृतिहीन मानते हैं। ऐसे लोग ही लोकतंत्र को जोड़तोड़ और जनसमर्थन को कारपोरेट घरानों के यहाँ गिरवी रखवाने का काम करते रहते हैं। लायजिनिंग का जो काम नीरा राडिया राजनीति में आये बिना करती रहीं वही काम कुछ लोग राज्यसभा की सदस्यता हथिया कर उससे मिली विशिष्ट स्तिथि का दुरुपयोग करते हुये करते रहे हैं।
            अमर और आज़म दोनों एक साथ नहीं रह सकते। आज़म जनाधार वाले नेता हैं और अमर जोड़तोड़ वाले नेता है। दोनों में से किसी का भी विरोध मुलायम को मँहगा पड़ने वाला है।
वीरेन्द्र जैन      
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रविवार, नवंबर 22, 2015

बिहार में पराजय, मोदी के मुखौटे का रंग उतरना है

बिहार में पराजय, मोदी के मुखौटे का रंग उतरना है
वीरेन्द्र जैन
बिहार विधानसभा के चुनाव अभियान के दौरान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यह कह कर बिहार की जनता को डराया था कि अगर भूल से भी भाजपा बिहार में हार गयी तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे। उनका यह चुनावी जुमला बताता है कि बिहार में जीत का उनके लिए क्या महत्व था, जिसे प्राप्त करने के लिए वे जनता की देशभक्ति की भावना को भड़काने के लिए भय का एक नकली वातावरण बनाने के लिए तैयार थे। यह तब था जब मोदी-शाह युग्म ने मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण समारोह में पहली बार पाकिस्तान समेत सभी पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया था। वे अभी भी अंतर्र्राष्ट्रीय समारोहों में अपनी समस्याओं को बातचीत के आधार पर सुलझाने के नेहरूयुग के जुमले दुहराते रहते हैं। यह बात अलग है कि नेहरू की इस नीति की सबसे अधिक आलोचना जनसंघ ही करती रही थी। भाजपा का यही दुहरापन उनकी हर बात में रहता है। उन्होंने भाजपा को देश और राष्ट्रभक्ति का पर्याय प्रचारित करना चाहा है, जबकि उनके कर्मों के परिणाम सर्वाधिक देश विरोधी हैं ।
राजनीतिक पंडित कहते हैं और सही ही कहते हैं कि देश पर शासन करने के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार को जीतना जरूरी होता है। पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी की सफलता के पीछे इन प्रदेशों में काँग्रेस विरोधी लहर होने व चुनाव को काँग्रेस बनाम भाजपा में बदल देने की नीति काम आ गयी थी। पर काठ की हांडी बार बार नहीं चढती है। वे अभी तक किसी आरोपी काँग्रेसी नेता के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर सके हैं।
बिहार चुनाव में उनकी पराजय का कथानक तो बहुत पहले ही प्रारम्भ हो गया था। बिहार में कुछ मुस्लिम बाहुबलियों के अपराधी माफिया गिरोहों और उसी तरह के हिन्दू बाहुबलियों और माफिया गिरोहों के बीच टकराव तो चलता रहा है किंतु यह टकराव साम्प्रदायिक आधार पर नहीं रहा। इसका एक कारण हिन्दुओं में जातिवादी टकराव का तेज होना भी है। भयंकर आर्थिक असमानता वाले समाज में गरीब वर्ग दोनों ही तरह के अपराधी गिरोहों से प्रभावित व प्रताड़ित रहा है। बिहार में भाजपा की उपस्थिति गुजरात, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से भिन्न रही है क्योंकि यहाँ उसका प्रसार गैर काँग्रेसवाद वाले समाजवादी धड़े के गले लग कर उसे हड़पते जाने से हुआ है। भारतीय इतिहास में अंग्रेजों की चला चली के समय को छोड़ कर कहीं धार्मिक आधार पर समाज में तनाव की कथाएं नहीं मिलतीं। जबकि पहले धार्मिक़ आधार पर हिन्दुओं और बौद्धों के बीच बहुत हिंसक संघर्ष हुये जिनमें लाखों लोग मर गये। देश में राजनीतिक लाभ उठाने के लिए साम्प्रदायिकता पैदा की जाती है क्योंकि वह स्वभाव में विद्यमान नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में दूसरे प्रत्याशियों से अधिक मत प्राप्त कर लेने वाले को शासन का अधिकार मिल जाता है इसलिए साम्प्रदायिकता का चुनावी लाभ हमेशा बहुसंख्यक वर्ग को मिलता है। यही कारण है कि बहुसंख्यक वर्ग इसे पैदा करने के लिए झूठ फैलाते हैं, गलत इतिहास गढवाते हैं, व नफरत के संस्थान चलाते हैं।
बिहार में भाजपा को संविद सरकारों के दौरान प्रवेश का मौका मिला और उसने अपनी कूटनीति व खेलकूद के नाम पर बनाये गये संगठन के सहारे दूसरे दलों को हड़पने का दुष्चक्र चला कर अपना विस्तार तो किया किंतु वे कभी भी स्वतंत्र रूप से अपनी सरकार नहीं बना सके। पिछली लोकसभा के चुनाव परिणाम देख कर उन्हें लगने लगा था कि शायद पहली बार यह सम्भव हो जाये।
मोदी पार्टी की पराजय में एक कारण तो यह था कि उक्त चुनाव न तो काँग्रेस के खिलाफ था न ही लालू प्रसाद के खिलाफ था अपितु यह नितीश कुमार के समक्ष लड़ा गया था, जिनके ऊपर कोई गम्भीर आरोप नहीं थे और छवि खराब करने वाला अस्त्र नहीं चल पाया। दूसरे भाजपा स्वयं भी उन्हीं के साथ लम्बे समय तक सहयोगी रही थी। नितीश की छवि स्वच्छ, व कर्मठ प्रशासक की रही जिन्होंने लोकसभा में पार्टी की पराजय की जिम्मेवारी लेते हुए स्वैच्छिक त्यागपत्र दे दिया था और एक महादलित को मुख्यमंत्री बना कर सत्ता मोह के ऊपर सिद्धांतवादिता की मिसाल पेश की। इसके विपरीत किसी भी कीमत पर पद से जुड़ने के लिए लालायित भाजपा ने बागी मांझी को समर्थन देने का फैसला किया जो उल्टा पड़ा। दूसरी ओर वे जिस आधार पर मांझी का समर्थन कर रहे थे उसी आधार के विरुद्ध उनका मूल सवर्ण वोट बैंक है। इसी के समानांतर भाजपा जैसी सवर्ण समर्थन वाली पार्टी के साथ गलबहियां करके माँझी ने अपने दलित नेता होने का नैतिक अधिकार ही खो दिया था, व आंकड़ागत नासमझी का ही परिचय दिया था। टीवी चैनलों पर उनके साक्षात्कार उनसे सहानिभूति को घटा ही रहे थे। भाजपा ने न तो उन्हें उचित सीटें ही दी थीं और न ही मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा ही की थी। यही कारण रहा को उनको दी गयी सीटों पर पराजय देखने को मिली। अब उनका कोई राजनीतिक भविष्य शेष नहीं रह गया है।
माँझी, पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा, अपने पदों के कारण अपने उम्मीदवारों के लिए तो कुछ हद तक जातिवादी वोट ले सके किंतु उन वोटों को अपने गठबन्धन की दूसरी पार्टियों को ट्रांसफर कराने में समर्थ नहीं हो सके। जिस आधार पर जातिवादी दलों का गठन होता है उसके कारण वे उन मतों को सवर्ण समर्थन वाले दलों तक ट्रांसफर कराने में वैसे भी सफल नहीं हो सकते हैं, जब तक कि किसी जातिभाई को मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी न घोषित कर के चुनाव न लड़ा जा रहा हो। मायावती इसीलिए बिना किसी समझौते के चुनाव लड़ती हैं। इतने अधिक दलित व पिछड़े दलों के साथ चुनावी समझौते के लिए मजबूर होकर भाजपा का सवर्ण अपराधबोध खुद भी प्रकट हो रहा था। दूसरी ओर सवर्ण समर्थन कभी भी किसी दलित या पिछड़े को मुख्यमंत्री बनते नहीं देख सकता। यही विसंगति रही कि भजपा को इकतरफा समर्थन ही मिला। चुनावों के दौरान ही भाजपा को नरेन्द्र मोदी की जाति का उल्लेख करना पड़ा। किसी राष्ट्रीय पार्टी द्वारा अपने प्रधानमंत्री की जाति का खुले आम किये गये उल्लेख का यह दुर्लभ उदाहरण है, और पद की गरिमा के प्रतिकूल है।
ओवैसी द्वारा पहले सभी चुनाव क्षेत्रों में प्रत्याशी लड़ाने की घोषिणा की गयी थी जिससे यह संकेत गया था कि वे भाजपा के पक्ष में सौदेबाजी कर के यह सब कर रहे हैं। उनके इस फैसले का भाजपा के क्षेत्रों में जिस तरह से स्वागत हुआ उससे मुस्लिम वोट शंकित हो गया । अचानक ओवैसी ने प्लान बदलते हुए कुल छह स्थानों से उम्मीदवार उतारे जिससे मुस्लिम मत एकजुट हो कर महागठबन्धन के पक्ष में गये।
मोदी की ताबड़तोड़ सभायें व स्थानीय नेताओं को विश्वास में लिये बिना बाहरी लोगों के सहारे पूरा चुनाव अभियान चलाने से उनके डिगे हुये हौसले के संकेत गये। कीर्त आज़ाद, शत्रुघ्न सिन्हा, आर के सिंह, राम जेठमलानी, गोबिन्दाचार्य, अरुण शौरी, के बयानों से संकेत गया कि लोकसभा में संख्या बल के अलावा भाजपा में सब कुछ सामान्य नहीं है। भगवाभेषधारी हिन्दुत्ववादी नेताओं के कुटिल और उत्तेजक बयानों से कभी तो लगा कि यह योजनाबद्ध है, और कभी लगा कि ये सब नियंत्रण से बाहर हैं व आगे भी यही सब चलने वाला है।
दादरी की हिंसा और उसमें भाजपा के लोगों की सम्बद्धता के आरोपों के बाद उनके किये गये बचावों के साथ साथ चुनाव में गाय का स्तेमाल इस आरोप की पुष्टि कर गया कि ये चुनाव जीतने के लिए किसी भी स्तर तक गिरने को तैयार हो सकते हैं। श्री आर के सिंह ने तो खुले आम कहा कि इन्होंने दो करोड़ रुपये लेकर कई अपराधियों को टिकिट बेचा। इसके विपरीत जिसे जंगलराज बताया जा रहा था उसमें कई चरण के चुनावों के दौरान न कोई बूथ कैप्चरिंग हुयी न कोई हिंसा व दबाव डालने की घटना सामने आयी। इसके उलट कुछ उन लोगों को वोट डालने का अवसर मिला जिनको पिछले साठ सालों में वोट नहीं डालने दिया गया था। राम जेठमलानी जैसे वरिष्ठतम वकील ने कहा कि मोदी ने देश को धोखा दिया है और मैं बिहार में उनके विरुद्ध काम करूंगा। शत्रुघ्न सिन्हा ने तो भाजपा में रहते हुए भी विरोधियों जैसी भूमिका निभायी और प्रचार का अवसर न देने का आरोप भी लगाते रहे। चुनाव के बाद वरिष्ठ सांसद भोला सिंह ने तो स्थानीय नेतृत्व को प्रचार अभियान से दूर रखने को गम्भीरता से लेते हुए पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव बताया। आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी के कारण मँहगाई, कालेधन के बारे में किये गये वादे को पूरा न करना और चुनावी जुमला बताना प्रमाण बन गया कि इनके चुनावी वादों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। जल्दबाजी में भूमि अधिग्रहण विधेयक लाना और उसे पास न करा पाना, राज्यसभा में अवरोध का हल न निकाल पाना, आदि से मोदी की पिछली गढी हुयी छवि खंडित हो चुकी है, और काँग्रेस से उपजी निराशा में जो काम आ गयी थी उसका मुलम्मा उतर चुका है। सारी नकारात्मकता मोदी-शाह के खिलाफ ही गयी।
भाजपा के पास कुल आठ-नौ प्रतिशत स्थायी मत हैं और इनमें वृद्धि के लिए हर चुनाव में नये नये झूठ गढने पड़ते हैं, नये हथकण्डे अपनाने पड़ते हैं। उनका लक्ष्य मुख्य रूप से कम राजनीतिक चेतना वाला वर्ग रहता है जिसे वे किराये के मीडिया के सहारे झूठ फैला कर साधते हैं। किंतु सूचना माध्यमों की विविधता के कारण सच की किरणें कहीं न कहीं से फूट ही पड़ती हैं। जब ये पार्टी के अन्दर से निकलती हैं तो अधिक रोशनी करती हैं।
बिहार की पराजय केवल एक विधानसभा चुनाव की पराजय नहीं है अपितु उनकी गाड़ी के उस इंजन का ही खराब हो जाना है, जो उन्हें इतनी दूर लाकर बीच रास्ते में अटक गया है और ड्राइवर ने शेष सारे साधनों को नष्ट करवा दिया था।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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बुधवार, नवंबर 04, 2015

भाजपा में निरंतर कमजोर होता आंतरिक लोकतंत्र


भाजपा में निरंतर कमजोर होता आंतरिक लोकतंत्र
वीरेन्द्र जैन     
            स्वतंत्रता के बाद बनी पहली सरकार में स्वतंत्रता के नायकों का नेतृत्व स्वाभाविक होता है। एक शांतिपूर्वक चले अहिंसक आन्दोलन द्वारा हमारे देश को मिली आज़ादी के बाद स्थापित लोकतंत्र में पहले आम चुनावों के समय लोकतांत्रिक चेतना अपनी शैशव अवस्था में थी और आज़ादी के लिए लड़े नेता ही पहली पसन्द हो सकते थे, इसलिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सेक्युलर मूल्यों वाले श्री जवाहरलाल नेहरू देश के प्रिय नेता बने थे और आजीवन चुनौती विहीन प्रधानमंत्री पद पर रहे। चुनाव का अवसर उनके निधन के बाद आया जब श्री मोरारजी देसाई ने पहले लाल बहादुर शास्त्री और बाद में इन्दिरा गाँधी को चुने जाते समय अपनी दावेदारी भी आगे की थी। श्रीमती गाँधी के चुनाव के समय तो मतदान तक हुआ। उस समय तक काँग्रेस में लोकतंत्र था बाद में श्रीमती गाँधी को लगा कि काँग्रेस और देश अभी लोकतंत्र के लिए परिपक्व नहीं हुये हैं इसलिए उन्होंने पार्टी और देश दोनों को ही लोकप्रिय एकल शासन [ओटोक्रेसी] पर लगे लोकतंत्र के मुखौटे में बदल दिया। बाद में यही भारतीय राजनीति का मानक बन गया| इसमें बदलाव के विचार को रोकने के लिए इमरजैंसी का सहारा लेना पड़ा। 1977 में लोकतंत्र को पुनर्स्थापित करने के प्रयास हुये किंतु वे दो साल में ही असफल हो गये व श्रीमती गाँधी को पुनः सत्ता सौंपी गयी जिससे उनकी बनायी व्यवस्था को और बल मिला। बाद में भी संवैधानिक लोकतंत्र लाने के प्रयोग 1989, 1995, व 1996 में हुए पर विभिन्न कारणों से असफल होते गये। धीरे धीरे सभी पार्टियों में लोकतंत्र सिमिटता गया और एक नेता केन्द्रित व्यवस्था उभरती गयी। आज कम्युनिष्ट पार्टियों को छोड़ कर सभी पर्टियां व्यक्ति केन्द्रित पार्टियां हो गयी हैं। डीएमके [करुणानिधि] एआईडीएमके[जयललिता] बीजू जनता दल [नवीन पटनायक] तेलगुदेशम [चन्द्र बाबू नाइडू]  एआईएमएम [ओवैसी] टीसीआर[ आर सी राव] तृणमूल काँग्रेस[ममता बनर्ज्री] शिव सेना[उद्धव ठाकरे] एमएनएस [राज ठाकरे] राजद [लालू प्रसाद] जेडी-यू [नितीश कुमार] लोकदल [चौटाला] समाजवादी पार्टी [मुलायम सिंह] बहुजन समाज पार्टी[ मायावती] एनसीपी[शरद पवार] आमआदमी पार्टी [केजरीवाल], अकाली दल [बादल] नैशनल काँफ्रेंस[ फारुख अब्दुल्ला] आदि। इन सभी दलों में वंशवाद है या आगे उसका उभरना स्वाभाविक है।
           संघ के नियंत्रण में चलने वाली भाजपा ने पहले काँग्रेस की नकल करते हुए श्री अटल बिहारी वाजपेयी को श्रीमती गाँधी की तरह स्थापित किया और छह वर्ष तक सरकार चलायी पर व्यवस्था वही रही। 2004 में सत्ताच्युत होने के बाद वे सोनिया गाँधी की काँग्रेस की तरह होते गये व 2014 आते आते पार्टी में लोकतंत्र को पूरी तरह समाप्त करके पार्टी नरेन्द्र मोदी के नाम कर दी। नैतिक मानदण्डों पर खरे न उतरने के बाद भी उनके चुनावी प्रबन्धन ने उन्हें सत्तारूढ कर दिया व एक भिन्न नाम से पार्टी अध्यक्ष पद पर भी उन्होंने अधिकार जमा लिया। इस समय अध्यक्ष पद पर बैठे श्री अमित शाह मोदी की इच्छाओं का पालन करने वाली मशीन से अधिक नहीं हैं। वरिष्ठ नेताओं को इस तरह से एक ओर धकेला गया कि यशवंत सिन्हा को कहना पड़ा कि 75 पार के नेताओं को ब्रेन डैड मान लिया गया है।
           कभी भाजपा अपने आप को एक भिन्न तरह की पार्टी बतलाती थी, भले ही वह संघ के इशारों पर नाचने वाली कठपुतली से अधिक कुछ न हो। नरेन्द्र मोदी ने भी भले ही संघ के आदेशों/आदर्शों के अनुसार ही गुजरात में सब कुछ किया हो किंतु 2013 आते आते वे संघ से अपनी मर्जी के अनुसार आदेश निकलवाने लगे। उल्लेखनीय है कि 2002 में गुजरात में जो कुछ भी हुआ उस पर गुजरात सरकार की भूमिका के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है। उस नरसंहार पर अटल बिहारी वाजपेयी ने तो प्रधानमंत्री पद की लाज रखते हुए राजधर्म का पालन करने जैसे गोलमोल बयान दिये किंतु संघ ने कभी आलोचना नहीं की अपितु हमेशा मोदी सरकार के कारनामों का बचाव किया। बाद में वाजपेयी सरकार के मंत्रियों समेत घूस लेते कैमरे के सामने पकड़े गये पार्टी अध्यक्ष के बारे में संघ ने कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की। अभी भी सरकार को अपने दरबार में हाजिरी लगवाने वाले संघ ने मोदी सरकार की प्रशंसा तो की किंतु मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ आदि की सरकारों द्वारा लगभग पुष्ट भ्रष्टाचार के प्रकरणों पर बोलने की जरूरत नहीं समझी। यह वृत्ति प्रकट करती है कि वे नई भाजपा के सलाहकार नहीं अपितु चौकीदार हैं, भागीदार हैं। आज भाजपा का मूल आधार सरकार से लाभ लेने वाले या भविष्य में लेने की उम्मीद रखने वाले ठेकेदार, सप्लायरनुमा लोग है। न वहाँ पार्टी के केन्द्र में विचार है, न विचारधारा, न विचारवान लोग। यही कारण है कि मोदी की भजनमंडली द्वारा जो पंक्ति उठायी जाती है उसे ही सब दुहराने लगते हैं। कभी कभी सम्पन्नता के कारण निर्भय हो चुके लोगों द्वारा कोई बात उठायी जाती है तो उसकी हालत वैसी ही हो जाती है जैसी कि भीड़ में नारा उठाने वाले की तब हो जाती है जब उसके नारे का कोई उत्तर नहीं आता। राम जेठमलानी, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, आर के सिंह, गोबिन्दाचार्य भले ही देश में महत्वपूर्ण हों किंतु उनकी आवाज में आवाज मिलाने की हिम्मत नई भाजपा के किसी व्यक्ति में नहीं है। अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांताकुमार, आदि भूल चुके हैं कि पार्टी में कभी उनका अनुशरण करने वाले लोग भी हजारों की संख्या में थे। मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाये जाने पर जब अडवाणी और सुषमा स्वराज बिना भाषण दिये मुम्बई अधिवेशन से लौट आयीं, या जब अडवाणीजी ने त्यागपत्र की पेशकश की तब भले ही पार्टी के लोग हतप्रभ रह गये हों किंतु उनका साथ देने का साहस किसी ने नहीं दिखाया। पूरी पार्टी चढते सूरज को सलाम करने वालों की पार्टी हो चुकी है। चुनावी प्रबन्धक अमित शाह को गरिमापूर्ण अध्यक्ष पद पर बैठाने की इच्छा रखने वाला, नरेन्द्र मोदी के अलावा न तब कोई और था न अब कोई और है। यही कारण रहा कि दिल्ली विधानसभा चुनाव हार जाने पर भी किसी ने चूँ तक नहीं की। जो पार्टी चुनावी प्रबन्धन पर शेष सारे वांछनीय गुणों को तिलांजलि देने को तैयार हो चुकी हो और चापलूसों, चाटुकारों, ठेकेदारों, सप्लायरों सत्तासुख लोलुपों की भीड़ में बदल चुकी हो वहाँ असहमति की आवाज़ नहीं सुनी जा सकती। भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र की सम्भावनाएं समाप्त हो चुकी हैं इसलिए अडवाणी जी का अनुमान गलत नहीं है कि सरकार पर आने वाले किसी भी संकट से सुरक्षा का उपाय इमरजैंसी जैसी कोई व्यवस्था ही कर सकती है। साहित्यकारों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों ने ध्यानाकर्षण के लिए सम्मान वापिसी का जो तरीका अपनाया है उसके विरोध में अरुण जैटली जैसे लोगों द्वारा उनके व्यक्तित्वों पर कुतर्कों से किया गया कुत्सित हमला, हताशा के संकेत देती है। देश केवल व्यापार के मामले में ही ग्लोबल नहीं होते अपितु उनकी कार्यप्रणाली का मूल्यांकन भी ग्लोबल मापदण्डों पर होता है, व उसका दूरगामी प्रभाव भी होता है। मोदी सरकार का रिपोर्ट कार्ड दुनिया की निगाह में ठीक नहीं चल रहा। सुधार की शुरुआत उन्हें अन्दर से ही करना पड़ेगी।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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