मंगलवार, दिसंबर 29, 2009

तिवारी प्रकरण के कुछ दूसरे कोण्

तिवारी प्रकरण के कुछ दूसरे कोण
वीरेन्द्र जैन
वैसे तो कई लोगों ने इस घटना पर तरह तरह के सन्देह करते हुये तब भी जाँच की माँग की है जब लोग जाँच के नाम से ही घृणा करने लगे हैं, किंतु मैं इस विषय पर कुछ वस्तुनिष्ठ [आब्जेक्टिव] रूप से बात करना चाहता हूं, और यह मान कर बात करना चाहता हूं कि कथित घटना अक्षरशः वैसी ही है जैसी बतायी जा रही है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसे मामलों में अधिक रुचि का प्रदर्शन समाज में व्याप्त कुण्ठाओं के कारण होता है। लोग ऐसे प्रकरणों में सामाजिक कारणों की जगह व्यक्तिगत रूप में रस लेने के कारण उस पर गलत दिशा में अतिरिक्त महत्व देने लगते हैं जिससे कई बार घटना की असली भयावहता पर ध्यान नहीं जाता। कथित घटना के कई अन्य पहलू भी हैं, जैसे-
राज्यपाल यदि राज्य में किसी को राज्य सरकार के मंत्रियों की तरह खदानें और पट्टे देने का वादा कर रहा है तो तय है कि राज्य शासन भी कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ कर रहा है जो राज्यपाल की अनाधिकार सिफारिश पर गलत काम कर देता रहा है। यह इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि पिछले दिनों राज्य के मुख्यमंत्री एक दुर्घटना का शिकार हो चुके हैं [जिसकी जाँच जारी है] और उनकी सम्पत्ति के व्योरे और उस सम्पत्ति को अर्जित करने का काल चौंकाने वाला है।
एक नक्सल प्रभावित राज्य के राजभवन में सुरक्षा तंत्र को धता बताते हुये यदि स्टिंग आपरेशन सम्भव हो रहा है और बिना रोक टोक के वीडियो केमरा तक अन्दर पहुँच रहा है तो इसका मतलब है कि सुरक्षा तंत्र में कहीं बड़ी चूक है। ऐसी चूक देश के लिये बहुत मँहगी पड़ सकती है।यही हाल संसद भवन में नोटों की गिड्डियाँ पहुँचने के मामले का भी रहा है जिसकी जाँच को दबा दिया गया।
दिवंगत मुख्य मंत्री के पुत्र ने जो खुद एक संसद सदस्य भी हैं खुद को मुख्य मंत्री चुने जाने के लिये कांग्रेस हाईकमान के आदेशों निर्देशों की अनदेखी करना और खुली गुटबाज़ी का प्रदर्शन किया है और निरपेक्ष पत्रकारों का मानना है कि आन्ध्र प्रदेश के ताज़ा हालात के लिये कांग्रेस की गुटबाज़ी भी ज़िम्मेवार है। ये स्टिंग आपरेशन जिस समय प्रकाश में आया है उससे इस सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इसका आन्ध्र के ताज़ा हालात से कोई सम्बन्ध हो!
भारतीय समाज में रहने वाले किसी राज नेता की 86 वर्ष की उम्र में भी सेक्स पर ऐसे नियंत्रण की कमी कि एक व्यक्ति जो देश के सर्वोच्च पद तक पहुँचते पहुँचते रह गया हो, अपना राजनीतिक कैरियर दाँव पर लगा दे। काम तो स्वाभिक है, प्राकृतिक है, पर अपनी सामाजिक भूमिका के अनुसार उस पर नियंत्रण रखा जाता है। जिसे उसके वशीभूत होकर सामाजिक नैतिक दायित्व ही दिखाई न दे, हमारे देश में ऐसे व्यक्ति को कामान्ध के नाम से पुकारा गया है।
कुछ लोग इसे बिल क्लिंटन और मोनिका लेविंस्की वाले मामले से तुलना करने लगे हैं किंतु दोनों में ही मूलभूत अंतर यह है कि बिल और मोनिका के बीच उपजे सम्बन्ध कार्यालय में साथ काम करने से उपजे सम्बन्ध हैं, जबकि उक्त सम्बन्ध विशेष रूप से इसी काम के लिये आमंत्रित की गयी लड़कियों के साथ बनाये गये सम्बंध हैं। मोनिका ने क्लिंटन के साथ सम्बन्धों को स्वयं स्वीकारते हुये आरोप लगाया था किंतु इस मामले में स्टिंग आपरेशन के द्वारा खुलासा हुआ है और सम्बन्धित लड़कियाँ सामने नहीं आयी हैं। अंततः क्लिंटन ने सब स्वीकार कर लिया था किंतु तिवारी जी इंकार किये जा रहे हैं और इसे षड़यंत्र बतला रहे हैं। उनकी राजनीतिक महात्वाकांक्षायें अभी भी शेष हैं।

अब सवाल यह है कि जब उजागर हो गये क्रिस्टीन कीलर कांड में अमेरिका इंगलेंड, पाकिस्तान रूस, आदि के राजनेताओं से लेकर माओ, बिल- क्लिंटन, आदि बहुत सारे लोग शक्ति पाने के बाद अपना अंतिम लक्ष्य सेक्स को बनाते रहे हैं तो क्या राजनीति में सेक्स की भूमिका और सेक्स की नैतिकता पर पुनर्विचार नहीं किया जाना चाहिये? गान्धी जैसे महात्मा ने भी अपने अंतिम वर्षों में अपने ब्रम्हचर्य को परीक्षा के लिये प्रस्तुत करना चाहा था। आरोपित ब्रम्हचर्य वाले बहुत सारे सामाजिक धार्मिक संगठनों के लोगों की सच्चाइयाँ रोज खुल रही हैं और उससे हज़ारों गुना दबी ढकी रह जाती हैं। रजनीश ने अपने समय में बहुत सही सवाल उठाया था कि इस विषय को दबा छुपा कर नहीं रखना चाहिये। अप्राकृतिक वर्जनाओं से जो छद्म पैदा होता है वह समाज को झूठा बना कर कहीं अधिक बड़ा नुकसान करता है।
किसी के द्वारा अपनी प्राकृतिक कमजोरी को छद्म पूर्वक उज़ागर कर दिये जाने से उसके ढेर सारे योगदान क्या धूल में मिला दिये जाना चाहिये? वे तब अपराधी बनते हैं जब वे सच्चाई से इंकार करते हैं और झूठे आदमी को समाज के नेतृत्व का अधिकार नहीं दिया जा सकता।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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शनिवार, दिसंबर 26, 2009

चोरियों पार चुप रहने की मजबूरी या चालाकी ?

चोरियों पर चुप रहने की भाजपा की मजबूरी या चालाकी
वीरेन्द्र जैन
भाजपा टैक्स बचाने वाले व्यापारियों की प्रिय पार्टी रही है, और कहा जाता रहा है कि जब ऐसा कोई व्यापारी लुट जाता था या उस के यहाँ चोरी हो जाती तो उसकी मजबूरी होती थी कि वह लूटी गयी पूरी रकम की रिपोर्ट नहीं लिखा पाता था क्योंकि अगर वह ऐसा करता तो इनकम टैक्स वाले पूछते कि इतना पैसा कहाँ से आया जबकि तुम्हारे खाते तो इतनी रकम दिखा ही नहीं रहे हैं। लगता है व्यापारियों की प्रिय पार्टी का भी यही हाल है और वह --जैसा आया वैसा गया- की तर्ज़ पर चुप लगा कर बैठ जाने में ही अपना ज्यादा भला समझती है। ताज़ा घटना क्रम यह है कि जिस दिन नितिन गडकरी को भाजपा के नये अध्यक्ष के रूप में स्थापित किया गया उसी दिन उनके स्वागत समारोह के दौरान उनकी जेब से बटुआ चोरी चला गया। उस अवसर पर यह अनुभव् अकेले नये भाजपा अध्यक्ष को ही नहीं मिला अपितु उस दौरान अठारह लोगों की जेब से बटुये गायब हो गये और कई लोगों के मोबाइल और घड़ियां भी अंतर्ध्यान हो गयीं। यह इस बात का नमूना था कि भाजपा को कैसे लोगों का नेतृत्व करना है। पर पार्टी इस अवसर पर चुप लगा गई और दिल्ली सरकार की कानून व्यवस्था को कोसने की भी ज़रूरत नहीं समझी।
याद करने वाली बात तो यह है कि पिछले ही दिनों भाजपा के मुख्यालय की तिजोरी से बिना ताला टूटे या सैंध लगे कुछ राशि गायब हो गयी थी और यह रकम दो तीन सौ रुपयों की नहीं थी जो एक गरीब आदमी की महीने भर की पेंसन होती है अपितु यह रकम दो करोड़ साठ लाख रुपयों की थी। यह रकम जिस कक्ष में रखी तिजोरी से गायब हुयी थी वह कक्ष भाजपा अध्यक्ष के ठीक सामने वाला कक्ष है जहाँ पर ज़ेड श्रेणी सुरक्षा प्राप्त आडवानी जी का आना जाना लगा रहता था इसलिये उक्त स्थल को विशेष सुरक्षा प्राप्त होती है। रोचक बात यह रही कि भाजपा ने इस मामूली रकम के लिये पुलिस में रिपोर्ट लिखाने की ज़रूरत भी नहीं समझी थी। संगठन के प्रभारी महामंत्री राम लाल ने पत्रकारों द्वारा कुरदने पर बताया था कि जांच का काम एक प्राईवेट जासूस कम्पनी को दे दिया है। उस जांच का क्या हुआ यह किसी को पता नहीं है।
जब भाजपा सांसद के एल शर्मा का देहांत हुआ था तब भी उनकी एक महिला मित्र ने उनके घर में रखी एक अलमारी पर अपना दावा किया था जबकि भाजपा नेतृत्व का कहना था कि अलमारी किसी की हो पर पैसा पार्टी का है, और वह महिला दिवंगत के साथ अपनी मित्रता रही होने का गलत फायदा उठा रही है।
मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री ने जब विदिशा में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं का चिंतन शिविर आयोजित किया था जिसमें इतने वरिष्ठ नेता सम्मलित थे कि साधारण कार्यकर्ता को दूर दूर तक फटकने की भी अनुमति नहीं थी तब शिवराज सिंह की हीरे की अंगूठी गायब हो गयी थी जिसे वो किसी भरोसे के ज्योतिषी की सलाह पर पहिने हुये थे। मध्य प्रदेश में ही विधान सभा चुनाव से पूर्व मुख्य मंत्री ने साइकिल से सचिवालय जाने के नाम सुर्खियां बटोरने का काम किया था जिसके लिये नई साइकिलें मंगवाई गयीं थीं जो बाद में कहां गायब हो गयीं यह पता ही नहीं चला। मुख्यमंत्री ने जब दूसरी बार प्रदेश के मुख्य मंत्री की शपथ ली थी तब वह आयोजन खुले मैदान में किया था जिसके लिये पूरे प्रदेश से भीड़ जुटायी गयी थी। इस रैली में आये हुये लोगों की पचासों घड़ियां और मोबाइल गायब हो गये थे जबकि सारे ही भागीदार किसी न किसी भाजपा नेता के कोटे से आये हुये थे। मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री जब ए सी पंडाल में केन्द्र सरकार के खिलाफ अनशन पर बैठे थे तब उनके साथ बैठे हुये लोगों की मोटर-साइकिलें गायब हो गयी थीं। भोपाल और इन्दौर जैसे नगरों में आये दिन जंजीरें खींचे जाने की घटनायें हो रही हैं किंतु ना तो भाजपा वालों को कोई शिकायत हुयी और ना ही उन्होंने कोई आन्दोलन ही किया, जबकि राम सेतु के लिये वे लोगों का जीना हराम कर देते हैं।
पता नहीं यह भाजपा की मज़बूरी है या चालाकी है। हो सकता है कि नव नियुक्त अध्यक्ष कम से कम अपने बटुये की खातिर ही कुछ सुधारात्मक कदमों को तलाश सकें। समाचार यह भी है कि नये अध्यक्ष को पहली चुनावी सौगात में उनके अपने क्षेत्र में भाजपा की हार प्राप्त हुयी है जहाँ विधान परिषद के स्थानीय निकाय चुनाव में कांग्रेस के राजेन्द्र मुलाक निर्वाचित हुये हैं।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, दिसंबर 22, 2009

मेरा अमृता प्रीतम साहित्य से प्रेम


मेरा अमृता प्रीतम साहित्य से प्रेम
वीरेन्द्र जैन

यह कालेज के अंतिम वर्ष थे जब मैं अमृता प्रीतम के कथा साहित्य नीरज के गीत और आचार्य रजनीश के भाषणों पर आधारित साहित्य को भीतर तक उतार कर पढता था। एक रूमान बुरी तरह हावी था जो मुझे अपने हम उम्रों से अलग करता था और गम्भीर लोगों से, जो अक्सर ही मुझ से उम्र में बड़े होते थे, से जोड़ता था। बाकी संस्मरण तो बहुत सारे हैं किंतु जब अमृता प्रीतम का निधन हुआ तब मैंने लोकमत समाचार और नई दुनिया में जो लेख लिखे उसमें से एक नेट की दुनिया में अमृता प्रीतम के दीवानों के लिये पुनर्प्रस्तुत कर रहा हूं। आप जिस भी अमृता प्रीतम को पसन्द करने वाले को जानते हों उस तक अवश्य पहुँचाने के लिये कुछ श्रम करें तो मुझे खुशी होगी।
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स्मृति शेष ः अमृता प्रीतम
अनाम रिश्तों की चितेरी
वीरेन्द्र जैन
जैसे कोई कटी पतंग बिजली के तारों में अटक जाती है ठीक वैसे ही अमृता प्रीतम पिछले कई महीनों से बिस्तर पर अटकी पड़ी हुयी थीं। मरीजों से सवाल दर सवाल करने वाले डाक्टरों ने जबाब दे दिया था। वे अचल और लगभग अचेत हो गयी थीं। जीवन के लक्षण कम से कम हो गये थे, केवल उनका दिल था जो धड़क रहा था और सांसे थीं जो आ जा रही थीं। ऐसा शायद इसलिये क्योंकि अमृता प्रीतम ने पूरा जीवन इन्हीं दो क्रियाओं के सहारे जिया था।
वे कवियत्री और कथा लेखिका के रूप में जानी जाती थीं पर उनके पाठकों के लिए इन विधाओं में भेद करना सम्भव नहीं था क्योंकि उनकी कथायें भी कवितायें ही होती थीं। उनकी रचनायें दिल से दिल के बारे में दिल के लिए लिखी जाती थीं। वे जीवन को गणित के सरल सवालों की तरह नहीं मानती थीं और ना ही वैसे सवाल उनकी रचनाओं के विषय होते थे। जीवन उनके लिये एक संश्लिष्ट प्रक्रिया थी तथा उसके सवाल हल होने की जगह नये सवाल पैदा करते हैं। भावनाओं को शब्द देने में उन्हें महारत हासिल थी पर शब्द दे देने से भावनाओं का रूप परिवर्तित नहीं होता था अपितु वे शब्दाकार में आकर भी वैसी ही बनी रहती थीं। उनके उपन्यास -एस्कीमो स्माइल- का यह प्रारम्भिक वाक्य देखिये
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एकता को अपना आप एक औरत की तरह नहीं एक सड़क की तरह लगा, सड़क, जो जो हमेशा एक ही जगह पर रहती है, पर फिर भी कहीं से आती है और कहीं जाती है। एकता के मन की हालत भी एक ही जगह पर थी, पर यह हालत इंसान की उस तवारीख की तरफ से आ रही लगती थी जो आज तक लिखी गयी है और उस तवारीख की तरफ जा रही लगती थी जो आज तक नहीं लिखी गयी।
अमृता प्रीतम ने आम प्रचलित रिश्तों से जन्मी कहानियाँ नहीं लिखीं अपितु इंसानी रिश्तों के नए-नए आयाम तलाशे और उन अनाम रिश्तों की भावनाओं को पूरी गहराई से चित्रित किया। एक जगह वे लिखती हैं कि जिस राजेन्द्र सिंह बेदी की कहानियाँ पंजाब से चल कर लन्दन, पेरिस तक पहुँच जाती हैं पर उसके मन की बात वहीं की वहीं खड़ी रहती है तथा सड़क पार करके सामने रहने वाली तक नहीं पहुँच पाती।
एक जगह वे लिखती हैं- लोग समय की दीवार पर अपना नाम नहीं लिख पाते, लोग दिलों की दीवार पर अपना नाम नहीं लिख पाते इसलिये ऎतिहासिक इमारतों की दीवारों पर अपना नाम लिख देते हैं।
अमृता प्रीतम के उपन्यास की एक नायिका जब अपना रिश्ता तोड़ कर उस स्टेशन पर उतरती है जहाँ से उसे हमेशा गाड़ी बदलना होती है तो वह निकट के होटल में बैठ कर काफी पिया करती है। वर्षों से उसे एक खास बैरा उसे काफी सर्व करता है पर उस बार जब एक नया बैरा काफी ले जाने लगता है तो पुराना बैरा उससे काफी की ट्रे छीन कर अपने वर्षों पुराने काफी पिलाने के रिश्ते की दुहाई देकर कहता है कि मैं इन्हें तब से काफी पिला रहा हूँ जब ये छोटी सी बच्ची थी। नायिका इस रिश्ते और तोड़ कर आये रिश्ते की तुलना करते हुये सोचती है कि कौन सा रिश्ता सच्चा था। उन्होंने अपने जीवन से भी रिश्तों की व्यापकता को दर्शाया है। वे साहिर लुधियानवी से प्रेम करती थीं और जीवन की वह रात उनके जीवन की सबसे बहुमूल्य रात्रि रही जब जुकाम से पीड़ित साहिर के सीने पर गर्म तेल की मालिश की। साहिर का छूट गया गन्दा रूमाल उनकी सबसे बड़ी धरोहर रही। अपने अंतिम वर्ष उन्होंने चित्रकार इमरोज़ के साथ बिताये तथा अपने रिश्ते को कभी परिभाषा में बांधने की कोई कोशिश नहीं की। यह रिश्ता दुनिया के सारे रिश्तों से ऊपर रहा।
डाक्टर देव, नीना, नागमणि, अशु, एक सवाल, बन्द दरवाज़ा, हीरे की कनी, रंग का पन्ना, धरती सागर और सीपियाँ, एक थी अनिता, सब में उनकी नायिकाएँ अपने रिश्तों की गहराइयों को सामने लाकर समाज से सवाल करती हैं कि जो रिश्ते तुमने बना दिये हैं वे कितने थोथे और अधूरे हैं। मनुष्य मनुष्य के बीच रिश्तों के अनगिनित आयाम हैं।
उनके लिये तो गुलज़ार की वे पंक्तियाँ ही सटीक बैठती हैं कि प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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सोमवार, दिसंबर 21, 2009

अलग तेलंगाना राज्य और मधु कोडाओ की संभावनाएं

अलग तेलंगाना राज्य और मधु कौड़ाओं की सम्भावनाएं
वीरेन्द्र जैन
केन्द्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय ने आरोप लगाया है कि भाजपा नेता अर्जुन मुंडा मधु कौड़ा से भी बड़े घोटालेबाज हैं जिन्होंने अपने कार्यकाल में अरबों रुपयों का महा घोटाला किया है। श्री सहाय ने कहा कि मधु कौड़ा ने तो अपने शासन काल में 15 से 20 खदानों के ही पट्टे दिये थे जबकि अर्जुन मुंडा ने अपने कार्य काल के दौरान 35 से 40 पट्टे दिये थे। अगर कौड़ा के लिये इंटेरपोल की मदद ली जा रही है तो मुंडा के लिये कहां जाना होगा! उन्होंने याद दिलाया कि 2005 में अर्जुन मुंडा की सरकार बनवाने के लिये भाजपा, मधु कौड़ा, एनौस एक्का, हरि नारायण राय जैसे निर्दलीय विधायकों, जो बाद में मंत्री बने और अब भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बन्द हैं को विमान से जयपुर ले गयी थी। यह नव गठित राज्य में भ्रष्टाचार का बीज बोने जैसा काम था।
मधु कौड़ा पर लगे आरोप और उनके खातों की जांच से निकली जानकारी आम आदमी के लिए सचमुच आंखें खोल देने वाली है और इससे भी भयानक इस बात की आशंका है कि ये जो जनजाति के लोग हैं वे भ्रष्टाचार के मामले में बहुत सिद्ध हस्त न होने के कारण पकड़ में आ गये हैं किंतु विकसित समाज के जो नेता जांच के घेरे में नहीं आ पाये हैं वे कितने भ्रष्ट होंगे! यदि ठीक से जाँच हो तो उसके परिणामों को देखकर देश की जनता का विश्वास हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर टिका रहेगा या नहीं! जनता की समझ में अब साफ साफ आने लगा है कि जो लोग देश और समाज की सेवा के नाम से वोट मांगते हैं वे मंत्री बनने के लिये इतने उतावले क्यों दिखते हैं और मंत्री बनते ही उनके चारों ओर सम्पन्नता और भव्यता का उजास कैसे विकसित हो जाता है। बिना प्रेस की कोट और कमीज़ पहिनने वाले समाजवादी नेता के पास रक्षा मंत्री बनने के बाद पन्द्रह करोड़ की दौलत कैसे प्रकट होने लगती है। क्या कारण है कि मुख्य मंत्री पद से हटा दिये जाने के बाद संघ परिवार के मदन लाल खुराना, कल्याण सिंह, उमा भारती, अर्जुन मुंडा, शंकर सिंह बघेला, केसू भाई पटेल आदि बिफरने लगते हैं और अपने पितृ मातृ संगठन के खिलाफ ही कुछ भी बोलने लगते हैं।
असल में इसकी जड़ में छोटे राज्यों का गठन भी एक है। मधु कौड़ा को निर्दलीय जीतने और इकलौते सदस्य होने के बाबज़ूद भी मुख्य मंत्री बनने का मौका इसी लिये मिल सका क्योंकि छोटे राज्य में पक्ष और विपक्ष के सदस्यों की संख्या में अंतर कम होता है व प्रत्येक निर्दलीय सद्स्य का अपना महत्व होता है, जिसकी कीमत बहुत होती है और आम तौर पर उसे मंत्री बनाना ही पड़ता है। यही कारण है कि हरियाणा जैसा राज्य अपने दल बदल के कारण शुरू से ही विख्यात रहा है। गोआ और उत्तर पूर्व के अधिकांश राज्य पूरे कार्यकाल अस्थिर बने रहते हैं उत्तराखंड में बिना निर्दलीय सद्स्यों के सहयोग के सरकार नहीं बन पाती और फिर भी बीच के समय में मुख्य मंत्री बदलना पड़ता है। छोटे राज्यों के गठन से केवल चन्द कुंठित राजनेताओं को मुख्य मंत्री मंत्री आदि के पद मिल जाते हैं और सरकारी अफसरों को प्रमोशन के अवसर आदि मिल जाते हैं जिससे भ्रष्टाचार के अवसर और धन की वासना में अटूट विस्तार होता है। छोटे राज्य बनने से गरीब और आम आदमी को कभी भी कोई फायदा नहीं हुआ और ना ही राज्य का ही विकास हुआ है [हरियाना और हिमाचल के विकास के पीछे भी उनकी भौगोलिक स्तिथि है न कि छोटा राज्य] यही कारण है कि इस मांग के पीछे जितने राजनेता होते हैं उतनी जनता नहीं होती। छत्तीसगढ के गठन के समय उसकी मांग के लिये कभी दो सौ आदमियों से ज्यादा का ज़लूस नहीं निकला पर फिर भी छत्तीसगढ बन गया क्योंकि नेताओं को पद चाहिये थे।अलग बुन्देलखण्ड के लिये कुछ सत्ता कामी लोग लगातार लगे रहे हैं पर वे जनता को सक्रिय नहीं कर सके। अगर बुन्देलखण्ड राज्य बना तो वह राजनीतिक गुणा भाग के कारण बनेगा न कि जन आन्दोलन के कारण।
अलग तेलंगाना राज्य के लिये नेताओं की मांग पुरानी थी और उसे लगातार बहलाया फुसलाया तथा वादा करके झुठलाया जा रहा था किंतु जब आन्ध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री के असामायिक निधन के बाद उनके उत्तराधिकारी के सवाल पर तलवारें खिंच गयीं तब उस अवसर का लाभ उठाते हुये टी चन्द्र शेखर राव ने अनशन प्रारम्भ कर दिया और उससे घबराकर केन्द्र सरकार ने अलग तेलंगाना राज्य की मांग मानने जैसी गलती कर ली। यदि वहाँ सत्तारूढ दल में राजनीतिक संकट न आया होता तो चन्द्र शेखर राव की बात मानने का सवाल ही पैदा नहीं हो रहा था। अगर हिंसक आन्दोलन की आशंका के आधार पर छोटे राज्यों की मांग मानी जाने लगी तो निहित स्वार्थ ऐसे आन्दोलनों को और प्रोत्साहित करेंगे। इसलिये ज़रूरी हो गया है कि राज्य बनाने के लिये भूगोल, भूमि के प्रकार, प्रशासनिक नियंत्रण, सुगम यतायात, भाषा आदि को दृष्टिगत रखते हुये कुछ नियम बनाये जायें जिनके आधार पर ही राज्यों का गठन सुनिश्चित हो तथा ऐसी दूसरी सारी मांगों को केवल संसद में ही उठाने के नियम बनें। यदि ऐसा नहीं हुआ तो विघटन की श्रंखला कभी खत्म नहीं होगी क्योंकि हर गाँव की एक अलग पहचान है। दूसरी ज़रूरत यह है किसी भी क्षेत्र के विकास में पक्षपात नहीं होना चाहिये तथा जानबूझ कर किये गये किसी भी पक्षपात को देशद्रोह की श्रेणी में गिना जाना चाहिये। आखिर क्या कारण है कि तेलंगाना का विकास आन्ध्र प्रदेश के हिस्से के रूप में नहीं हो पा रहा। कश्मीर, उत्तर पूर्व, माओवादी, हिन्दूवादी आदि आतंकी संकटों के इस दौर में राज्यों के गैर गम्भीर विघटनवादी आन्दोलनों को रोकना देश की सुरक्षा के लिये बहुत ज़रूरी हैं।
वीरेन्द्र जैन
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छोटे राज्यों का प्रश्न और भाजपा का अवसरवाद

छोटे राज्यों का प्रश्न और भाजपा का अवसरवाद
वीरेन्द्र जैन
सत्ता लोलुपता के लिये भाजपा की गुलांटें किसी मदारी के करतबों जैसी दिखती हैं। इन करतबों में उसकी तथाकथित राष्ट्रवाद की पोल भी खुल जाती है। ताज़ा उदाहरण के रूप में उसके अलग तेलंगाना राज्य से उठे विवादों पर दिये विरोधाभासी बयानों को लिया जा सकता है। जो लोग जनता की मांगों पर कोई अभियान नहीं चलाना चाहते वे ऐसे शार्टकट अपनी सुविधा के अनुसार तलाशते रहते हैं।
जब मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, के बँटवारे में उसे सम्भावनायें नज़र आ रहीं थीं तो उसने अलग छत्तीसगढ उत्तराखण्ड और झारखण्ड का समर्थन किया इसमें रोचक यह है कि छत्तीसगढ की मांग के लिये कभी दो सौ लोगों से ज्यादा का ज़लूस नहीं निकला। अपने सबसे बड़े विरोधी सीपीएम की सरकार को संकट में डालने के लिये अलग गोरखालेंड की मांग को सही ठहराते हुये , गोरखा नेशनल फ्रंट का समर्थन किया जबकि सीमंत क्षेत्रों में ऐसे अलगाववादी आन्दोलन राष्ट्रीय एकता के लिये खतरनाक हो सकते हैं। वह तेलंगाना राज्य की मांग के समर्थन में है क्योंकि उससे कांग्रेस संकट में आती है और इससे उसे किसी गठबन्धन के सहारे मौका मिल सकता है। किंतु वही भाजपा अलग बुन्देलखण्ड, हरित प्रदेश, पूर्वांचल, और बृज प्रदेश के लिये सहमत नहीं है। अलग विदर्भ में सम्भावना सूंघ रही है किंतु गठबन्धन सहयोगी बाल ठाकरे की अनुमति न मिलने के कारण खतरा मोल लेने को तैयार नहीं है।
भाजपा एक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल है जो स्वयं को सैद्धांतिक दल बताते नहीं थकता। वह अपनी सीटों के आधार पर कांग्रेस के बाद दूसरा सबसे बड़ा दल भी है। किंतु यदि ऐसा है तो एक राजनीतिक दल के रूप में आखिर वह क्यों स्पष्ट घोषित नहीं करती कि राज्यों के पुनर्गठन के बारे में उसकी नीति क्या है। यदि अलग तेलंगाना राज्य का समर्थन किया जा सकता है तो अलग बुन्देलखण्ड का क्यों नहीं किया जा सकता जो तेलंगाना की तुलना में अधिक उपयुक्त मामला है। पिछले दिनों भाजपा के अनेक नेता बुन्देलखण्ड के बारे में कह चुके हैं कि उनकी पार्टी बुन्देलखण्ड राज्य का समर्थन करती है, और उनकी ही पार्टी से निकली व उसमें फिर से जाने को उतावली उमा भारती खुल कर पृथक बुन्देलखण्ड का समर्थन कर रही हैं।
दरअसल छोटे राज्यों की मांग समावेशी विकास की मांग को भटकाने का एक तरीका है। भौगोलिक विविधिता वाले देश में उत्पादन और राजस्व प्राप्ति के क्षेत्र समान नहीं होते हैं जबकि किसी भी राज्य का स्थापना व्यय लगभग समान होता है। केन्द्रीय कर्मचारियों का जब वेतन या मँहगाई भत्ता बढाया जाता है तो राज्य कर्मचारी भी उसकी मांग करने लगते हैं, और उन्हें यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक राज्य में राजस्व प्राप्ति का केन्द्र या दूसरे किसी राज्य से मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। यदि राज्य बड़ा होता है तो एक क्षेत्र की कमी की भरपाई दूसरे क्षेत्र से हो जाती है। कहीं पर कच्चा माल उत्पादन हो सकता है और कहीं पर कुशल कारीगर उपल्ब्ध होने के कारण उसको उपयोग के लायक बनाने वाली मिलें लगाई जा सकती हैं। ऐसी अवस्था में दोनों क्षेत्र ही विकास कर सकते हैं जबकि बँटवारे की दशा में अलग अलग राज्यों के टैक्स मिला कर उत्पादन को बाज़ार में मँहगा करके उसे बाज़ार से बाहर भी कर सकते हैं।
छोटे राज्यों के पीछे आम तौर पर वे नेता होते हैं जो स्वयं को सरकार में होने का सुपात्र समझते हैं किंतु सरकार बनाने वाले ऐसा नहीं समझते। सरकार में उचित स्थान न पाने वाले नेता और दल अपने नेतृत्व की क्षमता का प्रदर्शन ऐसे बँटवारे की माँग करके करते हैं। ऐसी माँग हमेशा उस क्षेत्र की जनता के विकास की मांगों से जुड़ी नहीं होती। राज नेता हमेशा राज्य की भाषा में ही बात करते हैं जबकि जनता की ज़रूरत उसकी मौलिक सुविधायें और विकास के अवसरों की होती हैं। राजनेता उन ज़रूरतों की मांग को उठने से पहले ही उन्हें अलग राज्य जैसे आन्दोलनों में भटका कर अपने हित में स्तेमाल करने लगते हैं। वे नहीं बताते कि अलग राज्य बन जाने के बाद वे व्यवस्था में ऐसा क्या परिवर्तन ला सकेंगे जिससे जनता की हालत में सुधार होगा य जहाँ पर छोटे राज्य बन गये हैं वहाँ केवल मधु कौड़ाओं की सम्पत्ति के अलावा क्या विकास हुआ है। कई बार तो सत्तारूढ दल भी जनता के आन्दोलनों की दिशा भटकाने के लिये ऐसे आन्दोलनों को पीछे से प्रोत्साहित करते रहते हैं।
यदि बिना उचित विचार के छोटे राज्यों की मांगें मान ली जाती हैं तो फिर ऐसे आन्दोलनों की बाढ को नहीं रोका जा सकता क्योंकि हमारा देश बहुराष्ट्रीयताओं का देश है और नेताओं को प्राप्त राजसी सुविधाओं के कारण उन्हें पाने का लालच रखने वाले नेता अनंत हैं। इसलिये ज़रूरी है कि एक बार फिर ऐसा राज्यों का पुनर्गठन आयोग बने जो किसी राज्य की पहुँच का क्षेत्र, सम्वाद की भाषा, सांस्कृतिक एकता, शिक्षा, स्वास्थ व उद्योगों की उपस्तिथि के साथ साथ उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता का मूल्यांकन करते हुये आवश्यक सुझाव दे व प्रमुख मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों द्वारा मिले सुझावों के आधार पर सर्व सम्मति से स्वीकृत करा सके। विकास की कमी को विकास की पूर्ति से ही दूर किया जा सकता है। ज़रूरत इस बात की है कि-
· सरकारें राज धर्म निभाते हुये पक्षपात न करें
· कमजोर क्षेत्रों की पहचान पूर्व घोषित हो और इन क्षेत्रों के विकास को प्राथमिकता मिले
· सरकार में रहने वाले नेताओं को कम से कम व्यक्तिगत सुविधायें हों और उनका जीवन सादगी पूर्ण हो ताकि सुविधाओं के लालची सत्ता में आने के लिये जनता की ज़रूरतों के मूल आन्दोलनों को न भटका सकें
· नेताओं का ज़ीवन पारदर्शी हो तथा उन्हें प्रति वर्ष अपनी और अपने परिवार की सम्पत्ति की घोषणा करना अनिवार्य हो।
· किसी स्वार्थवश अलगाववादी आन्दोलन भड़काने वालों के खिलाफ सार्वजनिक रूप से देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाये
सच्चाई यह है कि चाहे छोटे राज्य का आन्दोलन हो या राम मन्दिर बनाने के नाम पर बाबरी मस्ज़िद तोड़ने का अभियान हो ये सब सता की मलाई के लिये ललचाते नेतओं के हथकण्डे हैं और ये सत्ता के आस पास ही घूमते रहते हैं। जब इन्हें सता मिल जाती है तो ये वह सब कुछ भूल जाते हैं जिसके नाम पर इन्होंने मासूम लोगों को हिंसक आन्दोलनों में लगाया होता है।
वीरेन्द्र जैन
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फोन 9425674629

गुरुवार, दिसंबर 17, 2009

लोकतंत्र का सरकस और करतब्

इस लोकतंत्र के सरकस में कैसे कैसे करतब हैं
वीरेन्द्र जैन
मध्य प्रदेश में नगर निकायों के चुनाव परिणाम घोषित हो गये हैं और ये परिणाम मिले जुले हैं। मध्य प्रदेश के सन्दर्भ में मिले जुले परिणामों का अर्थ होता कि भाजपा और कांग्रेस के बीच का बँटवारा।यहाँ पर अन्य दल होते हुये भी नहीं हैं। नगर निकायों के इन परिणामों पर दोनों ही दल अपने अपने सिद्धांतों की जीत बता कर जनता को बहलाने की हास्यास्पद कोशिश कर रहे हैं।
प्रदेश में ये चुनाव ईवीएम मशीनों की जगह बेलेट पपेर से कराये गये जिसमें अधिकारिओं की मिली भगत से हेर फेर सम्भव है और इसी हेर फेर से बचने के लिये ईवीएम का निर्माण किया गया था। भोपाल जैसे नगर में जहाँ दूसरे छोटे नगरों की तुलना में साक्षरता का प्रतिशत अधिक है 22000 वोट खारिज किये गये जबकि जीत हार कुल 5000 से भी कम मतों से हुयी। कांग्रेस प्रत्याशी ने आरोप भी लगाया था कि मतदान पेटियाँ ला रहा एक ट्रक सात घंटे तक पता नहीं कहाँ भटकता रहा। खारिज किये हुये अधिकांश मत दो जगह मुहर लगने के कारण खारिज हुये। पहचान पत्र की कोई ज़रूरत नहीं समझी गयी। इन पंक्तियों के लेखक ने जब स्वयं हे अपना पहचान पत्र दिखाया तो पीठासीन अधिकारी ने कहा कि इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। रोचक यह है कि भोपाल नगर निगम क्षेत्र में 22000 मत खारिज़ कराने वाले मतदातों ने इतनी समझदारी भी जतायी कि नगर निगम अध्यक्ष के लिये एक पार्टी को वोट दिया और पार्षद के लिये दूसरी पार्टी को वोट दिया जिससे कांग्रेस के 39 पार्शद चुने गये और भाजपा के27 पार्षद चुने गये। जिन समझदार मतदाताओं ने अध्यक्ष पद के लिये 22000 वोट खारिज़ कराये उन्हीं मतदाताओं ने पार्षद पद के उम्मीद्ववारों को चुनते समय ऐसी गलतियां नहीं कीं। भोपाल नगर निगम क्षेत्र में अधिकांश् मतदाता नौकरी पेशा हैं।
सुप्रसिद्ध हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय वाले सागर नगर में लोग भाजपा और कांग्रेस से इतने नाराज थे कि उन्होंने न केवल किन्नर कमला बाई को 43000 वोटों के अंतर से जिता दिया अपितु कांग्रेस उम्मीदवार की जमानत तक जप्त करा दी। मजबूरी ये थी कि पार्षद पद के लिये दूसरे किन्नर उम्मीदवार नहीं थे इसलिये उन्हें भाजपा, कांग्रेस बसपा, भाजश और रांकापा आदि को जिता कर काम चलाना पड़ा। भिंड की गोहद नगर पालिका में अद्यक्ष माकपा का जीता है जबकि 18 पार्षदों में से उसका कुल एक ही पार्षद जीत सका है। टीकमगढ में अध्यक्ष निर्दलीय जीता है पर 12 पार्सद कांग्रेस के और 11 पर्षद भाजपा के जीते हैं। ज्यादातर जगहों में अध्यक्ष किसी पार्टी का है और पार्षद किसी दूसरी पार्टी के जीते हैं इससे दोनों ही पार्टियां कह सकती हैं कि हमारी नीतियों की जीत हुयी है।

मंगलवार, दिसंबर 15, 2009

क्रांतिकारी युवा नेतृत्व की सफलता ही कांग्रेस और देश को बचा सकती है

क्रांतिकारी युवा नेतृत्व की सफलता ही कांग्रेस और देश को बचा सकती है
वीरेन्द्र जैन
भले ही कांग्रेस आज केन्द्र की सता में है किंतु न तो वह अपनी अकेली दम पर सत्ता में है और ना ही वह अपनी राजनीतिक ताकत की दम पर सत्ता में है अपितु चुनावी राजनीतिक प्रबन्धन और एक बेडौल बेढंगा सिद्धांतहीन गठबन्धन उसे सत्ता में बनाये हुये है। आम चुनाव के बाद उसका बहुमत बनाने वाले दलों में से समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, बहुजन समाज पार्टी, आदि उससे विमुख हो चुके हैं और उसकी सरकार में सम्मलित डीएमके और तृणमूल कांग्रेस प्रति दिन उसके संकटों को बढा रहे हैं। कांग्रेस की आज सबसे बड़ी ज़रूरत एक राजनीतिक दल के रूप में उसकी पुनर्स्थापना की है, जिसके लिये केवल राहुल गाँधी दिग्विजय सिंह को साथ लेकर प्रयास कर रहे हैं। आज की कांग्रेस में सत्ता की जगह संगठन को महत्व देने के ये दुर्लभ उदाहरण हैं। कह सकते हैं कि ये दोनों महासचिव एक नई कांग्रेस गढने का प्रयास कर रहे हैं।

पिछले दिनों अपने उत्तर प्रदेश के दौरे पर गये हुये राहुल गाँधी ने जो सन्देश दिये हैं और अगर वे उन पर सचमुच कायम रह कर सफलता पूर्वक अमल करवा पाते हैं, तब ही कांग्रेस का उद्धार सम्भव है अन्यथा स्वार्थी समर्थन पर टिकी वर्तमान कांग्रेस सरकार कभी भी अल्पमत में आ सकती है। बिखरी और देश के मानस से अस्वीकृत् हुयी भाजपा के अलावा दूसरा कोई ऐसा बड़ा दल नहीं है जो राष्ट्रव्यापी हो। भाजपा का भी 143 लोकसभा क्षेत्रों में कोई अस्तित्व नहीं है, तथा बामपंथी दलों की उपस्तिथि और भी क्षीण है, इसलिये कांग्रेस के पराभव का मतलब विभिन्न क्षेत्रीय, जातिवादी, भाषावादी, साम्प्रदायिक, दलों का उभार और निजी स्वार्थ के अधार पर सिद्धांतहीन गठबन्धन सरकारों का बार बार गठन और बार पतन ही होगा। इस दशा का दुष्परिणाम राष्ट्रीय एकता पर खतरे के रूप में सामने आ सकता है। चीन के किसी अखबार में भारत को 26 टुकड़ों में टूटने की सम्भावना कुछ ऐसी ही आशंका को देखते हुयी ही की गयी होगी।
स्मरणीय है कि राहुल गाँधी ने अपने उत्तर प्रदेश दौरे के दौरान कहा था कि मेरे सामने 2012 कोई लक्ष्य नहीं है अपितु युवाओं का संगठन ही मेरा लक्ष्य है। चुनाव तो 2012 के बाद में भी आयेंगे आते रहेंगे। मैं इस प्रदेश की राजनीति में बदलाव लाना चाहता हूं और मेरा इकलौता लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा युवाओं को राजनीति में लाना है। में युवाओं के लिये काम करना चाहता हूं।
यदि राहुल गाँधी युवाओं को राजनीति की ओर मोड़ लेते हैं तो ये तय है कि ये युवा, बिल्डरों, सरकारी सप्लायरों, ठेकेदारों, माफिया गिरोहों, गुंडों, और लालची लम्पट खांटी बूढे नेताओं का स्थान लेंगे। उनके इस बयान से आज के राहुल गाँधी में उस राजीव गाँधी की झलक मिलती है जिसने प्रधान मंत्री बनने के बाद पहले कांग्रेस के अधिवेशन में कांग्रेस को माफिया से और सरकार को भ्रष्टाचार से मुक्त करने का संकल्प व्यक्त किया था। 85 पैसे और पन्द्रह पैसे वाली सच्चाई भी उसी दौरान सामने आयी थी व बेहद विवादास्पद और चर्चित हुयी थी। किंतु बाद में राजीव गांधी ने भी परिवर्तन के प्रयास से हाथ खींच लिये थे क्योंकि उनकी भी समझ में आ गया था कि इस राजनीतिक व्यवस्था में स्वच्छ प्रशासन और सिद्धांत की राजनीति सम्भव नहीं है। बाद में तो कांग्रेस को परिवर्तित करने का उनका संकल्प बिल्कुल टूट गया था और वे कांग्रेस को नहीं अपितु कांग्रेस ही उन्हें चलाने लगी थी।

तय है कि राहुल गांधी के सामने दो ही विकल्प हैं कि या तो वे इसी कांग्रेस के रंग में रंग कर प्रधान मंत्री पद को सुशोभित करने लगें या सरकार और कुर्सी को ठोकर पर रखते हुये कांग्रेस संगठन को घोषित सिद्धांतों पर अमल कराते हुये उसका निर्मम आपरेशन करें और विपक्ष में बैठने की मानसिक तैयारी के साथ करें। उसके बाद जो कांग्रेस बचेगी उस पर बाद में वही जनता भरोसा करेगी, जो आज उससे नफरत करती है। यह भरोसा कांग्रेस को फिर से सत्ता में ला सकता है। आज के राहुल गांधी दूसरे विकल्प की ओर जाते हुये दिख रहे हैं किंतु यह रास्ता त्याग और लम्बे संघर्ष का रास्ता है। यह रास्ता निरंतर चुनौतीपूर्ण है और अगर उन्होंने सचमुच अपनाया तो यह रास्ता एक समय उनकी पार्टी को स्लिम अर्थात छरहरी और फुर्तीली कर सकता है। प्रारम्भ में भले ही उन्हें अकेलापन लगे, पर यदि वे युवाओं का एक बड़ा संगठन खड़ा करके उसका स्वाभाविक नेतृत्व बनाये रख सके तो यह ताकत क्रांतिकारी होगी जो उन्हें अपने पूर्वजों से आगे ले जा सकती है।इससे जो राहुल गान्धी उभरेगा वह विरासत में मिली कुर्सी के आरोप से मुक्त होगा और अपनी अलग पहचान रखेगा।

इस समय जब किसी भी समय की तुलना में सर्वाधिक युवा आबादी हमारे पास में है तब युवाओं को अपने साथ कर लेना सबसे बड़ी राजनीतिक आवश्यकता है। आर एस एस ने भी भाजपा को युवा अध्यक्ष चुनने का निर्देश यही सोचकर दिया है। तमिलनाडु में करुणानिधि ने सन्यास लेने की घोषणा कर दी है। पंजाब में प्रकाश सिंह बादल ने अपने बेटे सुखवीर को कमान सौंपने का फैसला ले ही लिया है, मायावती युवा हैं मुलायम सिंह ने अपने बेटे बहू को आगे बढाना प्रारम्भ कर दिया है सीपीएम में युवा नेतृत्व है तेलगुदेशम और बीजू जनता दल भी युवा नेताओं के दल हैं। पूरी राजनीति में युवा नेतृत्व आ रहा है तब कांग्रेस जैसी राष्ट्रव्यापी पार्टी के राहुल गाँधी यदि अपने साथ समर्पित कार्यकर्ताओं की टीम बना लेते हैं तो वे सबसे आगे होंगे, बशर्ते वे कांग्रेस में छाये लम्पट युवाओं को दूर रख सकें और सिद्धांतों के लिये काम करने वालों को जोड़ सकें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
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रविवार, दिसंबर 13, 2009

pratham spandan smmaaan

प्रथम स्पन्दन सम्मान समारोह की गरिमामय् शुरुआत
भोपाल में ललित कलाओं के प्रशिक्षण प्रबन्धन एवं शोध के लक्ष्य को लेकर स्थापित हुयी संस्था स्पन्दन द्वारा घोषित प्रथम समान समारोह का प्रारम्भ भोपाल के भारत भवन में 12 दिसम्बर 2009 को हुआ। इस अवसर पर हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार गोविन्द मिश्र की अध्यक्ष्ता में स्पन्दन शिखर सम्मान, आलोचना पुरस्कार,कृति पुरस्कार कथा पुरस्कार, और चित्रकला पुरस्कार प्रदान किये गये। जो क्रमशः शीमती मृदुला गर्ग, शम्भु गुप्त, पंकज राग, प्रियदर्शन, और आदित्य देव को प्रदान किये गये। शिखर सम्मान की राशि रु.31000/- तथा शेष पुरस्कारों की राशि रु.11000/- है। संस्था की संयोजक कथा लेखिका श्रीमती उर्मिला शिरीष ने बताया कि ये पुरस्कार संस्था की ओर से प्रति वर्ष दिये जायेंगे एवं अगले वर्ष से इसमें संगीत आदि अन्य ललित कलाओं को भी सम्मलित करके नौ विधाओं तक बढाया जायेगा। हिन्दी के वरिष्ठ कवि राजेश जोशी ने सम्मानित रचनाकारों की सृजन धर्मिता पर वक्तव्य दिया। कार्यक्रम का संचालन प्रख्यात कला समीक्षक विनय उपाध्याय ने किया। इस अवसर पर चयन समिति के सदस्यओं सहित श्री नन्द किशोर आचार्य, हरीश पाठक, कमला प्रसाद, मंजूर एहतेशाम, डा.ज्ञान चतुर्वेदी, वीरेन्द्र जैन,इक़बाल मज़ीद, राम प्रकाश त्रिपाठी, मनोहर वर्मा, संतोष चौबे, विजय दत्त श्रीधर, मदन सोनी, नीलेश रघुवंशी, प्रेम शंकर शुक्ल, मुकेश वर्मा, महेन्द्र गगन, बलराम गुमास्ता, आनन्द सिंह, आदि शताधिक साहित्य और दूसरी कलाओं से जुड़े लोग उपस्थित थे। संस्था की सचिव गायत्री गौड़ और अध्यक्ष डा. शिरीष शर्मा ने अतिथियों का स्वागत किया।
इस कार्यक्रम के आयोजन में युनियन बेंक आफ इंडिया, राजस्थान पत्रिका, ग्रेसलेंड इंटेरनेशनल, म.प्र.पर्यटन विकास निगम, दुर्गा पेट्रोल पम्प, राजगढ वन मण्डल, एको विकास समिति, रय्न हाउस आदि ने सहयोग किया जो सरकारी संरक्षण से मुक्त संस्कृति की ओर बढने की तर्फ देखा जा रहा है। स्मरणीय है कि पिछले दिनों प्रदेश की भगवा सरकार ने संस्कृति में अनेक तरह की विकृतियों का समावेश किया है जिससे सच्चे कलाधर्मी निरंतर असंतुष्ट चल रहे थे।

रविवार, दिसंबर 06, 2009

मेरा 6 दिसम्बर और शुभकामनाओं की दिशा

मस्ज़िद नहीं देश को तोड़ने का दिन
वीरेन्द्र जैन
6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्ज़िद के टूटने से मुझे काफी धक्का लगा था।
मुझे एक पुरानी और बीमार इमारत के टूटने का गम नहीं था क्योंकि ये मन्दिर मस्ज़िद चर्च गुरुद्वारे तो इसी शताब्दी में टूट जाने वाले हैं, किंतु मस्ज़िद के पीछे जो षड़्यंत्रकारी ताकते^ थीं उनके षड़यंत्र के सफल हो जाने और भारत सरकार के लाचार हो जाने का दुख था। एक संविधान विरोधी ताकत ने कानून व्यवस्था को अंगूठा दिखा दिया था और पूरा देश टुकर टुकर देखता रह गया था। मस्ज़िद तोड़ने वालों को न मन्दिर से पहले मतलब था और ना बाद में ही रहा। वे पहले भी केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों में रहे थे पर तब उन्हें इसकी याद तक नहीं आयी थी। वे बाद में भी सत्ता में रहे पर तब भी नहीं आयी। वे जब संसद में कुल दो सीटों पर सिमिट गये तब उन्हें एक नया शगूफा चाहिये था तो उन्हें बाबरी मस्ज़िद का बहाना मिल गया। मुसलमान अगर उन्हें मस्ज़िद दे भी देते तो वे फिर काशी मथुरा और उसके बाद दीगर साढे तीन सौ इमारतें चाहिये थीं। सच तो यह है कि उन्हें साम्प्रादायिक ध्रुवीकरण चाहिये ताकि बहुसंख्यकों के वोट लेकर सत्ता हथिया सकें। उन्हें केवल इस बहाने सीधे सच्चे सरल लोगों को बेबकूफ बनाना था जिससे वे भ्रष्टाचार में डूब सकें सो उन्होंने किया और विचार विहीन, संगठन विहीन धन पिपासु कांग्रेस निरीह सी देखती रह गयी।
यह एक परतंत्रताबोध की बैचेनी थी। लोकतत्र के सारे मूल्यों का ध्वंस और लाठी की ताकत के उदय ने तीखी घृणा को जन्म दिया। तब से लगातार मैंने अपना नये साल का सन्देश कवितानुमा भेजना शुरू किया और लगातार दसियों साल तक ऐसा किया। इन सन्देशों की बानगी देखिये।
1993 का शुभकामना सन्देश
एक मन्दिर से बड़ा है आदमी
एक मस्ज़िद से बड़ा है आदमी
आदमी से है बड़ा कुछ भी नहीं
किसी भी ज़िद से बड़ा है आदमी
धूप कोई भेद है करती नहीं
हवा कोई भेद है करती नहीं
धर्म कोई हो वही औषधि लगे
दवा कोई भेद है करती नहीं
जा रहा परमाणु युग को विश्व जब
हम पुराने जंगली बर्बर न हों
भूख बेकारी अशिक्षा से लड़ें
आपसी संघर्ष से ज़र्ज़र न हों
1994 का शुभकामना सन्देश
आदमी को आदमी से काटती
कोई भी हरकत न हो नव वर्ष में
श्रेष्ठतम उपलब्धियों के शिखर पर
कोई बौना कद न हो नव वर्ष में
पादपों के विकासों को रोकता
एक भी बरगद न हो नव वर्ष में
सत्यता शालीनता हो शांति हो
ज़िन्दगी संसद न हो नव वर्ष में
है यही शुभकामना शुभ काम हों
हर्ष हो “हर्षद”* न हो नव वर्ष में

*{उस वर्ष हर्षद मेहता काण्ड बहुत चर्चा में रहा था
और संयोग से 31 दिसम्बर 1993 की रात में हर्षद नहीं रहा।

जैसे उसने नये वर्ष में न रहने का सन्देश सुन लिया हो}

शनिवार, दिसंबर 05, 2009

गज़ल को भाषा की तरह प्रयोग करने वाले दुष्यंत कुमार्

गज़ल को भाषा की तरह प्रयोग करने वाले दुष्यंत कुमार
वीरेन्द्र जैन
दुष्यंत हमारे समय के ऐसे बेहद महत्वपूर्ण कवि शायर हैं जिन्होंने -लीक छोड़ तीनों चलें, शायर सिंह सपूत् वाली कहावत को चरितार्थ करके दिखाया। उनकी लोकप्रिय गज़लों को भले ही उर्दू गज़ल के उस्ताद गज़ल मानने से इंकार करते हों, जिसका आग्रह वे स्वयं भी नहीं करते थे, किंतु यह तय है कि उन्होंने जिस गज़ल को प्रारम्भ किया बाद में उसे हज़ारों लोगों ने आगे बढाया। शेक्सपियर भी कहते थे -आई डू नाट फालो इंगलिश, इंगलिश फालोज मी- इसी तरह दुष्यंत के बारे में भीकह सकते हैं कि वे गज़ल का अनुशरण करते थे अपितु गज़ल ने उनका अनुशरण किया और उनकी दी हुयी शैली में लोग लिखते चले गये।
पिछले दिनों अट्टहास की एक गोष्ठी में श्री लाल शुक्ल जी ने सुनाया था कि एक समय इलाहाबाद में ट्रेश लेखन का चलन चला था और सारे बड़े बड़े लेखक ट्रेश लेखन कर रहे थे। दुष्यंत कुमार ने भी धर्मयुग के होली अंक के लिये ऐसी ही एक गज़ल लिखी थी और फिर धर्मवीर भारती ने भी अपना उत्तर उसी अन्दाज़ में लिखवाया था और वह उत्तर भी उन्हीं से लिखवाया था। दुष्यंत कुमार ने अपनी बात और उनका उत्तर दोनों ही गज़ल के अन्दाज़ में लिखे थे। आप भी उनका अन्दाज़ देखिये और मज़ा लीज़िये।
दुष्यंत का गज़ल पत्र
पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर,
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर,
अब ज़िन्दगी के साथ ज़माना बदल गया,

पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर
कल मैक़दे में चेक दिखाया था आपका,

वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर,
शायर को सौ रुपए तो मिलें जब गज़ल छपे,

हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर,
लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप,

शी! होंठ सिल के बैठ गये ,लीजिए हुज़ूर॥

धर्म वीर भारती का उत्तर बकलम दुष्यंत कुमार्

जब आपका गज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर,
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर,
ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है,

हम् घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर,
भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई,

महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर,
पारिश्रमिक का क्या है बढा देंगे एक दिन

पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर,
शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम,

हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर...
ये दोनों ही गज़लें धर्मयुग के होली अंक 1975 में प्रकाशित हुयी थीं।
वीरेन्द्र जैन
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