गुरुवार, नवंबर 27, 2014

किसके अच्छे दिन आये



किसके अच्छे दिन आये
वीरेन्द्र जैन

      ऐसा नहीं कहा जा सकता कि देश में सरकार बदलने के बाद अच्छे दिन नहीं आये। बस फर्क इतना है कि सबके नहीं आये और जिनसे वादा किया गया था उनके नहीं आये। आइए देखें कि अच्छे दिन किन किन के आये।
      मोदीजी के बाद सबसे अच्छे दिन तो अमित शाह के आये। अब किसी के लिए इससे अच्छे दिन क्या हो सकते हैं कि उन्हें जेल की कोठरी से देश की पूर्ण बहुमत और बहुमत के पूर्ण समर्पण वाली पार्टी, जिसमें संगठन को सर्वोच्च बताया जाता है, का अध्यक्ष मनोनीत किया गया है। इस मनोनयन में मोदी ने अपने उस कथन से ही पल्ला झाड़ लिया जिसमें उन्होंने कहा था कि दागी नेता पहले खुद को दोषमुक्त करें, बाद में पद की उम्मीद करें। उल्लेखनीय है कि अच्छे दिनों के पहले नितिन गडकरी को इन्हीं कारणों से अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा था। उल्लेखनीय यह भी है कि श्री अमित शाह किसी वित्तीय अनियमितता के दोषी नहीं थे अपितु उनको तुलसीराम प्रजापति, और शोहराबुद्दीन शेख के फर्ज़ी मुठभेड़ में मारे जाने के मामले में नामजद किया गया था और गिरफ्तार किया गया था। कोर्ट ने उन्हें प्रदेश बदर किया था। उनके खिलाफ चलने वाले मुकदमों का फैसला अभी नहीं हुआ है। इस बीच इन मामलों की सुनवाई कर रहे सीबीआई के विशेष न्यायाधीश जेटी उत्पत का तबादला कर दिया गया। इसी मामले में न्यायमित्र की भूमिका निभाने वाले गोपाल सुब्रम्यम को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायधीश नियुक्त करने सम्बन्धी सिफारिश को बिना कारण बताये रद्द कर दिया गया। अमित शाह खुद को दोषमुक्त करने की अर्जी लगा चुके हैं। मोदी मंत्रिमण्डल में मंत्री रहे अमितशाह आज तरह तरह की शुचिता की बात करने वाले वरिष्ठ नेताओं के ऊपर अध्यक्ष के रूप में सुशोभित हैं।  
      भ्रष्ट और चापलूस नौकरशाही संकेतों की भाषा खूब समझती है। जब 2002 में मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे तब उनके प्रिय उद्योगपति अडाणी का टर्नओवर 76 करोड़ डालर का था जो अब दस अरब डालर को पार कर गया है। उल्लेखनीय है मोदीजी ने चुनाव प्रचार में अडाणी की सेवाओं का भरपूर उपयोग किया और उन्हीं के हवाईजहाज में ही बैठ कर दिल्ली में प्रधानमंत्री की शपथ लेने आये थे। कार्पोरेट जगत वैसे तो सभी सरकारों से सुविधाएं पाने के लिए पीछे पीछे फिरता है किंतु जिस आत्मविश्वास से अम्बानी उनकी पीठ पर हाथ रख सकते हैं और गलबहियों के साथ अडाणी प्रधानमंत्री मोदी की विदेश यात्राओं में सहयात्री होकर होटल में उनके साथ ही ठहर सकते है वह इस गठजोड़ का बहुत भोंड़ा प्रदर्शन है, जिसे क्रोनी कैपिटलिज़्म कहा गया है। हाल ही में अडाणी ग्रुप को स्टेट बैंक आफ इंडिया से उस प्रपोजल पर छह हजार करोड़ का लोन स्वीकृत होने जा रहा है जिसे चार बैंक पहले ही निरस्त कर चुके हैं। बताया गया है कि आस्ट्रेलिया में माइनिंग का यह प्रोजेक्ट पर्यावरण सम्बन्धी कारणों से कभी भी असफल हो सकता है। उल्लेखनीय है कि सरकारी क्षेत्र के बैंक इस समय एनपीए अर्थात न वसूल हो पाने वाले ऋणों से सर्वाधिक चिंतित हैं, और ऐसे समय में दूसरे प्राईवेट बैंकों द्वारा अस्वीकृत प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री के मित्र को ऋण स्वीकृत करना प्रश्न चिन्ह खड़े करता है।  फरवरी, 2010 में अडानी ग्रुप के प्रंबंध निदेशक और गौतम अडानी के भाई राजेश अडानी को कथित तौर पर कस्टम ड्यूटी चोरी के मामले में गिरफ़्तार भी किया गया था। उन्हें विश्वास होगा कि उनके और अच्छे दिन आ सकते हैं और वे उद्योगपतियों से मित्रता रखने वाली सरकार द्वारा आरोप मुक्त हो जायेंगे।

      जिस दिन दलाईलामा विश्व हिन्दू सम्मेलन के मंच पर दीप प्रज्वलित कर रहे थे उसी दिन प्रवर्तन निदेशालय तिब्बती धार्मिक नेता ओग्एन त्रिन्ले दोरजी के खिलाफ विदेशी विनमय मुद्रा कानून के उल्लंघन के मामले में लगाये गये चार साल पुराने आरोपों को खत्म कर क्लीन चिट दे रहा था। उल्लेखनीय है कि करमापा और उनके सहयोगियों पर गैर कानूनी विदेशी मुद्रा और घरेलू मुद्रा रखने के आरोप लगे थे। हिमाचल प्रदेश पुलिस ने जनवरी 2011 में करमापा के सहयोगियों के पास से 5.97 करोड़ से अधिक की विदेशी मुद्रा पकड़ी थी और बाद में उनके मठ से भी नकदी जब्त की गयी थी। वे सभी सन्दिग्ध हवाला लेनदेन के अंतर्गत जाँच के घेरे में थे। राज्य पुलिस ने 2012 में ही इनके नाम को चार्जशीट से बाहर कर दिया था। अब चार साल बाद उनके अच्छे दिन आ गये।  
    2002 के गुजरात नरसंहार की सजायाफ्ता माया कोडनानी जिन्हें 29 लोगों की हत्याकांड का दोषी पाया गया था, और सब कुछ जानते हुए भी मोदी ने मंत्री बनाये रखा था, उन के प्रधानमंत्री पद की  शपथ ग्रहण के महीने भर के अन्दर हाईकोर्ट से सजा पर रोक का आदेश पा गयीं। उल्लेखनीय है माया कोडनानी एक डाक्टर हैं और उन्हें बहुत दिनों बाद कोर्ट ने स्वास्थ कारणों के आधार पर स्थायी जमानत दे दी है। उल्लेखनीय यह भी है कि उससे पूर्व गुजरात हाईकोर्ट की एकल पीठ ने माया कोडनानी के मामले में बिना कोई कारण बताये सुनवाई से खुद को अलग कर लिया था। न्यायमूर्ति अनंत एस दवे के सामने जब कोडनानी की जमानत याचिका सुनवाई के लिए आयी तो उन्होंने कहा कि ‘मेरे समक्ष नहीं’। स्मरणीय है कि विशेष एसआईटी अदालत ने माया कोडनानी व बजरंग दल के नेता बाबू बजरंगी व 29 अन्य को 97 लोगों के बर्बर हत्या के मामले में दोषी ठहराया था। अच्छे दिन गुजरात के मंत्री बाबूलाल बुखारिया के भी आ गये जिन्हें आरोपों से मुक्ति मिल चुकी है।
      सबसे अच्छे दिन तो दीना नाथ बतरा के भी आ गये जिन्हें भाजपा की नई हरियाना सरकार ने शैक्षिक मार्गदर्शक के रूप में चुना है। उल्लेखनीय है श्री बतरा की पुस्तकों में पौराणिक कथाओं में वर्णित चमत्कारों को ऎतिहासिक मानकर उन्हें उस समय की महान सामाजिक प्रगति का सूचक बताया जाता है।  उनकी किताबें उन कथाओं के आधार पर आज की समाज व्यवस्था संचालित किये जाने की पक्षधरता करती नजर आती हैं जिनसे प्रेरणा लेकर पिछले दिनों श्री नरेन्द्र मोदी अम्बानी के अस्पताल का उद्घाटन करते हुये अपने उद्गार व्यक्त कर चुके हैं। उनकी ऐसी मान्यताओं पर देश और दुनिया का शिक्षित बुद्धिजीवी वर्ग पर्याप्त हँस चुका है और उनकी पुस्तकों को गुजरात के स्कूलों में लगाये जाने पर शर्म और चिंता दोनों ही महसूस कर चुका है। अच्छे दिन ऎतिहासिक घटनाओं को साम्प्रदायिक कथाओं में गढने वाले कथित इतिहासकारों के भी आ चुके हैं।
      भले ही कुछ देर से आये हों पर अच्छे दिन खुद को बाबा बताने वाले रामकिशन यादव अर्थात रामदेव के भी आ गये हैं जिन्होंने योगासन प्रदर्शित करते करते एक दशक में ही अपनी दौलत ग्यारह सौ करोड़ से भी अधिक बना ली थी और आयुर्वेदिक दवा व किराना का बड़ा व्यापार खड़ा कर लिया था। उनके संस्थानों पर कई वाणिज्यिक अनियमितताओं के प्रकरण चल रहे हैं इसलिए उन्होंने अपनी पसन्द की सरकार बनवाने के लिए पहले तो अपनी खुद की पार्टी बनायी पर अति उत्साह में कुछ गलतियां कर देने के बाद छह महीने तक धुँआधार भाजपा का प्रचार किया। उनके अच्छे दिन आने में उनकी उम्मीद से कुछ देर लगी पर पिछले दिनों उन पर अच्छे दिन एकदम से टूट गिरे। छह महीने बाद उन्हें मोदी से मुलाकात का अवसर मिल गया। मोदी सरकार के तीन मंत्री गिरिराज सिंह, श्रीपद नायक और विजय सांपला ने उनके आश्रम में जाकर न केवल मत्था टेका अपितु कहा कि उन्हें मंत्री पद उन्हीं की कृपा से मिला है। श्रीपद नायक ने तो यह भी कह दिया कि उनका आयुष मंत्रालय रामदेव व बालकृष्ण की सलाह से ही चलेगा। संघ की अगली राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक रामदेव के पतंजलि आश्रम में होना है, जिसमें मोहन भागवत भी आयेंगे। बाबुल सुप्रियो और महंत चाँदनाथ आदि तो पहले ही मानते रहे हैं कि उन्हें बाबा के कहने से ही टिकिट मिला है। इनके भी अच्छे दिन आ गये हैं।
      जनता को अच्छे दिनों के लिए शायद बहुत ज्यादा इंतज़ार करना पड़ेगा। बुन्देलखण्ड की एक कहावत के अनुसार- घर घर के जे लो बरात भारी है। अर्थात घराती कह रहे हैं कि बड़ी बरात आने वाली है इसलिए घर के लोग पहले खा लो कहीं खाना खतम नहीं हो जाये।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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सोमवार, नवंबर 24, 2014

राहगीरी ; एक जन उभार



राहगीरी ; एक जन उभार
वीरेन्द्र जैन
       भोपाल में पिछले दिनों तीसरे स्थान पर राहगीरी का आयोजन प्रारम्भ हुआ, क्योंकि दो स्थानों पर जाने वालों की संख्या स्थान की सीमा को पार कर गयी थी। यह तीसरा स्थान था देश के प्रतिष्ठित सार्वजनिक संस्थान बीएचईएल के कमला नेहरू पार्क के पास से गुजरने वाली सड़क। परिणाम यह हुआ कि न केवल इस संस्थान के कर्मचारी परिवार अपितु इसके आसपास चार पाँच किलोमीटर में रहने वाले सेवानिवृत्त कर्मचारियों से बसी कालोनियों के परिवारों समेत दूसरे निवासी भी सामने आये और बिन्दास ढंग से जागिंग, योगा, साइकिलिंग स्केटिंग, खेलकूद, ही नहीं अपितु गायन और डांसिंग समेत कविता पाठ व विचार गोष्ठी का भी खुला आयोजन हुआ। इस आयोजन में जिस तरह से लोगों ने सहज स्फूर्त होकर अपनी पसन्द की पोषाकों में अपनी अपनी कला रुचियों के अनुरूप आनन्द लिया वह बहुत उत्साहजनक था। भागीदारों को यह एक नये तरह के स्वतंत्रता का अनुभव था जिसमें हर उम्र, आयवर्ग, के लोगों ने जाति, सम्प्रदाय, लिंग, क्षेत्रीयता से मुक्त होकर अपनी अपनी तरह से अभिव्यक्तियां दीं।
       पिछले एक महीने से देश के विभिन्न बड़े नगरों में प्रारम्भ हुये इस आयोजन ने बहुत तेजी से मध्यम वर्ग का ध्यान आकर्षित किया है। स्वतंत्रता जैसी इस ताज़ा हवा का अहसास उस अदृश्य गुलामी से बाहर आने के कारण था जिसके बन्धन दिखायी नहीं दे रहे हैं। हमें धीरे धीरे विभिन्न तरीकों से नजरबन्द सा कर दिया गया है, और हम निरंतर अकेले होते जा रहे हैं। सब अपने द्वारा बुनी जंजीरों में ऐसे जकड़ते चले गये कि हमारी सामूहिकता केवल किताबी होकर रह गयी। सोशल वेबसाइट पर हमने जो मित्र मण्डली बना ली है उसके बारे में यह भी सही सही नहीं पता कि वह वास्तव में है भी या नहीं। पुरुष है या महिला है या महिला के नाम से पुरुष है या पुरुष के नाम से महिला। उसका फोटो असली है या नकली, उसकी उम्र अगर दी गयी है तो वह सही है या कल्पित है। उसका व्यवसाय और शिक्षा दिये अनुसार है भी या नहीं। ऐसे हजारों देशी और विदेशी मित्रों के बीच बहुत से ऐसे भी हैं जिन्होंने अपना निवास और परिचय अधूरा दिया होता है, पर हम उनके नाम से लिखे हुये शब्दों और चित्रों के बीच रोज चार छह घंटे बिताने लगे हैं। देश में जब से स्मार्टफोन और एंड्रोयड जैसे प्रोग्राम आये हैं तो हमारी सामाजिकता कम से कम होती जा रही है। अब हमें न किसी का पता पूछना है न टेलीफोन नम्बर। खाने पीने से लेकर हर तरह के घरेलू सामान के लिए केवल एक मेल करना है। यहाँ तक कि पुराने सामान को बेचने के लिए भी अपनी कुर्सी से उठ कर कहीं जाने की जरूरत नहीं। बैंकिंग की सारी सुविधाओं से लेकर ढेर सारा लेन देन आप अपने मोबाइल से ही कर सकते हैं। रेलवे रिजर्वेशन, बिजली पानी के बिल, प्रापर्टी टैक्स से लेकर इन्कम टैक्स तक आप घर बैठे करवा सकते हैं जिससे आपको नाकारा और भ्रष्ट प्रशासन से तो राहत मिलती ही है, समय भी बचता है। पर, मनुष्य स्वभाव से सामाजिक प्राणी है और अनंत सुविधाएं चाहता है किंतु वह कब तक तस्वीरों से मन बहला सकता है। किसी ने कहा है कि – चला जाता हूं, हँसता खेलता मौज़े हवादिस से, अगर आसानियां हों ज़िन्दगी दुश्वार हो जाये। इयर फोन लगा कर संगीत सुनने वाला युवा रेल के डिब्बे में बैठे बहस करने वाले यात्रियों की तुलना में कितना अकेला हो जाता है, उसे कोई टिफिन से खाना निकालकर खाने के लिए नहीं पूछता।
       मैं समझता हूं कि ये वही अकेले पड़ते जा रहे मध्यम वर्ग के लोग हैं जो अन्ना के आन्दोलन में जुट जाते हैं या निर्भया के साथ हुये अपराध पर एकजुट होकर विरोध करने लगते हैं। राहगीरी के लिए भी यही उकताया वर्ग आ जुटा है और ताज़ा हवा के झोंकों को अपने फेफड़ों में भर रहा है।
       अब राजनीतिक सामाजिक संगठन अपने नेतृत्व की करतूतों से इतना निराश कर चुके हैं कि उनके आकर्षक कर्यक्रमों में भी लोग भरोसा नहीं करते। मैंने देखा है कि भीषण जलसंकट से गुजर रहे एक कस्बे में इस समस्या पर बुलायी गयी सर्वदलीय आमसभा को सुनने पचास लोग भी एकत्रित नहीं होते हैं। लगभग यही हाल दूसरी सामाजिक संस्थाओं का भी है। कविता और दूसरी कलायें भी सतही मनोरंजन तक ही आकर्षित कर पा रही हैं।
       राहगीरी की नयी परिकल्पना एक नये गणतंत्र की तरह उभरी है जिसमें आना तो ऐच्छिक है ही उसमें किसी भी परम्परा का दबाव नहीं है। लोग अपनी सुविधा से कभी भी अपनी पसन्द के उपलब्ध कपड़े पहिन कर और अपने पद व पहचान से मुक्त होकर आ सकते हैं और हँस सकते हैं, गा सकते हैं, बजा सकते हैं, उछल कूद कर सकते हैं व सहज हो सकते हैं, जहाँ उनके जैसे ढेरों समूह दूसरे भी मिल जाते हैं। वे जानते हैं कि जिन वाहनों के धुएं में वे जी रहे हैं, उससे यहाँ मुक्ति मिलती है और पैदल चलने पर कोई हीनता बोध नहीं होता अपितु देह को खुलने का मौका मिलता है। लोगों के ढीले और कैजुअल कपड़े उनकी आज़ादी महसूस करने के संकेतक हैं। कभी हमारे यहाँ नियत तिथि पर होली भी कुछ कुछ ऐसा ही वार्षिक त्योहार हुआ करता था जो क्रमशः विकृत्तियों का शिकार होता गया। राहगीरी पर्यावरण प्रदूषण और बीमारियां देने वाली जीवनशैली के विरोध में अपना हाथ उठाकर खड़े होने वाले समाज का स्वतंत्र प्रकटीकरण है और इस तरह से एक सामाजिक बदलाव की बयार भी है। भले ही अभी यह केवल साप्ताहिक छुट्टी पाने वालों के परिवारो, छात्रों या पेंशन भोगियों तक ही सीमित है, पर इसकी खुश्बू को फैलने से रोका नहीं जा सकता। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।    
वीरेन्द्र जैन                                                                                                                                               
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शनिवार, नवंबर 15, 2014

संघ परिवार की एक कम चर्चित बड़ी सफलता



संघ परिवार की एक कम चर्चित बड़ी सफलता
वीरेन्द्र जैन

                6 दिसम्बर 1992 को जब राष्ट्रीय एकता परिषद से वादाखिलाफी करते हुये बाबरी मस्ज़िद तोड़ दी गयी थी तब देश-विदेश के बुद्धिजीवियों, लेखकों, सम्पादकों, विचारकों, समाजसेवियों और राजनेताओं ने एक सुर से संघ परिवार की निन्दा की थी। इस निन्दा के घटाटोप में रथयात्रा निकालकर खुला आवाहन करने वाले भाजपा नेताओं तक ने अपनी ज़िम्मेवारी से मुकरते हुए कहा था कि हम लोग इसके लिए ज़िम्मेवार नहीं हैं और यह काम कुछ गैर हिन्दीभाषियों द्वारा किया गया जिन्हें अडवाणीजी रोक रहे थे, पर भाषा न समझने के कारण उनकी बात उन तक नहीं पहुँच सकी। इशारा शिवसैनिकों की ओर था। इस घटना को दुर्भाग्यशाली बताते हुए संसद में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि मुझे बताया गया है कि इस समय अडवाणीजी का चेहरा आँसुओं से भरा हुआ था। बहरहाल उनकी बात का देश को भरोसा नहीं हुआ था तथा बाद में कई भाजपा शासित रहे राज्यों में हुये चुनावों में भाजपा पराजित हो गयी थी।
       इस गैरराजनैतिक अभियान के सहारे अपनी डूब चुकी पार्टी को पुनर्जीवित करके दो सदस्यों से दो सौ सदस्यों तक पहुँचाने और बाद में केन्द्र में सरकार बना लेने के खेल के बारे में बहुत सारा लिखा जा चुका है और अन्दर की कहानी जानने के प्रति उत्सुकता रखने वालों के लिए सारी सामग्री ढेर सारी पुस्तकों, पत्रिकाओं, कविताओं, कहानियों और उपन्यासों तक में उपलब्ध है। उल्लेखनीय यह है कि इस अवसर पर जब पूरी दुनिया के समाचार विचार माध्यम संघ परिवार की निन्दा से भरे हुये थे तब धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े अलमबरदारों में से एक सुप्रसिद्ध लेखक सम्पादक राजेन्द्र यादव ने हंस के जनवरी 2003 के सम्पादकीय में अपनी आलोचना का केन्द्र मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बनाते हुये लिखा था कि उनके शाहबानो वाले मामले पर लिये गये रुख और उसके लिए दिल्ली में एक बड़ी रैली करके ईँट से ईँट बजाने की चेतावनी ने इस दुर्घटना को होने दिया। उनका मानना था कि जब भी अल्पसंख्यक साम्प्रदायिक होकर बात करेगा तो उसका लाभ बहुसंख्यकों के साम्प्रदायिक संगठनों को और चुनावी लाभ उनके दलों को मिलेगा। क्योंकि वे संख्या में अधिक हैं। अल्पसंख्यकों की उपरोक्त हरकतें बहुसंख्यकों को साम्प्रदायिक रूप में एकजुट होने की अनुकूलता देती हैं, इसलिए किसी भी देश के अल्पसंख्यकों का हित सदैव धर्म निरपेक्ष राजनीति में ही सुरक्षित रह सकता है।
       संघ परिवार भी इसी सच को मानता है और अपनी राजनीति के हित में ऐसा वातावरण बनाये रखना चाहता है जिसमें साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता रहे। वे चुनावों के आसपास आवश्यकतानुसार ऐसा वातावरण बनाने के लिए योजनानुसार विशेष प्रयास करते रहते हैं। चाहे ताजा लोकसभा चुनावों से पहले हुये मुज़फ्फरनगर के दंगे हों, या दिल्ली राज्य के आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए त्रिलोकपुरी या बवाना के दंगे हों। जिस गुजरात की दम पर आज भाजपा की देश में सरकार है उसका बीज 2002 में प्रायोजित हिंसा द्वारा ही बोया गया था।  
       किसी भी तरह की साम्प्रदायिकता को सबसे बड़ा खतरा धर्मनिरपेक्षता की भावना से होता है और सबसे अधिक लाभ अपनी प्रतिद्वन्दी साम्प्रदायिकता से मिलता है। आज चिंता का विषय यह है कि घर्म निरपेक्ष दलों के कमजोर होने व हिन्दू साम्प्रदायिकता के उभार के परिणाम स्वरूप मुस्लिम साम्प्रदायिक दल तेजी से उभर रहे हैं। संयुक्त आन्ध्र प्रदेश में जिस ए आई एम [आल इंडिया मजलिस इत्तेहाद उल मुसलमीन] को इक्का दुक्का सीटें मिला करती थीं उसे इस बार सात सीटें मिली हैं। यह संख्या तेलंगाना के अलग राज्य बन जाने के बाद कम हो गये कुल  सदस्यों की विधानसभा में अधिक प्रभावी संख्या है। इस दल ने जिसकी सोच भाजपा की ही तरह संकीर्ण मानी जाती है महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में भी पहली बार दो सीटें जीती हैं। इस दल ने आगामी दिल्ली विधानसभा और झारखण्ड विधानसभा के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में समुचित उम्मीदवार उतारने का फैसला भी किया है तथा उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भी चुनाव लड़ने की अभी से तैयारी शुरू करने का विचार बना रहे हैं। स्मरणीय यह भी है कि केरल विधानसभा में मुस्लिम लीग ने लगभग 8 प्रतिशत मत पाकर 20 सीटें जीती थीं, तथा असम में एआईयूडीएफ जैसे साम्प्रदायिक विचार वाले दल ने भी विधानसभा चुनाव में 12.5 प्रतिशत  मत लेकर 18 सीटें जीती थीं, जिसका लाभ ही लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिला। भाजपा शिवसेना हो या आईएमएल, एआईएम, एआएयूडीएफ, अथवा अकालीदल या केरल काँग्रेस हो, इनकी बढत समाज में ध्रुवीकरण को बढावा देती है और यह विषचक्र निरंतर फैलता जाता है। समाज के ऐसे ध्रुवीकरण का परिणाम ही भारत विभाजन में देखने को मिला था। इसी विभाजन के घाव को भाजपा अब तक भुना रही है।
       भाजपा समाज के बहुसंख्यकों के दल होने का दावा करती है इसलिए अल्पसंख्यक दलों के बढते प्रभाव का प्रतिलाभ मिलने की आशा करती है। अल्पसंख्यकों के दल के नेता भी अपने निहित स्वार्थ हेतु उत्तेजित बयान देते रहते हैं। उल्लेखनीय है एआईएम के नेता अकबरुद्दीन जो अब विधायक भी चुन लिये गये हैं, जिन पर साम्प्रदायिक द्वेष फैलाने के लिए मुकदमे चल रहे हैं पर वे इसके लिए बिल्कुल भी चिंतित नहीं है। वे कहते हैं कि जिस तरह से वरुण गाँधी को न्याय मिला है वैसे ही उन्हें भी ‘न्याय’ मिलेगा। साम्प्रदायिकता का उभार न केवल समाज में हिंसक वातावरण बना कर जन धन का नुकसान करता है अपितु राजनीति से जनहितैषी मुद्दों की जगह ले लेता है। शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार, विकास आदि की जगह लोग अपने धर्म और जाति के नेता का चुनाव करने में तुष्टि पाने लगते हैं, व सामाजिक समस्याओं के लिए पाखण्डी धार्मिकों पर भरोसा करने लगते हैं।
       देश के राजनीति को हिन्दू मुस्लिम सिख और ईसाइयों की राजनीति की ओर मोड़ने का लक्ष्य संघ परिवार ने बना कर रखा था क्योंकि वह खुद को हिन्दू बहुसंख्यकों की प्रतिनिधि बनाये रहती है। कहने की जरूरत नहीं कि मुस्लिम दलों के उभार से उसके लक्ष्यों को बड़ी सफलता मिलती दिख रही है, भले ही वह कम रेखांकित हो पा रही हो। खुद को शाही इमाम बताने वाले मौलाना बुखारी जैसे लोगों के बयान भी उनको मदद पहुँचा रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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