सोमवार, फ़रवरी 18, 2013

तीर्थ स्थलों में हादसे- बढते व्यक्तिवाद का दुष्परिणाम


तीर्थस्थलों में हादसे- बढते व्यक्तिवाद का दुष्परिणाम
वीरेन्द्र जैन
       हिन्दुओं में धर्म को मूलतयः व्यक्तिगत कर्म के रूप में ही विकसित किया गया था तथा सामूहिक रूप से किये जाने वाले धार्मिक कर्म बहुत ही कम रहे हैं। जब अंग्रेजों ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच टकराव पैदा किया तब प्रतिक्रिया में प्रभावित हिन्दुओं ने भी धार्मिक कर्मों में सामूहिकता की प्रतियोगिता शुरू की पर जिसका असर संघ परिवार के लगातार प्रयासों के बाद भी बहुत कम है।
       अपवाद स्वरूप कुम्भस्थलों या नदियों के तटों पर साधु समाज द्वारा किये जाने वाले सामूहिक स्नान और एक साथ एकत्रित साधु संतों के दर्शन व सानिध्य का लाभ लेने के लिए बड़ी संख्या में भक्त लोग कुम्भ स्नान के लिए जाते रहे हैं। इस अवसर पर एक ही स्थान पर ढेर सारे लोग एक साथ एकत्रित होकर स्नान करते रहे हैं, तथा अव्यवस्था केवल साधु संतों के पहले स्नान करने के अधिकार पर हुए झगड़ों के कारण ही फैलती रही है। पहले न केवल आबादी ही कम थी अपितु वर्ण व्यवस्था कठोर होने के कारण गैर सवर्ण लोग इस तरह के कामों में कम ही भाग लेते थे। दूसरी ओर चाह कर भी गैर सवर्णों की आर्थिक स्थिति उन्हें ऐसे अवसर कम देती थी। आजादी के बाद न केवल पिछड़ों और दलितों की आर्थिक स्थिति में ही सुधार हुआ है अपितु विभिन्न पदों पर आरक्षण मिलने के कारण उनका हीनता बोध भी कम हुआ है। यही कारण है कि अब ऐसे आयोजनों में भीड़ बड़ने लगी है। हमारी व्यवस्था ने जब दलितों पिछड़ों को सामाजिक बराबरी पर लाने के लिए आधी अधूरी जो व्यवस्थाएं कीं उसमें उन्हें नई सामाजिक चेतना से दीक्षित नहीं किया। उल्लेखनीय है कि अम्बेडकर जी ने कहा था कि मैं पैदा भले ही हिन्दू धर्म में हुआ हूं पर एक हिन्दू की तरह नहीं मरूंगा। इसीलिए उन्होंने अपनी म्रत्यु से कुछ पहले ही पाँच लाख लोगों के साथ धर्म परिवर्तन कर लिया था। दुर्भाग्य से लाभांवित गैर सवर्ण बराबरी का मतलब सवर्णों जैसे जीवन को जीने से नापने लगे व उन जैसे आचरण ही अपनाने लगे जबकि उनमें से बहुत सारे आचरणों में सुधार वांछित थे। जब भीड़ बढती है तो उसे नियंत्रित करने की जरूरत इसलिए भी होती है क्योंकि ये सारे लोग किसी सामूहिक कर्म के लिए एकत्रित नहीं होते हैं अपितु अपना व्यक्तिगत पुण्य अर्जित करने के लिए एक तय स्थान पर आ कर और तय महूर्त पर स्नान आदि के द्वारा पुण्य अर्जित करना चाहते रहे हैं। हिन्दू तीर्थ स्थलों पर जो भी हादसे हुए हैं वे दूसरों से पहले अपना धार्मिक काम सम्पन्न करने की होड़ में ही हुए हैं। स्मरणीय है कि दो वर्ष पहले नैना देवी के मन्दिर में जो हादसा हुआ था वह पहले पूजा करने के प्रयास में बलशाली लोगों द्वारा निर्बलों को कुचलते हुए आगे बढने की कोशिश में हुआ था व दुर्भाग्यपूर्ण यह भी था कि दर्जनों लोगों की मौत के बाद भी वैसी ही भगम भाग मची रही और लोग एक दूसरे से पहले पहुँचने की होड़ में लगे रहे।
       यह सचमुच बिडम्बनापूर्ण है कि जिस धार्मिक संस्कृति को दया करुणा और उदारता का जनक बताया जाता है वह घनघोर व्यकिवाद का शिकार होती जा रही है। वोट बैंक की राजनीति ने अपने अपने धर्म और जाति के लोगों की आबादी बढाने में अपना लाभ देखना शुरू कर दिया है। तत्कालीन संघ प्रमुख सुदर्शन ने तो अनेक सार्वजनिक सभाओं में हिन्दुओं को चार संतानें पैदा करने का आवाहन किया हुआ था और उसके बाद ही भाजपा शासित राज्यों में परिवार नियोजन का कार्यक्रम सुस्त पड़ गया था। यही हाल मुस्लिम समाज के नेताओं का भी है। एक ओर तो भीड़ बढने के कारण अवसरों का अभाव होता जा रहा है और दूसरी ओर धार्मिक क्षेत्र में भी व्यक्ति अपनी ताकत की दम पर दूसरों के स्वाभाविक अवसरों को नकार कर अपने लिए उन अवसरों को हथिया लेना चाहता है। इसी में कमजोर वर्ग हादसों का शिकार हो जाता है। यह बात ध्यानाकर्षण योग्य है कि ऐसे हादसों में आम तौर पर महिलाएं, वृद्ध और बच्चे ही शिकार बनते हैं। सड़कों पर होने वाले हादसों में भी यह देखा गया है कि व्यक्ति मार्गों के आकार उनकी दशा पर ध्यान न देते हुए दूसरों से आगे निकलने की होड़ में यातायात के नियमों की परवाह नहीं करते और सड़कों को वाहनों की रेस का मार्ग बना देते हैं। यातायात के इन्हीं उल्लंघनों के कारण अधिकतर सड़क हादसे होते हैं, या जाम लगते हैं।
       यह संक्रमण काल है जहाँ हमने पुरानी संस्कृति को बदले बिना नयी संस्कृति में प्रवेश कर लिया है जिससे हमारे ऊपर बोझ बढ गया है। हमारे पाँव पुरानी जमीन में गड़े हुए हैं और धड़ नई हवा में फड़फड़ा रहा है। नये वैज्ञानिक संसाधनों का प्रयोग करने वाली पीढी भी अनेक अवैज्ञानिक आचरण करती जाती है व अपनी बढी हुयी आय का एक हिस्सा अन्धविश्वासों और गलत रूढियों को बढावा देने में व्यय करती रहती है। धर्म के नाम पर कई करोड़ नाकारा पैदा हो गये हैं। ये लोग समाज पर जोंक बन कर चिपके हुए हैं तथा जो धन देश के विकास में लगना चाहिए था वह धार्मिक संस्थानों या आश्रमों में जाम होता जा रहा है। किसी धार्मिक संस्थान के पास इसकी कोई योजना नहीं है कि उन्हें उस धन का क्या करना है। इसी के परिणाम स्वरूप धार्मिक संस्थानों के आस पास अपराधों की बाढ आ गयी है व गलत राजनीति उसका दुरुपयोग कर रही है। यदि इन संस्थानों में एकत्रित धन को कुम्भ जैसे उत्सवों समारोहों की व्यवस्था में व्यय किया जाये तो दुर्घटनाएं घट सकती हैं और ये आयोजन अपेक्षाकृत अधिक सार्थकता पा सकते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, फ़रवरी 06, 2013

चुनावों के लिए भोजशाला को अयोध्या बनाने की तैयारी


चुनावों के लिए भोजशाला को अयोध्या बनाने की तैयारियां
वीरेन्द्र जैन
                प्रतिदिन मिल रही सूचनाओं के कारण मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के हाथ पाँव फूल रहे हैं और वे सरकारी धन के सहारे न केवल ताबड़तोड़ पंचायतें, किसान सम्मेलन आदि ही कर रहे हैं अपितु अपने कार्यकर्ता सम्मेलनों में साफ साफ कह भी रहे हैं कि विपक्षी चुनौती के आगे हैट्रिक आसान नहीं है। पिछले दिनों गडकरी को दुबारा अध्यक्ष न बनने देने की योजनाओं में अडवाणीजी भी ‘अनैकिताओं के प्रति शून्य सहनशीलता’ का नारा उछाल बैठे जबकि गुजरात को छोड़ कर भाजपा की कोई सरकार ऐसी नहीं है जिसके मंत्रिमण्डल का बहुमत सुस्पष्ट बड़े भ्रष्टाचार में लिप्त होने की चर्चाओं में न हो। ये लोग कानून के रन्ध्रों और न्याय को अनिश्चित काल तक विलम्बित रखे जाने के दोषों के कारण ही पद का सुख भोग पा रहे हैं। गुजरात के भाजपा नेता हिंसा और अपराधों के मामलों में या तो जेल में हैं या अदालतों या जाँच आयोगों को भटकाने के प्रयासों में लगे हैं। ऐसे में अडवाणीजी का नारा या तो एक बड़ा मजाक बन जायेगा या मध्य प्रदेश में चुनावों तक मंत्रिमण्डल के कुछ सदस्यों को पिछली बार की तरह थोड़ा छुपा कर रखा जायेगा। स्मरणीय है कि आयकर से सम्बन्धित छापों की बदनामियों से बचने के लिए दो मंत्रियों को प्रारम्भ में मंत्रिमण्डल में नहीं लिया गया था, पर लोकसभा चुनाव निबटते ही उन्हें न केवल मंत्रिमण्डल में ही सम्मलित कर लिया अपितु भरपूर मलाईदार विभागों से लाद दिया गया। उक्त मंत्रियों के भ्रष्टाचार के ताजा किस्से प्रदेश भर में चर्चित हैं जिसके नुकसान से बचने के लिए उन्होंने अभी से अपने चुनाव क्षेत्र में हर मुखर व्यक्ति के लिए खैरातों की बाढ ला दी है। सम्मेलनों और पंचायतों के नाम पर जिस तरह से आरामदायक बसों में बारातियों की तरह से सत्कार करते हुए भीड़ जुटायी जाती है वह अपूर्व है, किंतु फिर भी बसों में स्थान खाली रह जाते हैं, भाषणों पर स्वतःस्फूर्त तालियां नहीं बजतीं और न ही नारों में दम दिखायी देती है। छुटभैए नेता कहते सुने जाते हैं कि साले नमक खा कर भी नमकहरामी कर रहे हैं।
       गुजरात के चुनावों में मिली सफलता के बाद भाजपा की नीति बनती जा रही है कि एक ओर विकास का भ्रम पैदा किया जाये और दूसरी ओर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण में तेजी लायी जाये। मध्यप्रदेश में पिछले वर्षों में दर्जनों साम्प्रदायिक घटनाएं हो चुकी हैं और विभिन्न जाँच समितियों ने पाया कि ये घटनाएं प्रायोजित की गयी थीं, तथा पुलिस को जाने समझे तरीके से पक्षपात करने के इशारे थे ताकि हिन्दू साम्प्रदायिकता का आत्मविश्वास बढे और वह आक्रामक हो। इन घटनाओं में ध्रुवीकरण की स्थानीयता होती है इसलिए अब प्रदेश के विधानसभा चुनावों को देखते हुए अयोध्या के जन्मभूमि मन्दिर की तरह धार की भोजशाला में साम्प्रदायिकता के बीजों को पकाया जा रहा है। कभी सरस्वती का मन्दिर रहे इस स्थान पर स्थापित मूर्ति गत दो शताब्दियों से इंगलेंड के म्यूजियम की शोभा है और कुछ पुरातत्व शास्त्रियों का मानना है कि वह बाग्देवी की प्रतिमा न होकर किसी जैन देवी की मूर्ति है। देश में 1998 से 2004 तक भाजपा के नेतृत्व में केन्द्र की सरकार रही वे इससे पहले भी जनसंघ के नेता 1977 से 1979 तक जनता पार्टी में मंत्रिमण्डल के प्रमुख पदों पर रहे। इस दौरन इन्हें उस मूर्ति को वापिस भारत लाने का खयाल नहीं आया और न ही इनके अनुषांगिक संगठनों ने इसकी वापिसी के लिए कोई आन्दोलन ही किया। पर 2003 के चुनाव आते ही जब इन्होंने अपने उन 350 उन स्थानों की सूची को खंगाला जिनमें हिन्दुओं का मुसलमानों के साथ कोई विवाद है तो भोजशाला इन्हें बहुत ही आसान मुद्दा लगा जिसे तुरंत उभार कर सुर्खियों में ला दिया गया। वहाँ हिंसक घटनाएं की गयीं और मालवा में जगह जगह फैले प्रचारकों व स्रस्वती शिशु मन्दिरों में भरे संघ के कार्यकर्ताओं के द्वारा विषाक्त वातावरण तैयार कर दिया गया। प्रदेश के सारे प्रमुख नेताओं को पीछे करते हुए साध्वी के भेष में रहने वाली एक नेता को मुख्यमंत्री पद प्रत्याषी घोषित करके उतारा गया। अब यह इतिहास में दर्ज है कि ऐसे ही ढेर सारे तरीकों से विधानसभा का वह चुनाव जीत लिया गया। गत दस वर्षों तक इन्होंने प्रदेश को किस तरह से लूटा तथा संघ के अनुषांगिक संगठनों समेत प्रमुख कार्पोरेट घरानों को किस तरह से भूमि भवन आवंटित किये वह दुखद गाथा है जो देश भर की समाचार पत्रिकाओं में भरी पड़ी है। इस अति भोज और चुनावों में जनता का सामना करने की भयाकुलता ने एक बार फिर से उनके सामने भोजशाला के सोये मुद्दे को उभारने की जरूरत पैदा कर दी है यही कारण है कि मध्य प्रदेश में संघपरिवार के शकुनियों की भीड़ लगनी शुरू हो गयी है।
       स्मरणीय है कि अयोध्या में रामजन्मभूमि –बाबरी मस्जिद का मुद्दा भी 1984 तक एक सुषुप्त मामला था जिसे चुनावों में उपयोगिता की दृष्टि से साम्प्रदायिक वातावरण बनाने के लिए ही उभारा गया था, तथा चुनावी लाभ उठाने के बाद दरी के नीचे दबा दिया गया था। अब मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों की दृष्टि से भोजशाला को भड़काने की तैयारी शुरू कर दी गयी है। तोगड़िया और आचार्य धर्मेन्द्र जैसे लोगों की ‘धर्म सभाएं’ प्ररम्भ कर दी गयी हैं। 20 जनवरी को बैरसिया में संघ में प्रमुख हैसियत रखने वाले दत्तात्रय हौसबोले की अध्यक्षता में भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद, विद्यार्थी परिषद, मजदूर संघ समेत अनेक आनुषांगिक संगठनों की बैठक की गयी जिसके बारे में प्रैस को बतया गया कि विवेकानन्द की 150वीं जयंती मनाने से सम्बन्धित थी। 22 जनवरी को धार के नाथ मन्दिर में ‘धर्मसभा’ रखी गयी जिसमें विहिप के आचार्य धर्मेन्द्र, गोबिन्दाचार्य, और हिन्दू जनजागृति समिति के डा. चारुदत्त पिंगले ने भाग लिया। सरस्वती जन्मोत्सव समिति के मार्गदर्शक नवल किशोर शर्माने इस बार [चुनाव वर्ष] भोजशाला में केवल यज्ञ और पूजा की अनुमति देने की मांग की, और कहा कि नमाज के लिए प्रशासन अन्य जगह मुहैया कराये। 22 जनवरी को भोजशाला के सामने संरक्षित क्षेत्र में विवादित निर्माण व मलबे को प्रशासन ने अतिक्रमण मान कर हटा दिया। पूर्व भाजपा नेता गोबिन्दाचार्य ने कहा कि भोजशाला में पंचमी पर पूजन हिन्दुओं का संवैधानिक अधिकार है। उन्होंने कहा कि अतिवादी ज़िद्दी तत्वों के आगे सरकार न झुके। 25 जनवरी को दमोह में तोगड़िया ने कहा कि अगर मैं देश का प्रधानमंत्री बना तो मुसलमानों से मताधिकार छीन लूंगा। 27 जनवरी को तोगड़िया ने भोपाल में कहा कि हिन्दुओं को संगठित होकर राजसत्ता पर नियंत्रण करना होगा। भारत हिन्दू राष्ट्र है और इसका संविधान बनाने के लिए जनमानस तैयार करें। इसी दिन विद्यार्थी परिषद के कार्यालय में पत्रकारों से कहा कि भोजशाला हिन्दुओं की है इससे किसी दूसरे समुदाय का कोई लेना देना नहीं है। उन्होंने कहा कि हिन्दू गौमाँस भक्षकों को बगल में भी नहीं बैठायेंगे।
       भोपाल से लेकर इन्दौर धार और पूरे मालवा क्षेत्र में भोजशाला के मुद्दे को भड़काया जा रहा है ताकि चुनावों तक इतने दंगे हो जायें जिससे किसी तरह भाजपा को सम्भावित नुकसान की भरपाई हो सके। भाजपा दुष्प्रचार में कुशल है वही उसका विपक्ष उसकी तरह सुगठित और संगठित नहीं है जिसका नुकसान हमेशा की तरह आम आदमी को भुगतना पड़ेगा। सबसे गरीब आदमी सबसे अधिक असुरक्षित होता है व लाशों के आधार पर वोट बटोरने वाली राजनीति करने वालों को केवल लाशें ही चाहिए होती हैं।           
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, फ़रवरी 03, 2013

फिल्म समीक्षा- विश्वरूपम एक डाकूड्रामा


समीक्षा- फिल्म
विश्वरूपम – एक डौकूड्रामा
       यह सच है कि कमाल हासन की फिल्म विश्वरूपम पर उठे विवाद ने जहाँ एक ओर तामिलनाडु में तय तिथि पर प्रदर्शित न हो पाने के कारण उसे आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा हो पर इसी से उठी चर्चा के कारण से इस बहुभाषी फिल्म को देश के दूसरे हिस्सों में समुचित दर्शक भी मिले।  मैंने भी इसे प्रदर्शित होते ही देखना चाहा।
       निर्माता, निर्देशक, कथालेखक और अभिनेता कमाल हासन की इस फिल्म में कहानी कम से कम है वहीं  इस फिल्म को अफग़ानिस्तान में तालिबानों के तैयार होने, उनके प्रशिक्षण शिविरों और उन पर होने वाले अमेरिकन हमलों के शानदार चित्रण के लिए याद किया जा सकता है। अगर इसमें कहानी तलाशना हो तो यह कहा जा सकता है कि एक जासूस के रूप में कथानायक जब कठोर वास्तिविकताओं से परिचित होता है तो उसे आतंकी तरीकों से नफरत हो जाती है। इस नफरत का प्रभाव फिल्म के दर्शक भी अपने साथ ले कर आते हैं। फिल्म में आतंकी सरगना अपने पुत्र को भी पढाने की जगह उसको आतंकी बनाने की कोशिश करता है और अपनी बीमार पत्नी का इलाज इसलिए रोक देता है क्योंकि विश्व स्वास्थ संगठन की अमेरिकन लेडी डाक्टर  अपने शरीर को पूरी तरह से ढके हुए नहीं है। मुखबरी के लिए जब मुखबिरों की हत्याएं होती हैं या उन्हें फाँसी पर लटकाया जाता है तो वे दहला देने वाले दृश्य बहुत गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। अमेरिकन हेलीकाप्टरों से होने वाले हमलों से उजड़ते गाँव टूटते घर और मरते लोगों के दृश्य बहुत ही दारुण हैं। फिल्म में जहाँ अफगानिस्तान की कहानी फ्लेश बैक में चलती है वहीं मूल कहानी अमेरिका में चलती है जहाँ तालिबानों के केम्प से लौटा हुआ जासूस परमाणु वैज्ञानिक लड़की से शादी करके नर्तक के रूप में अमेरिका जा बसा होता है और इतना चुपके चुपके अपना काम करता रहता है कि उसकी पत्नी तक को भनक नहीं लगती। अमेरिकन संस्कृति के प्रभाव में उसकी पत्नी उसे तलाक देना चाहती है, पर उसका कोई कारण उसे नहीं मिलता। आखिर बहाना तलाशने के लिए उसके पीछे एक प्राइवेट जासूस लगा देती है। यही जासूस अपने काम में भटक कर अमेरिका में तालिबानों के अड्डे तक पहुँच जाता है जहाँ उसकी तलाशी में मिली फोटो के विश्लेषण से विश्वरूप नाम रखे वसीम का पता चल जाता है और फिर उसका पीछा शुरू होता है। न्यूयार्क के भवन, सड़कें, ही नहीं पीछा करती कारों की दौड़ें भी रोमांचक हैं बशर्ते अब हिन्दी फिल्मों के दर्शकों के लिए ये बहुत नई न रह गयी हों। फिल्म के अमेरिका वाले हिस्से में हिंसा के दृश्य आम स्टंट हिन्दी फिल्मों की तरह के हैं, पर अच्छी फोटोग्राफी के कारण अपेक्षाकृत अधिक प्रभावकारी हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कमाल हासन एक अच्छे अभिनेता है और प्रारम्भ के कुछ दृश्यों तक सीमित उनकी कामेडी अच्छी है। फिल्म में एक डायलाग है जिसमें नायिका कहती है कि पुरुष तो अब भी बन्दर ही हैं बस उनकी पूंछ आगे हो गयी है।
       यह सवाल बार बार उठाया जा रहा है कि इस फिल्म में ऐसा क्या था जिसके कारण तामिलनाडु के कुछ मुस्लिम संगठनों ने इसके प्रदर्शन के पूर्व से ही इसका विरोध किया। इस बात की गहरी जाँच होनी चाहिए क्योंकि यह एक गम्भीर मामला है। उनका यह बेतुका विरोध परोक्ष में संघ परिवार की अफवाहों के लिए मददगार साबित हो सकता है जो भारत के मुस्लिमों और आतंकियों को एक ही बताने का कोई मौका नहीं चूकते हैं जिससे कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का लाभ उठा सकें। आज पाकिस्तान में आतंकवाद का जो रूप है वह आम मुसलमानों को ही नुकसान पहुँचा रहा है, आये दिन मस्जिदों में बम विस्फोट हो रहे हैं  व स्कूल शिक्षा की पक्षधर बालिकाओं से लेकर पोलियो की दवाई पिलाने वाली खातूनों तक को मारा जा रहा है। अगर तालिबानी आतंकवादियों की निर्ममतापूर्वक हत्याओं को दिखाये जाने के कारण मुस्लिम संगठन के लोग विरोध कर रहे हैं यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि उनकी सहानिभूति इनके साथ क्यों है, जबकि विस्फोट करता हुआ बम किसी की जाति या धर्म पूछ कर नहीं फटता। उल्लेखनीय है कि तालिबानी कट्टरता के विरोध को नकारते हुए एक अच्छी फिल्म पाकिस्तान में बनी थी जिसका नाम खुदा के लिए था व इस फिल्म को न केवल हिन्दुस्तान/ पाकिस्तान के दर्शकों का भरपूर समर्थन मिला था अपितु दोनों देशों के फिल्म समीक्षकों और बुद्धिजीवियों ने इसकी भूरि भूरि प्रशंसा की थी। असल में आम लोगों की धर्मभीरुता के कारण ही धर्म के नाम पर दलाली करने वालों की पूरी जमात पैदा हो गयी है जो स्वयंभू नेतृत्व हथिया लेती है, जबकि सच यह है कि ये ही लोग बार बार जनता को हिंसा के लिए उकसाते रहते और अपनी इसी नुकसान पहुँचानी की क्षमता की दम पर वोटों के सौदे करते रहते हैं। चाहे पूंजीवादी राजनीति के व्यापारी नेता हों या व्यावसायिक लाभ के लिए दंगा फैलाने वाले हों वे सब मानवता के हत्यारे हैं और उन्हें उसी के अनुरूप सजा भी मिलनी चाहिए। इन दिनों यह बहुत सामान्य बात हो गयी है कि फिल्मों या किताबों के व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए उस पर विवाद पैदा कर दिया जाये। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए ऐसे व्यक्तियों को दण्डित अवश्य किया जाना चाहिए। कुछ वर्ष पूर्व भोपाल में एक फिल्म अभिनेता सह निर्माता अपनी फिल्म को लोकप्रिय करने के लिए हिंसक प्रदर्शन की सुपारी देते हुए पकड़ा गया था पर राजनेताओं ने मामले को रफा दफा करा दिया था। अपने व्यापार के लिए लाखों लोगों को हिंसा के मुहाने पर खड़ा कर देने की कोशिश को अपेक्षाकृत बड़ा अपराध माना जाना चाहिए और उसकी उपेक्षा नहीं होना चाहिए।
       आतंकियों की ज़िन्दगी जिस तरह से संगीतशून्य हो जाती है उसी तरह से इस फिल्म में भी संगीत का कोई स्थान नहीं है व बैक ग्राउंड में जो संगीत है वह बहुत अच्छा नहीं है। आम फिल्मों की तरह यह फिल्म आतंकी खलनायक की पराजय पर खत्म नहीं होती अपितु खलनायक के बच निकलने और इस संघर्ष के जारी रहने की सूचना के साथ खत्म होती है जिससे संकेत मिलता है कि फिल्म ‘गैंग वासेपुर’ की तरह इसके कई अंक बन सकते हैं।             
वीरेन्द्र जैन
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