मंगलवार, नवंबर 22, 2016

नोटबन्दी पर विश्वसनीयता का सवाल

नोटबन्दी पर विश्वसनीयता का सवाल
वीरेन्द्र जैन

नोटबन्दी के कारण हुयी पचास से अधिक मौतों, मुद्रा के संकट से उत्पन्न बाजार के लकवाग्रस्त होने, अर्थव्यवस्था और बैंकिंग व्यवस्था पर तरह तरह के संकट आने से घबराहट का जो माहौल बना उस घटनाक्रम से नरेन्द्र मोदी की बची खुची छवि पर गहरा दाग लगा है। उससे पहले उन्हें भूमि अधिग्रहण पर अपनी सरकार का फैसला वापिस लेना पड़ा था, और जीएसटी आदि मुद्दों पर भी समझौता करना पड़ा था। अपने वादों को चुनावी जुमला बता कर उन्होंने अपनी विश्वसनीयता को कम किया था व सीमा पर घोषित शत्रु से निबटने में पिछली सरकार जैसा ही काम करने से उनका बहादुरी का मेकअप धुल चुका था। असम के उग्रवादियों पर वर्मा की सीमा में घुस कर हमला करने की अतिरंजना से लेकर जे एन यू, सर्जिकल स्ट्राइक आदि के सरकारी सच में असत्य के अंश पकड़े जाने से उनके समर्थकों को ठेस लग चुकी थी। लोकसभा चुनाव के ठीक बाद दिल्ली और बिहार के चुनावों में मिली पराजय से जन भावनाओं में आये बदलाव के संकेत मिल गये थे। कहने की जरूरत नहीं कि लोकसभा चुनावों के दौरान मोदी की प्रचार एजेंसियों ने उनकी छवि एक राबिनहुड की बनायी थी जो 56 इंच के सीने वाला था और आते ही सारे संकटों को दूर कर देने वाला था। पिछली केन्द्र सरकार के कारनामों से परेशान अवतारवाद में भरोसा करने वाले समाज के एक हिस्से ने उन्हें अवतार की तरह देखा भी था जो लोकसभा में उनकी जीत का कारण बना था।
उल्लेखनीय है कि मोदी और अमितशाह की जोड़ी ने भारतीय जनता पार्टी को मोदी जनता पार्टी में बदल दिया था व भाजपा के सारे पुराने प्रमुख नेताओं को हाशिए पर धकेल दिया था। इसलिए जिम्मेवारी भी पूरी तरह से सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी पर आती है क्योंकि यह उनका ही फैसला था जिसे उन्होंने अपने दल ही नहीं अपितु अपने मंत्रिमण्डल के सदस्यों तक से साझा नहीं किया। शरद यादव ने तो संसद में सदन के पटल पर आरोप लगाया कि मोदी ने इस कार्यवाही को वित्त मंत्री अरुण जैटली तक से छुपाये रखा। समाचार के अनुसार जिन छह सदस्यों के साथ अंतिम दौर की बैठक हुयी उन्हें भी तब तक कमरे से बाहर नहीं आने दिया गया जब तक कि श्री मोदी ने टेलीविजन पर राष्ट्र के नाम सन्देश प्रसारित नहीं कर दिया।
नोटबन्दी के फैसले के तीन प्रमुख उद्देश्य बताये गये थे जिन पर पूरे देश और सभी राजनीतिक दलों की लगभग सहमति थी किंतु जैसा कि कोलकता हाईकोर्ट ने कहा है कि योजना लागू करने से पहले पूरा होमवर्क नहीं किया गया जिससे पूरे देश को तकलीफ हुयी व व्यवस्था के प्रति इतना अविश्वास पैदा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने देश की सड़कों पर हिंसा फैलने की सम्भावना व्यक्त की। बाद में राजनीतिक दलों ने इस कमजोरी का पूरा लाभ लिया जो उनकी जिम्मेवारी का हिस्सा था और जिसका उन्हें हक भी था।
एक बार विश्वास भंग हो जाने के बाद अब मोदी समर्थक भी कहने लगे हैं कि इस सरकार का इरादा काले धन से मुक्ति पाने का इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि इसका जन्म भी काले धन के सहारे ही हुआ था। चुनावी खर्चों पर ध्यान रखने वाली संस्थाओं ने बताया था कि इन्होंने लोकसभा में कम से कम दस हजार करोड़ रुपये खर्च किये थे जिसका बड़ा हिस्सा काले धन का ही था। दूसरे जो इनका समर्थक वर्ग है उसी के पास काले धन का बड़ा हिस्सा है और उसे भरोसा रहा है कि उनकी सरकार काले धन के खिलाफ कुछ नहीं करेगी। शत्रु देश से नकली करेंसी आने के सवाल पर लोगों का सोचना है कि यह मुख्य रूप से शत्रुता पर निर्भर है और जो देश एक तरह की नकली करेंसी भेज सकता है वह कुछ समय बाद दूसरे तरह की नई करेंसी भी भेज सकता है, इसलिए इससे निबटने के लिए सुरक्षातंत्र को मजबूत करना ज्यादा जरूरी है। देश में बाजार, शिक्षा और चेतना का स्तर देखते हुए प्लास्टिक मनी व इलैक्ट्रोनिक ट्रांसफर में मामूली सी वृद्धि ही सम्भव है। जहाँ तक कश्मीर जैसे अलगाववादी आन्दोलन में अवैध करेंसी के स्तेमाल का सवाल है तो इसमें कितना सच है और कितना अनुमान है यह तय होना शेष है।
अब समस्या यह है कि बिल्ली बोरे में कैसे जायेगी? कुछ राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए राजनीतिक दल असंतोष को भुनाने के लिए तैयार हैं इस बहाने वे अपने पक्ष के काले धन को निबटाने के उपाय भी तलाश रहे हैं क्योंकि उनका अपना भविष्य भी इन्हीं चुनावों पर निर्भर है। समाजवादी पार्टी के मुख्यमंत्री तो मन्दी के समय में काले धन के लाभ भी गिनाने लगे हैं। मोदी के गठबन्धन में शामिल शिव सेना जैसे दल तो मुखर विरोध कर रहे हैं किंतु अकाली दल भी संतुष्ट नजर नहीं आ रहा। अरुण जैटली कह चुके हैं कि फैसले को वापिस नहीं लिया जा सकता। अगर फैसला वापिस लिया गया तो एक बड़ा वर्ग जो परेशानियां सह कर भी घोषित उद्देश्यों के कारण समर्थन कर रहा था, असंतुष्ट हो सकता है।
सब कुछ मिला कर नीतियों की कमजोरियां, कार्यांवयन में ढुलमुलपन, नेतृत्व में सामूहिकता की कमी, निहित स्वार्थों का दबाव, जनता की समस्याओं के प्रति उदासीनता आदि ही सामने आ रहा है। इस पर भी साम्प्रदायिकता फैलाने वाले संगठनों का दबाव भी सरकार की छवि को निरंतर बिगाड़ता रहता है। मोदी जी ने अपने सांसदों को जनता को समझाने की जिम्मेवारी सौंपी थी जिसे उन्होंने बेमन से स्वीकार किया है। निदा फाज़ली के शब्दों में कहा जाये तो-
कभी कभी यूं भी हमने अपने मन को समझाया है
जिन बातों को खुद नहिं समझे, औरों को समझाया है
देश की सरकार विश्वास के गहरे संकट से जूझ रही है 
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

     

बुधवार, नवंबर 16, 2016

मुद्रा का कायान्तरण और सामाजिकता के सवाल

मुद्रा का कायान्तरण और सामाजिकता के सवाल
वीरेन्द्र जैन

अचानक ही मुद्रा के रूप परिवर्तन की आपाधापी के कारण बहुत दिनों के बाद पूरा देश एक साथ हलचल में आ गया है क्योंकि वर्तमान व्यवस्था में प्राणवायु की तरह इसका जुड़ाव सभी से है। इसी कारण इस परिवर्तन का थोड़ा बहुत प्रभाव या दुष्प्रभाव सभी पर पड़ा है। यह क्रिया करने के पीछे एक कारण समाज के विभिन्न वर्गों के बीच चल रही समानांतर अर्थव्यवस्था जिसे काले धन के रूप में जाना जाता है, को सामने लाने की कोशिश भी बतायी गयी है इसलिए यह एक तरह का काम्बिंग आपरेशन भी है। गोपनीयता बनाये रखने की जरूरत के कारण इस अभियान को छापामारी शैली में चलाना पड़ा, ऐसा सरकार द्वारा बताया गया। इस अभियान की सफलता या असफलता इसके पूर्ण होने के बाद ही पता चल सकेगी पर इतना तय है कि समाज का एक बड़ा वह वर्ग इससे दुष्प्रभावित हुआ है जो इसके लिए सीधे सीधे दोषी नहीं है।
24\7 के न्यूज चैनल उस बड़े भवन की तरह हैं जिसके मालिक के पास उस भवन को सजाने के लिए पर्याप्त साजो सामान नहीं है इसलिए उसने उस भवन के खालीपन को दूर करने के लिए उसमें कबाड़ भर लिया है। पिछली शाम एक न्यूज चैनल के समाचारों में दिल्ली के एक एटीएम के सामने लगी महिलाओं की लम्बी लाइन में एक महिला फूट फूट कर रोती हुयी नजर आयी जो सम्वाददाता को बता रही थी कि उसकी बेटी का बर्थडे है और उसके पास केक खरीदने के लिए भी पैसे नहीं हैं। तोलोस्ताय के उपन्यास अन्ना कैरिन्ना का पहला वाक्य कुछ इस तरह है कि – सुख तो सबके एक जैसे होते हैं पर दुख के रंग सबके अलग अलग होते हैं। हो सकता है कि वह महिला भी अपनी इस मजबूरी पर उतनी ही दुखी हो जितना नजर आ रहा था किंतु सारी सहानिभूति के बाद भी मुझे वह दुख किसी राष्ट्रीय चैनल पर रोने लायक दुख नहीं लगा जबकि दूसरी ओर इस अभियान के कारण अब तक 23 मौतें हुयी बतायी गई हैं।
यह तो नजर आ रहा है कि काला धन बाहर निकालने के इस अभियान के संचालन में अनेक कमियां रही हैं और लोगों को तकलीफें उठानी पड़ी हैं किंतु हमारी सामाजिकता पर भी प्रश्न चिन्ह खड़े हुये हैं।
रहिमन विपदा हू भली, जो थोड़े दिन होय, हित अनहित या जगत में जान परत सब कोय।
 वस्तु विनमय में दुकानदार से लेकर ग्राहक तक विश्वास का एक रिश्ता चलता था व एक समानांतर बैंकिंग की तरह दुकानदार अपने ग्राहक को उसकी हैसियत के अनुसार जरूरत के समय उधार देता था। दूसरी ओर उसे भी थोक विक्रेता से उधार मिलता था। क्या यह रिश्ता बिल्कुल ही समाप्त हो गया है? क्या हमारे पड़ोस का लेनदेन का रिश्ता बिल्कुल नहीं बचा है और जरूरत के समय एक दूसरे को जरूरी सामान की मदद नहीं की जा सकती? इसी तरह रिश्तेदारियां, जाति समाज, धार्मिक संस्थाएं, या दूसरे सामाजिक संगठन जो जाति बाहर विवाह करने पर आसमान सर पर उठा लेते हैं, इस संवेदनशील परिस्थिति में भी सामने क्यों नहीं आये। नरेंन्द्र मोदी के पक्ष में सोशल मीडिया पर तुमुल कोलाहल मचाने वाले युवा और उनके कथित संगठन उनकी किसी नीति से उपजी अलोकप्रियता को बचाने के लिए समाज के पीड़ित हिस्से को मदद के द्वारा यह विश्वास दिलाने में सफल क्यों नहीं हुये कि सामान्यजन के लिए ये परेशानियां अस्थायी हैं। एक ओर जहाँ मुद्रा के पुराने रूप में होने के कारण अस्पताल में इलाज न मिल पाने के कारण मौतें हो रही हैं, वहाँ अस्पताल वालों को यह भरोसा दिलाने वाले क्यों दिखाई नहीं दिये कि व्यवस्था अभी कायम है और उन्हें चैक से भुगतान लेकर भी इलाज करना चाहिए। जब बार बार सरकार द्वारा यह बताया गया कि समस्या अधिकतम पचास दिनों के लिए ही है और ईमानदारों को कोई परेशानी नहीं होगी तो क्या सरकार के समर्थकों को भी सरकार की बात का भरोसा नहीं था!
इस लिव इन रिलेशन तक आ पंहुचे युग में भी धूमधाम से शादी न कर पाने वाले दूल्हा दुल्हन व उनके माँ बापों का इतना विस्तारित दुख पहले कभी नहीं देखा था। शादी में अगर रिश्तेदार और परिचित मित्र सहयोगी नहीं हो सकते तो पुराने दौर की शादियों का तरीका अपनाना क्यों जरूरी है जब महीनों पहले से मेहमान आ जाते थे और दावतों तक का सारा सामान घर में ही तैयार होता था। आखिर क्यों कोई दूल्हा दुल्हिन यह कहती नहीं नजर आयी कि कोई बात नहीं हम कोर्ट में शादी कर लेंगे। सामने परिस्तिथि देखते हुए भी आखिर शादी के इंतजाम का व्यवसाय करने वाले लोग क्यों चैक या ड्राफ्ट से भुगतान लेने को आगे नहीं आये।
सच तो यह है कि जो समाज भंग हो चुका है उसकी लाश को ढोते हुए हम उसी की परम्पराओं को ढोये जा रहे हैं जबकि या तो हमें समाज का कोई नया स्वरूप गढना चाहिए या परम्पराओं में समय के अनुसार परिवर्तन लाना चाहिए। हम नई जगह आकर भी पुराने त्योहारों को छोड़ नहीं पा रहे हैं और नये भी अपनाते जा रहे हैं भले ही उसके लिए उधार लेना पड़े। हम बाजार के दबाव में दीवाली, दुर्गापूजा, गणपति उत्सव, गरबा, करवा चौथ, छठपूजा, से लेकर वैलंटाइन डे, मदर’स डॆ, न्यू इयर आदि सब ओढते जा रहे हैं। क्या जाति समाज केवल प्रेम विवाह करने वालों को फांसी पर लटका देने तक ही शेष है? क्या उसे युवाओं की शिक्षा, रोजगार आदि की चिंता करने की जरूरत महसूस नहीं होती? राजनीतिक दलों और उनके संगठनों के सदस्यों के सम्बन्ध क्या केवल वोट डालने डलवाने तक ही सीमित हैं? आज जिस पार्टी की सरकार है उसके समर्थक उसकी योजना के पक्ष में नेता की लोकप्रियता को बचाने के लिए सहयोग करने क्यों आगे नहीं आये? मुद्रा तो केवल संसाधन है जिसके सहारे भी अंततः मानवीय सहयोग ही जुटाया जाता है।
इस परिघटना के सहारे क्या हम अपने सामाजिक राजनीतिक सम्बन्धों के स्वरूप पर विचार करॆंगे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629


    

गुरुवार, नवंबर 10, 2016

कूटनीतिक चालें और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव

कूटनीतिक चालें और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 
वीरेन्द्र जैन

वैसे तो हमारे ढीले ढाले लोकतंत्र में किसी को भी सहज रूप से राजनीतिक पार्टी बनाने और चुनाव लड़ने का अधिकार है और कई ‘धरती पकड़’ पार्षद से लेकर राष्ट्रपति पद तक का फार्म भर के इस ढीले ढाले पन का उपहास करते रहते हैं पर उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में चार प्रमुख दलों के बीच टक्कर मानी जा रही है। रोचक यह है कि ये चारों दल राजनीतिक दल के नाम पर चुनावी दल हैं और सामाजिक राजनीतिक आन्दोलनों से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है, भले ही इनका ‘शुभ नाम’ कुछ भी हो। ये चारों दल पिछली परम्परा के अनुसार अपना अपना चुनावी घोषणा पत्र जारी करेंगे जिसका उनके कार्यक्रमों से कोई सम्बन्ध नहीं होगा क्योंकि ये दल कोई राजनीतिक कार्य करते ही नहीं हैं, एक से दूसरे चुनाव के बीच जो कुछ भी करते हैं वह चुनावी सम्भावनाओं से जुड़ा होता है।
उक्त चार दलों में से तीन दल राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल हैं, और एक राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त दल है। विडम्बना यह है कि इनमें से भी केवल एक दल ही राष्ट्रव्यापी दल कहा जा सकता है और यही दल सबसे कमजोर स्थिति में है। दूसरा दल पश्चिम मध्य भारत का दल है जो केन्द्र में सत्तारूढ है व उद्योग व्यापार वालों की पसन्द का दल होते हुए भरपूर संसाधन जुटा लेता है जिसके सहारे वह साम्प्रदायिक संगठनों को बनाये रखता है। ये संगठन चुनावों के दौरान ऐसा ध्रुवीकरण करते हैं कि उसे चुनावी लाभ मिल जाता है। इस दल की पहचान भले ही एक साम्प्रदायिक दल की है किंतु इसकी साम्प्रदायिकता की प्रमुख दिशा चुनाव केन्द्रित ही रहती है व शेष समय में इसके साम्प्रदायिक संगठन ध्रुवीकरण हेतु भूमि विस्फोटक [लेंड माइंस] बिछाने में लगे रहते हैं। तीसरा राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल एक जातिवादी दल है जो आरक्षण के आधार पर लाभांवित वर्ग में पैदा की गयी जातीय चेतना के भरोसे उनके सहयोग से चलता है। ये वह वर्ग है जिसने सरकारी नौकरियों में आकर पाया कि सवर्णों में उनके प्रति अभी भी नफरत बनी हुयी है और वे उन्हें मुख्यधारा में स्वीकार नहीं करते। स्थानीय निकायों के चुनावों और पंचायती व्यवस्था के चुनावों से लेकर सशक्तीकरण योजनाओं में भी इन्हें आरक्षण का लाभ मिला है जिस पर वे लगातार खतरा महसूस करते रहते हैं व इस भय के कारण एकजुट हो गये हैं। यह दल आंकड़ागत रूप से भले ही राष्ट्रीय दल की मान्यता पा गया हो, किंतु चुनावी दृष्टि से मूल रूप से यह उत्तरप्रदेश तक सीमित क्षेत्रीय दल ही है क्योंकि अभीतक और कहीं भी यह स्वतंत्र सरकार बना पाने में सफल नहीं हुआ है। यह दल अपने चुनावी खर्चों के लिए सवर्णों के उम्मीदवारों से सौदा करके  भी संसाधन जुटाता है। इसका अपना एक सुनिश्चित वोट बैंक बन गया है जिसमें अगर कोई दूसरा वर्ग सहयोग कर देता है तो इनकी जीत की स्थितियां बन जाती हैं व न मिलने पर वे ठीक प्रतिशत में अपने वोट पाकर भी हार जाते हैं। गत लोकसभा चुनाव में चार प्रतिशत वोट पाकर भी वे एक भी सीट नहीं जीत सके। कहा गया था कि ‘हाथी’ ने अंडा दिया है।
चौथी पार्टी राज्य स्तर की अधिमान्य पार्टी है और वर्तमान में वही सत्तारूढ है , अपने नाम में जुड़े समाजवाद शब्द से उनका अब कोई सम्बन्ध नहीं है। यह पार्टी पिछड़े वर्गों की एक जाति के वोटों तक सीमित पार्टी है और इसे भी किसी अन्य के समर्थन की जरूरत बनी रहती है। 2007 और 2012 के परिणाम बताते हैं कि समर्थन मिल जाने पर वे सरकार बना लेते हैं, और न मिले तो हार जाते हैं। इनका जातिगत समर्थन सरकार द्वारा देय सत्ता के लाभों के पक्षपात पूर्ण वितरण से बना है। पुलिस की सहायता से वे आपराधिक भावना वाले अफसरों, व्यापारियों से धन की वसूली भी करते रहते हैं। सरकारी ठेके और खदानों के अपने लोगों के बीच आवंटन से वे बहुत अर्थसम्पन्न हो चुके हैं और पहली बार मिले इस स्वाद को बनाये रखने हेतु एकजुट रहना चाहते हैं।
इस प्रदेश में समुचित संख्या में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं जो संघ परिवार के सच्चे- झूठे आतंक से ग्रस्त होने के कारण भाजपा को हराना अपना प्रमुख ध्येय मान कर वोटिंग करते हैं और जो दल इस स्थिति में नजर आता है उसे अपना एकजुट समर्थन देकर जीतने में सहायता करते हैं। कभी काँग्रेस तो कभी समाजवादी और कभी बसपा उनके योगदान से लाभांवित होते रहे हैं।
ये चारों ही प्रमुख दल सत्ता की शक्ति और सम्पत्ति हथियाने के लिए लालायित नेताओं से भरे हुये हैं जो अपना लक्ष्य पाने के लिए किसी भी दल में सुविधानुसार आते जाते रह्ते हैं और भविष्य में भी ऐसा आवागमन कर सकते हैं। हाल ही में इनमें से हर दल में दूसरे दल में रह चुके नेता सहज रूप से आ चुके हैं और यह सिलसिला लगातार जारी है। ये सभी कभी न कभी सत्तारूढ रह चुके हैं और भरपूर अवैध धन सम्पत्ति के सहारे चुनावों में धन के प्रवाह द्वारा वोटों में वृद्धि के लिए तैयार थे, किंतु बड़े नोटों पर लगे प्रतिबन्धों ने उनको रणनीतियों में परिवर्तन के लिए बाध्य कर दिया है। इनमें से किसको कितना नुकसान हुआ है इसका आंकलन अभी शेष है किंतु केन्द्र की भाजपा सरकार ने इसे लागू किया है अतः अनुमान किया जा सकता है कि उसने पहले ही सावधानी पूर्वक उचित समय पर पांसे चले होंगे।
सच तो यह है कि यह कोई लोकतांत्रिक लड़ाई नहीं है अपितु सामंती युग का सत्ता संग्राम है जिसे नये हथियारों से लड़ा जाना है। इनमें षड़यंत्र, दुष्प्रचार, झूठ, धोखे, सिद्धांतहीनता, वंशवाद, दलबदल,  जातिवाद, साम्प्रदायिकता, अवैध धन, बाहुबलियों के दबाव, आदि का प्रयोग होगा। सबके पास अपने अपने मिसाइल हैं और अपने अपने कवच हैं। सब एक दूसरे का प्रत्यक्ष और परोक्ष सहयोग लेते देते रहे हैं और उसके लिए अभी भी तैयार हैं। चुनावों का विश्लेषण करते हुए कुछ लोग सैद्धांतिकता का छोंक लगाने की कोशिश करते हैं जो अंततः हास्यास्पद हो जाती है। राजनैतिक चेतना सम्पन्न वोट इतनी कम संख्या में है कि वह चुनाव परिणामों पर प्रभाव नहीं डालता। काँग्रेस किंकर्तव्यविमूढ होकर किराये के चुनावी प्रबन्धक के सहारे है, सपा और बसपा अपने जातिगत मतों के सहारे है व भाजपा दलबदल से लेकर दंगों और बेमेल गठबन्धनों तक कुछ भी कर सकती है।
यह चुनाव नहीं महाभारत का संग्राम है जहां युद्ध जीतने के लिए शकुनि की चालें व कृष्ण की कूटनीतियां सब काम करेंगी।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629