बुधवार, नवंबर 16, 2016

मुद्रा का कायान्तरण और सामाजिकता के सवाल

मुद्रा का कायान्तरण और सामाजिकता के सवाल
वीरेन्द्र जैन

अचानक ही मुद्रा के रूप परिवर्तन की आपाधापी के कारण बहुत दिनों के बाद पूरा देश एक साथ हलचल में आ गया है क्योंकि वर्तमान व्यवस्था में प्राणवायु की तरह इसका जुड़ाव सभी से है। इसी कारण इस परिवर्तन का थोड़ा बहुत प्रभाव या दुष्प्रभाव सभी पर पड़ा है। यह क्रिया करने के पीछे एक कारण समाज के विभिन्न वर्गों के बीच चल रही समानांतर अर्थव्यवस्था जिसे काले धन के रूप में जाना जाता है, को सामने लाने की कोशिश भी बतायी गयी है इसलिए यह एक तरह का काम्बिंग आपरेशन भी है। गोपनीयता बनाये रखने की जरूरत के कारण इस अभियान को छापामारी शैली में चलाना पड़ा, ऐसा सरकार द्वारा बताया गया। इस अभियान की सफलता या असफलता इसके पूर्ण होने के बाद ही पता चल सकेगी पर इतना तय है कि समाज का एक बड़ा वह वर्ग इससे दुष्प्रभावित हुआ है जो इसके लिए सीधे सीधे दोषी नहीं है।
24\7 के न्यूज चैनल उस बड़े भवन की तरह हैं जिसके मालिक के पास उस भवन को सजाने के लिए पर्याप्त साजो सामान नहीं है इसलिए उसने उस भवन के खालीपन को दूर करने के लिए उसमें कबाड़ भर लिया है। पिछली शाम एक न्यूज चैनल के समाचारों में दिल्ली के एक एटीएम के सामने लगी महिलाओं की लम्बी लाइन में एक महिला फूट फूट कर रोती हुयी नजर आयी जो सम्वाददाता को बता रही थी कि उसकी बेटी का बर्थडे है और उसके पास केक खरीदने के लिए भी पैसे नहीं हैं। तोलोस्ताय के उपन्यास अन्ना कैरिन्ना का पहला वाक्य कुछ इस तरह है कि – सुख तो सबके एक जैसे होते हैं पर दुख के रंग सबके अलग अलग होते हैं। हो सकता है कि वह महिला भी अपनी इस मजबूरी पर उतनी ही दुखी हो जितना नजर आ रहा था किंतु सारी सहानिभूति के बाद भी मुझे वह दुख किसी राष्ट्रीय चैनल पर रोने लायक दुख नहीं लगा जबकि दूसरी ओर इस अभियान के कारण अब तक 23 मौतें हुयी बतायी गई हैं।
यह तो नजर आ रहा है कि काला धन बाहर निकालने के इस अभियान के संचालन में अनेक कमियां रही हैं और लोगों को तकलीफें उठानी पड़ी हैं किंतु हमारी सामाजिकता पर भी प्रश्न चिन्ह खड़े हुये हैं।
रहिमन विपदा हू भली, जो थोड़े दिन होय, हित अनहित या जगत में जान परत सब कोय।
 वस्तु विनमय में दुकानदार से लेकर ग्राहक तक विश्वास का एक रिश्ता चलता था व एक समानांतर बैंकिंग की तरह दुकानदार अपने ग्राहक को उसकी हैसियत के अनुसार जरूरत के समय उधार देता था। दूसरी ओर उसे भी थोक विक्रेता से उधार मिलता था। क्या यह रिश्ता बिल्कुल ही समाप्त हो गया है? क्या हमारे पड़ोस का लेनदेन का रिश्ता बिल्कुल नहीं बचा है और जरूरत के समय एक दूसरे को जरूरी सामान की मदद नहीं की जा सकती? इसी तरह रिश्तेदारियां, जाति समाज, धार्मिक संस्थाएं, या दूसरे सामाजिक संगठन जो जाति बाहर विवाह करने पर आसमान सर पर उठा लेते हैं, इस संवेदनशील परिस्थिति में भी सामने क्यों नहीं आये। नरेंन्द्र मोदी के पक्ष में सोशल मीडिया पर तुमुल कोलाहल मचाने वाले युवा और उनके कथित संगठन उनकी किसी नीति से उपजी अलोकप्रियता को बचाने के लिए समाज के पीड़ित हिस्से को मदद के द्वारा यह विश्वास दिलाने में सफल क्यों नहीं हुये कि सामान्यजन के लिए ये परेशानियां अस्थायी हैं। एक ओर जहाँ मुद्रा के पुराने रूप में होने के कारण अस्पताल में इलाज न मिल पाने के कारण मौतें हो रही हैं, वहाँ अस्पताल वालों को यह भरोसा दिलाने वाले क्यों दिखाई नहीं दिये कि व्यवस्था अभी कायम है और उन्हें चैक से भुगतान लेकर भी इलाज करना चाहिए। जब बार बार सरकार द्वारा यह बताया गया कि समस्या अधिकतम पचास दिनों के लिए ही है और ईमानदारों को कोई परेशानी नहीं होगी तो क्या सरकार के समर्थकों को भी सरकार की बात का भरोसा नहीं था!
इस लिव इन रिलेशन तक आ पंहुचे युग में भी धूमधाम से शादी न कर पाने वाले दूल्हा दुल्हन व उनके माँ बापों का इतना विस्तारित दुख पहले कभी नहीं देखा था। शादी में अगर रिश्तेदार और परिचित मित्र सहयोगी नहीं हो सकते तो पुराने दौर की शादियों का तरीका अपनाना क्यों जरूरी है जब महीनों पहले से मेहमान आ जाते थे और दावतों तक का सारा सामान घर में ही तैयार होता था। आखिर क्यों कोई दूल्हा दुल्हिन यह कहती नहीं नजर आयी कि कोई बात नहीं हम कोर्ट में शादी कर लेंगे। सामने परिस्तिथि देखते हुए भी आखिर शादी के इंतजाम का व्यवसाय करने वाले लोग क्यों चैक या ड्राफ्ट से भुगतान लेने को आगे नहीं आये।
सच तो यह है कि जो समाज भंग हो चुका है उसकी लाश को ढोते हुए हम उसी की परम्पराओं को ढोये जा रहे हैं जबकि या तो हमें समाज का कोई नया स्वरूप गढना चाहिए या परम्पराओं में समय के अनुसार परिवर्तन लाना चाहिए। हम नई जगह आकर भी पुराने त्योहारों को छोड़ नहीं पा रहे हैं और नये भी अपनाते जा रहे हैं भले ही उसके लिए उधार लेना पड़े। हम बाजार के दबाव में दीवाली, दुर्गापूजा, गणपति उत्सव, गरबा, करवा चौथ, छठपूजा, से लेकर वैलंटाइन डे, मदर’स डॆ, न्यू इयर आदि सब ओढते जा रहे हैं। क्या जाति समाज केवल प्रेम विवाह करने वालों को फांसी पर लटका देने तक ही शेष है? क्या उसे युवाओं की शिक्षा, रोजगार आदि की चिंता करने की जरूरत महसूस नहीं होती? राजनीतिक दलों और उनके संगठनों के सदस्यों के सम्बन्ध क्या केवल वोट डालने डलवाने तक ही सीमित हैं? आज जिस पार्टी की सरकार है उसके समर्थक उसकी योजना के पक्ष में नेता की लोकप्रियता को बचाने के लिए सहयोग करने क्यों आगे नहीं आये? मुद्रा तो केवल संसाधन है जिसके सहारे भी अंततः मानवीय सहयोग ही जुटाया जाता है।
इस परिघटना के सहारे क्या हम अपने सामाजिक राजनीतिक सम्बन्धों के स्वरूप पर विचार करॆंगे।
वीरेन्द्र जैन
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