सोमवार, दिसंबर 26, 2016

फिल्म समीक्षा दंगल - लैंगिक भेदभाव पर एक और बेहतरीन फिल्म

फिल्म समीक्षा
दंगल - लैंगिक भेदभाव पर एक और बेहतरीन फिल्म

वीरेन्द्र जैन
पिछले दो दशकों से साहित्य में महिला विमर्श को केन्द्र में लाया गया था जिसके प्रभाव में पिछले दिनों लैंगिक भेदभाव को चुनौती देने वाली कई फिल्में बनी हैं जिनमें से कुछ बैंडिट क्वीन, गुलाबी गैंग, नो वन किल्लिड जेसिका, क्वीन, पिंक, बोल, खुदा के लिए, आदि तो बहुत अच्छी हैं। आमिर खान की दंगल भी बिना कोई ऐसा दावा किये उनमें से एक है। इसमें यह भी जोड़ा जा सकता है कि जब कोई विषय किसी परिपक्व कलाकार के हाथ लगता है तो उसका निर्माण उसके सौन्दर्य और प्रभाव को कई गुना बढा देता है। पिछले दिनों खेल और उसकी समस्याओं को लेकर भी कुछ कथा फिल्में व बायोपिक जैसे चक दे इंडिया, भाग मिल्खा भाग, मैरी काम, पान सिंह तोमर आदि बनी हैं और सफल हुयी हैं, पर यह फिल्म दोनों का मेल है। यह फिल्म हरियाना जैसे राज्य में जहाँ पुरुषवादी मानसिकता इस तरह सवार है कि कन्या भ्रूण के गर्भपात के कारण लैंगिक अनुपात खराब हो गया है, की सच्ची घटना से जन्मी है और एक प्रेरक फिल्म है। जो लोग देश के आमजन को, स्वार्थी, गैरसंवेदनशील, अनपढ, और कूपमंडूप मान कर चलते हैं, इस फिल्म की व्यवसायिक सफलता उन लोगों को भी आइना दिखाती है। उल्लेखनीय है कि प्रफुल्लित स्कूटर, कार- स्टेंड वाले ने बताया कि नोटबन्दी के बाद आने वाली यह पहली फिल्म है जो लगातार तीन दिन से हाउसफुल चल रही है और उसका घाटा पूरा कर रही है।
व्यावसायिक स्तर पर सफल यह आम व्यावसायिक फिल्मों से इसलिए अलग है कि इसमें स्टार के नाम पर केवल आमिरखान हैं, और चार नई लड़कियां, फातिमा साना शेख, ज़ाइरा वसीम, सान्या मल्होत्रा, और सुहानी भटनागर हैं। इसमें न तो प्रेम कहानी है और न ही आइटम सोंग जैसे भड़कीले बदन दिखाऊ दृश्य हैं। इसमें न तो फूहड़ कामेडी है और न धाँय धायँ करती व्यवस्था को नकारती हिंसक घटनाएं हैं। यह किसी पाक शास्त्र में कुशल ऐसे रसोइये की कला है जो बिना मसाले के भी स्वादिष्ट और पोषक रसोई बनाना जानता है। इस फिल्म में अगर खून बहता हुआ नजर आता है तो वह आँखों से बहता हुआ नजर आता है, बकौल गालिब – जो आँख से ही न टपका तो फिर लहू क्या है। पूरी फिल्म में पात्रों की आँखें भरी हुई नजर आती हैं, कभी खुशी से तो कभी परिस्तिथिजन्य दुखों से। यही स्थिति दर्शकों की आँखों को भी बार बार भर देती है, पर न पात्रों की भरी आँखें छलकती हैं, न ही दर्शकों की। दिल का भर आना इसीको कहते हैं।    
छोटी सी कहानी में भी कितनी बातें समेटी जा सकती हैं यह बात राजकपूर की कला के सही उत्तराधिकारी आमिर खान से ही सीखी जा सकती है। एक खिलाड़ी जो देश के लिए खेलने की क्षमता और भावना रखता था उसे खेल छोड़ कर केवल इसलिए नौकरी करना पड़ती है क्योंकि उसके पिता का मानना है कि जिन्दा रहने के लिए रोटी जरूरी होती है, मेडलों को थाली में डाल कर नहीं खाया जा सकता। वह अपना सपना अगली पीढी के माध्यम से पूरा करना चाहता है किंतु उसके घर कोई लड़का पैदा नहीं होता जिसकी प्रतीक्षा में वह चार लड़कियां पैदा कर लेता है। मैडलों के न मिलने पर दुखी होते देश में मैडल जीतने वाले देशों की तरह खिलाड़ियों की देखभाल की उचित व्यवस्था नहीं है। खेल अधिकारी उसे बताता है कि खेल के लिए कुल कितना बज़ट आवंटित है और उसमें से भी कुश्ती के लिए इतना भी नहीं बचता कि जिससे गद्दे तो दूर एक मिठाई का डिब्बा भी न आ सके। लड़कियों की कुश्ती की तैयारी कराने के लिए भी दूसरी लड़कियां नहीं मिलतीं जिस कारण लड़की को अपने दूर के रिश्ते के भाई के साथ ही कुश्ती करके सीखना पड़ता है और पहली जीत किसी लड़के को पराजित करके ही जीतना पड़ती है। पुरुषवादी समाज में जब पिता कोच का काम करता है तो परम्परागत अनुभवों से सिखाता है और जिस कारण से उसका स्पोर्ट कालेज के कोच से टकराव भी होता है जो आधुनिक किताबी ज्ञान से सिखा रहा होता है। अंततः दोनों के समन्वय से खिलाड़ी लड़की द्वारा अपने विवेक से लिया गया फैसला ही जीत दिलाता है।
खेल के क्षेत्र में आगे बढने के लिए किसी लड़की का टकराव उसके मन में भर दिये गये एक कमजोर ज़ेन्डर होने की भावना से ही नहीं होता अपितु सहपाठियों और सामाजिक तानों बानों से भी होता है, पहनावा व हेयर स्टाइल बदलने के कारण भिन्न दिखने से भी होता है। उनके लिए तय कर दी गई कलाओं तक सीमित रहने की परम्परा से भी होता है। सामाजिक विरोध के साथ साथ जाति समाज के विरोध का सामना कोई पहलवान ही कर सकता है। किसी महिला के खिलाड़ी बनने के लिए उसे अपने परम्परागत सौन्दर्य बोध को मारना होता है। मैत्रीय पुष्पा अपने आत्मकथात्मक उपन्यास ‘कस्तूरी कुण्डल बसै’ में लिखती हैं कि उनकी माँ सरकारी नौकरी में एक साधारण सी कर्मचारी थीं जिन्हें गाँव गाँव की यात्रा करना पड़ती थी। इस नौकरी में सम्भवतः अपनी सुरक्षा के लिए वे रूखे सूखे रहने को अपना कवच मानती थीं, और केवल छुट्टियों में ही अपने बालों में तेल लगवाती थीं। इस फिल्म में खिलाड़ी लड़की द्वारा टीवी देखने, अपने बाल बढाये जाने और नेल पालिश लगाये जाने को भी उसका लक्ष्य विचलित होना माना जाना भी एक मार्मिक प्रसंग बन गया है।
हाउस फुल हाल में फिल्म प्रारम्भ होने के पहले राष्ट्रगीत बजाये जाते समय तक दर्शक अपनी सीट ही तलाश रहे होते हैं और अनचाहे भी वे राष्ट्रगीत के लिए तय मानकों का उल्लंघन कर रहे होते हैं, दूसरी ओर जब फिल्म की कहानी में राष्ट्रगीत बज रहा होता है, वे तब भी खड़े हो जाते हैं।   
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629


गुरुवार, दिसंबर 22, 2016

वाहनों पर विशिष्टता वाले प्रतीक चिन्हों के खतरे

वाहनों पर विशिष्टता वाले प्रतीक चिन्हों के खतरे
वीरेन्द्र जैन

        गत दिनों होशंगाबाद में 43 लाख के नये और पुराने नोटों के साथ एक व्यक्ति पकड़ा गया था जिसकी गाड़ी पर एंटी करप्शन सोसाइटी की प्लेट लगी हुयी थी। जिस दिन दिल्ली निर्भया कांड की तीसरी बर्सी मना रही ठीक उसी दिन एक और गैंग रेप हुआ तथा यह अपराध जिस वाहन से घटित हुआ उस पर गृह मंत्रालय की [नकली] प्लेट लगी हुई थी। अतीत को याद करें तो पटियाला में एक ऐसा अफीम तस्कर पकड़ा गया था जो पंजाब के डिप्टी सीएम का स्टिकर के साथ ही वीआईपी लिखा स्टिकर लगाकर पुलिस को चकमा देता रहा था। उसके पास से से 22 किलो अफीम मिली थी। एसएसपी गुरप्रीत गिल ने बाद में सम्वाददाताओं को बताया था कि पकड़े गये अवतार सिंह का मध्यप्रदेश के रतलाम इलाके में ढाबा है जिसे उसका पुत्र चलाता है। इससे पहले भी पुलिस मध्यप्रदेश में ही उसे 17 किलो अफीम के साथ पकड़ चुकी थी।
दिल्ली में काल सैन्टर में काम करने वाली एक लड़की जिगिशा घोष की हत्या कर दी गयी थी जिसकी जाँच में न केवल जिगिषा के हत्यारे ही पकड़े गये अपितु एक पत्रकार सौम्या विशवनाथन की हत्या का राज भी खुल गया था। दोनों ही हत्याएं उन्ही अपराधियों ने की थीं। जाँच में सबसे उल्लेखनीय बात यह सामने आयी कि अपराधियों के पास से अतिविशिष्ट व्यक्तियों द्वारा प्रयोग के लिए अधिकृत लाल बत्ती, पुलिस विभाग के प्रतीक चिन्ह, जज और प्रैस के स्टिकर, पुलिस महानिदेशक और उपमहानिरीक्षक की गाड़ियों पर लगने वाली नीली प्लेट, पुलिस की वर्दी तथा वायरलैस सैट भी मिले थे। प्रति दिन वांछित अवांछित आलोचना सुनने वाली पुलिस को इस कार्यवाही के लिए साधुवाद देने के साथ वाहनों पर लगाये जाने वाले प्रतीक चिन्हों की उपयोगिताएं आवश्यकताएं और दुरूपयोग की संभावनाओं पर विचार करना जरूरी है।
        आज प्रदेश की राजधानियों में सैकड़ों ऐसे वाहन पुलिस की आंखों के सामने से गुजरते रहते हैं जिनमें नम्बर प्लेट की जगह उस राज्य की सत्तारूढ पार्टी के झन्डे के रंग की प्लेट लगी होती है व उस पर दल के किसी प्रकोष्ठ के पदाधिकारी का नाम लिखा होता है। असल में ऐसी प्लेटें ट्रैफिक पुलिस कर्मचारियों को चेतावनी देने के लिए लगायी गयी होती हैं कि वे ट्रैफिक नियमों को धता बताते हुये उक्त वाहनों को किसी भी तरह की चैकिंग के लिए रोकने का दुस्साहस न करें। अपने भविष्य और सुविधाओं के बारे में सोच कर आम तौर पर पुलिस के लोग ऐसे वाहनों को रोकते भी नहीं हैं व कानून के पालन की ‘गलती’ कर देने पर ‘दण्डित’ भी होते हैं। यही विशेष सुविधा अपराधियों को इन विशिष्ट प्रतीक चिन्हों के दुरूपयोग को प्रोत्साहित करती है। आज सारे बड़े बड़े अपराध इन्हीं विशिष्ट चिन्हों से मण्डित वाहनों के सहारे किये जा रहे हैं। वाहनों पर पुलिस और प्रैस लिखवाने का फैशन चल गया है। अखबार में प्रिटिंग का काम करने से लेकर अखबार बांटने का काम करने वाले हॉकर तक अपनी साइकिलों बाइकों पर प्रैस लिखवाये हुये मिल जाते हैं जबकि यह पहचान अधिक से अधिक केवल डयूटी पर काम के लिए निकले अखबार के संवाददाता तक ही सहनीय होना चाहिये। भोपाल जैसे नगर में सिटी बसों सामान ढोने वाले ट्रकों आटो ही नहीं ट्रैक्टरों तक पर प्रैस लिखा देखा जा सकता है। डाक्टरों और मरीज वाहन को प्राथमिकता देने के लिए अनुशंसित रैडक्रास का निशान भी नर्सों वार्ड ब्वाय कम्पाउण्डरों, लैब तकनीशियनों से लेकर अस्पतालों के सफाईकर्मी तक प्रयोग में लाते हैं। पुलिस के सिपाहियों की साइकिलों पर भी पुलिस लिखा होता है जो परोक्ष रूप से उन चोरों को सावधान करने के लिए लिखवाया जाता है जो साइकिलें चुराते हैं। साइकिल पर अंकित ‘पुलिस’ संदेश देती है कि यह पुलिस वाले की साइकिल है इसे तो मत चुराओ। इतना ही नहीं सांसद विधायक से लेकर गांव के पंच सरपंच तक अपने वाहनों पर अपना पद लिखवाने लगे हैं। सरकारी अधिकारी ही नहीं कर्मचारी तक अपने विभाग का नाम व पद लिखवाते हैं, यहाँ तक कि वकील भी मोटे मोटे अक्षरों में एडवोकेट लिखवा कर रखते हैं। राजनीतिक दलों के पदाधिकारी तो अपना छोटे से छोटा पद बड़े से बड़े अक्षरों में लिखवाना पसंद करते हैं।
1990 के दशक से देश में साम्प्रदायिकता का जो पुर्नजागरण हुआ है उसके बाद से लोगों के हाथों में बंधे कलावों तिलकों अंगूठियों दाढियों चोटियों, गले में पड़े दुपट्टॊं आदि से ही नहीं उनके घरो के दरवाजों और वाहनों पर लिखे जयकारों से उनके धार्मिक विश्वासों का उद्घोष होता रहता है, भले ही उनके आचरण उनके धार्मिक उद्घोषों के विरोधी हों। अधिकांश वाहनों पर बाहर की तरफ जयघोष के साथ साथ उक्त धार्मिक पंथ के प्रतीक चिन्ह और हथियार आदि अंकित रहते हैं। इनका उपयोग केवल इतना भर होता है कि साम्प्रदायिक दंगों के दौरान अपने वालों से ही प्रताड़ित होने से बच सकें। इन चिन्हांकनों से धर्म और पंथ का कितना भला हुआ है इसका कोई प्रमाण कभी नहीं मिला तथा हजारों दुर्घटनाग्रस्त वाहनों को देखने पर पता चलता है कि इन धार्मिक उद्घोषों ने दुर्घटना से कभी कोई रक्षा नहीं की और ना ही वाहनों को चोरी से ही बचाया।
        देश में वाहनों का सड़कों और उनकी दशाओं के अनुपात में बेतुका विस्तार भविष्य में अनेकानेक समस्याओं को जन्म देगा, खास तौर पर तब, जब कि वाहनों के साथ ट्रैफिक नियमों का पालन तो दूर की बात है लोगों को सही तरीके से पार्किंग की भी तमीज नहीं है जिसे किसी भी पार्किंग स्थल पर देखा जा सकता है। इसलिए आवशयकता इस बात की है कि नये नये सस्ते वाहन आने से पहले ट्रैफिक नियमों के कठोर अनुपालन को सुनिश्चित करने की व्यवस्था की जावे जिसके लिए  स्थानीय राजनेताओं के प्रभाव से बचने के लिए उनके अर्न्तराज्यीय और जल्दी स्थानान्तरण की व्यवस्था हो। डयूटी वाले चिकित्सकों पुलिस व प्रशासन के वाहनों, डयूटी वाले मान्यता प्राप्त संवाददाताओं, एम्बुलैंस फायर ब्रिग्रेड आदि आवश्यक सेवाओं को छोड़ कर किसी भी वाहन के बाहर किसी भी प्रतीक चिन्ह को प्रकट करना कठोरता पूर्वक रोका जाये व विशिष्टता वाले वाहनों को उनकी सुरक्षा के नाम पर अनिवार्य रूप से चैक किये जाने की व्यवस्था हो।
जिस तरह मोबाइल आने के बाद अपराधी साधन सम्पन्न हुये हैं उसी तरह वे मोबाइल के रिकार्ड के कारण उसी अनुपात में पकड़ में भी आये हैं। आज के अधिकांश अपराधों में वाहनों का प्रयोग आम हो गया है और अपराधों को पकड़ने में वाहनों की चैकिंग बहुत मदद कर सकती है। वाहन नियमों के किसी भी उल्लंघन के दुहराव पर उसका दण्ड भी दुगना कर देने से ट्रैफिक अपराधों पर अंकुश लग सकता है। एक से अधिक वाहन रखने वाले परिवार पर अतिरिक्त कर लगाने का प्रस्ताव तो पहले से ही विचाराधीन है। सड़क पर वाहनों की पार्किंग को अतिक्रमण माना जाना चाहिये। बेहतर होगा कि हम विदेशों से वाहनों के माडलों की नकल ही न सीखें अपितु उनके यहाँ के ट्रैफिक नियम भी सीखें।
जिगीशा और सौम्या की हत्या करने वाले तथा अपने वाहन पर गृहमंत्रालय की प्लेट लगाने वाले यदि विदेशी आंतकी होते तो सहज ही कल्पना की जा सकती है कि वे कितने 26/11 दुहरा सकते थे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास  भोपाल मप्र
फोन 9425674629



गुरुवार, दिसंबर 15, 2016

ममता बनर्जी पर टिप्पणी भाजपा के मूल चरित्र की सूचक

ममता बनर्जी पर टिप्पणी भाजपा के मूल चरित्र की सूचक
वीरेन्द्र जैन

नोटबन्दी पर पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी द्वारा मुखर विरोध करने के लिए दिल्ली में केजरीवाल के साथ रैली करने पर भाजपा नेता बुरी तरह से डरे हुए हैं। लोकसभा चुनावों में काँग्रेस की चहुँ ओर पराजय और अलोकप्रियता के बाद भाजपा खुद को निर्विकल्प मान रही थी, किंतु दिल्ली विधानसभा और बिहार विधानसभा में मिली पराजय के बाद वह आहत महसूस करने लगी थी। दिल्ली में तो उसकी पराजय एक उस पार्टी के युवा नेता के हाथों हुयी थी, जिसके साथ न तो जाति थी न सम्प्रदाय, न पूंजीपति थे और न ही संसाधन थे, न परम्परागत खाँटी नेता थे न ही वंश परम्परा। यह जीत भ्रष्टाचार से आहत जनता ने उन बिखरे बिखरे संगठन वाले युवाओं को सौंपी थी, जिनमें उसे नई उम्मीदें दिखाई देने लगी थीं। चूंकि उनका कोई इतिहास नहीं था इसलिए उनकी राजनीतिक आलोचना भी कठिन थी। भाजपा को जितना खतरा बिहार में नये गठबन्धन के सत्ता में आने से नहीं लगा जितना कि केजरीवाल के आने से लगा था। उल्लेखनीय है कि जब अन्ना को आगे रख कर केजरीवाल ने ‘इंडिया अगेंस्ट करप्पशन’ चलाया था तब उसकी लोकप्रियता को हड़पने के लिए संघ परिवार ने सबसे ज्यादा परोक्ष समर्थन किया था। दिल्ली में अन्ना के अनशन के दौरान भोजन की सारी व्यवस्था संघ ने ही सम्हाली थी। जब ममता बनर्जी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री थीं और वामपंथियों से टकराती थीं तब वे भाजपा की मित्र थीं।
चूंकि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है इसलिए वहाँ की राज्य सरकार के पास पुलिस से लेकर नगर निगम आदि कई महत्वपूर्ण विभाग उसके नियंत्रण में नहीं हैं। इसका लाभ लेते हुए केन्द्र सरकार ने राज्य सरकार के खिलाफ युद्ध जैसा छेड़ दिया था और पारिवारिक झगड़ों से लेकर छोटे मोटे अनेक मामलों में विधायकों को तोड़ना शुरू कर उन्हें जेल भेजना शुरू कर दिया। दूसरी ओर लेफ्टीनेंट गवर्नर ने दिल्ली की सरकार के खिलाफ सौतेला व्यवहार शुरू कर दिया। इसी दौरान नोटबन्दी के सवाल पर केजरीवाल को बंगाल की तेज तर्रार मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का साथ मिला तो केन्द्र सरकार आगबबूला हो गयीं। एक जागरूक पूर्ण राज्य की मुख्यमंत्री का दुश्मन नम्बर एक से मिल जाना भाजपा के तानाशाह नरेन्द्र मोदी को बहुत अखरा और उनके तेवर को समझ कर भाजपा के सभी नेता ममता बनर्जी के खिलाफ हो गये।
बंगाल में सेना की तैनाती पर मुखर असंतोष व्यक्त करने वाली ममता भाजपा को बहुत खतरनाक लगने लगीं क्योंकि वे कभी वामपंथियों के खिलाफ बनाये गये महाजोट में इनकी रणनीति में शामिल रही थीं। इन्हीं परिस्तिथियों में 2 दिसम्बर 2016 को हावड़ा के उलुबेरिया में हुई एक रैली में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने कहा कि “हमारी सीएम दिल्ली गई हैं। वे वहां काफी नाच गाना कर रही हैं! हमें बताइए हमारी तो सरकार वहां पर है। अगर हम चाहते तो उनके बाल पकड़ कर उन्हें बाहर निकाल देते।“ क्या भाजपा का यही लोकतांत्रिक तरीका है! क्या किसी को सरकार की जनविरोधी नीति से असहमत होने का अधिकार नहीं है! क्या सरकार होने का यही मतलब होता है कि राजनीतिक विरोध करने वाले को जब चाहो तब बाल पकड़ कर अपने राज्य से बाहर निकाल दो, चाहे वह किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री ही क्यों न हो! अभी मध्य प्रदेश में केरल के मुख्यमंत्री को पुलिस ने मलयाली समाज द्वारा उनके अभिनन्दन के कार्यक्रम को यह कह कर रोक दिया कि आरएसएस के विरोध के कारण वे उन्हें सुरक्षा दे सकने में समर्थ नहीं हैं। असहमतों को अपने सहयोगी संगठनों से देशविरोधी, देशद्रोही व गद्दार कहलवा देना तो आम बात हो गई है। अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्तियों को ये लोग सीधे पाकिस्तान चले जाने की सलाह देते हैं, यहाँ तक कि राहुल गाँधी तक को नानी के घर अर्थात इटली जाने की घोषणा करने लगते हैं। गाँधी और नेहरू जैसे महान व्यक्तियों के इतिहास को भी कलंकित कराया जा रहा है।
जो लोग हर अवसर पर ‘यत्र नारी पूज्यंते, रमंते तत्र देवता’ का उद्घोष करते रहते हैं, वे ही नारियों के खिलाफ ऐसी भाषा का प्रयोग करने में संकोच नहीं करते। वैसे तो विमुद्रीकरण का विरोध सभी विपक्षी दलों ने किया था किंतु केजरीवाल और ममता बनर्जी का आपस में मिलना और मुखर विरोध करना उन्हें बहुत डरा गया है।   
भाजपा जिस संघ परिवार की सामंती संस्कृति से जन्मी है उसमें महिलाओं का स्वतंत्र नेतृत्व विकसित नहीं हो सकता। विजया राजे सिन्धिया, जो जनसंघ की पहली बड़ी महिला नेता थीं वे पहले  काँग्रेस से साँसद थीं और द्वारिका प्रसाद मिश्र के साथ व्यक्तिगत रंजिश के कारण जनसंघ में गयीं थीं।  सुषमा स्वराज को समाजवादी खेमे से आयात किया गया था। हेमा मालिनी, स्मृति ईरानी, किरन खेर, वसुन्धरा राजे या साध्वी भेषधारिणी उमा भारती आदि को उनकी सेलिब्रिटीज हैसियत के कारण चुनाव जीतने के लिए दिखावटी रूप में सम्मलित कर लिया जाता है। संघ की शाखाओं में महिलाओं को प्रवेश नहीं मिलता। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि ममता बनर्जी हों या सोनिया गाँधी, महिला नेतृत्व के प्रति इनका व्यवहार दोयम दर्जे का ही है। मीडिया को भ्रष्ट करके चरित्र हत्या कराना इनका प्रमुख हथियार है। असत्य, अर्धसत्य, तथा दुहरे अर्थ वाले बयान सबसे अधिक इसी संगठन की ओर से आते हैं। गणेशजी को दूध पिलाने से लेकर अयोध्या में बाबरी मस्जिद विवाद जैसे गैर राजनीतिक मुद्दों से ये ही लोग जुड़े रहे हैं।
राजनीति में झूठ का प्रयोग उजागर हो जाने के बाद यह साफ हो जाता है कि ये स्वयं भी अपने पक्ष को कमजोर समझते हैं। राजनीति में स्वच्छता को खराब करने में जो लोग स्वच्छ भारत का नारा लगाते हैं, उसका प्रभाव नहीं होता क्योंकि स्वच्छता आचरण से सम्बन्धित होती है।
वीरेन्द्र जैन
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मो. 09425674629

          

सोमवार, दिसंबर 05, 2016

मौलिक मोदी के बेलिबास बोल

मौलिक मोदी के बेलिबास बोल










वीरेन्द्र जैन
गत दिवस मोरादाबाद में आयोजित परिवर्तन रैली में मोदी का भाषण सुनने के बाद वह सज्जन भी निराश दिखे जो उन्हें भाजपा और भारत का एक मात्र उद्धारक मानने लगे थे। उनका कहना था कि असल मोदी और प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी से लेकर प्रधानमंत्री के रूप में अपनी बात कहने वाले मोदी अलग अलग हैं। चुनावी भाषणों के समय मूल मोदी सामने आ जाते हैं। सम्बन्धित व्यक्ति की नाराजी उनके उस कथन को लेकर थी जिसमें उन्होंने जनधन वाले खातों में विमुद्रीकरण के बाद जमा किये गये काले धन को वापिस न करने का आवाहन किया था। इस सम्बन्ध में मोदी जी ने कहा था कि जिनके खातों में किन्हीं सम्पन्न लोगों ने अपना काला धन जमा करवाया है वे उसे वापिस न करें। सरकार उसे कानूनी रूप देकर उसी व्यक्ति का धन बनाने के बारे में दिमाग लगा रही है।
तकनीकी रूप से मोदी का उक्त कथन न केवल गैरकानूनी था अपितु अनैतिक भी था। सरकार कानूनी कार्यवाही करके अवैध धन को जब्त कर सकती है, सम्बन्धित पर उचित करारोपण करके दण्ड वसूल सकती है, सजा दे सकती है, किंतु संविधान की शपथ लिए हुये प्रधानमंत्री जैसा कोई व्यक्ति सार्वजनिक रूप से अमानत में खयानत करने जैसा बयान नहीं दे सकता। नैतिकता का तकाजा भी यही है कि लिये हुए धन को जिन शर्तों पर लिया गया हो उसी के अनुसार वापिस किया जाये। जो काम सरकार का है वह सरकार करे। विमुद्रीकरण योजना घोषित करते समय भी इस बात के लिए सावधान किया गया था कि कोई भी व्यक्ति यदि दूसरे के धन को अपने खाते में जमा करायेगा तो वह दण्ड का भागी होगा। यदि किसी ने जानबूझ कर ऐसा किया है तो उसे नियमानुसार दण्डित किया जा सकता है, न कि उस धन को वापिस न देने की सलाह देकर दबंगों से द्वन्द की सलाह देनी चाहिए।
इसी अवसर पर उन्होंने अपने विरोधियों के आरोपों का उत्तर देने के बजाय अपने गैर जिम्मेवार होने का प्रमाण यह कहते हुए दिया कि मेरा कोई क्या बिगाड़ सकता है मैं तो फकीर हूं, अपना थैला लेकर चल पड़ूंगा। किसी देश के जिम्मेवार पद पर पहुँचने के बाद क्या ऐसी वापिसी सम्भव है? यदि युद्ध के समय कोई सैनिक अपनी नौकरी छोड़ कर जाने लगे तो क्या उसे जाने दिया जा सकता है। स्मरणीय है कि राजीव गाँधी की हत्या के बाद बहुत सारे काँग्रेसजनों ने सोनिया गाँधी को काँग्रेस की कमान सम्हालने का आग्रह किया था किंतु उन्होंने दस साल तक इस जिम्मेवारी को लेने से इंकार किया पर एक बार जिम्मेवारी लेने के बाद आये अनेक संकटों के बाद भी पीछे नहीं हटीं। इसी तरह मनमोहन सिंह जो स्वभाव से एक ब्यूरोक्रेट हैं, ने प्रधानमंत्री पद की जिम्मेवारी सौंप दिये जीने के बाद उसे पूरी ईमानदारी और जिम्मेवारी से निभाया व गठबन्धन के दबावों और विपक्षियों की आलोचना के परिणाम स्वरूप जन्मी विपरीत परिस्तिथियों में भी पीछे नहीं हटे, भले ही उनकी गैर जिम्मेवार आलोचना भी की गई।
श्री नरेन्द्र मोदी एक लोकप्रिय वक्ता हैं किंतु यह लोकप्रियता आज के कवि सम्मेलनों के चुटकलेबाज कवियों की लोकप्रियता जैसी शैली के कारण है। किंतु जब उक्त शैली में प्रधानमंत्री पद के साथ भाषण देते हैं तो वे पद की गरिमा को गिरा रहे होते हैं। उल्लेखनीय है कि गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद घटित प्रायोजित दंगों में उनकी भूमिका पर कई आरोप लगे थे और जब उस समय की उत्तेजना के प्रभाव से चुनाव को बचाने के लिए तत्कालीन चुनाव आयुक्त लिग्दोह ने चुनावों को स्थगित किया था तब श्री मोदी ने उनकी जिस भाषा में सार्वजनिक मंचों से आलोचना की थी, वह बहुत असंसदीय भाषा में थी। अपनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के लिए विख्यात उस अधिकारी पर साम्प्रदायिक आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा था कि शायद वे सोनिया गाँधी से चर्च में मिलते होंगे। स्वयं सोनिया गाँधी पर आरोप लगाते हुए उन्होंने उनके विदेशी मूल पर सवाल उठाने के लिए जर्सी गाय जैसी उपमा का प्रयोग किया था। इसी दौरान मुसलमानों के खिलाफ बोलते हुए उन्होंने पाँच बीबियां पच्चीस बच्चे जैसा जुमला उछाला था। गुजरात के नरसंहार की पक्षधरता करते हुए उन्होंने क्रिया की प्रतिक्रिया जैसा बयान भी दिया था, क्योंकि उनकी भाषा ही यही रही है।
गुजरात नरसंहार पर अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा राजधर्म के पालन का बयान देने के बाद उनसे उम्मीद की गई थी कि वे केवल सुशासन पर ध्यान देंगे। संयोग से उसके बाद उनके सामने कोई कठिन चुनौती नहीं आयी इसलिए बयान चर्चा में नहीं रहे, जब तक कि उन्हें प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित नहीं कर दिया गया। लोकसभा चुनावों के दौरान उन्होंने विदेशी मीडिया को दिये इकलौते साक्षात्कार के बाद चुनावी तिथि से ठीक पहले दिये कुछ फिक्स साक्षात्कारों को छोड़ कर कोई साक्षात्कार नहीं दिया। उक्त इकलौते साक्षात्कार में उन्होंने 2002 के दंगों की हिंसा में मारे गये लोगों की तुलना कुत्ते के पिल्ले से कर दी थी।
माना जाता है कि जब वे सहज होकर बोलते हैं तो भाषा और प्रतीकों में आदर्श मानकों से डिग जाते हैं। पिछले दिनों उन्होंने आमसभाओं में जो कहा उसका नमूना देखिए-
·         अगर में सौ दिन में काला धन नहीं लाया तो मुझे फाँसी पर चढा देना
·         मैं इतना बुरा था तो मुझे थप्पड़ मार लेते
·         अगर मैं वादा तोड़ूं तो मुझे लात मार देना
·         दलितों को कुछ मत कहो चाहे मुझे गोली मार दो
·         अगर पचास दिन में सब ठीक नहीं किया तो मुझे ज़िन्दा जला देना
नोटबन्दी के लिए जो कारण गिनाये गये थे उनमें से कोई भी पूरा होता दिखाई नहीं दे रहा है तथा समर्थक वर्ग में उनकी छवि खराब हो चुकी है। वे देश के महत्वपूर्ण पद पर हैं और पार्टी व गठबन्धन में उन्हें कोई चुनौती देने का साहस नहीं कर पा रहा है।
   पाकिस्तानी सीमा पर हो रही गोलीबारी, और तथा गुर्जर, जाट, पटेल, मराठाओं के आन्दोलनों व उन आन्दोलनों के प्रति सरकार का रवैया देखते हुए कहा जा सकता है कि देश के लिए यह कठिन समय है।    
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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