शुक्रवार, जनवरी 24, 2014

कुमार विश्वास प्रसंग और मंच के कवियों का मूल्यांकन

कुमार विश्वास प्रसंग और मंच के कवियों का मूल्यांकन
वीरेन्द्र जैन
       जब साठ के दशक में चीन के साथ सीमा पर विवाद हुआ तब जनता में राष्ट्रभक्ति और देश प्रेम की भावना को प्रोत्साहित करने के लिए बड़े पैमाने पर कवि सम्मेलन आयोजित किये गये थे। उस दौर से हिन्दी की गीत कविता के सरल सहज रूप का तेजी से विकास हुआ। इन कवि सम्मेलनों से कवियों को मार्गव्यय व स्वागत सत्कार के अलावा कुछ पारश्रमिक मिलना भी प्रारम्भ हो गया था जिसका परिणाम यह हुआ कि यश के साथ धन के आकांक्षी अनेक लोग हिन्दी कविता के इस उद्यम से जुड़ने लगे। इस घटना विकास ने हिन्दी साहित्य के महारथियों को  सीधे सीधे दो भागों में बाँट दिया और मंच के कवि दोयम दर्जे के साहित्यकार माने जाने लगे। बच्चन जी के बाद मंच पर जाने वालों और मंच के अनुकूल रचनाएं लिखने वालों को कवि की जगह कलाकार माना जाने लगा जिनसे अपने श्रोता और दर्शक समुदाय को संतुष्ट करने वाली कविताएं सुनाने की अपेक्षा की जाती थी। यह एक वाचिक परम्परा थी इसलिए स्पष्ट व शुद्ध उच्चारण के साथ कविता गायन ही नहीं उसकी वेषभूषा भी कवि को विशिष्ट बनाती थी। इन मंच के कवियों ने अपनी गीत कविता के अनुरूप कविता वाचन की अनेक शैलियां विकसित कीं। मंच की कविता के श्रोताओं में समझ और संवेदना के कई स्तरों के लोग बैठे होते थे और कवि के लिए जरूरी होता था कि वह ऐसी सतही संवेदना का समावेश करे जिसे ग्रहण करने में अधिक बुद्धि की जरूरत नहीं होती। यही कारण रहा कि इन कविताओं में सतही श्रंगार, भावुक वीरता, व सहज हास्य की कविताएं चल पड़ीं। इनसे ऊब कर साहित्यिक रुचि वाले सुधी श्रोताओं ने भी मंचीय कविता से दूरी बना ली और मंच की कविता के श्रोता और कलाकार कवि एक ही स्तर के हो गये। इन मनोरंजक कार्यक्रमों में नवधनाड्य लोगों ने भी रुचि ली और वे अपनी पसन्द के इन कवि-कलाकारों को अधिक पारश्रमिक देकर बुलवाने लगे। सेठों की तौंदों को गुदगुदाने और क्षणिक मादकता पैदा करने वाली कथित कविता ऊंचे दामों पर बिकने लगी तो उसका उत्पादन भी भरपूर होने लगा व प्रतिद्वन्दता भी बड़ने लगी। भारी पारश्रमिक के साथ कवि हवाई जहाज में यात्रा करने और अच्छे होटलों में रुकने लगे व अभिजात्य वर्ग के क्लबों में अपनी प्रस्तुतियां देने लगे जिससे उनके सम्पर्क समाज के सम्पन्न वर्ग के साथ हो गये। दूसरी ओर गम्भीर साहित्य के समीक्षकों ने मंचीय कवियों को साहित्य के इतिहास में कोई स्थान नहीं दिया, पाठ्यक्रमों से उन्हें दूर रखा व वे साहित्यिक पत्रिकाओं तक में प्रकाशित होने से वंचित रहे।
       नाम, नामा, और उच्चवर्ग से निरंतर सम्पर्क कुछ लोगों में इतनी महात्वाकांक्षाएं जगा देता है कि वे भ्रमित हो जाते हैं और बहुत जल्दी अपनी क्षमता से अधिक पा लेना चाहते हैं। कुमार विश्वास भी ऐसे ही लोगों में से एक हैं। वे मंच के एक सफल कवि-कलाकार थे जो किशोर वर्ग के युवाओं या उम्रदराज किशोरों में लोकप्रिय थे और इसी लोकप्रियता की सीढियां चढते हुए वे एक कविसम्मेलन का पारश्रमिक एक लाख के आस पास तक माँगने लगे थे। अन्ना आन्दोलन को मिली लोकप्रियता के रथ पर सवार होकर वे अपने कविता व्यवसाय की सफलता को और बढाना चाहते थे कि इस बीच घटे घटनाक्रम में वे अरविन्द केजरीवाल के अधिक निकट हो गये और दिल्ली विधानसभा में केजरीवाल की पार्टी की जीत ने उन्हें देश की सबसे बड़ी पार्टी के अघोषित प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी राहुल गान्धी के विरुद्ध खड़े होने की घोषणा करने को उत्साहित कर दिया। इसके साथ वे दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी को भी उसी क्षेत्र से चुनाव लड़ने की चुनौती देने लगे। कहा जाता है सूप बोले तो बोले पर छलनी क्या बोले जिसमें सौ छेद, सो कुमार विश्वास को उनके कद का अहसास कराने के प्रयास शुरू हो गये। कवि सम्मेलनों के मंच पर लुत्फगोई के अन्दाज़ में की गयी उनकी टिप्पणियों को यूट्यूब पर देखा गया व उसके आधार पर उनके द्वारा केरल के रंगरूप पर की गयी खराब टिप्पणियों और दलितों को मिले आरक्षण पर की गयी टिप्पणियों के आधार पर उनकी वैचारिक पहचान की गयी। केरल में नर्सों के संगठन ने विरोध प्रदर्शन किया व उनसे माफी मांगने की मांग रखी। किसी कलाकार द्वारा अभिनीत कुछ भूमिकाएं भी उस कलाकार के व्यक्तित्व की पहचान बन जाती हैं। रामायण में दीपिका चिखलिया द्वारा की गयी सीता की भूमिका उन जैसी गैरराजनीतिक अभिनेत्री को संसद सदस्य चुनवा देती है। अपने बचाव में कुमार विश्वास को वह सच बोलना पड़ा जिसे मंच के कवि अब तक छुपाते आ रहे थे और गम्भीर साहित्य के क्षेत्र में अपनी उपेक्षा को ईर्षा बतला रहे थे। उन्होंने कहा कि मंच पर वर्षों पूर्व निर्वाह की गयी भूमिका के लिए क्या किसी कलाकार को सजा दी जा सकती है जैसे कि ‘इंसाफ का तराजू’ फिल्म में निभाये गये बलात्कारी की भूमिका के लिए राज बब्बर को सजा नहीं दी सकती, उसी तरह मंच पर की गयी उनकी भूमिका को उनका विचार नहीं माना जा सकता। इस तरह उनका तर्क इस बात की पुष्टि करता है कि मंच के कवियों की कविता में उनका विचार नहीं होता अपितु वह क्षणिक मनोरंजन भर होता है व उसके लिए उन्हें दण्डित नहीं किया जा सकता। इसी तर्क के आधार पर उन्हें पुरस्कृत न किया जाना भी ठीक लगने लगता है।
       कुमार विश्वास के नाम से जाने जाने वाले विकास कुमार शर्मा के कथन से यदि यह तय होता है कि वे कविता के मंच पर केवल भूमिकाओं का ही निर्वहन करते हैं तो वे यह स्पष्ट क्यों नहीं करते कि आप पार्टी में उनकी सक्रियता को उनकी भूमिका ही क्यों न समझा जाये। इस पार्टी के उदय से पूर्व उनकी राजनीतिक सक्रियता और राजनीतिक विचारधारा के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं और देश के सबसे बड़े पद के सम्भावित उम्मीदवार के खिलाफ अपनी उम्मीदवारी घोषित करने के लिए उनके पास एक लोकप्रिय मंचीय कवि-कलाकार होने के अलावा क्या पात्रता है? वे पिछले दिनों बाबा रामदेव की राजनीतिक महात्वाकांक्षा और उनकी व्यावसायिक कमियों से उत्पन्न विसंगतियों के साक्षी रहे हैं। राजनीति में काँच के मकानों में रह कर दूसरों के घरों पर पत्थर फेंकने वालों के साथ यह होना अस्वाभाविक नहीं है। उल्लेखनीय है कि 1969 में [कुमार विश्वास के जन्म से एक वर्ष पूर्व] जब जगजीवन राम ने कांग्रेस के विभाजन के समय श्रीमती इन्दिरा गान्धी की नई कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की थी तो मंत्रिमण्डल से बाहर किये गये मोरारजी देसाई ने याद दिला दिया था कि उन्होंने पिछले दस सालों से टैक्स नहीं भरा है। राजनीति में आने वालों को अपनी पिछली भूलों का प्रायश्चित करने में संकोच नहीं करना चाहिए तब ही उनकी भूलें अपराध की परिभाषा से बाहर आ सकती हैं।                 
वीरेन्द्र जैन
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केजरीवाल की तेजी कहीं उम्मीद की भ्रूणहत्या न कर दे

केजरीवाल की तेजी कहीं उम्मीद की भ्रूणहत्या न कर दे
वीरेन्द्र जैन
       अरविन्द केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी आज एक व्यक्ति या पार्टी का नाम नहीं अपितु एक उस  उम्मीद का नाम है जो लम्बे समय से छले जाते नाउम्मीद लोगों ने एक बार फिर से बाँधी है। राजतंत्र से निकल कर आये देश ने लोकतंत्र का अर्थ अपने शासक के चयन का अधिकार समझा और पुराने राजा की जगह अपनी पसन्द का ‘राजा’ चुनने लगे, व समय समय पर उन्हें बदल कर देखने लगे, जबकि लोकतंत्र में जनता की भूमिका को बदलना चाहिए था, जो यथावत प्रजा बनी रही। समय समय पर निराशा की अवस्था में जनता ने कभी समाजवाद और गरीबी हटाओ वाली नई कांग्रेस से, सम्पूर्ण क्रांति का नारा देने वाले जय प्रकाश नारायण से, तो कभी स्वच्छ सरकार और रोजगार का अधिकार देने का वादा करने वाले वीपी सिंह से उम्मीदें बाँधी थीं पर यथास्थिति ने उनके प्रयासों को अपने में वैसे ही समाहित कर लिया जैसे कि कुछ हलचल के बाद कबीर नानक जैसे भक्त कवियों और आर्यसमाज व रामकृष्ण मिशन जैसे सामाजिक आन्दोलनों को पचा लिया गया था।
        बताया जाता है कि आम आदमी पार्टी के कनाट प्लेस स्थित कार्यालय में डेड़ सौ से अधिक आईटी प्रशिक्षित कर्मचारी मनोयोग से काम करते हुये सभी उपयोगी जानकारी एकत्रित करते हैं और नीतियां व कार्यक्रम बनाते हैं जिनमें मीडिया से लेकर राजनीतिक और प्रशासनिक आवश्यक सूचनाओं का भंडार रहता है। यही कारण है कि अरविन्द केजरीवाल को मात्र एक युवा उत्साही, हवाई आदर्शवादी, या नौसिखिया राजनीतिज्ञ भर नहीं समझा जा सकता। कोई उन्हें किताबी राजनीतिज्ञ कह कर भले ही अवमूल्यित करने की कोशिश करे किंतु आईआईटी से निकले इस व्यक्ति ने इनकम टैक्स कमिश्नर, आरटीआई एक्टिविस्ट के रूप में मैगसेसे पुरस्कार विजेता, अन्ना के आन्दोलन के सूत्रधार और फिर उचित अवसर देख कर एक राजनीतिक पार्टी के गठन, विधानसभा चुनाव में सफल भागीदारी और फिर दिल्ली में सरकार बनाने तक की सीढियां क्रमशः चढी हैं। अब यह साफ है कि अन्ना हजारे केवल एक गान्धी टोपीधारी, स्वच्छ छवि, अनशन विशेषज्ञ मुखौटे के रूप में चुने गये थे जिन्होंने अपने गाँव और प्रदेश में समाज सुधार के कुछ महत्वपूर्ण काम किये थे। अनुभव को ऊर्जा से अधिक महत्व देने वाले हमारे समाज में उनकी छवि एक बुजुर्ग नेतृत्व के रूप में प्रभावकारी तो थी किंतु जनलोकपाल आन्दोलन का सारा संचालन केजरीवाल मित्र मण्डल के पास ही था।
       यह आन्दोलन जानसमझ कर चलाया गया कि लोकपाल विधेयक का विचार दशकों से लम्बित है और कई बार सरकारें बदलने के बाद भी इसे पास नहीं किया गया क्योंकि ऐसा करना अनेक शासकों, प्रशासकों के पक्ष में नहीं है। विसंगति यह थी कि इसके महत्व से कोई इंकार ही नहीं कर सकता था इसलिए इस विधेयक में भांजी मारने वाले राजनेता भी मौखिक रूप से इसकी पक्षधरता करते नजर आते थे। राजनेताओं का यही दोहरापन इस आन्दोलन की जान था क्योंकि इसके स्वरूप पर मतभेद रखने के बहाने जो इसे पास ही नहीं होने देना चाहते थे वे इसका खुला विरोध नहीं कर पा रहे थे। केजरीवाल ने सोचे समझे ढंग से इसे गैरराजनीतिक रखा और हर आन्दोलन को हड़पने का प्रयास करने वाले संघ परिवार से परोक्ष मदद लेकर भी सार्वजनिक रूप से उसके नेताओं को मंच पर नहीं चढने दिया व उमा भारती, रामदेव आदि को कार्यकर्ताओं ने खदेड़ दिया था भले ही बाद में अन्ना हजारे ने पत्र लिख कर खेद व्यक्त कर दिया हो। स्वामी अग्निवेश जैसे लोगों पर आन्दोलनकारियों ने सतर्क निगाह रखी और उनके फोन का वीडियो बना कर उसे सार्वजनिक कर दिया जिसके बाद वे लम्बे समय तक सार्वजनिक मंचों पर नहीं दिख सके। रामदेव ने अपना अलग मंच बना कर अपनी जो फजीहत करायी तो उसके बाद अनेक सरकारी विभागों का ध्यान उनके संस्थानों की ओर गया और जाँच के बाद कर चोरी के अनेक प्रकरण सामने आये। उनके गुरु के गायब होने की जाँच भी उन्हें सन्देह के घेरे में ले गयी जिससे उबरने के लिए उन्हें भाजपा का शरणागत होकर मोदी की अन्धभक्ति में ही बचाव का रास्ता दिखायी दिया। इसी दौरान उन्होंने तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी और अम्बानी परिवार से जुड़े कुछ आर्थिक खुलासे किये।
       अन्ना हजारे बहुत ही सरल और गैरराजनीतिक व्यक्ति हैं इसलिए उन्हें यह गलतफहमी हो गयी थी कि लोकपाल का सारा आन्दोलन उनके विचार और नेतृत्व का परिणाम है जब कि यह सच नहीं था। आन्दोलन के दबाव में जब सरकार लोकपाल विधेयक लायी तो केजरीवाल ने उसे कमजोर विधेयक बता कर उसका विरोध किया ताकि आन्दोलन ज़िन्दा रहे। इस पर स्वाभाविक रूप से संसद के पक्ष और विपक्ष द्वारा यह कहा गया कि कानून बनाने का अधिकार संसद का होता है और अपनी पसन्द का विधेयक लाने के लिए आन्दोलनकारियों को चुनाव का सामना करते हुए संसद में पहुँच कर अपना विधेयक लाना होगा। यह सलाह उन्हें राजनीतिक दल बनाने का नैतिक आधार देती थी इसलिए उन्होंने राजनीतिक दल बनाने की मजबूरी दर्शाते हुये आम आदमी पार्टी की नींव रख ली और इस विचार से असहमत अन्ना हजारे के मुखौटे से मुक्ति पा ली। आन्दोलन का शेष बचा समर्थन भी केजरीवाल ने अपना लिया। यूपीए गठबन्धन के मंत्रियों के भ्रष्टाचार के खुलासे और मँहगाई के कारण जो लोग कांग्रेस से नाराज थे वही लोग भाजपा की राज्य सरकारों के भ्रष्टाचार और कुप्रशासन से भी नाराज थे ऐसे में एक भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल के लिए आन्दोलन करने वाली तीसरी बेदाग अछूती पार्टी की ओर उम्मीद से देखा जाना स्वाभाविक ही था। आम आदमी पार्टी ने अपना पहला चुनाव केवल दिल्ली विधानसभा के लिए लड़ने की समझदारी दिखायी जबकि उसी समय पाँच विधान सभाओं के चुनाव हो रहे थे। वे जानते थे कि दिल्ली में राजनीतिक वोट अधिक है जबकि पिछड़े राज्यों में जाति, धर्म, क्षेत्र,  धन और भय के प्रभाव से पड़ने वाले वोट राजनीतिक आधार पर दिये गये वोटों को निर्मूल कर देते हैं और यही कारण है कि वामपंथी यहाँ कभी सफल नहीं हो सके। दिल्ली में 28 विधान सभा सीटों की विजय के बाद उनका राजनीतिक पक्ष पूरे देश में चर्चा का विषय बना जबकि 350 से अधिक सीटों पर जीतने वाली भाजपा की जीत का राजनीतिक मूल्यांकन नहीं हुआ। दिल्ली में उन्होंने प्राप्त किये 29 प्रतिशत वोटों में साढे ग्यारह प्रतिशत मत कांग्रेस के व ढाई प्रतिशत मत भाजपा के मतों में से जुटाये। आम आदमी पार्टी ने दक्षिण और वाम दोनों से ही दूर रहने की नीति अपनायी ताकि किसी की पक्षधरता का नुकसान दूसरी ओर से न उठाना पड़े। रहन सहन, सादगी, संघर्ष और ईमानदारी में वे वामपंथियों जैसे दिखे तो नई आर्थिक नीतियों में वे दक्षिणपंथियों के पक्ष में खड़े हुये। भाजपा और कांग्रेस दोनों से ही उन्होंने सरकार बनाने के लिए सहयोग न लेने का संकल्प दुहराया और खुद मांगी भी नहीं। कांग्रेस द्वारा स्वयं दिये सहयोग को स्वीकारने से पहले दूसरे चुनाव खर्च से बचने के नाम पर जनता से पूछने का विकल्प दिया। लालबत्ती की गाड़ी न लेने, बड़े बंगले न लेने, कम वेतन लेने, के साथ साथ उन्होंने रामलीला मैदान में शपथ लेने का प्रदर्शन किया व शपथ के बाद जो गाना गाया उसके बोल थे- इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही पैगाम हमारा। यह गाना साम्प्रदायिक सद्भाव वाला फिल्मी गाना है जिसके बोल साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वाली भाजपा को लक्ष्य बनाते हैं। बाद में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के नाम पर पुलिस और केन्द्र सरकार से टकराव लिया और कांग्रेस से दूरी का संकेत भी दिया। इसके लिए धरना स्थल का चुनाव भी वह स्थान रखा जहाँ देश के सबसे बड़े पर्व का आयोजन होना था और मीडिया समेत देश भर से लोग जुटने वाले थे।            
       आगामी लोकसभा चुनाव के लिए तैयारी में जुटी आम आदमी पार्टी के सबसे प्रमुख सहयोगी गैर सरकारी संगठन हैं जिनकी संख्या देश के प्राथमिक स्कूलों से भी अधिक है और जो देशव्यापी हैं। सदस्यता अभियान सब के लिए खुला और निःशुल्क है व उसके बहाने लाखों लोगों के मोबाइल नम्बर प्राप्त कर लिये गये हैं और उम्मीदवारी के लिए भी एक हजार लोगों के पते व मोबाइल नम्बरों सहित जनप्रस्ताव की शर्त रखी गयी है, जिससे बड़ी संख्या में लोगों के साथ एसएमएस सम्पर्क की सुविधा स्थापित हो गयी है, यह नई तकनीक का उपयोग है। उग्र वामपंथ के कुछ संगठनों की सहानिभूति भी इस पार्टी के साथ है जो  प्राथमिक रूप से व्यवस्था विरोधी प्रतीत होती है। प्रशासनिक भ्रष्टाचार और राजनेताओं की सादगी मध्यमवर्ग को खूब भाती है। अपनी जीत के लिए बार बार भगवान, खुदा और वाहेगुरु का आभारी होना धार्मिक लोगों को लुभाता है। सब मिला कर यह पार्टी एक शोले जैसी फिल्म है जिसमें सारे फिल्मी मसाले डाल दिये गये हैं।
       इतने सारे कोणों से काम करने वाला व्यक्ति सीधा सरल दिख सकता है, हो नहीं सकता। उसने मध्यमवर्ग में उम्मीदों के जीएम बीज बोये हैं और वह फसल काटने की बहुत जल्दी में प्रतीत होता है। यह फसल स्वास्थ के लिए कैसी होगी यह भविष्य के गर्त में है।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, जनवरी 09, 2014

घोषित पीएम पद प्रत्याशी का अघोषित चुनाव क्षेत्र

घोषित पीएम पद प्रत्याशी का अघोषित चुनाव क्षेत्र 

वीरेन्द्र जैन
       भले ही उस पर भाजपा में घमासान मच चुका हो किंतु उन्होंने अपना प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बहुत पहले से ही घोषित करके छोड़ दिया था, और कहीं नकली लालकिला और कहीं नकली संसद का मंच बनवा कर हुंकार, ललकार रैलियां करवाने लगे थे। जब दो दिन पहले राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जैटली यह कहते हुये पाये गये थे कि भाजपा में प्रधानमंत्री पद के दस से अधिक लोग योग्य हैं, वही जैटली दो दिन बाद कहने लगे थे कि यदि भाजपा को हिट विकेट होने से बचना है तो मोदी को तुरंत ही प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित करना चाहिए। उल्लेखनीय है कि श्री नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका से तीन महीने का पब्लिक रिलेशन और इमेज मैनेजमेंट का कोर्स किया हुआ है और अपनी इमेज निर्मित कराने के लिए उन्हें देश के सबसे मँहगे वकील राम जेठमलानी की सेवायें पहले से ही मिले हुयी थीं बाद में एकदम से अरुण जैटली भी उनके पक्ष में कूद पड़े थे और उन्होंने मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित करवा दिया था।
       हमारे देश में चुनाव के पूर्व प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित किये जाने की परम्परा नहीं रही है क्योंकि चुनाव के बाद बहुमत में आने वाले दल या गठबन्धन के नेता का चुनाव होता है जिसे ही राष्ट्रपति प्रधानमंत्री नियुक्त करते हैं। गत दो दशकों से देश में गठबन्धन सरकारों का दौर चल रहा है और ये गठबन्धन आम तौर पर चुनाव के बाद ही अपना सही स्वरूप ग्रहण कर पाते हैं। इन गठबन्धनों में सम्मलित होने वाले विभिन्न दल अपने अपने घोषणा पत्रों के अनुसार अपनी शर्तें रखते हैं व नेता के चयन में भी उनकी भूमिका उनके दल के कार्यक्रम के अनुसार होती है। स्मरणीय है कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जब एनडीए की सरकार बनी थी तब भाजपा को राममन्दिर, समान आचार संहिता, व धारा 370 की समाप्ति जैसी प्रमुख मांगों को वापिस लेना पडा था तथा गठबन्धन को बाहर से समर्थन देने वाली तेलगुदेशम ने केवल अटल बिहारी के नेतृत्व में सरकार बनने पर ही समर्थन देने की शर्त रखी थी। वी पी सिंह की सरकार बनते समय भी बड़ा ड्रामा हुआ जब देवीलाल को नेता चुना गया था और उन्होंने अपनी टोपी उन्हें पहना दी थी। उसी दौरान वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाये जाने का चन्द्रशेखर द्वारा विरोध करने पर राम जेठमलानी ने उनके घर के बाहर धरना दे दिया था व उनके समर्थकों ने उनसे हाथापाई की थी जिसमें इस प्रसिद्ध वकील के कपड़े तक फट गये थे। यूपीए-एक के समय जब कांग्रेस के सांसदों ने सर्वसम्मति से श्रीमती सोनिया गान्धी को अपना नेता चुन लिया था तब उन्होंने अपना ताज श्री मनमोहन सिंह को सौंप दिया था। अब भी कोई दल बिना दूसरे दलों से गठबन्धन किये सरकार नहीं बना सकता इसलिए गठबन्धन सरकारों के युग में चुनाव के पूर्व नेता घोषित कर देना अव्यवहारिक है। यदि यह मान भी लिया जाये कि भाजपा बिना किसी गठबन्धन के सरकार बना लेने के आत्मविश्वास का प्रभाव मतदाताओं पर छोड़ने की कूटनीति अपना रही है तो उन्हें साथ ही साथ लोकसभा के प्रत्याशियों की सूची भी जारी करना चाहिये थी और उन प्रत्याशियों द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से नेता का चुनाव करवाना चाहिये था। लोकसभा में दल के नेता पर मुहर भले ही हाईकमान लगाता हो किंतु उसे चुनने का अधिकार तो प्रतिनिधियों का ही होता है। अडवाणी समर्थक यह मानते हैं कि मोदी को ऐसा प्रत्याशी घोषित करने का कदम सैद्धांतिक रूप से अलोकतांत्रिक है, जिसका एक नुकसान तो जेडी-यू के साथ गठबन्धन भंग होने और बिहार में सरकार से बाहर होने के रूप में हो ही चुका है।
       जिस व्यक्ति को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित कर दिया है और तब से ही लगातार देश भर में उसकी आमसभाएं व रैलियां आयोजित करवायी जा रही हैं उसका चुनाव क्षेत्र अभी तक घोषित नहीं किया है। यह कैसी विडम्बना है कि जिसको प्रधानमंत्री चुनवाने के लिए देश भर में घुमाया जा रहा हो उसके लिए कोई चुनाव क्षेत्र ही निर्धारित न किया जा पा रहा हो। दिल्ली में भाजपा द्वारा सरकार बना सकने में असमर्थ रहने और आम आदमी पार्टी के तेज उभार व आकर्षण से मोदी के चुनाव क्षेत्र का चयन और मुश्किल हो गया है। आम आदमी पार्टी, पार्टी से अधिक एक आन्दोलन है और उसका लक्ष्य लगभग सभी स्थापित राजनीतिक दलों को बेनकाब करना है। वे भाजपा के विपरीत सत्ता की अन्धी वासना से दूर हैं और नुकसान पहुँचाने की क्षमता रखते हैं। आम आदमी पार्टी के कारण ही भाजपा की दिल्ली सरकार नहीं बन सकी। उसके नेता अरविन्द केजरीवाल ने अभी घोषित किया हुआ है कि वे लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे किंतु राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो चुके केजरीवाल नरेन्द्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे भले ही वे देश में कहीं से भी चुनाव लड़ें । इसका उन्हें राजनीतिक लाभ मिलेगा। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल गुजरात के मुख्यमन्त्री मोदी को मुख्यमंत्री पद से स्तीफा देने के बाद चुनाव लड़ने की चुनौती भी दे सकते हैं, इससे केजरीवाल का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा पर गुजरात में नेतृत्व का संकट खड़ा हो जायेगा।
       एक बोधकथा कहती है कि एक बार एक गाँव में सूखा पड़ा तो गाँव के सारे लोग मिलकर पास के चर्च के पादरी के पास गये। उस पादरी ने रविवार को सारे गाँव वालों से एकत्रित होने के लिए कहा ताकि बरसात के लिए प्रभु से सामूहिक प्रार्थना की जाये। अगले रविवार को पूरे गाँव वाले एकत्रित हो गये तो पादरी ने पूछा कि किस किस को प्रार्थना के बाद बरसात होने का भरोसा है? उत्तर में सबने हाथ उठा दिये। फिर पादरी ने हँसते हुये पूछा- तो फिर आप लोगों के छाते कहाँ हैं? उस प्रार्थना सभा में आया कोई भी व्यक्ति छाता लेकर नहीं आया था। यदि भाजपा और मोदी को अपनी जीत का भरोसा होता तो प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित होते ही गुजरात मुख्यमंत्री पद से स्तीफा दे दिया होता।
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, जनवरी 05, 2014

मोदी के गुब्बारे में झाड़ू की सींक

मोदी के गुब्बारे में झाड़ू की सींक
वीरेन्द्र जैन

       पाँच राज्यों में हो चुके विधानसभा चुनावों के बाद देश लोकसभा चुनाव के लिए तैयार हो रहा है और दिल्ली विधानसभा के परिणामों में आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता ने बहुत सारे समीकरण उलट दिये हैं।
       2004 के आम चुनावों में भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन की पराजय के बाद सत्ता से दूर हुयी भाजपा लगातार विक्षिप्तों जैसी हरकतें करती रही है और ऎन केन प्रकारेण सत्ता हथियाने के लिए अलोकतांत्रिक ढंग से हाथ पैर मारती रही है। जब 2009 के आम चुनाव में भी सत्ता उनके हाथ नहीं आयी तो उनकी बौखलाहट अपनी सारी हदें पार कर गयी। उल्लेखनीय है कि 2004 में यूपीए की पहली सरकार बनी तो उसे बाम मोर्चे का समर्थन प्राप्त करना पड़ा था। बाम मोर्चा की यह नीति रही है कि उसने जब भी किसी गठबन्धन को समर्थन दिया है तो वह सरकार में शामिल हुए बिना बाहर रह कर ही दिया है। वे ऐसी किसी सरकार में सम्मलित नहीं होते हैं जो पूरी तरह से उनके कार्यक्रम पर कार्य नहीं करती। बाममोर्चा अपने समर्थन से पहले न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय कर लेता है जिसके आधार पर ही अपना समर्थन जारी रखता है। यही कारण था कि भाजपा को यह भरोसा नहीं था कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली यह सरकार साझा कार्यक्रम पर अमल कर सकेगी और पाँच साल चल पायेगी इसलिए वे इस दौरान लगातार अपने कार्यकर्ताओं को मध्यावधि चुनावों हेतु तैयार रहने के लिए कहते रहे। दूसरी ओर वे हर असहमति पर बामपंथियों को समर्थन वापिस लेने की चुनौती देते रहे। उनके दुर्भाग्यवश बामपंथियों ने गैरज़िम्मेवाराना व्यवहार नहीं किया और सरकार लगातार चार साल तक न केवल चली अपितु उसने सूचना के अधिकार को कानूनी रूप देने से लेकर मनरेगा जैसी रोजगार गारंटी देने वाली परिवर्तनकारी योजनाएं भी प्रारम्भ कीं। पाँचवें साल में न्यूनतम साझा कार्यक्रम के विपरीत अमरीका के साथ परमाणु समझौते के सवाल पर बाम मोर्चा ने समर्थन वापिस लिया तो समाजवादी पार्टी ने समर्थन देकर सरकार को अपनी अवधि तक चलने दिया और भाजपा की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। सरकार चलते रहने की खीझ में उसने भाजपा ने संख्या बल के आधार पर संसद को न चलने देने की नीति अपनायी व दोनों कार्यकाल में उसकी कार्यवाही को निरंतर स्थगित कराते रहे। इस दौरान औसत बैठकों की संख्या 127 से घटकर 73 दिन रह गयी। जो सदन कभी 118 तक विधेयक पास करने का रिकार्ड बना चुके थे वे अब 18 विधेयकों तक सीमित हो गये। सदन में शोर गुल करके गर्भगृह तक आकर नारे लगाने का दृश्य आम हो गया।     
       दूसरे कार्यकाल में बामपंथियों के सहयोग की जरूरत नहीं पड़ी किंतु उनके जिम्मेवारीपूर्ण नियंत्रण के हटने से सरकार में शामिल गठबन्धन के सहयोगी दलों ने न केवल अपनी पसन्द के मंत्रालय ही चुने अपितु उन मंत्रालयों में मनमानी भी की जिसका रोग गठबन्धन के प्रमुख दल कांग्रेस के कतिपय मंत्रियों तक भी पहुँचा। भ्रष्टाचार के आरोपों का इतना असर हुआ कि सीएजी के बताये सम्भावित लाभ में कमी को भी भ्रष्टाचार मान लिया गया। भ्रष्टाचार के ये रोगाणु भाजपा शासित कर्नाटक, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में भी प्रकट हुये जिसके परिणाम स्वरूप पहले तीन राज्यों में भाजपा पराजित हो गयी, और कांग्रेस पुनः सत्तारूढ हुयी। इन चुनाव परिणामों ने भाजपा की बौखलाहट को और बढा दिया और उसने चुनाव जीतने के लिए वापिस जनसंघ वाले युग में लौटने का खतरनाक फैसला किया। आगामी आम चुनावों के लिए प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के रूप में वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण अडवाणी की जगह कट्टरता के लिए बदनाम गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का चुनाव कर लिया जिन्होंने तीसरी बार गुजरात विधानसभा चुनाव जीतकर भाजपा में रिकार्ड बना लिया था। इसके बाद वे देश भर में आम सभाएं करते हुए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बीज बोने लगे। मोदी के सहारे अपनी नैया पार लगाने की सोच रखने वाली पार्टी ने मोदी को लोकप्रिय करने के लिए न केवल विदेशी प्रचार एजेंसी का ही सहारा लिया अपितु सोशल मीडिया में हजारों नकली एकाउंट बना कर मोदी को लोकप्रिय करने व कांग्रेस के नेताओं के खिलाफ कुत्सित प्रचार करने लगे। अयोध्या के रामजन्मभूमि मन्दिर आन्दोलन की तर्ज़ पर गुजरात में स्टेच्यू आफ यूनिटी की योजना बनायी गयी जिसका आकार अमेरिका की विश्व प्रसिद्ध स्टेच्यू आफ लिबर्टी से बड़ा रखने की घोषणा हुयी। इस स्टेच्यू के लिए प्रत्येक घर से लोहा एकत्रित करने की योजना उसी तरह बनायी गयी जैसी की प्रत्येक घर से ईँटें एकत्रित करने के बहाने देश भर में प्रचार और सर्वेक्षण का काम किया गया था। इसके विपरीत अपनी गुरुता, वरिष्ठता, गम्भीरता और सत्ता जनित आलस्य के वशीभूत कांग्रेस ने उनके किसी अभियान का उत्तर नहीं दिया, और न ही प्रतियोगिता में उतरे। इतना ही नहीं उसने अपना प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी तक घोषित नहीं किया जिससे भ्रम की स्थिति बनी रही। इसी बीच पाँच विधानसभाओं के चुनाव हुये जिनमें से एक राज्य उन्होंने कांग्रेस से छीन लिया व दो में सत्ता बनाये रखी।
       इन विधानसभा चुनावों में मिजोरम में कांग्रेस ने अपनी सरकार बनाये रखी तो मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ में उसने मतों के प्रतिशत में वृद्धि की। राजस्थान और दिल्ली में उसका मत प्रतिशत घटा। पाँच में से तीन राज्यों में सरकार बनने का श्रेय भी मोदी के सिर बाँधने की कोशिश की कोशिश हुयी ताकि उसका लाभ चुनावों में मिले। पश्चिमी चुनाव प्रचार की तर्ज पर मोदी के मुखौटे, आम सभाओं में मोदी के नाम की तख्तियां उठाने वाले व नारे लगाने वाले दो हजार लोगों की टीम प्रत्येक सभा में भिजवायी जाने लगी। प्रैस के कुछ हिस्से को पेड न्यूज द्वारा भीड़ की अतिरंजित संख्या बताने व ऐसे फोटो प्रसारित करने के लिए तैयार किया गया जिससे भीड़ बड़ी दिखे। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए मोदी की आम सभा में उस विधायक का सम्मान भी किया गया जिसने नकली वीडियो बनाकर मुज़फ्फरनगर में दंगा भड़काने में मुख्य भूमिका अदा की थी और जिसे उसके लिए गिरफ्तार किया गया था। मोदी की आम सभाओं की कुर्सियां तक नीलाम होना प्रायोजित किया गया जिससे लोगों में उनके प्रति दीवानगी का भ्रम बने। ऐसा भ्रम बना भी और नई सूचना तकनीक व प्रबन्धन को कैरियर बनाने वाली युवा पीढी प्रभावित भी हुयी थी पर केजरीवाल के उदय ने मोदी के सारे उफान पर पानी डाल दिया।
       पुराने औद्योगिक राज्य गुजरात में औद्योगिक विकास की निरंतरता से चमत्कृत जो युवा पीढी कांग्रेस को पुराने जमाने की पार्टी मानने लगी थी और मोदी के नकली प्रचार से प्रभावित होने लगी थी उसे आयकर विभाग के कमिश्नर पद से त्यागपत्र देकर आये आईआईटी डिग्री वाले अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम की सादगी और लगन ने प्रभावित किया है। दिल्ली में कांग्रेस की एंटी इनकम्बेंसी और बढती मँहगाई के आधार पर जो भाजपा अपनी जीत के प्रति आश्वस्त थी उसके ढाई प्रतिशत मत घट गये हैं। यह तब हुआ है जब भाजपा के पक्षधर सर्वेक्षण कर्ता केजरीवाल की आप पार्टी की  उपेक्षा कर रहे थे व उसकी वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने प्रचार के अंतिम दिन लोगों से आम आदमी पार्टी को वोट देकर अपना वोट बेकार न करने की सलाह दी थी।
       चलती ट्रेन में एक व्यक्ति खिड़की पर पैर टिकाये अधलेटा गुनगुना रहा था कि अचानक उसके पाँव की चप्पल नीचे गिर जाती है तो वह बिना देर किये हुये दूसरी चप्पल भी नीचे फेंक देता है, ताकि जिसको भी मिले तो उसके काम तो आये। कांग्रेस ने आप पार्टी को समर्थन देकर ऐसी ही समझदारी दिखायी है। नितिन गडकरी और प्रभात झा के आरोप तथा भाजपा पक्ष के प्रचारकों की प्रतिक्रियाएं साफ संकेत दे रही हैं कि इस समझदारी ने भाजपा के प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी नाम के फुलाये गये गुब्बारे में झाड़ू की सींक चुभो कर फोड़ दिया है।           
वीरेन्द्र जैन
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