रविवार, फ़रवरी 20, 2011

भाजपा की कलाबाजियों से खुलती कलई


भाजपा की कलाबाजियों से खुलती कलई
वीरेन्द्र जैन
भाजपा को पिछले दो एक महीने से अपने मुद्दों में से सबसे प्रमुख मुद्दे को छोड़ देना पड़ा है और अब उसके लिए आतंकवाद देश की प्रमुख समस्या नहीं रह गयी है और ना ही कुछ दिनों से अफजल को फांसी देना ही जनता को भावनात्मक उद्वेलन और साम्प्रदायिक विभाजन के हथियार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। सभी जानते हैं कि विभिन्न एजेंसियों की जाँच और गिरफ्त में आये लोगों के मजिस्ट्रेट के सामने दिये गये इकबालिया बयानों से जो नतीजे निकल कर आ रहे हैं उनके अनुसार संघ परिवार से जुड़े लोग न केवल विभिन्न आतंकी घटनाओं के लिए जिम्मेवार ही हैं अपितु उनके द्वारा अपने ही साथियों की निर्ममता से हत्याएं भी की जाती रहीं हैं। सूत्र मिल रहे हैं कि सन्देह होने पर वे अपने ही वरिष्ठ साथियों की हत्या करने की भी योजनाएं बनाने से नहीं चूकते हैं। दूसरी ओर सत्ता में रहने पर वे न केवल खूंखार आतंकवादियों को जेल से निकाल कर कन्धार तक छोड़ने जाते हैं अपितु सौदा करके प्रतिबन्धित संगठनों के कैदियों की सजा भी माफ कर देने से नहीं चूकते। बाहर निकल कर आ रही खबरों के अनुसार वे आतंकी काम किसी क्रांतिकारिता की तरह से नहीं करते अपितु चोरों की तरह अपराध करने के बाद साधु बने घूमते हैं, और दूसरे समुदाय के लोगों पर सन्देह पैदा करने के लिए ऐसे सबूत पैदा करने की कोशिश करते हैं जिससे सन्देह उन पर हो और भ्रमित लोगों के आक्रोश को साम्प्रदायिक संघर्षों में बदला जा सके। इस तरह वे एक ओर तो देश में दंगों का वातावरण पैदा करने की कोशिश करते हैं और दूसरी ओर अपने समुदाय के लोगों को ही धोखा दे, खुद पीछे हो कर उन्हें दंगों की आग में झोंकने का षड़यंत्र रचते हैं। बम विस्फोटों के बाद साध्वी के भेष में रहने वाली महिला आतंकी अपने लोगों से पूछती है कि इतने कम लोग क्यों मरे! इससे दो बातें प्रकट होती हैं, पहली तो यह कि वे यह मानने लगे हैं कि समाज में भेदभाव पैदा करने वाली उनकी दैनिन्दन अपीलों का वांछित प्रभाव नहीं पड़ता, दूसरी यह कि वे अपने समुदाय के लोगों को भी केवल ईन्धन समझते हैं जिन्हें धोखे से झौंक कर वे सत्ता पा सकें। इसीलिए वे हिन्दुओं को बार बार कायर या सोयी हुयी कौम कह कर उकसाते हैं।
सत्ता पाने के बाद वे क्या करते हैं यह विभिन्न जाँच एजेंसियों की जाँचों और आयकर विभाग के छापों से प्रकट होता है।
भाजपा कांग्रेस की विरोधी पार्टी नहीं है अपितु सत्ता हथियाने के मामले में उसकी प्रतियोगी पार्टी है। सत्ता में आने पर वे कांग्रेस के द्वारा लागू किसी भी नीति या प्रशासनिक ढांचे में फेर बदल नहीं करना चाहते अपितु अपने हथकंडों से कांग्रेस को हटा कर वैसे ही सत्ता के सुख भोगना चाहते हैं। विपक्ष में रहते हुए वे कांग्रेस पर जो भी आरोप लगाते हैं सत्ता में आने के बाद वे उनमें से किसी की भी बात करने या जाँच कराने की स्तिथि में नहीं होते। जहाँ कहीं गलती भी होती है तो उसे भी वे इसलिए नहीं छेड़ना चाहते क्योंकि वही गलती करने के लिए ही तो वे भी सत्ता पाना चाह्ते रहे हैं। स्मरणीय है कि कांग्रेस के बाद जब जब जहाँ जहाँ भाजपा सत्ता में आयी है वहाँ आज तक पूर्व सत्ता नशीनों में से किसी को भी सता पाने के पूर्व लगाये गये आरोपों के अनुसार कोई सजा नहीं दिला सकी है।
सत्ता में आने के लिए और कांग्रेस का विकल्प बनने के लिए वे ज्यादा वोटों वाले बहुसंख्यक हिन्दू समाज को बरगलाते हैं। हमारा समाज बहुलतावादी समाज है जो सम्प्रदायिकता में भरोसा नहीं रखता इसलिए उन्हें उनके बीच अनुपस्थित साम्प्रदायिकता की भावना को कुटिल षड़यंत्रों द्वारा पैदा करना पड़ता है। साम्प्रदायिकता पैदा करने के लिए उन्हें कुछ झूठ गढने पड़ते हैं, और इतिहास को विकृत करके उसकी साम्प्रदायिक व्याख्या करना होती है। उनके द्वारा दैनिक घटनाओं में साम्प्रदायिक कोण तलाशा जाता है। पक्ष में काम आने वाले पुराणों को इतिहास की तरह प्रचारित किया जाता है और उन पुराणों पर लोक आस्था का लाभ उठाया जाता है। अपने षड़यन्त्रों को छुपाने के लिए धार्मिक आस्था और राष्ट्रवाद का मुखौटा लगाया जाता है।
ये सारे षड़यंत्र उनके अन्दर एक अपराधबोध और अपने साथी के प्रति सन्देह की भावना निरंतर बनाये रखते हैं जिससे सदा सचेत बने रहने के कारण वे हमेशा तनाव में रहते हैं। स्वय़ं पर सांस्कृतिक संगठन का मुखौटा लगाने वाले ये लोग न तो उदारता से हँस सकते हैं, न गा सकते हैं, न नाच सकते हैं। वे हमेशा एक कठोर चेहरा धारण किये रहते हैं।
संघ परिवार राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के नाम से काम करती है जिसका पूर्वनाम जनसंघ था। संघ के किसी नेता ने आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया अपितु उस दौरान देश में साम्प्रदायिकता को फैला कर आजादी के आन्दोलन की एकजुटता को कमजोर करने की कोशिश जरूर की। हमारी आजादी जो विभाजन का अभिशाप लेकर आयी थी वह इनके लिए वरदान बन गया और नवनिर्मित पाकिस्तान वाले इलाकों से जिन लोगों को अपनी जमीनें मकान और रोजगार छोड़कर आना पड़ा उनका गुस्सा और नफरत इनके विकास के लिए खाद बना। राजनीति में कांग्रेस का विकल्प बनने के लिए इनके पास इसी नफरत और विभाजन की पूंजी थी जिसका ये निरंतर विकास करते रहे हैं। अब वे ऐसे सारे काम करते हैं जिससे साम्प्रदायिकता फैल सकती हो। हाल ही में कश्मीर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने के उनके अभियान का एकमात्र उद्देश्य वहाँ बन रहे शांतिपूर्ण वातावरण को कश्मीरियों की पराजय की तरह प्रस्तुत करके खराब करना था। किसी दुर्घटना की स्तिथि में वे पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगे कराने का वातावरण बना सकते थे। उल्लेखनीय है कि एनडीए के सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी जेडी[यू] ने भी उनके इस प्रयास को पसन्द नहीं किया।
झंडारोहण के इसी कार्यक्रम को, अगर वे चाहते तो, अपने जेबी संगठन राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के माध्यम से भी करा सकते थे, जिसके द्वारा अभी उन्होंने इन्द्रेश कुमार को सजा से बचाने के नाम पर अजमेर में ख्वाजा की दरगाह पर चादर चढवाई थी। अगर राष्ट्रीय मुस्लिम मंच लाल चौक पर झंडा फहराने का यह काम करता तो साम्प्रदायिक भावना से बचा जा सकता था, पर वे खुद ही ऐसा नहीं चाहते थे। जनसंघ से लेकर भाजपा तक वे घटनाओं को व्यक्तियों के धर्म के आधार पर आंकते हैं ताकि किसी व्यक्ति के अपराधों के आधार पर पूरे समाज को अपराधी ठहरा साम्प्रदायिकता फैला सकें, वहीं दूसरी ओर वे अपने समुदाय के बड़े से बड़े अपराधी को सरंक्षण देने के प्रयास में निरंतर कुतर्कों का प्रयोग करते हैं। पुलिस ही नहीं, सीबीआई, विशेष जाँच एजेंसियां, मानव अधिकार आयोग के साथ न्याय व्यवस्था भी इनकी निन्दा के पात्र बनते हैं अगर वे इनके कारनामे उजागर करते हैं। हिन्दुओं में भी जो उनके साथ नहीं है वह गद्दार है। सारे कांग्रेसी, कम्युनिष्ट, बहुजन, और समाजवादी आदि इनके लिए गैर-हिन्दू हैं या देशद्रोही हैं। टू जी प्रकरण में हाल ही में हुयी मजेस्ट्रेटियल की जांच रिपोर्ट में गड़बड़ी का प्रारम्भ एनडीए शाशन काल में प्रारम्भ हुआ था। इसी तरह विदेश में जमा धन और भ्रष्टाचार के मामले में भी जब उनके लोगों के नाम आयेंगे तब वे येदुरप्पा या मध्य प्रदेश के मंत्रियों की तरह दाएँ बाएँ करने लगेंगे जिससे भ्रष्टाचार के खिलाफ बना जनाक्रोश निरर्थक हो जायेगा।
उनकी कलाबाजियों से उनकी कलई खुलती जा रही है, और उनसे उम्मीद बाँधने वाले लोगों का उत्साह ठंडा होता जा रहा है, जिसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि जब गत दिनों कानपुर में आयोजित इनकी रैली में बमुश्किल पाँच हजार लोग जुट सके तो इनके बड़े नेता लखनऊ से ही वापिस लौट गये।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

गुरुवार, फ़रवरी 17, 2011

राष्ट्रीय दलों से ये निराशा कहाँ ले जायेगी


राष्ट्रीय दलों से ये निराशा कहाँ ले जायेगी

वीरेन्द्र जैन
पिछले दिनों पूरे समय तक विपक्ष की जिस माँग पर सदन का सत्र नहीं चल सका था, वह गठबन्धन सरकारों की मजबूरी में फँसे लोकतंत्र की बिडम्बना का एक नमूना था। एक के बाद उद्घाटित हो रहे भ्रष्टाचार के किस्से, विदेशी बैंकों में जमा अटूट धन के आरोप, किसानों की आत्महत्याएं, साम्प्रदायिक, नक्सलवादी, आतंकवादी और अलगाववादी हिंसा आदि के कुछ ऐसे मामले हैं जो एक साथ सामने आकर सरकार को अस्थिर कर रहे हैं। इससे एक ओर तो व्यापक जन असंतोष पैदा होने की आशंका व्यक्त की जा रही है तो दूसरी ओर विभाजित विपक्ष के कारण मध्यावधि चुनाव की सम्भावनाएं भी बन सकती है। यदि मध्यावधि चुनाव के बाद भी जनादेश कमोबेश इसी तरह का बना तो देश को अपनी लोकतांत्रिक प्रणाली में कुछ बड़े सुधार करने पड़ेंगे। ऐसे में देश के राजनीतिक दलों की दशा का पुनर्परीक्षण जरूरी हो जाता है।
देश में छह राष्ट्रीय दल हैं जिनमें से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दो बड़े दल हैं। केन्द्र में सरकार बनाने की दृष्टि से इन्हें मुख्यधारा के दल कहा जाता है, और यह माना जाता है कि जब भी सरकार बनेगी उनमें इन दो दलों की भूमिका प्रमुख होगी। दुर्भाग्य से इन दोनों दलों की हालत भी ठीक नहीं चल रही जिससे देश में कभी भी संवैधानिक संकट आ सकता है।
पिछले दिनों प्रजा राज्यम पार्टी के प्रमुख तेलगु फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता चिरंजीवी को जिस मनुहार के साथ कांग्रेस में सम्मलित किया गया और उनके द्वारा सहमति देने पर कांग्रेस नेताओं के चेहरे पर जो खुशी फूटी पड़ रही थी वह इस राष्ट्रीय पार्टी की दरिद्रता को दर्शा रही थी। सोनिया गान्धी की अध्यक्षता को यह कह कर स्वीकार किया जा सकता है कि वे गुटों में बँटी कांग्रेस की इकलौती निर्विवाद नेता हैं और इंगलैंड की महारानी की तरह कांग्रेस की प्रतीकात्मक प्रमुख हैं, पर प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का मनोनयन हमारे लोकतंत्र पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। वे निर्विवाद रूप से एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अर्थशास्त्री हैं और देश के वित्त मंत्रालय के प्रमुख अधिकारी, रिजर्व बैंक के गवर्नर और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक सहित वित्त मंत्रालय के सलाहकार रह चुके हैं। स्वभाव से विनम्र और मृदुभाषी हैं, किंतु लोकतंत्र में एक अच्छा नौकरशाह होने भर से कोई जनप्रतिनिधि की कुर्सी पर बैठने का अधिकारी नहीं बन जाता। बिडम्बना यह है कि वे लोकसभा का कोई चुनाव नहीं जीत सके और स्वयं को असम का निवासी होने का वैधानिक सच बोल कर वहाँ से राज्यसभा के लिए चुन कर आते हैं। लोकतंत्र में आप जनता को कितना समझते हैं इससे ज्यादा जरूरी होता है कि जनता आप को कितना समझती है और कितना भरोसा करती है। वे योग्य हो सकते हैं और कानूनन प्रधानमंत्री पद को सुशोभित करने की पात्रता रखते हैं किंतु संविधान की मूल भावना की दृष्टिसे किसी जनता के बीच के और उसके विश्वास प्राप्त व्यक्ति को ही प्रधानमंत्री पद पर होना अधिक नैतिक होता है। ऐसा हुआ भी होता अगर देश की सबसे बड़ी पार्टी इतनी ढीली पोली नहीं होती कि उसके पास राष्ट्रीय स्तर का कोई जननेता ही न हो। इन्दिरा गान्धी पर भले ही वंश परम्परा से आने का आरोप लगता रहा है किंतु उन्होंने अपने आप को एक योग्य प्रशासक और जनप्रिय नेता साबित कर दिखाया था। पर राजीव गान्धी और सोनिया गान्धी उस गुण के धनी नहीं रहे, जिसकी पूर्ति राहुल गान्धी पूरी करने की कोशिश कर रहे हैं। राहुल गान्धी को भी कांग्रेसी एकता की दृष्टि से पार्टी के सर्व स्वीकार नेता होने के रूप में देखा जा रहा है, किंतु प्रधानमंत्री के रूप में वे अभी भी अपरिपक्व हैं। कांग्रेस के पास नेताओं की ऐसी श्रंखला है जो अपने चुनाव क्षेत्र में अपना प्रभाव रखते हैं और चुनाव जीत कर कांग्रेस को मजबूती देते हैं। किंतु यह मजबूती कांग्रेस की न होकर उसके नेताओं की मजबूती होती है।
भाजपा एक संगठित पार्टी है जिसके पास आरएसएस का मजबूत कैडर है, जो देश के मध्य और पश्चिमी राज्यों में विशेष प्रभाव रखती है। बजरंग दल से लेकर विश्व हिन्दू परिषद तक उसके पास चौंसठ संगठन है जिसके सदस्य विचार की जगह भावना के आधार पर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। उसके पास अभी आडवाणी जैसा राष्ट्रीय स्तर का नेता बचा हुआ है जिसके पास अनुभव और क्षमताएं भी हैं। किंतु भाजपा एक संकीर्ण विचारों वाली हिन्दुत्व के नाम पर वोट जुटाने वाली साम्प्रदायिक पार्टी के रूप में जानी जाती है जिसके नेता भ्रष्टाचार में कांग्रेस के कतिपय नेताओं से प्रतियोगिता करते रहते हैं। भाजपा को देश की उदार विचारों और पंथ निरपेक्षता में विश्वास करने वाली जनता पसन्द नहीं करती। भाजपा के पास अपना एक छोटा सा वोट बैंक है जो उसे सत्ता तक नहीं पहुँचा सकता इसलिए इस कमी को उसे भी लोकप्रिय फिल्मी सितारों, खिलाड़ियों, साधु भेषधारियों, पूर्वराजपरिवार के सदस्यों आदि से भरना होता है। वे भी चैनलों पर बहस के लिए वकीलों को भरती करते हैं और प्रचार के लिए पत्रकारों व अखबारों को खरीदते हैं अर्थात पेड न्यूज का सहारा लेकर अपना झूठ भी प्रचारित करा लेते हैं। उनके पास सबसे बड़ा मीडिया सैल है। वे हिन्दू वोटों को अपनी ओर करने के लिए साम्प्रदायिकता पैदा करने में गुरेज नहीं करते। कुल मिलाकर उनके पास भी एक आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था के लायक ढाँचा नहीं है, भले ही दल के रूप में कई मामलों वे कांग्रेस से आगे हों।
बहुजनसमाज पार्टी, आजादी के बाद दलितों को संवैधानिक अधिकारों के मिलने किंतु सामाजिक रूप से उन अधिकारों के न मिलने के द्वन्द से उत्पन्न पार्टी है जो आरक्षण से प्राप्त अवसर को भुना पाने में सफल हो चुके लोगों के सहयोग से एक निश्चित समर्थन जुटाने में सफल हुयी। किंतु इस पार्टी के संस्थापकों और उनके उत्तराधिकारियों का विश्वास जन से अधिक धन में रहा और वे पार्टी के विकास में धन की भूमिका से प्रभावित रहे। यही कारण रहा कि उन्होंने जुटाये हुए समर्थन का सौदा किया और विशाल कोष जुटाया। इस कोष जुटाऊ प्रवृत्ति ने एक ओर तो उन्हें उनकी मूल नीतियों से भटका दिया तो दूसरी ओर उनके दूसरे नम्बर के नेता भी टूट कर धन जुटा कर वैसी ही अलग अलग जातिवादी पार्टियाँ बनाते चले गये जिससे उन्हें नुकसान हुआ। वे अब सवर्णों के साथ समझौता करके केवल एक राज्य में सता में हैं और दूसरे राज्यों में अपना वोटों का प्रतिशत बनाये रखने के लिए सभी सीटों पर चुनाव लड़ते हैं जिसमें से कहीं कहीं दलबदल कर आया कोई नेता अपने व्यक्तिगत प्रभाव के कारण जीत भी जाता है। यह दल केवल धन से ही खिंच रहा है और सता से धन बनाने के कारखाने चला रहा है। समाज में वर्णभेद के बने रहने और सत्तालोलुप सवर्णों के समर्थन देने तक ही इसका अस्तित्व है। सत्ता से फिसलने पर इसके धन के स्त्रोत भी सूख जाएंगे और दल भी इतिहास बन जायेगा क्योंकि जिस आन्दोलन के आधार पर इसने अपनी स्थापना की थी उसे भुला दिया गया है। अब न यह जातिवादी उत्पीड़न के खिलाफ लड़ता है, न किसानों मजदूरों की माँगों के लिए और न ही महँगाई जैसे मुद्दों को ही छूता है।
नैशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी अर्थात एनसीपी कांग्रेस का ही एक टुकड़ा है जो सोनिया गान्धी को नेता स्वीकार न करने वाले शरद पवार जैसे कुछ वरिष्ठ नेताओं ने बनायी थी जिन्होंने बाद में कांग्रेस से ही समझौता करके और सरकार में सम्मलित होकर अपनी स्थापना के आधार को ही मिटा दिया। अब वह केवल एक नेता और उसके द्वारा कमाई हुयी दौलत के सहारे चल रही है व केवल महाराष्ट्र तक केन्द्रित होकर रह गयी है। यह पार्टी या तो जल्दी ही कांग्रेस में मिल जायेगी या इसकी राष्ट्रीय मान्यता समाप्त होने की स्तिथि आ जायेगी। काले धन पर सम्भावित कार्यवाहियों का भी इस पर गहरा असर पड़ेगा।
अंतिम दो पार्टियां कम्युनिष्ट पार्टियाँ हैं जो अपने अस्तित्व में तो देशव्यापी हैं और अधिकांश राज्यों में अपनी क्षीण उपस्तिथि रखती हैं किंतु अलग अलग होने के कारण संख्या बल में कमजोर हैं। डा. राधाकृष्णन ने उन्हें न्यू ब्राम्हण कहा है और बिल्कुल सही कहा है, क्योंकि उनके लिए बाकी की पार्टियाँ अछूत हैं। गठबन्धन के युग में भी वे सत्ता के लिए किसी से भी सैद्धांतिक समझौता नहीं करते। वे सत्ता में आना ही नहीं चाहते पर जब भी वे किसी को समर्थन देते हैं तो न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना कर अपनी शर्तों पर ही समर्थन देते हैं। गत दिनों उनके विपक्ष के एक हो जाने के कारण वे अपने गढों में भी चुनाव परिणामों में पिछड़ गये हैं भले ही उनकी आन्दोलनकारी क्षमता बची हुयी हो। अपनी ईमानदारी के कारण वे संसाधनों के बिना चुनाव मैदान में उतरते हैं और दूसरे दलों की बराबरी नहीं कर पाते।
कुल मिला कर हालत यह है कि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों के अलावा विभिन्न राज्य स्तरीय दलों के लोग बहुत बड़ी संख्या में जीत कर आने की आशंका बनी हुयी है जिनमें से कितने “राजा” बनने का प्रयास करेंगे कहा नहीं जा सकता। ऐसी स्तिथि में कुछ संवैधानिक सुधारों के बिना नई संसद चुनने के से भी हालात कुछ बेहतर नहीं हो पायेंगे।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

मंगलवार, फ़रवरी 08, 2011

क्या भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन किसी परिणाम तक पहुँचेगा?पहुँचेगा?


क्या भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन किसी परिणाम तक पहुँचेगा ?
वीरेन्द्र जैन
पूरे देश में इस समय भ्रष्टाचार पर सबसे अधिक ध्यान केन्द्रित हो रहा है। इसका कारण केवल इतना ही नहीं है कि एक साथ ही कुछ बड़े मामले उजागर हो गये हैं, अपितु यह भी है कि देश का मुख्य विपक्षी दल जिस आतंकवाद को केन्द्रीय मुद्दा बना कर अपनी राजनीति कर रहा था वह दल स्वयं ही उसमें शामिल दिखायी देने लगा है, और यह भी साफ होने लगा है कि उसके संगठन स्वयं घटनाएं करके उसे दूसरे के नाम पर मढने का खेल खेलते रहे हैं इसलिए उसने उस मुद्दे को दरी के नीचे छुपा कर अपना ध्यान इस ओर कर दिया है।
पर, क्या भ्रष्टाचार के विरोध में उठा यह ज्वार किसी परिणति तक पहुँच सकेगा या दूसरा कोई मुद्दा इसे दबा देगा जैसा कि पहले भी कई बार हो चुका है। दुर्भाग्यपूर्ण आशंका यह है कि इसमें अंततः कुछ भी नहीं होगा क्योंकि भ्रष्टाचार का इतना अधिक विस्तार हो गया है कि सजा देने दिलाने से लेकर नियम कानून बनाने और उसका पालन कराने वाले सभी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भ्रष्टाचार में हिस्सेदारी कर रहे हैं। भले ही मिश्र, ट्यूनेसिया, आदि के जनविद्रोह को देखकर ये भी सम्भावनाएं व्यक्त की जा रही हैं कि भारत भी इसी दिशा में बढ रहा है। पर ऐसा तब सम्भव था जब भारत में भ्रष्टाचार का कोई एक केन्द्र होता, यहाँ तो यह एक शिखर बनाने की जगह छोटे छोटे टीलों में उभर आया है। स्मरणीय है कि सेवा निवृत्त होने के अगले ही दिन मुख्य सतर्कता आयुक्त ने कहा था कि देश में हर तीसरा आदमी भ्रष्ट है।
अभी पिछले ही दिनों मुख्य चुनाव आयुक्त ने आशंका व्यक्त की अगर सही दिशा में सुधार नहीं हुए तो जनता ऊब कर तख्ता पलट सकती है। हमारे मुख्य चुनाव आयुक्त की आशंकाएं इसलिए सच साबित नहीं होंगीं क्योंकि दुर्भाग्य से जनता का एक बड़ा हिस्सा जाने अनजाने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्वयं ही भ्रष्टाचार में भरोसा करने लगा है और भ्रष्टाचारी से नफरत रखने और उसका विरोध करने की जगह उसके प्रति ईर्षालु होकर उसका प्रतियोगी होने लग गया है।
भ्रष्टाचारी इसी देश और समाज का हिस्सा हैं, वे हमारे आस पास ही रहते और फलते फूलते ही नहीं हैं, अपितु हमसे सम्मान भी पाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि आम लोग यह मान कर चलने लगे हैं कि काम पड़ने पर वे हमारे साथ रियायत बरतेंगे। आइए देखें कि कहीं हम स्वयं तो भ्रष्टाचारी नहीं-
• क्या हमने कभी किसी परिचित व्यक्ति को उसके भ्रष्टाचार के बारे में चेताया या समझाया है?
• क्या हमने किसी भ्रष्टाचारी व्यक्ति के यहाँ से आये निमंत्रण या उपहार को लौटाने का साहस दिखाया है?
• क्या हमने किसी भ्रष्टाचारी परिवार में रिश्ता जोड़ने की जगह किसी कम सम्पन्न परिवार में रिश्ता जोड़ने को प्राथमिकता दी है?
• क्या हमने किसी बड़े पद पर बैठे भ्रष्टाचारी को सम्मान न देने का फैसला लिया है?
• क्या हमने उन तथाकथित सामाजिक संगठनों, धर्मस्थलों, आश्रमों, आदि के संचालन और उनकी आर्थिक स्तिथि की जानकारी रखने का प्रयास किया है जहाँ आपको ज्ञात भ्रष्टाचारी जाया करते हैं और वहाँ सम्मान के साथ स्थान पाते हैं?
• क्या हमें भ्रष्टाचार तभी, और उन्हीं स्थलों पर बुरा लगता है, जब और जहाँ हम स्वयं उसके शिकार होते हैं, और बाकी जगहों पर इसके चलने से हमें कोई शिकायत नहीं रहती?
• क्या रास्ते में या यात्राओं में किसी अपरिचित के साथ हो रहे भ्रष्टाचार का हमने विरोध किया है?
• क्या हमने किसी भ्रष्टाचारी की शिकायत की है, या उसके खिलाफ होने वाली जाँच में जाँच अधिकारियों को सहयोग किया है?
• क्या हमने मतदान करते समय उम्मीदवारों की हैसियत और उसके बनने के समय और साधनों पर गौर करने का प्रयास किया है?
• क्या हमने किसी मतदाता को लालच देने वाले चुनाव प्रचारक की शिकायत की है?
• क्या ट्रैफिक नियम तोड़ने या अपूर्ण टिकिट पर यात्रा करते समय पकड़े जाने पर हमने पूरा जुर्माना दे कर गलती मानने का प्रयास किया है या उसे कम पैसे देकर निबटाने का प्रयास किया है?
• क्या हम चाह्ते हैं कि हमारा काम दूसरों से पहले हो जाये भले ही हम बाद में आये हों?
• क्या हम जानते हैं कि परस्पर सौदे के आधार पर चल रहा भ्रष्टाचार भी परोक्ष में हमें प्रभावित करता है इसलिए हम रिश्वत लेने वाले के साथ ऐसे रिश्वत देने वालों को भी उसी भ्रष्टाचारी की श्रेणी में रखना चाहिए? अपनी दुकान के बाहर सामान रख कर अतिक्रमण करने वाला परोक्ष में नगर निगम कर्मचारी को भ्रष्ट बनाने का चारा डाल रहा होता है। विकल्प होने पर यदि हम ऐसी दुकानों या रास्ते को जाम कर देने वाले चलित विक्रेताओं से सामान न खरीदने का फैसला करें तो यह भी भ्रष्टाचार रोकने का कदम हो सकता है!

संस्कृत में कहा गया है- उद्यमेन ही सिद्धंते, न हि कार्याणि मनोरथै न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रवशंति मुखे मृगः [अर्थात जिस प्रकार सोते हुए शेर के मुँह में मृग अपने आप नहीं चल जाते वैसे ही कुछ करने से ही कार्य पूर्ण होते हैं न कि केवल मनोकामना से।] इसलिए जरूरी हो जाता है कि हर स्तर पर हर दिन यह काम किया जाये तब ही सार्थक परिणामों की उम्मीद की जा सकेगी।
सच तो यह है कि भ्रष्टाचार इसलिए फल फूल रहा है क्योंकि हमने क्रमशः ऐसा व्यक्तिवादी समाज बना लिया है जो दूसरों के अधिकारों को अतिक्रमित करते हुए अपने लिए वह लाभ और सुविधाएं चाहता है जिसका वह अधिकारी नहीं है। भ्रष्टाचार के कुल प्रकरणों में से केवल दो तीन प्रतिशत ही पकड़ में आते हैं और उनमें से भी कुल चार प्रतिशत में दण्ड मिल पाता है। दुर्भाग्य यह है कि रिश्वत देने वालों को सजा मिलने का प्रतिशत लगभग शून्य है, जबकि सारे बड़े भ्रष्टाचार परस्पर लेनदेन पर आधारित हैं और ऐसे अधिकांश मामलों में रिश्वत देने वाला स्वयं ही आगे आकर प्रस्ताव देता है। जाँच में लगने वाला लम्बा समय और जाँच के बाद दिया जाने वाला मामूली दण्ड जो अवैध ढंग से कमाये गये धन की तुलना में इतना मामूली होता है कि इससे न तो आरोपी ही दण्डित महसूस करता है और न ही समाज के दूसरे भ्रष्टाचारियों में कोई भय व्याप्तता है। भले ही चीन की तरह भ्रष्टाचारियों को मृत्यु दण्ड न दिया जाये किंतु दिल्ली डेवेलपमेंट अथौरिटी बनाम स्किपर कंस्ट्रक्शन कम्पनी प्राईवेट लिमिटेड मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गयी सलाह के अनुसार उन्हें उनकी सारी सम्पत्ति से वंचित करने हेतु कानून तो बनाया ही जा सकता है जिससे यह संकेत जायेगा कि भ्रष्टाचार सुख ही नहीं दुख भी देता है। जब सारे व्यापारियों, उद्योगों के खाते प्रतिवर्ष तैयार हो जाते हैं तो आर्थिक अनियमिताओं वाले अपराधों में एक साल के अन्दर फैसला क्यों नहीं लिया जा सकता? उच्च न्यायालय में अपील से पहले इतनी बड़ी राशि जमा करा लेने का कानून भी बनना चाहिए ताकि आवेदक स्वयं ही फैसले के लिए जल्दी करे।
यदि एक बार जनता अपने हिस्से का काम प्रारम्भ कर दे तो इसका प्रभाव ऊपर तक पहुँचने में देर नहीं लगेगी। गान्धीजी के आन्दोलनों की सफलता का राज यही था कि वे सबसे पहले स्वयं करते थे तब किसी को कहते थे।


वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, फ़रवरी 05, 2011

सोनिया गान्धी अडवाणी का निशाना क्यों बनीं


सोनिया गान्धी अडवाणी का निशाना क्यों बनीं
वीरेन्द्र जैन
असम की राजधानी गौहाटी में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के अवसर पर भाजपा के वरिष्ठतम नेता अडवाणी ने जिस भाषा और काल्पनिकता का प्रयोग करते हुए अपनी बात कही वह नरेन्द्र मोदी और हाल के सुदर्शनजी के बयानों जैसी ही थी, किंतु जब ये बात आडवाणी जैसे वरिष्ठ और गम्भीर नेता के मुँह से निकली तो ऐसा लगा कि पूरा का पूरा संघ परिवार ही इन दिनों बौखलाया सा फिर रहा है और किसी का भी वाणी पर नियंत्रण नहीं रहा। भाजपा का मुख्य राजनीतिक लक्ष्य ऎन केन प्रकारेण सत्ता पर कब्जा जमाना है और इसके लिए वह अवैध, अनैतिक कोई भी रास्ता अपनाने के लिए सदैव ही उतावली रहती है। गत वर्षों में बाबरी मस्जिद को ध्वंस कर राम मन्दिर बनाने के अभियान के बहाने उन्होंने अपनी राजनीतिक ताकत में बहुत विस्तार कर लिया था और लोकसभा में दो की संख्या से दो सौ तक पहुँच गये थे। अभी भी वे लोकसभा में 140 के आस पास सदस्यों की ताकत रखते हैं। वैध अवैध गैर राजनीतिक तरीकों से जुटाये इस संख्या बल के आधार पर वे संसद का दूसरा सबसे बड़ा दल बन जाने में सफल हो चुके हैं और अपने नेतृत्व में गठबंधन बना छह साल सत्ता का सुख भी भोग चुके हैं। उनके सत्ता सुख की राह में सबसे बड़ी वाधा कांग्रेस है जो भूतपूर्व राजा महाराजाओं की तरह अभी तक अपना किला बचाये हुए है, भले ही उस किले की रंगत फीकी पड़ गयी हो, और दरवाजे जर्जर हो गये हों। सारी जोड़ तोड़ के बाद भी उम्र के अंतिम पायदान पर सफर करने वाले आडवाणी की प्रधानमंत्री बनने की ह्सरतें निरंतर जोर मारती रहती हैं किंतु उनकी पार्टी की साम्प्रदायिक एवं पूंजी परस्त नीतियों के कारण उन्हें जनता से सीधे पूर्ण व स्पष्ट समर्थन मिलने की कोई सम्भावना नहीं है। यही कारण है कि वे नकारात्मकता के आधार पर कांग्रेस को ध्वस्त करके विकल्प हीनता का लाभ लेकर अपने सपने प्राप्त करना चाहते हैं। भाजपा द्वारा कांग्रेस के ध्वस्तीकरण के इस प्रयास को समझने के लिए उनके निशाने पर रखी हुयी कांग्रेस के ताजा स्वरूप को समझना बहुत जरूरी है। 1969 में जब कांग्रेस का विभाजन हो गया तब श्रीमती इन्दिरा गान्धी के नेतृत्व वाले गुट के पास सत्ता और संगठन दोनों ही आ गये तथा इमरजैंसी काल तक आते आते पार्टी में एक ही पक्ष रह गया तथा एमरजैंसी हटने के बाद बाबू जगजीवन राम, हेमवती नन्दन बहुगुणा, और विद्या चरण शुक्ल जैसे कुछ बचे खुचे वरिष्ठ नेता भी काँग्रेस छोड़ जनता पार्टी में सम्मलित हो गये। इस अभूतपूर्व स्तिथि में कांग्रेस की एकमात्र नेता श्रीमती गान्धी हो गयीं और अखबारी भाषा में कांग्रेस [आई] का नाम इन्दिरा कांग्रेस हो गया। श्रीमती गान्धी के कद और लोकप्रियता का कोई दूसरा नेता पार्टी में नहीं होने के कारण कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र एकदम घट गया, जिसके परिणाम स्वरूप हाईकमान और उनके आस पास रहने वालों का कथन ही पार्टी का कथन बन गया। यही समय था जब पार्टी में काँग्रेसजन का कार्यक्रम राजनीतिक न होकर हाईकमान की हाँ में हाँ मिलाना और उसके सहारे सत्ता में घुसपैठ करना भर होकर रह गया। सत्ता में दुबारा लौटने के बाद श्रीमती गान्धी को अधिक समय नहीं मिला क्योंकि इसी दौरान न केवल संजय गान्धी की ही मृत्यु हो गयी अपितु अमेरिका इंगलेंड और कनाडा आदि में बैठे कुछ लोगों के इशारे पर सिख आतंकवादियों ने अलग खालिस्तान के नाम पर एक हिंसक अलगाववादी आन्दोलन छेड़ दिया जिसकी काट के लिए पूरे देश की कांग्रेस समितियों में सिखों को प्रतिनिधित्व दिया गया। इसके परिणाम स्वरूप पूरी कांग्रेस ही अस्थायी समितियों के माध्यम से संचालित होने लगी जिसकी डोरियां दिल्ली के हाथ में रहती थीं। श्रीमती गान्धी की हत्या के बाद राजनीति में रुचि न रखने वाले, प्रशासनिक अनुभवों के प्रशिक्षु, सरल स्वभावी राजीव गान्धी के हाथ में देश की सर्वोच्च सत्ता आ जाने से भी पार्टी संगठन की स्तिथि नहीं बदली अपितु स्वार्थी तत्व पार्टी को और अधिक व्यक्ति केन्द्रित बना कर अपना स्वार्थ हल करने लगे। बीच में वीपी सिंह जैसे लोगों ने असहमति दिखाने की कोशिश की तो खुद उन्हें ही बाहर जाने को विवश होना पड़ा। कांग्रेस के हाथ से सत्ता चली गयी और जब पुनः प्राप्त होने वाली थी तब आम चुनाव के बीच में राजीव गान्धी की हत्या के बाद कांग्रेस संगठन में नेतृत्व का एक शून्य पैदा हो गया। गान्धी परिवार की भक्त पीढी किसी दूसरे परिवार के व्यक्ति को नेता मानने को तैयार नहीं थी। उन्होंने श्रीमती सोनिया गान्धी को नेतृत्व में लाने की कोशिश की किंतु उन्होंने उस समय सहमति नहीं दी तो अस्वस्थ नरसिम्हा राव को सरकार बनाने का अवसर मिला। उनकी अल्पमत सरकार भले ही पाँच साल खिँच गयी किंतु इस दौरान उनकी सरकार के सोलह मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे व उनकी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आया जिसे दलबदल के सहारे पास होने से रोकना पड़ा। उसके बाद अगले दस साल तक कांग्रेस केन्द्रीय सत्ता से बाहर रही और सत्ता के बिना कांग्रेस हो कर रह गयी। गुटों में विभाजित कांग्रेसजन की जान में जान तब आयी जब श्रीमती गान्धी ने कांग्रेस का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया। यह वह समय था जब केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाले गठबन्धन की सरकार केन्द्र में थी जिसे कई छोटे दल बेमन से समर्थन दे रहे थे। उस समय ही भाजपा ने समझ लिया था कि उसे शासन करने के लिए कांग्रेस को कमजोर करना चाहिए और गुटों में बँटी कांग्रेस को कमजोर करने के लिए उसकी एकमात्र गैरविवादित नेता सोनिया गान्धी को कमजोर करना होगा।
इसके बाद का इतिहास स्वयं ही प्रकट है, लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी श्रीमती गान्धी की राष्ट्रीयता को लेकर जोर शोर से सवाल उठाया गया, और विदेशी महिला को प्रधानमंत्री न बनाने देने के नाम पर लोगों की राष्ट्रीय भावनाओं को भड़काया गया। भाजपा की सुषमा स्वराज और उमा भारती ने उनके प्रधानमंत्री बनने की दशा में भारतीय विधवाओं के लिए नियत आचरण अर्थात चने खाकर रहना, भूमि पर शयन करना, और सिर घुटा लेने आदि की घोषणा कर दी, भले ही लोकतांत्रिक ढंग से चुने किसी नेता के खिलाफ ऐसे आचरण कितने भी अलोकतांत्रिक क्यों न हों। यह वही समय था जब धर्म परिवर्तन के नाम पर ईसाई मिशनरियों और चर्चों पर हमले किये जाने लगे तथा सोनिया गान्धी को ईसाइयत का प्रतीक सिद्ध किया जाने लगा। यहाँ तक कि मुख्य चुनाव आयुक्त लिंग्दोह जैसे ईमानदार और कर्मठ अधिकारी के खिलाफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गन्दी से गन्दी भाषा में आरोप लगाये और उन्हें श्रीमती गान्धी के साथ जोड़ कर द्विअर्थी भाषा बोली गयी। पतन की इंतिहा यह थी कि नरेन्द्र मोदी ने उन्हें जर्सी गाय जैसी उपमाएं तक दीं। इसके बाद तो किसी भी कान्ग्रेसजन की गलती को सोनिया गान्धी के इशारे पर किया गया बतलाया जाने लगा। यह सोचा समझा प्रयास इस हद तक किया गया कि अगर कभी भूले से भी वे सोनियाजी का नाम लेना भूल जाते थे तो अखबारों के कार्टूनिस्ट उन्हें याद दिलाते थे कि इस आरोप में सोनियाजी के इशारे का तो जिक्र ही नहीं है। गुजरात, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ आदि में एक ही समय में सैकड़ों चर्चों को जला दिया गया और उड़ीसा में कुष्ट रोगियों की सेवा में कार्यरत एक आस्ट्रेलियन मिशनरी को उसके दो मासूम बच्चों समेत जिन्दा जला दिया गया। ये सारे हमले परोक्ष में सोनिया गान्धी के ऊपर हो रहे थे।
जब 2004 के चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और सोनिया गान्धी के प्रधानमंत्री बनने की सम्भावनाएं बनीं तो भाजपा की बौखलाहट अपनी सारी सीमाएं तोड़ गयी। इस अवसर पर समझदारी से काम लेते हुए श्रीमती गान्धी ने चुने जाने के बाद अपनी जिम्मेवारियां श्री मनमोहन सिंह पर सौंप कर भाजपा की रणनीति को एक पटकनी दे दी। यद्यपि भाजपा जानती थी कि लोकतंत्र में नेता पद से नहीं अपितु जन विश्वास से बनता है और वह सोनिया गान्धी के पास था। यह सच श्री लाल कृष्ण आडवाणी के उस बयान से भी प्रकट हुआ जब यूपीए-1 के बारे में उन्होंने कहा था कि एक पीएम है, तो उसके ऊपर सुपर पीएम है और उसके ऊपर सीपीएम है। पर उन्होंने यह नहीं बताया था कि जब ऐसा होना ही था तो उन्होंने बहुमत द्वारा चुने जाने वाले पीएम का विरोध करके परोक्ष में लोकतांत्रिक नैतिकता का उल्लंघन क्यों किया था। हाल के भ्रष्टाचार के उद्घाटनों के बाद जब मध्याविधि चुनाव की पदचापें महसूस की जाने लगी हैं तब आडवाणीजी को एक बार फिर से उस धागे को कमजोर करने की याद हो आयी है जिसमें काँग्रेस गुंथी हुयी है। सोनिया के परिवार और क्वात्रोची के सम्बन्धों के बारे में पहले भी चर्चाएं उठी हैं किंतु उसके लिए आडवाणी जैसे कद के नेता द्वारा ऐसी दादा कोंडके वाली भाषा का प्रयोग पहले नहीं हुआ था, जैसा कि गौहाटी में हुआ। सच तो यह है कि जब भाजपा छह साल सत्ता में रही तब उसने इस दिशा में खुद कुछ भी हासिल नहीं किया जबकि इसी नाम पर उनके अरुण जैटली ने कितनी मँहगी यात्राएं कीं और 64 करोड़ के लिए अब तक ढाई सौ करोड़ फूंके जा चुके हैं। वे यह भी जानते थे कि सोनिया गान्धी जिन्हें तब केवल घरेलू महिला भर समझा जाता था, का इस काण्ड से कुछ भी लेना देना नहीं था पर इस बहाने केवल राजनीतिक स्वार्थ हल किए जा सकते हैं, इसलिए व्यक्तिकेन्द्रित पार्टी में व्यक्ति की चरित्र हत्या कर के पार्टी को कमजोर करने का कूटनीतिक खेल खेला जा रहा है।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, फ़रवरी 02, 2011

अलोकतांत्रिक कन्धों पर ढोया जा रहा गणतंत्र


गणतंत्र दिवस पर विशेष
अलोकतांत्रिक कंधों पर ढोया जा रहा गणतंत्र
वीरेन्द्र जैन

हम समारोह जीवी लोग प्रतिवर्ष धूमधाम से स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस मनाते रहे और कभी उसकी रंजत जंयती और कभी स्वर्ण जंयती के नाम पर भाषण भोजन करते रहे किन्तु सच तो यह है कि देश में गणतंत्र की स्थापना होना अभी बाकी है। हमारे देश की आजादी से पूर्व दुनिया में जहॉ कही भी सत्ता में व्यवस्था परिवर्तन हुआ है तब नये शासक ने या तो पूर्व शासक को मार दिया है या जेल में डाल दिया है किन्तु हमारे देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में सत्ता परिवर्तन हेतु चलाये गये अहिंसक आंदोलन के परिणामस्वरूप सत्ता का शांतिपूर्वक हस्तांतरण हुआ। इस हस्तातंरण में सब कुछ लोक लुभावन था। जनता का चेतन भाग इस भ्रम में था कि उसके हाथ में सत्ता आ गयी अंग्रेज सोचते थे कि उन्होने बहुत दिन राज कर लिया और बिना किसी बड़े नुकसान के विदा हो रहे हैं। राजाओं, जागीरदारों के किले और महल उन्हीं के पास रहे, बड़ी बड़ी जमीनों के वे मालिक बने रहे, अटूट धन सम्पत्ति उनकी तिजोरियों में बंद रही इतना ही नही उनके विशेष अधिकार सुरक्षित रहे तथा उन्हें प्रतिमाह प्रिवीवर्स के रूप में एक बड़ी रकम भी बांध दी गयी। न उनके हथियारों पर नियंत्रण किया गया ओर न ही उनकी गाड़ियों के नम्बर बदले गये। जनता के बीच वे यथावत राजा, महाराजा, राजमाता, बहुरानी, कुंअर साब आदि नामों से सम्मान पाते रहे तथा यथावत रूतबा गांठते रहे। लोकतंत्र आकर उनकी जेब में सुस्ताता रहा और हमारे दिखावटी नेता झंडे फहराते रहे। चन्दबरदाइ नुमा तुक्कड़ कवि साहित्यकार लोकतंत्र की आरती गाते रहे तथा किराये के टट्टू उन पर लट्टू होकर झूमते रहे।

सच तो यह है कि सांमतवादी सोच को निर्मूल किये बिना लोकतंत्र संभव ही नहीं है। देश में सत्ता परिवर्तन के समय हमने अपनी नई व्यवस्था का नाम लोकतंत्र रख लिया और अपने कर्तब्य की इतिश्री मान ली। पर लोगों के सोचने और समझने और अपनी समस्याओं को हल करने के तरीके लोकतांत्रिक नहीं हुये, वे पुराने ही बने रहे। वैध-अवैध साधनों से मतदान के पराक्रम में विजयी प्रतिनिधि को क्षेत्र के स्थायी सामंत का दर्जा प्राप्त हो गया। राज्य की नीतियां बनाने में अपने क्षेत्र की जनता के स्वर को सदन में मुखरित करने की जगह ये नये सामंत पुलिस प्रशासन नगरीय निकायो के कार्यो समेत लोगों के पारिवारिक झगड़े सुलझाने वाले मुखिया की भूमिका तक निभाने लगे। इन प्रतिनिधियों को इस नयी सामंती प्रथा का ऐसा स्वाद लगा कि लोकसभा व विधान सभाओं में उनकी भूमिका केवल हस्ताक्षर करने या मतदान के समय हाथ खड़ा कर देने तक सीमित हो गयी। वे वहाँ से गायब रहने लगे। परिणामस्वरूप सत्तारूढ़ दल निष्कंटक होकर सत्तासुख भोगने लगा और कभी गान्धीजी की सादगी से जुड़ा रहने वाला संगठन राजसी आचरण करने लगा।
कुछ समय तक हतप्रभ होकर देखने के बाद पुराने सामंतों की समझ में सारी कहानी आ गयी और वे अपनी अपनी पुरानी प्रजा का ‘नेतृत्व’ करने के लिए कूद पड़े। आज हमारी संसद के सदनों में भूतपूर्व राजपरिवारों के लगभग एक सौ चौबिस सदस्य मौजूद हैं तथा अनेक विधानसभाओं और स्थानीय निकायों पर कब्जा किये हुये हैं। आज शायद ही कोई पुरानी रियासत हो जिसके वंशज किसी पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में राजनीति में सक्रिय न हों।
हरिजन आदिवासी को सवर्ण समाज के साथ समानता के स्तर पर लाने की दृष्टि से संविधान द्वारा लोकसभा विधानसभा आदि में आरक्षण की व्यवस्था की गयी जिसका परिणाम यह हुआ कि इन वर्गो के प्रतिनिधित्व के नाम पर लोकप्रिय सत्तारूढ़ दल की ओर से कुछ ऐसे प्रतिनिधि पहुंचने लगे जो स्वतंत्र निर्णय ले सकने में सक्षम नही थे। इसका लाभ सत्तारूढ वर्ग ने उठाया। उनकी ओर से दूसरों द्वारा निर्णय लिए जाने के कारण भी सत्ता का केन्द्रीकरण हुआ जो सत्ता को सामंती बनाता है। इस काल में मतदान प्रणाली भी ऐसी रही जो सत्तारूढ़ दल के अनुकूल पड़ती थी परोक्ष रूप से लम्बे समय तक आरक्षित प्रतिनिधियों के मतों का इस्तेमाल कुछ पूंजीपति, सामंती वर्ग के लोग ही करते रहे।

सामंतवाद के यथावत बने रहने व राजशक्ति से जुड़े रहने के कारण एक बड़े क्षेत्र की जनता में राजनीतिक चेतना का विकास नही हो सका क्योकि राजनीतिक दलों के संगठनों पर सामंती तत्व हावी रहे। सामंतवाद के समतुल्य ही लोकप्रियतावाद भी विकसित हुआ। कोई भी, किसी भी कारण से लोकप्रिय होने पर अपनी लोकप्रियता को जनप्रतिनिधि के रूप में चुने जाने के लिए भुनाने लगा जबकि भावी व्यवस्था का कोई ब्लू प्रिन्ट उनके पास नहीं होता था। इसी के साथ प्रसिद्व वकील, डाक्टर, सामजिक संस्थाओं के प्रतिनिधि, साहित्यकार, कवि, फिल्म और रंगमच या टीवी क़े कलाकर, क्रिकेट खिलाड़ी, पूंजीपति, ऊंचे परिवारों की महिलाओं, संत मंहत, वैज्ञानिक आदि विभिन्न कारणों से लोकप्रिय लोग मतदान के महत्व से अनभिज्ञ मतदाताओं से जुड़कर वोट बटोरने और प्रतिनिधियों के लोकतांत्रिक चुनाव को प्रभावित करने में जुट गये। साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद भाषायी संकीर्णता आदि ने लोकतंत्र की मूल भावना को गहरे प्रभावित किया महिलाओं में राजनीतिक चेतना विकसित करने से पूर्व आरक्षण मिल जाने के बाद इसमें एक आयाम और जुड़ जायेगा। बिहार में लालू प्रसाद के स्थान पर राबड़ी देवी जैसी घरेलू महिला लम्बे समय तक राज करती रही हैं तथा बाल ठाकरे की शिवसेना और गुजरात में नरेन्द्र मोदी विभाजन की राजनीति से चुनाव जीतकर लोकतंत्र को मुंह चिढ़ाते रहते हैं। दूसरी ओर बड़े बड़े प्रखर संसदविद् चुनाव हार कर हमारी लोकतंत्र प्रणाली के सामने प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करते रहते है। कश्मीर में एक लम्बे समय तक चुनाव के नाम पर तमाशा होता रहा है तो हरियाणा में जनता के निर्णय को पूरा मंत्रिमंडल दलबदल करके धता बताने का इतिहास रच चुका है। सवर्णों हरिजनों के बीच में दरार चौड़ी करके अस्तित्व में आने वाली बसपा धनघोर सवर्ण और मनुवादी पार्टी के साथ गठजोड़ करके सरकार बनाती है तथा अपनी घोषित नीतियों के विरूद्व निरंतर निर्णय लेती रहती है। चुनावों में खर्च की निर्धारित सीमा से कई गुना राशि खर्च की जाती है जो प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को काले धन वालों तथा आर्थिक सामाजिक अपराधियों से प्राप्त होती है। प्रशासनिक अधिकारियों को भ्रष्टाचार की खुली छूट देने के लिए उनको ऊपरी कमाई के कुछ चुने हुए स्थानों पर पदस्थ करके चुनाव के लिए धन अर्जित किया जाता है। इस तरह अनूठे लोकतंत्र का कुठाराघात लोक पर ही किया जाता है। प्रमुख राजनीतिक दलों का कार्यालय के नाम पर प्रमुख स्थानों पर बडे बड़े प्लाट उपलब्ध कराये जाते है जिनमें कार्यालय की जगह मार्केट बनते हैं जिनसे करोड़ों रूपयों की आमदनी होती है। आमदनी के इस स्थाई स्त्रोत के सामने दूसरी छोटी मोटी विचार आधारित लोकतांत्रिक पार्टियां टिक ही नही पाती है। देश में लोकतंत्र की जिम्मेवारी उठानेवाले और उठाने को उतावले बैठे दल लोकतंत्र के लिए कितने चिंतित हैं इसका प्रमाण उनके अपने अंदर के लोकतंत्र को देखकर लगाया जा सकता है। श्रीमती इंदिरा गांधी ने पार्टी संगठन से एक बार झटका खाने के बाद आंतरिक लोकतंत्र को सदा के लिए तिलांजलि दे दी थी और स्वंय भू-अध्यक्ष बनकर अस्थाई समितियों के माध्यम से आजीवन संगठन और सरकार चलाती रहीं। यह प्रथा अभी भी जारी है, सही सांगठनिक चुनाव किसी दल में नहीं होते।
बहुजन समाजपार्टी के स्वंयभू- नेता कांशीराम कहते थे कि उनके पास ना कोई फाईल होती है और न पार्टी का हिसाब किताब। उनके यहॉ उनके अलावा कोई दूसरा पदाधिकारी नहीं होता था और ना ही चुनाव होते थे। उनके कमरे में केवल एक कुर्सी होती थी व बैठकों के दौरान सांसद विधायकों समेत सभी लोग र्फश पर बैठते तथा कांशीराम कुर्सी पर होते थे। उनके किसी भी प्रस्ताव के विरोध या पक्ष में अन्य लोगों से कोई सलाह लेने की जरूरत उन्हें महसूस नहीं होती थी।

कांशीराम की तरह ही शिवसेना के बाल ठाकरे के काम का तरीका है, शिवसेना के सुप्रीमों के आदेश से ही उनकी पार्टी के सारे कामकाज चलते हैं। उनके पास ही धन का पूरा हिसाब किताब होता है तथा उनका वाक्य ही अंतिम निर्णय होता है। उनके आदेश पर किन्तु परन्तु करने पर सदस्यों को केन्द्रिय मंत्रिमंडल तक से हट जाना पड़ता है तथा सांसदों को प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों पर लगाये आरोपों के लिए माफी मांगना पड़ती है। दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र की लोकसभा का अध्यक्ष पद ऐसी पार्टी के सदस्य के पास रहा है जिसका वहॉ सुशोभित होना शिवसेना सुप्रीमों की इच्छा पर ही निर्भर करता था भविष्य में यह सुप्रीमों पद उनके वंशजों को ही मिलने की व्यवस्था की जा चुकी है। देश की गत केन्द्रीय सरकार को उनके पिता के नाम पर डाक टिकट जारी करने के लिए मजबूर होना पड़ा था क्योकि ऐसा न करने पर वे तत्कालीन सरकार से समर्थन वापिस ले सकते थे। उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र में प्रभावशाली दखल रखने वाली समाजवादी पार्टी उसके इकलौते नेता मुलायम सिंह के नाम पर चल रही है। उनके दो एक पारिवारिक सहयोगी भले ही हों पर पार्टी का संचालन सूत्र केवल एक व्यक्ति के पास है। संसद में जगह खाली होने पर उनके पुत्र को ही उम्मीद्वार बनाया गया भले ही अनेक वरिष्ठ नेता हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। बिहार में लालू प्रसाद राष्ट्रीय जनतादल के स्वंयभू अध्यक्ष और मुख्यमंत्री रहे है। उनके खिलाफ भष्ट्राचार के आरोप लगने पर उन्होने मुख्यमंत्री पद, राजनीति में निरक्षर अपनी पत्नी को सौप दिया पार्टी तो पार्टी विद्यायक दल में भी मुख्यमंत्री बनाने लायक कोई अन्य सदस्य उन्हें नही मिला था। उनकी पार्टी का एक मात्र अर्थ लालू प्रसाद है तथा उनके बिना यह निरर्थक हो जाती है। तमिलनाडू में कभी फिल्म अभिनेत्री रही जयललिता की पार्टी का नाम एआईड़ीएमक़े है जिसमें कभी कभी विधि सलाहकारों के तरह अन्य सदस्यों से सलाह तो कर ली जाती है पर अंतिम निर्णय जयललिता का ही होता है। केन्द्र की सत्ता में आने से पहले भाजपा अपने आपको लोकतांत्रिक होने का ढोंग करती रही थी किन्तु अपने अध्यक्ष को जिस तरह से वे हटाते रहे हैं उससे स्पष्ट होता रहा था कि कठपुलियों की डोरियां किसी अदृशय हाथ की उंगलियों से बंधी रहती हैं। मजे की बात तो यह है कि जनाकृष्णमूर्ति को हटाये जाने के सवाल पर एक दिन पहले ही तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने पत्रकारों से कहा था कि मै कौन होता हूं उन्हें हटाने वाला, हॉ वे चाहें तो मुझे हटा सकते हैं। बाद में जिन्ना के नाम पर बयान देने के मामले में अडवाणी जी को संघ के एक आदेश पर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और कहीं चूं भी नहीं हुयी। राष्ट्रीय स्तर पर बिल्कुल अनजाने नितिन गडकरी को अदृष्य आदेश से अध्यक्ष बना दिया गया जिसे सबको चुपचाप स्वीकारना पड़ा।
गणतंत्र जिन कंधों पर सवार होकर चल रहा है जब वे कंधे ही लोकतांत्रिक नही हैं तो देश में लोकतंत्र कैसे चल सकता है पर हम मूर्तिपूजक लोग लोकतंत्र की मूर्ति बनाकर प्रत्येक छब्बीस जनवरी, पन्द्रह अगस्त को उसका पूजन आराधना करते रहते हैं। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कार्यालय से औपचारिक शुभकामनाओं की घोषणाएं होती रहती हैं। एक रस्मी परेड तथा सरकारी कार्यालयों एंव शिक्षा संस्थानों में छुट्टी के अलावा ये दिन हमें भीतर तक छू पाने में असमर्थ होते जा रहे हैं। सामाजिक त्यौहारों की तो बात ही छोड़िए ये दिन तो न्यू इयर डे जैसा रोमांच जगाने तक में असमर्थ हैं।
आइये आज हम गणतंत्र को स्थापित करने के लिए प्रयास प्रारंभ करने का संकल्प लें।


---- वीरेन्द्र जैन
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