शनिवार, मई 29, 2010

लोकतंत्र की राह के कांटे


लोकतंत्र की राह के काँटे
वीरेन्द्र जैन
हमारे देश में लोकतंत्र ने कुछ इस तरह से अपनी जगह बनायी है जैसे कि रेल के जनरल डिब्बे में चार लोगों के बैठने की सीट पर पहले से ही छह लोग बैठे होते हैं और सातवाँ व्यक्ति अपनी बीमारी बुढापे या किसी अन्य दयनीयता का प्रर्दशन कर उस सीट पर अपने लिए जगह बना लेता है। सीट पर पूर्व से बैठे हुये छहों लोग कसमसाते रहते हैं और चाहते हैं कि वह उठ जाये तो कुछ फैल सकें, इसलिए वे निरंतर इस पर दबाव बनाते रहते हैं और वह दबा सिकुड़ा सिमिटा सकुचाया सा कई कई आसन बदलता हुआ अपना कठिन सफर तय करता रहता है। इस लोकतंत्र को अभी तक अपना उचित स्थान नहीं मिल पाया है जबकि कुछ भगवा भेषधारी बिना टिकिट चलते हुये ऊपर की सीट पर टांगें पसार कर आराम कर रहे हैं।
कारण यह है कि लोकतंत्र धड़धड़ाता और अपना हक मांगने की हुंकार भरता हुआ नहीं आया। जो लोग पहले से पसरे बैठे थे वे वैसे ही बैठे रहे। कुछ लोग तो उसे अन्दर ही नहीं आने दे रहे थे और जब आ गया तो बैठने की जगह नहीं। लोगों ने बैठने की जगह पर रखा अपना सामान भी नहीं उठाया और मांगते मूंगते बैठ गया तो धकेलने पर तुले हैं। सच तो यह है कि कोई अपनी जगह आसानी से नहीं छोड़ना चाहता। जो लोग दूसरों के हकों पर अधिकार जमाये हुये सुख पूर्वक रह रहे हैं वे किसी भी तरह का बदलाव नहीं चाहते। वे यथास्थिति को बनाये रखना चाहते हैं। अपने को बुद्धिजीवी व मानवीय दर्शाने के लिए कभी कभी यथास्थिति पर औपचारिक असंतोष व्यक्त कर जुबान की कसरत भर कर लेते हैं, पर समाज में आने वाले किसी भी परिवर्तन पर और भी अधिक असंतुष्ट होते हैं तथा पुराने समय की अच्छाइयों के गुण गाने लगतें हैं।
पुराने समय को वर्तमान से अच्छा बताने वाले वे लोग हैं जो यथास्थिति से लाभान्वित होते रहे हैं जैसे कि भारतीय समाज की सवर्ण जातियाँ। पर जिन्हें पुराने समय ने पीड़ा उपेक्षा और शोषण के अलावा कुछ नहीं दिया उनका बदलाव के प्रति आकर्षण सहज स्वाभाविक है। अतीत उनके लिए प्रीतिकर नहीं है।
पीड़ित उपेक्षित और शोषित रहे, गरीब, दलित, व पिछड़े ही नहीं अपितु अल्पसंख्यक और महिलाएँ भी हैं। ये लोग संख्या में अधिक हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुसार इनकी एकजुटता सवर्णों व पूंजी के ढेर पर बैठे हुये लोगों के पास से सत्ता छीन सकती है। यही कारण है कि यथास्थिति से लाभान्वित लोगों का प्रयास इस एकजुटता की स्थापना न होने देना और यदि होने लगे तो उसे तोड़ने का रहता है। वे उसे बाहर से भी तोड़ते हैं और इसमें कठिनाई होने पर भीतर से से भी तोड़ते हैं।
गणतंत्र के प्रारंभिक दौर में यथास्थिति से लाभान्वित लोगों के सामने दो खतरे थे। एक कम्युनिष्ट और दूसरे अम्बेडकर से प्रभावित दलित। कम्युनिष्ट आंदोलन सामाजिक यथार्थ से जुड़ा बुद्धिवादी आन्दोलन था जिसमें एक समझ के साथ लोग जुड़ पाते थे इसलिए उन्हें फुसलाना आसान नहीं था। यही कारण रहा कि उन्हें देशद्रोही प्रचारित करवा दिया गया व उनमें विभाजन कराने के लिए श्रीपाद अमृत डांगे जैसे नेता का स्तेमाल किया गया जिन्हें बाद में विभाजित कम्युनिष्ट पार्टी से भी हटा दिया गया था। समाजवादी देश चीन के साथ चले सीमाविवाद को किसी साम्राज्यवादी देश द्वारा किये गये हमले की तरह प्रचारित किया गया जबकि चीन इस लड़ाई में एक सीमा से आगे नहीं बढा था और बाद में वह स्वत: ही अपनी सीमा में वापिस लौट गया। पर दुष्प्रचार से प्रभावित देश में कभी प्रमुख विपक्षी पार्टी रही कम्युनिष्ट पार्टी के जनसमर्थन को संकुचित करा दिया गया था जिससे साम्प्रदायिक व विभाजनकारी ताकतों के लिए बड़ी जगह उपलब्ध हो गयी तथा परिवर्तनकारी शक्तियाँ कमजोर हुयीं जिससे यथास्थितिवादियों के सुख सुरक्षित रहे।
प्रचारित किया गया कि हमारी गुलामी एक विदेशी कम्पनी के देश पर शासन करने के कारण थी तथा उसके अपने देश वापिस चले जाने से हम आजाद हो गये हैं। जबकि सच यह था कि अंग्रेज कम्पनी के बहुत थोड़े से सिपाही इस देश में थे और वे केवल लड़ाई लड़ कर व जीत कर उस स्थिति में नहीं पहुंचे थे। उन्होंने इस देश में आपस में लड़ते रहने वाली दो-ढाईसौ रियासतों के प्रमुखों को मानसिक रूप से गुलाम बना कर उनके माध्यम से पूरे देश को अधीनता में लिया था। अंग्रेजों के जाने के बाद वे रियासतें लगभग वैसी ही रहीं तथा अपने विशालकाय महलों, वाहनों, हथियारों, कृषिभूमियों, बेशकीमती जेवरातों, के साथ साथ विशोषाधिकार और मासिक प्रिवीपर्स की भी पात्र रहीं।
दुनिया में इससे पहले कभी ऐसा ''सत्ता परिवर्तन'' नहीं हुआ था जो मात्र औपचारिक था। कुछ ही दिनों में उन रियासतों के आभामंडल वाले प्रमुख लोग संसद सदस्य या विधायक बन कर मंत्रिमंडल अथवा दूसरे सत्तासुख वाले स्थानों को सुशोभित करने लगे। जहाँ आरक्षण से कुछ सीमा बंधी वहाँ उनके ही कारिन्दे फिट हो गये जो उनकी कठपुतली की तरह उनके ही इशारे पर अंगूठा लगाने लगे।
दलितों की ओर से अपनी ताकत को पहचान कर सत्ता परिवर्तन की पहली चुनौती बहुजन समाज पार्टी की ओर से आयी थी जिसका नेतृत्व काँशीराम ने किया था तथा दूसरी चुनौती पिछड़ों की ओर से आयी जो कि विशवनाथ प्रतापसिंह की राजनीतिक आवशयकतावश मंडल कमीशन की सिफारिशों लागू करवाने के फैसले से मिली थी पर इसका राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं उभर सका। ताकतवर यथास्थितिवादियों ने इन दोनों ही चुनौतियों को जल्दी ही ठिकाने लगा दिया। कांशीराम के सब्र की सीमा थी इसलिए उन्होंने कच्चा फल तोड़ लिया व सत्ता का स्वाद चखने के लिये यथास्थितिवादियों से मांगे मसाले के साथ खाने लगे। मसाला देने वालों ने जल्दी ही उनके आंदोलन को ही खा लिया। उन्होंने उनके अंदर एक तानाशाह और पूंजी की ताकत को ही सर्वोंत्तम ताकत मानने वाला चालाक आदमी विकसित करवा दिया जो अपने ही उन लोगों को अक्षम और अविश्वसनीय मानता था जो उन पर भरोसा करते थे। यही कारण रहा कि उन्होंने संगठन में लोकतंत्र नहीं आने दिया और किसी को भी नेतृत्व में हिस्सेदारी नहीं दी। वे कहते थे कि हमारे यहाँ कोई सांगठनिक चुनाव नहीं होते। हमारे यहाँ कोई फाइल नहीं है। हमारे यहाँ पैसे का कोई हिसाब किताब नहीं रखा जाता।
वे जिस कमरे में बैठते थे उसमें केवल एक कुर्सी होती थी और सांसदों विधायकों समेत सारे कार्यकर्ता र्फश पर नीचे बैठते थे। जल्दी उन्होंने जुटाये गये समर्थन को सवर्णों और पूंजीपतियों को मँहगे दामों में बेचना प्रारंभ कर दिया व माया जोड़ते जोड़ते अपना उत्तराधिकार मायावती को सोंप गये। उनके इस व्यवहार से क्षुब्ध कुछ सांसद विधायक स्वयं बिकने लगे तथा कुछ क्षेत्रीय छत्रप हाथी के समर्थन को बेच कर खुद पैसा हड़पने लगे। परिणाम यह निकला कि एक आंदोलन बीच में ही नष्ट हो गया। सत्ता पाने की आतुरता और दौलत के प्रेम में मायावती ने अपने उन शत्रुओं से हाथ मिला लिया जिनके विरोध ने उनके आंदोलन को जन्म दिया था। इस बेमेल एकता ने उन्हें सत्ता के वेन्टीलेटर की साँसें तो मिल गयीं पर उसके हटते ही आन्दोलन का ''डैथ सार्टिफिकेट'' लिख दिया जाना सुनिशचित हो गया है।
कभी कुछ संभावनाएं लोहिया के समाजवादी आंदोलन में दिखीं थीं किंतु बाद में जैसे ही उन्होंने गैरकाँग्रेसवाद जैसे बेढंगे दिशाहीन सत्तालोलुप नारे को हवा दी वैसे ही यथास्थितिवादियों ने तोड़ खाया। उस आंदोलन में से कुछ संघ के शरणागत हो गये तो कुछ काँग्रेस में हलुआ पूड़ी जीमने चले गये। बचेखुचे ईमानदार लागों में से कुछ नक्सलवादियों की ओर मुड़े तो अंतिम टुकड़े की मूर्ति बनाकर मुलायम सिंह यादव जैसे लोगों ने अम्बानी अमिताभ अमरसिंह द्वारा हाँके जाने वाले रथ पर सजा कर रख दी। अब जड़ मूर्ति के नाम पर उसके पुजारी मालपुये उड़ा रहे हैं।
स्मरणीय है कि लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद जब वरिष्ठ नेता मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बनने के लिए तेजी से प्रयासरत थे तब घनशयामदास बिड़ला ने कहा था कि मोरारजी प्रधानमंत्री कैसे बन जायेंगे जबकि दो सौ सांसद तो मेरे हैं, मैं जिसको चाहूँ वही प्रधानमंत्री बनेगा। हुआ भी ऐसा ही था और तब मोरारजी के दिल के अरमान दिल में ही रह गये थे। इसके अलावा भी एक सौ चौबीस पूर्व राजपरिवार के सदस्यों, टीवी-फिल्मी सितारों, कवियों क्रिकेट खिलाड़ियों, साधुभेषधारियों, आदि आदि गैर राजनीतिक कारणों से लोकप्रिय व्यक्तियों से गठित संसद से अधिक जनहितैषी उम्मीद रखना अपने को धोखा देना है।
लोकतांत्रिक चेतना की राह में यथास्थितिवादी कभी धर्म को फंसा देते हैं तो कभी जाति को। कभी क्षेत्र को तो कभी भाषा को। इतना ही नहीं उनके झोले और उर्वर दिमाग में नये से नये अवरोधक सदैव तैयार रहते हैं। लोकतंत्र के स्वस्थ विकास के लिए राह के अवरोध पैदा करने वालों की ताकत को कमजोर करने की आवश्कता है जिसके लिए एक अलग आंदोलन की जरूरत पड़ेगी। दुष्यंत कुमार ने कहा है-
पक गयी हैं आदतें बातों से सर होंगीं नहीं
कोई हंगामा करो ऐसे गुजर होगी नहीं

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

गुरुवार, मई 27, 2010

जवाहरलाल नेहरू को श्रद्धांजलि

प्रसंगवश
27 मई नेहरू जी की पुण्यतिथि पर
एक वैज्ञानिक चेतना से सम्पन्न प्रधानमंत्री
वीरेन्द्र जैन
[पूर्व प्रकाशित एक लेख के अंश]


नेहरूजी के काल में आबादी इतनी अधिक नहीं हुयी थी तथा रोज़गार की दशाएं भी इतनी कठिन नहीं थीं। गरीबी के साथ साथ बौद्धिक पिछड़ापन भी था जिससे गरीबी को ईश्वर प्रदत्त निय्यति मान लिये जाने के कारण असंतोष बहुत तीव्र नहीं था। महात्वाकांक्षांओं की फसल सर्व व्यापी नहीं होती थी इसलिए ईर्षा और प्रतियोगिता कम थी। नेहरूजी को स्वप्नदर्शी माना गया है, और वे निस्वार्थभाव से खुशहाल भारत में लहलहाता जनजीवन देखना चाहते थे। वे चाहते थे कि लोग पूरी दुनिया के समकक्ष देश के विकास के लक्ष्य को रख कर चलें। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दुनिया के दूसरे विकसित देशों की वैज्ञानिक चेतना उन्हें आदर्श लगती थी इसलिए वे अपने देश में भी उस चेतना का प्रसार चाहते थे। वे जानते थे कि जिन पकी उम्र वालों की सोच जड़ हो चुकी है उनसे परिवर्तन की आशा रखना कठिन है इसलिए इस देश का भविष्य बच्चे ही बना सकेंगे। नेहरूजी बच्चों से प्यार ही नहीं करते थे अपितु उन्हें वैज्ञानिक सोच से भरा हुआ भी देखना चाहते थे। खेद है कि नेहरूजी के बाद उस दृष्टि को तिलांजलि दे दी गयी तथा शिक्षा को प्राईवेट क्षेत्र की ओर सरका दिया गया, जो वैज्ञानिक की जगह टेक्नोक्रेट या कहें कि मैकेनिक तैयार करते हैं। हर तरह के साम्प्रदायिक अवैज्ञानिक सोच वाले संस्थानों ने शिक्षा जगत पर अधिकार कर लिया जिससे बच्चों में विकिसित हो सकने वाली वैज्ञानिक सोच की दिशा पलट दी गयी। शिक्षा संस्थाएं हिन्दू मुस्लिम और ईसाइयों में बँट गयीं जहाँ अपने अपने देवताओं की मूर्तियों चित्रों या प्रतीकों के सामने प्रार्थनाएं करायी जाती हैं। इन स्कूलों में विज्ञान केवल याद करके पास हो जने वाला विषय भर है।
ऐसी संस्थाओं से जो डाक्टर इंजीनियर व अन्य विषयों के विज्ञानविद ‘उत्पादित’ किये जाते हैं, उनकी दृष्टि वैज्ञानिक नहीं होती है। उनमें से अनेक रहस्यवाद और नियतवाद में भरोसा रखते हैं तथा वैज्ञानिक संस्थाओं से भरपूर वेतन सुविधाएं लेते हुये भी अदृश्य अज्ञात और अस्पष्ट में आस्था रखते हैं। डाक्टर केमिस्टों की तरह दवा या स्वास्थ सेवाओं के विक्रेता हो गये हैं और इंजीनियर दलालों की तरह जाने जाते हैं। इतने विशाल देश में ना तो कोई नई खोज की खबर आती है और ना ही नये प्रयोगों की बात सामने आती है। जो कुछ भी पश्चिमी देशों में खोज लिया जाता है, उसकी हम दुकान सजा कर बैठ जाते हैं। मदरसों, सरस्वती शिशु ‘मन्दिरों’, और ईसाई संतों के स्कूलों में ढले बच्चों से और आशा भी क्या की जा सकती है, जहाँ दोपहर का भोजन करने से पहले भोजन मंत्र का पाठ अनिवार्य होता हो।
हम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की मदद से बाल श्रम को चाइल्ड लेबर जैसी अभिजात्य शब्दावली में पुकार, पाँच सितारा होटलों में सेमिनार कर वहाँ के स्वादिष्ट लंच की तारीफ करते रहते हैं। करुण शब्दावली से सुशोभित सेमिनारों के बाद हम एक दूसरे को सुन्दर सफल भाषण के लिए बधाइयाँ देते हैं पर इन सेमिनारों में व्यय हुये धन के अनुरूप वास्तविक उपलब्धियों का मूल्यांकन कभी नहीं करते। अपनी सीमित दृष्टि में हम यह भूल जाते हैं कि बाल श्रम इसलिए भी बढ रहा है क्योंकि वो सस्ता होता है तथा अपने उचित श्रम मूल्य की मांग करने की क्षमता उनके पास नहीं पायी जाती। अपने प्रोजेक्ट को पूरा कर नये प्रोजेक्ट को हथियाने की फिराक में लगी कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं श्रमिक बालकों को सेवा से मुक्त कराके उनको तथा उनके परिवार को भुखमरी के कगार पर ला पटकती हैं। वे संस्थाएं नहीं जानना चाहतीं कि जब तक उसके परिवार के व्यस्क सदस्यों को रोज़गार नहीं मिलेगा तब तक बच्चा ही उनका पेट पालता है तथा उसकी जगह बड़े लोगों द्वारा नहीं भरी जा सकती।
नेहरूजी के सपनों को बिखरा देने वाली दुर्घटना चीन के साथ अनावश्यक सीमा विवाद का पैदा होना थी। जिस पंचशील के आदर्शॉं पर चलकर हम पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा विकास कर रहे थे उसकी दिशा भटका दी गयी थी। आज हमारे बज़ट का एक तिहाई हिस्सा केवल रक्षा पर खर्च होता है तथा बालकों की शिक्षा के हिस्से में दो प्रतिशत भी नहीं आता है। नेहरूजी के सपनों पर विचार करते समय हमें उन तत्वों की पड़ताल करना भी ज़रूरी होगा जो हमें शांति से विकास नहीं करने देना चाहते। जिस शक्ति ने सदैव पाकिस्तान को को सैन्य मदद देकर भड़काया है, चीन के साथ सीमा विवाद में फँसाया है, वही अब ईरान से हमारे सम्बन्ध खराब कराके हमें ऊर्ज़ा संकट में डालना चाहती है। नेहरूजी को सच्ची श्रद्धांजलि विवेक का विकास और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को व्यापक बना कर ही दी जा सकती है। नेहरूजी के प्यारे बच्चे तब ही फल फूल सकेंगे।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

मंगलवार, मई 25, 2010

गडकरी से निराश भाजपा BJP not satisfied with Gadakaree

गडकरी से निराश भाजपा
वीरेन्द्र जैन
उत्थान की आकांक्षा पाल रहे किसी संस्थान का प्रत्येक कदम उसके पिछले कदम से आगे होना चाहिये और उसका नेतृत्व उसके पिछले नेतृत्व से अधिक योग्य, ऊर्ज़ावान, और लोकप्रिय होना चाहिये। अटल और आडवाणी युग को विदा करते समय भाजपा ने जो वैकल्पिक नेतृत्व चुना है वह उसके सदस्यों, समर्थकों और समीक्षकों को नाउम्मीद करता है।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में नितिन गडकरी का चुनाव किसी के गले नहीं उतरा और उसके प्रत्येक प्रमुख सदस्य और समर्थक को यह साफ झूठ बोलना पड़ा कि वे सदस्यों द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से चुने गये अध्यक्ष हैं और उन्हें इस पद पर देखना चाह रहे सदस्य संख्या में सबसे अधिक थे। सच तो यह है कि महाराष्ट्र से बाहर के अधिकांश लोग तो उन्हें जानते तक नहीं थे और उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में देखने की सोचने वाला पार्टी में शायद ही कोई हो। उन्हें सिर्फ और सिर्फ संघ द्वारा लादा गया है और संयोग यह है कि इस दौर में उसके आदेशों से सार्वजनिक असहमति व्यक्त करने की हिम्मत करने वाला दल में कोई नहीं है।
गडकरी प्रयोग को देखने के लिए विवश उत्सुक लोगों के मन में उनके पक्ष में केवल इतना सा तर्क था कि वे युवा हैं और कम चर्चित होने के कारण उनके बारे में कोई नकारात्मक बात चर्चा में नहीं है इसलिए उनके कार्यों को उत्सुकतापूर्वक देखा और समझा जा सकता है। उनसे साहस की अपेक्षा थी और उम्मीद की गयी थी कि राजनीति एवं राजनीतिज्ञों से निराश देश में सत्ता और चुनावी राजनीति से हटकर वे कुछ आदर्शात्मक कदम उठाने के खतरे मोल लेंगे। किंतु खेद पूर्वक यह महसूस किया गया कि ना तो उनमें नवोन्मेष है और ना ही पार्टी के घोषित पथ पर चलने और पार्टी को चलाने का साहस ही है। उनकी शारीरिक उर्ज़ा की स्तिथि यह है कि अपनी अध्यक्षता की पहली रैली की जरा सी गर्मी में ही वे चक्कर खा कर गिर गये। उनके हाल ही के कुछ कार्यों ने तो पार्टी सदस्यों और उनके समर्थकों को मुँह छुपाने को मज़बूर कर दिया है। सार्वजनिक मंच से लालू प्रसाद और मुलायम सिंह को सोनिया गान्धी के तलुवे चांटने वाले [कुत्ते] बता कर उन्होंने यह भी प्रकट कर दिया कि अपनी भावनाओं को वे अपने पद के अनुरूप शालीन भाषा भी नहीं दे सकते। पिछले दिनों मध्य प्रदेश के इन्दौर में भाजपा का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ था जिसमें राहुल गान्धी की सादगी और दलित की झोपड़ियों में सोने के प्रचार से मुक़ाबला करने के लिए नेताओं के ठहराने के लिए फाइव स्टार टेंटों का निर्माण किया गया था। अधिवेशन के पूर्व निरीक्षण करने के लिए जब श्री गडकरी की पत्नी वहाँ गयी थीं तो उन्होंने देखा था कि श्री गडकरी को ठहरने के लिए नियत टेंट पर जो नेम प्लेट लगी थी उसमें नितिन गडकरी की जगह ‘नितीन गडकरी’ लिखा हुआ था। तब उनकी पत्नी के मुँह से निकला था - ‘ओह गाड, इन्हें भाषा भी नहीं आती’। इस खबर के प्रकाशन के बाद ऐसी उम्मीद जगी थी कि श्री गडकरी स्वयं भाषा के प्रति सचेत होंगे, पर उन्होंने यह उम्मीद तोड़ दी है। रोचक यह है यह घटना तब घटी जब इससे कुछ दिन पूर्व ही भाजपा के थिंक टैंक के रूप में मशहूर रहे विचारक श्री गोबिन्दाचार्य ने उनके भाजपा से बाहर हो चुके नेताओं की वापिसी के बारे में टिप्पणी पर उन्हें चेताते हुए कहा था कि उनकी छवि अनर्गल बोलने वाले सतही और अक्षम नेता की बनती जा रही है और ऐसी छवि बनने से रोकने के लिए वाणी पर संयम की ज़रूरत है। श्री गोबिन्दाचार्य के इस बयान को सारे अखबारों ने यह शीर्षक लगा कर छापा था कि गोबिन्दाचार्य ने उन्हें ज़बान पर लगाम लगाने के लिए कहा। उन्होंने यह भी कहा था कि आप और आपके पदाधिकारियों को बयान या सक्षात्कार देने से पूर्व सही स्तिथि की ज़ानकारी होना ज़रूरी है। स्मरणीय है कि आडवाणी जैसा वाक्पटु और चतुर नेता भी अपने बयानों और भाषणों के लिए कम्युनिष्ट पार्टी के सद्स्य रहे सुधीन्द्र कुलकर्णी से अपने भाषण और बयान तैयार कराते रहे और अपने बयानों के लिए उन्हें कभी शर्मिन्दगी नहीं हुयी। ज़िन्ना सम्बन्धी बयान के बारे में उन्होंने कभी अफसोस व्यक्त नहीं किया अपितु उसके लिए तो संघ को ही क्षमा प्रार्थी होकर आडवाणी को प्रधान मंत्री पद प्रत्याशी बनाना पड़ा।
झारखण्ड में शिबू सोरेन के साथ सरकार बनाने के बारे में फैसला करना उनकी पहली परीक्षा थी जिसमें वे सैद्धांतिक की जगह व्यवहारिक सिद्ध हुये थे व उन शिबू सोरेन को समर्थन दिया था जिनको केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में शामिल करने के खिलाफ उनकी पार्टी ने हफ्तों संसद नहीं चलने दी थी। इतना ही नहीं इस गठबन्धन के समर्थन में घोषित रूप से माओवादी भी सम्मलित थे तथा श्री सोरेन ने कभी भी उनके कारनामों के खिलाफ कुछ भी कहने का साहस नहीं दिखाया था। वे माओवादियों से प्रभावित राज्यों की बैठक में भी सम्मलित नहीं हुये थे, फिर भी भाजपा का समर्थन उनको ज़ारी रहा। इससे सन्देश गया कि नये नेतृत्व में भी भाजपा का सत्ता मोह सिद्धांतों को तिलांजलि देता रहेगा, तथा उनमें बामपंथियों की तरह सिद्धांतों के लिए सत्ता को ठुकरा देने का साहस नहीं है।
अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के गठन पर उनके फैसले भी पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के गले नहीं उतरे और महत्वपूर्ण लोगों को छोड़ कर हेमा मालिनी, नवज्योत सिंह सिद्धू, स्मृति ईरानी, वाणी त्रिपाठी, वरुण गान्धी को पद देना लोगों के सामने एक प्रश्न चिन्ह खड़ा कर गया। राज्यों के पार्टी अध्यक्षों के चुनाव में भी जो बहुमत की अवहेलना हुयी है उससे सब हतप्रभ हैं भले ही शत्रुघ्न सिन्हा, सुमित्रा महाजन, आदि ने ही प्रतिक्रिया देने का साहस दिखाया हो किंतु राष्ट्रीय अध्यक्ष के खिलाफ उनकी प्रतिक्रिया का कहीं से भी विरोध न होना भी इस बात का प्रमाण था कि बहुत सारे वरिष्ठ लोग विरोध करने वालों से सहमत हैं। श्री आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे लोगों का श्री गडकरी के बयानों और कार्यों पर कोई प्रतिक्रिया देने से बचना भी एक तरह की प्रतिक्रिया है जो गडकरी के पक्ष में नहीं है।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, मई 22, 2010

सविता भावी और बीमा एजेंट Savitaa bhaavee and Insurance agent

सविता भावी और बीमा एजेंट की मुसीबत
वीरेन्द्र जैन

हमारे यहाँ की पुराण कथाएं इस हद तक विश्वसनीय मानी जाती हैं कि लाखों करोड़ों लोग उन्हें सच्चा इतिहास मानते हैं। इन कथाओं के आधार पर मूर्तियाँ और मन्दिर बन जाते हैं, मेले लगते हैं जिनमें लाखों लोग एकत्रित होते हैं पूजा पाठ करते हैं, दान उपवास आदि करते हैं और अपनी पूजा अर्चना के आधार पर अपना वर्तमान और भविष्य अपनी सोच और लालच के अनुसार सुधरने की सुखद कल्पना करने लगते हैं। दरअसल यह रचे गये ग्रंथ और उसके पात्रों को दिये गये चरित्र की जीवंतता ही होती है जो रचनाकार की कल्पना को साकार कर देती है। गुलेरी का लहना सिंह हो या प्रेमचन्द का होरी हो या हमारी फिल्मों के सैकड़ों गब्बर सिंह या साम्भा जैसे चरित्र हों वे सच्चे से मालूम देते हैं। पिछले दिनों एक मित्र ने एक ऐसी रोचक घटना सुनायी जो भारतीय इंटरनेट का शौक रखने वालों के बीच रचे गये चरित्र की लोकप्रियता का भी संकेत देते हैं। रोचक यह है कि मशीनी आंकड़े उसकी लोकप्रियता को दर्शाते हैं जबकि नैतिकता का मुखौटा ओढे आम आदमी में कोई भी उसका दर्शक होना नहीं स्वीकारता।

उक्त मित्र को जो जीवन बीमा एजेंट हैं अपना एक बहुत पुराना मित्र अचानक नगर में मिल गया। अपने बीमा के प्रोफेशन के हिसाब से उसने उससे ज्यादा प्रगाड़ता प्रकट की जितनी कि शेष बची हुयी थी। तुरंत घर का पता लिया, फोन नम्बर लिया और पहले त्योहार पर शुभ कामनाएं दीं तथा दीवाली को मिठाई का डिब्बा लेकर घर पहुँचा। उसके कुछ दिनों बाद उसने उन लोगों के बीमा का प्रस्ताव रखा और एक कुशल बीमा एजेंट की तरह पति पत्नी दोनों का ही बराबर बराबर बीमा प्रस्तावित किया। जब वह फार्म भरने लगा तो उसने दोस्त से भावी का नाम पूछा जिस पर पति पत्नी दोनों ही सकुचा गये और उनकी पत्नी ने तो अपने नाम से बीमा करवाने से ही इंकार कर दिया। उसे आश्चर्य हुआ कि अभी तक तो सब ठीक था किंतु नाम पूछते ही अचानक ऐसा क्या हो गया कि अच्छा भला पका पकाया केस खराब हो रहा था। एक समझदार बीमा एजेंट होने के कारण उसने कहा कि हम बाद में आयेंगे, और वहाँ से चला आया। कुछ दिनों बाद उसने उस दोस्त को होटल में ड्रिंक पर इनवाइट किया और तीन पैग हो जाने के बाद धीरे से बात छेड़ दी। नशे में खुल जाने के बाद उसने बताया कि उसकी पत्नी का नाम सविता है तथा उसकी पिछली पोस्टिंग के दौरान जब उसके कुछ मित्रों को उसकी पत्नी का नाम मालूम हुआ तो वे कुटिल व्यंग्य भाव से सविता भावी, सविता-भावी, कहने लगे। तब तक उन्हें इस करेक्टर के बारे में पता नहीं था किंतु पड़ोस की कुछ महिलाओं ने आपसी बातचीत में उस करेक्टर के बारे में कुछ संकेत दिये तो उनकी पत्नी ने उस करेक्टर को देखने की ज़िज्ञासा की। इंटरनेट पर उसे देखने के बाद उसे इतना क्रोध आया कि अपने नाम से नफरत हो गयी और जो भी उसे सविता भावी कहता वह आग बबूला हो जाती क्योंकि उसे सविता भावी कहने वालों की व्यंग्यपूर्ण कुटिल मुस्कान की याद आ जाती। अब जब भी कोई उसे भावी कहता है तो वह उसके सामने अपना नाम ज़ाहिर करना अपनी तौहीन समझती है।

उक्त मित्र ने मान लिया है कि इंटर्नेट के इस करेक्टर की लोकप्रियता के कारण उसका बीमा का यह केस तो गया।
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, मई 16, 2010

तंत्र पर डगमगाता भरोसा और उग्रवाद का खतरा Tantra par dagamagaataa bharosaa aur ugravaad kaa khataraa

तंत्र पर डगमगाता भरोसा और उग्रवाद का बढता खतरा वीरेन्द्र जैन
दंतेवाड़ा में सी आर पी एफ के 76 जवानों को निर्ममता पूर्वक मार दिये जाने के बाद और उसके पहले से भी हमारे प्रधान मंत्री कहते आ रहे हैं कि माओवादी या बामपंथी उग्रवाद देश के लिये सबसे बड़ा खतरा है। ये उग्रवादी मूलतयः आदिवासी क्षेत्रों में अपनी पैठ बनाये हुये हैं इसलिए इस समस्या को आदिवासियों के विस्थापन और उनको उनके मूल अधिकारों व जीवन पद्धतियों से वंचित करने की समस्या से जोड़ कर भी देखा जा रहा है, किंतु बामपंथी उग्रवाद एक राजनीतिक दर्शन के अंतर्गत काम कर रहा है और देश में चल रहे पूरे तंत्र को बदलने की बात कहते हैं क्योंकि उन्हें इस तंत्र पर भरोसा नहीं है। आज उनका प्रभाव देश के अनेक राज्यों में है और एक पूरी पट्टी उनके प्रभाव में बतायी जाती है। इनका संगठन प्रतिबन्धित है और ये भूमिगत होकर काम करते हैं इसलिए उनके सच्चे कथन प्राप्त करने का कोई साधन नहीं है और जो कुछ भी उनके बारे में सरकारी मशीनरी या अविश्वसनीय मीडिया द्वारा बताया जाता है उसी के आधार पर फैसला करना होता है। उनके द्वारा किये हुये बताये गये कामों से उनकी छवि ऐसी बन रही है कि वे विदेशी कम्पनियों और जंगलों का दोहन करने वाले ठेकेदारों से रकम वसूलते हैं और निरीह पुलिस वालों और अर्ध सैनिक बलों को मारते हैं। कह सकते हैं कि उनकी छवि अच्छी नहीं बन रही है जिससे वे कश्मीर, बोड़ो, नागा आदि अलगाव वादियों या इस्लामिक आतंकियों जैसे देखे जा रहे हैं, और सोचने की बात यह है कि इस खराब छवि की बाबज़ूद भी उनका विस्तार हो रहा है।
दूसरी ओर कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया चारों ही स्तम्भों के बारे में कुछ खबरें तो ऐसी नज़र आती हैं जिनसे तंत्र पर भरोसा करने वाले कानून प्रिय नागरिक का भरोसा भी डगमगाने लगता है।
• असामाजिक तत्वों से सुरक्षा करने वाले हमारे अर्ध सैनिक बलों की सुरक्षा के लिये जो बुलेट प्रूफ जैकेट खरीदे गये थे उनमें व्यापक भ्रष्टाचार हुआ और ऐसे जैकेट खरीद लिये गये जिनके भरोसे हमारे जवान सीना तान कर गोलियों की बौछारों में चले गये और मौत के मुँह में समा गये।
• हमारे शत्रु देश के दूतावास में काम करने वाली महिला अधिकारी हमारे देश के गोपनीय दस्तावेज़ दुश्मन को सौंपने के आरोप में गिरफ्तार की जाती है।
• उत्तर प्रदेश में सीआरएफ के जवान ही माओवादियों को कारतूसों सप्लाई के काम में लिप्त पाये गये हैं। वे कारतूसों के खाली खोखे बेचते थे जिन्हें बाद में भरकर माओवादियों तक पहुँचाया जाता था।
• बांगलादेश की सीमा पर तैनात जवानों पर बांगलादेशी घुसपैठियों को एक एक हज़ार रुपये की दर से सीमा के अन्दर प्रवेश कराने के आरोप हैं।
• जो रक्षा उपकरण अस्तित्व में ही नहीं है उसकी खरीद के लिए सिफारिश करने को सत्तारूढ दल का अध्यक्ष तैयार हो जाता है और नोटों की गिड्डियाँ लेते और अगली बार डालर में माँगते कैमरे में रिकार्ड कर लिया जाता है।
• हथियारों की खरीद करने के लिए सीमा पर झूठे खतरे पैदा किये जानें लगें।
• आये दिन हमारे देश की प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अपनी आय से बहुत बहुत अधिक सम्पत्ति रखने के आरोप में आयकर विभाग द्वारा पकड़े जाते हैं, या रिश्वत लेते हुये रंगे हाथों गिरफ्तार किये जाते हैं। अन्य मलाईदार विभागों के अधिकारी, इंज़ीनियर, आदि की तो कोई गिनती ही नहीं है। सरकारी कार्यालयों में या पुलिस थाने में जाने से आम आदमी आतंकित सा महसूस करता है।
• जनता के स्वास्थ से जुड़े मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया के अध्यक्ष दो करोड़ की रिश्वत लेते रंगे हाथों गिरफ्तार होते हों और उनके पास से भारी सम्पत्ति बरामद होती हो। राम मनोहर लोहिया अस्पताल का ह्रदय रोग चिकित्सक झूठे बायपास आपरेशन दिखाकर और मंगाये गये उपकरणों को वापिस बेचते हुये पकड़ा जाता हो।
• प्रत्येक राज्य के स्वास्थ विभाग द्वारा गलत या अक्षम दवाएं खरीदने और दवा खरीद में करोड़ों के घपले किये जाने के समाचार आते हों। स्वाइन फ्लू जैसी बीमारी के नाम पर सरकारी आतंक फैला कर करोड़ों की दवाएं और मास्क आदि खरीद लिये जाते हों। प्राईवेट अस्पतालों में जाने पर मामूली बीमारी के इलाज़ में भी आदमी के बदन के कपड़े तक बिक जाते हों, पर कहीं कोई सुनवाई नहीं होती हो।
• कागजों पर पुल पुलियां कुँएं बन जाते हों और भुगतान हो जाता हो।
• मंत्रियों, राज नेताओं के समीप के लोगों या रिश्तेदारों के यहाँ छापा पड़ने पर करोड़ों रुपयों की राशि और अचल सम्पत्ति के प्रमाण मिलते हैं, पर फिर भी मंत्रीजी मंत्रिमण्डल से नहीं हटाये जाते अपितु उनकी पत्नियाँ नोट गिनने की मशीन खरीदते हुए कैमरे की पकड़ में आती हैं। पार्टी की ज्यादा बदनामी के डर से किसी को हटा भी दिया जाता है तो उसकी पत्नी को टिकिट दे दिया जाता है।
• दूसरों की पत्नी को अपनी पत्नी बताकर विदेश में भेजने वाला संसद सदस्य पकड़ा जाता है और उसका कुछ भी नहीं बिगड़ता।
• एक प्रदेश में गठबन्धन के आधार पर निर्दलीय मुख्यमंत्री बन जाता हो जिसके ऊपर छापा पढने पर एक साल के अन्दर उसकी अवैध कमाई पाँच हज़ार करोड़ निकलती हो।
• संसद में सवाल पूछने, सांसद निधि स्वीकृत करने, आदि कामों के लिए धन लेते नेता कैमरे के सामने पकड़े जाते हैं और उनमें से कई को तो वही राजनीतिक दल फिर से उन्हें सदस्य बनाये रखता है।
• जिस बहस को देश में चालीस लाख लोग देख रहे हों, उसके मतदान में पाला बदलने के लिए दी गयी बतायी रिश्वत को संसद के पटल पर पटके जाने के बाबज़ूद उसकी जांच टायँ टायँ फिस्स होकर रह जाती है और किसी को भी सज़ा नहीं मिलती।
• बजट में कटौती प्रस्ताव आने पर झारखण्ड के मुख्यमंत्री एनडीए के बजाय यूपीए के पक्ष में वोटिंग करते हैं और उनसे समर्थन की वापिसी की धमकी देने वाली भाजपा सरकार बनाने का प्रस्ताव मिलने पर समर्थन वापिसी का प्रस्ताव टाल देती है। कांग्रेस को पानी पी पीकर कोसने वाली मायावती यूपीए के पक्ष में वोटिंग करती हैं और कटौती प्रस्ताव के पक्ष में भाषण देने के बाद लालू प्रसाद और मुलायम सिंह भाजपा के साथ वोटिंग न करने के नाम पर वाक आउट करके परोक्ष में यूपीए के पक्ष में पाये जाते हैं।
• राज्यसभा के चुनाव में व्यापक पैमाने पर दल के उम्मीदवार के खिलाफ वोटिंग होती हो और जो भी धन सम्पत्ति वाला चाहे वह सदन में पहुँच कर विशेष अधिकारों को अपने व्यावसायिक हित में लगाता हो, पर उसके मूल दल को कोई शिकायत नहीं होती हो।
• बड़े बड़े रईस संसद सदस्य अपने वेतन भत्ते अनाप-शनाप ढंग से बड़ा लेते हों तथा पेंशन आदि सुविधायें लेकर ज़िन्दगी भर मुफ्त यात्रायें करते हों, किंतु सदन में भाग लेना तो दूर उसमें उपस्थित होना भी ज़रूरी नहीं समझते हैं।
• सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश स्वीकार करता हो कि तीस प्रतिशत ज़ज़ भृष्ट हैं और ऐसे न्यायाधीश रंगे हाथों पकड़े जाते हों जिनके लेपटाप में किसी मुकदमे के दो तरह के फैसले मिल जाते हों ताकि रिश्वत के पैसे मिल जाने पर पहला नहीं तो दूसरा फैसला सुनाया जाने वाला हो।
• मीडिया में सम्पादकों पत्रकारों का स्थान दलाल लेते जायें जो सरकारी अधिकारी और अखबार मालिक के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा सकें।
• चुनावों में पैसे का खेल इतना बढ गया हो कि करोड़ों रुपया खर्च करके ही लोग चुनाव जीत पाते हों, और एक ही टर्म में पूरा वसूल करने की दम रखते हों।
• धर्म के नाम पर बाबा बड़े बड़े फाइव स्टार आश्रम चला रहे हों जहाँ व्यभिचार से लेकर हत्या बलात्कार आदि अपराध हो रहे हों, वे कैमरे के सामने ब्लेकमनी को व्हाइट करने के सौदे करते देखे जाते हों, धार्मिक विश्वासों को भुनाने के लिए राजनीति में उतरते हों तथा उनके सारे अपराध दबा दिये जाते हों।
• जहाँ सरे आम सगोत्र विवाह के नाम पर युवाओं को फांसी दे दी जाती हो और एक डीजीपी जैसे पद पर रहा व्यक्ति उस फांसी को ठीक ठहराता हो। जहाँ आई जी जैसे पद पर बैठा पुलिस अधिकारी राधा बन कर नाचता हो।
• जहाँ मुख्यमंत्री के जन्म दिन पर भेंट करने के लिए चन्दा न देने पर विधायक इंजीनियरों के कत्ल करा देते हों।
• जहाँ गरीबों, वंचितों आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, महिलाओं, अल्प संख्यकों, बेरोजगारों के नाम पर बनायी योजनाओं की सारी राशि नौकरशाही, नेतागिरी, मिलकर हड़प जाती हो और थोड़ी सी खुरचन पत्रकारों को भी डाल देती हो।
वगैरह................................ ऐसी दशा में यदि सारी दूषित छवि के बाद भी सबसे बड़े खतरे के और बड़े होने की सम्भावनाएं बढती जा रहीं हों तो उसका हल एक बार सरकारी गोली से निकाल लिए जाने के बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं दी जा सकती कि वे रक्तबीज़ की तरह जल्दी दुबारा पैदा नहीं होंगे। ज़रूरत इस बात की भी है कि कानून का सख्ती से पालन करा के लोकतंत्र में अनास्था पैदा करने वाली इन घटनाओं को रोका जा सके और दोषियों को जल्द से जल्द सज़ा दिलायी जा सके। अब भी समय है जिसमें माओवादियों के तंत्र से अपने तंत्र को अच्छा साबित किया जा सकता है। एक तंत्र के प्रति जब भरोसा टूटने लगता है तो व्यक्ति भूल से और गलत दिशा की ओर भी मुड़ने लगता है। आज़ादी के प्रारम्भ में असंतुष्ट होने पर लोग कहते थे कि इससे तो अंग्रेज़ों का राज ही अच्छा था, बाद में लोग मिलेट्री शासन या तानाशाही में विकल्प खोजने लगे थे। सरकारी मशीनरी से निराश होकर लोग कहने लगते हैं कि ये कर्मचारी तो इमरर्जैंसी में ही ठीक चलते हैं। माओवादियों की ओर भी लोग ऐसी ही निराशा की स्तिथि में देखने लगे होंगे जिसे अच्छी सरकार के अच्छे कामों से दूर किया जा सकता है।
कहा गया है चिकित्सा से परहेज बेहतर होता है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

मंगलवार, मई 11, 2010

संस्मरण स्मृति शेष जब्बार ढाकवाला

संस्मरण
मेरा दोस्त जब्बार ढाकवाला
वीरेन्द्र जैन्
मैं कह नहीं सकता कि कैसे हम लोगों का परिचय दोस्ती में और दोस्ती से उस रिश्ते में बदल गया जिसे खून के रिश्ते से भी बड़ा रिश्ता कहा जाता है। सिलसिलेवार याद करने पर कुछ कड़ियाँ जुड़ती नज़र आती हैं।
बात 1994 से शुरू होती है जब मेरा ट्रांसफर दतिया से भोपाल के लिए हुआ था। दतिया में मैं पंजाब नैशनल बैंक के लीड बैंक आफिस में पदस्थ था। लीड बैंक आफिस का काम किसी जिले के समस्त बैंकों द्वारा अपनी वार्षिक ऋण योजना तैयार करना उनमें सरकार द्वारा प्रायोजित योजनाऑं का लक्ष्य अनुसार समायोजन तथा सरकारी अधिकारियों और विभिन्न बैंकों के प्रबन्धकों के साथ बैठकें आयोजित करके उनका मूल्यांकन करने एवं उनमें आ रही परेशानियों को दूर करने का होता है। इस काम में सरकारी अधिकारियों और बैंक प्रबन्धकों के साथ निरंतर सम्पर्क में रहना होता है। लगभग पाँच साल इस कार्यालय में काम करते हुए मेरा जिले के कलेक्टर से लेकर बीडीओ तक सारे अधिकारियों से परिचय रहा जिससे सरकारी अधिकारियों के साथ मित्रता की आदत सी हो गयी थी।
भोपाल में मेरी पद स्थापना एक ऐसी बड़ी शाखा में हुयी थी जहाँ मैं एक छोटा अधिकारी था और सारा काम एकाउंटिंग जैसा नापसन्दगी का काम था। मैं अपने साहित्यिक सांस्कृतिक शौक को पंख देने के जिस उत्साह के साथ भोपाल आया था उसे गहरी ठेस लगी थी। मेरा मूल निवास दतिया ही होने के कारण परिवार और बच्चे दतिया में ही छूट गये थे। इसी निराशा के दौर में मेरी औपचारिक सी मुलाकात बैंक की शाखा में प्रशासनिक अधिकारी जब्बार जी से इस कारण हुयी कि परिचय करवाने वाला बैंक अधिकारी हम दोनों के ही साहित्यिक शौक को एक जैसे खब्त की तरह देखता था। कुछ दिनों बाद एक रविवार को मैंने उनका एक व्यंग्य लेख किसी अखबार में देखा जिसमें उनका पता और फोन नम्बर भी दिया हुआ था। उन दिनों मोबाइल नहीं चले थे और फोन इतने आम नहीं थे किंतु संयोग से मुझे जो निवास बैंक के द्वारा मिला था उसमें मकान मालिक ने फोन भी दिया हुआ था और इस कारण मैं विशिष्ट स्तिथि में था। मैंने तुरंत फोन लगाकर लेख की तारीफ करते हुये मिलने की इच्छा व्यक्त की तो उन्होंने उत्तर दिया कि आज तो मैं पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार कहीं पिकनिक पर जा रहा हूं अपुन बाद में मिलते हैं। मैंने सोचा कि ये अपनी अफसरी में टाल गये हैं तो मेरा बुन्देलखंडी अहंकार भड़क गया और फिर मैंने दुबारा फोन नहीं किया। फिर एक दो महीने बाद डा. ज्ञान चतुर्वेदी के साथ मुलाकात हुयी तो उन्होंने कहा कि मेरे पास आपका फोन नम्बर नहीं था पर आपने भी दुबारा फोन नहीं किया। इस मुलाकात में वे इतनी आत्मीयता से मिले कि सारे गिले शिकवे जाते रहे। मेरा फोन नम्बर मिल जाने के बाद उनके खुद फोन आते रहे जिनकी आवृति धीरे धीरे बढती गयी।
मुझे लगा कि भोपाल में वह खोया किनारा वापिस मिल गया है, जिसकी मुझे तलाश थी।
कविता और व्यंग्य हम दोनों के ही शौक में शामिल थे और उस दौरान हम लोग कवि गोष्ठियों में भी चले जाते थे। तब कवि गोष्ठियाँ होती भी खूब थीं और अपेक्षाकृत अच्छी होती थीं। मेरा सेक्युलरिज्म उनसे दोस्ती में मजबूती का मुख्य आधार बना। कभी वे भी बाम पंथी छात्र संगठन से जुड़े रहे थे और बाम पंथ के प्रति एक सम्मान का भाव उनके मन में था। मेरे अकेले रहने के कारण मेरी घरेलू जिम्मेवारियाँ भी कम थीं इसलिए साहित्यिक आयोजनों के लिए मैं सहज उपल्ब्ध साथी था, शालीन था, और बैंक में अधिकारी होने के नाते उसकी दोस्ती के लिहाज से ऐसा कमतर नहीं था कि किसी से दोस्त की तरह परिचय कराने में संकोच हो। यानि कि बहुत सारी स्तिथियाँ अनुकूल थीं। उनके बच्चे बाहर होने के कारण वे पति पत्नी ही यहाँ थे, घरेलू काम के लिए नौकर थे ड्राइवर था इसलिए उनके पास भी बहुत अधिक घरेलू ज़िम्मेवारियाँ नहीं थीं, दूसरी ओर पद की अनेक सुविधाएं थीं। समय की इस उपलब्धता और सुविधाओं ने उनके अन्दर के समारोह धर्मी जीव को पंख दे दिये थे। हर समारोह उन्हें आकर्षित करता था।
इधर बैंक में मेरे प्रबन्धकों के साथ पटरी न बैठने के कारण मुझे एक एक्स्टैंशन काउंटर का स्वतंत्र प्रभारी बना दिया गया था जिससे मेरा भी कार्यस्थल का टैंसन समाप्त हो गया था। वे उस समय जिस सिविल सप्लाई निगम के प्रभारी थे उस निगम के कुछ जमा खाते हमारे बैंक में खुलवाकर उन्होंने हमारे बैंक के जमा लक्ष्य प्राप्त करने में सहयोग किया था। धीरे धीरे हम लोग अन्योनाश्रित होते चले गये। अपने मन की कुछ बातें व्यक्ति किसी से कह कर मन को हल्का कर लेना चाहता है, उन्होंने मेरे अन्दर ऐसा विश्वसनीय दोस्त पा लिया था जिससे कही बातें वन वे ट्रैफिक होने का उन्हें भरोसा हो चला था। वे मेरे साथ अपनी परेशानियाँ बाँट सकते थे।
इसी एक दो साल के दौरान उनका ट्रांसफर छतरपुर हुआ और मेरा ट्रांस्फर वापिस दतिया हो गया। पर पत्र फोन पर दुख सुख की सूचनाएं और त्योहारों पर शुभकामनाओं का आदान प्रदान जारी रहा। बाद में जैसे ही बैंक में वीआरएस योजना आयी तो मैंने उसे स्वीकार करने में देर नहीं की और कुछ ही महीनों बाद भोपाल आकर रहने लगा। भोपाल आकर बसने के पीछे अन्य कारणों के साथ उनका यहाँ होना भी था।
बीच में एक दो साल के लिए वे कलैक्टर हो कर बड़वानी चले गये और इस दौरान अपने सारे दोस्तों को एक एक कर किसी न किसी कार्यक्रम में वहाँ बुलवाते रहे। मैं एक बार श्रीकांत आप्टे, और मूला राम जोशी के साथ तो एक बार प्रताप राव कदम,प्रभु जोशी और ज्ञान चतुर्वेदी के साथ तथा एक बार कमला प्रसाद, राजेन्द्र शर्मा और नईमजी के साथ, कार्यक्रमों में वहाँ गया। उनके इस साहित्यिक रुझान के कारण बड़वानी के अन्य प्रशासनिक अधिकारियों के बीच उनके प्रति एक खीझ का भाव भी मैंने पाया जिसका जिक्र भी मैंने उनसे किया पर उन पर कोई फरक नहीं पड़ा। वे यथावत कलैक्टर रहते हुये भी कवि सम्मेलन के कवियों की तरह हास्य व्यंग्य की कविताएं सुनाते रहे तथा प्रशासनिक अधिकारियों वाली दहशत को हल्का करते रहे। बाद में अनुशासन का यही गैर परम्परागत रूप उनके खिलाफ गया। उनका एक एसडीएम स्तीफा दिये बिना लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार बन गया परिणाम स्वरूप उन्हें समय से पूर्व स्थानांतरण झेलना पड़ा।
वहाँ से लौट कर वे उद्योग, आयुर्वेद, पिछड़ा वर्ग एवम अल्पसंख्यक कल्याण, जैव विविधिता, जन शिकायत निवारण आदि विभागों के पदों पर रहे, और उनकी चर्चित बने रहने की आदत ने निरंतर विवाद आमंत्रित किये। जैसी नौकरशाही चलती है वे वैसा चलना नहीं जानते थे उसमें हमेशा कुछ नया करना चाहते थे इसलिए नौकरशाही के जमे हुये लोग हमेशा उनके खिलाफ वही परम्परागत आरोप लगा कर अपना बदला लेना चाहते थे, जिसे वे पहले कई अफसरों पर लगा चुके होते। मैं भी कभी कभी एक दोस्त के अधिकार से उन पर खीझता था किंतु उनकी अपनी गति थी और ज्ञान चतुर्वेदी कहते थे कि यह आदमी कभी लो प्रोफाइल नहीं रह सकता और यही आदत इसे परेशान करती है। पर वे खुद उतने परेशान नहीं होते थे जितने हम लोग हो जाते थे।
वे मुझसे अपेक्षा करते थे कि मैं रिटायरमेंट लेने के बाद भी कुछ ऐसा भी करूं जिससे मेरी कुछ आय हो सके किंतु मेरा कहना होता था कि मैं बैंक की नौकरी से बेहतर कोई काम नहीं कर सकता था और जब उसे भी छोड़ दिया तो अपनी वैचारिक स्वतंत्रता को बाधित करने वाला दूसरा कुछ क्यों करूं! मेरी सादगी और मितव्यता से वे दुखी थे पर मैं अपने जीवन दर्शन से मजबूर था। हार कर उन्होंने यह शर्त रख दी कि मैं जब उनके साथ होया करूं तो किसी भी हालत में अपनी जेब से कुछ भी खर्च न किया करूं तथा इसका कठोरता से पालन करवाया। सिनेमा देखने हम हमेशा साथ जाते थे किंतु मुझ से टिकिट लेने के लिए नहीं कह सकते थे क्योंकि अगर मैं टिकिट लाया तो फिर उनसे पैसे नहीं लूंगा, इसलिए टिकिट खिड़की पर खुद जाकर टिकिट खरीदते थे, जो किसी भी आइ ए एस की पत्नी की तरह उनकी पत्नी को भी अच्छा नहीं लगता था, पर वे परवाह नहीं करते थे। मुझे भरोसा है कि पति पत्नी में इस बात पर भी कभी नोक झोंक हुयी होगी किंतु उन्होंने अपनी आदत नहीं बदली।
अपने पद के रुतवे का प्रयोग वे एक मामले में ज़रूर करते थे। किसी भी समारोह में सबसे आगे बैठना उन्हें पसन्द था और अपने साथ लाये लोगों को भी अपने साथ बैठाना चाहते थे भले ही आयोजन के प्रायोजकॉ को बैठने के लिए सुरक्षित रखा स्थान भर जाने के कारण आयोजक झुंझलाते रहते हों।
श्रीमती ढाकवाला पाक कला में न केवल प्रवीण थीं अपितु नई नई डिशें बनवाना उन्हें अच्छा लगता था। नई डिशें बनवाने वाली प्रत्येक गृहणी की तरह उसे किसी मेहमान को खिला कर उसकी प्रशंसा पाने की वे भी अपेक्षा रखती थीं किंतु जब्बार को अक्सर ऐसा मेहमान मैं ही मिलता था जिसके लिए खाना केवल पेट भरने के लिए होता रहा था और अच्छी डिश को भी दाल रोटी की तरह खा लेने के बाद मैं प्रशंसा करना भूल जाता था। मेरी इस गलती को वे खुद तारीफ करके सुधारते थे। दूसरा कोई होता तो ऐसे मेहमान को कभी नहीं बुलाता।
सेलिब्रिटी को अपने घर बुलाने का उन्हें बहुत शौक था। अपने पसन्द की विधा के शहर में किसी भी सेलिब्रिटी के आने पर वे उसे खाने या चाय पर ज़रूर बुलाते थे और ज्यादातर लोग एक कला प्रेमी वरिष्ठ अधिकारी के स्नेहिल आमंत्रण को ठुकरा भी नहीं पाते थे। अब ऐसे अवसर पर महफिल जोड़ना भी उन्हें अच्छा लगता था और इस महफिल के लिए उनके यहाँ कुछ स्थायी आमंत्रित होते थे जिनमें मैं, शिरीश शर्मा दम्पत्ति, डा. विजय अग्रवाल दम्पत्ति तो अवश्य होते थे। अगर मैं ऐसे आयजनों की सूची बनाने बैठूं तो सैकड़ों आयोजनों की याद तो मुझे ही होगी। ईद पर उनके यहाँ विभिन्न वर्गों से आने वालों की बहुतायत देख कर एक बार मैंने कहा था कि मैं तो बासी ईद पर आया करूंगा ताकि इत्मीनान से बैठ सकूं तो इसके बाद वे सबको अलग अलग टाइम देने लागे थे जैसे साहित्यकारों को विशेष रूप से शाम 6 से 7 के बीच आने की दावत देते ताकि सारे साहित्यकार एक साथ मिल बैठ सकें। इसमें बहुत सारे लोग तो ऐसे होते जो ईद पर ही उसी जगह मिलते थे।
आम तौर पर अधिकारी वर्ग को ज्यादा घुलना मिलना इसलिए पसन्द नहीं आता क्योंकि लोग सरकारी काम में अनुचित फेवर की अपेक्षा करने लगते हैं किंतु जब्बारजी को किसी भी परिचित की भी मदद करने में कोई संकोच नहीं होता था यदि कोई वैधानिक अड़चन न हो तो अपने विभाग का काम वे तुरंत कर देते थे और दूसरे अधिकारियों से सिफारिश भी कर देते थे। मेरे बारे में वे कहते रहते थे कि ये मेरा सबसे अच्छा दोस्त है फिर भी इसने आज तक कभी किसी काम के लिए नहीं कहा। उन्हें लगता रहता था कि काश वे मेरे लिए कुछ कर सकें।
मैं घनघोर निराशावादी जबकि वे घोर आशावादी, मैं जीवन के प्रति उदासीनता और गम्भीरता से भरा हुआ और वे पूरे जोश और उत्साह से परिपूर्ण, मैं संकोची और वे मुखर, फिर भी मित्र। अभी हाल ही मैं उन्होंने जो पंक्तियाँ लिखी थीं उन्हें सैकड़ों बार हज़ारों लोगों को सुना चुके थे-
जीवन के हर पल का खुल कर मज़ा लीज़िए या ज़िन्दगी भर टेंशन की सज़ा लीज़िए
अपने दौड़ने के साथ मुझे भी घसीटते रहते, भोपाल हो या उसके बाहर जहाँ भी कविता गोष्ठी की गुंजाइश निकलती उसमें मुझे भी शामिल कराने की कोशिश करते, जबकि में इस बारे में बहुत चूज़ी किस्म का व्यक्ति हूं, जहाँ मेरे श्रोता न हों वहाँ मैं कविता सुनाना पसन्द नहीं करता, भले ही कई बार मेरे इंकार को लोग ज्यादा आग्रह का ढोंग समझ लेते हैं।
पिछले दिनों से मित्रों के जन्मदिन के बहाने वे महफिल जोड़ने लगे थे। अपना जन्म दिन तो बाल सुलभ उत्साह से मनाते ही थे अपितु मित्रों परिचितों के जन्मदिन को भी उसी उत्साह से मनाने का सिलसिला शुरू किया था। हम लोगों ने गत एक दो सालों में वरिष्ठ कथाकार स्वयं प्रकाश, उर्मिला शिरीष, डा. शिरीष शर्मा और मेरा जन्म दिन उत्सव की तरह मनाया था। डा. विजय अग्रवाल की स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति का अवसर हो या उनकी माँ की बरसी, हम लोग इकट्ठा आमंत्रित कर लिए जाते थे। कोई हाट हो या मेला हो उसमें जाना ज़रूरी था, कहते कि हमारे शहर में कितनी दूर दूर से कलाकार शिल्पकार आये हैं इनका मन तो रखना ही होगा। पत्नी की असहमति के बाबज़ूद उसमें से कहीं न कहीं कुछ न कुछ खरीद ही लेते। जब वे कहतीं कि हम लोग अपने ट्रांसफर पर इतना सामान कहाँ ले जायेंगे तो कहते कि इसे जैन साहब को दे जायेंगे, इस तर्क पर मेरे सामने उन्हें चुप रह जाना पड़ता था।
उनमें जीवन छलछलाता रहता था और वे मित्रों से भी यही अपेक्षा रखते थे। मेरी डाइबिटीज के बारे में मुझसे अधिक चिंतित रहते थे, नियमित ब्लड टैस्ट के प्रति मेरी लापरवाही को देखते हुए उन्होंने मुझे ग्लूकोमीटर भेंट किया और मेरे द्वारा अस्वीकार से बचने के लिए वह भेंट देने के लिए मेरे जन्म दिन को अवसर बनाया। मुझे भोपाल के सबसे बड़े डायबिटोलोजिस्ट के पास ले गये और मेरे द्वारा आनाकानी करने पर कहा कि वो डाक्टर मेरा मित्र है और तुमसे फीस नहीं लेगा। मजबूरन जाना पड़ा तथा डाक्टर ने सचमुच फीस नहीं ली। मैंने पहले कभी अपना जन्म दिन नहीं मनाया था किंतु भले ही मैं भूल जाऊँ पर उन्हें याद रहता था और बारह जून की सुबह उनका फोन ज़रूर आता था। कई बारह जून की शामें हम लोगों ने जन्म दिन के बहाने शाम के डिनर पर गुजारीं हैं। इस अवसर पर मेरी जेब का ख्याल रख कर ज्यादा लोगों को नहीं बुलाते थे। जब किसी शाम कोई कार्यक्रम नहीं होता तब भी उनका फोन आता और एक स्थायी सलाह रहती कि शाम के समय घर मत बैठा करो, इससे तुम्हारा डिप्रेशन और बढेगा। मज़ाक करते कि कोई महिला मित्र ही बना लो जिसके साथ बैठ कर कुछ पवित्र शामें गुज़ार लिया करो। मेरा साठवाँ जन्म दिन जिस समारोह पूर्वक उन्होंने मनाया मैं उसके लिए तैय़ार नहीं था पर उनका कहना था कि साठवाँ जन्म दिन बार बार तो नहीं आता। तुम्हें कुछ नहीं करना है केवल आ भर जाना है। उन्होंने ही शैलेन्द्र कुमार शैली से कह कर राग भोपाली का विशेषांक निकलवाया, मीडिया की व्यवस्था की, हाल बुक करवाया, मेरी पत्नी और बेटे को बुलवाया, तथा खुद फोन करके बहुत सारे लोगों को निमंत्रण दिया और उनसे लिखने के लिए कहा। उनका वश चलता तो वे केक भी कटवाते और गुब्बारे भी बाँध सकते थे किंतु थोड़ा सा तो मेरा लिहाज़ कर गये।
कहीं बाहर जाते तो वहाँ का कुछ न कुछ खास ज़रूर लाते और उसे सबको बुला कर खिलाते। वे तो चाहते थे कि उनके लिए आये दावतों के निमंत्रणों में भी मैं उनके साथ चलूं जिसके लिए उनका तर्क होता था कि अगर मेरा कोई भाई होता तो क्या मैं उसे साथ नहीं लाता, ये नेता लोग तो पूरी की पूरी गाड़ी भर कर लोग लिये फिरते हैं। पर मेरी मध्यम वर्गीय मानसिकता और मेरा स्वाभिमान आड़े आता। एक बार किसी वरिष्ठ अधिकारी की दावत थी और कार्यक्रम के अनुसार हमें उसके बाद कहीं और जाना था इसलिए मैं साथ था मैंने ज़िद की कि आप लोग दावत में हो आइए मैं यहीं गाड़ी में बैठा हूं, तो उन्होंने अन्दर जाकर उक्त अधिकारी को मेरे पास गाड़ी में भिजवाया जो अनुरोध करके मुझे अन्दर ले गया। मुझे खीझ भी हुयी और शर्मिन्दगी भी। उसके बाद मैं ध्यान रखता कि एक शाम एक ही कार्यक्रम हो।
कई बार मुझे लगता कि इस आदमी के भीतर कोई गहरा दर्द है जो इसे सालता रहता है और इसे भुलाने के ले ही यह ये सारी हरकतें करता है। मेरा यह विश्वास तब और पुष्ट हो गया जब सुबह घूमने जाने के साथ इन्होंने हास्य क्लब ज्वाइन किया। उसमें उनका इतना मन लगा कि उन्होंने पूरे देश के हास्य क्लब की सूची अपने पास रख ली और जहाँ भी जाते वहाँ के हास्य क्लब के सदस्यों से ज़रूर मिलते।
अभी कुछ दिनों से डा. विजय अग्रवाल से प्रेरणा लेकर उन्होंने लाइफ मेनेजमेंट पर भाषण देने का शौक पाल लिया था। प्रशासनिक सेवा में आने के पूर्व कालेज में व्याख्याता रहे थे इसलिए लेक्चर तैयार करने में ज्यादा मेहनत नहीं होती थी। उनके पद के कारण श्रोताओं पर एक विशेष प्रभाव पड़ता था और उनकी बात ध्यान से सुनी जाती थी। मैंने भी थोड़ा रजनीश को पढा है तो कभी कभी उस बारे में मुझसे भी बात कर लिया करते थे। जहाँ भी सफलता पूर्वक भाषण करके आते तो गदगद भाव से सुनाते। कोशिश करते कि सरकारी कार्यक्रमों में भी जहाँ युवा एकत्रित हों और सम्भव हो तो उनका लेक्चर हो जाये। कई बार इस बात से उनके सहयोगी अधिकारी असंतुष्ट भी रहते थे, और इसे पद की गरिमा के अनुकूल नहीं मानते थे। पर उन्होंने कब परवाह की। एक बार आए ए एस एशोसिएशन के फिल्म फेस्टीविल में उदघाटन के लिए ओम पुरी को आना था, उसमें ये भी पदाधिकारी थे जब ओम पुरी को एयर पोर्ट पर रिसीव करने की बात आयी तो सारे वरिष्ठ अधिकारियों ने इसे पद के अनकूल नहीं माना और किसी जूनियर को भेजने की व्यवस्था कर दी। इन्होंने मुझे फोन किया कि ओम पुरी बड़ा कलाकार है उसे रिसीव किया जाना चाहिए, अपुन लोग चलेंगे। हम लोगों ने जाके उन्हें रिसीव किया और होटल नूर-उस सवा तक छोड़ कर आये।
साहित्य की हर विधा में उन्होंने लिखना चाहा। कविताएं लिखीं, कहानियां लिखीं व्यंग्य लिखे, और अभी हाल ही में एक अच्छा नाटक भी लिखा था जो थोडा अधूरा रह गया था। वह बहुत ही अच्छा हास्य नाटक था।
कितना कितना साथ था इसलिए कितनी कितनी यादें हैं, शुरू करने बैठता हूं तो खत्म होने का नाम ही नहीं लेतीं। कोई हमारे जीवन का कितना बड़ा हिस्सा है इसका पता उसके जाने के बाद ही चलता है। वह मेरे जीवन का एक हिस्सा हो गये थे और उनकी मृत्यु से लगता है कि मैं भी एक हिस्से में मर गया हूं।
वीरेन्द्र जैन 2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023 मो. 9425674629

शुक्रवार, मई 07, 2010

कवि लेखक ढाकवाला का दुर्घटना में निधन्

कवि लेखक ढाकवाला का दुर्घटना में निधन

प्रसिद्ध व्यंग्य लेखक कवि और मेरे दोस्त वरिष्ठ प्रशासंनिक अधिकारी जब्बार ढाकवाला और उनकी पत्नी तरन्नुम ढाकवाला का ऋषिकेश और टिहरी के बीच एक कार दुर्घटना में निधन हो गया है। डीएम टिहरी ने दुर्घटना स्थल से मिली डायरी में लिखे फोन नम्बर देख कर मुझे फोन पर खबर दी।
वे मेरे अभिन्नतम मित्र थे और अपने सारे सुख दुख मेरे साथ साझा करते थे। भोपाल की हज़ारों सांस्कृतिक शामें हम लोगों ने साथ ही गुज़ारी हैं। महफिल चाहे संगीत की हो साहित्य की हो नाटक की हो या चुनिन्दा फिल्में हों, हम साथ साथ ही जाते थे। भोपाल का शायद ही कोई होटल या रेस्त्राँ होगा जहाँ हम लोगों ने डिनर न किया हो। ढाकवाला दम्पत्ति मेरे जीवन का इतना बड़ा हिस्सा बन चुके थे कि लग रहा है तीन चौथाई तो मैं ही मर गया हूं। वे इतने अधिक सामाजिक और सहज थे कि उनके अन्दर अफसरी अभिजात्य का नामो निशान नहीं था। जिस कार्यालय में रहे उसके निहित स्वार्थों वाले मठाधीशों से कोई समझौता नहीं किया जिससे मनमाने आरोपों को भी झेला पर उसकी कोई परवाह नहीं की।
ऐसा लग रहा है कि मैं अपने आप को श्रद्धांजलि दे लूं।
वीरेन्द्र जैन
भोपाल 462023
मो. 9425674629

गुरुवार, मई 06, 2010

गडकरी की किरकिरी

गडकरी की किरकरी
वीरेन्द्र जैन
हमने सफेद बालों को सम्मान देने की कुछ ऐसी परम्परा विकसित की है कि ऊर्जावान और नवोन्मेषी युवाओं को भी वह सम्मान नहीं मिल पाता जिसके वे अधिकारी हैं, और अपेक्षाकृत उम्रदराज किंतु कम योग्य व्यक्ति भी आदर पा लेता है। इसके विपरीत यूरोप में जहाँ साधारण परिवार से आये हुये ओबामा जैसे लोग राष्ट्रपति के पद तक पहुँच जाते हैं वहीं हमारे यहाँ ऐसे युवा किसी बड़े खानदान, पूर्व राज परिवार, या औद्योगिक घराने के नाम पर ही किसी ऊंची पदवी को पा पाता है। भाजपा के नये अध्यक्ष नितिन गडकरी के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही होता नज़र आ रहा है। वे संघ के निर्देश पर भाजपा के अध्यक्ष तो चुन लिये गये हैं किंतु वरिष्ठ भाजपा नेताओं के मन में उनके प्रति सम्मान का भाव नहीं दिखाई देता। जो किसी पद पर भी नहीं है, वे भी अपने को भाजपा भाग्य विधाता मान कर चल रहे हैं।
ताज़ा घटना कभी भाजपा के थिंकटैंक के रूप में चर्चित रहे गोबिन्दाचार्य की है जिन्होंने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को अपनी ज़ुबान पर लगाम लगाने की सलाह देते हुये कहा है कि उनकी अभी की हरकतों से उनकी छवि अनर्गल बोलने वाले सतही और अक्षम नेता की बनती जा रही है और ऐसी छवि बनने से रोकने के लिए वाणी पर संयम की ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि मैं न तो पार्टी से निष्काषित किया गया और न ही पार्टी से त्यागपत्र दिया। नौ सितम्बर 2000 को मैं अध्य्यन अवकाश पर गया और 2003 के बाद मैंने भाजपा की प्राथमिक सदस्यता का पुनः नवीनीकरण नहीं कराया और स्वयं को पार्टी से मुक्त कर लिया।
श्री गडकरी को जानकारी विहीन निरूपित करते हुये गोबिन्दाचार्य ने कहा कि आप और आपके पार्टी पदाधिकारियों को बयान या सक्षात्कार देने से पूर्व मेरी विशिष्ट स्थिति का ज्ञान होना चाहिए, और वाणी में संयम का पालन करना चाहिए। आपकी पार्टी की आंतरिक गुटबाज़ी और गड़बड़ियों का शिकार मुझे बनाने से मेरी छवि पर आघात होता है।स्मरणीय है कि श्री गडकरी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि अगर पार्टी छोड़ कर गये नेता प्रायश्चित कर रहे हैं तो हम उचित फोरम पर विचार करेंगे। स्मरणीय यह भी है कि श्री गोबिन्दाचार्य सुश्री उमा भारती के गुरु के रूप में विख्यात हैं और वाणी में सयंम की यह सीख उन्होंने कभी अपनी शिष्या को देने की ज़रूरत नहीं समझी।

भाजपा के किताबी राष्ट्रीय अध्यक्ष के सामने संभवतः संकट यह है कि पार्टी संविधान में थिंक टैंक का कोई पद नहीं है इसलिए यह नहीं पता चल सकता कि यह पद पार्टी अध्यक्ष से ऊंचा होता है या नीचा होता है, ना ही पार्टी संविधान में इस स्थिति के बारे में कुछ लिखा है कि कोई व्यक्ति अध्य्यन अवकाश का बहाना बना कर पार्टी के काम से मुक्ति ले ले और उचित समय पर अपनी सदस्यता का नवीनीकरण भी नहीं कराये तो उसे पार्टी के भीतर माना जा सकता है या बाहर माना जा सकता है। यह कुछ कुछ वैसा ही है कि कोई सरकारी कर्मचारी ट्रांस्फर से बचने के लिए बीमारी का बहाना बना कर रिलीव न हो और फिर ज्वाइन ही न करे। भाजपा के मामले में तो इस प्रकरण को आर एस एस की बड़ी अदालत ही फैसला देगी कि वे पार्टी के अन्दर हैं या बाहर हैं। फैसला कुछ भी हो किंतु अपनी छवि को बचाने के लिए गोबिन्दाचार्य ने पार्टी अध्यक्ष की छवि को कठपुतली की छवि दे डाली है जो कुछ भी तय नहीं कर सकता।
कहा जाता है कि इससे पूर्व भी संघ के निर्देश पर सुश्री उमा भारती को भाजपा में सम्मलित किया जाना था जिन्होंने अपनी ही बनायी पार्टी से त्याग पत्र दे दिया था और प्रवेश के लिए लगातार नागपुर और दिल्ली के चक्कर लगा रहीं थीं।किंतु भाजपा के पूर्व अध्यक्ष वैंक्य्या नाइडू, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, शिवराज सिंह चौहान, नरेन्द्र तोमर आदि ने एक स्वर से विरोध व्यक्त करके गडकरी की भूमिका को असमंजस में डाल दिया था। कहा जाता है कि उनको प्रवेश देने की स्थिति में शिवराज सिंह ने मुख्य मंत्री पद से त्यागपत्र देने की धमकी तक दे दी थी। दूसरी ओर अयोध्या की बाबरी मस्ज़िद टूटने के मामले में उनकी गवाही महत्वपूर्ण हो सकती है इसलिए भाजपा उन्हें अनुशासन में बाँध कर रखना चाहती है। स्मरणीय है कि लिब्राहन आयोग के सामने सुश्री उमा भारती जो साध्वियों जैसे कपड़े पहिनती हैं, ने यह कहा था कि 6 दिसम्बर 92 को अयोध्या में क्या हुआ था उन्हें कुछ भी याद नहीं है। श्री गडकरी की चिंताएं लगभग वैसी ही आदर्शमुखी हैं जैसी कि प्रधानमंत्री बनने के बाद बम्बई अधिवेशन में राजीव गान्धी की थीं। वे पार्टी में प्रशिक्षण प्रारम्भ करना चाहते हैं, चापलूसी, और पैर छूने की परम्परा को समाप्त करना चाहते हैं तथा अगले आम चुनाव तक दस प्रतिशत वोट बढाना चाहते हैं। किंतु हुआ यह है कि उनके आने के बाद कर्नाटक के मुख्यमंत्री को पूरी शासन व्यव्स्था बेल्लारी के व्यापारी बन्धुओं के चरणों में डाल देनी पड़ी और ईमानदार और समर्पित कार्यकर्ता शोभा को मंत्रिमण्डल से हटाने को विवश होना पड़ा। झारखण्ड में शिबू सोरेन के आगे नाक रगड़ना पड़ी और जिन्हें दागी कह कह कर उन्होंने संसद नहीं चलने दी थी उन्ही के नेतृत्व को स्वीकार करना पड़ा। मध्य प्रदेश में सारे दागी मंत्रियों को वापिस मंत्रि मण्डल में शामिल करना पड़ा।
गडकरी ने अपने विश्वस्त लोगों का जो गुट तैय्यार किया है उसमें महाराष्ट्र का ही वर्चस्व है जिससे अनेक दूसरे लोग असंतुष्ट हैं। भाजपा के स्टार शत्रुघ्न सिन्हा ने तो सार्वजनिक रूप से भी निन्दा की है, और गडकरी को चुप लगा कर बैठना पड़ा। अब यदि ऐसी घटनाएं लगातार बढती रहीं तो उनकी साख का और ह्रास होगा, इसलिए अनुशासन बनाये बिना वे अध्यक्ष पद की ज़िम्मेवारी नहीं निभा सकेंगे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

बुधवार, मई 05, 2010

एक बेकार की बहस्

एक बेकार की बहस
उद्यमेन हि सिद्धंते, न हि कार्याणि मनोरथैः
[स्पेलिंग मिस्टेक हो तो संस्कृत के विद्वान क्षमा करें]
वीरेन्द्र जैन्

प्रत्येक मित्र मण्डली में कुछ मित्र ऐसे होते हैं जिन्हें विवादी या बहसी कह कर पुकारा जाता है। सच तो यह है कि ये लोग ही वैचारिक जड़ता को तोड़ने वाले भी होते हैं और चले आ रही वैचारिकी की गाड़ी के आगे ऐसे सवाल खड़े कर देते हैं कि गाड़ी को रुकना ही होता है।
किसी का कहना था कि बिना परिश्रम के कुछ नहीं मिलता। इसी से सवाल उठा कि क्या चोरी, डकैती, राहजनी से लेकर रिश्वतखोरी और नौकरशाही का भ्रष्टाचार भी मेहनत की कमाई है?
इस पर उन्होंने उत्तर दिया कि अगर ये बिना मेहनत के मिल जाती तो कभी तुम्हें मिल जाती और कभी हमें मिल जाती, पर ऐसा होता नहीं है और यह उसी को मिलती है जो पहले मेहनत करके उस पद तक पहुँचता है, फिर रिश्वत वाली सीट पर पोस्टिंग कराता है और फिर अपने कौशल से रिश्वतदाता को मनोवैज्ञानिक रूप से इस बात के लिए तैयार करता है कि बिना रिश्वत दिये हुये तुम्हारे काम में सौ वैधानिक दिक्कतें खड़ी हो सकती हैं और अगर इन्हें दूर करना हो अपनी फाइल सपाट गति से आगे बढाना हो तो इतनी राशि ढीली करो, बरना धक्के खाते रहो। जितना हम माँग रहे हैं उससे चौगुना तो तुम्हारे बार बार आने जाने और काम के नुकसान में बर्बाद हो जायेंगे और फिर भी काम हो जाने की कोई गारंटी नहीं है। वह शिकायत और रंगे हाथों पकड़े जाने का खतरा मोल लेता है और रिश्वत का उचित बँटवारा करता है तब कहीं जाकर रिश्वत कमा पाता है।
सवाल उठा कि अगर यह मेहनत है तो सभी ऐसी मेहनत करने वालों को समान आमदनी क्यों नहीं होती और जिस मेहनत के लिए वह वेतन पा रहा है उसी समय में वह ये दूसरी मेहनत करके क्या वह अपने नियोक्ता को धोखा देते हुये, अपने तयशुदा काम, और ज़िम्मेवारियों से विचलन नहीं है, और यह मेहनत गैर कानूनी क्यों है?
पर इस सवाल को अलग माना गया और कहा गया कि अभी सवाल मेहनत करने या नहीं करने का है उसकी नैतिकता का नहीं है। इसी बीच दूसरा सवाल आया कि आजकल सारे बड़े अधिकारी रिटायर्मेंट के बाद एनजीओ चलाते हैं जिसमें से ज्यादातर बोगस हैं और कम से कम उतना और वैसा काम तो नहीं करते जिसके लिए उन्हें ग्रांट मिली होती है। इसको भी मेहनत की कमाई माना जायेगा। उनका उत्तर था कि वे अपना एनजीओ बनाने तथा उसके लिए ग्रांट सैंक्सन कराने में जो मेहनत करते हैं उसकी खा रहे हैं व उन्होंने अपने सेवा कार्य में प्रशासन को इतना पंगु बनाने का काम किया है जिससे वह कहीं कुछ भी नहीं देखता।
ऐसी बहसों का कोई अंत नहीं होता किसी एक बात पर सब सहमत नहीं होते, पर यह तय पाया गया कि पाप और पुण्य दोनों ही करने पड़ते हैं, बिना किये न पाप होता है और ना पुण्य।

शनिवार, मई 01, 2010

मई दिवस पर विशेष- ठेकेदार श्रम कल्याण और भ्रष्टाचार्

ठेकेदारों द्वारा श्रम कल्याण और भ्रष्टाचार वीरेन्द्र जैन
अपर क्लास में सफर करने की सुविधा मिलने पर भी यात्री का क्लास अर्थात वर्ग तो वही रहता है जिससे वह आया हुआ होता है। अपनी नौकरी और किन्हीं सरकारी सेमिनारों आदि के लिये जाने पर मुझे रेलवे के अपर क्लास में यात्रा करने के सौभाग्य मिलते रहे हैं। इन यात्राओं के दौरान मेरे वर्ग और परिवेश के बीच जो द्वन्द पैदा होता है उसने मुझसे अक्सर ही कुछ न कुछ लिखवाया है।
पिछले दिनों ऐसी ही एक यात्रा के दौरान मेरे सहयात्री एक ठेकेदार थे और प्रारम्भिक बातचीत में इस बात की पुष्टि हो जाने पर कि में कोई सरकारी अधिकारी नहीं हूं और लिखने पढने का शौक रखता हूं, वे खुल गये और मुक्त कंठ से सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अपना आक्रोश व्यक्त करने लगे। विभिन्न विभागों में कितने पर्सेंट कमीशन किस किस को देना पड़ता और किस किस इंस्पेक्टर को महीने के महीने रकम पहुँचाना होती है इसका उन्होंने जम कर खुलासा किया और हर बार उस में नई नई तरह की गालियाँ मिलाते गये। वे यह भी बताते गये कि किस विभाग में कैसे कैसे भ्रष्टाचार होता है और ऐसे में सरकारी काम में गुणवत्ता कैसे बनाये रखी जा सकती है। जब मैंने उनसे पूछा कि क्या कोई ऐसा भी अधिकारी मिला जो रिश्वत नहीं लेता हो तो उन्होंने दो एक नाम स्वीकार किये। पर जब मैंने पूछा कि क्या उस दौरान आपने गुणवता में सुधार किया था तो वे कुछ अचकचा कर बोले कि वे नहीं लेते तो क्या हुआ किंतु उनके कार्यालय के लोग तो लेते ही हैं। उनसे मेरा दूसरा सवाल था कि सरकार से आपको भुगतान की पूरी राशि तो एक नम्बर में मिलती है और आपको रिश्वत दो नम्बर में देना पड़ती है ऐसे में आप पूरी राशि पर टैक्स तो चुकाते नहीं होंगे फिर इस राशि को अपने खातों में व्यय में दिखाते होंगे, इस व्यय किस व्यय में दिखाते हैं? उनका सीधा सपाट उत्तर था कि यह सारा व्यय श्रम कल्याण में दिखाया जाता है।
श्रमिक कानून के अनुसार कार्य स्थल पर जो सुविधाएं होनी चाहिए वे कहीं नहीं होतीं फिर भी प्रत्येक ठेकेदार के व्यय खाते में श्रम कल्याण के नाम पर जो रकम दर्ज़ होती है वह उसकी वैधानिक जिम्मेवारियों से कई गुना अधिक होती है। यदि ठेकेदारों के खातों में दर्ज़ उक्त राशियों का विधिवत संयोजन किया जाये तो हम पायेंगे कि श्रमिक को उसके पारश्रमिक की राशि से भी अधिक की कल्याणकारी सुविधाएं मिलती हैं।
सच तो यह है कि श्रमिकों, वंचितों, दलितों, विकलांगों, आदि के कल्याण के नाम पर खर्च में दिखायी गयी बड़ी राशि रिश्वत की भेंट चड़ती है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629