गडकरी से निराश भाजपा
वीरेन्द्र जैन
उत्थान की आकांक्षा पाल रहे किसी संस्थान का प्रत्येक कदम उसके पिछले कदम से आगे होना चाहिये और उसका नेतृत्व उसके पिछले नेतृत्व से अधिक योग्य, ऊर्ज़ावान, और लोकप्रिय होना चाहिये। अटल और आडवाणी युग को विदा करते समय भाजपा ने जो वैकल्पिक नेतृत्व चुना है वह उसके सदस्यों, समर्थकों और समीक्षकों को नाउम्मीद करता है।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में नितिन गडकरी का चुनाव किसी के गले नहीं उतरा और उसके प्रत्येक प्रमुख सदस्य और समर्थक को यह साफ झूठ बोलना पड़ा कि वे सदस्यों द्वारा लोकतांत्रिक ढंग से चुने गये अध्यक्ष हैं और उन्हें इस पद पर देखना चाह रहे सदस्य संख्या में सबसे अधिक थे। सच तो यह है कि महाराष्ट्र से बाहर के अधिकांश लोग तो उन्हें जानते तक नहीं थे और उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में देखने की सोचने वाला पार्टी में शायद ही कोई हो। उन्हें सिर्फ और सिर्फ संघ द्वारा लादा गया है और संयोग यह है कि इस दौर में उसके आदेशों से सार्वजनिक असहमति व्यक्त करने की हिम्मत करने वाला दल में कोई नहीं है।
गडकरी प्रयोग को देखने के लिए विवश उत्सुक लोगों के मन में उनके पक्ष में केवल इतना सा तर्क था कि वे युवा हैं और कम चर्चित होने के कारण उनके बारे में कोई नकारात्मक बात चर्चा में नहीं है इसलिए उनके कार्यों को उत्सुकतापूर्वक देखा और समझा जा सकता है। उनसे साहस की अपेक्षा थी और उम्मीद की गयी थी कि राजनीति एवं राजनीतिज्ञों से निराश देश में सत्ता और चुनावी राजनीति से हटकर वे कुछ आदर्शात्मक कदम उठाने के खतरे मोल लेंगे। किंतु खेद पूर्वक यह महसूस किया गया कि ना तो उनमें नवोन्मेष है और ना ही पार्टी के घोषित पथ पर चलने और पार्टी को चलाने का साहस ही है। उनकी शारीरिक उर्ज़ा की स्तिथि यह है कि अपनी अध्यक्षता की पहली रैली की जरा सी गर्मी में ही वे चक्कर खा कर गिर गये। उनके हाल ही के कुछ कार्यों ने तो पार्टी सदस्यों और उनके समर्थकों को मुँह छुपाने को मज़बूर कर दिया है। सार्वजनिक मंच से लालू प्रसाद और मुलायम सिंह को सोनिया गान्धी के तलुवे चांटने वाले [कुत्ते] बता कर उन्होंने यह भी प्रकट कर दिया कि अपनी भावनाओं को वे अपने पद के अनुरूप शालीन भाषा भी नहीं दे सकते। पिछले दिनों मध्य प्रदेश के इन्दौर में भाजपा का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ था जिसमें राहुल गान्धी की सादगी और दलित की झोपड़ियों में सोने के प्रचार से मुक़ाबला करने के लिए नेताओं के ठहराने के लिए फाइव स्टार टेंटों का निर्माण किया गया था। अधिवेशन के पूर्व निरीक्षण करने के लिए जब श्री गडकरी की पत्नी वहाँ गयी थीं तो उन्होंने देखा था कि श्री गडकरी को ठहरने के लिए नियत टेंट पर जो नेम प्लेट लगी थी उसमें नितिन गडकरी की जगह ‘नितीन गडकरी’ लिखा हुआ था। तब उनकी पत्नी के मुँह से निकला था - ‘ओह गाड, इन्हें भाषा भी नहीं आती’। इस खबर के प्रकाशन के बाद ऐसी उम्मीद जगी थी कि श्री गडकरी स्वयं भाषा के प्रति सचेत होंगे, पर उन्होंने यह उम्मीद तोड़ दी है। रोचक यह है यह घटना तब घटी जब इससे कुछ दिन पूर्व ही भाजपा के थिंक टैंक के रूप में मशहूर रहे विचारक श्री गोबिन्दाचार्य ने उनके भाजपा से बाहर हो चुके नेताओं की वापिसी के बारे में टिप्पणी पर उन्हें चेताते हुए कहा था कि उनकी छवि अनर्गल बोलने वाले सतही और अक्षम नेता की बनती जा रही है और ऐसी छवि बनने से रोकने के लिए वाणी पर संयम की ज़रूरत है। श्री गोबिन्दाचार्य के इस बयान को सारे अखबारों ने यह शीर्षक लगा कर छापा था कि गोबिन्दाचार्य ने उन्हें ज़बान पर लगाम लगाने के लिए कहा। उन्होंने यह भी कहा था कि आप और आपके पदाधिकारियों को बयान या सक्षात्कार देने से पूर्व सही स्तिथि की ज़ानकारी होना ज़रूरी है। स्मरणीय है कि आडवाणी जैसा वाक्पटु और चतुर नेता भी अपने बयानों और भाषणों के लिए कम्युनिष्ट पार्टी के सद्स्य रहे सुधीन्द्र कुलकर्णी से अपने भाषण और बयान तैयार कराते रहे और अपने बयानों के लिए उन्हें कभी शर्मिन्दगी नहीं हुयी। ज़िन्ना सम्बन्धी बयान के बारे में उन्होंने कभी अफसोस व्यक्त नहीं किया अपितु उसके लिए तो संघ को ही क्षमा प्रार्थी होकर आडवाणी को प्रधान मंत्री पद प्रत्याशी बनाना पड़ा।
झारखण्ड में शिबू सोरेन के साथ सरकार बनाने के बारे में फैसला करना उनकी पहली परीक्षा थी जिसमें वे सैद्धांतिक की जगह व्यवहारिक सिद्ध हुये थे व उन शिबू सोरेन को समर्थन दिया था जिनको केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में शामिल करने के खिलाफ उनकी पार्टी ने हफ्तों संसद नहीं चलने दी थी। इतना ही नहीं इस गठबन्धन के समर्थन में घोषित रूप से माओवादी भी सम्मलित थे तथा श्री सोरेन ने कभी भी उनके कारनामों के खिलाफ कुछ भी कहने का साहस नहीं दिखाया था। वे माओवादियों से प्रभावित राज्यों की बैठक में भी सम्मलित नहीं हुये थे, फिर भी भाजपा का समर्थन उनको ज़ारी रहा। इससे सन्देश गया कि नये नेतृत्व में भी भाजपा का सत्ता मोह सिद्धांतों को तिलांजलि देता रहेगा, तथा उनमें बामपंथियों की तरह सिद्धांतों के लिए सत्ता को ठुकरा देने का साहस नहीं है।
अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के गठन पर उनके फैसले भी पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के गले नहीं उतरे और महत्वपूर्ण लोगों को छोड़ कर हेमा मालिनी, नवज्योत सिंह सिद्धू, स्मृति ईरानी, वाणी त्रिपाठी, वरुण गान्धी को पद देना लोगों के सामने एक प्रश्न चिन्ह खड़ा कर गया। राज्यों के पार्टी अध्यक्षों के चुनाव में भी जो बहुमत की अवहेलना हुयी है उससे सब हतप्रभ हैं भले ही शत्रुघ्न सिन्हा, सुमित्रा महाजन, आदि ने ही प्रतिक्रिया देने का साहस दिखाया हो किंतु राष्ट्रीय अध्यक्ष के खिलाफ उनकी प्रतिक्रिया का कहीं से भी विरोध न होना भी इस बात का प्रमाण था कि बहुत सारे वरिष्ठ लोग विरोध करने वालों से सहमत हैं। श्री आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे लोगों का श्री गडकरी के बयानों और कार्यों पर कोई प्रतिक्रिया देने से बचना भी एक तरह की प्रतिक्रिया है जो गडकरी के पक्ष में नहीं है।
वीरेन्द्र जैन
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