बुधवार, अप्रैल 30, 2014

सम्भावित सरकार को कौन चलायेगा?



सम्भावित सरकार को कौन चलायेगा?

वीरेन्द्र जैन
                गोएबल्स ने गलत नहीं कहा था कि किसी झूठ को बार बार दुहराने पर लोग उसका भरोसा करने लगते हैं। चैनलों पर एक ही वस्तु के लगातार प्रसारित होते विज्ञापनों का सच भी यही होता है कि वे दिमाग में खुब जाते हैं और दुकान पर सम्बन्धित वस्तु लेने जाने पर वही ब्रांड नेम याद आ जाता है। किसी समय विज्ञापनों की अति के कारण ही वनस्पति घी का नाम डालडा हो गया था और डिटर्जेंट पाउडरों का नाम सर्फ हो गया था। इस आम चुनाव में मोदी के प्रचार के लिए अनुबन्धित अमेरिकी कम्पनी भी इसी तरकीब को अपना रही है और मोदी मोदी के नाम की इस तरह से चोट दी जा रही है कि किसी साधारण जन के ध्यान में अपने क्षेत्र के उम्मीदवारों से ज्यादा मोदी का ही नाम याद रहता है। उल्लेखनीय है कि जो कम्पनी प्रतिनिधि मोदी की छवि बनाने में लगा है वही हंसा कम्पनी से भी जुड़ा है जिसने तथाकथित सर्वेक्षण के द्वारा मोदी द्वारा पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लेने की भविष्यवाणी की गयी है।
                इस बीच विभिन्न सूचना माध्यमों द्वारा अपने सन्देशों में कुछ ऐसा प्रचारित या विचारित किया जा रहा है जैसे कि मोदी प्रधानमंत्री बन ही गये हों और उनको केवल शपथ लेना ही शेष रह गया हो। कुछ अस्थिर चित्त मतदाताओं को प्रभावित करने, शासकीय मशीनरी को अपने पक्ष में करने और उद्योग जगत व अवैध कमाई करने वालों से चुनावी चन्दा वसूलने में ऐसा प्रचार काम आता है। कहा जाता है कि ऐसी अवधारणाएं बन जाने पर चुनावी हेराफेरी पर ध्यान कम जाता है क्योंकि मतदाता पहले ही सम्बन्धित की जीत को सहन कर चुका होता है। मोदी पर प्रैस का सामना न करने का आरोप भी लगता रहा है इसलिए पिछले दिनों उन्होंने कुछ साक्षात्कार भी दिये हैं जिनमें पूछे गये सवालों के बारे में एक धारणा यह भी बनी कि ये साक्षात्कार फिक्स थे और तीखे से लगने वाले सवाल, विवादित विषयों पर उनके स्पष्टीकरण को सामने लाने के लिए ही पूछे गये लगते थे। इन साक्षात्कारों में उनके अपर्याप्त उत्तरों पर कोई प्रतिप्रश्न नहीं किये गये।  ऐसे ही फिक्स सवाल जबाब के लिए एक लतीफा बहुत प्रसिद्ध है. एक बार जब चर्चिल अपना चुनावी भाषण देकर बैठने ही वाले थे कि भीड़ में से किसी व्यक्ति ने उनसे बहुत चुटीला सवाल किया। सवाल सुन कर भी चर्चिल की मुस्कान में कोई फर्क नही आया और उन्होंने वैसा ही सटीक और चुटीला उत्तर दिया। सभा में पहले तो सन्नाटा खिंच गया और फिर पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। इसी बीच सभा के दूसरे कोने से वैसा ही चुनौतीपूर्ण कठिन सवाल उठा जिसका उत्तर देने में भी चर्चिल ने पूरी सावधानी अपनायी और फिर से पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट और उनके समर्थन के नारों से गूंज उठा। इसके बाद सभा के बीच से एक तीसरा आदमी उठा उसने पहले तो सवाल पूछने की अनुमति चाही पर फिर असमंजस में सिर खुजाते हुए चर्चिल को सम्बोधित करते हुए बोला कि सर आपने मुझे जो सवाल पूछने के लिए कहा था उसे मैं भूल गया हूं।
       आमतौर पर संघ परिवार और उनकी विचारधारा से प्रेरणा प्राप्त लोग देश में विश्वसनीय नहीं माने जाते क्योंकि उनके मन और वचन में भेद रहता है। गोडसे ने महात्मा गाँधी को मारने के विचार की प्रेरणा संघ के नेतृत्व के गाँधी और काँग्रेस विरोधी विचारों से ही ली थी किंतु वह गाँधी को मारने के लिए उनके प्रशंसक की तरह हाथ जोड़ता हुआ ही प्रकट हुआ था और उन हाथों में पिस्तौल छुपायी हुयी थी। बाबरी मस्ज़िद को तोड़ने से पहले भाजपा के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और दूसरे नेताओं ने संविधान का पालन करने का वादा किया था पर उसके विपरीत बाबरी मस्ज़िद तोड़ने वालों की मदद की थी, और बाद में उस पर खुशी मनायी थी तथा तब से लगातार उस घटना पर गर्व करते हुए शौर्य दिवस मनाते आ रहे हैं। संघ के निर्देश उनके लिए संविधान से भी ऊपर होते हैं और इन्हीं निर्देशों पर वे न केवल दूसरे धर्मों के लोगों से शत्रुवत व्यवहार करते हैं, अपितु अपने दल के अडवाणी जैसे वरिष्ठतम नेताओं को भी अलोकतांत्रिक ढंग से पहले दल की अध्यक्षता से, फिर विपक्षी दल के नेता होने से, और फिर प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी होने से भी हटा देते हैं। पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी ने एक चैनल को दिये गये साक्षात्कारनुमा भाषण में कहा था कि वे संविधान को देश की गीता मानते हैं और उसी के अनुसार शासन करेंगे, पर इन्हीं मोदी को इन्हीं के दल के सबसे प्रमुख नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राजधर्म अर्थात संविधान का पालन न करने का दोषी पाया था।
       उपरोक्त साक्षात्कार ऐसा लगा था कि जैसे पहले उन्होंने अपना भाषण लिख कर दे दिया हो और उसी भाषण को साक्षात्कार के रूप में प्रकट किये जाने हेतु सवाल बना लिये गये हों। अगर देश का कालाधन विदेशों में जमा है तो वह देश के बड़े उद्योगपतियों, व्यापारियों, नौकरशाहों, और राजनेताओं का ही होगा। यह देखना कौतुकपूर्ण है कि सबसे अधिक उद्योगपति, नौकरशाह, और दोषी राजनेताओं का प्रवेश भाजपा में हो रहा है जहाँ उनका न केवल खुले दिल से स्वागत हो रहा है अपितु उनमें से अनेकों को प्रत्याशी बना दिया गया है और अनेकों को राज्यसभा की सदस्यता का भरोसा दिया गया है। शायद ऐसे ही लोगों को आश्वस्त करने के लिए ही मोदी ने विदेश से कालाधन लाने के बारे में कहा कि ऐसे धन की सही मात्रा का पता उन्हें नहीं है अतः सत्ता का अवसर मिलने पर वे सही मात्रा पता करने का प्रयास करेंगे, उसे जानने के लिए विभिन्न देशों से सन्धियां करेंगे और तब उचित कार्यवाही करेंगे जिसकी समय सीमा दूसरे देशों से मिलने वाले सहयोग पर निर्भर करेगी। उल्लेखनीय है कि वर्तमान सरकार द्वारा अनुभव की जा रही ऐसी ही मजबूरियों को ये अभी तक भुलाते आ रहे थे और उन्हें कटघरे में खड़ा कर रहे थे। समय सीमा के एक सवाल के उत्तर में उन्होंने कहा कि कोई भी घोषणा पत्र सरकार के कार्यकाल तक की सीमा के लिए ही होता है अर्थात पाँच साल। इस उत्तर का दूसरा पहलू यह भी है कि जब पिछले वर्षों में छह साल तक अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा की जो सरकार रही तब या तो विदेशों में जमा काला धन शून्यवत था या उस सरकार में मोदी जितनी समझदारी या ईमानदारी नहीं थी। सवाल उठता है कि उन दिनों क्यों वह सब कुछ नहीं हो सका जिस वादे पर अब वोटों को लुभाया जा रहा है। इसी साक्षात्कार में पूछे गये इस सवाल के उत्तर में कि गुजरात में किसी उद्योगपति विशेष को किस दर पर ज़मीनें दी गयीं जिन्हें कांग्रेस के नेता टाफी के रेट में ज़मीनें देना कह रहे हैं, मोदी ने कहा कि उन्हें इस समय याद नहीं है कि उनके शासन काल में किस रेट पर ज़मीनें दी गयीं पर उसी समय उन्हें यह जरूर याद आ गया कि कांग्रेस के शासनकाल में किस रेट पर ज़मीनें दी गयी थीं।   
       साक्षात्कार में यह बतानेवाले मोदी कि चुनावी भाषण में तेजतर्रारी होना अलग बात है किंतु शासन तेजतर्रारी से नहीं चलता, की बात इसलिए अविश्वसनीय लगी क्योंकि गुजरात में 2002 से लेकर हरेन पंड्या की हत्या, इशरतजहाँ की मुठभेड़ के नाम पर की गयी हत्या और सहाबुद्दीन हत्याकांड समेत राजनीति से जुड़े अनेक हत्यारों को उनकी सरकार के दौरान न केवल संरक्षण ही दिया गया अपितु महत्वपूर्ण पद देकर कानून के हाथों से बचाने की कोशिशें भी हुयीं।
       आज देश के बड़े बड़े साहित्यकार, पत्रकार, बुद्धिजीवी, कलाकार, और सच्चे धार्मिक ईमानदार लोग चुनावों में दुष्प्रचार के प्रभाव की आशंका से व्यथित हैं। जिन आधारों पर वर्तमान सरकार की लोकप्रियता कम हुयी है उनको दूर करने की कोई ठोस योजना और समयसीमा भी सामने नहीं रखी जा रही है। लोग इसलिए भी आशंकित हैं कि जो सरकार लोकतंत्र में पूर्ण आस्था नहीं रखती वह अपने अस्तित्व की रक्षा में हिंसा का सहारा लेती है और उसे हटाने में वैसी ही प्रतिहिंसा पैदा होती है, जिससे लोकतंत्र खतरे में आता है। जब संघ के नेतृत्व में भाजपा की नहीं अपितु मोदी की सरकार बनवाने के प्रयास हो रहे हों और भाजपा के उदारवादी चेहरों तक को हाशिए पर धकेला जा रहा हो तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यदि भाजपा का चुनाव चिन्ह जीतता है तो देश पर शासन कौन करेगा।          
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, अप्रैल 21, 2014

हिन्दी गज़ल की नींव के पत्थर ; बलबीर सिंह रंग



हिन्दी गज़ल की नींव के पत्थर ; बलबीर सिंह रंग
वीरेन्द्र जैन 

                हिन्दी गज़ल की आज जो इमारत बुलन्द है उसकी नींव में भारतेन्दु हरिश्चन्द, निराला, शमशेर, आदि के अलावा सबसे महत्वपूर्ण नाम बलबीर सिंह रंग का है। हिन्दी गज़ल के नाम से जाना जाने वाला गज़ल का जो ताज़ा रूप है उसे हिन्दुस्तानी गज़ल कहा जाना चाहिए जिसमें हिन्दी उर्दू का भेद मिटा के दो लिपियों में लिखी जाने वाली एक भाषा की काव्य विधा में रचनाएं रची जा रही हैं, व सर्वाधिक लोकप्रिय विधा हो रही हैं। इस विधा ने कविता से दूर हो रहे पाठक व श्रोताओं को फिर से जोड़ने का महत्वपूर्ण काम किया है। रंग जी को देवनागरी लिपि में बोलचाल की भाषा में गज़ल लिखने वाले पहले कुछ गज़लकारों में गिना जा सकता है। उनकी इस पहचान के स्थापित न हो पाने का सबसे बड़ा कारण यह रहा कि उनकी लोकप्रियता गीतकार के रूप में भी उससे कुछ अधिक ही थी जितनी कि गज़लगो के रूप में। यही कारण रहा कि बाद में जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन और इमरजैंसी विरोधी कवि दुष्यंत कुमार हिन्दी गज़ल के अग्रदूत माने गये।
       हर विधा के जन्मकाल और उसके जनमानस में व्याप्त होने के पीछे तत्कालीन सामाजिक परिवेश काम करता है। परिवेश में आने वाले परिवर्तनों के साथ उस विधा की कविता की विषय वस्तु भले ही बदल जाती है पर विधा की अपनी पहचान ज़िन्दा रहती है। रंग जी ने गज़ल में गज़लियत को बनाये रखा है।
आबोदाना रहे, रहे न रहे
चहचहाना रहे, रहे न रहे         
हमने गुलशन की खैर मांगी है
आशियाना रहे, रहे न रहे        
आखिरी बार सोच ले सय्याद
ये जमाना रहे, रहे न रहे        
शेखजी के मिज़ाज़ का क्या है
सूफियाना रहे, रहे न रहे        
रंग को अंजुमन से निस्बत है
आना-जाना रहे, रहे न रहे        
       आज लोग यह नहीं समझ रहे कि आशियाने की खैर तभी तक है जब तक कि गुलशन की खैर है। जो लोग गुलशन की कीमत पर अपना आशियाना बनाने में लगे हैं उन्हें रंगजी से सीख लेनी चाहिए। खुद अभावों में जीकर मिर्ज़ा ग़ालिब का फक्कड़पन और मस्ती रंगजी के जीवन ही नहीं कविताओं में भी मिलती है, अपने से ज्यादा ज़रूरतमन्द के लिए अपनी जेब खाली कर देने की सैकड़ों कथाएं रंग के समकालीन सुनाते रहे हैं।
चाँदनी रात क्या करे कोई
चन्द लमहात क्या करे कोई
सुन लिया और हो गये खामोश
आप से बात क्या करे कोई
आलमे दो जहां में रौशन हूं
फिर मुलाकात क्या करे कोई
हम तो अपने सनम के शैदां हैं
होंगे सुकरात क्या करे कोई
रंग से बज़्म को परेशानी?
वक्त की बात क्या करे कोई
       ग़ज़ल की सारी शर्तों का निर्वाह करते हुए भी वे अपनी ग़ज़लों को गीतात्मक ग़ज़ल कहते थे। दूसरी ओर उनके गीतों में भी ग़ज़ल जैसी भावप्रवणता और दुखदर्द है।
बहुत से प्रश्न ऐसे हैं, जो दुहराये नहीं जाते
मगर उत्तर भी ऐसे हैं जो बतलाये नहीं जाते
इसी कारण अभावों का सदा स्वागत किया मैंने
कि घर आये हुये मेहमान लौटाये नहीं जाते
बनाना चाहता हूं स्वर्ग तक सोपान सपनों का
मगर चादर से ज्यादा पाँव फैलाये नहीं जाते
हुआ क्या आँख से आँसू अगर बाहर नहीं निकले
बहुत से गीत भी ऐसे हैं जो गाये नहीं जाते
सितारों में बहुत मतभेद है इस बात को लेकर
ज़मीं पर रंग जैसे आदमी पाये नहीं जाते
       रंगजी की एक बहुत पसन्द की गयी ग़ज़ल है
ज़माना आ गया रुसवाइयों तक तुम नहीं आये
जवानी आ गयी तन्हाइयों तक तुम नहीं आये
धरा पर थम गयी आंधी गगन में कांपती बिजली
घटाएं आ गयीं अमराइयों तक तुम नहीं आये
नदी के हाथ निर्झर की मिली पाती समुन्दर को
सतह भी आ गयी गहराइयों तक तुम नहीं आये
किसी को देखते ही आपका आभास होता है
निगाहें आ गयीं परछाइयों तक तुम नहीं आये
समापन हो गया नभ में सितारों की सभाओं का
उबासी आ गयी अंगड़ाइयों तक तुम नहीं आये
न शमा है, न परवाने, ये है क्या रंग महफिल का
कि मातम आ गया शहनाइयों तक तुम नहीं आये
       रंगजी की गज़लों को याद करते रहें तो सिलसिला कभी खत्म होने का नाम नहीं लेता पर एक और मनमोहक ग़ज़ल से समाप्त कर रहा हूं।
अब मुझे प्यार से डर लगता है
उसके इज़हार से डर लगता है
वक्त का क्या है गुज़र जायेगा
उसकी रफ्तार से डर लगता है
अपनी तौबा पै एतबार मुझे
चश्मे इसरार से डर लगता है
जो पिये दूसरों के हिस्से की
ऐसे मैख्वार से डर लगता है
सुन के होशो-खिरद के अफ़साने
हर समझदार से डर लगता है
रंग को इस कदर हुए धोखे
हर समझदार से डर लगता है
       रंग जैसा बड़ा शायर सबसे आगे इंसानियत को रखता है और सीना ठोक कर कहता है कि वह अपने शायर से भी बड़ा इंसान है- शाइर नहीं है रंग मगर आदमी तो है। उनके विपरीत आज बड़े बड़े नाम और सम्मानों पुरस्कारों वाले कवियों शायरों ने इंसानियत को अपने सम्मानपत्र के पीछे छुपा कर रख दिया है। रंगजी समेत सारी छन्द कविता का कमजोर मूल्यांकन करने वाले आलोचकों के संवेदनहीन ज्ञान को रंग एक शे’र में चुनौती देते हैं-
रंग का रंग ज़माने ने बहुत देखा है,
क्या कभी आपने बलबीर से बातें की हैं?   
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, अप्रैल 16, 2014

ये लहर क्या किसी फिल्म के सैट पर है?

ये लहर क्या किसी फिल्म के सैट पर है?  
वीरेन्द्र जैन

      हमारी व्यवस्था में किसी क्षेत्र के चुनाव परिणाम क्षेत्र विशेष में चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों के बीच सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाले को जीता हुआ दिखाते हैं। इन बहुदलीय चुनावों में कई उम्मीदवार कुल बीस प्रतिशत मत पाकर भी जीत जाते हैं और कई 40 प्रतिशत मत पाकर भी हार जाते हैं। इसके विपरीत लहर प्रबन्धित चुनाव परिणामों से नहीं अपितु जनसमर्थन की तीव्रता से जुड़ा होता है जिसमें लाखों एकजुट मतदाता उम्मीदवार की जीत हार को अपनी जीत हार से जोड़ कर देखते हैं। इस विशाल लोकतंत्र में किसी की लहर का मतलब होता है कि उस दल विशेष या नेता विशेष को उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक इतना समर्थन मिलता दिखाई दे कि जो डाले गये मतों में भी कम से कम 40 प्रतिशत मतों से अधिक हो। ऐसी लहर 1971, में श्रीमती इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व वाली नई कांग्रेस को 43.61 प्रतिशत और सहयोगी सीपीआई को 4.73 अर्थात कुल 48.34 प्रतिशत मत मिले थे, जबकि भारतीय जनसंघ को 7.35 प्रतिशत मत मिले थे। 1977 में अनेक दलों के गठबन्धन जनता दल जिसने भारतीय लोकदल के चुनाव चिन्ह पर चुना लड़ा था को 41.32 प्रतिशत और सहयोगी सीपीएम को 4.29 प्रतिशत मत अर्थात कुल 46.61 प्रतिशत मत मिले थे। 1980 में किसी लहर का आभास नहीं था किंतु जनता दल के आपसी झगड़ों से निराश जनता ने श्रीमती गाँधी के नेत्तृत्व वाली कांग्रेस को 42.69 प्रतिशत मत दिये थे। 1984 में राजीव गाँधी वाली कांग्रेस के पक्ष में जो सहानिभूति लहर उठी थी उसमें कांग्रेस को 49.1 प्रतिशत मत मिले थे जबकि सबसे बड़े विपक्षी दल भाजपा को कुल 7.74 प्रतिशत मत मिले थे।
      यह अनेक प्रमाणों से सिद्ध हो चुका है कि भाजपा संघ की मानस पुत्री है और संघ का गठन हिटलर के सिद्धांतों से प्रेरित है व उसका संगठन और कार्य प्रणाली भी लगभग वैसे ही हैं। हिटलर के साथी गोएबल्स का कहना था कि बारम्बार बोला गया झूठ भी सच लगने लगता है और यही कारण है कि इन चुनावों में इस संगठन ने अधुनातन मीडिया का लगातार दुरुपयोग करते हुए यह झूठ फैलाने की कोशिश की है कि उनको व्यापक समर्थन प्राप्त है। इस दुष्प्रचार के लिए उसने कुख्यात नरेन्द्र मोदी की छवि को विकास पुरुष के रूप में बनाने के लिए काफी पहले से प्रयास शुरू कर दिये, अम्बानी अडानी से लेकर टाटा की नैनो कम्पनी तक को कोड़ियों के मोल पर जमीनें और अरबों रुपयों की अन्य सुविधाएं देकर गुजरात में आमंत्रित किया और बदले में मोदी के पक्ष में विकास पुरुष का प्रमाणपत्र दिलवाने लगे। गुजरात सरकार की ओर से विभिन्न सूचना माध्यमों में सरकारी विज्ञापनों और किराये के अर्थविशेषज्ञों द्वारा विकास की अतिरंजित कहानियां प्रकाशित की जाने लगीं। जो पत्रकार, लेखक और बुद्धिजीवी मोदी की निरंतर निन्दा करते रहे थे उनमें से कुछ उनका बिना किसी ठोस तर्क के रातों रात हृदय परिवर्तन ढेर सारी आशंकाओं को जन्म दे गया। भाजपा शासित अन्य राज्यों में भी लगभग ऐसी ही प्रचार योजनाएं कार्यांवित की गयीं और मीडिया को मुक्तहस्त से विज्ञापन दिये गये क्योंकि किसी भी सरकार द्वारा विज्ञापनों में खर्च की जाने वाली राशि का कोई नीति नियम नहीं है। बुन्देली में एक कहावत है कि जितने का कीर्तन नहीं हुआ उससे ज्यादा के मंजीरे फूट गये। भाजपा शासित राज्यों में भी विकास और विज्ञापन का यही हाल है। जब तक गैर भाजपा दल जागे और गुजरात के विकास की कलई खोलने की कोशिश की तब तक बहुत देर हो चुकी थी और सारी दीवारों पर लिखा जा चुका था या बुक हो गयीं थीं।
      सच्चाई तो यह है कि रामजन्मभूमि के नाम से भाजपा द्वारा चलाये गये अभियान को छोड़ कर भाजपा के पक्ष में कोई एकदम उछाल नहीं आया। उसे 1984 में उसे 7.74 प्रतिशत मत मिले थे तो 1989 में 11.36 प्रतिशत। पर रामजन्मभूमि वाले अभियान और अडवाणी की रक्तरंजित रथयात्रा के दौर के बाद 1991 में 20.11 प्रतिशत, 1996 में 20.29 प्रतिशत, 1998 में 25.59 प्रतिशत, मत मिले। 2004 में उनकी सरकार के इंडिया शाइनिंग के दौर में 22.16 प्रतिशत से घटकर 2009 में 18.80 प्रतिशत पर आ गये थे। उनके गठबन्धन के सहयोगियों को मिला कर भी वे इस समय 25 प्रतिशत के आस पास हैं। लहर के लिए उन्हें कम से कम 15 प्रतिशत और मत चाहिए पर कहानी कुछ और ही कह रही है। इस बार उन्होंने चुनाव से पूर्व ही इतने सारे अल्पज्ञात दल जोड़ लिये हैं जिससे उनकी अपनी प्रचारित लहर पर उनके अविश्वास का संकेत मिलता है। अपनी लहर के प्रचार के सहारे अब तक जिनसे समझौता कर चुके हैं वे 23 दल इस प्रकार हैं और रोचक यह है कि इन दलों को भले ही भाजपा के मत ट्रांसफर हो जायें पर उनके मत भाजपा के पक्ष में ट्रांसफर होने में संदेह है क्योंकि उनका गठन जिस आधार पर हुआ है वे भाजपा की पहचान से मेल नहीं खाते। इस गठबन्धन में हैं- भाजपा [116], शिव सेना[11] शिरोमणि अकाली दल [4]  नागा पीपुल्स फ्रंट[1] हरियाना जनहित काँग्रेस [1] स्वाभिमानी पक्ष [1] एमडीएमके[1], तेलगुदेशम पार्टी[6] रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया-अठवाले[0]महाराष्ट्रवादी गोमंतक पार्टी[0]  नैशनल पीपुल्स पार्टी[0] राष्ट्रीय समय पक्ष[0] गोरखा जनमुक्ति मोर्चा[0] केमडीके[0] आइजेके[0] राष्ट्रीय लोक समता पार्टी[0] लोकजनशक्ति पार्टी[0] डीएमडीके[0] आल इंडिया एनआर कांग्रेस [0] केरल कांग्रेस नैशनलिस्ट[0] रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी बोल्शेविक [0] पट्टाई मक्कल कच्ची[0] मणिपुर पीपुल्स पार्टी[0] यूनाइटिड डेमोक्रेटिक फ्रंट[0] अपना दल[0]  नार्थ ईस्ट रीजिनल फ्रंट[0] जनसेना पार्टी[0]। इन सब को मिला कर उन्हें नई 160 सीटें और कम से 15 प्रतिशत मत अधिक चाहिए। ये इनके आत्मविश्वास की ही कमी है कि राज्यसभा सदस्य स्मृति ईरानी और हेमा मालिनी समेत विनोद खन्ना, किरन खेर, परेश रावल, शत्रुघ्न सिन्हा, मनोज तिवारी, बप्पी लाहिरी, बाबुल सुप्रियो, और जॉय बनर्जी को चुनाव में उतारने को विवश होते हैं। पूर्वसैनिक, प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों जनरल वी के सिंह, आईएएस भागीरथ प्रसाद, आर के सिंह और मुम्बई के पूर्व पुलिस कमिश्नर समेत दर्जन भर नौकरशाहों को टिकिट बाँटे हैं। यदि मोदी अपने काम के बल पर लहर होने का दावा कर रहे हैं तो अपने कर्मठ कार्यकर्ताओं के टिकिट काट कर इतने दलबदलुओं को टिकिट देने की जरूरत क्यों पड़ी। दूसरी जगहों को छोड़ भी दें तो मोदी के मानक गुजरात की 26 सीटों में से दस पर पूर्व कांग्रेसियों को टिकिट क्यों देना पड़ा? इनमें कच्छ से विनोद चावड़ा पूर्व एन एस यु आई एवं युवक कांग्रेस नेता, पूनम मदाम - जामनगर - पूर्व गुजरात प्रदेश कांग्रेस महिला महा मंत्री, विठ्ठल रादडिया - पोरबंदर - तीन बार कांग्रेस विधायक और एक बार कांग्रेस एम पी रह चुके है,  देवजी फ़तेपरा - सुरेन्द्र नगर - पूर्व कांग्रेस विधायक हलवद, लीलाधर वाघेला –पाटन के पूर्व कांग्रेस विधायक, रामसिंह राठवा - छोटा उदेपुर  पूर्व कांग्रेस विधायक  प्रभु वसावा - बार डोली - पूर्व कांग्रेस विधायक , डॉ किरीट सोलंकी - अहमदाबाद पश्चिम – पूर्व कांग्रेस नेता, डॉ. के सी पटेल - वलसाड - पूर्व कांग्रेस नेता, जिनकी पत्नी कांग्रेस से जिल्ला पंचायत में हैं, देवसिंह चौहान - खेड़ा - पूर्व कांग्रेस संगठन मंत्री सम्मलित हैं। यही कारण है कि अडवाणी ने गाँधीनगर से अपना फार्म भरते हुए कहा कि मोदी एक अच्छे इवेंट मैनेजर हैं।
      पिछले दिनों वे अपने दो महत्वपूर्ण पुराने सहयोगियों जनता दल [यू] और बीजू जनतादल से दूर हो चुके हैं और ममता बनर्जी व मायावती दोनों ही खुल कर भाजपा की आलोचना कर रही हैं। यद्यपि आक्रामक चुनाव प्रचार और सुविधाओं के अतिरेक में उनके अपने समर्थक सक्रिय हुये हैं किंतु कुछ अवसरवादी चुके हुए नेताओं को छोड़ कर ऐसा कोई वर्ग नहीं दिख रहा है जो गैर भाजपा दलों से टूट कर भाजपा की ओर अग्रसर हुआ हो। जो नया युवा वर्ग पहली बार मतदान करने वाला है उसका भी यूपीए सरकार से निराश बड़ा हिस्सा नवोदित आम आदमी पार्टी को विकल्प के रूप में देख रहा है।
      कुल मिला कर यह लगता है कि सारी लहर केवल प्रिंट और आडियो- वीडियो मीडिया, होर्डिंग्स, बैनर, प्रायोजित रैलियों तथा बिके हुए बुद्धिजीवियों की बहसों तक सीमित है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

किताबों के बहाने राजनीतिक हमले

किताबों के बहाने राजनीतिक हमले
वीरेन्द्र जैन

       सोलहवीं लोकसभा के लिए हो रहे आम चुनाव देश में हुए पिछले आम चुनावों से भिन्न हैं जो सबसे बड़े विपक्षी दल के एक व्यक्ति की तानाशाही में बदलने और उसके द्वारा चुनाव जीतने के सारे हथकण्डे अपनाने के लिए जाने जा रहे हैं। इस राजनेता ने पहले तो अपने दल और पितृ संगठन के सक्रिय नेताओं को हाशिये पर किया और बाद में न केवल अपने विपक्षियों को दल बदलने के लिए उत्प्रेरित कर दो दर्ज़न से अधिक टिकिट तो हाल ही में दल बदल करके आने वाले लोगों को दिये हैं अपितु दूसरे दलों से टिकिट प्राप्त [भिंड] और नामांकन दाखिल करने के बाद [नोएडा] भी दलबदल करवाया है। मशहूर फिल्मी कलाकार, गायक, संगीतकार ही नहीं अपितु पूर्व राजघरानों  के सदस्यों के साथ साथ राज्य सभा सदस्यों, विधायकों. और राजनेताओं के पुत्र पुत्रियों, पूर्व सेना अधिकारियों, पुलिस अधिकारियों, प्रशासनिक अधिकारियों, को टिकिट देकर किसी भी तरह से जीत सुनिश्चित करने की व्यवस्थाएं की गयी हैं। अंतर्राष्ट्रीय विज्ञापन एजेंसियों की सेवायें लेना, सोशल मीडिया पर जाली एकाउंटों के द्वारा लोकप्रियता का भ्रम पैदा करना, वीडियो कैमरों की नई तकनीक से भीड़ को अतिरंजित करके दर्शाने और उसे मीडिया घरानों तक पहुँचाने, चुनावी सर्वेक्षणों की निरपेक्षता को प्रभावित करने और विज्ञापनों के समस्त माध्यमों में विज्ञापन की बाढ लाने के उदाहरण सामने हैं। देश को सबसे पुरानी और एतिहसिक पार्टी कांग्रेस से मुक्त करने के नारे से शुरू करके साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने तक के सारे अनैतिक तरीके अपनाये जा रहे हैं।
       चुनाव को संग्राम में बदल कर हर अनैतिक काम को उचित बनाने के इस दौर में ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व सलाहकार संजय बारू और पूर्व कोयला सचिव पारख की किताब का आना केवल एक किताब का आना और उस किताब पर भाजपा नेताओं की पूर्व तैयार प्रतिक्रिया का आना उनकी रणनीति के हिस्से से अलग नहीं है। सभी जानते हैं कि हमारे यहाँ क्रमशः परिपक्वता की ओर बढ रहे लोकतंत्र में चुनाव परिणामों में अभी तक चुनाव पबन्धन की बड़ी भूमिका है और गाँधीनगर से पर्चा भरते समय अडवाणीजी ने भाजपा की ओर से घोषित प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी मोदी को एक बेहतर इवेंट मैनेजर की तरह बता कर स्थिति को और भी स्पष्ट कर दिया था।
       इसमें कोई सन्देह नहीं कि श्री मनमोहन सिंह अचानक पैदा हुयी परिस्तिथियों के कारण प्रधानमंत्री बने थे और वे चुनावी प्रबन्धन में निष्णात जननेता कभी नहीं रहे। वे एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्री होने के बाद भी नई दिल्ली लोकसभा क्षेत्र जैसे सर्वाधिक शिक्षित मतदाताओं के बीच भी श्री जगमोहन से हार गये थे और उसके बाद असम राज्य से राज्यसभा में चुन कर आते रहे। देश की सभी गैरकांग्रेसी सरकारों के भी आर्थिक सलाहकार रहे श्री सिंह ने देश के इस सर्वोच्च पद पर आने के बारे में सोचा भी नहीं होगा। जब 2004 के लोकसभा चुनाव में अपने इंडिया शाइनिंग के भ्रम और कपोल कल्पित सर्वेक्षणों के प्रभाव में भाजपा को सच्चाई का सामना करना पड़ा और श्रीमती सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाली काँग्रेस से पराजय झेलना पड़ी तो वह बौखला गयी थी। उसको समर्थन देने वाले अधिकांश दल 2002 में गुजरात में हुये मुसलमानो के नरसंहार के बाद एनडीए को छोड़ कर जा चुके थे। इस बौखलाहट में उसने अपने पुराने गैर राजनीतिक हथकण्डों को अपनाना शुरू कर दिया।
       2004 के चुनावों के बाद कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गाँधी काँग्रेस की स्वाभाविक नेता के रूप में उभरी थीं और देश की बहुरंगी संस्कृति की तरह सभी क्षेत्रों और रुझानों वाले काँग्रेसियों का भी उनके नेतृत्व पर मतैक्य था। बाहर से समर्थन देने वाले बामपंथियों ने भी कह दिया था कि काँग्रेस में नेतृत्व का मामला उनका अपना आंतरिक मामला है और उनका बाहर से समर्थन न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर आधारित है। काँग्रेस संसदीय दल के चुनाव में भी श्रीमती गाँधी सर्व सम्मति से नेता चुनी गयी थीं। इस बीच अपनी अप्रत्याशित पराजय की खीझ में भाजपा ने यह जानते हुए भी कि वैधानिक रूप से देश का कोई भी नागरिक किसी भी पद पर चुना जा सकता है, सोनियाजी के विदेशी मूल का मुद्दा उछाल दिया था और समानांतर रूप से ईसाई मिशनरियों द्वारा बलात धर्म परिवर्तन के शगूफे उछालना शुरू कर दिये थे। श्रीमती सुषमा स्वराज ने तो श्रीमती गाँधी के प्रधानमंत्री पद पर आने की स्थिति में अपना सिर मुड़ाने, चने खाकर रहने और ज़मीन पर सोने जैसे आचरण करने की धमकी दे डाली थी जो हिन्दू धर्मग्रंथों में भारतीय विधवा के लिए बताये गये हैं। उनकी देखादेखी भाजपा में उनकी प्रतियोगी साध्वीके भेष में रहने वाली तमाशाई नेता उमा भारती ने भी भाजपा नेतृत्व से पूछे बिना ऐसा ही आचरण करने की चेतावनी दे डाली थी। उल्लेखनीय है कि श्रीमती सोनिया गाँधी ने श्री राजीव गाँधी की दुखद हत्या के बाद काँग्रेस के सर्वसम्मत अनुरोध के बाद भी राजनीति में रुचि नहीं ली थी और लगभग एक दशक तक दूरी बनाये हुये थीं। किंतु जब काँग्रेस निरंतर कमजोर होती गयी और देश पर फासिस्ट ताकतें देश विभाजन का खतरा पैदा करने लगीं तो उन्होंने बेमन से काँग्रेसियों के अनुरोध को स्वीकार कर आम चुनाव में जनता का विश्वास भी प्राप्त कर लिया था।
       इसमें कोई सन्देह नहीं कि भाजपा के कूटनीतिक लाँछनों और अपमानजनक आरोपों से दुखी होकर ही श्रीमती गाँधी ने स्वयं को दी गयी ज़िम्मेवारी को श्री मनमोहन सिंह की ओर कर दिया था और उन्हें इस पद को ग्रहण करने के लिए मना लिया था। इस घटनाक्रम के दौरान कुछ असंतोष के स्वर भी उभरे थे जिन्हें परिस्तिथियों के सन्दर्भ में सामूहिक नेतृत्व के आश्वासन और श्रीमती सोनिया गाँधी द्वारा यूपीए की चेयरपर्सन का पद स्वीकारने के तर्क पर शांत कर दिया गया था। उल्लेखनीय यह भी है कि पिछले दिनों जब अडवाणी जी को संघ के निर्देश पर सदन में भाजपा के नेतृत्व से हटा दिया गया था और श्रीमती सुषमा स्वराज को इस पद पर प्रतिष्ठित कर दिया गया था तो उनका कहना था कि उन्होंने यह पद अडवाणीजी के इस आश्वासन के बाद ही स्वीकार किया है कि वे दोनों सदनों के नेताओं के ऊपर संसदीय दल का वास्तविक नेतृत्व करते रहेंगे। स्मरणीय है कि विपक्ष के नेता का पद भी संवैधानिक पद है और विपक्ष के नेता को केबिनेट मंत्री की सुविधाएं और अधिकार प्राप्त हैं।
       प्रधानमंत्री कार्यालय ने संजय बारू की किताब में लगाये गये सभी आरोपों से इंकार किया है किंतु ऐसी दशा में यदि पूर्ण सहमति से प्रधानमंत्री गठबन्धन की अध्यक्ष के साथ मिलकर कोई नीतिगत विमर्श करते या सलाह लेते भी हों तो वह अनैतिक तो नहीं माना जा सकता। ठीक चुनाव के बीच में किताब के आने के समय को देखते हुए इस किताब को सामान्य संस्मरण पुस्तक भी नहीं माना जा सकता जबकि प्रधानमंत्री की पुत्री का कहना है कि संजय बारू ने अपनी पुस्तक को चुनाव के बाद जारी करने की बात कही थी। भाजपा के प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी श्री नरेन्द्र मोदी देश के इस महत्वपूर्ण पद को जिस तरह की सस्ती मजमेबाज लोकप्रियता की बैशाखियों पर खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं, इस समय पर इस पुस्तक का आगमन इसी की कड़ी का हिस्सा मालूम देती है और दुर्भाग्यपूर्ण है। स्मरणीय है कि विपक्ष द्वारा अपनी आलोचना के स्तर पर क्षुब्ध होकर एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने कहा था कि इन्दिरा गाँधी महत्वपूर्ण नहीं हैं किंतु देश के प्रधानमंत्री का पद महत्वपूर्ण है और इस पद की गरिमा को नीचे गिराने के काम को देश की गरिमा के साथ किये जाने वाले व्यवहार की तरह देखा जाना चाहिए।  
वीरेन्द्र जैन
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मोबाइल 9425674629

       

बुधवार, अप्रैल 09, 2014

फिल्म समीक्षा क्वीन- नारी चेतना की अंगड़ाई

फिल्म समीक्षा
क्वीन- नारी चेतना की अंगड़ाई
वीरेंद्र जैन
                                                                                
       अंगड़ाई, वह देह मुद्रा होती है जो कोई मनुष्य या प्राणी देर तक सोने या विश्राम के बाद शरीर को फिर से काम करने के लिए सक्रिय करने हेतु फैलाता और मरोड़ता है। दासों को यह अनुमति नहीं होती थी कि वे अपने स्वामियों के सोने के बाद जागें इसलिए उनके सामने उनके अंगड़ाई लेने को भी अनुशासनहीनता माना जाता था। यही हाल पत्नियों का भी था जो अपने थोपे गये अनुशासन में स्वयं को पति के चरणों की दासी मानने लगती थीं। किसी महिला का किसी पुरुष के सामने अंगड़ाई लेने को अश्लीलता या कामुक आचरण माना जाता था। हिन्दी की एक अश्लील कथा पत्रिका का नाम ही ‘अंगड़ाई’ था।
       पिछली सदी के पूर्वार्ध में रूस में हुयी समाजवादी क्रांति के बाद से नारियों को समान अधिकार मिलने शुरू हो गये थे। इंगलेंड जैसे देश ने हमें तो दो सौ साल गुलाम रखा ही पर अभी तक सर्वोच्च पद पर वंश परम्परा से मुक्त न हो सकने वाले इस देश ने अपने यहाँ की नारियों को भी वोटिंग का अधिकार 1925 में दिया, और फ्रांस में यह अधिकार 1944 में दिया गया। हमारे यहाँ आज़ादी के बाद संविधान के लागू होते ही महिलाओं को समान अधिकार मिल गया था पर स्विट्जरलेंड जैसे देश में यह अधिकार 1971 में मिला।
       परतंत्रता की कई ग्रंथियां होती हैं और स्वतंत्रता के लिए उन सब को खोलना होता है। कहाँ कौनसी ग्रंथि पहले खुलती है यह परिवेश पर निर्भर करता है। पिछले दिनों आयी फिल्म ‘क्वीन’ नारी वर्ग की ऐसी ही चेतना की पकती हांड़ी के एक दाने की कथा है।  1947 में देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान से आये शरणार्थियों द्वारा अपने व्यापारिक कौशल से सम्पन्न हुये पंजाबी परिवार की एक लड़की के बदलाव की कथा है। इस परिवार की एक लड़की रानी [कंग़ना रनौत]  की सगाई के बाद शादी से दो दिन पहले ही लड़का विजय [राज कुमार राव] शादी से इंकार कर देता है। शादी दोनों परिवारों की सहमति से हुयी थी और लड़की शादी से पहले लड़के से डेटिंग करती रही थी, और अपने हनीमून को पेरिस और एम्स्टर्डम में मनाने के ख्वाब सजा लिये थे। शादी की पूरी तैयारियों के बाद जब यह घटना घटती है तो नवधनाड्य परिवार के सम्मान को लगी ठेस के साथ मासूम लड़की को अपने हनीमून का ख्वाब टूटने का दुख ज्यादा रहता है। नई आर्थिक नीतियों के वैश्वीकरण ने हमारी संस्कृति का पश्चिमीकरण कर दिया है और हमारी युवा पीढी की भावनाओं में गहराई कम व सतहीकरण अधिक आ गया है। आहत लड़की अपने को कमरे में बन्द कर लेती है और आशंकाओं में डूबा परिवार अपना आहत आत्मसम्मान भूल कर उसे मनाने में जुट जाता है। बाहर परिवार को भले ही उसके चौबीस घंटे से भूखे रहने की चिंता है पर वह भूख लगने पर अन्दर रखे मिठाई के डिब्बों में से लड्डू खाती रहती है। पुरानी पीढी उसे मनाने के लिए उसकी हर माँग मानने को तैयार हो जाती है जिसमें उसके पूर्व से रिजर्व टिकिट और होटल में अकेले ही हनीमून पर जाने का प्रस्ताव है। कथा यहाँ से ही प्रारम्भ होती है जहाँ उस बेहद मासूम कबूतर सी लड़की जो सड़क पार करने में भी डरती रही थी व जिसे बाहर छोटे भाई के सात्ह ही भेजा जाता था. को एक नई दुनिया देखने को मिलती है।
       परम्परागत व्यापारी परिवार में पली लड़की को होटल में काम करने वाली एक लड़की विजयलक्ष्मी मिलती है जिसके माँ और बाप दोनों ही मिश्रित राष्ट्रीयता के थे और एक मिश्रण भारतीयता का भी था इसलिए वह टूटी फूटी हिन्दी भी जानती है। वह बिना ब्याही माँ है जो एक ओर तो बिना किसी हीन भावना के होटल में सफाई का काम करती है बच्चे की परवरिश करती है, और दूसरी ओर अपनी स्वतंत्रता को पूरी तरह जीते हुए शराब, डांस और फ्री सेक्स में डुबाये है। नायिका प्रधान इस फिल्म की कथा नायिका इस नई दुनिया को शुरू में भीगी बिल्ली की तरह असमंजस से देखती है और जब एक हादसे के बाद उसे इस अनजान देश में विजयलक्ष्मी [लिसा हिडेन] से सहारा मिलता है तो दुनिया को उसी की तरह साहस पूर्वक जीने की कोशिश करती है।  इस कोशिश में उसमें कई बदलाव आते हैं। उसे अपने अगले पड़ाव में एम्स्टर्डम जाना है जहाँ उसके पास होटल का कोई आरक्षण नहीं है। वह विजयलक्ष्मी से जिस हास्टल का पता लायी थी उसमें चार बेड वाले रूम में एक बेड ही उपलब्ध है और शेष तीन बेड पर लड़के हैं। वह उस हास्टल में न रुकने की सोचती है पर दूसरी जगह पाने में सफल नहीं होती और मजबूरी में लौट आती है। तीन लड़कों के साथ वाले कमरे में रहने से आतंकित वह सोने के लिए कमरे से बाहर बेंच पर सोने चली जाती है तो तीनों खुद बाहर सोकर उसे अन्दर सोने के लिए दे देते हैं। उनके इस मानवीय व्यवहार से वह अभिभूत हो जाती है और उनकी मित्र बन जाती है। उसके इन नये मित्रों में से एक फ्रेंच है तो दूसरा जापानी व तीसरा रशियन। सबकी अपनी अलग अलग भाषाएं और काम हैं सबके अपने अपने दुख भी हैं। फ्रेंच लड़का चौराहे पर गिटार बजाता है जिससे सुनने वाले उसे पैसे देते हैं, रशियन पैंटिंग करता है और पूरी दुनिया को पेंट कर देने के सपने देखता है ताकि दुनिया शांति से भर सके। अपने माँ बाप को खो चुके जापानी लड़के का पूरी दुनिया में कोई नहीं है और वह कोई भी सहयोगी काम कर लेता है। चे ग्वारा का पोर्ट्रेट कमरे में लगाये ये लड़के राक संगीत पसन्द करते हैं और बिन्दास जीवन जीते हैं। लड़की इन तीनों के साथ को जीने लगती है। विजयलक्ष्मी द्वारा दी गयी एक सामग्री को देने जब वह उसकी भारतीय मित्र की तलाश में जाती है जो जहाँ रहती है वह वहाँ का प्रसिद्ध रेडलाइट एरिया है, और परिस्तिथियोंवश अपनी छह बहनों व माँ को हिन्दुस्तान में पालने के लिए विदेश में काम करने आयी थी पर मन्दी के दुष्परिणामों वश उन्हें बिना बताये वहाँ सेक्सवर्कर बनना पड़ा था। खाने की तलाश करते हुए वह एक रेस्त्राँ चलाने वाले के सम्पर्क में आती है और उसके आग्रह पर भारतीय व्यंजन बना कर बेचने का प्रयोग करती है और रूम मेट्स के सहयोग से प्रयोग में सफल भी होती है। इसी बीच उसका पुराना मँगेतर अपनी गलती मनाते हुए उसे मनाने के लिए तलाशता हुआ आ जाता है पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। वह भारत लौट कर बात करने का कह कर उसे लौटा देती है जिससे वह उम्मीद पाल लेता है, पर लौट कर वह पहला काम यही करती है कि साहस के साथ उसकी सगाई की अँगूठी लौटा देती है।
       नायिका के रूप में कँगना रानौत विजयलक्ष्मी के रूप में लिसा हिडेन और नायक के रूप में राजकुमार राव समेत सभी का अभिनय बेहतरीन है, न कहानी में कहीं झोल है और न ही विकास बहल के निर्देशन में। अच्छी फोटोग्राफी दर्शक को सीट पर बैठे बैठे ही पेरिस और एम्स्टर्डम घुमा देती है  लगातार लीक से हट कर बनती इन फिल्मों से बालीवुड के प्रति उम्मीद भरी निगाहों से देखा जा सकता है और उसके उज्जवल भविष्य की कामना की जा सकती है।   
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, अप्रैल 04, 2014

राजनीतिक जगत में छवियों का खेल

राजनीतिक जगत में छवियों का खेल
वीरेन्द्र जैन

       मुख्तार अब्बास नक़वी ने साबिर अली की भाजपा में भर्ती से असंतुष्ट दिख कर सार्वजनिक रूप से कहा था कि अली आतंकी भटकल के दोस्त हैं और अब तो दाउद भी भाजपा में आ जायेंगे। वे इस पार्टी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष हैं। इससे घबरा कर भाजपा ने बिना किसी तर्क वितर्क जाँच के साबिर अली को चौबीस घंटे के अन्दर बाहर का रास्ता दिखा दिया। दूसरी ओर जब अली ने माफी न माँगने की दशा में पत्नी के मुख से इस निष्कासन का विरोध करवाया और मानहानि के दावे समेत मुख्तार के घर के बाहर अनशन की धमकी दिलवायी तो उनका कहना था कि मेरी साबिर अली से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है पर उनकी छवि अच्छी नहीं है। उनके इस दूसरे बयान ने देश की सत्ता पाने का सपना देखने वाली भाजपा के अन्दर की कार्यप्रणाली पर ढेरों सवालिया निशान खड़े कर दिये हैं। जो पार्टी चेहरा चाल चरित्र का नारा देती थी वह केवल चुनावों की चिंता करते हुए चेहरे के आधार पर चालें चल रही है और चरित्र से उसे कोई मतलब नहीं रह गया है। राजनीतिक नेता और कार्यकर्ता उसके लिए केवल मोहरे हैं, जिन्हें कभी भी इधर से उधर किया जा सकता है।   
       उल्लेखनीय है कि इन दिनों भाजपा ने जिस व्यक्ति को चुनाव से पहले ही चुने जाने वाले सांसदों का अधिकार छीन कर प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी वाले राष्ट्रीय कार्यकारिणी के निर्णय को थोप दिया है उन नरेन्द्र मोदी की छवि देश और दुनिया में कैसी है उस पर ढेरों सामग्री उपलब्ध है। यदि छवि का ही सवाल था तो भाजपा में मोदी से वरिष्ठ दर्ज़नों दूसरे अपेक्षाकृत बेहतर छवि वाले लोग मौजूद थे जिनमें लालकृष्ण अडवाणी से लेकर सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, शिवराज सिंह चौहान, आदि लोग मौजूद थे जिन्हें प्रशासनिक और संसदीय कार्य का अनुभव है। किंतु जिस व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया है उसकी छवि सबसे अधिक खराब थी, जिसके कर्मों से दुखी होकर भाजपा के सबसे लोकप्रिय वरिष्ठ नेता तत्कालीन प्रधान मंत्री को कहना पड़ा था कि अब मैं कौन सा मुँह लेकर विदेश जाऊंगा। दूसरी ओर किसी व्यक्ति को पार्टी में प्रवेश देने के पूर्व उसकी छवि के बारे में जानकारी करने का काम पार्लियामेंटरी बोर्ड के अंतर्गत प्रवेश देने वाली समिति का होता है और प्रवेश देने के बाद किसी सदस्य विशेष द्वारा अपनी आपत्ति को सार्वजनिक करना और उस पर आनन फानन में फैसला ले लेना पार्टी के लोकतंत्र का मजाक है जिस की बार बार दुहाई दी जाती है। जब एक बार प्रवेश दे दिया जाता है तो किसी भी निष्कासन के लिए उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए था।
       सच तो यह है कि भाजपा सत्ता के लिए जिस अन्धी हवस में है उसमें उसने अपने विवेक और बची खुची नैतिकिता को भी तिलांजलि दे दी है। इससे पूर्व इस पार्टी ने पिछले दिनों में जैसे लोगों को पार्टी में भर्ती किया है उससे तुलना करने पर एक चुटकला याद आ रहा है – एक व्यक्ति किसी मनोचिकित्सक के पास पहुँचा और कहा कि डाक्टर साहब मुझे बार बार एक सपना आता है कि मैं भरे बाज़ार के चौराहे पर नितांत नगा घूम रहा हूं, सिर्फ जूते पहिने हुये। डाक्टर ने उसकी ओर सहानिभूति से देखते हुए कहा कि तब तो आपको बहुत शर्म आती होगी। हाँ डाक्टर साहब शर्म की बात ही होती है क्योंकि उन जूतों पर पालिश जो नहीं की हुयी होती है। शर्म किस बात पर आना चाहिए थी और किस बात पर आ रही है।
       कुछ उदाहरण देखिये-
·         अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री गीगांग अपांग को पार्टी में सम्मलित कर लेने पर श्री नक़वी को छवि का ध्यान नहीं आया जो एक हजार करोड़ के पीडीएस घोटाले में जेल जा चुके हैं
·         बेल्लारी से श्रीरामलु को पार्टी में सम्मलित किये जाने पर लोकसभा में भाजपा की नेता सुषमा स्वराज को शर्म के मारे निर्णय से स्वयं के असहमत होने के बारे में सार्वजनिक बयान देना पड़ता है।
·         रामविलास पासवान से गठबन्धन करने के बाद उनके लिए बिहार में जो सात सीटें छोड़ी गयी हैं उनमें से एक सीट हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा पाये कुख्यात बाहुबली सूरजभान सिंह की पत्नी वीना सिंह की है
·         इसी गठबन्धन में एक सीट अनेक संगीन अपराधों के मामले दर्ज़ रमा सिंह की भी है
·         नरेन्द्र मोदी को कातिल से लेकर विभिन्न विशेषणों से सुशोभित करने वाले कल तक यूपीए सरकार में मंत्री रहे जगदम्बिका पाल को गले चिपका कर फोटो खिचवाने से कोई छवि खराब नहीं हुयी।
·         जब तक समाजवादी पार्टी का कानपुर से टिकिट घोषित रहा तब तक छप्पन इंच की छाती राक्षस की बतलाने वाले मसखरे राजू श्रीवास्तव को छवि की चिंता किये बिना सम्मलित कर लिया गया।
·         उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री और एनआरएचएम घोटाले के अभियुक्त बाबूलाल कुशवाहा को बेशर्मी के साथ सम्मलित कर देने के बाद चुनावी नुकसान का अनुमान कर बड़े सम्मान के साथ किनारे किया गया था
आधा दर्जन फिल्म स्टार, एक दर्जन साधु साध्वी वेषधारी पाखण्डी नेता, पूर्व राजा रानियां, आदि को समेट कर चुनाव के लिए जो भानुमती का कुनबा जोड़ा जा रहा है उसे पेड मीडिया लहर बता रहा है। रोचक यह है कि इस ड्रामे का नायक इतना भी आश्वस्त नहीं कि विधानसभा और मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे देता और लोकसभा के लिए किसी एक ही स्थान से चुनाव लड़ता। यदि श्री नक़वी को सचमुच ही साबिर अली के भटकल से सम्बन्धों के बारे में पता था तो देश हित में सुरक्षा से जुड़े लोगों को बता कर सावधान करना चाहिए। पर मोदी देश की सुरक्षा के मामले में देश के रक्षा मंत्री और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री पर सार्वजनिक मंच से गद्दारी का आरोप लगाते हैं और कोई सुरक्षा एजेंसी उनसे सच्चाई भी जानने की कोशिश नहीं करती।
       भाजपा को अगर देश की सचमुच कुछ फिकर हो तो देश की सुरक्षा के मामले टुच्चे राजानीतिक लाभों से ऊपर उठ कर गम्भीर मदद करना चाहिये और चाय की दुकानों जैसे हल्के फुल्के मनमाने आरोप लगाने से बचना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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