रविवार, फ़रवरी 28, 2010

एकजुटता की जीत

वर्ल्ड कप में भारत पाकिस्तान से जीता
होली के त्योहार के अवसर पर हाकी में भारत की जीत का रहस्य भारतीय टीम की एक जुटता में छुपा है। यह एक जुटता उन्होंने मैच खलने से पहले अपने हक़ के लिये हाकी के प्रबन्धन से एकजुट लड़ाई करके प्राप्त की थी। यह इस बात का प्रमाण है कि जो लोग अपने हक़ के लिये लड़ते हैं वे एकजुट होना भी सीख लेते हैं और यही एकजुटता जीत
दिलाती है
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629












वीरेन्द्र जैन virendra jain

नेपथ्यलीला द्वारा एक वर्ष में पोस्टों का शतक

नेपथ्यलीला द्वारा एक वर्ष में पोस्टों का शतक
मैं आज स्वयं को और नेपथ्यलीला के अपने इंटेर्नेटी मित्रों को बधाई देता हूं क्योंकि यह इस ब्लाग की सौवीं पोस्ट है। महत्व्पूर्ण यह है यह सौवीं पोस्त होली के शुभ अवसर पर पूरी हुयी है अतः दोनों अवसरों की शुभकामनायें एक साथ ग्रहण कीजिये।
अप्रैल 2009 से प्रारम्भ हुये इस ब्लाग में मुख्यतयः राजनीति, समाज, साहित्य, व्यक्तित्व और कृतित्व, संस्मरण, श्रद्धांजलि, तथा विचार विमर्श से सम्बन्धित विषयों पर पोस्टें प्रकाशित की गयीं जिनमें कुछ प्रमुख ब्लागरों ने टिपाणियाँ कीं व दो हज़ार से ऊपर दर्शकों को आकर्षित किया। कुछ समाचार पत्रों ने इनका पुनर्प्रकाशन किया। एक दो पोस्टों को तो कुछ लोकप्रिय् ब्लागस ने प्रकाशित कर के बहस चलायी जिस में सैकड़ों ब्लागरों ने हिस्सा लिया।
मुझे खुशी है कि यह ब्लाग राजनीतिक गिरोहों के ब्लागों की तरह केवल ‘अहो रूपम अहो ध्वनिम’ सिद्ध नहीं हुआ। इसके स्थायी टिप्पणीकार नहीं रहे अपितु विभिन्न क्षेत्रों के विभिन्न लोगों ने समय समय पर विषय की ज़रूरत के अनुसार अपनी टिप्पणियाँ दीं। विचारों के वैविध्य के कारण यह ब्लाग डेमोक्रेटिक् रहा। इस ब्लाग में नफरत फैलाने वाले ब्लागों के विचारों के साथ बहस चला कर उनकी झूठी कहानियों की हवा निकाली।
मेरे चार ब्लाग्स हैं और मैं विषय वैविध्य के कारण इनको एक में समेटने के पक्ष में नहीं हूं। चिकोटी में व्यंग लेख होते हैं तो वीरेन्द्र जैन के नश्तर में कभी धर्मयुग आदि में लिखी व्यंग्य कवितायें हैं तथा चकोरवाणी में मेरे गीत और कवितायें हैं। यद्यपि मेरे कुछ मित्रों की सलाह थी कि मैं इन्हें एक ही ब्लाग में समेट दूं पर यह मुझे मंजूर नहीं हुआ।
जिन मित्रों ने इस ब्लाग में भागीदारी की उनके प्रति आभारी हूं। कृपया इस अवसर पर अपने विचारों से अवगत करायें।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, फ़रवरी 27, 2010

शराब और समाज

[अस्वीकृति में उठा हाथ श्रंखला के अंतर्गत कुछ लेख कभी लिखे थे। यह लेख पूर्व में देशबन्धु समेत एक फीचर एजेंसी के माध्यम से कई समाचार पत्रों में छप चुका है। होली के अवसर पर होली की शुभकामनाओं के साथ साथ इसे ब्लाग के पाठकों के लिये पुनर्प्रस्तुत किया जा रहा है]

विर्मश
शराब और समाज
वीरेन्द्र जैन
एक ओर जहाँ शराब की आलोचना हमारी सामाजिक परंपरा में सम्मिलित रही है वहीं दूसरी ओर उसका प्रयोग तेजी से हमारे व्यवहार का हिस्सा बनता जा रहा है। यह हमारे समाज के बड़े पाखंडों में से एक है। सारी दुनिया के शराबियों में से इकतीस प्रतिशत लोग हमारे देश में रहते हैं। दक्षिण एशिया में हो रहे कुल शराब उत्पादन का पैंसठ प्रतिशत हमारे देश में होता है। आज से तीस साल पहले शराब पीने की औसत उम्र अट्ठाइस साल से प्रारंभ होती थी जो अब उन्नीस तक पहुँच गयी है, तथा इसका नीचे खिसकना लगातार जारी है।
हमारे समाज में विचार का बड़ा स्थान सूचनाएँ और मनोरंजन ने घेर लिया है व परिवर्तन की दिशा व जिम्मेवारी हमने बाजारवादी ताकतों पर छोड़ दी है। सच तो यह है कि हमने विचार करना ही छोड़ दिया है व अगर कहीं विचार सामने आता भी है तो उसके आधार पर सुधार करवाने का नेतृत्व सम्हालने वाले व्यक्ति या संगठन भी चुक गये हैं। एक लम्बे समय से हमारे यहाँ किसी बड़े समाज सुधार का आंदोलन नहीं चला है। लाखों की भीड़ एकत्रित करने वाले राजनीतिक दल और धार्मिक संतों की वेषभूषा में सजे रहने वाले घन्धेबाज अपने धन्धे की दृष्टि से भूले भटके अगर कभी कोई समाज सुधार का नारा उछाल भी देते हैं तो उन पर कोई भी अमल नहीं करता। वे सब के सब भीड़ के यथास्थितिवाद को प्रत्यक्ष या परोक्ष में सहलाते हुये भीड़ से वोट या धन वसूल कर चंपत होने में ही भलाई देखते हैं। वे एक आर्दश विचलित नगर के नागरिकों की प्रशंसा करते हुये उस नगर की महानता व उसके 'गुणग्राहक' नागरिकों की चापलूसी में अपने शब्द भंडार के सारे विशेषण लुटा देते हैं ताकि अपने लक्ष्य हासिल कर सकें। वे चोर को चोर नहीं कह सकते और ना ही गंदगी को गंदगी कहते हैं। उनका मंच वे लोग ही सम्हालते हैं जो समाज में हर तरह की गंदगी के लिए सर्वाधिक जिम्मेवार होते हैं।
देखना यह है कि शराब के विरोध की इतनी लम्बी परंपरा होने के बाद भी वह क्यों फैल रही है। ऐसे समय में शराब के केवल दोषों को गिनाना स्वयं को और जमाने को धोखा देना है। आवश्यकता इस पर गहन विचार विर्मश की है। जब तक बीमारी की जड़ तक नहीं पहुँचा जायेगा तब तक उसे दूर करने के बारे में सोचना केवल ऊपरी कर्तव्य निर्वहन से अधिक नहीं हो सकता।
शराब इतिहास के हर हिस्से में मौजूद है यहाँ तक कि पुराण कथाओं और सारी धार्मिक पुस्तकों में उसका उल्लेख है भले ही वह उसके नकार के रूप में मौजूद हो पर यह भी उस ग्रन्थ के रचनाकाल के दौर में उसकी उपस्थिति और उस उपस्थिति के आतंक की सूचना देती है।
शराब भूगोल के हर हिस्से में मौजूद है जो इस बात का प्रमाण है कि इस अविष्कार के पीछे दुनिया के हर कोने में रहने वाले मनुष्य की आवश्यकता सदियों से जुड़ी रही है। जितने लोग खुल कर शराब पीते हैं उतने ही छुप कर भी पीते हैं।
शराब साहित्य और साहित्यकारों के साथ ही कला के अनेक साधकों के साथ जुड़ी रही है। शराब राज्य और राजनीतिज्ञों के जीवन में भी दिखाई देती रही है। सैनिकों को इसे राशन की तरह दिये जाने की परंपरा रही है।
शराब हर तरह के अपराधियों और अत्याचारियों के जीवन में भी देखने को मिलती है। सामाजिक मूल्यों को ताक पर रख देने वाले जीवन से निराश लोग भी विवेकहीन ढंग से इसका भरपूर उपयोग करते हैं।
शराब को श्रम से पैदा हुयी थकान के बाद अच्छी नींद के द्वारा शक्ति को पुन: अर्जित करने के लिए भी दवा की तरह प्रयोग में लाया जाता है। गन्दे नालों और दूसरी बदबूदार जगहों की सफाई करने वालों को सफाई से पूर्व शराब का सेवन करना जरूरी हो जाता है ताकि वह उस बदबू को सहन कर सकें।
शराब को सर्दी से लड़ने के अस्त्र के रूप में भी प्रयोग में लाया जाता है यहाँ तक कि बच्चों तक को सर्दी के मौसम में ब्रान्डी जैसी शराब की एक दो चम्मचें दी जाती हैं। शराब को यौन क्षमता में वृद्धि करके यौनानन्द बढाने वाली भी माना जाता रहा है।
शराब की विशेषता यह है कि वह अस्थायी तौर पर व्यक्ति के मन को मजबूत करती है और वह अपने प्रभाव काल तक उसे सामाजिक दबावों से स्वतंत्र करती है। इसके सेवन के बाद मजदूर अपने मालिक के प्रति वे भावनाएं व्यक्त करता है जो उसके मन में होती हैं तथा कुंठित प्रेमी अपनी दबी भावनाएं व्यक्त कर देता है। अपने घर परिवार दोस्त और अफसरों द्वारा किया गया अन्याय जो उसने दबा कर रखा होता है वह फूट पड़ता है। स्वतंत्रता का यह अहसास उसे लगभग वैसा ही आनंद देता है जैसे कि किसी किशोर को पहली बार बाइक चलाने का अवसर मिलता है तो उसके पंख लग जाते हैं और वह हवा से बातें करने की कोशिश करता हुआ वहाँ वहाँ पहुँचने की कोशिश करने लगता है जहाँ वह साधनों के अभाववश जाने में असमर्थ रहा होता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि शराब व्यक्ति को सामाजिक बंधनों से मुक्त हो जाने का भ्रम देकर असामाजिक बनाती है। यह खुली असामाजिकता समाज को भयभीत करती है इसलिए वह शराब पीने वाले व्यक्ति को दण्डित करने के लिए उसकी निंदा से दण्ड देना प्रारंभ करता है। बाद में क्रमश: उसके दण्ड बढते जाते हैं। समाज चाहता है कि व्यक्ति उसके नियंत्रण में रहे व उसके द्वारा बनाये गये नियमों के अनुसार ही चले पर शराब का सेवन इसमें बाधक होता है।
शराब के उपरोक्त उपयोग देखते हुये सभी शराब पीने वालों को एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता क्योंकि समाज से असहमतियाँ व उसके प्रति विद्रोह के सबके तेवर भिन्न होते हैं। शराब पीने के लिए बदनाम शायरों और कवियों ने भी साहित्य जगत में अमूल्य रचनाएं दी हैं क्योंकि यह शोषणकारी समाज के प्रति अपने आक्रोश को व्यक्त करने का उनका तरीका था। (रोचक यह है कि बहुत सारे महात्वाकांक्षी नकलची साहित्यकार तो इस भ्रम में शराब पीने लगे कि उससे वे श्रेष्ठ साहित्य लिख सकेंगे।) घार्मिक मुल्ला मौलवियों व धर्म उपदेशकों के पाखण्ड का सर्वाधिक खुलासा इन्हीं अदीबों ने किया है जिसके लिए हजारों लाखों लोगों ने उनकी शराबनोशी को माफ कर दिया है व उन्हें दिलो जॉन से आदर दिया है। बुद्धिजीवियों के बीच में भी इसे वर्जित वस्तु नहीं समझा जाता।
जो लोग समाज से ऊपर माने जाते रहे हैं वे लोग समाजिक नियमों के पालन के प्रति निरपेक्ष होकर शराब का सेवन करते रहे हैं। जब से दुनिया में समानता के विचार ने जोर पकड़ा तब से समाज का आम आदमी भी समाज के शिखर पर बैठे लोगों जैसे होने के सपने देखने लगा है व एक वर्ग तो उनकी नकल करने लगा है जिसमें शराब का सेवन करना भी एक है। वह उनके लिए एक नई डिश की तरह है जो उनकी दावतों में परोसी जाकर उनके स्तर को बढाती हो। विशेष रूप से मध्यम वर्ग ऐसी नकलों के लिए मशहूर रहा है। नये शराबियों में सर्वाधिक इसी वर्ग के नवधनाड्य लोग जुड़ रहे हैं।
शराब सपनों की तरह मन की दूसरी कुंठाओं को बहुत तेजी से उभारती है इसलिए कई बार ताजा ताजा परेशान करने वाली अप्रिय घटनाओं को दूसरी इच्छाओं से ढक देने के लिए भी शराब पियी जाती है जिसके लिए कहा जाता है कि शराब गम को भुला देती है, जो असल में किसी दूसरे सपने या कुंठा के आच्छादित हो जाने का परिणाम होता है। रासायनिक रूप से इसका प्रभाव नींद लाने वाला भी होता है इसलिए वह जागृत अवस्था में पैदा हुये तनावों को भुलाने का काम भी करती है। शराब दिमाग को किसी विषय विशेष पर केन्द्रित करने का काम भी करती है, आमतौर पर कलाकार इसी विश्वास के साथ इसका सेवन करते हैं। इसे मंच के संकोच को दूर करने वाली दवाई भी माना जाता है।
बनावटी तौर पर शराब साहस का संचार भी करती है जो कि एक मनोभाव भर होता है। सामान्य अवस्था में व्यक्ति दूरदृष्टि से सोचता है और वह वे काम करने से बचता है जिनके करने से समाज के द्वारा उसे दण्डित किया जा सकता है किंतु शराब के सेवन से दूरदृष्टि धुंधला जाती है जिससे वह समाज द्वारा अस्वीकृत काम को करने का साहस कर लेता है। कई बार बाद में वह इस विद्रोह का परिणाम भी भुगतता है।
शराब में अनेक दुर्गुण भी हैं जिनके लिए उसकी अनेक विशेषताओं को ताक पर रख कर उसे वर्जित वस्तु की तरह रखा व प्रचारित किया गया है। उसका सबसे बड़ा दुर्गुण तो यह है कि उसकी सारी विशेषताएँ अस्थायी होती हैं। वे तब तक ही काम करती हैं जब तक कि व्यक्ति शराब के प्रभाव में रहता है। शराब उतरने के बाद उसका सारा दुस्साहस एक पश्चाताप के रूप में सामने आता है। शराब का अस्थायी आनन्द उसे बनाये रखने के लिए बार बार शराब पीने को प्रेरित करता है जो अंतत: एक ऐसी आदत में बदल सकता है कि उससे बचना आदमी के वश में नहीं रह जाता।
शराब के प्रयोग को कम करने की नैतिकता का झूठा दिखावा करने हेतु अधिकतर राज्य सरकारों ने इस पर बहुत अधिक मात्रा में टैक्स लगा दिये हैं जिससे यह मंहगी हो गयी है व इसकी बिक्री से राज्यों को राजस्व का एक बड़ा भाग प्राप्त होता है। इसकी आदत का शिकार आदमी यदि इसके नियमित प्रयोग का खर्च वहन करने की स्थिति में नहीं होता तो वह अर्थोपार्जन के अवैध रास्ते तलाशने लगता है। दूसरी ओर इसका अवैध उत्पादन अनेक तरह के आर्थिक अपराधों व उससे जुड़े सामाजिक अपराधों को बढावा देते हुये राजनीति को भी प्रभावित करते हैं। राष्ट्रपिता गांधी जी के राज्य गुजरात में उनके नाम पर पूर्ण नशाबन्दी लागू है किंतु वहाँ भी अन्य सभी राज्यों के समान मात्रा में ही अवैध रूप में इसकी खपत होती है तथा राजस्व के बराबर की रकम राजनीतिज्ञों अफसरों और अपराधियों में वितरित हो जाती है। यह हिस्सेदारी लम्बे समय से वहाँ की राजनीति को विकृत कर रही है।
टैक्सों की अधिकता के कारण इसे अवैध रूप से बनाने और बेचने में कई गुना लाभ होता है इसलिए अवैध रूप से बनाने और बेचने का धंधा अपने चरम पर है जो अपनी सुरक्षा के लिए अन्य अनेक तरह के अपराधों को भी संरक्षण देता है। इसके व्यवसाय से जुड़े लोगों के धन और वैभव में होने वाली वृद्धि सबके सामने है और अपनी कहानी आप कहती नजर आती है।
अपराधियों द्वारा शराब सेवन करने के नाम पर सारे दोष शराब को दे दिये जाते हैं जबकि अपराध की कोई सी भी ऐसी विधा नहीं है जो शराब पिये बिना संभव नहीं होती हो या सदैव शराब के सेवन के बाद सारे लोग वैसे अपराध आवश्यक रूप से करते ही हों। सच तो यह है कि यह एक ऊपरी और अस्थायी ऊर्जा है जिसके प्रयोग के बाद अलग अलग तरह के व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुरूप फल देते हैं। जैसे एक ही पानी अलग अलग तरह की फसलों में लग कर उनके बीजों के अनुरूप ही फसल देते हैं उसी तरह शराब भी काम करती है। शराब से होने वाले शारीरिक नुकसान का तर्क भी गढा हुआ है। शारीरिक क्षमता से अधिक किसी भी खाद्य पदार्थ का स्तेमाल नुकसान करता है। अधिक मसाले नुकसान करते हैं, अधिक मैदा नुकसान करती है, यहाँ तक कि नमक और पानी भी अधिक मात्रा में लेने पर नुकसान कर जाता है पर शराब नुकसान का दायरा स्वयं के साथ परिवेश को भी प्रभावित करता है। उसमें गन्ध होती है जो दूसरों तक पहुँचती है और उन्हें अप्रिय लगती है। इसके नशे में आदमी अमर्यादित मन से अपने परिवेश के लोगों के जीवन में हस्तक्षेप करने लगता है। आर्थिक अभावों की स्थिति में उसका पूरा परिवार प्रभावित होता है जिससे या तो वह आसपास के लोगों से पैसा मांगने लगता है या सहज मानवीयतावश लोग उसकी सहायता के लिए विवश हो जाते हैं। मन की तरंग में वह समाज द्वारा निर्मित रिश्तों की मर्यादाएं भी तोड़ने की स्थिति में आ सकता है।
यदि दाम्पत्य संबंधों के देह व्यवहार की तरह इसे गोपनीय व व्यक्तिगत स्तर तक सीमित किया जा सके तो यह एक दवा भी है पर बाजारीकरण के इस दौर में जब दैहिक व्यवहार भी सार्वजनिक होते जा रहे हैं तब इसे कमरे में कैद कराने के लिए गम्भीर उपाय तलाशने होंगे।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, फ़रवरी 26, 2010

शर्म आती है ऐसे धर्म समाज पर्

शर्म आती है ऐसे धर्म समाज पर
वीरेन्द्र जैन
खबर भोपाल के समाचार पत्र दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुयी है जिसके अनुसार यहाँ के प्रमुख जैन मन्दिर कमेटी ट्रस्ट चौक के कार्यालय का प्रभार, ट्रस्ट के नवनियुक्त अध्यक्ष को सौंपे जाने के लिये तहसीलदार व पुलिस को आना पड़ा और उनकी उपस्थिति में भी दान पेटियों को सील करते समय झूमा झटकी और मारपीट की नौबत आयी व पुलिस को डंडे चला कर लोगों को तितर बितर करना पड़ा। जिस जैन धर्म की पहचान अहिंसा और अपरिग्रह [दौलत न जोड़ने] से होती है उसके समाज के प्रमुख लोगों का सार्वजनिक धन के प्रति ऐसी आसक्ति एक गुट दूसरे पर चोरी का सन्देह करे और उसके लिये समाज से बाहर पुलिस और प्रशासन की मदद लेना पड़े तब जैन धर्म के तीसरे प्रमुख सिद्धांत अचौर्य [चोरी मत करो] का शरमिन्दा होना ज़रूरी हो जाता है। मेरे एक मित्र का कहना बिल्कुल सही है कि सोने चाँदी की मूर्तियों और छत्रों के साथ बड़ी तिज़ोरियों और बैंक बैलेंस रखने वाले मन्दिर जैन मन्दिर नहीं हो सकते तथा पैसा वहीं एकत्रित करने की ज़रूरत होती है जहाँ ईश्वर पर विश्वास नहीं होता। ऐसी खबरें सुन कर मैं सोचता हूं कि मैं कभी मन्दिर न जाकर और धार्मिक संस्थाओं को दान न देकर ठीक काम करता हूँ।
यह केवल एक धर्म का मामला नहीं है अपितु हर धर्म में चलते नाम की ओट में फर्ज़ी बाड़ा चल रहा है। इसी दिन के अखबार में खबर है कि हरिद्वार में चल रहे कुम्भ मेले में ज्योतिष पीठ बदरिकाश्रम और द्वारकापीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द के शिष्यों ने फर्ज़ी शंकराचार्यों के खिलाफ कुम्भ मेला प्रशासन की ओर से ठोस कार्यावाही न किये जाने के विरोध में कुम्भ मेला और शंकराचार्य नगर का बहिष्कार कर दिया है। जहाँ नकली होता है वहाँ असली की पूँछ घट जाती है। महत्व के नाम पर कुम्भ में होने वाली हिंसा का इतिहास बहुत पुराना है और एक बार तो पहले स्नान के सवाल पर साधुओं में हुये संघर्ष में अठारह हज़ार लोग मारे गये बताये जाते हैं। यह उन लोगों के लिये एक सवाल है जो मुग्ध भाव से यह कहते नहीं अघाते कि धर्म आत्मिक शांति देता है। उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि पहले धर्म का चोला ओढे इन नकली सियारों की पहचान करके उनको बाहर निकालो तथा असली के आचरणों की परख करो तब धर्म के बारे में बात करो।
पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू युनीवर्सिटी की शोध छात्रा और प्रसिद्ध पत्रिका हैड लाइंस प्लस की पूर्व सम्पादक शीबा असलम फहमी इस्लाम में औरत की कुदशा के पीछे अनपढ मुल्लाओं के कच्चे चिट्ठे खोल कर बताती रहीं हैं कि इस्लाम के प्रति फैल रही विश्वव्यापी नफरत के पीछे मौलानाओं और तालिबानों की स्वार्थ केन्द्रित गलत समझ ही ज़िम्मेवार है। उनके लेख सुप्रसिद्ध कथा पत्रिका हंस और वेब पत्रिका रचनाकार में धारावाहिक रूप में आते जा रहे हैं जो पठनीय और विचारणीय ही नहीं अपितु आँखें खोल देने वाले हैं। अपने आप को सच्चा मुसलमान कहने से पहले कितने लोग हैं जो ढाई प्रतिशत ज़कात देने का काम ईमानदारी से करने का दम भर सकते हैं।
सुप्रसिद्ध पत्रकार स्तम्भ लेखक सुभाष गताडे, हमसमवेत फीचर द्वारा ज़ारी एक लेख में बताते हैं कि सूचना के अधिकार के अंतर्गत दी गयी जानकारी के अनुसार केरल पुलिस द्वारा राज्य के 63 पादरियों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं जिनमें हत्या, हत्या की कोशिश, बलात्कार, हमला, अपहरण, चोरी, धोखाधड़ी, के आरोप हैं।
अनेक साधुओं के आश्रमों पर जो काला धन धोने से लेकर अनेक तरह की यौनिक अपराध होते हैं उनका भंडाफोड़ तो टीवी के स्टिंग आपरेशनों में होता ही रहता है।
राजनीति द्वारा धार्मिक आस्थाओं के दुरुपयोग पर तो नित प्रति लिखा ही जाता रहा है। इसलिये जिन्हें सचमुच धर्म से प्यार है, उन्हें चाहिये कि धर्म के आचरणों को जानें, उसके अनुसार आचरण करें और अपने घर के एक कोने को ही धर्म स्थल मान कर धार्मिक कृत्य करें। इन धर्म की दुकानों को बन्द हो जाने दें जो आपको धर्म से दूर कर रहे हैं।
राहत इन्दौरी के एक शेर का मिसरा है-
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, फ़रवरी 25, 2010

भाजपा शिव सेना मतभेद ; बिहार चुनाव तक की नौटंकी

भाजपा शिव सेना मतभेद
आगामी बिहार चुनाव तक की नौटंकी
वीरेन्द्र जैन
भाजपा और शिवसेना का गठबन्धन बहुत पुराना व परस्पर एक दूसरे पर अश्रित है, पर इसके बाबज़ूद भी अपनी सत्ता लोलुपता में घिर कर भाजपा हमेशा ही शिव सेना के नखरे सहती रही है। दूसरी ओर शिव सेना ने भाजपा की इस कमजोरी का हमेशा ही लाभ उठाया है। बाल ठाकरे तत्कालीन महाराष्ट्र शासन द्वारा कम्युनिष्ट नेताओं से मुकाबला करने हेतु प्रोत्साहित किये गये बाहुबलियों के नेता की तरह उभरे थे और बम्बई की कपड़ा मिल की हड़ताल को तोड़ने के लिये कामरेड कृष्णा देसाई की हत्या के लिये शिव सेना ही ज़िम्मेवार रही। यह हमेशा ही होता रहा है कि किसी बाहुबली को अपनी शक्ति का भान हो जाने के बाद वह अपने आश्रयदाता को ही शिकार बनाने लगता है क्योंकि उसे लगता है कि मैं इसके कारण नहीं हूं अपितु ये हमारे कारण हैं।
अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाने के लिये उसने बम्बई में रह रहे दूसरे प्रदेशों के लोगों को निशाना बनाया ताकि मराठी लोगों की स्थानीयता को उभार कर अपना समर्थन जुटाया जा सके। एक बन्दरगाह होने के कारण बम्बई औद्योगिक रूप से विकसित शहर था तथा हिन्दी फिल्म आदि उद्योगों के तीव्र विकास के साथ देश की आर्थिक राजधानी की तरह उभरा जिससे वहाँ पूरे देश के लोग आते गये और बसते गये। कुछ मुस्लिम स्मगलरों और माफिया से प्रतियोगिता के चक्कर में शिव सेना प्रमुख ने हिन्दुत्व का सहारा लिया जिसके परिणाम स्वरूप वे हिन्दुत्ववादी मराठी अस्मिता के नाम पर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सैंकने लगे। दूसरी ओर हिन्दुत्व की राजनीति करने वाले संघ परिवार का मुख्यालय भी महाराष्ट्र में ही स्थित था और उसके सारे प्रमुख पदों पर मराठियोँ को ही प्राथिमिकता दी जाती थी। यही कारण रहा कि जनसंघ और शिव सेना लम्बे समय तक एक दूसरे की काट करते रहे।
1967 के आसपास जब गैर कांग्रेसवाद के नारे पर जनसंघ के नेताओं को संविद सरकारों में सम्मलित होकर सत्ता का स्वाद मिला तब से उसे गठबन्धन की राजनीति ऐसी भायी कि उसने सदैव हर तरह की संविद सरकारों में सम्मलित होने के लिये अपने आप को प्रस्तुत किया। जनता पार्टी की सरकार में सम्मलित होने के लिये तो उन्होंने अपनी जनसंघ पार्टी को ही विलीन कर दिया था। रोचक यह भी है कि लगभग सभी संविद सरकारें इन्हीं की सता की भूख के कारण ही टूटी भीं। विश्वनाथ प्रसाद सिंह की सरकार जब भाजपा और बाम पंथियों के संयुक्त समर्थन पर ही बन सकी तब बाम पंथियों ने यह कह कर कि वे स्वयं सरकार में सम्मलित नहीं होंगे और समर्थन भी तभी देंगे जब भाजपा को सरकार में शामिल न किया जाये, ये पहली बार ये किसी संविद सरकार से बाहर रहने को मजबूर हुये थे और बाद में तो इन्होंने विश्वनाथ प्रसाद सिंह की सरकार गिराने में कांग्रेस की मदद भी की थी।
लगभग इसी काल से भाजपा और शिव सेना का गठबन्धन प्रारम्भ हुआ और भाजपा ने बाल ठाकरे की शर्तों पर गठबन्धन बनाये रखा और कभी भी शिव सेना का आसरा नहीं छोड़ा। जब भाजपा ने यूपी में सत्ता के लिये बहुजन समाज पार्टी से छह छह महीने शासन करने का बेहद अनैतिक समझौता किया तब व्यंग्य में बाल ठाकरे ने कहा था कि यह छह छह महीने का शासन क्या होता है! अरे अगर कुछ पैदा ही करना था तो कम से कम नौ नौ महीने का समझौता करना चाहिये था। इस वक्रोति को वे चुपचाप पी गये। अटल बिहारी के प्रधानमंत्रित्व काल में इन्होंने पाकिस्तान को क्रिकेट न खेलने देने के खिलाफ पिच खोद दी थी और दूरदर्शन समाचार के अनुसार अटल बिहारी ने उनसे ऐसा न करने के लिये ‘विनय’ की। उनके ही कार्यकाल में ठाकरे ने अपने पिता के नाम पर डाक टिकिट ज़ारी करवा लिया जिसकी भरपूर आलोचना हुयी, पर भाजपा को कोई फर्क नहीं पड़ा। सीटों के तालमेल में भी उन्होंने सदैव ही भाजपा को तय फार्मूला से कम सीटें दीं अन्यथा समझौता तोड़ लेने की धमकी दी पर भाजपा ने उसे भी स्वीकार कर लिया। राष्ट्रपति के गत चुनावों में उन्होंने मराठी अस्मिता के नाम पर कांग्रेस उम्मीदवार का समर्थन किया और भाजपा हाथ मलती रह गयी। लोकसभा चुनावों के दौरान प्रारम्भिक दौर में उन्होंने भाजपा के प्रधान मंत्री पद प्रत्याशी लाल कृष्ण आडवाणी से मिलने से ही इंकार कर दिया था पर बाद में बड़े मान मनौवल के बाद मुलाकात हो सकी।
जब राज ठाकरे ने बाल ठाकरे से विद्रोह कर दिया और अपनी राजनीति जमाने के लिये उत्तर भारतीयों पर हमले कर के सुर्खियां बटोरीं तब बाल ठाकरे को भी अपनी राजनीति को बचाने के लिये वैसे ही बयान देने पड़े ताकि राज ठाकरे से बड़ी लकीर बनाये रख सकें, तब भाजपा किंकर्तव्यविमूढ होकर रह गयी थी और अपने मुँह में दही जमा लिया था। किंतु पिछले दिनों जब शिवसेना ने शाहरुख खान की फिल्म ‘माय नेम इज खान’ के प्रदर्शन पर हिंसक प्रदर्शन की घोषणा की तो भाजपा ने शिवसेना का विरोध और शाहरुख की फिल्म का समर्थन् करते हुये यह भी जोड़ा कि देश के किसी भी नागरिक को कहीं भी रहने का अधिकार है। यह बयान भाजपा के उस प्रवक्ता से दिलवाया गया जो बिहार के रहने वाले हैं।
दर असल उक्त बयान भाजपा की सोची समझी रणनीति के अंतर्गत उठाया गया कदम है। इन दिनों भाजपा बिहार की सरकार में शामिल है और जल्दी ही बिहार में चुनाव होने वाले हैं। भाजपा गठबन्धन के सहयोगी शिव सेना परिवार द्वारा मुम्बई में बिहारियों के खिलाफ जो हिंसा की गयी है वह बिहार के चुनावों में एक बड़ा मुद्दा बन सकता है, इसलिये चुनाव तक उन्होंने शिव सेना परिवार से दूरी दिखाने की राजनीति अपना ली है किंतु साथ ही यह कहना भी नहीं भूले कि हमारा गठबन्धन बना रहेगा। बाल ठाकरे द्वारा इस विषय पर कोई तीखी प्रतिक्रिया न करने से भी ये साफ है कि यह मिली जुली कुश्ती है और केवल बिहार की जनता को चुनाव तक बहलाने के लिये है।
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, फ़रवरी 21, 2010

गर्व से कहो हम होली मनाते हैं

[होली में बाबा देवर लगे ......होली में]
प्राकृतिक होने का एक त्योहार -होली
वीरेन्द्र जैन


हमारे देश में मनाये जाने वाले अनेक त्योहारों की तरह यद्यपि होली के साथ भी कुछ धर्मिक कथाएं जोड़ दी गयी हैं, कुछ पूजा अनुष्ठान किये जाते हैं फिर भी होली इन सबसे अलग एक ऐसा त्योहार है जो जाति, लिंग, रंग, भेद के बिना धर्म की सीमा से बाहर जाकर मनाया जाता रहा है। इसमें ऊंच नीच का भेद भी कम हो जाता है। परोक्ष रूप में कहा जा सकता है कि यह हमारे संविधान में वर्णित समान नागरिक अधिकारों की पहचान कराने वाला त्योहार है।

होली बसंत के बाद आने वाला ऐसा त्योहार है जब देश का मौसम मानव प्रकृति के सबसे अनुकूल अवस्था में होता है। उत्तर भारत की कड़कड़ाती सर्दी जा चुकी होती है और तपा देने वाली गर्मी अभी आई नहीं होती है ।सर्दी की जकड़न टूट चुकी होती है व देह के जोड़ जोड़ खुलने लगते हैं,। ये शरीर को फैलाने व अंगड़ाने के दिन होते हैं। फैलते शरीरों में एक स्वाभाविक चुहल पैदा होती है, एक आलोड़न भाव उपजता है। पेड़ रंग बिरंगे फूलों से भरे होते हैं। होली पूर्णिमा की रात्रि में मनायी जाती है। पूर्ण चन्द्र की दो रातें, जिन्हें होली और शरदपूर्णिमा के नाम से जाना जाता है,वर्ष की सबसे उजली और चमकदार रातों में से एक होती हैं।
मनोवैज्ञानिक बताते हें कि पूर्णचन्द्र की रातें सबसे अधिक दीवानगी की रातें होती हैं। दुनिया में सबसे अधिक लोग पूर्णिमा के दिन ही पागल होते हैं। अंग्रेजी में लूना चन्द्रमा को कहा जाता है व पागल को लूनाटिक इसीलिए कहा जाता है। यह प्राकृतिक रूप से दीवानगी का त्योहार है।

आखिर दीवानगी होती क्या चीज है?
दुनिया के सभी धर्मों में सबसे पहला सन्देश सत्य का दिया गया है। और सत्य क्या होता है? क्या झूठ के न होने को ही सत्य नहीं कहा जाना चाहिये।
सभी धर्म कहते हैं कि सत्य बोलो-सत्य बोलो, पर क्या सत्य बोलना सम्भव है? पर जब हम सत्य को बोलने का प्रयास करेंगे तो वह झूठ ही होगा और झूठ के सिवा कुछ नहीं होगा जैसा कि प्रतिदिन अदालतों में होता है। झूठ तो बोला जा सकता है पर सत्य बोला नहीं जा सकता, वह तो हुआ जा सकता है, जिया जा सकता है, बोला नहीं जा सकता। अगर हम झूठ नहीं बोलेंगे तो जो कुछ भी बोलेंगे वह सत्य होगा क्योंकि वह स्वाभाविक होगा, प्राकृतिक होगा ।
हमारी सारी सभ्यताएं झूठ की खानें हैं। हम जब असभ्य थे तब सच्चे थे व सभ्य होने के साथ साथ झूठे होते चले गये। होली अपने समय की सभ्यता को नकारने का त्योहार है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि यह असभ्यता का त्योहार है, इसलिए सच्चाई का त्योहार है। हम जब झूठ में जीते जीते ऊब चुके होते हैं तो एक दो दिन के लिये सच्चे और सहज होने की कोशिश करते हैं। हम अपने वस्त्रों को पहिनने का ढंग भूल जाते हैं बालों को संभालने की चिन्ता भूल जाते हैं खाने पीने की सावधानियां भूल जाते हैं अर्थात हमें झूठा अर्थात अप्राकृतिक आदमी बनाये रखने वाली सारी बातें भुला कर हम खुश होते हैं। बुन्देली के एक होली गीत में गाया जाता है- होली में बाबा देवर लगे, होली में- प्रकृति के रिश्तों के आगे समाज के बनावटी रिश्तों को भुला देने का दिन भी होली का दिन होता है। जो लोग इस दिन भी अपने बनावटी स्वरूप का बनाये रखने की कोशिश करते हैं उन्हें स्वाभाविकता की ओर लाने में विरूपित करने के लिये ही रंग रोगन ही नहीं कीचड़ और गोबर तक का प्रयोग भी होली में प्रारम्भ हुआ। वर्जनाओं से छुट्टी ले लेने का दिन भी होली का ही दिन होता है। कुल मिला कर यह सत्य में जीने का दिन होता है इसलिये इससे बड़ा धार्मिक दिन दूसरा नहीं हो सकता क्योंकि दुनिया का प्रत्येक धर्म सत्य का संदेश देता है। चूंकि सारे धर्म ही सत्य का संदेश देते हैं इसलिये यह एक धर्म निरपेक्षता का त्योहार भी है।

पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथप्रतापसिंह ने पिछले दिनों कुछ अच्छी पेंन्टिंग्स बनायी थीं जिनमें से एक प्रसिद्ध कथा पत्रिका हंस में भी प्रकाशित हुयी थी। यह एक न्यूड पेन्टिंग थी। जब हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने उनसे पूछा कि आपने यह न्यूड क्यों बनायी तो उन्होंने बहुत भोले पन से कहा था कि मैंने कहां बनायी यह तो भगवान ने बनायी । सच है कि होली के दिन हम प्रकृति अर्थात परमेश्वर निर्मित स्वाभिक रूप में आने को उत्सव की तरह मनाते हैं। हममें से कुछ लोग अस्वाभाविकता में जीने के इतने आदी हो जाते हैं कि वे स्वाभाविकता वाला एक दिन भी मना नहीं पाते या मनाते भी हैं तो इसे दूसरे अस्वाभाविक दिनों की तरह ही मनाने की कोशिश करते हैं। होली को किसी नियम, परम्परा, या निर्धारित ढंग से नहीं मनाया जा सकता। इसे जब भी किसी सांचे में ढाल कर मनाया जायेगा तब यह कोई दूसरा त्योहार हो जायेगा। यह तथाकथित सभ्यता के विरूद्ध एक दिन का विद्रोह है और प्रकृति की ओर वापिसी है। आज प्रकृति को बचाने के हजारों आन्दोलन सारी दुनिया में चल रहे हैं पर हम सैकड़ों वर्षों से होली के माध्यम से प्रकृति की ओर वापिसी का उत्सव मनाकर उसके आनन्द की अनुभूति करवाते आ रहे हैं। दुनिया की अप्राकृतिक चीजों के नकार का यह हमारा अपना तरीका रहा है।

दुनिया भर के सामने हमें कहना चाहिये कि हमें गर्व है क्यों कि हम होली मनाते हैं।
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेनरोड
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फोन 94256746295

शुक्रवार, फ़रवरी 19, 2010

भारतीयता के मुखौटे का पाखण्ड उत्सव

भारतीयता के मुखौटे का पाखंड उत्सव
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों अपनी पार्टी शासित राज्य मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी इन्दौर में भाजपा का वार्षिक अधिवेशन अयोजित हुआ जिसमें संघ द्वारा आरोपित पार्टी के नये अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने प्रवचनों में भले ही चरित्र सुधारने को प्रमुखता दी हो किंतु अधिवेशन स्थल पर केवल छवि सुधारने के प्रयास किये गये और इस प्रयास में किये गये पाखण्ड दर पाखण्ड से पार्टी में किसी सार्थक परिवर्तन की कोई उम्मीद नहीं जगी। पिछले फाइव स्टार संस्कृति में आयोजित पार्टी के अधिवेशनों से पार्टी की जो छवि बिगड़ी थी उसकी मरम्मत करने के लिये जो कुछ किया गया वह सूट पर धोती बांध कर पूजा निबटा लेने जैसा दृष्य पैदा कर रहा था। आज भाजपा जिस भ्रष्टाचार के नवनीत से परिचालित हो रही है उससे अभ्यस्त जीवन जीने के आदी हो चुके व्यक्तियों द्वारा सादगी सम्भव भी नहीं है। किंतु इस परम्परावादी देश में अभी भी त्याग, बलिदान और सादगी का जो सम्मान है उसकी नकल में वैसा ही ढोंग करने की फूहड़ कोशिश अवश्य हुयी। अधिवेशन की ज़िम्मेवारी श्री कैलाश विजयवर्गीय को सौंपी गयी थी जिनके खिलाफ पेंशन घोटाले से लेकर सिंहस्थ आदि की कई जाँचें लम्बित हैं और उन घिसिट रही जाँचों की तुलना में कई गुना आरोप हवा में तैर रहे हैं। उन्हें भाजपा में दूसरा प्रमोद महाजन समझा जाता है। अधिवेशन स्थल का नामकरण भले ही कुशाभाउ ठाकरे के नाम पर रखा गया हो जो संघी राजनीति में समर्पित कार्यकर्ताओं की पीढी के अंतिम लोगों में से थे किंतु इस अवसर पर इन्दौर के समर्पित कार्यकर्ता लक्षमण सिंह गौड़ को उचित ढंग से याद करने की ज़रूरत नहीं समझी गयी जो इन्दौर में कैलाश विजयवर्गीय की संस्कृति के विरोधी थे और इसी नाते मालवा अंचल में संतुलन बनाने के लिये उन्हें मंत्री बनाया गया था किंतु मंत्री बनने के कुछ ही दिनों बाद वे एक सड़क दुर्घटना का शिकार हो गये थे। इन्दौर में भाई[कैलाश विजय वर्गीय] और ताई[सुमित्रा महाजन] का झगड़ा भी मशहूर है इसीलिये ताई को रसोई की नाम मात्र ज़िम्मेवारी को छोड़ कर दूसरी कोई ज़िम्मेवारी नहीं सौंपी गयी जबकि वे वहाँ से दशकों से सांसद हैं। उनसे ज्यादा महत्व तो कैलाश विजयवर्गीय के खास विधायक रमेश मेन्दोला को दिया गया।
राहुल गांधी ने दलितों के घर रुक कर और उनके यहाँ भोजन करके जो मानक स्थापित कर दिया है उसकी नकल में भाजपा अध्यक्ष ने भी एक दलित के घर जाकर भोजन करने का ड्रामा खेला और फाइव स्टार होटल के अन्दाज़ में ‘टावल’ से हाथ पौंछे। एसी लगे टेंटों में खरहरी खाट और मूढे पर बैठ कर भले ही फोटो खिंचवाये गये हों किंतु सुविधाओं का कोई अभाव कहीं नहीं था, फिर भी सुविधाओं की कमी का रोना रोकर कुछ न्यूज़ बनवाने की प्रायोजित कोशिश की गयी। जैसे गडकरी को रात में सर्दी लगी और नींद नहीं आयी। राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जैटल्री को व्यवस्थायें बहुत ‘पुअर’ लगीं, सुरक्षा में सुषमा स्वराज तक की गाड़ी को कुछ देर तक रोक कर कड़ी और भेदभाव रहित सुरक्षा का संकेत दिया गया, अव्यवस्था के नाम पर मनेका गान्धी और वरुण गान्धी अधिवेशन छोड़ कर दिल्ली लौट गये तथा सुषमा स्वराज, शत्रुघ्न सिन्हा, अरुण जैटली और नवजोत सिंह सिद्धू अधिवेशन स्थल छोड़ कर नगर के बड़े बड़े होटलों में चले गये।
कभी हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान का नारा देकर देश के बँटवारे को हवा देने वाले संगठन से निकली पार्टी, टेंट पर अपने अध्यक्ष का नाम भी हिन्दी में सही नहीं लिख सकी और नितिन गडकरी की जगह ‘नितीन’ गडकरी लिखा देख कर उनकी पत्नी की त्योरियाँ चढ गयीं और उन्हें ‘गाड’ याद आ गया [राम याद नहीं आये, वे तो गान्धीजी को यद आते थे]। उन्होंने कहा- ओह गाड ये तो भाषा भी सही नहीं लिख सकते। उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश की प्रदर्शिनियों के नाम पर प्रदेश के संस्कृति विभाग के कई अधिकारी कर्मचारी अधिवेशन स्थल पर अपनी सेवायें दे रहे थे तब भी ऐसी भूलें घटित हुयीं। श्रीमती गडकरी के पति अपनी पार्टी को फिर से राम जन्म भूमि मन्दिर के सहारे आगे बढाने की सोच रहे हैं किंतु श्रीमती गडकरी को गाड ही याद आता है। उस भली महिला को कोई छद्म नहीं आता इसलिये उसने सुन्दर इन्दौर शहर को “ब्यूटीफुल”” ही कहा।
सच है कि सादगी सहजता में होती है बनावट में नहीं होती।
अधिवेशन स्थल पर कुछ लोगों को चाय पानी की तो तकलीफ हुयी किंतु मनेका गान्धी के संतोष के लिये वहाँ विशेष रूप से बकरियाँ बाँधी गयी थीं जिनको उन्होंने कई बार चारा खिलाकर जंगली जानवरों के कम होते जाने पर चिंता जतायी। निर्दोष जंगली जानवरों की चिंता करने वाली मनेका गान्धी को नरसंहार के लिये बदनाम गुजरात के मुख्य मंत्री से मिलने में कोई असहजता महसूस नहीं हुयी, क्योंकि वे केवल पशुओं के जीवन की ही चिंता करती हैं।
जब तक कोई पार्टी सदस्यों से प्राप्त लेवी से चलने की जगह बड़े बड़े चन्दों से चलेगी तब तक उसके सदस्यों से ईमानदारी की उम्मीद करना बेकार है क्योंकि उनका समर्थन हमेशा चन्दा दायकों को ही मिलेगा। कभी पूरे न होने वाले अनेक आदर्शात्मक सुधारों का ढिंढोरा पीटने वाले नये भाजपा अध्यक्ष ने आखिर क्यों इस बारे में कोई विचार व्यक्त नहीं किये।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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गुरुवार, फ़रवरी 18, 2010

अमर-मुलायम वाक्युद्ध शिखर पर बेपेन्दी के लोटे

अमर मुलायम वाक्युद्ध
राजनीति के शिखर पर बेपेंदी के लोटे
वीरेन्द्र जैन
अपने फिल्मी स्तम्भ में अमर सिंह के बारे में चर्चा करते हुये प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक जय प्रकाश चौकसे ने तर्क दिया था कि -- -इस फिल्मी स्तम्भ में अमर सिंह के बारे में लिखना इसलिये उचित है क्योंकि अमर सिंह राजनीति में फिल्मी आदमी माने जाते हैं और फिल्मों में राजनीति के नुमाइन्दे माने जाते हैं- हम कह सकते हैं कि वे मुलायम के डायलाग राइटर रहे हैं
यह सच है कि अमर सिंह राजनीति में जो भूमिकाएं करते रहे हैं वे उस परिकल्पना से कोसों दूर हैं जो हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने देश में एक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की स्थापना करते समय राजनेताओं के बारे में की थीं। वे जनता के नेता नहीं हैं अपितु जनता के नेताओं से कुछ खास लोगों के हित में काम कराने वाले और जनहित के लिये सुरक्षित धन से इन दोनों को ही लाभांवित कराने वाले मध्यस्थ रहे हैं। समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद उनकी वाकपटुता एक बौखलाहट में बदलती जा रही है और वे दिन प्रति दिन उन मुलायम सिंह के प्रति कटु से कटुतर होते जा रहे हैं जिनके वे हनुमान होने का दावा किया करते थे, और उनके खिलाफ कभी कुछ भी न बोलने की कसम खाते थे। वे समझते थे कि राजनीतिक रणनीतियाँ बनाते समय उनके साथ मिलकर मुलायम सिंह ने जो समझौते किये थे उनके राज खुल जाने के डर से वे उनकी हर मांग के आगे सरेण्डर हो जायेंगे और परिवारियों को अपने प्रभाव से दबा कर चुप करा देंगे। प्रारम्भ में ऐसा हुआ भी जब मुलायम सिंह ने बात खत्म करने के लिये अपने भाई राम गोपाल यादव से फोन पर क्षमा मांगने के लिये कहा और उन्होंने वैसा किया भी। किंतु जब उस पारिवारिक बात को भी अमर सिंह ने प्रचारित करके उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश की तो पूरा कुनबा बिफर गया। गुस्से के साथ राम गोपाल यादव ने कहा कि वे कोई खुदा नहीं हैं जो मैं उनसे माफी माँगूंगा, वे पागल हो गये हैं और उनका दिमाग खराब हो गया है। बीच में अमर सिंह ने यह बयान देकर कि उनके अनेक राज मेरे सीने में दफन हैं और वे दफन ही रहेंगे, एक ब्लेकमेलिंगनुमा बयान द्वारा उन्हें याद दिलाया था कि अगर अपने राज को राज ही रखना चाहते हो तो उनसे समझौता कर लो, किंतु तब तक बात मुलायम सिंह के हाथों से निकल गयी थी और एक व्यक्ति केन्द्रित पार्टी का विकेन्द्रीकरण हो चुका था।
अब जब मुलायम सिंह के कुनबे की पार्टी के दरवाजे अमर सिंह के लिये हमेशा के लिये बन्द हो चुके हैं तब अमर सिंह अपने इकलौते ट्रम्प कार्ड को चुटकी में रगड़ते घूम रहे हैं। यह उनका अंतिम अस्त्र है, जिससे मुलायम् सिंह का कितना नुकसान होगा यह तो कहा नहीं जा सकता किंतु अमर सिंह ज़रूर निःशस्त्र हो जायेंगे। इस द्वन्द को झेलते झेलते हुये वे बौरा गये हैं तथा स्वयं को अपने मालिक मुलायम सिंह का दर्जी बताने वाले अब उनके कपड़े फाड़ने पर उतारू नज़र आते हैं। वे फिर फिर कर कभी अपनी पार्टी की कट्टर दुश्मन रही मायावती के साथ सहानिभूति व्यक्त करते हैं तो कभी बाल ठाकरे को परोक्षरूप से बेहतर बताते हैं। उन्होंने ही कभी विदेशी के बहाने सोनिया गान्धी को प्रधानमंत्री न बनने देने के सौदे किये थे, वे ही सोनिया गान्धी की प्रशंसा करते फिर रहे हैं।
अब वे बुन्देलखण्ड , हरित प्रदेश के पक्षधर होने के साथ कभी पूर्वांचल के लिये जनचेतना रैली की शुरूआत करते हैं, तो कभी अनशन करने की धमकी देते हैं। पूरे देश में घूम घूम कर प्रैस के आगे तरह तरह की बाते करते हुये वे यह भूल जाते हैं कि पिछले महीने अपना स्तीफा भेजते हुये उन्होंने अपने खराब स्वास्थ को कारण बताया था और अपना शेष समय अपने परिवार को देने की इच्छा व्यक्त की थी, किंतु अब वे एक नई पार्टी बनाने की बात कर रहे हैं तथा क्षत्रीय सम्मेलन की बातें कर उस जाति का नेतृत्व हथियाने की असम्भव कोशिश कर रहे हैं जिसमें पहले से ही अनेक नेता भरे हुये हैं। क्या राष्ट्रीय राजनीति इतनी गिर चुकी है कि कोई आदमी सरे आम सुबह् कुछ और शाम कुछ कहने लगे और लोग फिर भी उस पर भरोसा कर लें। ऐसा करके वे अपनी विश्वसनीयता और बीमारी के नाम पर पैदा हो सकने वाली सहानिभूति खुद ही खो रहे हैं। जया प्रदा, जया बच्चन अनिल अम्बानी, अमिताभ बच्चन के सहारे वे वोटरों का विश्वास जीत लेने का भ्रम पाले हुये हैं। कभी राजीव गांधी परिवार के सबसे निकट के मित्र रहे, और कभी यूपी की मुलायम सरकार के ब्रांड एम्बेसडर रहे अमिताभ बच्चन, जो बाल ठाकरे के चरणों में झुकते रहते हैं, न जाने किस भय में मोदी से गले लग रहे हैं। अमर सिंह द्वारा दुबई से स्तीफा भेजने के बाद हवाई अड्डे पर अमर सिंह से मिलने जाने वालों में अमिताभ इकलौते प्रमुख लोगों में से थे, जो अमर सिंह के कम्प्यूटर अभियान के ब्रांड एम्बेसेडर बन गये हैं। क्या उनके भी कुछ राज अमर सिंह के सीने में दफन हैं!
वे अपने किडनी के आपरेशन को मुलायम सिंह के ऊपर अहसान की तरह बता रहे हैं गोया उन्होंने अपनी किडनियाँ समाजवादी पार्टी को दान में दे दी हों। कभी उन्होंने स्वयं को दधीचि बताया जिन्होंने राक्षसों को मारने हेतु बज्र बनाने के लिये अपनी हड्डियाँ दान कर दी थीं। पर उनके इस प्रतीक पर किस को हँसी नहीं आयेगी कि उसी तरह उनका किडनी का आपरेशन है जो खराब होने के कारण विदेशी डाक्टरों ने निकाल दी हैं। जब उनसे राज्यसभा की सीट से भी स्तीफा माँगा गया तो उन्होंने उसके एवज़ में अपनी किडनियाँ लौटाने की शर्त रख दी गोया उन्हें मुलायम सिंह ने किसी तिज़ोरी में गिरवीं रखीं हों। उनके द्वारा पंचायत चुनाव तक नहीं जीत पाने की क्षमता के आरोप में वे कहते हैं कि मुलायम अपने बेटे अखिलेश, और भतीजे धर्मेन्द्र से कन्नौज और बुदायुँ सीट से स्तीफा दिलायें तो वे दो दो हाथ करने को तैयार हैं।
अमर सिंह अब मुलायम सिंह के लिये प्रतिदिन एक नई गाली तलाशते हैं।
· पिछले दिनों उन्होंने मुलायम को हरा साँप बतलाया था जो हरी घास में छुपा रहता है और बिना नज़र आये डस लेता है।
· एक दूसरी सभा में उन्होंने मुलायम को धृतराष्ट्र बताते हुये स्वयं को द्रौपदी बताया जिनकी लाज उनके सामने लुटती रही और वे चुप रहे।
· उन्होंने आजम खान के पुराने बयान के बहाने कहा कि भले ही उन्होंने मुलायम सिंह और कल्याण सिंह में पुरानी दोस्ती होने, और इसी कारण कल्याण के मित्र साक्षी महाराज को राज्यसभा में भेजने की बात ज़ाहिर कर दी हो. किंतु वे कोई राज नहीं बतायेंगे, पर इसलिये मेरी अंतरात्मा मुझे कचोट रही है, में खुद को अपराधी महसूस कर रहा हूं।
· शाहजहाँपुर में उन्होंने कहा कि मुलायम सिंह के कुकर्मों का ज़बाब पार्टी से बाहर आकर ही दिया जा सकता है।
· मुलायम सिंह एक ओर तो अंग्रेज़ी का विरोध करते हैं दूसरी ओर उनका बेटा विदेश में रह कर पढा है।
· उन्होंने समाजवादी पार्टी को यादव पार्टी में बदल दिया है।
· सपा ने मुझे कूड़ेदान की तरह स्तेमाल किया, और मुझे कूड़ा कहा गया।
किसी ने सही कहा है कि यह बेपेंदी के लुड़कते लोटे की गड़्गड़ाहट है जो उसके ज़मीन पर आने पर ही रुकेगी।



वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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सोमवार, फ़रवरी 15, 2010

श्री कैलाश गुरुस्वामी का एक सड़क दुर्घटना में निधन्


एक दुखद समाचार
गज़ल की व्याकरण के उस्ताद कैलाश गुरू स्वामी का एक दुर्घटना में निधन
हमें अपने ब्लागर मित्रों को यह सूचना देते हुये अत्यंत दुख है कि गज़ल की व्याकरण के उस्ताद सीहोर निवासी श्री कैलाश गुरू स्वामी गत 14 फरबरी की रात्रि को भोपाल से सीहोर लौटते हुये एक सड़क दुर्घटना में घायल हो गये थे। उन्हें रात्रि में ही भोपाल के चिरायु अस्पताल में लाया गया था जहाँ प्रातः ग्यारह बज़े उनकी हालत बिगड़ गयी और दोपहर तीन बज़े उक्त अस्पताल के डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। श्री गुरु स्वामी गज़ल की व्याकरण के ज्ञाता ही नहीं थे अपितु देश के कई प्रतिष्ठित शायर अपने कलाम को अवाम के सामने लाने से पहले एक बार उनकी पारखी नज़रों से नाप तौल कराना ज़रूरी समझते थे। वे उन्हें बेलिहाज़ मशविरा देते थे जिसे वे पूरे सम्मान के साथ स्वीकार करते थे। अभी हाल ही में उरूज़ पर उनकी एक पुस्तक हिन्दी में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित होने की जानकारी को उनके पूरे व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ हिन्दी के व्यापक सर्कुलेशन वाले समाचार पत्र दैनिक भास्कर ने मुख पृष्ठ पर प्रकाशित किया था। श्री गुरूस्वामी मध्य प्रदेश सरकार के कार्यालय में भोपाल में पदस्थ थे। श्री पंकज सुबीर, श्री राम मेश्राम, श्री अनवारे इस्लाम सहित अनेक लोग अंतिम समय तक अस्पताल में उनके स्वास्थ लाभ के लिये प्रयास रत रहे।

गुरुवार, फ़रवरी 11, 2010

वेलैंटाइन डे- कायरों, कामुकों और नपुंसकों के लिये नहीं

वेलैंटाइन डे- कायरों, कामुकों और नपुंसकों के लिये नहीं
वीरेन्द्र जैन
हर वर्ष की भांति एक बार फिर वेलैंटाइन डे आने वाला है और एक बार फिर कार्ड बेचने वाले कार्ड बेचेंगे, गुलदस्ते बेचने वाले गुल्दस्ते और फूल बेचेंगे, अखबार वेलैंटाइन सन्देश छापने के नाम पर विज्ञापनों का धन्धा करेंगे। एक बार फिर भारतीय संस्कृति को न समझने वाले किंतु उसके नाम पर धन्धा करने वाले भाजपा शासित राज्यों में अपनी गुंडा टोली लेकर निकलेंगे और युवा प्रेमी प्रेमिकाओं के मुँह पर कालिख मलेंगे और मारपीट करेंगे। व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हत्या करने वाले इन गुन्डों की सुरक्षा भाजपा शासित राज्य की पुलिस करेगी। एक बार फिर कायर बुद्धिजीवी अपने अपने सुविधा घरों में बैठ कर अखबारों में बयान देंगे।
हर वर्ष की तरह यह सन्देश भी दिया जायेगा कि- संत वेलैंटाइन भारत के नहीं थे तो क्या प्रेम के सन्देश पर उनका कापी राइट हो गया, जबकि राधाकृष्ण की प्रेम कथाओं से लेकर कामसूत्र और खजुराहो जैसी मन्दिर की दीवारों पर अंकित मूर्तियाँ तो हमारी ही बपौती हैं। यदि नई आर्थिक नीति के वैश्वीकरण, उदारीकरण, और निजीकरण के प्रभाववश हम इस दिन को बसंत पंचमी, होली, या अन्य किसी हिन्दू त्योहार की जगह उस कलेंडर के हिसाब से मनाने लगते हैं जिसके अनुसार हमारे सारे कामकाज़ चल रहे हैं तो क्या प्रेम का अर्थ बदल जायेगा! सच तो यह है कि इस दिन मनाने से इसकी संकीर्णता दूर होकर यह जाति धर्म, भाषा और राष्ट्र तक की सीमाओं से मुक्त होता है और विश्वबन्धुत्व तक पहुँचता है। आज प्रत्येक मध्यम वर्गीय परिवार रंगीन टीवी, डीवीडी प्लेयर या सिनेमा हाल में जो फिल्में देख कर खुश होता है और सपरिवार ताली बजाता है उनमें से नब्बे प्रतिशत में प्रेम कहानी ही होती है। यह सन्देश रोज रोज हर घर में पहुँच रहा है किंतु उससे किसी को कोई शिकायत नहीं होती।

पर मेरा मानना है कि-
वेलैंटाइन डे पर इन प्रेमियों को पिटना ही चाहिये क्योंकि वेलैंटाइन डे कायरों कामुकों और नपुंसकों के लिये नहीं होता है। वे जिन फिल्मों को देख कर जीभ लपलपा लड़कियों के पीछे चक्कर लगाते हैं उनसे वे फैशन और अदायें तो सीखते हैं किंतु यह नहीं सीखते कि फिल्म का हीरो एक सुडौल देह का स्वाभिमानी पुरुष होता है और वह अपनी प्रेमिका की ओर उंगली उठाने वाले गुण्डों के हाथ पैर तोड़ देने में स्वयं को घायल करा लेने से लेकर जान की बाज़ी लगा देने में भी पीछे नहीं रहता। यह कैसा लिज़लिज़ा दृष्य होता है कि चन्द भगवा दुपट्टाधारियों के डर से ये तथाकथित प्रेमी या तो उस दिन बाहर ही नहीं निकलते या चुपचाप अपनी प्रेमिका का अपमान बर्दाश्त करते रहते हैं और पिटते हुये संघर्ष भी नहीं करते। ऐसे प्रेमी पिटने ही चाहिये।
दूसरी बात यह कि अगर कोई पुरुष प्रेमी प्रेम के अधिकार का पक्षधर है तो इसे यही अधिकार अपनी बहिनों को भी देना पड़ेगा, पर जो प्रेमी अपनी बहिनों को घरों में कैद करके यह अधिकार नहीं देना चाहते और स्वयं लेना चाहते हैं वे साधारण से लम्पट और कामुक हैं और उनका प्रेम किसी विचारपूर्ण निष्कर्ष का हिस्सा नहीं है। इस दोहरेपन के लिये भी वे पिटने के पात्र हैं।
जब भी समाज बदलता है तो पुराने समाज को नियंत्रित कर उसे अपने हित में बनाये रखने वाले लोग किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं। वे एक संगठित संस्था का बल रखते हैं इसलिये इक्कों दुक्कों पर भारी पड़ते हैं। ये वेलंटाइन डे मनाने वाले स्वयं इतने अपराधबोध से ग्रस्त रहते हैं कि न तो वे अपना कोई संगठन ही बनाते हैं और ना ही अपने जैसों की मदद ही करते हैं। इसलिये ये पिटते हैं और हर वर्ष की भांति पिटते ही रहेंगे जब तक कि गुंडों को उन्हीं की भाषा में जबाब नहीं देते।
शायद इसी पिटने से कोई राह निकले!
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, फ़रवरी 10, 2010

थ्री ईडियट्स जैसी फिल्म का विरोध किसने किया था

[मुम्बई में थ्री ईडियट्स के पोस्टर फाड़ते भाजपा कार्यकर्ता अपने झन्डों के साथ]
थ्री ईडियटस- जैसी एक बहु प्रशंसित फिल्म के विरोधी कौन थे?
वीरेन्द्र जैन
थ्री ईडियट्स आमिर खान की बेहतरीन फिल्मों की श्रंखला में एक मील का पत्थर साबित हुयी है जिसने भरपूर मनोरंजन के साथ आज के युवावर्ग की इतनी सारी समस्याएं एक साथ उठायी हैं कि आश्चर्य होता है। इस फिल्म को न केवल व्यापारिक स्तर पर ही सफलता मिली है अपितु हर वर्ग के फिल्म समीक्षक को इसकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने के लिये विवश होना पड़ा है। भाजपा के वरिष्ठ नेता और भूतपूर्व उपप्रधान मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी जो अपनी जवानी के दिनों में फिल्मी पत्रकार हुआ करते थे और फिल्मों की समीक्षा लिखते थे, को भी इसकी तारीफ करने को विवश होना पड़ा है।
जहाँ इस फिल्म की चारों दिशाओं में तारीफ हुयी है वहाँ इसका विरोध करने वाले केवल भाजपा के कार्यकर्ता थे जो आमिर खान द्वारा रंग दे बसंती जैसी फिल्म बनाने के बाद से ही उनसे नाराज चल रहे हैं क्योंकि उस फिल्म में न केवल अमर शहीद भगत सिंह के विचारों पर ही प्रकाश डाला गया अपितु साम्प्रदायिकता और तत्कालीन भाजपा सरकार के आचरण को भी समीक्षा के केन्द्र में लाया गया था। यही कारण था कि भाजपा के इकलौते फासिस्ट शासन वाले राज्य गुजरात में रंग दे बसंती जैसी बेहतरीन फिल्म को प्रदर्शित नहीं होने दिया गया और लोगों को सीडी और टीवी पर देख कर काम चलाना पड़ा।
उसके बाद से वे आमिर की हर एक फिल्म का विरोध करते हैं, भले ही उसके सफल हो जाने के बाद जनता का मूड भाँप कर आडवाणी जी आग को ठंडा करने का स्वाँग करते रहते हों। जब तारे ज़मीं पर अत्यंत सफल हुयी तो आगामी चुनाव और जनता का मूड भाँप कर आडवाणी जी ने फिल्म देख कर आँसू भी बहाये और उन आँसुओं के बहने को प्रचारित भी कराया था।
थ्री ईडियट्स में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विज्ञान विषय के रट्टू तोतों के बीच फर्क दिखाया है जिसमें विज्ञान में टाप करने की चाह रखने वाला रट्टू लड़का देवी देवताओं को पूज कर सफल होना चाहता है जबकि फिल्म का हीरो अपनी छोटी छोटी समस्याओं को अपनी वैज्ञानिक बुद्धि से हल करता है। फिल्म में गरीबी की विवशता है, तो अमीरी की बदमाशी भी है जो दूसरे के नाम से परीक्षा की डिग्री हासिल करके धन कमाता है। फिल्म में रैगिंग के रोग का प्रोटेस्ट भी है तो शिक्षा की भाषा का सवाल भी उठाया गया है। फिल्म में नवधनाड्यों की सोच की सीमा भी बतायी गयी है तो गरीबी की विशाल ह्रदयता और ईमानदारी की मिशालें हैं। फिल्म में गीता का दर्शन- जो होता है सब अच्छा होता है- को गीत आल इज वैल के माध्यम से दिया गया है, तो रोचकता बनाये रखने के लिये ग्लोबल वार्मिंग जैसी हल्की फुल्की टिप्पणी भी है। सुशिक्षित लोगों द्वारा कहीं भी गन्दगी कर देने की बुरी आदतों पर कटाक्ष भी है तो परीक्षकों के पक्षपात के दोष भी दर्षाये गये हैं। निर्देशन का कमाल हर जगह नज़र आता है जिसमें गरीबी को ब्लेक एंड व्हाइट दिखा कर उनके उसी पुराने युग में जीने की विवशता को बताया गया है। माँ बाप के सपनों को बच्चों पर लाद कर उन्हें पैसा पैदा करने की मशीन में ढालने की भूल को भी उभार कर बताया गया है कि बच्चे अपनी सामर्थ और रुचि के अनुसार ही सही विकास पाते हैं।
जब लोगों के द्रष्टिकोण में वैज्ञानिकता आयेगी तब चीजों को विवेक के आधार पर देखने की तमीज़ भी जागेगी जिससे ढोंग, पाखण्ड और अन्धविश्वासों को फैला कर मलाई काटने वालों का पत्ता साफ हो जायेगा। तब लोग एक अफवाह पर गणेशजी की मूर्ति को दूध पिलाने नहीं दौड़ पड़ेंगे। इसलिये अन्न्धविश्वासों से लाभांवित लोग हर वैज्ञानिक कदम को भटकाने का प्रयास करते हैं या उसका विरोध करने लगते हैं।
फिल्म को सफल करके लोगों ने न केवल अपनी परिपक़्वता का ही परिचय दिया है अपितु साहित्य चित्रकला फिल्म और विभिन्न कलाओं का डंडे से विरोध करने वाली भाजपा को करारा जबाब भी दिया है। शायद यही कारण है कि शाहरुख खान की फिल्म का विरोध उन्होंने अपने गठबन्धन वाले शिव सेना पर ही छोड़ दिया है। कला और संस्कृति के संगठनों और मोर्चों की ज़रूरत आज पहले से ज्यादा बड़ गयी है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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सोमवार, फ़रवरी 08, 2010

क्या यही स्वर्णिम मध्य प्रदेश की दिशा है?

क्या यही स्वर्णिम मध्य प्रदेश की दिशा है?
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों मध्य प्रदेश के प्रमुख सचिव स्तर के दो अधिकारियों, जो रिश्ते में पति-पत्नी हैं, और उन से जुड़े व्यापारिक एवं निवेशक संस्थानों के प्रमुखों के यहाँ मारे गये छापों में रु.30438000/-नकद, रु.700000/- की विदेशी मुद्रा, रु.836000/- के आभूषण, उनके पिता के निवास से रु.175000/- नकद,627000/- के आभूषण बरामद किये गये हैं। जोशी दम्पत्ति के व्यापारिक हिस्सेदार पवन अग्रवाल सुनील अग्रवाल आदि के यहाँ से कुल रु.935000/- नकद और रु.1656000/- के आभूषण प्राप्त हुये, तथा दीपक असाई के यहाँ से रु.48000/- नकद रु.150000/- के नैशनल सेविंग्स सर्टिफिकेट और 445000/- के आभूषण प्राप्त हुये। इसी दौरान सेवानिवृत्त अधिकारी एम ए खान के यहाँ से रु.68000/- नकद और रु.1529000/- के आभूषण मिले। एक अन्य अधिकारी रामदास चौधरी के यहाँ छापे में नकद रु.499000/- मिले। आईसीआईसीआई प्रूडेन्शियल की ब्रांच मैनेजर सीमा जायसवाल के यहाँ से जो अवैध राशि को नियम विरुद्ध जमा कराने में कुशल अधिकारी हैं के यहाँ छापे में रु.359000/- नकद और रु.993000/- के आभूषण मिले। अभी बैंकों के और लाकर खुलने शेष हैं। इसके अलावा गत वर्ष से कुछ अन्य प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ जाँच घिसिट रही है उनमें अलीरजपुर के जिलाधीश अशोक देशवाल, राजस्व मंडल सचिव डा. राजेश राजौरा, प्रमुख सचिव राजस्व एम एम उपाध्याय, लोकसेवा आयोग सचिव आरके गुप्ता, इन्दौर नगर निगम के कमिश्नर सीबी सिंह, माध्यमिक शिक्षा मंडल में पदस्थ लक्ष्मी कांत द्विवेदी आदि शामिल हैं। इसके अलाव राज्य आर्थिक अपराध अंवेषण ब्यूरो में तीन आई ए एस के खिलाफ प्रकरण अभी चल रहे हैं।
पिछले दिनों प्रदेश के लोकायुक्त की विशेष पुलिस स्थापना ने वरिष्ठ जिला पंजीयक के यहाँ छापा मारकर 12लाख रुपये नकद और लगभग एक किलो सोने के आभूषण बरामद किय थे और भोपाल व इन्दौर में उसकी 15 करोड़ की ज़मीनों का पता चला था।
अर्थिक अनुसन्धान ब्यूरो ने इन्दौर में म.प्र. वित्त निगम के इंजीनियर और एक डाक्टर के लाकरों की तलाशी ली थी जिनमें से 6 करोड़ से अधिक के गहने और सोने कि बिस्कुट बरामद किये थे।
लोकायुक्त ने इन्दौर और कन्नौद में ग्रामीण यांत्रिकी विभाग के उपयंत्री के घर पर की गयी छापामार कार्यवाही में उसकी दर्ज़नों मकानों दुकानों के कागज़ात मिले जिनकी कीमत कई करोड़ है।
पिछले ही दिनों खनिज़ व्यापारी के यहाँ पड़े आयकर विभाग के छापों में 90 करोड़ की फिक्सड डिपाज़िट रसीदों के साथ सैकड़ों करोड़ रुपये के अवैध कारोबार से सम्बन्धित सबूत मिले थे
इन्दौर और धार में लोक स्वास्थ यांत्रिकी विभाग के ईई के यहाँ लोकायुक्त पुलिस के छापे में लगभग 5करोड़ रुपयों की नकदी ज़ेवर व ज़मीनों मकानों के कागज़ात मिले और गाड़ियाँ आदि मिलीं।
प्रोफेशनल कालेजों के पाँच समूहों पर आयकर विभाग के छापों में अरबों रुपयों की अनियमित्ताओं के खुलासे हुये हैं जिनमें पेड सीटों पर अधिकांशतयः अवैध सम्पत्तियों से ही धन लगाया जाता रहा है जो कालेजों में उसी तरह की पूंजी बनाता है।
यह स्मरणीय है कि विभागीय मंत्रियों की सहमति के बिना इतनी बड़ी मात्रा में काला धन पैदा नहीं किया जा सकता तथा इस सारे कारोबार में मंत्री और उनकी पार्टी का हिस्सा भी सबसे बड़ा होता है। इसका प्रमाण पिछले वर्ष कुछ मंत्रियों के निकट के लोगों के यहाँ पड़े छापों में करोड़ों की दौलत तो उनके ड्राईवरों के लाकरों से ही बरामद हुयी थी। जहिर है कि राजनीतिक दबाव में मंत्रियों और विधायकों को आयकर विभाग थोड़े दूर से ही छूने की कोशिश करता है अन्यथा अधिकारियों के यहाँ पड़ रहे छापों के बाद सम्बन्धित विभाग के मंत्री की चुप्पियों को देखकर तो लगता है कि शायद ही कोई मंत्री दूध का धुला निकले। मंत्रियों और विधायकों की सम्पत्तियों में होता निरंतर विकास कुछ और ही कहानी कहता है कि इस हम्माम में सब नंगे हैं।
विचारणीय बात यह है कि ये सारा पैसा वंचित वर्ग के लिये लायी गयी विकास और सशक्तीकरण योजनाओं में पलीता लगा कर ही पैदा किया जाता है, जिसे जनता पर अनाप शनाप टैक्स लगाकर वसूला जाता है, और इन भारी भरकम टैक्सों के कारण ही टैक्स वंचन की प्रवृत्ति पनपती है। इस परिवेश की सामने आ गयी और उससे कई गुनी दबी ढकी कालिमा को देखते हुये प्रदेश के मुख्य मंत्री का स्वर्णिम मध्य प्रदेश का खोखला नारा एक मज़ाक सा लगता है और बीस रुपये रोज पर जीवन गुजारने वाली जनता का विश्वास व्यवस्था से टूटता जाता है। देश के प्रधानमंत्री जब बामपंथी उग्रवाद को आंतरिक सुरक्षा के लिये प्रमुख खतरा बताते हैं तब इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिये कि यह उग्रवाद दिन प्रति दिन क्यों फैलता जा रहा है और इस के प्रसार में वर्तमान व्यवस्था के प्रति दिन होने वाले विश्वासभंजन की कितनी भूमिका है। हमारे देश के नेता इस विश्वास की स्थापना के लिये क्या करने जा रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, फ़रवरी 06, 2010

क्या अमिताभ बच्चन किसी अपराधबोध के शिकार हैं?


क्या अमिताभ बच्चन किसी अपराध बोध के शिकार हैं?
वीरेन्द्र जैन
अमिताभ बच्चन ने गुजरात पर्यटन के विकास हेतु मोदी सरकार का ब्रांड एम्बेसडर बनना स्वीकार कर लिया है। इससे पूर्व वे अपनी फिल्म पा के प्रमोशन के लिये मोदी से मिले थे और उनके गले लग कर उनकी प्रशंसा की थी। उनके इस कृत्य को पूरी दुनिया में जहाँ जहाँ उनकी यश पताका फहरा रही है, आश्चर्य और शंका की दृष्टि से देखा गया है।
एक पत्नी और एक वेश्या में केवल इतना ही फर्क होता है कि पत्नी के पास स्वाभिमान होता है, किंतु जो [भले ही अपनी रोज़ी रोटी के लिये], अपना आत्मसम्मान और अपनी स्वतंत्रता बेच देती है वह वेश्या कहलाती है और नफरत की पात्र बनती है व कोई पतित भी दिन के उजाले में उससे मिलना नहीं चाहता।
वे कितने ही गरीब क्यों न हों किंतु उन सत्तर करोड़ लोगों से तो ऊपर ही होंगे जिनकी आमदनी कुल बीस रुपया रोज़ है तथा भूखे पेट सो कर भी ये लोग पतन के रास्ते पर नहीं जाते। पिछले दिनों जब एक परिचर्चा में एक प्रतिभागी ने वेश्यावृत्ति के पीछे गरीबी को इकलौता कारण बतलाने की कोशिश की तो दूसरे ने उसके प्रतिउत्तर में कहा था कि अगर ऐसा होता तब तो सभी गरीब औरतों को वेश्या हो जाना चाहिये था। फिर ऐसी क्या मजबूरी थी जो उन्हें मोदी को गले लगाने में शर्म नहीं आयी। यह् उनकी वैचारिक स्वतंत्रता को सीमित करने की बात नहीं है, उन्हें पूरा हक है कि वे अगर मोदी और मोदीवाद को ठीक समझते हैं तो उसके साथ हो सकते हैं किंतु उन्होंने ऐसा करने का जो समय चुना है उसी के आधार पर उनका मूल्यांकन भी होगा। यह समय वह समय था जब उन्हें अपनी फिल्म पा को प्रमोट करने के लिये गुजरात सरकार का समर्थन चाहिये था, दूसरे उनके तत्कालीन राजनीतिक संरक्षक अमर सिंह और मुलायम सिंह के बीच महाभारत शुरू हो गया था जिसमें वे अमर सिंह के साथ थे जो उनके लिये इतने महत्वपूर्ण थे कि समाजवादी पार्टी के खिलाफ विवादास्पद बयान देने के बाद उनके दुबई से लौटने पर उन्हें रिसीव करने के लिये अमिताभ हवाई अड्डे पर पँहुचे थे। बाद में अमर सिंह को समाजवादी पार्टी से निकाल भी दिया गया।
कुछ दिनों पहले वे उत्तर प्रदेश के ब्रांड एम्बेसडर थे और कहते थे कि उत्तर प्रदेश में है दम, क्योंकि यहाँ ज़ुर्म है कम जो बिल्कुल ही गलत बयानी थी किंतु फिर भी उसे किसी विज्ञापन की तरह उपेक्षित कर दिया गया था। अभी हाल ही में मोदी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था जिससे मोहित होकर अपने को सदी का महानायक की तरह प्रचारित कराने वाला व्यक्ति उसके चरणों में जा गिरे। मोदी की निन्दा को अगर ऊंची ऊंची अदालतों, मानव अधिकार आयोगों, अल्प्संख्यक आयोगों, महिला आयोगों, सभी तरह के मीडिया हाउसों, विरोधी दलों, स्वैच्छिक समाजसेवी संस्थाओं, साहित्यकारों, कलाकारों, संगीतकारों, के कथनों को छोड़ भी दें तो भी गुजरात के नरसंहारों के दौरान भाजपा के सबसे बड़े नेताओं में से एक अटल बिहारी बाजपेयी के उन नरसन्हारों की अलोचना के दौरान स्तीफे की पेशकश से समझा जा सकता है, जिसे जसवंत ने अपनी किताब में लिखा है। ये वही मोदी हैं जिन्हें अमेरिका और इंगलेण्ड जैसे देशों ने वीजा देने से इंकार कर दिया था। ये वही मोदी हैं जिनकी सरकार के खिलाफ एंकाउंटर के नाम पर सरे आम हत्याओं के आरोपों पर अदालतों ने भी संज्ञान लिये हैं।
अमिताभ ने कभी वे फिल्में की थीं जिनमें युवाओं के अपने समय के आक्रोश को अभिव्यक्ति दी गयी थी और उससे वे अपने असामान्य लम्बे कद के बाबज़ूद नायक की तरह स्वीकार कर किये गये थे और इसी स्वीकार के आधार पर उन्होंने हज़ारों फिज़ूल के विज्ञापनों समेत न केवल भोपाल गैस काण्ड वाली यूनियन कार्बाइड की बैटरी जैसे विज्ञापन किये तो भी उन्हें सम्मान मिलता रहा। उन्होंने अपने को गंगा किनारा वाला छोरा बता कर उत्तर प्रदेश के लोगों का दिल जीता था किंतु उत्तर प्रदेश के लोगों के साथ बाल ठाकरे परिवार के कुत्सित व्यवहार के बाद भी जब वे उन्हें पिता की तरह सम्मान देते बताये गये तो उसे उनकी मज़बूरी समझा गया। किंतु श्याम बेनेगल की देव जैसी फिल्म करने के बाद इस समय पैसे के लिये गुजरात का ब्रांड एम्बेसेडर बनना तो पतन और नंगे अवसरवाद की पराकाष्ठा है। वे यह भूल रहे हैं कि उनको विज्ञापन इसीलिये मिलते हैं क्योंकि उन्हें सिनेमा दर्शकवर्ग का प्यार मिला हुआ है किंतु जैसे ही कोई क्रिकेट खिलाड़ी लगातार रन बनाये बिना आउट होता रहता है तो उसकी विज्ञापन वैल्यू भी गिर जाती है। इसलिये अगर नैतिक मापदण्डों को छोड़ भी दें तो व्यावसायिक दृष्टि से भी यह कदम उचित नहीं है।
श्रीमती इन्दिरा गान्धी के कार्यकाल में लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचे और कभी राजीव गान्धी परिवार के पारवारिक मित्र रहे अमिताभ परिवार के मतभेद हो जाने के बाद ऐसा लगता है कि वे कहीं से स्वयँ को भयग्रस्त और असुरक्षित महसूस करते रहते हैं इसलिये राजनीति छोड़ देने की सौगन्ध खाने के बाद भी वे कहीं न कहीं राजनैतिक संरक्षण तलाशते रहते हैं। अमर सिंह मुलायम सिंह का साथ देना, अपनी पत्नी को राज्यसभा का सदस्य बनवाना और बनाये रखने की ज़िद करना और फिर मोदी जैसे नेता के गले लग कर उसके राज्य का ब्रांड एम्बेसडर बनना कुछ ऐसे ही संकेत करते हैं, जो उनके सुपरमैन की छवि से एक भयग्रस्त आदमी की छवि बनाते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, फ़रवरी 04, 2010

संस्मरण- उनके लिये सबसे मनहूस आदमी थे ज्योति बसु

कार्टूनिस्ट आर के लक्षमण की निगाह में-
सबसे मनहूस आदमी थे ज्योति बसु
वीरेन्द्र जैन
कामरेड ज्योति बसु के निधन पर पूरे देश और दुनिया भर की समाजवाद में आस्था रखने वाली पार्टियों ने जिस भावुक ढंग से अपनी श्रद्धांजलियाँ दी हैं उससे पता चलता है कि उनके काम का कितना सम्मान था। किंतु एक कार्टूनिस्ट या व्यंगकार, जो अपनी बांकी शैली के लिये ही जाना जाता है वह अपना सम्मान किस तरह व्यक्त करता है इसे सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर के लक्षमण के एक साक्षात्कार से समझा जा सकता है।
घटना उस समय की है जब राशिपुरम कृष्णास्वामी अय्यर लक्ष्मण – जो आर के लक्ष्मण के नाम से विख्यात हैं, के कार्टून-यू सेड इट- को लगातार प्रकाशन के 50 वर्ष हुये थे और जो पूरी दुनिया में किसी भी कार्टून श्रंखला के लगातार प्रकाशन का विश्व रिकार्ड था तब एक अखबार ने उनका एक साक्षात्कार प्रकाशित किया था। उस साक्षात्कार में देश के विभिन्न राजनेताओं के बारे में बताते हुये श्री लक्षमण ने जब ज्योति बसु को उनके लिये सबसे मनहूस आदमी बताया तो साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार ने उनसे अपनी बात स्पष्ट करने को कहा। श्री लक्ष्मण ने कहा कि भारत के राजनेताओं में श्री ज्योति बसु ही ऐसे अकेले राज नेता हैं जिन्होंने लगातार लोक्तांत्रिक ढंग से चुने जाने का विश्व रिकार्ड बनाया है किंतु अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने मुझे कभी कार्टून बनाने का मौका नहीं दिया। यह एक ऐसे व्यक्ति की टिप्पणी थी जिसकी पैनी निगाह का लोहा सारी दुनिया मानती थी और कोई भी विसंगति उसकी निगाह से छूट नहीं पाती थी। यही कारण थे कि ज्योति बसु उन्हें अपने काम की दृष्टि से सबसे मनहूस आदमी लगते थे।
वैसे ज्योति बसु का सेंस आफ ह्यूमर बहुत ही बारीक था। कामरेड सीता राम येचुरी अपने संस्मरण में लिखते हैं कि जब वे उनके साथ क्यूबा की यात्रा पर गये तो एक दिन जब ज्योति बाबू सोने चले गये तब अचानक ही खबर आयी कि सर्वोच्च कमांडर- फिदेल कास्त्रो हमसे मिलना चाहते हैं। इस अचानक आमंत्रण के बाद जब ये लोग उनसे मिलने पहुँचे तो फिदेल कास्त्रो ने लगातार डेढ घंटे तक मीटिंग की और एक के बाद दूसरे सवाल पूछते गये कि भारत में कोयला कितना होता है, स्टील कितना बनता है, सीमेंट कितना होता है इत्यादि। ज्योति बाबू ने धीरे से बंगला में कामरेड येचुरी से कहा- ये मेरा इंटरव्यू ले रहे हैं या क्या कर रहे हैं! जब इस प्रतिनिधि मण्डल को लौटना था तब बिना किसी पूर्व सूचना और कार्यक्रम के फिदेल कास्त्रो उन्हें विदा करने अचानक हवाई अड्डे पर प्रकट हो जाते हैं जिससे इन लोगों के साथ साथ वहाँ का पूरा स्टाफ भी भौंचक्का रह जाता है। ज्योति बाबू कामरेड येचुरी से धीरे से पूछते है कि क्यूबा की क्रांति को कितने साल हो गये?
-चौंतीस- वे उत्तर देते हैं
- पर यह आदमी अभी तक गुरिल्ला टैक्टिस भूला नहीं है- वे कहते हैं। स्मरणीय है कि फिदेल कास्त्रो अपनी गुरिल्ला लड़ाई के लिये दुनिया भर में जाने जाते रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, फ़रवरी 03, 2010

वाहनों पर विशिष्टता वाले प्रतीक चिन्ह

वाहनों पर विशिष्टता वाले प्रतीक
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों दिल्ली में काल सैन्टर में काम करने वाली एक लड़की जिगिशा घोष की हत्या कर दी गयी थी जिसकी जाँच में न केवल जिगिषा के हत्यारे ही पकड़े गये अपितु पिछले दिनों एक पत्रकार सौम्या विशवनाथन की हत्या का राज भी खुल गया। दोनों ही हत्याएं उन्ही अपराधियों ने की थीं। जाँच में सबसे उल्लेखनीय बात यह सामने आयी कि अपराधियों के पास से अतिविशिष्ट व्यक्तियों द्वारा प्रयोग के लिए अधिकृत लाल बत्ती, पुलिस विभाग के प्रतीक चिन्ह, जज और प्रैस के स्टिकर, पुलिस महानिदेशक और उपमहानिरीक्षक की गाड़ियों पर लगने वाली नीली प्लेट, पुलिस की वर्दी, तथा वायरलैस सैट भी मिले हैं। प्रति दिन वांछित अवांछित आलोचना सुनने वाली पुलिस को इस कार्यवाही के लिए साधुवाद दिया जाना अपेक्षित है। इसके साथ यह अवसर वाहनों पर लगाये जाने वाले प्रतीक चिन्हों की उपयोगिता, आवशयकता और दुरूपयोग की संभावनाओं पर विचार करने का भी है।
आज प्रदेश की राजधानियों में सैकड़ों ऐसे वाहन पुलिस की आंखों के सामने से गुजरते रहते हैं जिनमें नम्बर प्लेट की जगह उस राज्य की सत्तारूढ पार्टी के झन्डे के रंग की प्लेट लगी होती है व उस पर दल के किसी प्रकोष्ठ के पदाधिकारी का नाम लिखा होता है। असल में ऐसी प्लेटें ट्रैफिक पुलिस कर्मचारियों को चेतावनी देने के लिए लगायी गयी होती हेेंै कि वे टै्रफिक नियमों को धता बताते हुये उक्त वाहनों को किसी भी तरह की चैकिंग के लिए रोकने का दुस्साहस न करें। अपने भविष्य और सुविधाओं के बारे में सोच कर आम तौर पर पुलिस के लोग ऐसे वाहनों को रोकते भी नहीं हैं व कानून के पालन की 'गलती' कर देने पर 'दण्डित' भी होते हैं। यही विशोष सुविधा अपराधियों को इन विशिष्ट प्रतीक चिन्हों के दुरूपयोग को प्रोत्साहित करती है। आज सारे बड़े बड़े अपराध इन्हीं विशिष्ट चिन्हों से मण्डित वाहनों के सहारे किये जा रहे हैं। वाहनों पर पुलिस और प्रैस लिखवाने का फैशन चल गया है। अखबार में प्रिटिंग का काम करने से लेकर अखबार बांटने का काम करने वाले हॉकर तक अपनी साइकिलों, बाइकों पर 'प्रैस' लिखवाये हुये मिल जाते हैं जबकि यह पहचान अधिक से अधिक केवल डयूटी पर काम के लिए निकले अखबार के संवाददाता तक ही सहनीय होना चाहिये पर भोपाल जैसे नगर में सिटी बसों, सामान ढोने वाले ट्रकों, आटो ही नहीं ट्रैक्टरों तक पर प्रैस लिखा देखा जा सकता है। रैडक्रास का निशान भी नर्सों, वार्ड ब्वाय, कम्पाउण्डरों , लैब तकनीशियनों से लेकर स्वीपरों तक प्रयोग में लाते हैं। पुलिस के सिपाहियों की साइकिलों पर भी पुलिस लिखा होता है जो परोक्ष रूप से उन चोरों को सावधान करने के लिए लिखवाया जाता है जो साइकिलें चुराते हैं। साइकिल पर अंकित 'पुलिस' संदेश देती है कि यह पुलिस वाले की साइकिल है इसे मत चुराओ। इतना ही नहीं सांसद विधायक से लेकर गांव के पंच सरपंच तक अपने वाहनों पर अपना पद लिखवाने लगे हैं। सरकारी अधिकारी ही नहीं कर्मचारी तक अपने विभाग का नाम व पद लिखवाते हेैं यहाँ तक कि वकील भी मोटे मोटे अक्षरों में 'एडवोकेट' लिखवा कर रखते हैं। राजनीतिक दलों के पदाधिकारी तो अपना छोटे से छोटा पद बड़े से बड़े अक्षरों में लिखवाना पसंद करते हैं।
1990 के दशक से देश में साम्प्रदायिकता का जो पुर्नजागरण हुआ है उसके बाद से लोगों के हाथों में बंधे कलावों, तिलकों, अंगूठियों, दाढियों, चोटियों, गले में पड़े दुपट्टॊं आदि से ही नहीं उनके घरो के दरवाजों और वाहनों पर लिखे जयकारों से उनके धार्मिक विशवासों का उद्घोष होता रहता है भले ही उनके आचरण उनके धार्मिक उद्घोषों के विरोधी हों। अधिकांश वाहनों पर बाहर की तरफ जयघोष के साथ साथ उक्त धार्मिक पंथ के प्रतीक चिन्ह और हथियार आदि अंकित रहते हैं। इनका उपयोग केवल इतना भर होता है कि साम्प्रदायिक दंगों के दौरान अपने वालों से ही प्रताड़ित होने से बच सकें। इन चिन्हांकनों से धर्म और पंथ का कितना भला हुआ है इसका कोई प्रमाण कभी नहीं मिला तथा हजारों दुर्घटनाग्रस्त वाहनों को देखने पर पता चलता है कि इन धार्मिक उद्घोषों ने दुर्घटना से कभी कोई रक्षा नहीं की और ना ही वाहनों को चोरी से ही बचाया।
देश में वाहनों का सड़कों और उनकी दशाओं के अनुपात में बेतुका विस्तार भविष्य में अनेकानेक समस्याओं को जन्म देगा, खास तौर पर जब कि वाहनों के साथ ट्रैफिक नियमों का पालन तो दूर की बात है लोगों को सही तरीके से पार्किंग की भी तमीज नहीं है जिसे किसी भी पार्किंग स्थल पर देखा जा सकता है। इसलिए आवशयकता इस बात की है कि नये नये सस्ते वाहन आने से पहले ट्रैफिक नियमों के कठोर अनुपालन को सुनिशचित करने की व्यवस्था की जावे जिसके लिए स्थानीय प्रभाव से बचने के लिए उनके अर्न्तराज्यीय और जल्दी स्थानान्तरण की व्यवस्था हो। डयूटी वाले चिकित्सकों, पुलिस व प्रशासन के वाहनों, डयूटी वाले मान्यता प्राप्त संवाददाताओं एम्बुलैंस फायर ब्रिग्रेड आदि आवशयक सेवाओं को छोड़ कर किसी भी वाहन के बाहर किसी भी प्रतीक चिन्ह को प्रकट करना कठोरता पूर्वक रोका जाये व विशिष्टता वाले वाहनों को अनिवार्य रूप से चैक किये जाने की व्यवस्था हो।
जिस तरह मोबाइल आने के बाद अपराधी साधन सम्पन्न हुये हैं उसी तरह वे मोबाइल के रिकार्ड के कारण उसी अनुपात में पकड़ में भी आये हैं। आज के अधिकांश अपराधों में वाहनों का प्रयोग आम हो गया है और अपराधों को पकड़ने में वाहनों की चैकिंग बहुत मदद कर सकती है। वाहन नियमों के किसी भी उल्लंघन के दुहराव पर उसका दण्ड भी दुगना कर देने से ट्रैफिक अपराधों पर अंकुश लग सकता है। एक से अधिक वाहन रखने वाले परिवार पर अतिरिक्त कर लगाने का प्रस्ताव तो पहले से ही विचाराधीन है। सड़क पर वाहनों की पार्किंग को अतिक्रमण माना जाना चाहिये। बेहतर होगा कि हम विदेशों से वाहनों के माडलों की नकल ही न सीखें अपितु उनके यहाँ के ट्रैफिक नियम भी सीखें।
जिगीशा और सौम्या की हत्या करने वाले यदि विदेशी आंतकी होते तो सहज ही कल्पना की जा सकती है कि वे कितने 26/11 दुहरा सकते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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