प्राकृतिक होने का एक त्योहार -होली
वीरेन्द्र जैन
हमारे देश में मनाये जाने वाले अनेक त्योहारों की तरह यद्यपि होली के साथ भी कुछ धर्मिक कथाएं जोड़ दी गयी हैं, कुछ पूजा अनुष्ठान किये जाते हैं फिर भी होली इन सबसे अलग एक ऐसा त्योहार है जो जाति, लिंग, रंग, भेद के बिना धर्म की सीमा से बाहर जाकर मनाया जाता रहा है। इसमें ऊंच नीच का भेद भी कम हो जाता है। परोक्ष रूप में कहा जा सकता है कि यह हमारे संविधान में वर्णित समान नागरिक अधिकारों की पहचान कराने वाला त्योहार है।
होली बसंत के बाद आने वाला ऐसा त्योहार है जब देश का मौसम मानव प्रकृति के सबसे अनुकूल अवस्था में होता है। उत्तर भारत की कड़कड़ाती सर्दी जा चुकी होती है और तपा देने वाली गर्मी अभी आई नहीं होती है ।सर्दी की जकड़न टूट चुकी होती है व देह के जोड़ जोड़ खुलने लगते हैं,। ये शरीर को फैलाने व अंगड़ाने के दिन होते हैं। फैलते शरीरों में एक स्वाभाविक चुहल पैदा होती है, एक आलोड़न भाव उपजता है। पेड़ रंग बिरंगे फूलों से भरे होते हैं। होली पूर्णिमा की रात्रि में मनायी जाती है। पूर्ण चन्द्र की दो रातें, जिन्हें होली और शरदपूर्णिमा के नाम से जाना जाता है,वर्ष की सबसे उजली और चमकदार रातों में से एक होती हैं।
मनोवैज्ञानिक बताते हें कि पूर्णचन्द्र की रातें सबसे अधिक दीवानगी की रातें होती हैं। दुनिया में सबसे अधिक लोग पूर्णिमा के दिन ही पागल होते हैं। अंग्रेजी में लूना चन्द्रमा को कहा जाता है व पागल को लूनाटिक इसीलिए कहा जाता है। यह प्राकृतिक रूप से दीवानगी का त्योहार है।
आखिर दीवानगी होती क्या चीज है?
दुनिया के सभी धर्मों में सबसे पहला सन्देश सत्य का दिया गया है। और सत्य क्या होता है? क्या झूठ के न होने को ही सत्य नहीं कहा जाना चाहिये।
सभी धर्म कहते हैं कि सत्य बोलो-सत्य बोलो, पर क्या सत्य बोलना सम्भव है? पर जब हम सत्य को बोलने का प्रयास करेंगे तो वह झूठ ही होगा और झूठ के सिवा कुछ नहीं होगा जैसा कि प्रतिदिन अदालतों में होता है। झूठ तो बोला जा सकता है पर सत्य बोला नहीं जा सकता, वह तो हुआ जा सकता है, जिया जा सकता है, बोला नहीं जा सकता। अगर हम झूठ नहीं बोलेंगे तो जो कुछ भी बोलेंगे वह सत्य होगा क्योंकि वह स्वाभाविक होगा, प्राकृतिक होगा ।
हमारी सारी सभ्यताएं झूठ की खानें हैं। हम जब असभ्य थे तब सच्चे थे व सभ्य होने के साथ साथ झूठे होते चले गये। होली अपने समय की सभ्यता को नकारने का त्योहार है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि यह असभ्यता का त्योहार है, इसलिए सच्चाई का त्योहार है। हम जब झूठ में जीते जीते ऊब चुके होते हैं तो एक दो दिन के लिये सच्चे और सहज होने की कोशिश करते हैं। हम अपने वस्त्रों को पहिनने का ढंग भूल जाते हैं बालों को संभालने की चिन्ता भूल जाते हैं खाने पीने की सावधानियां भूल जाते हैं अर्थात हमें झूठा अर्थात अप्राकृतिक आदमी बनाये रखने वाली सारी बातें भुला कर हम खुश होते हैं। बुन्देली के एक होली गीत में गाया जाता है- होली में बाबा देवर लगे, होली में- प्रकृति के रिश्तों के आगे समाज के बनावटी रिश्तों को भुला देने का दिन भी होली का दिन होता है। जो लोग इस दिन भी अपने बनावटी स्वरूप का बनाये रखने की कोशिश करते हैं उन्हें स्वाभाविकता की ओर लाने में विरूपित करने के लिये ही रंग रोगन ही नहीं कीचड़ और गोबर तक का प्रयोग भी होली में प्रारम्भ हुआ। वर्जनाओं से छुट्टी ले लेने का दिन भी होली का ही दिन होता है। कुल मिला कर यह सत्य में जीने का दिन होता है इसलिये इससे बड़ा धार्मिक दिन दूसरा नहीं हो सकता क्योंकि दुनिया का प्रत्येक धर्म सत्य का संदेश देता है। चूंकि सारे धर्म ही सत्य का संदेश देते हैं इसलिये यह एक धर्म निरपेक्षता का त्योहार भी है।
पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथप्रतापसिंह ने पिछले दिनों कुछ अच्छी पेंन्टिंग्स बनायी थीं जिनमें से एक प्रसिद्ध कथा पत्रिका हंस में भी प्रकाशित हुयी थी। यह एक न्यूड पेन्टिंग थी। जब हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने उनसे पूछा कि आपने यह न्यूड क्यों बनायी तो उन्होंने बहुत भोले पन से कहा था कि मैंने कहां बनायी यह तो भगवान ने बनायी । सच है कि होली के दिन हम प्रकृति अर्थात परमेश्वर निर्मित स्वाभिक रूप में आने को उत्सव की तरह मनाते हैं। हममें से कुछ लोग अस्वाभाविकता में जीने के इतने आदी हो जाते हैं कि वे स्वाभाविकता वाला एक दिन भी मना नहीं पाते या मनाते भी हैं तो इसे दूसरे अस्वाभाविक दिनों की तरह ही मनाने की कोशिश करते हैं। होली को किसी नियम, परम्परा, या निर्धारित ढंग से नहीं मनाया जा सकता। इसे जब भी किसी सांचे में ढाल कर मनाया जायेगा तब यह कोई दूसरा त्योहार हो जायेगा। यह तथाकथित सभ्यता के विरूद्ध एक दिन का विद्रोह है और प्रकृति की ओर वापिसी है। आज प्रकृति को बचाने के हजारों आन्दोलन सारी दुनिया में चल रहे हैं पर हम सैकड़ों वर्षों से होली के माध्यम से प्रकृति की ओर वापिसी का उत्सव मनाकर उसके आनन्द की अनुभूति करवाते आ रहे हैं। दुनिया की अप्राकृतिक चीजों के नकार का यह हमारा अपना तरीका रहा है।
दुनिया भर के सामने हमें कहना चाहिये कि हमें गर्व है क्यों कि हम होली मनाते हैं।
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेनरोड
अप्सराटाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 94256746295
वीरेन्द्र जैन
हमारे देश में मनाये जाने वाले अनेक त्योहारों की तरह यद्यपि होली के साथ भी कुछ धर्मिक कथाएं जोड़ दी गयी हैं, कुछ पूजा अनुष्ठान किये जाते हैं फिर भी होली इन सबसे अलग एक ऐसा त्योहार है जो जाति, लिंग, रंग, भेद के बिना धर्म की सीमा से बाहर जाकर मनाया जाता रहा है। इसमें ऊंच नीच का भेद भी कम हो जाता है। परोक्ष रूप में कहा जा सकता है कि यह हमारे संविधान में वर्णित समान नागरिक अधिकारों की पहचान कराने वाला त्योहार है।
होली बसंत के बाद आने वाला ऐसा त्योहार है जब देश का मौसम मानव प्रकृति के सबसे अनुकूल अवस्था में होता है। उत्तर भारत की कड़कड़ाती सर्दी जा चुकी होती है और तपा देने वाली गर्मी अभी आई नहीं होती है ।सर्दी की जकड़न टूट चुकी होती है व देह के जोड़ जोड़ खुलने लगते हैं,। ये शरीर को फैलाने व अंगड़ाने के दिन होते हैं। फैलते शरीरों में एक स्वाभाविक चुहल पैदा होती है, एक आलोड़न भाव उपजता है। पेड़ रंग बिरंगे फूलों से भरे होते हैं। होली पूर्णिमा की रात्रि में मनायी जाती है। पूर्ण चन्द्र की दो रातें, जिन्हें होली और शरदपूर्णिमा के नाम से जाना जाता है,वर्ष की सबसे उजली और चमकदार रातों में से एक होती हैं।
मनोवैज्ञानिक बताते हें कि पूर्णचन्द्र की रातें सबसे अधिक दीवानगी की रातें होती हैं। दुनिया में सबसे अधिक लोग पूर्णिमा के दिन ही पागल होते हैं। अंग्रेजी में लूना चन्द्रमा को कहा जाता है व पागल को लूनाटिक इसीलिए कहा जाता है। यह प्राकृतिक रूप से दीवानगी का त्योहार है।
आखिर दीवानगी होती क्या चीज है?
दुनिया के सभी धर्मों में सबसे पहला सन्देश सत्य का दिया गया है। और सत्य क्या होता है? क्या झूठ के न होने को ही सत्य नहीं कहा जाना चाहिये।
सभी धर्म कहते हैं कि सत्य बोलो-सत्य बोलो, पर क्या सत्य बोलना सम्भव है? पर जब हम सत्य को बोलने का प्रयास करेंगे तो वह झूठ ही होगा और झूठ के सिवा कुछ नहीं होगा जैसा कि प्रतिदिन अदालतों में होता है। झूठ तो बोला जा सकता है पर सत्य बोला नहीं जा सकता, वह तो हुआ जा सकता है, जिया जा सकता है, बोला नहीं जा सकता। अगर हम झूठ नहीं बोलेंगे तो जो कुछ भी बोलेंगे वह सत्य होगा क्योंकि वह स्वाभाविक होगा, प्राकृतिक होगा ।
हमारी सारी सभ्यताएं झूठ की खानें हैं। हम जब असभ्य थे तब सच्चे थे व सभ्य होने के साथ साथ झूठे होते चले गये। होली अपने समय की सभ्यता को नकारने का त्योहार है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि यह असभ्यता का त्योहार है, इसलिए सच्चाई का त्योहार है। हम जब झूठ में जीते जीते ऊब चुके होते हैं तो एक दो दिन के लिये सच्चे और सहज होने की कोशिश करते हैं। हम अपने वस्त्रों को पहिनने का ढंग भूल जाते हैं बालों को संभालने की चिन्ता भूल जाते हैं खाने पीने की सावधानियां भूल जाते हैं अर्थात हमें झूठा अर्थात अप्राकृतिक आदमी बनाये रखने वाली सारी बातें भुला कर हम खुश होते हैं। बुन्देली के एक होली गीत में गाया जाता है- होली में बाबा देवर लगे, होली में- प्रकृति के रिश्तों के आगे समाज के बनावटी रिश्तों को भुला देने का दिन भी होली का दिन होता है। जो लोग इस दिन भी अपने बनावटी स्वरूप का बनाये रखने की कोशिश करते हैं उन्हें स्वाभाविकता की ओर लाने में विरूपित करने के लिये ही रंग रोगन ही नहीं कीचड़ और गोबर तक का प्रयोग भी होली में प्रारम्भ हुआ। वर्जनाओं से छुट्टी ले लेने का दिन भी होली का ही दिन होता है। कुल मिला कर यह सत्य में जीने का दिन होता है इसलिये इससे बड़ा धार्मिक दिन दूसरा नहीं हो सकता क्योंकि दुनिया का प्रत्येक धर्म सत्य का संदेश देता है। चूंकि सारे धर्म ही सत्य का संदेश देते हैं इसलिये यह एक धर्म निरपेक्षता का त्योहार भी है।
पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथप्रतापसिंह ने पिछले दिनों कुछ अच्छी पेंन्टिंग्स बनायी थीं जिनमें से एक प्रसिद्ध कथा पत्रिका हंस में भी प्रकाशित हुयी थी। यह एक न्यूड पेन्टिंग थी। जब हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने उनसे पूछा कि आपने यह न्यूड क्यों बनायी तो उन्होंने बहुत भोले पन से कहा था कि मैंने कहां बनायी यह तो भगवान ने बनायी । सच है कि होली के दिन हम प्रकृति अर्थात परमेश्वर निर्मित स्वाभिक रूप में आने को उत्सव की तरह मनाते हैं। हममें से कुछ लोग अस्वाभाविकता में जीने के इतने आदी हो जाते हैं कि वे स्वाभाविकता वाला एक दिन भी मना नहीं पाते या मनाते भी हैं तो इसे दूसरे अस्वाभाविक दिनों की तरह ही मनाने की कोशिश करते हैं। होली को किसी नियम, परम्परा, या निर्धारित ढंग से नहीं मनाया जा सकता। इसे जब भी किसी सांचे में ढाल कर मनाया जायेगा तब यह कोई दूसरा त्योहार हो जायेगा। यह तथाकथित सभ्यता के विरूद्ध एक दिन का विद्रोह है और प्रकृति की ओर वापिसी है। आज प्रकृति को बचाने के हजारों आन्दोलन सारी दुनिया में चल रहे हैं पर हम सैकड़ों वर्षों से होली के माध्यम से प्रकृति की ओर वापिसी का उत्सव मनाकर उसके आनन्द की अनुभूति करवाते आ रहे हैं। दुनिया की अप्राकृतिक चीजों के नकार का यह हमारा अपना तरीका रहा है।
दुनिया भर के सामने हमें कहना चाहिये कि हमें गर्व है क्यों कि हम होली मनाते हैं।
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेनरोड
अप्सराटाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 94256746295
holi ko ek nai pariprekchhye mai samjhata hua lekh. badhai.
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