मंगलवार, दिसंबर 28, 2010

बिहार में विधायक निधि की समाप्ति- फैसला जेडी[यू[ का या एनडीए का

बिहार में विधायक निधि की समाप्ति
ये फैसला जेडी[यू] का है या एनडीए का?
वीरेन्द्र जैन
बिहार में नितीश कुमार ने सत्ता में वापिस लौटते ही चुनावों के दौरान किये गये वादे के अनुसार विधायक निधि समाप्त करने का फैसला ले लिया। इस क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को देखते हुए इस फैसले की व्यापक सराहना हुयी है। यह विषय उस समय भी चर्चा में आया था जब तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने भी सांसद निधि समाप्त करने पर विचार करने के लिए कहा था। स्मरणीय यह भी है कि जब वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में गठित द्वित्तीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने सरकार से यह सिफारिश की थी कि वह सांसद विधायक निधि को समाप्त कर दे, तब इस सिफारिश का समर्थन करते हुए भाकपा के महासचिव ए.बी. बर्धन ने कहा था कि बामपंथी दल तो शुरू से ही इस योजना के विरोधी रहे हैं। इस तरह देखा जाये तो इस निधि के दुरुपयोग को देखते हुए देश के अधिकांश दल सैद्धांतिक रूप से इस निधि के खिलाफ मुखर रहे हैं किंतु इसकी समाप्ति के साहस करने का श्रेय नितीश कुमार को जाता है।
बिहार में विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद जहाँ सारे समाचार पत्र और टिप्पणीकार इसे नितीश की जीत बता रहे थे वहीं भाजपा इसे एनडीए की जीत बता रही थी और वह मानती है कि बिहार में नितीश के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी है। यदि इसे सच माना जाये तो बिहार में विधायक निधि समाप्त करने का फैसला एनडीए का हुआ न कि जेडी[यू] का। एनडीए में सबसे बड़ा दल भाजपा है जिसे राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है। इस तर्क से गुजरात, छत्तीसगढ, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, झारखण्ड और पंजाब में भी एनडीए की सरकारें हैं। जब एक राज्य में विधायक निधि समाप्ति करने के बाद सभी ओर से साधुवाद मिलता है तो इस नीति को दूसरे एनडीए शासित राज्यों तक भी फैलाया जाना चाहिए। पर क्या कारण है कि उपरोक्त राज्यों को तो छोड़ ही दीजिए बिहार में भी इस नीति को लागू करवाने का श्रेय भाजपा को नहीं मिल रहा है। क्या भाजपा बिहार में सचमुच इस नीति को लागू करवाने के पक्ष में रही या यह नितीश कुमार का एक पक्षीय फैसला था? यदि यह एनडीए का फैसला है और भाजपा अपने को एनडीए में सम्मलित दलों का नेता मान कर चलती है तो उसे अपने द्वारा शासित राज्यों में भी इसे तुरंत ही लागू करवाना चाहिए अन्यथा यह केवल नितीश कुमार का ही फैसला माना जायेगा। पिछले दिनों जब सांसद निधि बेचने वाले सांसदों को स्टिंग आपरेशन में पकड़ा गया था तब उसमें छह में से तीन फग्गन सिंह कुलस्ते, चन्द्रप्रताप सिंह, और राम स्वरूप कोली तो भाजपा के थे। फग्गन सिंह कुलस्ते तो उस दौरान भाजपा के सचेतक और अनुसुचित जाति मोर्चे के अध्यक्ष भी थे। यदि यह तर्क दिया जाये कि उनके इस काम में पार्टी की जिम्मेवारी नहीं बनती है तो वह इसलिए गलत होगा क्योंकि उसके बाद भाजपा ने उन्हें फिर से टिकिट देकर यह सन्देश दिया कि उनका काम पार्टी की निगाह में गलत नहीं है। श्री फग्गन सिंह कुलस्ते तो परमाणु विधेयक पर बहस के दौरान फिर से चर्चा में आये थे जब उन्हें भाजपा के अन्य दो सांसद अशोक अर्गल, और महावीर भगौरा के साथ सदन में एक करोड़ रुपयों को लहराते देखा गया। यह जिज्ञासा सहज ही हो सकती है कि अगर यह रकम सचमुच ही यूपीए के किसी घटक ने दी थी तो उसने इसके लिए श्री फग्गन सिंह कुलस्ते का चुनाव ही क्यों किया। उल्लेखनीय यह भी है जिस दृष्य को देश के चालीस लाख लोग देख रहे थे उस घटना के बारे में कोई भी जाँच अभी तक नहीं हो पायी है कि वो एक करोड़ रुपये सचमुच किसने दिये थे और वे कहाँ से आये थे। आज भ्रष्टाचार के बारे में बहुत बातें हो रही हैं किंतु यह कोई पता नहीं लगाना चाहता कि पूरे एक करोड़ की रकम को खर्च करने के पीछे किसका क्या हित हो सकता था और चारे की तरह डाल दी गयी इस रकम को खर्च करने वाले ने उसके पीछे अपना कितना हित साधा होगा। यह मामला तो देश की सुरक्षा और दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दों से भी जुड़ा हुआ था। इसी तरह पैसे लेकर सवाल पूछने के लिए किये गये स्टिंग आपरेशन में भाजपा सांसद प्रदीप गान्धी को भाजपा ने छतीसगढ में चुनावों का प्रभारी बनाया था। जब स्वयं उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष रंगे हाथों देश की रक्षा के लिए उपकरण सप्लाई के नाम पर किये गये स्टिंग में पकड़े गये थे तो उनकी गैर राजनीतिक पत्नी को राजस्थान के सुरक्षित क्षेत्र से सांसद चुनवा कर उनके पद त्याग की भरपाई की थी। जब भाजपा ने स्पेक्ट्रम घोटाले में जेपीसी जाँच की माँग पर पूरा सत्र नहीं चलने दिया तो यह जरूरी हो जाता है कि वह भ्रष्टाचार के बारे में अपने पत्ते साफ साफ खोले अन्यथा यह भ्रष्टाचार का खुलासा नहीं, अपितु प्रतियोगिता का हिस्सा हो कर रह जायेगा।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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सोमवार, दिसंबर 20, 2010

उमा भारती का प्रदेश निकाला


उमाभारती का प्रदेश निकाला वीरेन्द्र जैन
राष्ट्रभक्ति का त्रिपुण्ड लगाये फिरने वाला संघ परिवार देश की गम्भीर से गम्भीर परिस्तिथि में भी सत्ता की राजनीति के सस्ते हथकण्डे अपनाने से बाज नहीं आता। कश्मीर में विदेशी घुसपैठियों और अलगाववादी तत्वों ने अपने मिशन को पाने के लिए वहाँ जो साम्प्रदायिक तनाव पैदा किया था उसके दुष्परिणाम स्वरूप कुछ हजार कश्मीरी पण्डितों को घाटी छोड़कर प्रदेश के दक्षिणी हिस्से जम्मू और कुछ को दिल्ली में शरण लेनी पड़ी थी। इस दुखद स्तिथि को संघ परिवार एक हथकण्डे की तरह से लगातार भुनाने में लगा है और इस सम्वेदनशील राज्य में अलगाववादियों के मंसूबों को पूरा करने में मददगार हो रहा है। इन विस्थापित नागरिकों को गत दो दशक से सरकार की ओर से प्रतिमाह आर्थिक मदद दी जाती है जो चार हजार रुपये प्रतिमाह, नौ किलो गेंहूँ, दो किलो चावल, और एक किलो चीनी तक सीमित है। धरती की जन्नत छोड़कर आने वालों को दस गुणा बारह का टीन की छत वाला एक आश्रय उपलब्ध कराया गया है। भले ही देश के नागरिकों की औसत आमदनी से यह सहायता दुगुनी होती है, किंतु अपने वतन से विस्थापित हुओं के लिए इस राशि को कितना भी बड़ा दिया जाये पर उनके जबरन विस्थापन के दर्द का मुआवजा नहीं बन सकता। केन्द्र में किसी भी दल की सरकार रही हो वह यह चाहती रही है कि शरणार्थियों की तरह रह रहे इन विस्थापितों को अपने स्थान पर वापिस लौटने का मौका मिले। यह स्थिति केन्द्र में भाजपा के शासन काल में भी नहीं बदल सकी थी। अंतर केवल इतना है कि जब केन्द्र में भाजपा सरकार नहीं होती तब वे इस दुखद स्थिति पर गैरजिम्मेवाराना राजनीति करते हुए इसे साम्प्रदायिक भेदभाव फैलाने का आधार बना लेते हैं इससे स्थिति और कठिन हो जाती है और सुधार की सम्भावनाओं को ठेस लगती है।
इसी संघ परिवार की राजनीतिक शाखा भाजपा, अपनी एक वरिष्ठ नेता उमा भारती को उनके अपने प्रदेश से निकाला दे रही है, जबकि उमा भारती को उसी तरह मध्य प्रदेश पसन्द है जिस तरह तस्लीमा नसरीन को बंगाल की धरती पसन्द है। सुश्री उमाभारती बचपन से ही जनता के प्रिय काव्य रामचरित मानस को कंठस्थ करने के लिए लोकप्रिय हो गयी थीं। भाजपा ने जब सत्ता पाने के लिए अयोध्या में रामजन्म भूमि मंदिर के बहाने राजनीतिक अभियान छेड़ा था तो सभी तरह की उपलब्ध लोकप्रियता को वोटों में भुनाने की जुगत भिड़ाई थी। सुश्री भारती की लोकप्रियता का राजनीतिक लाभ लेने के लिए उन्हें उनके धार्मिक कार्य से विमुख करके पार्टी में सम्मलित कर लिया गया था और लोकसभा का टिकिट दे दिया गया था। स्मरणीय है कि सुश्री भारती भाजपा के पास टिकिट माँगने नहीं गयी थीं अपितु भाजपा की नेता विजया राजे ने आगे आकर उन्हें उसी तरह टिकिट दिया था, जिस तरह बाद में हेमा मलिनी, स्मृति ईरानी, दीपिका चिखलिया, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, दारा सिंह, नवजोत सिंह सिद्धू, चेतन चौहान, धर्मेन्द्र, अरविंद त्रिवेदी,आदि आदि को दिया गया था। कहा जाता है कि औपचारिक शिक्षा कम लेने के कारण उनके जन्म वर्ष का उचित रिकार्ड उपलब्ध नहीं था और उनकी उम्र उस समय लोकसभा सदस्य हेतु उम्मीदवार के लिए तय उम्र की सीमा से कम थी, पर इस पर कोई ध्यान ही नहीं गया। उन्हें उनकी लोकप्रियता, प्रवचन कला में प्रवीणता, वाक पटुता और भगवा वस्त्रों के प्रभाव के कारण बाबरी मस्जिद ध्वंस अभियान में आगे आगे रखा गया था, जिसमें वे अभी भी अभियुक्तों की सूची में हैं। उन्होंने अपनी लोकप्रियता के कारण चुनाव में लगातार विजयश्री प्राप्त की और कभी लोकसभा में दो की संख्या तक सिमिट गयी भाजपा की सीटों की बढोत्तरी में अपना अतुल्य योगदान दिया व दूसरी कई सीटों के लिए भी प्रचार कार्य किया। जब केन्द्र में भाजपा की सरकार बनी तो भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व को उन्हें मंत्री बनाना पड़ा। किंतु केन्द्र में मंत्री बनने के लिए तो वे लोग सबसे आगे लगे थे जो चुनाव जितवाने में सबसे पीछे रहते हैं, इसलिए उमाभारती को मंत्री पद से मुक्त करके मध्य प्रदेश में भेज दिया गया क्योंकि उस समय प्रदेश में विधानसभा चुनाव में जीत दिला सकने की जिम्मेवारी लेने वाला कोई नहीं था। वे केन्द्र का मंत्री पद छोड़ना नहीं चाहती थीं उन्होंने पहले तो इंकार किया तथा उसके बाद अपनी अस्वीकार्य योग्य शर्तें रख दीं। परिस्तिथि का तकाजा था कि वे शर्तें भी भाजपा नेतृत्व द्वारा स्वीकार कर ली गयीं, जिनमें टिकिट बाँटने का अधिकार और जीतने की स्तिथि में मुख्यमंत्री पद की पुष्टि की शर्त भी सम्मलित थी। संयोग से चुनाव जीत लिया गया था और वचन बद्धता में अनचाहे उमाजी को मुख्यमंत्री का पद देना पड़ा था। किंतु लोकप्रियता को केवल सत्ता हथियाने के लिए उपयोग करने वाले भाजपा नेतृत्व को यह हजम नहीं हो सका व उन्हें स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने दिया गया। सलाहकारों के नाम पर चार व्यक्तियों का घेरा डाल दिया गया और बाद में तो एक बहाने से उनका स्तीफा ले ही लिया गया और वह कारण समाप्त हो जाने के बाद भी नहीं लौटाया गया। उन्होंने लाख कहा कि यह सरकार उनके बच्चे की तरह है जिसे जबरन छीन लिय गया है, उन्होंने अपने समर्थन में विधायकों के बहुमत होने का परीक्षण कराने को कहा किंतु किसी बात पर ध्यान नहीं दिया गया। सत्ता की ताकत और लालच से उनके जनान्दोलनों को गति नहीं पकड़ने दी गयी। चुनावों में उन्हें हरवाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया गया, यहाँ तक कि उन्होंने प्रदेश के मुख्यमंत्री पर उनकी हत्या करवाने के प्रयास का आरोप भी लगाया था। उनकी वापिसी के विचार पर भाजपा हमेशा दो फाड़ रही और एक पक्ष ने उनका आँख मूंद कर विरोध किया जिस कारण उनके लिए भाजपा का दरवाजा सुई के छेद से भी छोटा होता गया। पर जो दल कुछ कूटनीतियों के आधार पर विकसित होते हैं उनको अपनी योजनाओं के भागीदारों को दूर कर पाना सम्भव नहीं होता। जो दबाव अमर सिंह का मुलायम सिंह पर बना हुआ है लगभग वैसा ही दबाव उमाभारती का बाबरी मस्जिद ध्वंस के सहअभियुक्तों पर बना हुआ है। इसलिए उनको वापिस लेने पर अडवाणीजी तैयार हो गये हैं, किंतु वे उन्हें मध्यप्रदेश में कदम नहीं रखने देना चाहते। इस शर्त को उन्हें उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाने के नाम पर छुपाया जा रहा है। एक सन्यासी की कोई जाति नहीं होती इस कारण से उमाभारती की लोधी या पिछड़ीजाति के नेता के रूप में कोई पहचान नहीं है, जब भी वे कल्याण सिंह के सामने खड़ी होंगीं तो यूपी में उन्हें पीछे ही रखा जायेगा। यूपी में पहले से ही पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, कार्यरत हैं तो कलराज मिश्र, लालजी टंडन समेत, महंत अवैद्यनाथ समेत दर्जन भर बड़े स्थानीय नेता पूर्व से ही हैं, जो भाजपा को चौथे नम्बर पर बमुश्किल बनाये हुये हैं, ऐसे में उमाभारती से कुछ आशा करके जिम्मेवारी सौंपी जा रही है यह मानना हास्यास्पद ही होगा। दर असल उन्हें अपने प्रदेश, मध्यप्रदेश से निकाला दिया जा रहा है क्योंकि उन्होंने प्रदेश भाजपा में जो गुट विकसित कर दिया है वह शिवराज सरकार के लिए खतरा बनता जा रहा है। स्मरणीय है कि पिछले दिनों पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी, बाबूलाल गौर, उद्योगमंत्री कैलाश विजयवर्गीय,वरिष्ठ सांसद सुमित्रा महाजन जैसे कद के नेता उनकी वापिसी का समर्थन कर चुके हैं। दूसरी ओर शिवराज सिंह, और प्रभात झा जैसे लोग उन्हें पास भी फटकने नहीं देना चाहते। कहा जाता है कि शिवराज सिंह ने तो उन्हें प्रवेश देने की स्तिथि में स्तीफा देने की धमकी दे दी थी। यही कारण है कि उमाभारती को भाजपा में पुनर्प्रवेश देने के लिए प्रदेश से निकाला जा रहा है और उनके समर्थक यह कह रहे हैं कि एक बार प्रवेश हो जाने के बाद प्रदेश में नेता तो वही रहेंगीं, आवाज उनकी ही रहेगी भले ही वह कहीं से लगायी जाये। प्रदेश के मुख्यमंत्री आतंकित होकर अडवाणीजी के सामने दया की गुहार कर रहे हैं, और अडवाणीजी कह रहे हैं कि वे [उमाजी] राष्ट्रीय नेता नहीं हैं उनका “उपयोग” तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों तक ही किया जायेगा, जहाँ उनका कोई महत्व नहीं है। यदि भाजपा नेता के रूप में उनका मध्यप्रदेश में प्रवेश रोका गया तो यह स्तिथि कश्मीरी पंडितों की स्तिथि से भिन्न नहीं होगी।
वीरेन्द्र जैन
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मो. 9425674629

गुरुवार, दिसंबर 16, 2010

पारदर्शी समय ---आर पार दिखता है


पारदर्शी समय
वीरेन्द्र जैन


हमारे समय को सूचना क्रान्ति के युग की तरह पहचाना जा रहा है। यह नई तकनीक के कारण ही सम्भव हो सका है। भूमण्डलीकरण का विचार इसी कारण विस्तार पा सका है क्योंकि अब पुरानी तरह की सीमाबन्दी और गोपनीयता सम्भव नहीं रह गयी है। अमेरिका के सैटेलाइट आज एशिया के देशों के बाजारों के साइनबोर्ड तक पढ सकते हैं।
आज अपने देश में ही सैकड़ों चैनलों और हजारों अखबारों के लाखों सम्वाददाता व कैमरामैन चौबीसों घन्टे किसी सामान्य असामान्य गतिविधि को कैमरे में कैद करने और उसे समाचार बना दुनिया भर में प्रसारित करने के लिए सक्रिय हैं। मोबाइलों में ही नहीं पैनों में भी कैमरे लगे हुये हैं और मोबाइल फोनों की संख्या पैंसठ करोड़ का आंकड़ा पार गयी है। इससे राजनीति का स्वरूप भी बदल रहा है। गत वर्षों में इन समाचार चैनलों के सम्वाददाताओं ने देश की एक सत्तारूढ पार्टी के अध्यक्ष को रक्षा सौदों के लिए सिफारिश करने हेतु नोटों की गिड्डियां दराज में डालते व डालरों में मांगते दिखा कर अपना पद छोड़ने के लिए व तत्कालीन रक्षामंत्री को त्यागपत्र देने के लिए को विवश कर दिया था। इन्हीं संवाददाताओं ने संसद सदस्यों को सवाल पूछने और सांसद निधि से धन आवंटन के लिए रिश्वत लेते दिखा कर पद छोड़ने को मजबूर कर स्वयं को लोकतंत्र में सचमुच चौथा पाया होने के प्रमाण दिये थे। एक सांसद कबूतरबाजी के लिये रंगे हाथ दबोचे गये थे। स्टिंग आपरेशनों में सैकड़ों भ्रष्टाचारी जनता के सामने लाये जा चुके हैं और अनेकों के पकड़े जाने की सम्भावनाएं पैदा की जा चुकी हैं। पुलिस के अधिकारियों को हत्या की सुपारी लेते और उसे कानूनी रूप देने की तरकीब स्पष्ट करते हुये कैमरों में दिखाया गया है। जेल के कैदियों को अवैध सुविधाएं पहुंचाने वाले डाक्टर भी कैमरों की कैद में आकर निलंबित हो चुके हैं। सेना में व्याप्त भ्रष्ट्राचार को भी न्यूज चैनल दिखा ही चंके हैं। एक स्वयं सेवक के अंतरंग संबन्ध तो देश भर ने सीडी द्वारा देखे ही थे धर्म परिवर्तन के बहाने राजनीति करने वाले एक मंत्री तो जाम उठा कर पैसे को खुदा बताते और रिश्वत की गिड्डियां लेते देश भर में मीडिया के द्वारा देखे गये थे। देश के एक प्रभावशाली नेता की सीडी और टेलीफोन पर सौ घन्टों से अधिक की बातचीत के टेप भी चर्चित रहे हैं। उन टेपों को ट्रम्प कार्ड की तरह स्तेमाल करने के उद्देश्यवश उसी दल में विरोधी गुट के नेता लिये घूमते रहे। एक प्रदेश के मुख्यमंत्री की पत्नी को नोट गिनने की मशीन बेचने वाले ने ही मशीन खरीदते समय वीडियो रिकार्डिंग करा के उनके प्रदेश के एक मंत्री को बेच दी थी, जो मुख्यमंत्री को ब्लेकमेल करता रहा।
आयकर विभाग वालों ने गत वर्ष में पिछले वर्ष से डेढ गुना अधिक राजस्व वसूली की है जिसमें सेवा कर की भी बड़ी राशि सम्मिलित है। आज सरकारों में बैठे लोग भले ही अपने स्वार्थों के कारण काला धन निकलवाने में विलंब कर रहे हों पर सच तो यह है कि आज के समय में सरकार चाहे तो काले सफेद सभी तरह के धन के प्रवाह को देख सकती है और उचित नियंत्रण कर सकती है। चाहे तो स्विस बैंकों में जमा धन के बारे में पता कर सकती है।
अब चुनाव आयोग पहले जैसा औपचारिक ढंग से काम निबटाने वाला संस्थान नहीं है अपितु वह मन और वचन दोनों से ही नियमों की घोषित भावनाओं के पालन हेतु भरसक प्रयत्न रत है। न्याय भी अब आगे बढ कर प्रकरणों को दुबारा खुलवा कर सुनवाई करवा रहा है और सरकारों पर सख्त टिप्पणियां कर रहा है। सरकारों को मजबूर होकर जनता को सूचना का अधिकार देना पड़ा है, जो अभी भले ही वांछित गति नहीं पकड़ पाया हो पर इरादा होने पर इस दौर में उसे देर नहीं लगेगी। इससे नौकरशाही में एक दहशत सी है, भले ही भ्रष्टाचार के नितप्रति उद्घाटनों से वह बड़ा हुआ महसूस हो रहा हो।
यह पारदर्शी समय है। जिन मोबाइल फोनों ने अपराधियों को अनेक सुविधायें दी हैं उन्हीं में दर्ज रिकार्ड के कारण अपराधियों और उनके सम्पर्कों तथा सन्देहास्पदों की पिछली गतिविधियों का पता चल जाता है। मंत्रालयों, बैंकों, एटीएमों, पेट्रोलपम्पों, प्रमुख मार्गों और रेलवे स्टेशनों पर कैमरे लगे हैं। अब इंटरनेट से सारी दुनिया के नक्शे ही नहीं सड़कें और बाजार भी देखे जा सकते हैं। दुनिया के अरबों लोगों के प्रोफाइल इंटरनेट पर उपलब्ध हैं जिसकी विभिन्न साइटों पर लोग प्रतिदिन अपने मनोभाव उगलते रहते हैं। यह खुलने का समय है और जो खुद नहीं भी खुलना चाहते उन्हें समय खोल रहा है। कार्यालयों में आने जाने और हाजिरी व छुट्टियों के हिसाब का काम कम्प्यूटर से होने लगा है। मोबाइल पर फील्ड के अधिकारियों की लोकेशन समझी जा सकती है। कम्प्यूटर और नेट इस बात का स्थायी रिकार्ड रखते हैं कि आपने कब कब कितने बजे कितने समय तक कौन सी साइट देखी या किस फाइल पर काम किया। आज दुनिया वालों के दिलों और दिमागों को भी पढे और समझे जाने की ओर तेजी से प्रगति हो रही है। विकीलीक्स ने जिन रहस्यों से पर्दा उठाया है उससे अमरीका समेत दुनिया भर के नेता और सरकारें हिल गयी हैं।
यह आश्चर्यजनक है कि इस पारदर्शी समय में भी हमारे देश के राजनीतिक नेता सरेआम नंगा झूठ बोलने से गुरेज नहीं करते। ढीठतापूर्वक झूठ बोलते हैं और उस झूठ को एक कुलीन भाषा में पिरोने के लिए जाने माने वकीलों को प्रवक्ता बनाते हैं। लाखों लोगों द्वारा देखे गये अपराध को भी भाषायी कौशल से छुपाने की कोशिश करते हैं। ये लोग धर्म ग्रन्थों की शपथ लेकर जैसा सच बोलते हैं वह ''अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो'' जैसा सच होता है।
अब हम जितनी जल्दी यह स्वीकार लें उतना ही अच्छा होगा कि यह समय नंगे यथार्थ का समय है तथा भविष्य में कुछ भी ढका मुँदा नहीं रह जाने वाला है। कोई नहीं जानता कि कौन सा कैमरा किसे शूट कर रहा है, कौन सा टेप किसकी आवाज रिकार्ड कर रहा है, किसके खातों की नकल किसके पास है और तो और अब नारको टैस्ट से भी सच उगलवाया जा सकता है। महापुरुषों ने सदियों से जिस सत्य को बोलने के लिए उपदेश दिये हैं पर फिर भी मानव जाति जिस पर अमल नहीं कर रही थी आज तकनीक उस पर अमल कराने के की ओर बढ रही है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल म.प्र.
फोन 9425674629

बुधवार, दिसंबर 08, 2010

यह ब्लेकमेलरों की भाषा है language of blackmailers


यह ब्लैकमेलरों की भाषा है

वीरेन्द्र जैन
कभी अपने आप को मुलायम सिंह का हनुमान और कभी टेलर बताने वाले अमर सिंह ने अब कहना शुरू कर दिया है कि अगर उन्होंने मुँह खोल दिया तो सपा नेता जेल में होंगे।
इन दिनों कोई एमरजैंसी नहीं लगी हुयी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है और संघ के पूर्व सर संघ चालक समेत कोई भी कुछ भी बोल रहा है, तब फिर समाजवादी पर्टी के पूर्व महासचिव अमर सिंह को मुँह खोलने से कौन रोक रहा है? जहाँ तक मुलायम सिंह से उनकी पुरानी मित्रता का सवाल है तो उसे तो वे वैसे भी कब की तिलांजलि दे चुके हैं। वे भूल चुके हैं कि ठाकुर अमर सिंह के राजनीतिक उत्थान और उसके सहारे हुये उनके आर्थिक उत्थान में यादव जाति के समर्थन से नेता बने मुलायम सिंह यादव का समुचित योग दान रहा था, और मुलायम सिंह को राजनीति में अर्थजगत के महत्व को उन्होंने ही पहलवान मुलायम सिंह को समझाया था। इस दौरान वे मुलायम सिंह यादव को दो जिस्म एक जान कहते थे। इस अहसान फरामोशी का प्रमाण तो उनके निम्नांकित बयानों से ही मिल जाता है जिनका ना तो उन्होंने कभी खण्डन किया और ना ही ये कहा कि ये प्रैस ने तोड़ मरोड़ कर छाप दिये हैं-
-मुम्बई। अमर सिंह ने कहा कि सपा का अर्थ मुलायम सिंह और उनका परिवार है और कुछ नहीं।[पीपुल्स समाचार] -इलाहाबाद। समाजवादी पार्टी के पूर्व महा सचिव अमर सिंह ने रविवार को सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव पर अब तक का सबसे करारा हमला बोला है। अमर ने कहा है कि उनके जीने से ज्यादा जरूरी है मुलायम सिंह यादव का मरना। मुलायम सिंह ने मुसलमानों को हमेशा धोखा दिया है। [दैनिक भास्कर 10 अगस्त 2010]
-रायबरेली। सोनिया के संसदीय क्षेत्र रायबरेली में दंगल प्रतियोगिता के उद्घाटन में शामिल होने आये समाजवादी पार्टी के निष्कासित नेता अमर सिंह ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गान्धी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जम कर तारीफ की साथ ही सोनिया गान्धी को अच्छे व्यक्तित्व वाली दुनिया की सबसे बेहतर नेता भी बताया। [पीपुल्स समाचार 1 सितम्बर 2010]
लखनउ। अमर सिंह ने यहाँ आयोजित “ देश के मौजूदा हालात और मुसलमान” विषय पर आयोजित कार्यक्रम में कहा कि चौदह साल तक जिनकी जबान को कुरान की आयत और गीता का श्लोक समझा उन्हीं ने हमें रुसवा किया। मुलायम सिंह ने ही कल्याण सिंह को सपा में शामिल किया। व्यक्तिगत रूप से में कल्याण सिंह को मुलायम सिंह से बेहतर व्यक्ति मानता हूं क्योंकि वे साफ बात करते हैं और अपने कार्यों को स्वीकार करते हैं। कभी हमारे बगलगीर रहे मुलायम वर्ष 2003 में जनादेश की वजह से नहीं बल्कि मेरी कलाकारी से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने रह सके थे। राज बब्बर को समाजवादी पार्टी में लाने और विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठ विष्णु हरि डाल्मियाँ के बेटे संजय डाल्मियाँ को पार्टी का कोषाध्यक्ष और सांसद बनाने वाले मुलायम सिंह ही हैं। [जनसत्ता 19 अक्टूबर 2010] नई दिल्ली। मुलायम सिंह मेरे घर पर कब्जा किये हुये हैं और खाली नहीं कर रहे हैं। महारानी बाग का यह घर मैंने ही मुलायम सिंह को दिया था जिसका किरायानामा राम गोपाल के नाम से बना हुआ है जो मुलायम सिंह के निकट के रिश्तेदार हैं [डीबी स्टार नवम्बर 2010] कभी सोनिया गान्धी को प्रधानमंत्री न बनने देने के लिए विदेशी मूल का मुद्दा उछालने वाले अमर सिंह आज कल प्रति दिन मुलायम सिंह को कोसते रहते हैं। ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब वे मुलायम सिंह और उनके रिश्तेदारों, भाई भतीजों के खिलाफ असंसदीय भाषा में कुछ न कुछ नहीं कहते हों। अपने ताज बयान में वे कहते हैं “आजम खान यह समझ लें कि अगर मैंने मुँह खोल दिया तो मुलायम सिंह यादव मुश्किल में पड़ जायेंगे, उनको जेल जाना पड़ सकता है, जो आजम खान मुझे दलाल कह रहे हैं, पहले वे जरा यह बताएं कि मैंने उन्हें क्या क्या दिया है। मुझे सप्लायर कहने वाले समाजवादी पार्टी के अन्य नेता भी आगे आकर बताएं कि मैंने उन्हें या मुलायम सिंह को क्या सप्लाई किया है,”।
इतना सब कुछ कह लेने के बाद वे अब और क्या छुपाना चाहते हैं। यह राजनीतिज्ञों की भाषा नहीं अपितु ब्लेकमेलरों की भाषा है। वे सार्वजनिक रूप से पूर्व मित्र हो चुके जिन मुलायम सिंह यादव के मरने तक की कामना करते हैं उन्हें जेल जाने से वे क्यों बचाना चाहते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसी कोई बात कहने पर वे खुद किसी अधिक बड़े अपराध में सम्मलित पाये जायें और उसी से बचने के लिए वे गोलमाल भाषा में धमकी दे रहे हैं। अमर सिंह जैसे जनाधार विहीन नेता हमारे लोकतंत्र के लिए एक बड़े अभिशाप की तरह हैं जो जनता को निरी मूर्ख और स्मृतिहीन मानते हैं। ऐसे लोग ही लोकतंत्र को जोड़तोड़ और जनसमर्थन को कारपोरेट घरानों के यहाँ गिरवी रखवाने का काम करते हैं। लायजिनिंग का जो काम नीरा राडिया राजनीति में आये बिना करती रहीं वही काम अमर सिंह जैसे लोग राज्यसभा की सदस्यता से मिल चुकी विशिष्ट स्तिथि का दुरुपयोग करते हुये करते रहे हैं। देश के रक्षामंत्री पद पर रह चुके किसी नेता ने यदि जेल जाने लायक अपराध किया है तो उसे छुपाना और उसकी ओट में अपने राजनीतिक हित साधना भी अपराध है, जो अमर सिंह जैसे लोग डंके की चोट पर करते रहते हैं।
अपनी सामाजिक जिम्मेवारी समझते हुए सुप्रीम कोर्ट जिस तरह से राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों को कटघरे में खड़ा कर रहा है, तब देश की सुरक्षा से जुड़े रहे किसी व्यक्ति कथित अपराध को छुपाने का अपराध करने वाले उसकी दृष्टि से अलक्षित क्यों हैं? जरूरत तो इस बात की है कि देश के सारे जनप्रतिनिधियों और उसकी पेंशन लेने वाले भूतपूर्व जनप्रतिनिधियों से यह शपथ पत्र लिया जाये कि कानून विरोधी किसी भी गतिविधि का पता चलते ही वे शीघ्रातिशीघ्र कानून की निगाह में लायेंगे और दोषी को सजा दिलाये जाने में कानून की भरपूर मदद करेंगे। ऐसा न करने पर वे स्वयं भी अपराध छुपाने के अपराधी माने जायेंगे।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

सोमवार, नवंबर 29, 2010

बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम- एक दूसरा पक्ष्


बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम
मूल्यांकन इस पहलू से भी देखें
वीरेन्द्र जैन

लोकतंत्र में जब सत्ता की राजनीति हावी होने लगती है तब केवल चुनाव परिणाम ही देखे जाते हैं। गत बिहार विधानसभा चुनाव परिणामों पर प्रतिक्रिया देते समय पूरे मीडिया ने नितीश कुमार और विकास की जीत बतायी वहीं भाजपा के नेता अपनी प्रतिक्रिया देते समय इसे एनडीए की जीत बता रहे थे। सवाल है कि क्या यह एनडीए की जीत है या नीतिश कुमार की जीत है? सच तो यह है कि तमाम बेशर्मी के साथ किसी तरह पीछे लटक कर भाजपा ने हमेशा की तरह भरपूर लाभ उठा लिया है, पर क्या वो अकेले लड़ कर उस जनता का समर्थन पा सकती थी जिसने रथयात्रा के दौरान अपने प्रदेश में लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किये जाने पर तत्कालीन राज्य सरकार का खुलकर साथ दिया था और बाद में होने वाले चुनावों में अडवाणी को गिरफ्तार करने वालों को भरपूर समर्थन देकर विधानसभा और लोकसभा में भेजा था। यह जीत भाजपा के वैकल्पिक प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी और मुसलमानों के हाथ काटने की घोषणा करने वाले वरुणगान्धी को बिहार में चुनाव प्रचार न करने देकर एक सन्देश देने वालों की जीत है। नितीश कुमार ने तो चुनाव के पहले साफ घोषणा कर दी थी कि अगर गठबन्धन चलाना है तो वह हमारी शर्तों पर चलेगा। सत्ता के लिए किसी भी हद तक गिर जाने के लिए अभंजित रिकार्ड रखने वाली भाजपा ने उनके आदेश को सिर माथे लगा कर स्वीकार कर लिया था। नितीश के ये तेवर तो तब थे जब उनको अकेले दम पर सरकार बनाने के लिए कम से कम बत्तीस सीटें और चाहिए थीं और वे भाजपा के समर्थन पर बुरी तरह निर्भर थे।
ताजा चुनाव परिणामों के अनुसार नितीश को अपनी सरकार बनाने के लिए कुल आठ विधायकों का समर्थन चाहिए जो प्रदेश को भाजपा से मुक्त करने के लिए कोई भी कभी भी दे सकता है। दूसरी ओर भाजपा को अपनी सरकार बनाने के लिए कम से कम तेतीस सीटें चाहिए और उन्हें कोई भी समर्थन नहीं दे सकता। भाजपा को किसी गैर भाजपा दल ने तभी समर्थन दिया है जब वे इतनी कम सीटें जीत पाये कि भाजपा की सरकार बनवाना उनकी मजबूरी रही। किंतु जैसे ही परिस्तिथियां बदलीं वैसे ही ऐसे समर्थकों ने अपना समर्थन वापिस लेने में देर नहीं की। मायावती ने तो भाजपा से कम सीटें होते हुए भी छह छह महीने सरकार चलाने के हास्यास्पद समझौते में पहले सरकार बनाने की शर्त मनवायी थी और बाद में उन्हें समर्थन देने से इंकार कर दिया था, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें व्यापक दलबदल का सहारा लेना पड़ा था और सारे दलबदलुओं को मंत्री बनाने का सौदा भी उन्हीं के खाते में दर्ज है। रोचक यह है कि एक एक विभाग के दो दो तीन मंत्रियों में से दर्जनों का यह कहना रहा कि उन्हें कभी किसी फाइल पर दस्तखत करने का अवसर नहीं आया।
भाजपा के नेता बार बार जिस एनडीए की जीत की दुहाई दे रहे हैं उसका गठबन्धन के रूप में अस्तित्व कहाँ है! एनडीए की अपने किसी साझा कार्यक्रम के रूप में कोई पहचान नहीं है। भाजपा इसका सबसे बड़ा और इकलौता राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल है इसलिए इसकी भूमिका भी बड़े भाई की है। पर जिस जिस राज्य में भी उनको पूर्ण बहुमत प्राप्त है वहाँ वहाँ वे एनडीए के दूसरे किसी घटक को घास नहीं डालते। गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, हिमाचल प्रदेश में भूले से भी उनके मुँह से एनडीए का नाम नहीं निकलता। बिहार, पंजाब, उड़ीसा में वे जूनियर पार्टनर और विवशता में बनाये घटक की तरह रहे। उड़ीसा में ईसाइओं के खिलाफ उनकी साम्प्रदायिक हिंसा के कारण बीजू जनतादल को उन्हें हटाना ही पड़ा। उत्तराखण्ड, कर्नाटक, और झारखण्ड में सरकार बनाने की जोड़तोड़ में उन्हें एनडीए याद नहीं आया। केन्द्र में सत्ता होने के दौर में, तृणमूल कांग्रेस, तेलगुदेशम, एआईडीएमके, इंडियन नैशनल लोकदल, नैशनल कांफ्रेंस, आदि को उचित समय पर उनका साथ छोड़ देने में ही अपनी भलाई नजर आयी। ऐसी दशा में जब नितीश के आकर्षक शासन को पूरा श्रेय मिल रहा हो और उनकी निर्भरता भाजपा पर बहुत कम रह गयी हो तब सरकार में भी उनका महत्व कम ही होना तय है। ताजा चुनाव परिणाम की पिछले विधानसभा चुनाव परिणामों से तुलना करने पर यह भी स्मरण में रखना होगा कि पिछले चुनाव आरजेडी और कांग्रेस आदि ने मिलकर लड़े थे जबकि उक्त चुनावों में ये अलग अलग लड़ रहे थे। भाजपा, जेडीयू को मिले कुल मतों की संख्या उनके विरोध में पड़े कुल मतों की संख्या से कम है जो शासन की लोकप्रियता के बारे में एक सन्देश है। पिछले चुनावों की तुलना में छह चरणों में हुए चुनाव अधिक स्वच्छ, सुरक्षित, हिंसामुक्त हुये हैं और मतदान प्रतिशत में वृद्धि लिये हुए हैं। जातिवाद ने दलों की जगह उम्मीदवारों के स्तर पर काम किया है। लालू प्रसाद को सभी यादवों ने वोट नहीं दिया हो किंतु जिस क्षेत्र से जिस जाति का उम्मीदवार था उसे उस जाति के वोट बटोरने में सहूलियत रही।
उम्मीदवारों द्वारा दाखिल किये गये शपथपत्रों के अनुसार चुने गये 243 विधायकों में से 141 के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज हैं। इन 141 में से 117 के खिलाफ गम्भीर आपराधिक मामले हैं। इनमें से भी 85 के खिलाफ हत्या या हत्या के प्रयास का मामला दर्ज है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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शुक्रवार, नवंबर 26, 2010

केन्द्रीय विषय के रूप में भ्रष्टाचार और व्यवस्था corruption in centre


केन्द्रीय विषय के रूप में भ्रष्टाचार और व्यवस्था
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों संसद को लम्बे समय तक स्थगन झेलना पड़ा। इस स्थगन के मूल में भ्रष्टाचार की कुछ बड़ी बड़ी घटनाओं का एक साथ उद्घाटन होना है। भ्रष्टाचार निश्चित रूप से आज गम्भीर स्थिति तक फैल चुका है और इसकी वृद्धि का हाल यह है कि हमारा देश ट्रांसपरेंसी इंटर्नेशनल के पायदान पर भ्रष्टाचार में तीन सीड़ियां और ऊपर चढ चुका है। यह विधायिका, कार्यपालिका के साथ तो पहले से ही जुड़ा हुआ था पर अब यह सेना और न्यायपालिका में भी प्रकट होने की हद तक उफान ले चुका है। किसी देश की व्यवस्था पाँच तत्वों पर निर्भर करती है, राजनीति, पुलिस, प्रशासन, सेना, और न्यायपालिका। आज इनमें से कोई भी भ्रष्टाचार की अन्धी दौड़ से मुक्त नहीं है। पुलिस और नौकरशाही तो अंग्रेजों के समय से ही बदनाम रही है किंतु स्वतंत्रता संग्राम से जन्मा नेतृत्व क्रमशः भ्रष्टाचार की गिरफ्त में आता गया। नेहरूजी के समय में टी टी कृष्णमाचारी को बहुत छोटी सी भूल के कारण पद से हाथ धोना पड़ा था। पर आज हालात यह हो गये हैं कि विधायिका में ईमानदार ढूंढना मुश्किल हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पर महाभियोग लगने की तैयारी है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस स्वयं स्वीकार चुके हैं कि तीस प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं। प्रशांत भूषण ने तो सुप्रीम कोर्ट के आठ जजों के भ्रष्ट होने के बारे में सार्वजनिक बयान दिया है। सेना के अधिकारियों द्वारा किये गये भ्रष्टाचार के समाचार यदा कदा आते रहे हैं किंतु अब तो इसमें बड़े और महत्वपूर्ण पदों पर बैठे अधिकारियों के नाम आने से देश का आम जन देश की सबसे महत्वपूर्ण और सम्मानित संस्था की ओर सन्देह की दृष्टि से देखता हुआ स्वयं को भयभीत महसूस कर रहा है। विदेश विभाग में कार्यरत अधिकारी पाकिस्तान की जासूस निकलती है और गृह मंत्रालय का अधिकारी उद्योगपतियों व्यापारियों का जासूस पाया जाता है। अर्ध सैनिक बल का एक जवान अपने परिवार को बड़ा मुआवजा दिलाने के लिए एक बेरोजगार नौजवान को धोखा दे, अपनी ड्रैस पहिना कर उसका गला काट देता है और सिर गायब कर देता है। बाद में इसे नक्सलवादियों द्वारा की गयी हत्या प्रचारित करवा देता है। स्टिंग आपरेशन में पुलिस का थाना प्रभारी हत्या की सुपारी लेता हुआ और उस हत्या को एनकाउंटर में बदलने की योजना बनाता कैमरे में कैद कर लिया जाता है। सांसद पैसे के बदले में केवल दल बदल ही नहीं करते, अपितु सवाल पूछने, सांसद निधि स्वीकृत करने, और अपनी पत्नी के नाम पर दूसरी महिलाओं को कबूतरबाजी से विदेश भिजवाने के लिए भी कैमरे की कैद में आते हैं और फिर भी उनका कुछ नहीं बिगड़ता वे समाज में ससम्मान मुस्काराते हुए घूमते हैं। एक देश भक्ति का त्रिपुण्ड धारण करने वाली सत्तारूढ पार्टी का अध्यक्ष देश की सेना के लिए ऐसे उपकरण खरीदवाने में मददगार होने की रिश्वत लेता हुआ कैमरे की कैद में आता है जो उपकरण अस्तित्व में ही नहीं है और वही अगली बार डालर में देने का आग्रह कर रहा होता दिखाई देता है। इतना ही नहीं वही पार्टी उसे उसकी गैरराजनीतिक पत्नी को सुरक्षित सीट से टिकिट देकर सांसद बना कर तुष्ट करती है। संसद में सबसे मह्त्वपूर्ण न्यूक्लीयर डील पर बहस के दौरान एक करोड़ रुपये रिश्वत की रकम बता रुपये सदन के पटल पर पटक दिये जाते हैं पर उसकी आमद और उनके सदन में आने के रास्ते की जाँच हुए बिना ही मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। कोई नहीं जानना चाहता कि वे रुपये कहाँ से आये थे और किसके थे। आज सदन में गतिरोध पैदा करने वालों में से न किसी सांसद को सदन की गरिमा की चिंता सताती है और ना ही सुरक्षा की चिंता, इसलिए भ्रष्टाचार की उक्त घटना की जाँच के लिए कोई उत्सुक नहीं दिखता।
सरकारी अफसरों के घरों में जब छापा पड़ता है तो रुपये ऐसे निकलते हैं जैसे कि उसके घर में छापाखाना लगा हो। यह सारा पैसा उन सशक्तिकरण और विकास की योजनाओं में से चुराया हुआ होता है जिनके बड़े बड़े पूरे पेज के विज्ञापन छपवा कर विभिन्न सरकारें गरीबनवाज दिखने का भ्रम पैदा करती रहती हैं। सरकार में सम्मलित मंत्री की अनुमति और हिस्सेदारी के बिना तो अफसर इतनी अटूट राशि एकत्रित नहीं कर सकते पर मंत्रियों पर छापा नहीं मारा जा सकता। किंतु जब मंत्रियों के निकट के रिश्तेदारों और नौकरों के यहाँ छापे डाले जाते हैं तो ड्राइवरों तक के लाकरों में करोड़ों रुपये निकलते हैं। आज जब भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई प्रशासनिक कदम उठाया जाता है तो आम आदमी को अच्छा लगता है। शायद यही कारण है कि राजनीति में प्रवेश करने के लिए उतावले बाबा रामदेव जैसे लोकप्रिय व्यक्ति इस मुद्दे को पकड़ लेते हैं। पिछले दिनों लोकसभा चुनावों के दौरान बामपंथियों, जेडी[यू] के बाद भाजपा ने भी स्विस बैंक में जमा भारतियों की धनराशि को वापस मँगाने का मुद्दा उठाया था जो केवल चुनावी मुद्दा भर बन कर रह गया। इसका कारण यह रहा कि बामपंथी यह मानते हैं कि भ्रष्टाचार तो पूंजीवाद का स्वाभाविक दुष्परिणाम है और यह पूंजीवाद के समाप्त होने के बाद ही समाप्त होगा, वहीं भाजपा समेत दूसरे पूंजीवादी दल स्वयं ही उसके हिस्से हैं इसलिए वे जनभावनाओं को देखते हुए इसे केवल चुनावी मुद्दे तक ही सीमित रख सकते हैं उसके खिलाफ कोई प्रभावी आन्दोलन नहीं चला सकते। बिडम्बना यह है कि जब प्रैस और जनहित याचिकाओं के माध्यम से न्यायपालिका को अपना काम करना पड़ता है तो मजबूरन विपक्ष में बैठे लोगों को भी अपना राजनीतिक हित सधने का मौका नजर आता है और स्वयं की सुरक्षा भी नजर आती है। संसद में ताजा गतिरोध राजनीतिक लाभ के लिए सरकारी पार्टी के भ्रष्टाचार तक ही सीमित है और वह देश से पूर्ण भ्रष्टाचार उन्मूलन तक नहीं पहुँचता क्योंकि उसके लिए व्यवस्था के चरित्र को समझ कर उसे बदलने की दिशा में काम करना होगा। विरोध के लिए मजबूर सर्वाधिक सक्रिय विपक्षी दल जब केन्द्रीय सत्ता में था तो उसके मंत्रियों के खिलाफ भी ऐसे ही आरोप लगते रहे हैं तथा अब भी जहाँ जहाँ राज्यों में उनकी सरकारें हैं वे इसी अनुपात में भ्रष्टाचार में लिप्त हैं तथा कमजोर विपक्ष के कारण मध्यप्रदेश के मंत्री तो रिकार्ड तोड़ रहे हैं।
भ्रष्टाचार का फैलाव इस हद तक हो गया है कि इसे रोकने के लिए व्यवस्था के किसी एक अंग को अपनी सीमाएं लांघनी पड़ेंगीं और बाकी सारे अंगों की चुनौती झेलना पड़ेगी। स्मरणीय है कि इमरजैंसी लागू होने की पृष्ठभूमि में जयप्रकाश नारायण का सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन था जो गुजरात में चिमनभाई पटेल के विरुद्ध भ्रष्टाचार विरोधी क्षात्र आन्दोलन से विकसित हुआ था। स्मरणीय है कि उस क्रांति की परिणति भी सरकार बदलने तक ही सीमित रही थी और इस बदलाव के बाद जो विकल्प उभरा था वह भी नख से शिख तक भ्रष्टाचार में लिप्त रहा। गठबन्धन की मजबूरी ने एक संगठित साम्प्रदायिक दल को अपनी जड़ें देशव्यापी फैलाने का मौका मिल गया और जिसे हाशिये पर होना चाहिए था वह विपक्ष के केन्द्र में बैठा है। भ्रष्टाचार का हल सरकारें बदलने में नहीं व्यवस्था बदलने से मिलेगा और यह काम किसके नेतृत्व में होगा इसके संकेत नहीं मिल रहे हैं। ताजा हालात में तो कुँए और खाई के विकल्प हैं। राजनीतिक दल इस हद तक भ्रष्टाचार पर निर्भर हो गये हैं कि लोग भ्रष्टाचार के लिए राजनीतिक दलों में आने लगे हैं और ऐसे लोग ही अपेक्षित विधायिका के स्थान घेरते जा रहे हैं। सुप्रसिद्ध कवि मुकुट बिहारी सरोज के शब्दों में कहा जाये तो-
मरहम से क्या होगा ये फोड़ा नासूरी है
अब तो इसकी चीरफाड़ करना मजबूरी है

वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, नवंबर 23, 2010

मानवाधिकार और गडकरी Human rights and BJP president Gadakaree

मानवाधिकार और गडकरी
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों भाजपा के मानवाधिकर प्रकोष्ठ द्वारा नई दिल्ली में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था जिसका विषय था- मानवाधिकार आन्दोलन: गलत धारणा को सुधारना। इस विषय पर बोलते हुए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कहा कि अलगाववादियों और आतंकवादियों के मानवाधिकार संरक्षण की बात करना देशद्रोह के समान है। दलितों, महिलाओं, गरीबों,और आत्महत्या के लिए मजबूर किसानों के मानव अधिकारों की बात की जाना चाहिए, पर अलगाववादियों और आतंकवादियों के मानव अधिकारों की बात करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। [जनसत्ता 2 नवम्बर 2010] गडकरी समेत संघ परिवारियों के बयानों से उनका फासिस्ट चरित्र लाख छुपाने के बाबजूद भी छुप नहीं पाता और वह कहीं न कहीं से प्रकट हो ही जाता है। भारत देश के आम नागरिक को जो अधिकार मिले हैं वे भाजपा और संघ परिवार की इजाजत से नहीं मिले हैं अपितु देश के संविधान के आधार पर मिले हैं। हमारा संविधान जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, रंग, और लिंग का कोई भेद किये बिना श्री नितिन गडकरी और मानव अधिकारवादियों समेत सबको अभिव्यक्ति का समान अधिकार देता है। यदि कोई किसी के बयान से असहमत है तो वह भी अपनी असहमति और तर्कों समेत अपनी बात खुल कर रख सकता है जिस पर एक लोकतांत्रिक समाज में देश की जनता विचार करेगी और उचित समय पर अपना फैसला लेगी। स्मरणीय है कि इमरजैंसी के बारे में अपनी बात रखते हुए एक बार अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा था कि इमरजैंसी में जिन्दा रहने के अधिकार समेत सारे ही मूल अधिकार समाप्त कर दिये गये थे, जबकि जिन्दा रहने का अधिकार हमें ईश्वर ने दिया है न कि संविधान ने दिया है। इसे कोई इमरजैंसी खत्म नहीं कर सकती।
स्मरणीय है कि इमरजैंसी में संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। रोचक है कि उसके विरोध में संघ के किसी नेता ने गिरफ्तारी नहीं दी थी अपितु तत्कालीन सरकार ने जैसे ही उनके कुछ बड़े बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया वैसे ही उसके अधिकांश सदस्यों ने अपने खाकी नेकर छुपा दिये थे और सारे पूर्णकालिक सक्रिय कार्यकर्ता भूमिगत हो गये थे। जो लोग जेल में गये थे उनमें से अनेक लोगों ने बाहर आने के लिए क्षमा याचना की थी। स्वयं देवरस जी ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा श्रीमती इन्दिरा गान्धी का चुनाव वैध घोषित किये जाने के बाद उनके कार्यों की प्रशंसा करते हुए उन्हें पत्र लिखा था और उस पत्र में संघ से प्रतिबन्ध हटा लेने की दशा में उनके कार्यक्रमों के प्रति पूरा समर्थन व्यक्त करते हुए सहयोग देने का वादा किया था। यही लोग इमरजैंसी हटने के बाद अपने आप को क्रांतिकारी बताने लगे थे और बड़ोदा डाइनामाइट षड़यंत्र कांड के लिए मशहूर हुए जार्ज फर्नांडीस समेत इमरजैंसी में मंत्री रहे बाबू जगजीवन राम, हेमवती नन्दन बहुगुणा, विद्याचरण शुक्ल आदि के सहयोग से बनी जनता पार्टी सरकार में सम्मलित होने के लिए इतने लालायित रहे कि उन्होंने अपनी पार्टी जनसंघ को जनता पार्टी में विलीन करने में एक क्षण की भी देर नहीं की, जबकि मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी ने ऐसी सरकार में सम्मलित होने के प्रस्ताव के प्रति अपनी असहमति खुल कर व्यक्त की थी जिसके सदस्य बिना माफी माँगे पूरे समय तक जेल में रहे थे और वहाँ पर भी अपनी असहमतियों को लगातार बनाये रहे थे। इमरजैंसी हटने के तीस साल बाद संघ के लोगों की मध्य प्रदेश में सरकार बनने के बाद उन्होंने अपने जेल से माफी माँग कर आये साथियों समेत सबको मीसा बन्दी आजीवन पेंशन बाँध ली जिसे मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के लोगों ने माफी माँग कर लौटे उन लोगों के साथ लेने से इंकार कर दिया। खेद की बात है कि आज उसी पार्टी का अध्यक्ष मानवाधिकारों की बात करने वालों को बात तक करने की इजाजत ही न देने का फतवा दे रहा है और मानव अधिकार की बात करने को देशद्रोह का नाम दे रहा है। किसी का नाम लिये बिना वे ‘जिन बड़े बड़े पुरस्कार प्राप्त व्यक्तियों द्वारा दिये गये बयानों’ के आधार पर इजाजत न देने की बात कर रहे थे तो उनका साफ संकेत अरुन्धति राय की तरफ था। यह संकेत करते समय वे यह भूल गये कि अरुन्धति राय ने जिन आदिवासियों के संघर्ष का समर्थन करने की बात की थी उसमें दलित, महिला, गरीब और किसान सभी सम्मलित हैं। अंतर केवल इतना है कि वे किसान मजदूर आत्महत्या करने की जगह हथियार उठा कर जंगल में संगठित हो गये हैं और सुरक्षा बलों के साथ हिंसा प्रतिहिंसा के खेल में सम्मलित हो गये हैं। भारत सरकार के कानून के खिलाफ हिंसा में शामिल होने पर स्वाभिक रूप से वे न केवल पुलिस की गोलियों के शिकार हो रहे हैं अपितु पकड़े जाने पर देश के कानून के अनुसार उचित सजाएं भी पा रहे हैं। उनके विचारों और तरीकों से असहमत हुआ जा सकता है, और देश के संविधान के अनुसार उचित कार्यावाही की माँग की जा सकती है। सरकार की लापरवाही और उदासीनता की स्थिति में सरकार के खिलाफ आन्दोलन किये जा सकते हैं, पर किसीके विचारों की आज़ादी और मानवाधिकारों पर रोक लगाने की माँग करना फासिस्ट तरीका है।
यही संघ परिवार आतंकवादियों को तुरंत फाँसी देने की उत्तेजना फैलाने में सबसे आगे रहता है किंतु जब मय सबूतों के उनसे जुड़े लोग आतंकी गतिविधियों में सामने आये तो वे न केवल उनके बयान बदलवाने लगे अपितु जाँच एजेंसियों के खिलाफ वातावरण तैयार करने लगे। किसी के आतंकी या देशद्रोही गतिविधियों में सम्मलित होने न होने के बारे में फैसला लेने के लिए जाँच एजेंसियां और न्यायपालिका मौजूद है। यही न्यायपालिका जब उनके पक्ष में फैसला देती है तो वे ढोल बजा कर उसका स्वागत करते हैं। आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता यह संघ परिवार के लोग भी कई बार दुहरा चुके हैं। तब ऐसी दशा में किसी भी धर्म के आरोपी कि खिलाफ हो रही जाँच और सही न्याय के काम में मदद दी जानी चाहिए। अगर कहीं कमियों हैं तो उनको सामने लाया जाना चाहिए। किंतु न्यायालय में अनास्था, स्वतंत्र जाँच और अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगाने की माँग अलोकतांत्रिक है।
रोचक यह भी है अभी जब भाजपा की मातृ पितृ संस्था के प्रमुख रहे सुदर्शनजी ने यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गान्धी के सम्बन्ध में असमय, बेतुकी, आधारहीन और अश्लील टिप्पणियाँ कीं तथा कुछ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने विरोध किया तो संघ परिवार का एक हिस्सा उसे सुदर्शनजी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कह कर उनका पक्ष ले रहा था। इस पक्षधरता के बाबजूद भी सुदर्शंनजी की अभिव्यक्ति की आजादी पर आरएसएस ने ही रोक लगा दी और उन्हें घेरे में लेकर पत्रकारों व बुद्धिजीवियों से बात करने से रोक दिया। उनका बयान या टेप किया हुआ सन्देश तक बाहर नहीं आने दिया गया।
फसिस्ट संगठन अपने विरोधियों की स्वतंत्रता नहीं अपितु अपनों की स्वतंत्रता को भी बाधित करते हैं। जहाँ जहाँ मानव अधिकारों का हनन होता महसूस किया जा रहा हो वहाँ वहाँ मानव अधिकारों की माँग को उठाने की स्वतंत्रता होना चाहिए और उसके सही या गलत होने का फैसला नियमानुसार न्याय, शासन, प्रशासन और जनता को करने देना चाहिए। नाथूराम गोडसे और बेअंत सिंह को भी उन्हें अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर देने के बाद ही फाँसी दी गयी थी।

वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, नवंबर 17, 2010

araajakataa desha mem aur dalon men अराजकता देश में और दलों में

अपने संगठनों में अराजकता वाले दल देश में अराजकता कैसे रोकेंगे

वीरेन्द्र जैन
बिहार के गत विधानसभा चुनावों में राज्य के अधिकांश प्रमुख दलों को टिकिट वितरण में जिस संकट का सामना करना पड़ा वह लोकतंत्र के लिए चिंतनीय है। टिकिट वितरण के लिए चयनित नेताओं को छुप कर रहना पड़ा, कई जगह उन्हें मारपीट और झूमा झटकी का सामना करना पड़ा। पटना में तो एक टिकिट वंचित टिकिटार्थी ने कांग्रेस कार्यालय में आग ही लगा दी थी। असल में हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने के जो दावे करते हैं उनकी दलों के स्तर पर सच्चे अर्थों में स्थापना अभी बाकी है। सम्बन्धित दलों में टिकिट वितरण के कोई स्पष्ट और घोषित आधार नहीं हैं। इनके लिए चुनाव अपनी राजनीतिक विचारधारा पर जनमत प्राप्त करना और अपनी घोषणाओं के लिए जनता का समर्थन पाने के लिए नहीं अपितु वे सम्पत्ति की खुली लूट और उस कारण जनता के गुस्से से सुरक्षा पाने के लिए सत्ता की ताकत हथियाने का अवसर होते हैं। इसलिए एन केन प्रकारेण चुनाव जीतना इनका लक्ष्य बन गया है। इसके लिए पूर्व से स्थापित जाति व्यवस्था को और मजबूत कर दिया गया है ताकि थोक में वोटों के ठेकेदारों से सौदा किये जा सकें। साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भाषावाद,सामंतवाद और गैर राजनीतिक कारणों से अर्जित लोकप्रियता को वोट झटकने के लिए स्तेमाल किया जाता है। सत्ता का विदोहन करने, अपने उद्योग व्यापार के लिए मनमानी सुविधाएं जुटाने व सरकारी कर चुराने पर भी सुरक्षित बने रहने के लिए बड़े बड़े पूंजीपति अब चुनावों में ‘इनवेस्ट’ करने लगे हैं जिससे चुनाव, चुनाव से अधिक धन बल का खेल होकर रह गये हैं। 544 सदस्यों की संसद में 300 से अधिक करोड़ पतियों का पहुँचना इसका प्रमाण है। हमारे यहाँ काम करने वाले अधिकांश राजनीतिक दल एकदम स्वच्छन्द हैं और उनके संगठन के कोई सुचिंतित नियम नहीं हैं। जहाँ पर ये नियम कागजों पर बने हुये भी हैं वहाँ भी इनका गम्भीरता से पालन नहीं होता। चुनाव आयोग का राजनीतिक दलों को गिरोहों में बदलने से रोकने के लिए उन पर कोई नियंत्रण नहीं है। जब राजनीतिक दल राजनीतिक दलों की तरह काम ही नहीं कर रहे होंगे तो चुनाव ठीक से कराने का महत्व ही कितना रह जाता है। दलों के कार्य करने की कोई न्यूनतम साझा आदर्श आचार संहिता ही नहीं है। गत वर्षों में आधे अधूरे मन से कुछ प्रयास किये गये, जैसे दलों में संगठन के सावधिक चुनावों की अनिवार्यता, चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी को अपनी सम्पत्ति और दर्ज आपराधिक प्रकरणों की घोषणा करना, चुनाव खर्च पर कड़ा नियंत्रण आदि सम्मलित हैं। किंतु इन पर भी गम्भीरता से पालन नहीं हो रहा है। कितना आश्चर्यपूर्ण है कि सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले राजनीतिक दल अपनी आय और उसके स्त्रोतों को गोपनीय बनाये रखना चाहते हैं। उनके कार्यालय में आयकर अधिकारी सर्वेक्षण या जाँच करने नहीं जा सकते, जबकि सर्वाधिक धन इन्हें टैक्सचोरों से ही मिलता है।
राजनीतिक दल अपने दैनिन्दन कार्यों से लेकर चुनावों तक के लिए पूंजीपतियों से चन्दा लेते हैं। ये पूंजीपति उन्हें उनके घोषित राजनीतिक कार्यक्रमों के प्रभाव में चन्दा नहीं देते अपितु सत्ता पाने की दशा में विशेष पक्षधरता पाने के लिए चन्दा देते हैं। कितना बिडम्बनापूर्ण है कि कोई पूंजीपति सभी प्रमुख पार्टियों को उदारता से चन्दा देता है ताकि सरकार किसी की भी बने पर पक्षधरता उसकी ही करे। जिन राजनीतिक दलों को पूंजीपतियों के रहमोकरम पर जिन्दा रहना पड़ता है वे उसके द्वारा की गयी अनियमताओं का विरोध कैसे कर सकते हैं। दूसरी बात यह है कि राजनीतिक दलों में काम करने वालों के लिए दलों की ओर से वेतन और पेंशन की कोई सुनिश्चित व्यवस्था नहीं है जिससे इनके पूर्णकालिक कार्यकर्ता राजनीति को जल्दी से जल्दी आर्थिक सुरक्षा पाने की होड़ का साधन बनाने में जुट जाते हैं। इसमें सफल हो जाने वाले के लालच का कोई अंत नहीं होता, और सफल न होने वाले सारे उपलब्ध साधनों और अवसरों को अपनी सफलता के प्रयास में लगा कर पूरे तंत्र को भ्रष्ट करने में जुट जाते हैं। ऐसे राजनीतिक दलों में काम करने वालों से आदर्श लोकतंत्र की स्थापना की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इसमें सुधार के लिए जरूरी है कि-
• राजनीतिक दलों की वित्तीय व्यवस्था पारदर्शी हो राजनीतिक दलों के लिए कोई साझा आचार संहिता हो, और उस पर अमल सुनिश्चित कराने के लिए कानून विद्यमान हों, और जिनका पालन भी हो।
• मतदाता सूची की तरह राजनीतिक दलों के सक्रिय सदस्यों की सूची सार्वजनिक रूप से घोषित हो और निर्वाचन आयोग से पुष्ट हो, तथा किसी दल की दो साल की न्यूनतम वरिष्ठता वाले सदस्यों को ही उनके टिकिट पर चुनाव लड़ने का अधिकार हो।
• केवल अपने सदस्यों से ही आय के अनुपात में लेवी लेकर दल को संचालित करने की आदत डालें, जैसा कि कुछ बामपंथी दलों में होता है जहाँ आय बढते ही लेवी की दर भी बढ जाती है। जो पचास पैसे प्रतिशत से लेकर आठ प्रतिशत तक जाती है।
• एक संस्थान केवल एक ही दल को चन्दा दे सके और अधिक अच्छा हो कि उसके कर्ताधर्ता किसी राजनीतिक दल के सदस्य बनें व चन्दा देने की जगह आय के अनुपात में लेवी का भुगतान करें।
• प्रत्येक पूर्णकालिक कार्यकर्ता को दलों की ओर से न्यूनतम वेतन मिलना सुनिश्चित हो तथा दलों और सरकार की ओर से सेवा निवृत्ति के बाद उन्हें आवश्यकता होने पर पेंशन मिलना सुनिश्चित हो।
जब तक दलों की दशा नहीं सुधरेगी तब तक लोकतंत्र की दशा नहीं सुधर सकती, इसलिए दलों की सांगठनिक व्यवस्था में सुधार जरूरी हो गया है ताकि मतदाता को यह माँग न करना पड़े कि उसे किसी को भी वोट न देने के लिए मतदान पत्र में खाली कालम भी रखा जाये
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शनिवार, नवंबर 13, 2010

संत संघ और सन्देश्

संत संघ और संदेश
वीरेन्द्र जैन
मध्य प्रदेश के इन्दौर शहर से समाचार है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विशाल पथ संचलन और सम्मिलन की अगुआई एक जैन मुनि ने की और उसके बाद एक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए संघ की प्रशंसा की और उनके गणवेश से चमड़े के बैल्ट और जूतों को बदलने का आवाहन किया। बाद में संघ के पदाधिकारियों ने उनके आग्रह को स्वीकार कर लिया और अपने गणवेश में से चमड़े का सामान हटाकर रेक्जीन के बैल्ट और कैनवास के जूतों को अपने गणवेश में सम्मलित कर लिया है। जैन संतों का यह आवाहन और संघ का सौदा धार्मिक जगत और आम जनता के बीच भ्रम पैदा करते हैं। भौतिक वस्तुओं को त्याग कर कठोर जीवन जीने वाले जैन संतों के प्रति समाज में अतिरिक्त सम्मान रहा है और उनकी बातों को निजी स्वार्थों से मुक्त माने जाने के कारण बहुत ध्यान से सुना जाता रहा है। पिछले कुछ वर्षों में तो अनेक सुशिक्षित और प्रवचन कुशल युवकों ने भी जैन दीक्षा ली है व वे अपनी बात तर्कों और आधुनिक प्रतीकों के माध्यम से कह कर बड़े गैर जैन समुदाय को भी प्रभावित करने लगे हैं। पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उनके द्वारा प्रायोजित राजनीतिक दल को जो लोग भी जानते हैं उनके मन में उपरोक्त घटना से श्रद्धा का ह्रास ही हुआ होगा।
अपनी बात को बहुत पैने तरीके से कहने वाले ओशो रजनीश ने एक बार कहा था कि महावीर के किसी भी वचन में यह नहीं कहा गया है कि मांसाहार मत करो, क्योंकि उन्होंने उससे भी बड़ा अहिंसा का सन्देश दिया है। जब कोई व्यक्ति अहिंसा धर्म का पालन करेगा तो यह सम्भव ही नहीं है कि आहार में उसकी प्राथमिकता मांसाहार हो। पर जहाँ अहिंसा धर्म का पालन करने से व्यक्ति मांसाहार के प्रति विरक्त तो हो सकता है किंतु मांसाहार न करने से उसका अहिंसा धर्म के प्रति रुझान का होना अनिवार्य नहीं है। एडोल्फ हिटलर न केवल शाकाहारी था अपितु धूम्रपान और मदिरापान भी नहीं करता था। उसी हिटलर ने निर्दयता पूर्वक लाखों लोगों को गैस चेम्बर में निर्दयतापूर्वक मार डाला था। क्या हिटलर के मात्र शाकाहारी होने के कारण उसको श्रद्धा की दृष्टि से देखा जा सकता है?
ऐसा लगता है कि उपरोक्त घटना से जुड़े जैन संत बहुत भोले हैं और अनजाने में ही वे गलत अपेक्षा के शिकार हो गये हैं। उनके इस कदम से संघ जैसे संगठन की करतूतों को एक मुखौटा लगाने का मौका मिल गया है जो चिंतनीय है। चमड़े से बनी अधिकांश सामग्री स्वाभाविक रूप से मृत या मांसाहार के लिए मारे गये जानवरों के चमड़े से बनती है, न कि सामग्री बनाने के लिए जानवरों को मारा जाता है। मृत जानवरों के अवशेषों का यह स्तेमाल पिछले हजारों वर्षों से पूरी दुनिया में हो रहा है। अहिंसा धर्म की किसी भी भावना से ऐसी सामग्री का स्तेमाल गलत नहीं है। चमड़े की वस्तुओं के प्रयोग न करने का आवाहन भी पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध से अधिक पुराना नहीं है। प्लास्टिक और केनवास के जूते आने से पहले सभी के द्वारा चमड़े के जूतों का ही प्रयोग होता रहा था। रोचक यह है कि जो लोग हर बात में पीछे की ओर देखते हैं वे ही इस तरह के चुनिन्दा मामलों में आधुनिक वस्तुओं के समर्थक होने में देर नहीं लगाते। भारतीय दर्शन में जो देह और आत्मा की कल्पना है उसके अनुसार भी देह मिट्टी है, भौतिक है, नश्वर है, किंतु आत्मा अमर है। इसी विश्वास के अनुसार मृत देह तो दूसरे किसी भी प्राकृतिक पदार्थ की तरह हो जाती है। तब फिर इसके नष्ट हो जाने वाले किसी भी अवयव का प्रयोग हिंसा कैसे हो सकता है। यदि ऐसा ही मानने लगें तो मोतियों की माला, सीप के आभूषण और हाथी दांत से बनी सजावटी वस्तुएं ही नहीं जैन मुनियों के द्वारा प्रयुक्त की जानी वाली मोर पखों की पिछी भी उसी श्रेणी में आ जायेगी। मिष्ठान्नों पर चढाये जाने वाले सोने और चाँदी के बरकों को भी जानवरों की आंतों में रख कर ही कूटा जाता है। शक्कर को साफ करने के लिए भी जानवरों की हड्डियों के चूरे का प्रयोग किया जाता है। बाजार में बिकने वाली आइसक्रीम में भी हड्डियों के चूरे का प्रयोग होता है, रसायन रंगी -सीटीसी- चाय को तो शाकाहारी समाज एक बार छोड़ने के बाद फिर से अपना चुका है,... और यह सूची बहुत लम्बी हो सकती है।
यदि इसी परिभाषा से अहिंसा को परिभाषित किया जायेगा तो न तो नेत्रदान जैसा महादान सम्भव हो पायेगा और न ही जीवन बचाने के लिए दूसरे अंगों का प्रत्यारोपण ही सम्भव हो पायेगा। उल्लेखनीय है कि अनेक जैन संस्थाएं बड़े बड़े नेत्र चिकित्सालय संचालित करती हैं और नेत्रदान को प्रोत्साहित करती हैं। बड़ी बीमारियों में दूसरों से रक्त लिया जाता है और रक्तदान करने वाले किसी भी अनजान व्यक्ति के लिए रक्तदान करते रहते हैं। क्या इस मानव सेवा को हिंसा अहिंसा की गलत परिभाषा के आधार पर रोक दिया जाना चाहिए।
बिडम्बनापूर्ण यह है कि कथित जैन संतों ने जिस संगठन को चमड़े के जूते और बेल्ट न पहिनने का सन्देश दिया था और जिसने अपना चेहरा उजला बनाने के लिए इसे जोर शोर से स्वीकार कर लिया, उसके बारे में क्या वे बिल्कुल भी नहीं जानते रहे थे या जानबूझकर अनजान बने रहे। यह ऐसा ही है जिसे कि किसी कसाई से छान कर पानी पीने के लिए वे कहें और उसके स्वीकार कर लेने पर ताली बजा कर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उसे समृद्धि का आशीर्वाद दें। संघ परिवार का आदर्श ही हिटलर और मुसोलिनी रहे हैं जो अपनी घृणा, हिंसा और प्रतिहिंसा के लिए कुख्यात हैं। प्रतिहिंसा में भी केवल दोषियों से बदला लेने या हमलावरों से संघर्ष तक ही मामला सीमित नहीं रहता अपितु दूसरे सम्प्रदाय के किसी भी व्यक्ति को मारकर बदला लिया जाता है, भले ही उसका घटना से दूर का भी सम्बन्ध न रहा हो। पिछले वर्षों में गुजरात के गोधरा में कुछ अज्ञात लोगों द्वारा साबरमती एक्सप्रैस की बोगी संख्या 6 में लगायी गयी आग और उसमें दो कार सेवकों समेत 59 नागरिकों के मारे जाने के बाद जिस क्रूरता के साथ निर्धन और निर्दोष 3000 मुसलमानों की हत्याएं की गयी थीं वह हिटलर के कृत्य का दुहराव था। इस कृत्य के कारण अमेरिका और इंगलेंड जैसे प्रमुख देशों ने गुजरात के मुख्यमंत्री को अपने देश में प्रवेश के लिए वीजा देने से मना कर दिया था। क्या जैन संतों को गुजरात के बनावटी एनकाउंटरों और इन्दौर के समीप उज्जैन में प्रोफेसर सब्बरवाल की हत्या का भी पता नहीं है। यदि उक्त परिवार के लोग इन घटनाओं से जुड़े नहीं थे तो उन्होंने इन घटनाओं की निन्दा क्यों नहीं की और असली दोषी को पकड़ने के लिए बयान तक देने की जरूरत क्यों नहीं समझी? क्या मानव हिंसा से बड़ी भी कोई दूसरी हिंसा हो सकती है? कुष्ट रोगियों की सेवा करने वाले आस्ट्रेलियाई पादरी फादर स्टेंस को धर्म परिवर्तन की आशंका के नाम पर दो मासूम बच्चों समेत जिन्दा जलाने वालों को जूता और बेल्ट बदलने के आधार पर क्या किसी जैन संत का चरित्र प्रमाणपत्र दिया जा सकता है? ये भोले भाले जैन संत किसी संस्था के खून के धब्बे धोने की जगह उन्हें जैन दर्शन का अनेकांत क्यों नहीं पढाते जो ‘ही’ की कट्टरता को ‘भी’ की उदारता सिखाता है। संतों का काम स्वयं अध्ययन करते रहना और दूसरों को सिखाते रहना है। समाज से सम्बन्धित उपदेश देने के लिए समाज की सच्चाइयों से परिचित होते रहना भी जरूरी होता है। सामाजिक संस्थाओं को प्रमाणपत्र देने से पहले उनके बारे में विस्तार से जान लेना भी बहुत जरूरी होता है, अन्यथा धर्म प्रचार के लिए दीक्षा लिए हुए संत अपने पथ से विमुख हो जायेंगे। संघ परिवार को उनकी कदमताल से आगे भी देखना परखना जरूरी है।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

रविवार, अक्तूबर 31, 2010

अरुन्धति और सटोरिया देशभक्ति

अरुन्धति, और सटोरिया देशभक्ति
वीरेन्द्र जैन
कश्मीर समस्या पर अरुन्धति के बेबाक बयान ने देश में तहलका मचा दिया है। उन्होंने वह कह दिया है जिसे रेत में गरदन छुपाये हुए कोई शुतुरमुर्ग सुनना नहीं चाहता। ‘नब्रूयात सत्यम अप्रियम” को मानने वाले वर्ग को अप्रिय सत्य सुनने को मजबूर कर दिया गया है। “ए बुल इन द चाइना शाप” की तरह अरुन्धति के अप्रिय वचन भ्रष्टाचार के क्षीरसागर में डूबे हुए लोगों को खतरे की घंटी की तरह लग रहे हैं। उन्होंने जो कहना चाहा उसे निर्भयता से कहा। कहने के बाद यह नहीं कहा कि उनके बयानों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है या उनका आशय यह नहीं था। उन्होंने जो कहा वह स्वयं कहा किसी छद्म नाम से नहीं कहा या अपने किसी मित्र, परिचित, रिश्तेदार के नाम से नहीं कहा। किसी साध्वी का भेष बना बम विस्फोट कराने के बाद उससे इंकार करने की तरह नहीं कहा। अगर उनका कथन गैरकानूनी है तो उसके लिए वे कानून द्वारा निर्धारित सजा को भोगने के लिए तैयार हैं। कहीं न कहीं सत्ता और व्यवस्था से जुड़े लोगों को उनका बयान बेचैन कर गया है पर वे उसका जबाब नहीं दे पा रहे अपितु अरुन्धति पर मुकदमा चलाने, फाँसी देने, देश निकाला देने आदि के फतवे जारी कर रहे हैं। सत्तारूढ कांग्रेस ने प्रारम्भ में बयान का अध्य्यन करने, मुकदमा चलाने, के बाद कहा है कि सरकार अरुन्धति पर मुकदमा चला कर उन्हें अनावश्यक प्रचार नहीं देना चाहती इससे अलगाववादियों को ही मौका मिलेगा। अर्थात उनके कहे को अनकहा मान लिया जाये। असल में कश्मीर की मूल समस्या यही है कि देश के कर्णधार कश्मीर पर चर्चा से बचना चाहते हैं। इस बात पर बिना विचार किये हुये कि अरुन्धति ने सही कहा या गलत कहा, उन्हें किस जगह, किन लोगों के साथ क्या कहना चाहिए था या क्या नहीं कहना चाहिए था, उनको इस बात के लिए साधुवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने गत साठ सालों से लगातार दरी के नीचे दबा कर रख दिये जाने वाले मुद्दे को बीच आंगन में लाकर खड़ा कर दिया है। भीष्म साहनी की सुप्रसिद्ध कहानी चीफ की दावत में जब एक कर्मचारी के यहाँ बड़े साहब को खाना खाने के लिए आमंत्रित किया जाता है तो चापलूसी में उनके सामने घर की सारी सुन्दर और अच्छी चीजें ही सामने लाने की कोशिश की जाती है और इस कोशिश में बूढी, कमजोर और बीमार माँ को एक कोठरी में कैद कर दिया जाता है ताकि चीफ के सामने कुछ भी असुन्दर न आये। आज अरुन्धति ने उस माँ को कोठरी से निकाल कर ड्राइंग रूम में ठीक उस समय खड़ा कर दिया है जब देश की सरकार के सबसे खास मेहमान आने वाले थे।
यह मुसीबत केवल सरकार के सामने ही नहीं है अपितु देश के प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के सामने उस से भी बड़ी समस्या खड़ी हो गयी है। उसका अस्तित्व तो देशभक्ति के नकाब में ढका छुपा रहकर ही सुरक्षित रहता है। उसकी देशभक्ति तो उन सटोरियों के धन्धे वाली देशभक्ति है, जिसके आधार पर वे देश की टीम को जिताने का माहौल बनवाकर सट्टा लगवा देते हैं पर जब सट्टे में अच्छी बुकिंग हो जाती है तो उसे हरवाने के लिए खिलाड़ियों को फिक्स कर लिया जाता है। अधिकतम लाभ इसी में निहित होता है। भाजपा देश की कीमत पर भी सत्ता की राजनीति करती रहती है। देशभक्ति की राजनीति से चुनाव जीतकर वे क्या करते हैं यह अब किसी से छुपा नहीं है। वे जानते हैं कि इस विषय में सच क्या है, किंतु संवाद को दबाना और केन्द्र सरकार को समस्या के लिए गरियाना उनकी चुनावी रणनीति है। ये वही लोग हैं जो इमरजैंसी में छुपते फिरे थे और जो पकड़े गये थे वे बाद में माफी माँग कर जेल से बाहर आये थे। इतना ही नहीं जब उनकी सरकार आयी तो उस जेल यात्रा के लिए उन्होंने जिन्दगी भर के लिए पेंशन की व्यवस्था कर ली। पर अब वे स्वतंत्र और निर्भीक आवाज के साथ संवाद न करके उसे दबाना चाहते हैं।
डा. हरिवंश राय बच्चन ने एक साक्षात्कार में कहा था कि मैं आजाद को भी इतनी आजादी देना चाहूंगा कि वो अगर चाहे तो गुलामी स्वीकार कर सके। लोकतंत्र और स्वतंत्रता इस सीमा तक होनी चाहिए। किंतु भाजपा का चरित्र अपने आप में फासिस्ट है और उसी के अनुसार उसकी भाषा और आचरण भी फासिस्ट हैं। इनके अनुषांगिक संगठन विचारों से असहमत होने पर पुस्तकें जलाते हैं, कलाकृतियां जलाते हैं, फिल्में नहीं बनने देते बन जाएं तो चलने नहीं देते, प्रेम को प्रतिबन्धित करना चाहते हैं और वेलंटाइन डे पर हिंसक हमले करते हैं। वे समाज में ड्रेस कोड लागू करवाने की कोशिश करते हैं। ये ही किसी साम्राज्यवादी की तरह किसी भी आजादी के विचार पर फासिस्ट भाषा में विषवमन करने लगते हैं।
कश्मीर की आजादी का सवाल एक विवेकहीन भावुक विचार है जो सैन्य संगठनों के कठोर नियंत्रण में लम्बे समय तक रहने के कारण मजबूत हुआ है। अपने भौगोलिक, राजनीतिक और अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के पेंच में कश्मीर स्वतंत्र राज्य नहीं रह सकता। उसे हिन्दुस्तान या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ रहना ही होगा। कश्मीर का कुल क्षेत्रफल कुल जम्मू-कश्मीर राज्य का 15% है और भारत के नियंत्रण वाले भाग का कुल 7% है। आजादी की माँग करने वाला यह हिस्सा कुल 4500 वर्गकिलोमीटर होगी अर्थात भूटान के दसवें हिस्से के बराबर। इसकी सीमा किसी समुद्र किनारे से नहीं लगती और वेटिकन सिटी व लक्समवर्ग व एकाध अन्य को छोड़ कर दूसरा कोई ऐसा स्वतंत्र राष्ट्र अस्तित्व नहीं बनाये रख सका। तय है कि इसे पाकिस्तान हड़पने की कोशिश करेगा जिसे या तो उन्हें स्वीकारना पड़ेगा या और कठिन संघर्ष करना पड़ेगा। आजाद होने की दशा में यह तीन तरफ से पाकिस्तान, चीन और भारत से घिरा होगा। पाकिस्तान के हालात देखते हुए कश्मीर का पाकिस्तान के साथ होना हिन्दुस्तान के साथ होने से किसी भी स्तर पर बेहतर नहीं कहा जा सकता। भारत में पाकिस्तान समेत दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा मुसलमान हैं और अपने मजहबी मामलों में अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र हैं। भारत की अर्थव्यवस्था पाकिस्तान की तुलना में अधिक मजबूत और आत्मनिर्भर है तथा भारत में एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है। किसी विदेशी हमले या विद्रोह की स्तिथि में, उसका मुकाबला करने में सक्षम सैन्यशक्ति उसके पास है। पाकिस्तान के नियंत्रण वाले आजाद कश्मीर की तुलना में हिन्दुस्तान के साथ वाला कश्मीर अधिक स्वतंत्र है। आवश्यकता है कि कश्मीर में विदेशी घुसपैठियों को रोका जाये, अलगाववादियों पर कठोर कार्यवाही की जाये और सही प्रतिनिधित्व को राज्य की सत्ता सौंपी जाये। इसके लिए संवाद कायम किया जाना और उसे निरंतर बनाये रखना बेहद जरूरी है। यह चाहे जैसे भी हो। अरुन्धति वह पहली गैर कश्मीरी भारतीय महिला हैं जिन्होंने उनकी आवाज के साथ आवाज मिलायी है। जिनकी आवाज को पर मनन करने के लिए असहमति के बाद भी सुना जाना चाहिए और उन्हें आगे सम्वाद के लिए माध्यम बनाना चाहिए। सत्ता के सटोरियों द्वारा पैदा की गयी अंध राष्ट्रभक्ति अरुन्धति को फाँसी देने की माँग कर रही है वह वैसी ही भावुक और बचकानी है, जैसी कि कश्मीर की आजादी की हवाई माँग है।
संवाद के साथ साथ उन बाधाओं को दूर किया जाना चाहिए जिन के कारण अपना भला बुरा सोचने की कश्मीरी दृष्टि धुंधलाई हुयी है। अरुन्धति ने देश और कश्मीर दोनों ही जगह संवाद की सम्भावनाएं पैदा की हैं।



वीरेन्द्र जैन
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शनिवार, अक्तूबर 30, 2010

क्या भगवा आतंकवाद भी आस्था का मामला है?


क्या भगवा आतंकवाद भी आस्था का मामला है
वीरेन्द्र जैन

अयोध्या के राम जन्मभूमि मन्दिर – बाबरी मस्जिद मालिकाना विवाद का फैसला आने से पहले जब संघ परिवार के लोगों को लग रहा था कि न्यायिक सम्भावनाओं के अनुसार उनके पक्ष के लोग मुकदमा हार जायेंगे तब उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया था कि आस्था के सवालों को अदालत में हल नहीं किया जा सकता। यह वे तब कह रहे थे जब लगातार साठ सालों से मुकदमा चल रहा था और उनके पक्ष के लोग भी अदालत की कार्यवाही में भाग ले रहे थे। इतना ही नहीं मस्जिद को तोड़े जाने के बाद आडवाणी ने कहा था कि फैसले में होने वाली देरी से नाराज होने के कारण लोगों ने उस विवादित ढांचे के मस्जिदनुमा स्वरूप को तोड़ दिया जिसे वे मन्दिर मानते थे और जिसमें 1949 से रामलला की मूर्ति विराजमान थी। यही लोग उस विवादित स्थल के दो तिहाई भाग को मिल जाने पर अदालत के फैसले को स्वीकार करके खुशी व्यक्त कर रहे थे। कुछ दिनों बाद जब दूसरे पक्ष द्वारा सुप्रीम कोर्ट जाने का निर्णय किया गया तो वे फिर आस्थावानों को उकसाने वाले बयानों पर उतरने के लिए साधु संतों को आगे कर दिया। चित भी मेरी, पट भी मेरी, अंटा मेरे बाप का।
पद पर आने के लिए संविधान की शपथ लेने वाले इस दक्षिणपंथी दल को लोकतंत्र के स्तम्भों पर कितना भरोसा है यह उसके बयानों से पता चलता है। जब देश में आतंकवादी घटनाएं घटती थीं तब त्वरित और सबसे पहले होने की दौड़ में मीडिया खबरों की जगह अनुमानों के आधार पर जिम्मेवारी डाल देता था जिसके अनुसार प्रत्येक आतंकी घटनाओं के लिए मुस्लिम आतंकियों का हाथ बता दिये जाने से संघ परिवार के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कार्यक्रम को बल मिलता था। जाँच एजेंसियों के काम की गोपनीयता के कारण आम जन को भी वे लगभग उसी बहुप्रचारित दिशा में कार्य करती हुयी महसूस होती थीं। किंतु मालेगाँव, मडगाँव, कानपुर आदि में समयपूर्व या अपने निर्माण स्थल में ही फट गये बमों के कारण जो सच सामने आया उसने कहानी ही बदल दी। वहाँ न केवल गैर मुस्लिम आतंकी ही दुर्घटना के मृतकों में थे अपितु उनके निवास से मुस्लिम पहनावे के वस्त्र और् नकली दाढियाँ भी बरामद हुयीं। जाँच के दौरान जो लोग चिन्हित हुये उनसे पूछ्ताछ के आधार पर प्राप्त सबूतों से जो लोग सन्देह के घेरे में आये वे संघ परिवार से जुड़े हुये लोग थे। आजकल मोबाइल की काल डिटेल से अपराधियों के सम्पर्कों और घटनाओं के समय उनकी उपस्तिथि के स्थलों की पुष्टि आसान हो जाती है। इस तरह के मामलों में जाँच एजेंसियां बहुत सावधानी पूर्वक काम करती हैं और पर्याप्त प्रमाण मिलने से पूर्व संदिग्ध की निगरानी करती हैं।
आतंकी घटनाओं का उद्देश्य केवल अपने शत्रु की हत्या करना नहीं होता अपितु अनेक बार वे समाज में उपस्थित साम्प्रदायिक विद्वेष को साम्प्रदायिक दंगों में बदलने के लिए की जाती हैं। साम्प्रदायिक दल अफवाहों के द्वारा लोगों को भड़काते हैं। आतंकी कार्यवाहियां करने वाले कई बार अपने ही समुदाय के लोगों को उकसाने के लिए अपने ही धार्मिक समारोहों की भीड़ के बीच ही बम विस्फोट करके उन्हें उत्तेजित करने की कोशिश करते हैं। मडगाँव में साइकिल पर रख कर बम ले जाने वाले हिन्दू आतंकी अपने ही समुदाय के धार्मिक आयोजन के बीच बम विस्फोट कराने के लिए ले जा रहे थे जो बीच में ही फट गया। समाज में पूर्व से ही फैलायी गयी साम्प्रदायिकता आतंकी घटनाओं के लक्ष्य के लिए आधार भूमि का काम करती है किंतु जब समाज में समझदारी होती है तो लोग आतंकियों का आशय समझ कर अपने प्रतिद्वन्दी वर्ग के प्रति उत्तेजित नहीं होते। पिछले वर्षों में मुम्बई लोकल ट्रेन बम विस्फोट, दिल्ली सदर बाजार में दीवाली के अवसर पर हुआ विस्फोट, वाराणसी में एक मन्दिर समेत अनेक स्थलों पर किये गये बम विस्फोटों के बाद भी लोगों का शांत बने रहना साम्प्रदायिकता के निष्प्रभावी होने की सूचना है। जब अजमेर की दरगाह में हुए विस्फोटों की जाँच में मिले सबूतों के आधार पर खोजबीन की गयी तो उसमें संघ के कार्यकर्ताओं के सम्मलित होने के साफ संकेत मिले। पर अब आरएसएस और संघ परिवार का राजनीतिक मुखौटा भाजपा के लोग इन सन्दिग्धों के बचाव में अनाप शनाप बयान देने में लग गये हैं जिनमें से यह भी एक है कि यह उन्हें बदनाम करने की कोशिश है। स्मरणीय है कि समय समय पर संघ और भाजपा यह कहने से नहीं चूकते कि दोनों अलग संगठन हैं और संघ एक सांस्कृतिक संगठन है तथा उसका भाजपा के दैनिन्दिन कार्यों से कुछ भी लेना देना नहीं है। यदि यह सच है तो कोई राजनीतिक बदले के लिए संघ के पदाधिकारी को क्यों फँसाने की कोशिश करेगा। हमारे यहाँ एक स्वतंत्र न्यायपालिका है और यदि कोई जाँच एजेंसी अदालत के सामने पर्याप्त सबूत नहीं प्रस्तुत कर पाती तो वह आरोपी को ससम्मान बरी कर देती है और आवश्यकता होने पर जाँच एजेंसियों के खिलाफ भी टिप्पणी करती है। जिस आतंकवाद के विरोध में संघपरिवार सबसे अधिक मुखर है और जब पर्याप्त प्रमाणों के आधार पर सन्दिग्धों से पूछ्ताछ की जाती है तो वे जाँच एजेंसी के खिलाफ तरह तरह के आरोप लगा कर उसका मनोबल गिरा रहे हैं। यही काम उन्होंने करकरे के खिलाफ भी किया था जिनकी 26\11\2008 को मुम्बई में किये गये हमलों के दौरान मृत्यु हो गयी थी। असल में संघ परिवार का जो दोहरा चरित्र है वही उन्हें परेशानी में डालता है। यह कतई जरूरी नहीं है कि भाजपा और संघ सिद्धांत रूप से उन आतंकी गतिविधियों में सम्मलित हों किंतु वे जिन कुतर्कों और इतिहास की गलत व्याख्या के आधार पर अपने कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करते हैं उससे किसी अतिउत्साही कार्यकर्ता के हिंसक आन्दोलन में कूद पड़ने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। जरूरी होता है कि कार्यकर्ताओं की गतिविधियों और कार्यप्रणाली पर निगाह रखी जाये और उसके सिद्धांतों से विचलित होने की दशा में उसके निष्कासन की कार्यवाही की जाये। यदि उच्च पदाधिकारियों को उसकी गतिविधियों का संज्ञान बाद में होता है तो यह काम एक क्षमा के साथ बाद में भी किया जा सकता है। किंतु संघ परिवार का इतिहास यह रहा है कि वे कभी भी अपनी गलतियों के लिए क्षमा नहीं माँगते तथा दुनिया की आँखों देखी सच्चाई को भी ढीठ बयानों से झुठलाने की कोशिश करते हैं। महात्मा गाँधी की हत्या से लेकर बाबरी मस्जिद तोड़ने और गुजरात में निर्दोष मुसलमानों का नरसंहार करने तक उन्होंने कभी भी भूल नहीं स्वीकारी। झूठ का सहारा भले ही कभी तात्कालिक लाभ दिला दे, किंतु सार्वजनिक जीवन में वह व्यक्ति को अन्दर से कमजोर करता है। इसी कमजोरी को ढकने के लिए वह कठोरता अपनाते अपनाते हिंसक हो जाता है। ये लोग दलबदल करने, करवाने, संसद में सवाल पूछने के लिए पैसे लेने, सांसदनिधि बेचने, सदन न चलने देने से लेकर अनियंत्रित भ्रष्टाचार के द्वारा विधायिका को तो पर्याप्त नुकसान पहुँचाते ही रहे हैं, अब कार्यपालिका को काम न करने देने और न्यायपालिका के आदेशों को आस्था के नाम पर नकारने की बात करके पूरे तंत्र को नष्ट करने की सतत कोशिश कर रहे हैं।
सवाल उठता है कि इनका यह काम नक्सलवादियों, अलगाववादियों और आतंकवादियों से किस तरह भिन्न है? क्या भगवा आतंकवाद भी इनकी आस्था का सवाल है जिस पर अदालत विचार नहीं कर सकती।

वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, अक्तूबर 22, 2010

फैसला नहीं जनहित में एक समाधान

फैसला नहीं किंतु जनहित में एक समाधान वीरेन्द्र जैन
एक सम्पन्न सेठ एक बार यात्रा पर जाने के लिए प्रातः जब घर से निकले तो उनके रात्रि कालीन चौकीदार ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया कि वे जिस हवाई जहाज से यात्रा करने वाले हैं उससे न जायें क्योंकि उसने रात्रि में सपने में देखा कि उस हवाई जहाज का एक्सीडेंट हो गया है। वैसे तो सेठजी इन बातों को दकियानूसी मानते थे पर कुछ सोच कर उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी। संयोग से उस दिन वह् जहाज सचमुच दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उसमें सवार सभी यात्री मारे गये। उसके कुछ दिन बाद वे जब एक ट्रेन से जाने वाले थे तो उसी रात्रि कालीन चौकीदार ने एक बार फिर हाथ जोड़ते हुये बताया कि उसने सपने में देखा कि उस ट्रेन का एक्सीडेंट हो गया है इसलिए कृपया उस ट्रेन से न जायें। सेठजी ने यात्रा स्थगित कर दी और एक बार फिर ऐसा संयोग हुआ कि उस ट्रेन का एक्सीडेंट हो गया और एक बार फिर सेठजी की जान बच गयी। सेठजी ने उस चौकीदार को बुलाया और उसे पाँच लाख रुपयों की राशि इनाम में देते हुए बोले कि तुमने हमारी जान बचायी है इसके लिए यह मामूली सी राशि दे रहा हूं और इसी के साथ तुम्हें नौकरी से निकाल रहा हूं। खुशी और दुख एक साथ झेलते हुए जब उसने सेठजी से कारण जानना चाहा तो वे बोले कि तुमने हमारी जान बचायी उसके लिए यह चेक है, किंतु हमने तुम्हें रात की चौकीदारी के लिए रखा है न कि सोने और सपने देखने के लिए। तुमने हमारी जान बचाने के लिए जो कुछ किया वह पुरस्कार के योग्य है किंतु अपनी ड़्यूटी ठीक तरह नहीं निभाने के कारण तुम्हें नौकरी से मुक्ति देना भी जरूरी है।
ठीक इसी तरह रामजन्म भूमि मन्दिर और बाबरी मस्जिद भवन भूमि विवाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिये गये फैसले ने हमारी जान बचा दी है भले ही उसे मुकदमे के इतिहास और उसकी संवेदनशीलता को देखते हुए जनहित में न्याय की जगह समाधान माना जा रहा हो।
इस फैसले ने देश को एक नये मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। विवादित भूमि- भवन का यह बँटवारा यदि समाज में शांति बनाये रखने व हिंसक साम्प्रदायिकों से लोगों की जान माल की रक्षा के पवित्र लक्ष्य को ध्यान में रख कर किया गया है, जैसा कि विभिन्न न्यायविदों द्वारा समझा जा रहा है, तो ये हमारी व्यवस्था पर गम्भीरतापूर्वक विचार का विषय है। इस फैसले का स्पष्ट संकेत है कि न्यायपालिका हमारे समाज और शासन-प्रशासन को इतना सक्षम नहीं मानती जो संवैधानिक न्याय का शांतिपूर्वक परिपालन करा सके। इसलिए उसने अपनी ओर से सरकारों की क्षमता के अनुरूप ऐसा फैसला देने का प्रयास किया है जो सीधे सीधे किसी को भी आहत न महसूस होने दे और अपने स्वार्थ में साम्प्रदायिक शक्तियां इसका अनुचित लाभ न उठा सकें। उन्हें आभास रहा होगा कि इतने लम्बे चले विवाद में राजनीतिज्ञों के पड़ जाने से वे किसी भी पक्ष को न तो फैसला स्वीकार करने देंगे और न ही समझौता करने देंगे। अंततः इसका अंतिम फैसला सुप्रीम कोर्ट से होना होगा तथा समाज में शांति चाहने वाले लोग यही चाहेंगे कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी तब तक चले, जब तक कि समाज इतना परिपक्व न हो जाये कि न्यायपालिका के अंतिम फैसले को विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर ले।
कानून और व्यवस्था राज्य सरकारों की जिम्मेवारी होती है और भिन्न भिन्न राज्यों में भिन्न भिन्न राजनीतिक दलों या गठबन्धनों की सरकारें हैं। इनमें से कुछ राजनीतिक दल ऐसे भी हैं जो अपनी सांगठनिक क्षमता की दम पर साम्प्रदायिक हिंसा से लाभ उठाते रहे हैं व गैर राजनीतिक आधार पर अपना विस्तार करते रहे हैं। इस सण्भवना से इंकार नहीं किया जा सकता कि ऐसे राजनीतिक दल और संगठन उसे एक चुनावी लाभ के अवसर की तरह लें। ऐसा सोच इसलिए भी सम्भव है कि पिछले कुछ वर्षों में कुछ राज्य सरकारों ने अपने चुनावी लाभ के लिए राजधर्म का पालन नहीं किया था। इसी विवादित स्थल को अदालत के फैसले के पूर्व ही ढोल धमाकों के साथ ध्वस्त कर दिया था और राष्ट्रीय एकता परिषद में उसकी रक्षा का वादा करने के बाद भी तत्कालीन सत्तारूढ मुख्यमंत्री आज अपने उस कृत्य पर गर्व करते घूम रहे हैं। इस घटना के लिए षड़यंत्र रचने वालों की जाँच को ही सम्भवतः देश में शांति बनाये रखने के लिए अठारह साल तक खींचा गया था और आज तक उसकी अंतिम रिपोर्ट अपनी परिणति की प्रतीक्षा कर रही है। गुजरात में साबरमती एक्सप्रैस की बोगी नम्बर 6 में लगी आग के बाद पूरे प्रदेश में सरकारी इशारे पर निर्दोष और कमजोर मुसलमानों का नर संहार किया गया था व उसके अपराधियों को आठ साल बाद कोई सजा नहीं मिल सकी है, सारे अपराधी सोचे समझे कमजोर अभियोजन और गवाहों पर पड़े दबावों के कारण छूट गये हैं। बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद आहत मुस्लिम संगठनों ने पूरे मुम्बई में जगह जगह बम विस्फोट करके सैकड़ों निर्दोष नागरिकों को मौत के मुँह में धकेल दिया था जिन में से कई को फाँसी की सजा घोषित हुयी है, किंतु जिस जिस घटना की प्रतिक्रिया में बम विस्फोट हुये उसके अपराधी अभी भी बड़े बड़े संवैधानिक पदों को भोगते हुये आराम से हैं व और बड़े सपने देख रहे हैं। जब तक सुप्रीम कोर्ट का फैसला आये तब तक का समय यह अवसर देता है कि इस बीच समाज एक ऐसा सशक्त धर्मनिरपेक्ष संगठन तैयार कर ले जो अदालत के फैसले को लागू करवाने लायक व्यवस्था बना सकने में प्रशासन का सहयोगी हो और इतना सक्षम हो कि साम्प्रदायिक सद्भाव को तोड़ने वाली किसी भी रंग की शक्तियों से मुकाबले के लिए तैयार हो।

साम्प्रदायिक ताकतों का दुस्साहस धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के अभाव में ही उफान लेता है और अपने पक्ष की सरकार में ही हिंसा फैलाता है। जहाँ जहाँ धर्मनिरपेक्ष शक्तियाँ सक्रिय होती हैं वहाँ साम्प्रदायिकता कोने में दुबक जाती है। यह चिन्ता का विषय है कि उत्तर पश्चिम भारत में अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए समाज को तोड़ने वाली शक्तियाँ अधिक संगठित और साधन सम्पन्न हैं जिसका दुष्प्रभाव न्यायिक फैसलों तक पहुँचता है। इस फैसले का एक खतरा यह भी हो सकता है कि साम्प्रदायिक शक्तियों की विध्वंसक क्षमता अपने अनुसार फैसला करवाने के लिए अपनी हिंसक मनोवृत्ति को और अधिक धार देने लगे। विनय कटियार और महंत अवैद्यनाथ जैसे लोगों ने संकेत देने शुरू कर दिये हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023 मो. 9425674629

मंगलवार, अक्तूबर 19, 2010

jhaankiyaan- Trade of recreation and polatical instruments झांकियां- मनोरंजन का व्यापार और राजनीतिक औजार्

झांकियाँ- मनोरंजन का व्यापार और राजनीतिक औजार
वीरेन्द्र जैन
पूरा मध्य और पश्चिम-मध्य भारत सांस्कृतिक अतिक्रमण का शिकार हो गया है। यह अतिक्रमण न केवल पश्चिमी संस्कृति की ओर से हुआ है अपितु देश के दूसरों क्षेत्रों की संस्कृति का भी हुआ है। उनकी अपनी राम लीलाएं, रासलीलाएं, और भागवत कथा आदि की परम्पराएं हाशिये पर धकेल दी गयी हैं और गणेश, दुर्गा की झांकियों व गरबा नृत्य के आयोजनों के द्वारा महाराष्ट्र, बंगाल और गुजरात की संस्कृति केन्द्र में आ गयी है।
जातिवादी से विभाजित समाज में मन्दिर प्रवेश से वंचित दलितों पिछड़ों को स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागी बनाने की दृष्टि से तिलक ने सार्वजनिक स्थलों पर गणेश की झांकियां सजाने की परम्परा डलवायी जो पूरे महाराष्ट्र में जहाँ गणेशजी को मुख्य देवता की तरह पूजा जाता है, प्रभावकारी रही और बिना किसी जातिगत भेदभाव के झांकियों में लोग सामूहिक रूप से इकट्ठे होने लगे। इस सामूहिकता ने आजादी के आन्दोलन को बल पहुँचाया। ये झांकियां आजादी के बाद भी पूरे महाराष्ट्र में लगती रहीं। इस विचार का स्तेमाल आजादी के बाद की राजनीति ने अपने तरह से किया। देश के आजाद होते समय जो साम्प्रदायिक दंगे हुये उसने उस समय और उसके बाद भी संगठित धार्मिक समाज की भावना को अपनी सत्ता लोलुपता के लिए भुनाने की कूटनीति को जन्म दिया। आज से 25 वर्ष पूर्व जब एक चुनाव में पराजित राजनीतिक दल द्वारा रामजन्मभूमि मन्दिर के विवाद को उभारा गया तब समाज में धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए वे सारी तरकीबें अपनायी गयीं जिनसे राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता हो। इसमें सामूहिक रूप से महाराष्ट्र और बंगाल की गणेश और दुर्गा की झांकियों की परम्परा को मध्यभारत में आयातित किया गया। वैज्ञानिक चेतना के विकास से विकसित उपकरणों ने समाज को जो सुविधाएं प्रदान कीं उसने पश्चिमीकरण के प्रति तीव्र आकर्षण पैदा करने में मदद की, जिसके परिणाम स्वरूप लोगों की रुचि परम्परागत धार्मिक कर्मकाण्डों से हट रही थी इसके लिए उन्हें इन कर्मकाण्डों के लिए के तमाशों के द्वारा आकर्षित करने की कोशिश की गयी व इनमें मनोरंजन का तत्व जोड़ा गया। झांकियों में बिजली की चकाचौंध, डीजे पर पश्चिमी धुनों पर आधारित उत्तेजक संगीत पर मढे गये भजनों और चालू सांस्कृतिक मनोरंजन का स्तेमाल करके युवाओं और बच्चों को आकर्षित किया गया। झांकी स्थलों पर मेलों ठेलों जैसा चाट पकौड़ी पिज्जा डोसा, झूलों, खिलोनों का बाजार लगाया गया। जैसा कि होता है भीड़ को देख कर भीड़ बढती है सो उसका लाभ भी धर्म की राजनीति करने वालों को मिला। रामजन्मभूमि मन्दिर का अभियान प्रारम्भ होने के साथ साथ झांकियों की संख्या और उनके आकार प्रकार व सजावट में अभूतपूर्व उछाल आया जिसके बहाने जगह जगह बाहुवली युवाओं के संगठन बनने लगे जो न केवल अपने संख्या बल के कारण समुचित चन्दा वसूलने लगे अपितु उन्हें लाभांवित होने वाले नेताओं के इशारों पर जहाँ जरूरी थीं वहाँ गोपनीय ढंग से भरपूर ‘धार्मिक सहयोग’ मिलने लगा। इससे मूर्तियों के आकार में वृद्धि हुयी और पण्डालों की संख्या व उनके बाजारू आकर्षण में विस्तार होता गया। बेरोजगार दलित और पिछड़े युवाओं को न केवल काम ही मिला अपितु खेल खेल में धन जुटाने का अवसर भी मिला। धर्म के नाम पर जुटे इन आयोजनों ने आयोजकों को क्षेत्र के मतदाताओं के बीच प्रतिष्ठित और परिचित होने का ही अवसर नहीं दिया अपितु उनके साथ लगने वाले छुटभैयों को अपने शौक पूरे करने के लिए साधनों का रास्ता खोल दिया। जो झांकी मँहगे बाजारों में सजने लगीं वे उसी के अनुसार आकार में बड़ी होने लगीं और उन्हें तरह तरह की लुभावनी सजावट तथा रौशनी से भर दिया गया। व्यापारियों से चन्दा वसूलना अपेक्षाकृत आसान होता है क्योंकि वे किसी भी तरह से काम का नुकसान नहीं चाहते और बाजार भाव उनके हाथ में होने के कारण वे जितना चन्दा देते हैं उससे कई गुना भाव बढा कर अपने ग्राहकों से वसूल लेते हैं। इन झांकियों के समय न केवल सब्जी और फल वाले ही अपने दाम बढा देते हैं अपितु किराना आदि दूसरे दुकानदार भी दिया गया चन्दा अपने ग्राहकों पर डाल देते हैं। यही कारण है सबसे बड़ी झांकियां नगर के सबसे मँहगे बाजारों में लगती हैं। सौ-सौ, दो-दो सौ मीटर की दूरी पर लगी झांकियां इस बात का संकेत देती हैं कि इन का धर्म और पूजा से कोई मतलब नहीं है अपितु अपनी अपनी दुकान की तरह ही इन्हें स्थापित किया जाता है। स्थानीय पार्षद, विधायक, और मुख्यमंत्री के बैनर लगा के इन्हें राजनीतिक बना दिया जाता है। कई बार इसमें अपने को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले दलों के नेता भी अपने चुनावी सम्पर्कों के विस्तार के लालच में सहयोगी हो जाते हैं, जो यह नहीं जानते कि अंत्तोगत्वा इसका लाभ घोषित रूप से धर्म की राजनीति करने वालों को ही मिलेगा। ये झांकियां मुख्य बाजार की दुकानों की तरह मुख्य मार्गों पर अधिक से अधिक रास्ता रोक कर स्थापित की जाती हैं ताकि सड़क से गुजरने वालों की निगाहों से अलक्षित न रह जाये और अनचाहे भी रस्ता चलने वालों को आयोजकों के बड़े बड़े बैनर देखना पड़ें। मार्ग अवरुद्ध होने की उन्हें कोई चिंता नहीं होती, अपितु वे इसे वास्तविक से अधिक बढी हुयी भीड़ का दृष्य रचने के लिए प्रसन्नता देती हैं। दूर दूर तक लगाये लाउडस्पीकर भी निरंतर चीखते रहते हैं और इस कोलाहल से न होते हुए भी यह भ्रम पैदा किया जाता है कि पण्डाल में बहुत सारे लोग हैं। डीजे और सीडी पर बजा कर निश्चिंत हो जाने की नई परम्परा ने हारमोनियम ढोलक पर होने वाले भजनों और रामायण पाठ को परे धकेल दिया है।
पण्डाल के चारों ओर प्लेक्स के विज्ञापन लगे होते हैं जो आयोजकों को अच्छी कमाई करवाते हैं। प्रतिदिन चढावे में और अंतिम दिन सड़क पर ही किये जाने वाले हवन और भण्डारे में भी काफी राशि एकत्रित हो जाती है। अधिकांश पण्डालों के लिए बिजली का कनेक्शन नहीं लिया जाता और सीधे ही खम्भों पर तार डाल के भरपूर रोशनी की जाती है। तथाकथित धर्म के नाम पर रोकने की हिम्मत किसमें है? अनेक पण्डालों में सुरक्षा के नाम पर रात में बैठे रहने वाले युवक नशा करते हैं और ताश खेलते रहते हैं, ज्यादातर जुआ खेलते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम पर भी फूहड़ कार्यक्रम अधिक होते हैं। बच्चों व महिलाओं को हूजी[तमोला] खिलाया जाकर जुए की उत्तेजना का स्वाद लगाया जाता है। सड़कों पर किया गया यह अतिक्रमण और ध्वनि के कारण किया जा रहा प्रदूषण कई बार विवाद और झगड़े का कारण बनता है। संगठित लोग मुँह मांगा चन्दा न देने वालों को विशेष परेशान करने की कोशिश करते हैं, जिस कारण भी विवाद की सम्भावना सदैव बनी रहती है। कई बार रात्रि जागरण, जो असल में दूसरों को अपने धर्म के लिए न सोने देने के कार्यक्रम हैं, बीमारों, कर्मचारियों और परीक्षा देने जाने वाले छात्रों के सामने गम्भीर संकट खड़ा कर देते हैं। समयाविधि पूरी हो जाने के बाद मूर्तियों को सरोवरों में विसर्जित किया जाता है जिससे अब मूर्तियों को अधिक चमकीला और आकर्षक बनाने के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले तरह तरह के रासायनिक पदार्थों से जल प्रदूषण होता है। विसर्जन से पूर्व उन्हें जलूस की शक्ल में ले जाते हैं जिससे सड़कों पर घंटों जाम लगा रहता है, और प्रतिबन्धित क्षेत्र से निकालने की जिद दंगों की आशंका समेत कानून और व्यवस्था की समस्या उत्पन्न करती है। इसके लिए विशेष सुरक्षा बलों को लगाना पड़ता है। ये सारे आयोजन इस क्षेत्र में अपने परम्परागत सांस्कृतिक आयोजनों के अतिरिक्त होने से समाज पर बोझ द्विगुणित हो गया है जबकि जिन क्षेत्रों से ये आयातित किये गये हैं उन्होंने इस क्षेत्र की संस्कृति को अपने क्षेत्र म,एं स्थान नहीं दिया।
इन झांकियों से लाभांवित होने वाला वर्ग, मूर्ति निर्माता, पण्डाल वाले, प्रसाद विक्रेता, लाउडस्पीकर डीजे वाले, चन्दा उगाहने वाले, पंडाल की देखरेख करने और मूर्ति विसर्जित करनेवाले, छुटभैये नेता,समेत धर्म की राजनीति करने वाले दल व गरबा प्रशिक्षण से लेकर उन्हें आयोजित करने वाले संस्थान आदि होते हैं जबकि छात्रों, कर्मचारियों, घरेलू महिलाओं, बीमारों, सड़क पर चलने वाले आटो रिक्सा वाले, दुकानदारों, ठेकेदारों, ग्राहकों, आदि को उपरोक्त लाभ उठाने वालों की भरपाई करना पड़ती है। जब अपने धर्म निरपेक्ष देश में आस्थाओं की स्वतंत्रता है और लालच व दबाव से धर्मपरिवर्तन का प्रयास तथा ईशनिन्दा अपराध है तब किसी भी धर्म में आस्था न रखने वाले नस्तिकों के विश्वासों की रक्षा के लिए कोई कानून क्यों नहीं है? उन्हें क्यों विभिन्न धार्मिकों के निहित स्वार्थों का शिकार होने को विवश होना पड़ता है।
सड़कों चौराहों पर अतिक्रमण करता और ध्वनि प्रदूषण के द्वारा दूसरों की स्वतंत्रता को बाधित करता तथाकथित धर्म कब अपने मुखौटे उतार कर धर्मस्थलों और आश्रमों मठों की ओर लौटेगा, जिसके खाते में अभी तक समाज का नुकसान अधिक दर्ज हो रहा है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

रविवार, अक्तूबर 17, 2010

धर्म के खोटे सिक्के असली धर्म को बाहर किये हैं


धर्म के खोटे सिक्के असली धर्म को बाहर किये हैं
वीरेन्द्र जैन
पिछले कुछ वर्षों से धर्म के नाम पर धोखा देने और सम्पत्ति हड़पने, महिलाओं का यौन शोषण करने, से लेकर हत्या तक के समाचार लगातार प्रकाश में आ रहे हैं। सामाजिक व्यवस्था से निराश आम आम आदमी धार्मिक संस्थानों और उनके गुरुओं के पास बड़ी उम्मीद लेकर जाता है किंतु जब उसकी उम्मीदें वहाँ भी टूटती हैं तो उसके पास कोई चारा नहीं बचता। प्रत्येक धर्म अपने समय में मनुष्य की गहनतम समस्याओं से मुक्ति दिलाने के लिए अस्तित्व में आया होता है, किंतु उस पर अन्धविश्वास करने वाले उसे उसी काल में रोक कर उसकी जीवंतता को नष्ट कर देते हैं जबकि समय बदलता रहता है और लोगों की समस्याएं बदलती रहती हैं। लोगों के विश्वासों का विदोहन करने वाले उसे दूसरी अनजान अनदेखी दुनिया में हल मिलने का झांसा देकर अपनी अक्षमताओं को छुपाये रहते हैं जबकि धर्म अपने जन्मकाल में इसी दुनिया के इसी समय में स्वयं के महसूस करने की वृत्ति को बदलने के लिए पैदा होते रहे हैं।
सुप्रसिद्ध दार्शनिक और तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली डा.राधा कृष्णन जब अमेरिका यात्रा पर गये और जब अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जान एफ केनेडी उनकी अगवानी करने के लिए पहुँचे तब बरसात हो रही थी। राष्ट्रपति केनेडी ने मजाक में कहा- ओह, प्रैसीडेंट यू ब्राट रेन विथ यू! [राष्ट्रपतिजी आप अपने साथ बरसात लाये हैं] इस पर हमारे दार्शनिक राष्ट्रपति का उत्तर था- प्रैसीडेंट वी केन नाट चेंज इवेंट्स, बट वी केन चेंज अवर एट्टीट्यूड टुवर्ड्स दि चेंजिंग इवेंट्स [राष्ट्रपतिजी, हम घटनाओं को नहीं बदल सकते किंतु घटनाओं के प्रति अपने व्यवहार को बदल सकते हैं]
धर्म आम तौर पर समाज परिवर्तन की नहीं, अपितु घटती घटनाओं के प्रति व्यवहार परिवर्तन की शिक्षा देने का तरीका रहा है। समय व क्षेत्र के अनुसार इस शिक्षा में परिवर्तन अवश्यम्भावी रहता है। धर्म जड़ नहीं हो सकता भले ही उसकी अनेक सलाहें लम्बे समय तक उपयोगी बनी रहने वाली हों। उसे निरंतर कसौटी पर कसे जाने की जरूरत हमेशा बनी रहती है और इसी कसौटी ने निरंतर धर्मों को विकसित किया है, उनमें परिवर्तन किया है, उनका नया नामकरण किया है। जीवंत धर्म को मनवाने के लिए ताकत लालच और अज्ञान का सहारा नहीं लेना पड़ता वह तो स्वयं ही व्यक्ति की जरूरत बन जाता है। स्वर्ग लालच है तो नर्क झूठाधारित भय होता है।
जैसे विश्वासघात वही कर सकता है जिस पर विश्वास किया हो, उसी तरह धर्म के नाम पर उसके अन्धविश्वासी ही धोखा खा सकते हैं। जो लोग भी धर्म के नाम पर धोखा देना चाहते हैं वे कहते रहते हैं कि धर्म के बारे में सवाल मत करो और गुरू के आदेश को आंख बन्द कर मानो। शायद यही कारण है कि मार्क्स को कहना पड़ा कि इससे अफीम का काम लिया जाता है। सच तो यह है कि धर्म जागरण होना चाहिए, धर्म को विवेक को विकसित करने वाला होना चाहिए, जो वह है भी। किंतु निहित स्वार्थी लोग उसे रहस्य बना कर उसके बारे में प्रश्न न उठाने की सलाह देकर उसे अफीम बना देते हैं।

उसमें ये विकृत्तियाँ सदैव से नहीं रहीं। धर्म हमेशा से ऐसा नहीं था। कुछ लोकोक्तियों पर ध्यान दें तो बात समझ में आती है। जैसे कहा जाता रहा है- पानी पीजे छान कर, गुरू कीजे जानकर। जानना विवेक का काम है विश्वास का नहीं। यह परखना भी है। कबीर ने कहा है- जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। ये पंक्तियां भी इसी बात की ओर संकेत करती हैं कि साधु की जाति पूछना जरूरी नहीं है किंतु उसके ज्ञान को जानना परखना जरूरी है। धार्मिक इतिहास बताता है कि पुराने काल में शास्त्रार्थ होते थे जो इस बात का प्रमाण है कि विचारों को आंख मूंद कर नहीं माना जाता था अपितु उस पर अपने तर्क वितर्क सामने रखे जाते थे। हमारी प्राचीनतम राम कथा में भी प्रसंग आता है कि सीता का हरण एक साधु के भेष में धोखा देकर ही किया गया था व कालनेमि धोखा देने के लिए झूठा राम भक्त बन गया था। भारतीय संस्कृति की विशेषता ही यही है कि वह किसी एक किताब या गुरू पर जड़ होकर नहीं रह गया। यहाँ एक ही समाज में शैव, शाक्त, वैष्णव, जैन, बौद्ध, और लोकायत दर्शन आते गये और कुछ अपवादों को छोड़ कर धीरे धीरे सहअस्तित्व के साथ रहते चले गये। लोगों ने विवेक पूर्वक अपने धर्मों का चुनाव किया। बाद में सिख धर्म आया, कबीर पंथी आये और पिछली शताब्दी में आर्य समाज ने बड़ी संख्या में विवेकवान लोगों को प्रभावित किया। साम्राज्यवाद द्वारा फैलायी गयी साम्प्रदायिक राजनीति के उदय के पूर्व तक बाहर से आये इस्लाम और ईसाई धर्म के साथ भी सहअस्तित्व बना रहा है जो जनता के स्तर पर अभी भी कायम है। हिन्दू मुस्लिम राजाओं के बीच धर्म के आधार पर कभी युद्ध नहीं हुए, जैसा कि कुछ साम्प्रदायिक संगठन बताते हैं। दोनों की सेनाओं में ही दोनों धर्मों के सिपाही रहे और उनके बीच राजसत्ता के लिए लड़ाइयाँ हुयीं।
आज के व्यापारिक साधु जब आपराधिक गतिविधियों में पकड़े जाते हैं तो उनकी प्रतिक्रिया बहुत ही हास्यास्पद होती है। जैसे-
सरकार उन्हें फँसा रही है,
सरकार हमारे धर्म के लोगों को परेशान करना चाहती है
यह दूसरे धर्म के लोगों के तुष्टीकरण के लिए किया जा रहा है।
सम्बन्धित अधिकारी विधर्मी है, आदि
उनके अन्धविश्वासी भक्त भी सामने आये सच को नहीं देखना चाहते और उनकी आधारहीन सफाई में भरोसा करने लगते हैं। सच तो यह है कि धार्मिक विश्वासों के आधार पर बने गिरोह ही आज इंसानियत के सबसे बड़े दुश्मन बने हुए हैं। एक भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में भी हिन्दू, मुस्लिम, सिख आदि के नाम पर राजनीतिक दल बने हुए हैं और जो लोकतत्र की भावना का दम घोंट रहे हैं। मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, अकाली दल ही नहीं, आपितु एक झीने परदे के साथ भाजपा, शिवसेना व केरल के ईसाई लोगों के दल आदि भी इसी आधार पर धर्म के मूल स्वरूप को कलंकित कर रहे हैं। लोग अपने धार्मिक अन्धविश्वासों के आधार पर अपने दल का चयन कर रहे हैं, जबकि ऐसे दल अपने स्वार्थ के लिए न केवल उन्हें छल रहे हैं अपितु उन्हें धर्म के मार्ग से भटका रहे हैं। ऐसे ही दल छद्म धर्मगुरुओं को प्रश्रय देते हैं क्योंकि वे परस्पर सहयोगी होते हैं। जैसे खोटे सिक्के असली सिक्के को चलन से बाहर कर देते हैं उसी तरह धर्म के मुखौटे लगाने वाले लोग धर्म की मानवीय भावना को धता बताते हुए उसे नष्ट कर रहे हैं। आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि धार्मिक संस्थाओं और उनके संचालकों के आचरणों को गहराई से परखते रहा जाय और अपने सवालों को बेबाकी से रखने में कोई संकोच न किया जाये। आम तौर पर ऋषि मुनि और दूसरे धर्म गुरु कम से कम साधनोंका प्रयोग करते हुए सादगी से रहते रहे थे जिससे धार्मिक संस्थानों की पारदर्शिता बनी रहती थी, किंतु अब स्तिथि बदल गयी है। धार्मिक संस्थानों के पास अटूट दौलत और अचल सम्पत्तियाँ हैं, जो धर्म के क्षेत्र में विकृत्तियों के लिए जिम्मेवार है। धर्मगुरू मोटी मोटी चारदीवारी में रहते हैं जिनके चारों ओर सशस्त्र गार्डों का पहरा रहता है। उनके पास धन के उपयोग की कोई योजना नहीं है और वे उस धन को समाज के हित में भी नहीं लगा रहे हैं। वे प्राप्त धन पर टैक्स मुक्ति की अनुमति लिए हुए होते हैं और काले धन को सफेद करने का काम करते हैं। जरूरी हो गया है कि धर्म को मानने वाले धर्म में आयी विकृत्तियों के खिलाफ भी निर्भयतापूर्वक मुखर हों। यह धर्म की रक्षा का काम होगा। इससे ही धर्म का भला होगा अन्यथा नकली लोग कानून की पकड़ में आने के पूर्व असली धर्म को नष्ट कर चुके होंगे।
विवेकानन्द की अनास्था और प्रश्नाकुलता ने ही उन्हें उस मंजिल तक पहुँचाया जहाँ से वे पूरे विश्व को सम्बोधित कर सके। यदि वे बचपन से ही अन्धभक्ति में पड़ जाते तो लाखों विवेकशून्य लोगों की तरह बिना कोई पग चिन्ह छोड़े इस दुनिया से कूच कर गये होते।
अविश्वास ही ज्ञान के मार्ग का प्रारम्भ बिन्दु होता है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

गुरुवार, अक्तूबर 07, 2010

अयोध्या फैसला कौन कहता है कि कोई जीता हारा नहीं


अयोध्या फैसला---
कौन कहता है कि कोई जीता हारा नहीं
वीरेन्द्र जैन
इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा अयोध्या के राम जन्म भूमि- बाबरी मस्जिद विवाद के बारे में साठ साल बाद जो फैसला आया है उसके बारे में बहुत सारे अखबारों, नेताओं, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने संतोष की साँस लेते हुये कहा है कि कोर्ट द्वारा बहुमत के आधार पर सुनाये गये फैसले से किसी की जीत हार नहीं हुयी है। उनके इस कथन से मेरी विनम्र असहमति है। ऐसा लगता है कि साँस साध कर क्रिकेट का काँटे का मुकाबला देखते हुये देश को मैच के ड्रा हो जाने की सूचना मिली है। मैं मानता हूं कि इस फैसले से से भले ही मुकदमा लड़ रहे पक्षों में से कोई सीधे सीधे यह नहीं कह पा रहा हो कि उसकी जीत हुयी है या हार हुयी है किंतु एक बात तो तय है कि इस फैसले से अमन पसन्द जनता की जीत हुयी है और साम्प्रदायिकता की पराजय हुयी है।
इस मामले में ऐसा भ्रम दिया गया था गोया यह कोई जमीन के मालिकाना हक का विवाद हो, पर ऐसा नहीं था। आज की दुनिया में एक सेंटीमीटर जगह भी ऐसी नहीं है जहाँ पर किसी की जन्म-मृत्यु न हुयी हो या कोई इमारत ऐसी हो जहाँ पर उससे पहले कभी कोई दूसरी इमारत न रही हो। इमारतों के भी मालिक उस काल के कानून व्यवस्था के अनुसार बदलते रहे हैं। फैसला इस बात पर होना था कि वर्तमान में विवादित जमीन का मालिक कौन है? न्याय की देवी ने आँखों से बँधी पट्टी उतार के ममता पूर्वक कुंती की तरह सबको बराबर बराबर बाँट लेने का आदेश दे डाला है। फिर भी सच तो यह है कि इस फैसले से मुकदमे के पक्षकारों में से कोई खुश नहीं हो सकता क्योंकि उन सबकी खुशी तो लड़ाई में छुपी है जिसे टाल दिया गया है। वे तो जनता के रुख को देखते हुये अपनी अप्रसन्नता खुलकर व्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। अगर हाँडी के कुछ चावलों को परखें तो हमें इस का आभास हो जायेगा।
आडवाणीजी ने बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद कहा था कि अदालत के फैसले में देर होने के कारण लोग असंतुष्ट हो गये थे और उनके असंतोष ने बाबरी मस्जिद को उनके रोकने के बाबजूद ध्वंस कर दिया क्योंकि वे उनकी भाषा को नहीं समझ पाये। किंतु शायद आडवाणीजी उनके मन की भाषा को समझते थे और उन्होंने समझ लिया कि बाबरी मस्जिद के टूटने के पीछे क्या भावना काम कर रही थी। पर जब अदालत का फैसला आने का दिन तय हो गया तो उनके संघ परिवार के ही लोग कहने लगे कि राम जन्मभूमि मन्दिर कानून का नहीं आस्था का विषय है और आस्था का फैसला कानून से नहीं हो सकता। इस बात का परोक्ष समर्थन करते हुये स्वय़ं आडवाणीजी ने अपनी वाणी पर संयम रखा और अपनी पार्टी वालों से वाणी पर संयम रखने की सलाह दी ताकि कोई यह न कह बैठे कि वह अदालत का फैसला मानेगा। वे कहते रहे कि इस विषय में अपनी प्रतिक्रिया वे अदालत का फैसला आने के बाद देंगे, अर्थात वोटों के सौदागर फैसले पर जनता का रुख भाँप कर अपनी दिशा तय करेंगे। उनकी पार्टी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष कहते रहे कि केन्द्र की कांग्रेस सरकार को अदालत के आदेश को दरकिनार करते हुये कानून बना कर उसी स्थान पर राम मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। वे यह जानते हुये भी कह रहे थे कि कोई भी कानून संसद से पास होने के बाद ही बनता है और इस समय संसद में कानून को आस्था से ऊपर मानने वालों का बहुमत है जिनमें उनके गठबन्धन के जेडी[यू] जैसे बड़े दल भी शामिल हैं। इस अवसर पर उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि जब केन्द्र में उनकी सरकार थी तब उन्होंने ऐसा कानून बनाने की पहल क्यों नहीं की। पर जनता की समझ में आ गया कि जब कानून अपना फैसला देने वाला था तब उसके फैसले को न मानने की घोषणा के पीछे विवाद को निरंतर बनाये रखने की इच्छा का आशय क्या है। उत्साह में फैसले के तुरंत बाद उनकी पार्टी के प्रवक्ता एडवोकेट रवि शंकर प्रसाद ने फैसले का स्वागत कर दिया किंतु पार्टी के निर्देश के बाद शाम तक उनका रुख बदल गया। यह वैसा ही था जैसा कि पार्टी अध्यक्ष बनते ही नितिन गडकरी ने अयोध्या में मन्दिर मस्जिद साथ साथ बनवाने की इच्छा व्यक्त कर दी थी पर उसके बाद उन्होंने दुबारा कभी यह इच्छा व्यक्त नहीं की क्योंकि उन्हें ऐसा करने से रोक दिया गया था। उनकी विश्व हिन्दू परिषद के लोग जोर शोर से कहने लगे कि पूरे अयोध्या में उन्हें कहीं भी बाबरी मस्जिद मंजूर नहीं है, गोया वे देश की सबसे बड़ी नियामक संस्था हों और जो कुछ वे चाहते हों वही होने दिया जा सकता हो। फैसले का एक सप्ताह बीतने से पहले ही आडवाणीजी कहने लगे कि बाबरी मस्जिद को सरयू के किनारे बनवाया जा सकता है अर्थात जिस स्थान पर कोर्ट ने उसके लिए जगह दी है वहाँ पर बाबरी मस्जिद का बनना आडवाणीजी को मंजूर नहीं है। आस्था के सवाल को कानून से हल न होने की घोषणा करने वाले लोगों ने ही फैसला आने के बाद बेंच के एक न्यायाधीश धर्म वीर शर्मा के सम्मान करने की घोषणा भी कर दी।
मुस्लिम वक्फ बोर्ड को तो पहले दिन से ही फैसला मंजूर नहीं था क्योंकि उनका दावा खारिज कर दिया गया था किंतु उन्होंने अदालत का फैसला मानने के अपने बयान पर कायम रहते हुये मामले को वैधानिक तरीके से सुप्रीम कोर्ट ले जाने की घोषणा कर दी थी। वे यह भी जानते थे कि कोर्ट के फैसले का इतने दिन इंतजार करने के बाद अब उनके पास दूसरा रास्ता नहीं है व शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने पर तत्कालीन सरकार की इतनी फजीहत हो चुकी है कि अब कोई भी सरकार वैसी गलती नहीं करेगी।
इस मामले में सदैव ही गलत परिभाषाएं प्रयुक्त हुयी हैं। विवाद के पक्षकारों को हिन्दू और मुस्लिम कहा गया गोया कि वे हिन्दू या मुसलमानों के वैधानिक प्रतिनिधि हों, और ऐसा करते हुये यह भुला दिया गया कि जमीन का यह विवाद इन शब्दों के प्रयोग से ही साम्प्रदायिक आधार भूमि में बदल जाता है। वैष्णवों में राम पंथ के उपासक उत्तर भारत में ही पाये जाते हैं और हिन्दू के रूप में गिने जाने वाले पंथियों में वे शैवों, शाक्तों और विष्णु के दूसरे अवतारों को मानने वालों से ही नहीं अपितु सिखों, बौद्धों, जैनों, व आदिवासियों से भिन्न हैं। जन्म स्थान और जन्म भूमि में अंतर होता है जन्म भूमि एक विशाल भू भाग होता है और राम कथा के अनुसार पूरी अयोध्या को राम जन्मभूमि कहा जा सकता है। वोटों की खातिर संघ परिवार के लोग यह कह कर बरगलाते रहे हैं कि अयोध्या में भव्य राम मन्दिर निर्माण में बाधा है जबकि सैकड़ों मन्दिरों से भरी अयोध्या में विवादास्पद स्थान पर ही कोर्ट के फैसले से पूर्व मन्दिर का निर्माण ही मुद्दा था, जो अब हल हो चुका है।
कुल मिला कर जनता की अमन पसन्दगी को धार्मिक उत्तेजना में बदलने के प्रयास धीरे धीरे कुलबुलाने की कोशिश करने लगे हैं और ऐसे में परीक्षा निरंतर बनी हुयी है कि अफवाहों हथकण्डों षड़यंत्रों की कोशिशें जीतती हैं या कानून का पालन करने वाली धर्म निरपेक्ष जनता की जीत स्थायी सिद्ध होती है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

सोमवार, सितंबर 27, 2010

ऊपर वाले से कुछ नहीं होगा नीचे वालों के साथ आइये


इस ऊपर वाले से कुछ नहीं होगा नीचे वालों के साथ आइये
वीरेन्द्र जैन
मेरे एक मित्र पिछले दिनों छह महीने के लिए अपनी बेटी दामाद के पास लन्दन में रहे। वहाँ के प्रवास पर अपने संसमरणों में उन्होंने बताया कि अखबारों में चर्च भवनों की बिक्री के बारे में आये दिन विज्ञापन छपते रहते हैं। इसी सन्दर्भ में उन्होंने एक लतीफा भी सुनाया-
एक चर्च के पादरी को जब लगा कि लोगों ने चर्च में आना कम कर दिया है, तो उन्होंने चर्च के ग्लास डोर पर लिख दिया कि अगर आप पाप से ऊब गये हों तो कृपया हमारे चर्च में पधारें। अगले दिन उस के नीचे लिपिस्टिक से लिखा मिला कि अगर आप नहीं ऊबे हों तो फोन नम्बर 9889978562 पर फोन करें।
मुझे भी लगता है कि मन चाही मुराद पूरी करने, नौकरी संतान आदि माँगने वालों, धन और स्वास्थ चाहने वालों की भीड़ जो धर्म स्थलों पर धक्के खाती फिरती है और आये दिन कुचली जाती है, के लिए एक ऐसा ही विज्ञापन दूं कि अगर आप धर्मस्थलों पर माथा घिसते घिसते खुद ही घिस गये हों और तब हू दीन दयाल के कानों में भनक नहीं पड़ रही हो तो जन संघर्षों से अपना अधिकार माँगने वालों के किसी मंच पर आयें और अपने हक के लिए संघर्ष करें। नौकरी उतनों को ही मिलती है जितनी जगहें होती हैं और वे प्रचलित व्यवस्था के अनुसार उन्हें भी मिलती रहती हैं जो कहीं मत्था घिसने नहीं जाते या जो आपके आराध्य के अलावा दूसरे आराध्यों के यहाँ भी मत्था रगड़ते हैं। यदि मत्था घिसने के कारण मिल रही हो तो सबको मिलना चाहिए थी और उन्हें तो बिल्कुल भी नहीं मिलना चाहिए थी जो कहीं नहीं जाते।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

रविवार, सितंबर 26, 2010

उस फोड़े की पीड़ा जो नहीं फूटा


उस फोड़े की पीड़ा जो नहीं फूटा

वीरेन्द्र जैन
फोड़ा शरीर में कहीं पर भी हो वह दर्द करता है। डाक्टर पहले कोशिश करता है कि फोड़ा दवाइयों से सूख जाये, इसलिए वह नाम बदल बदल कर दवाइयां लिखता रहता है। जब दवाइयों से फोड़ा ठीक नहीं होता तब उसकी शल्य चिकित्सा करनी होती है। शल्य चिकित्सा में मवाद निकल जाता है, कुछ रक्त भी बहाना पड़ता है, पर ठीक होने की सम्भावनाएं बढ जाती हैं। फोड़ा जब तक नहीं फूटता तब तक तकलीफ देता है। एक बार जी कड़ा कर के शल्य चिकित्सा के लिए तैयार होते ही उसकी जुगुप्सापूर्ण कार्यवाही के सम्पन्न हो जाने के बाद बहुत आराम मिलता है।
लगभग ऐसा ही अनुभव 24 सितम्बर 10 को पूरा देश अनुभव कर रहा था। अयोध्या के राम जन्मभूमि मन्दिर और बाबरी मस्जिद की जमीन के मालिकाना हक का विवाद गत साठ वर्षों से अदालत में लम्बित था किंतु उसके फैसले की तिथि पास आते आते संघ परिवारियों को अपने पक्ष के कमजोर होने का अहसास होने लगा और वे फैसला आने से पहले ही से कहने लगे थे कि यह आस्था का सवाल है और आस्था के सवालों का हल अदालत से नहीं हो सकता। वे सरकार से माँग करने लगे थे कि वह उनका पक्ष ले और उनके पक्ष में नया कानून बनाये। वे यह सब यह जानते हुए भी कह रहे थे कि संसद में कानून कैसे बनते हैं और उसके लिए कितने सदस्यों का समर्थन चाहिए होता है तथा इस मुद्दे पर उनके साथ कितने सांसद हैं। परोक्ष में यह शांति के लिए सौदेबाजी थी। संघ परिवार के राजनीतिक दल भाजपा को पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 16% मत मिले थे। ये मत भी उन्हें अकेले हिन्दुत्व के नाम पर नहीं अपितु शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, स्मृति ईरानी, दारा सिंह, धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी, नवजोत सिंह सिद्धु, दीपिका चिखलिया, अरविंद त्रिवेदी, वसुन्धरा राजे, यशोधरा राजे, आदि आदि आदि तरह तरह से लोकप्रिय माडलों द्वारा जुटायी गयी भीड़ के चुनाव प्रचार के आधार पर अनेक दलों के साथ गठबन्धन बना के बटोरे गये थे। साठ साल तक मुकदमा लड़ने के बाद, मुकदमे का फैसला आने के करीब यह माँग कितनी हास्यास्पद है कि अदालत से फैसला नहीं हो सकता और सरकार को इकतरफा उनके पक्ष में कानून बना कर विवादित जमीन उन्हें सौंप देना चाहिए। यदि आस्था का सवाल भाजपाई हिन्दुओं के लिए है, तो यह मुसलमानों, बौद्धों, जैनों आदि के लिए क्यों नहीं है? सुना तो यह भी गया है कि कुछ शैव, और शाक्त भी सामने आकर उस जमीन पर वैष्णवों के मालिकाना हक को चुनौती दे सकते हैं। अम्बेडकरवादी भी कह रहे हैं कि 6 दिसम्बर का दिन उन्होंने इसलिए चुना था क्योंकि उस दिन बाबा साहब का निर्वाण दिवस है और सवर्ण जातियों की पार्टियां सारे देश का ध्यान बाबा साहब पर केन्द्रित नहीं होने देना चाहती थीं।
इस विविधिता वाले देश में अलग अलग काल खण्डों में भिन्न भिन्न संस्कृतियां रही हैं और उन पर भिन्न भिन्न पूजा पद्धतियों वाले लोग अपनी अपनी पूजा उपासना करते रहे हैं। कभी विचार परिवर्तन से तो कभी राजतंत्र में राज्य की ताकत से भी लोगों की पूजा पद्धतियां और पूजा स्थलों के स्वरूप भी बदलते रहे हैं। इतिहास और पुरातत्व गवाह है कि कितने हजार बौद्ध मन्दिरों और मठों को ध्वस्त कर के हिन्दू मन्दिरों में बदल दिया गया है। दक्षिण के एक सुप्रसिद्ध शिव मन्दिर की पिण्डी भी एक बौद्ध शिलालेख को काट कर स्थापित की गयी है। इसलिए यदि किसी काल में किसी स्थल पर किसी धर्म विशेष का पूजा स्थल रहा भी हो और बाद में वह बदला भी गया हो तो भी उसके मालिकाना हक का फैसला एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायालय से ही सम्भव है जिसके निर्णय को सभी को मानना चाहिए। अब राजतंत्र के बर्बर युग में फिर से तो लौटा नहीं जा सकता जहाँ त्रिशूल, लाठी, भालों के आधार पर फैसला हो। यदि कोई ऐसा करने की कोशिश करेगा तो आश्चर्य नहीं कि बन्दूकें, बम और आणविक हथियार पूरे देश का वैसा ही नुकसान करें जैसा पाकिस्तान में हो रहा है।
स्मरणीय है कि 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद अडवाणीजी ने संसद में कहा था कि बाबरी मस्जिद का टूटना उनके लिए सबसे दुख का दिन था तथा वे उन लोगों को रोक रहे थे जो मस्जिद तोड़ रहे थे किंतु मराठी भाषी होने के कारण वे हमारी भाषा समझ नहीं सके। बाद में उन्होंने यह भी कहा था कि लोगों का गुस्सा इसलिए फूट पड़ा क्योंकि अदालत ने फैसले को इतने अधिक समय तक लटका कर रखा। वही आडवाणीजी फैसले को सुनाने की तारीख तय होने के बाद कहने लगे कि यह आस्था का सवाल है और इसका फैसला अदालत से नहीं हो सकता। जब एक से अधिक आस्थाएं टकरा रही हों और एक धर्म निरपेक्ष देश में कानून बनाने वाली शक्तियाँ किसी एक आस्था के पक्ष में न हों तब फैसले का अदालत के अलावा दूसरा रास्ता केवल हिंसा का ही रास्ता होता है। जो लोग भी अदालत के फैसले को अमान्य कर रहे हैं वे परोक्ष में हिंसा का समर्थन कर रहे हैं। सवाल यह है कि इस हिंसा का परिणाम क्या होगा और क्या देश इस हिंसा के लिए तैयार है? आतंकवादियों ने देश में जगह जगह बम विस्फोट करके जो निरपराध लोगों को मारा था और मडगाँव बम विस्फोट की योजना बनायी थी जो अपने ही धर्म के लोगों को मारकर उन्हें हिंसा के लिए उकसाने की थी, तो क्या देश के लोग उत्तेजित हुए थे? यह साफ संकेत थे कि लोग हिंसा और हिंसा फैलाने वाले लोगों को पसन्द नहीं करते, तथा लाख भड़काने के बाद भी वे शांति और कानून के रास्तों को पसन्द करते हैं। आज देश यह भी जानता है कि सरकार के पास किसी भी संगठन से अधिक हिंसक ताकत होती है,और हिंसा को लम्बा नहीं खींचा जा सकता। देश में लाखों की संख्या में वैध और उससे भी कई गुना अवैध धर्मस्थल बने हैं जिन्हें सुप्रीम कोर्ट के आदेश और फटकार के बाद भी अभी तक हटाया नहीं जा सका है। ऐसी अवस्था में यह कहना कि अयोध्या में सरकार मन्दिर नहीं बनने देना चाहती हास्यास्पद है। राजनीति के लिए अफवाह फैलाने वालों ने राम जन्मभूमि मन्दिर विवाद को राम जन्मभूमि विवाद कह कर प्रचारित किया है। राम जन्मभूमि मन्दिर एक मन्दिर की पहचान के लिए विशिष्ट नाम है इससे यह कहीं तय नहीं होता कि राम का जन्म इसी स्थल पर हुआ था। अयोध्या में राम का विशाल मन्दिर बनने के लिए कौन मना कर सकता है! किंतु जब मामला वोटों के लिए बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों में ध्रुवीकरण का बना दिया जाये और केवल विवादित मन्दिरों पर संघर्ष उकसाने को धर्म बताया जाने लगे तो बात दूसरी हो जाती है। यह सवाल क्यों है कि यह भव्य मन्दिर बिल्कुल उसी स्थान पर बनना चाहिए जहाँ बाबरी मस्जिद बनी हुयी थी। स्मरणीय है कि मुम्बई के एक आर्कीटेक्ट ने कहा था कि वह ऐसी डिजायन बना सकता है जिसमें मस्जिद भी खड़ी रहे और उसके ऊपर या भूमिगत मन्दिर भी बन जाये तो भी विवाद बढाने में ही अपना लक्ष्य देखने वालों ने कहा था कि हमें तो बिल्कुल उसी स्थल पर मन्दिर चाहिए और वह भी मस्जिद को हटा कर।
पता नहीं ये राजनेता यह क्यों नहीं समझ रहे हैं कि यह सोलहवीं शताब्दी तो क्या 1992 भी नहीं है और आज मीडिया की ताकत ने पारदर्शिता को इतना बढाया है कि अब षड़यंत्रों को कूटनीति नहीं अपितु अपराध माना जाने लगा है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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