बुधवार, दिसंबर 16, 2020

श्रद्धांजलि / संस्मरण सैयद मुहम्मद अफज़ल

 


 

श्रद्धांजलि / संस्मरण 

सैयद मुहम्मद अफज़ल 


वीरेंद्र जैन

कुछ लोग थोड़ी सी मुलाकातों में ही अपने लगने लगते हैं और उनके निधन से इतना दुख होता है जैसे पुरानी पहचान हो। यह 2020 का साल न जाने कितने और दुख देकर जायेगा।

सैयद मुहम्मद अफज़ल की एक कहानी हंस में छपी थी और ये वे दिन थे जब मैं हंस को किसी धर्मग्रंथ की तरह पढता था। यह कहानी अकबर के सेनापति अबुल फज़ल की समाधि से जुड़ी थी। अबुल फज़ल का कत्ल दक्षिण विजय से लौटते हुए रास्ते में हो गया था। कत्ल का स्थल दतिया से ग्वालियर के बीच के जंगलों में था।  

      इस कत्ल के सम्बन्ध में मेरे पिता ने एक कहानी सुनायी थी। अबुल फज़ल अकबर के सबसे विश्वस्त सलाहकार सेनापति थे और जहाँगीर [फिल्मी सलीम] से उनके विवादों के सन्दर्भ में अकबर उन्हीं से सलाह लेते थे और उन पर चलते भी थे, जिस कारण जहाँगीर उनसे नाराज रहता था। यही कारण रहा कि उनको दूर करने के लिए जहाँगीर ने उन्हें ही दक्षिण विजय के लिए भिजवाया था। संयोग से अबुल फज़ल ने दक्षिण पर विजय प्राप्त की और वह वहाँ से बहुत सारा धन और सोना लेकर आ रहा था। उस समय दतिया नगर नहीं बसा था और आज की छोटी बड़ोनी के जागीरदार श्री वीर सिंह देव थे, जो ओरछा के राजा के भाई थे। उनकी बहादुरी और अच्छे शिकारी होने का यश जहाँगीर को ज्ञात था। जहाँगीर ने उन्हें बुलवाया और अबुल फजल का सिर काट कर लाने की सुपारी दी। बदले में उसके द्वारा जीत कर लाया हुआ सारा धन देने का वादा भी किया। वीरसिंह देव महात्वाकांक्षी थे और छोटी सी रियासत से खुश नहीं थे।

      अबुल फज़ल अस्थमा का मरीज था। उन दिनों पक्के रास्ते नहीं थे और जंगलों में से रास्ता बनाते हुए चलना होता था। अपनी बीमारी के कारण अबुल फज़ल घोड़ों की टापों से उड़ने वाली धूल से बचने के लिए फौज़ से दूर हाथी पर कम सैनिकों के साथ चलता था और ज्यादातर रात्रि में सफर करता था। जब वह रात्रि में सफर कर रहा था तब वीर सिंह देव ने रास्ता भटकाने के लिए पेड़ों पर दीपक लटका दिये थे। उसके साथ के लोगों को गाँव के गलत दिशा में होने का भ्रम हो गया और वे रास्ता भटक गये। इसी दौरान वीर सिंह देव ने उनका सिर काट लिया और सिर लेकर सीधे आगरा पहुंचे जहाँ वह सिर जहाँगीर को भेंट किया। जब अबुलफज़ल के सैनिकों को पता चला तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अभी ग्वालियर से पहले आंतरी गांव में अबुलफज़ल की समाधि है। वीरसिंह देव के इस काम के बदले में उन्हें ओरछा जैसी बड़ी रियासत का राजा बना दिया गया था और बहुत सारा धन दिया गया था। वीरसिंह देव के भाई और तत्कालीन राजा बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के थे और उन्होंने अपने भाई के लिए यह सत्ता परिवर्तन सहज स्वीकार कर लिया था और देवपूजा में लिप्त हो गये थे। जो धन जहाँगीर ने उन्हें दिया था वह बहुत अधिक था। उससे उन्होंने 52 इमारतों की नींव रखी थी। इनमें दतिया व ओरछा के सात खण्डों वाले महल भी शमिल हैं और दतिया के पास चन्देवा की बावड़ी भी है। [ओरछा के महल को तो अभी पिछले ही दिनों राष्ट्रीय धरोहर के रूप में मान्यता मिली है।] अभी भी दतिया की उड़नू की टौरिया के पास लोग खुदाई करते हुए पकड़े जाते हैं। शायद मेरे पिता को यह कहानी झांसी के सुप्रसिद्ध पुरातत्व व इतिहास विशेषज्ञ लखपत राम शर्मा ने सुनायी थी। उन्होंने ही सरकार को दतिया के गुजर्रा में सम्राट अशोक के शिलालेख की जानकारी दी थी।

जैसा कि ऐतिहासिक कहानियों में होता है अफजल साहब की कहानी में मेरे द्वारा सुनी कहानी से थोड़ा सा भेद था और में उनसे बात कर के उसका मिलान करना चाहता था। पर यह बात दिमाग में ही रही। बीच में एक शोकसभा में मेरी उनसे मुलाकात हुयी तो मैंने उनसे कहा कि आपकी वह कहानी मैंने पढी है और उसकी ऐतिहासिकता पर चर्चा करना चाहता हूं। वे खुश हुये और उन्होंने कभी भी आने को कहा। किंतु मैं अपनी व्यस्तताओं में समय नहीं निकाल सका और वैसे भी किसी जिम्मेदार अधिकारी से मुलाकात के लिए मैं उसके आमंत्रण की प्रतीक्षा की बुरी आदत से ग्रस्त हूं, सो मुलाकात नहीं हो सकी।

दूसरी मुलाकात पंकज सुबीर के उपन्यास ‘जिन्हें जुर्मे इश्क पै नाज था’ पर चर्चा के दौरान हुयी। तब तक कई वर्ष बीत चुके थे और मैं उन्हें तब तक पहचान नहीं सका जब तक कि वे बोलने के लिए मंच पर नहीं पहुंचे। उस दिन उन्होंने उपन्यास की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में जो बोला उससे मुझे ऐसा लगा कि वे म.प्र. पुलिस सेवा से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। उक्त आयोजन पर टिप्पणी लिखते हुए मैंने ऐसा लिख भी दिया था । यह तो बाद में पता चला कि मैं गलत था। इससे मुझे और खुशी हुयी कि नौकरशाही में अभी भी उम्मीदें बची हुयी हैं। उनसे लम्बी मुलाकात करने की इच्छा और बलवती हो गयी। वे आईपीएस थे और वर्तमान में आर्थिक अपराध शाखा में एडीजी थे। साहित्य से जुड़े मुहम्मद अफज़ल ज़ामिया और अलीगढ विश्व विद्यालय में रजिस्ट्रार भी रहे।  

आज फिर मुनीर नियाजी की वह नज़्म याद आ रही है- हमेशा देर कर देता हूं मैं। मुझे अफसोस रहेगा कि उनसे लम्बी चर्चा नहीं हो सकी।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023 मो. 9425674629       

शुक्रवार, दिसंबर 04, 2020

संस्मरण / श्रद्धांजलि याद आयेंगे बड़े दिल वाले ललित सुरजन

 

संस्मरण / श्रद्धांजलि

याद आयेंगे बड़े दिल वाले ललित सुरजन



वीरेन्द्र जैन

अपने विचारों और भावनाओं को शब्द देने और उन्हें प्रकाशित देखने के सपने के साथ मैं बैंक की नौकरी छोड़ कर भोपाल आ गया था। अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठ पर लिखे जाने वाले लेखों के लेखकों में अपने को शामिल कराना मेरा लक्ष्य था। भोपाल में प्रकाशन के तो भरपूर अवसर हैं, किंतु कुछ बड़े अखबारों को छोड़ कर उनमें से ज्यादातर इसके लिए पारश्रमिक नहीं देना चाहते। चूंकि मैंने पेंशन का विकल्प चुने बिना नौकरी छोड़ी थी इसलिए दूसरी इच्छा यह भी रहती थी कि लिखे हुए का पारिश्रमिक भी मिले तो ठीक रहे। यही कारण रहा कि मैंने दैनिक भास्कर पर अपना ध्यान ज्यादा केन्द्रित किया था। उसके व्यंग्य स्तम्भ राग दरबारी से शुरू करके सम्पादकीय, मध्य की लेख, और दूसरे नये नये स्तम्भों में कई वर्ष लिखा। प्रदेश में सरकार के बदलने के साथ साथ व्यावसायिक अखबारों के सम्पादक. लेखक व स्तम्भकार भी बदल जाते हैं । चूंकि मैं एक विचार से जुड़ा हुआ था और उसके लिए किसी भी तरह का समझौता नहीं कर सकता था इसलिए सम्पादक के बदलते ही मेरे लिए भास्कर के दरवाजे सिकुड़ गये। मैंने भी दूसरे अखबारों की ओर रुख किया। देशबन्धु के स्थानीय सम्पादक पलाश जी भास्कर, लोकजतन आदि में मेरे लेख आदि पढते रहते थे और चाहते थे कि मैं देशबन्धु के लिए भी लिखूं। वे रोटरी क्लब की एक इकाई के सचिव भी थे और उन्होंने एकाधिक बार उनके आयोजन में मेरा व्याख्यान भी रखा था। इस तरह मैं देशबन्धु के लिए भी लिखने लगा।

प्रदेश में शिवराज सिंह की सरकार आ गयी थी और उनके निकट के एक आईएएस अधिकारी को जन सम्पर्क के साथ साथ साहित्य संस्कृति से सम्बन्धित जिम्मेवारियां भी सौंप दी गयी थीं। वे साहित्यिक समझ के एक कुशल अधिकारी हैं और जो जिम्मेवारी मिलती है उसे पदासीन नेता की चाहत के अनुसार पूरा करते रहे हैं। सन 2006 में प्रदेश सरकार ने अपना हिन्दूवादी रूप प्रकट करने के लिए फैसला लिया कि वे एक सांस्कृतिक कलेंडर जारी करेंगे। एक बहुत कलात्मक् शक सम्वत का कलेंडर छपाया गया और उसे जारी करने के लिए भारत भवन में एक शानदार कार्यक्रम रखा गया। कलेंडर का विमोचन करते हुए मुख्य मंत्री ने एक भाषण दिया जिसमें भारतीय काल गणना की भूरे भूरि प्रशंसा करते हुए ग्रेगेरियन कलेंडर को गुलामी का प्रतीक बताया गया। इस आयोजन से सम्बन्धित प्रकाशित समाचार में बताया गया था कि ऐसा प्रकट हो रहा था जैसे आगे से प्रदेश की सरकार के सारे काम धाम शक सम्वत वाले कलेंडर से ही सम्पादित होंगे।

तत्कालीन घटना पर प्रतिदिन लिखने के लिए उतावले मेरे जैसे व्यक्ति के लिए यह एक विषय था, सो मैंने ‘कलेंडर प्रसंग’ शीर्षक से एक लेख लिखा। इसमें मैंने लिखा कि देशों की सीमाओं से मुक्त अब पूरी दुनिया में एक सर्वस्वीकृत कलेंडर चल रहा है जिसके आधार पर ही सारे कामकाज चल रहे हैं। मुगल काल में भी सरकारी कामकाज हिजरी कलेन्डर से नहीं चला, वह केवल धार्मिक कलेंडर ही रहा। मैंने लिखा कि प्रदेश का बजट दिवाली से दिवाली तक का नहीं बनाया जा सकता। जिस कम्प्यूटर, इन्टरनेट का प्रयोग करके सरकारी कामकाज चलता है, उसके लिए अंतर्राष्ट्रीय रूप से मान्य कलेंडर का ही प्रयोग करना पड़ेगा। मैंने सवाल किया कि इस कलेंडर के आधार पर क्या भाजपा का स्थापना दिवस 25 सितम्बर की जगह देशी तिथि को मनाया जायेगा या अटल जी का जन्म दिवस 25 दिसम्बर की जगह देशी तिथि को आयोजित होगा जो किसी को याद तक नहीं होगी। देशी कलैंडर को हम अपने त्योहार मनाने, शादी ब्याह के महूर्त निकालने में स्तेमाल करते ही हैं और उसका वह महत्व बना रहने वाला है।

अन्य बातों के अलावा इस लेख में एक बात और कही गयी थी कि मुख्यमंत्री को तो जैसा लिख के दे दिया जाता है वे उसे पढ देते हैं और पढने से पहले विचार भी नहीं करते। बस यही बात उनके उक्त अधिकारी को खल गयी। एक दिन पलाश जी का फोन आया कि आप अपने लेख सीधे रायपुर ही भेज दिया करें, अब पूरा सम्पादकीय पेज वहीं से बन कर आयेगा। मैंने इसे सामान्य व्यवस्था समझा और लेख रायपुर भेजने लगा जो यथावत छपते रहे।

बहुत दिनों बाद म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन में कोई कार्यक्रम था और मैं आदतन पीछे की कुर्सियों पर जाकर बैठ गया। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जब मैं चलने लगा तो अचानक पलाशजी सामने आ गये। उन्होंने जाते देखा तो कहा कि आपकी ललित जी से मुलाकात है? मेरे नकार के बाद वे मुझे उनके पास तक ले गये और परिचय कराते हुए बोले ये वीरेन्द्र जैन हैं। पास में कुर्सियां खाली थीं और ललित जी मुझे बैठने के लिए कह सकते थे किंतु उनकी विनम्रता और उदारता यह कि वे खुद उठ कर खड़े हो गये व पहले हाथ मिलाया और फिर बगल की कुर्सी पर बैठा लिया। पलाश जी ने आगे जोड़ा कि ये ही हैं जिनके लेख के कारण अपने विज्ञापन बन्द हो गये थे। ललित जी ने उन्हें रोका और मुझ से कहा कि आपके लेख तो देशबन्धु में छप रहे हैं ना! मैंने सहमति में सिर हिलाया, पर तब तक मुझे कुछ भी पता नहीं था। इस पहली संक्षिप्त मुलाकात में फिर कुछ और बातें भी होती रहीं जिनमें से ज्यादातर मेरे जीवन से सम्बन्धित निजी बातें थीं।

बाद में पता चला कि सम्बन्धित अधिकारी ने नाराजी में देशबन्धु भोपाल के विज्ञापन बन्द कर दिये थे, जो ललित जी के व्यक्तित्व के कारण ही फिर से शुरू हो सके थे, किंतु दोनों भाइयों में से किसी को भी मुझ से कोई शिकायत नहीं थी। शायद इसी कारण उन्होंने सम्पादकीय पृष्ठ को रायपुर में ही अंतिम रूप देने का फैसला किया हो।

उनसे अनेक मुलाकातें हुयीं लेकिन उस विशाल ह्रदय व्यक्ति के मन में मेरे प्रति कभी मलाल नहीं दिखा। मैंने पिछले कुछ वर्षों से फेसबुक पर तात्कालिक छोटी टिप्पणियों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया हुआ है, वे मेरे पेज पर आते रहे और बड़े भाई की तरह अपनी प्रतिक्रिया देते रहे, जो अच्छा लगता था। एक सुख इस अहसास का भी होता है कि कोई जानामाना व्यक्ति हमें निकट से जानता है। ललित जी ने यह सुख खूब बांटा, प्रसाद मुझे भी मिला। वे याद आते रहेंगे।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

मो. 9425674629