गुरुवार, सितंबर 22, 2011

खण्डित विश्वास को सम्हालने की चुनौती

                 खण्डित विश्वास को सम्हालने की चुनौती
                                                            वीरेन्द्र जैन 


      राज्य सभा सदस्य अमर सिंह जी जेल में हैं। भाजपा के लोकसभा सदस्यों ने परमाणु विधेयक पर हुए मतदान के दौरान उनको खरीदे जाने के लिए दिये गये नोटों के बंडलों को सदन में लहराते हुए उन्हें अमर सिंह द्वारा दिया गया बताया था। भाजपा द्वारा एक टीवी चैनल से इसका स्टिंग आपरेशन भी करवाया गया था, पर उस चैनल ने कतिपय कारणों से उसे दिखाना स्थगित कर दिया था। जिस समय इस दृष्य का टीवी पर सीधा प्रसारण चल रहा था उस समय देश के चालीस लाख शिक्षित और राजनीति में रुचि रखने वाले लोग इसे देख रहे थे। अमर सिंह जी इस लेनदेन में अपनी भूमिका से इंकार कर रहे हैं पर परिस्तिथिजन्य साक्ष्य उनकी ओर इशारा करते हैं। देश के लब्ध प्रतिष्ठित वकील श्री राम जेठमलानी, जिन्होंने भाजपा के शिखर पुरुष श्री अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ चुनाव लड़ा था, पर गुजरात के चर्चित मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की वकालत करने की शर्त पर भाजपा ने उन्हें राज्य सभा के लिए चुनवाया था, अब अमर सिंह के वकील हैं, और उन्होंने कोर्ट में अमर सिंह की ओर से कहा कि यह पैसा भाजपा का हो सकता है क्योंकि श्री लाल कृष्ण अडवाणी ने कहा है कि स्टिंग आपरेशन और सदन में धन का यह प्रदर्शन उनकी सलाह से किया गया था इसलिए मुझे भी गिरफ्तार करो। वैसे पूर्व उपप्रधानमंत्री श्री अडवाणीजी के निजी सचिव रहे सुधीर्ण कुलकर्णी से भी पुलिस ने पूछताछ की थी और वे जेल में हैं। उन्होंने पुलिस को क्या बयान दिया है यह अभी रहस्य बना हुआ है, पर इस बीच अचानक ही अडवाणीजी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ देशव्यापी रथयात्रा निकालने की घोषणा कर दी है और यह भी बताया कि इस यात्रा के लिए उन्होंने अपने पार्टी अध्यक्ष से अनुमति ली है, पर पार्टी अध्यक्ष इस विषय पर मौन हैं। दूसरी बार श्री जेठमलानी ने धन के लेन देन का आरोप कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य श्री अहमद पटेल पर लगा दिया।
      अमर सिंह की घनिष्ठ मित्र और लोक सभा सदस्य जया प्रदा ने अमर सिंह के स्वास्थ की दुहाई देते हुए बयान दिया कि अगर उन्होंने मुँह खोल दिया तो बहुत सारे लोग मुश्किल में पड़ जायेंगे, जिसका मतलब है कि या तो श्री अमर सिंह पर लगे आरोप सही हैं या वे सच्चाई छुपाने के लिए मुँह बन्द किये हुए हैं, और उन लोगों से मुँह बन्द रखने का सौदा करना चाहते हैं जो उनके मुँह खोल देने से मुश्किल में पड़ सकते हैं। जिन मुलायम सिंह ने अमर सिंह को अपनी पार्टी से निकाल दिया था और उसके बाद से निरंतर उनकी अशालीन आलोचना झेल रहे थे, उनके पक्ष में बयान देकर कहा है कि वे निर्दोष हैं। नरेन्द्र मोदी के राज्य गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर अमिताभ बच्चन जो कभी कांग्रेस के सांसद रहे थे और जिनकी पत्नी पिछले दिनों तक समाजवादी पार्टी की सांसद थीं, अमर सिंह से मिलने एम्स पहुँचे और अपने कीमती वक्त में से दो घण्टे साथ बिताये। अमर सिंह जी की भाजपा नेता अरुण जैटलीजी से गोपनीय मुलाकातें अखबारों की सुर्खियां बनती रही हैं।
      इस घटनाक्रम में सभी प्रमुख दल कहीं न कहीं जुड़े हुए हैं और अनेक दलों के सदस्यों ने अपनी पार्टी के निर्देश के खिलाफ मतदान किया था। सीपीएम जैसी अनुशासित पार्टी के सदस्य सोमनाथ चटर्जी ने, जो लोकसभा के अध्यक्ष पद को सुशोभित कर रहे थे अपनी पार्टी के निर्देश को न मानते हुए अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने से इंकार कर दिया था जिस की वजह से पहले मतदान होने और सदस्यों की पक्षधरता का राज उजागर होने से रह गया था।
      उपरोक्त घटना के लिए गठित की गयी जेपीसी [संयुक्त संसदीय समिति] भी किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पायी थी तब इस प्रकरण की जाँच को पुलिस को देने का फैसला हुआ था। हाई प्रोफाइल लोगों से जुड़ा होने के कारण दिल्ली पुलिस ने इसे ठंडे बस्ते में डालकर रख दिया था, पर एक जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस को लताड़ पिलायी और समय बद्ध ढंग से जाँच करके दोषियों पर प्रकरण दर्ज करने के कठोर आदेश दिये तब ही वे आगे बड़े और सम्बन्धितों से पूछताछ की।
      जब सदन में नोट लहराये जा रहे थे उस दौरान ही राजद के श्री लालू प्रसाद ने जो उस समय देश के रेल मंत्री थे, सम्बन्धितों का नार्को टेस्ट कराने का सुझाव दिया था जिसे उनकी छवि के कारण एक मजाकिया सुझाव समझा गया था जबकि वे यह बात गम्भीरता से कह रहे थे। पूरा सदन, मीडिया ही नहीं अपितु देश के चालीस लाख लोगों ने जिस दृश्य को देखा उसके बारे में हमारी जाँच एजेंसियां अब तक यह पता नहीं लगा पायी हैं कि ये पैसा कहाँ से आया था और किस कारण से इस इतनी बड़ी रकम को इतनी उदारता से दिया गया था। अगर यह देश का ही था और लेनदेन में लग रहा था तो यह काला धन ही रहा होगा, अतः देशहित में इसका पता लगना चाहिए कि इस  काली राशि को किस काले तरीके से अर्जित किया गया था। पर यदि विदेशी पैसे से सांसदों के ईमान को खरीदा जा रहा था तो देश के लोकतंत्र और सुरक्षा को कितना बड़ा खतरा है, यह विचारणीय है।
      एक प्रदेश की मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के साथ विदेश यात्रा पर जाने से मना कर देती हैं क्योंकि उनके अनुसार एक नदी के पानी के बँटवारे पर वे सहमत नहीं हैं जिससे देश के प्रधानमंत्री की किरकरी होती है और उस देश से कुछ बहुत जरूरी समझौते नहीं हो पाते। जनसंहार के आरोपों से घिरे एक प्रदेश के मुख्य मंत्री उस समय सद्भावना के लिए उपवास करते हैं जब उनका मामला सुप्रीम कोर्ट लोअर कोर्ट को यह कह कर भेज देता है कि उसकी निगरानी की जरूरत नहीं है, इन्हीं मुख्यमंत्री को अदालत ने तड़ीपार करने के आदेश दिये हुए हैं और एक महिला मंत्री सहित कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जेल की हवा खा रहे हैं। एक प्रदेश के मंत्री एक नर्स के गायब होने के आरोपों से घिरे हैं।
      देश की सबसे आदरणीय संस्था के तीन सौ सदस्य करोड़पति हैं और 139 सदस्यों पर गम्भीर आरोपों के प्रकरण दर्ज हैं। सभी प्रमुख दलों के कतिपय सदस्य किन्हीं न किन्हीं कारणों से जेल की हवा खाने को मजबूर हो रहे हैं और यह तब हो सका है जब उनके जेल जाने से बचने के सारे हथकण्डे आजमाये जा चुके होते हैं। इनमें मंत्रिमण्डल के सदस्य भी हैं। कभी मंत्रिमण्डल में रहे एक सदस्य को आजीवन कारावास की सजा भी हो चुकी है और ये सजाएं किसी राजनीतिक आन्दोलन के लिए नहीं दी गयी हैं। देश के जनप्रतिनिधियों और उनके निकट के रिश्तेदारों की सम्पत्ति में तेजी से वृद्धि देखी जा रही है। जब आयकर विभाग के छापे पड़ते हैं तो इन रिश्तेदारों, उनके विभाग से जुड़े अधिकारियों के घरों से बरामद नोटों को गिनने के लिए नोट गिनने की मशीनें लगानी पड़ती हैं।
      जो भी कोई भ्रष्टाचार का विरोध करता नजर आता है उसकी जय जय कार होने लगती है चाहे वह बाबा भेषधारी उद्योगपति ही क्यों न हो। पर जब इन भ्रष्टाचार का विरोध करने वालों की पोल खुलती है तो जनता की आँखें फटी की फटी रह जाती हैं। ऐसे में जब सरकारी रिपोर्ट में पता चलता है कि देश की 74% आबादी बीस रुपये रोज पर गुजर करने को मजबूर है और उसमे से भी 39% की आमदनी तो कुल नौ रुपये रोज है, देश में दो लाख किसान प्रतिवर्ष आत्महत्या कर लेने को मजबूर हैं तब सहज सम्भव है कि आदमी सौ दो सौ रुपयों में अपना वोट बेच दे ताकि उसे इसके बदले में उधार के आश्वासनों की जगह कुछ तो नगद मिले। जब लोकतंत्र बिके हुए वोटों के बहुमत और गठबन्धन की मजबूरियों से चलता है तो ऐसे में अगर जनता का भरोसा टूट रहा है तो यह सहज सम्भव है। इस खण्डित विश्वास को सम्हालना ही आज सबसे बड़ी चुनौती है।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, सितंबर 21, 2011

भाजपा में विरासत की लड़ाई तेज हो रही है

                         भाजपा में विरासत की लड़ाई तेज हो रही है
                                                                     वीरेन्द्र जैन
      भाजपा ने यह भ्रम फैलाया हुआ था कि वह एक अलग तरह की पार्टी है जिसे अंग्रेजी में पार्टी विथ ए डिफ्रेंस कहा गया था। बाद में जैसे जैसे उसके झगड़े सड़क पर आते रहे थे तो अंग्रेजी अखबारों ने उसे पार्टी विथ डिफ्रेंसिज कह कर मजाक उड़ाया था। प्रारम्भिक भ्रम यह भी था कि यह पार्टी व्यक्तियों के आधार पर नहीं अपितु कुछ सिद्धांतों के आधार पर संगठन की मजबूती से चलती है, किंतु सत्तर के दशक में श्रीमती इन्दिरा गान्धी के नाम से चलती कांग्रेस को देख कर उन्होंने अपनी पार्टी को अटल अडवाणी के नाम से चलाना शुरू कर दिया था। इसका परिणाम यह हुआ कि इस युग्म के युग का समय पूरा होते होते पार्टी में नेतृत्व का संकट गहराता जा रहा है तथा पात्र-अपात्र ढेरों नेता देश की इस दूसरे नम्बर की बड़ी, साधन सम्पन्न पार्टी का नेतृत्व हथियाने के लिए षड़यंत्र रचने में लगे हुए हैं। स्मरणीय है कि 2002 में ही अडवाणीजी ने कह दिया था कि अगला चुनाव आप लोगों को अटल अडवाणी के बिना ही लड़ना पड़ेगा। यह कह कर वे अटलजी को मैदान से बाहर करना चाहते थे जिनके बारे में अमेरिका के एक अखबार में यह खबर प्रकाशित की गयी थी कि वे अस्वस्थ हैं, उन्हें कुछ याद नहीं रहता तथा वे शाम से ही अपने प्रिय पेय का सेवन करने बैठ जाते हैं। इस खबर के प्रकाशन के ठीक बाद ही अडवाणीजी को उप-प्रधानमंत्री की शपथ दिलवायी गयी थी तथा पत्रकारों द्वारा इस पद के अंतर्गत उनके द्वारा किये जाने कामों के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा था कि -प्रधानमंत्री द्वारा किये जाने वाले सारे काम जिन्हें मैं पहले से ही करता आ रहा हूं।- खबर यह भी थी कि अमेरिका के अखबार में उक्त समाचार भाजपा के ही किसी बड़े नेता के इशारे पर प्रकाशित करवाया गया था। इसके बाद जब अटलजी अमेरिका गये थे और वहाँ से लौटने पर उनके स्वागत समारोह में तत्कालीन अध्यक्ष और अडवाणीजी के पट शिष्य वैंक्य्या नाइडू ने कहा था कि आगामी चुनाव अटलजी और अडवाणीजी के सामूहिक नेतृत्व में लड़ा जायेगा तो नाराज अटलजी ने कहा था कि नहीं अगला चुनाव अडवाणीजी के नेतृत्व में ही लड़ा जायेगा। बाद में वैंक्य्या ने अटलजी से क्षमा मांगी थी और 2004 के चुनाव में अडवाणीजी के पूर्वकथन को दरकिनार कर दोनों ही नेताओं को आगे रखा गया था।
      2009 का चुनाव आने से पूर्व अटलजी सचमुच ही अस्वस्थ हो गये थे किंतु जब भोपाल अधिवेशन में अडवाणीजी के नेतृत्व का प्रस्ताव आने वाला था तब अटलजी द्वारा लिखा बताया गया एक पत्र कहीं से प्रकट हो गया जिसमें उन्होंने स्वस्थ होकर शीघ्र ही नेतृत्व सम्हालने की बात लिखी थी। बाद में पता चला कि वह पत्र बनावटी था। इस बीच में अडवाणीजी के प्रतिद्वन्दी मुरली मनोहर जोशी ने नेतृत्व के सम्बन्ध में पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में कहा था कि अटलजी के होते हुए अडवाणीजी कैसे नेतृत्व कर सकते हैं। पर संघ ने बीच में पड़कर समझौता करा दिया और 2009 का चुनाव अडवाणीजी को ही प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बना कर लड़ा और हारा गया।
      आडवाणीजी इस समय 84 साल के हैं और अगले आमचुनाव के समय 86 साल के हो जायेंगे। इस बीच अयोध्या में बाबरी मस्जिद ध्वंस का प्रकरण भी किसी परिणति तक पहुँचेगा, इसलिए उनकी जगह लेने का झगड़ा भाजपा में तेज हो गया है। पुरानी पीढी के राष्ट्रीय स्तर के मदनलाल खुराना को रिटायर कर दिया गया है, उम्रदराज गुटविहीन मुरली मनोहर जोशी को कोई उस पद पर देखना नहीं चाहता। वैसे भी दूसरे दलों के नेतृत्व में  नई पीढी आ चुकी है और भाजपा में पद के लिए आतुर युवा नेता और प्रतीक्षा करने के लिए तैयार नहीं हैं। दूसरी पीढी के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं में अटलजी के
लक्ष्मण प्रमोद महाजन को असमय ही मृत्यु का सामना करना पड़ा है, इसलिए अब नेतृत्व सम्हालने के लिए जसवंत सिंह, अरुण जैटली, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार, के साथ राज्य के नेता होते हुए भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुख्यात नरेन्द्र मोदी ही आते हैं। जसवंत सिंह को आरएसएस पसन्द नहीं करती इसलिए बाहर के आदमी माने जाते हैं, उन्हें विपक्ष का नेता पद देने से अलग करने के लिए ही जिन्ना की पुस्तक की कहानी गढी गयी थी। सुषमा स्वराज को सोनिया गान्धी की महिला छवि के मुकाबले खड़ा किया गया था किंतु लोकसभा के लिए उनके पास अपना कोई चुनाव क्षेत्र नहीं है, उन्हें राज्य सभा में भेजा जाता रहा है। उन्होंने लोकसभा के ज्यादातर चुनाव हारे हैं और जब दिल्ली विधानसभा का चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा गया था तो वह भी हारा गया था। इस बार बमुश्किल उन्हें मध्यप्रदेश की अतिसुरक्षित सीट से लोकसभा का चुनाव लड़वा कर सदन में पहुँचाया गया पर इसके साथ यह भी इंतजाम करवा दिया गया था कि कांग्रेस का उम्मीदवार अपना पर्चा ही गलत भर दे जिसके लिए बाद में कांग्रेस ने अपने नामित प्रत्याशी को दण्डित भी किया। सुषमाजी लोकसभा में नेता पद पर आने के बाद प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी होने के सपने देख रही हैं, भले ही अभी से उनके प्रतिद्वन्दियों ने उनकी बात को काटना शुरू कर दिया है जैसा कि सीवीसी के चुनाव पर कांग्रेस द्वारा गलती मान लेने के मामले में हुआ था या कर्नाटक में रेड्डी बन्धुओं को मंत्री बनवाने के मामले में सामने आया था।
      सुषमाजी की तरह ही अरुण जैटली के पास लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए कोई सुरक्षित चुनाव क्षेत्र नहीं है और बातों के धनी वकील होने के नाते वे पार्टी की वकालत करने के लिए राज्यसभा के रास्ते संसद में भेजे जाते रहे। शरद पवार की तरह क्रिकेट से जुड़े होने के कारण उनकी छवि वैसी साफ सुथरी नहीं है जैसी की अब तक देश के प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी की रहती रही है। इस समय वे अपनी क्षमता के शिखर पर हैं जिससे आगे उतार ही आता है, पर वे सुषमा स्वराज के राहे में कांटे बिछा कर अपना रास्ता साफ करने में लगे हैं। उमा भारती से दोनों की टकराहट रही है किंतु सुषमाजी के साथ प्रतियोगी होने के कारण उन्होंने उमाजी के प्रति अपना रुख नरम कर लिया है। वे सुषमाजी की तुलना में वाक्पटु हैं और मौलिक ढंग से सोच सकते हैं जबकि सुषमाजी को दूसरों के ज्ञान और तर्कों की जरूरत पड़ती है।
      अनंत कुमार की अनंत महात्वाकांक्षाएं रही हैं और वे संगठन से लेकर सरकार तक में सक्रिय रहे हैं और जल्दी से जल्दी अधिक से अधिक प्राप्त कर लेने के चक्कर में उन्होंने गल्तियां की हैं। संचार मंत्री के रूप में नीरा राडिया के यहाँ संगीत का आनन्द उठाने वाले अनंत कुमार के दामन पर टू जी मामले के छींटे आने ही वाले होंगे। वैसे भी वे उस क्षेत्र के नेता नहीं हैं जहाँ पर पार्टी का मुख्य आधार है इसलिए उन्हें अपनी पार्टी का ही समर्थन नहीं मिल सकता। जब भी दक्षिण से किसी नेता को भाजपा में शिखर पर प्रतिष्ठित किया गया है वह असफल ही रहा है, चाहे वे वैंकय्या हों, बंगारू लक्ष्मण हों, जे कृष्णमूर्ति हों या कोई और हो। थोपे गये गडकरीजी का नेतृत्व भी सुचारु रूप से नहीं चल रहा और वे अपनी पीठ पर संघ का हाथ होने तक ही नेता हैं।
      और अंत में विख्यात या कुख्यात नरेन्द्र मोदी आते हैं जिन्होंने भले ही गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार करने के आरोप में दुनिया भर की बदनामी झेली हो पर इसी कारण से वे हिन्दू साम्प्रदायिकता से ग्रस्त हो चुके एक वर्ग के नायक भी बन चुके हैं। जो मोदी पहली बार विधानसभा के उपचुनाव में उस सीट के पूर्ववर्ती द्वारा अर्जित जीत के अंतर के आधे अंतर से ही जीत सके हों, पर आज वे गुजरात में सौ से अधिक विधानसभा सीटों या गुजरात की 75% लोकसभा सीटों में से जीत सकने में सक्षम हैं। संयोग से वे जिस राज्य के मुख्यमंत्री हैं वह प्रारम्भ से ही औद्योगिक रूप से विकासशील राज्य रहा है, जिसने मोदी के कार्यकाल में भी अपनी गति बनाये रखी। दूसरी ओर मोदी सरकार पर अपने विरोधियों के खिलाफ गैरकानूनी ढंग से हत्या करवाने तक के आरोप लगे हों, पर आर्थिक भ्रष्टाचार का कोई बड़ा आरोप नहीं लगा। वहाँ तुलनात्मक रूप से प्रशासनिक भ्रष्टाचार की शिकायतें कम हैं जिससे उनकी एक ऐसे प्रशासक की छवि निर्मित हुयी है जिसकी आकांक्षा आम तौर पर नौकरशाही से परेशान जनता करती है। केन्द्रीय सरकार की योजना के अंतर्गत सड़कों के चौड़ीकरण का काम तेजी से हुआ है जिससे प्रदेश के प्रमुख नगर एक ऐसी साफ सुथरी छवि देने लगे हैं जो मध्यम वर्ग को प्रभावित करती है। मोदी वाक्पटु भी हैं और अडवाणीजी की तरह शब्दों को चतुराईपूर्वक प्रयोग करने की क्षमता रखते हैं।
      अडवाणीजी गुजरात के गान्धीनगर से ही चुनाव लड़ते रहे हैं, यह क्षेत्र सिन्धी मतदाता बहुल क्षेत्र है जिनके बीच आशाराम बापू भी समान रूप से लोकप्रय रहे हैं। मोदी ने अडवाणीजी के समर्थन को प्रभावित करने के लिए आशाराम बापू आश्रम के अवैध कामों के खिलाफ कठोर कार्यवाही प्रारम्भ कर दी जिससे उनके बहुसंख्यक सिन्धी भक्त भाजपा से नाराज हो गये हैं।पिछले दिनों गान्धीनगर में पुलिस द्वारा वांछित आशाराम बापू के लड़के को मध्यप्रदेश में शरण दिलवानी पड़ी थी। पार्टी की एकता का नमूना यह है कि एक भाजपा शासित राज्य में वांछित आरोपी दूसरे भाजपा शासित प्रदेश के मुख्यमंत्री से शरण पा लेता है। बिहार के चुनाव में गठबन्धन की दूसरी पार्टी मोदी को अपने यहाँ चुनाव में बुलाये जाने पर गठबन्धन तोड़ देने की धमकी देती है तो लोकसभा में पार्टी की नेता सुषमा स्वराज कहती हैं कि मोदी का जादू केवल गुजरात में ही चलता है। अपने को सीमित किये जाने पर आहत मोदी उनकी हाईकमान से शिकायत करते हैं।                     
      जनता में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो ज्वार उठ रहा है जिसे अन्ना हजारे को सामने रख कर मेग्सेसे पुरस्कार विजेता संचालित कर रहे हैं। इस ज्वार के कारण अनिवार्य हो रही कार्यवाही में भाजपा में से कौन कौन बह जायेगा यह कहा नहीं जा सकता किंतु जो भी बचे रहेंगे वे आपस में ही युद्ध करेंगे। इस युद्ध के विजेता ही पार्टी का नेतृत्व सम्हाल सकेंगे, जिनकी तस्वीर बहुत साफ नहीं है। अमेरिकन कांग्रेस की जिस अध्यन रिपोर्ट में अगला चुनाव राहुल बनाम मोदी के बीच होने की सुर्री छोड़ी गयी है, उससे इस लड़ाई के और तेज होने की सम्भावना है। जिन संजय जोशी की सीडी जगजाहिर करने के आरोप मोदी पर लगे थे वे संजय जोशी फिर से पार्टी में वापिस आ गये हैं जो मोदी का रास्ता सुगम नहीं बनने देंगे। वैसे भी अडवाणीजी तो अभी पूर्ण स्वस्थ और सक्रिय हैं तथा उनकी महात्वाकांक्षाओं का पता उनकी रथयात्राओं से चलता रहता है।   
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, सितंबर 16, 2011

मोदी को जनता की ओर से उनके पत्र का उत्तर

मोदी को जनता की ओर से उनके पत्र का उत्तर

                                                      वीरेन्द्र जैन 
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प्रिय मोदीजी
मुख्यमंत्री गुजरात राज्य
महोदय,
      आपका पत्र मिला।
      आपके ऊपर लगे आरोपों की सुनवाई को सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को यह कहते हुए वापिस कर दिया है कि इसकी सुनवाई वहीं स्थानीय कोर्ट में ही होगी। इस फैसले से आप फूले नहीं समा रहे हैं, यहाँ तक कि आपने अन्ना हजारे की नकल में तीन दिन का उपवास करने की घोषणा भी कर दी है ताकि चर्चा में आपकी ही बात रहे। इसी प्रचार के लिए आपने प्रदेश की जनता के नाम एक पत्र लिख कर उसे देश भर के अखबारों को उपलब्ध करवा दिया है क्योंकि आपके कारनामों की ख्याति न केवल पूरे देश में है अपितु अमेरिका और इंगलेंड तक आपके दर्शन नहीं करना चाहते इसलिए आपको वीजा देने से इंकार कर देते हैं। चूंकि आपने जनता के नाम पत्र लिखा है सो जनता भी आपको उसका उत्तर देना जरूरी समझती है क्योंकि जनता कोई सरकार तो होती नहीं है कि वह पत्रों को दबा कर बैठ जाये और हाँ या ना कुछ भी न कहे।
महाशयजी,
  • इस जनता का कहना है कि उसकी समझ में यह फैसला आपके पक्ष में नहीं अपितु गुजरात के ट्रायल कोर्ट के पक्ष में है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने निष्पक्ष मानते हुए कहा है कि वह सही फैसला करने में सक्षम होगी। पर हमें समझ में नहीं आता कि आपको ऐसा क्यों लग रहा है कि जीत आपकी हुयी है और आप गुजरात कोर्ट से बाइज्जत बरी ही हो जायेंगे। जनता को आशंका है कि ऐसा करके कहीं आप अदालत की मानहानि तो नहीं कर रहे!
  • आपका कहना है कि पिछले दस वर्षों से मुझे और गुजरात को सरकार को बदनाम करना फैशन बन गया था। पर महोदय गोधरा में साबरमती एक्सप्रैस की बोगी संख्या 6 में लगी आग के बाद एक ही समाज के जो तीन हजार लोग मार डाले गये थे, वे क्या आपको और आपके नेतृत्व में चलने वाली सरकार को बदनाम करने के लिए उड़ायी गयी खबर थी या सचमुच ही वैसा हुआ था। एक ही समुदाय के लगभग एक हजार लोगों का नरसंहार तो सरकार ने खुद ही माना है तथा लगभग दो हजार लोगों का अभी तक कोई पता नहीं है। इसके लिए सरकार की कमजोर जाँच और कमजोर अभियोजन के चलते अब तक किसी को कोई सजा नहीं मिली है और हत्यारे खुले आम आतंक फैलाते घूम रहे हैं।
  • उपरोक्त घटना के बाद क्रिया की प्रतिक्रिया का सन्देश आपका ही था और प्रतिक्रिया में एक ही समुदाय के घरों और दुकानों को लूटा गया था उनमें आग लगा दी गयी थी, बलात्कार ही नहीं हुए थे, अपितु पेट फाड़ कर त्रिशूल से गर्भ के बच्चे को निकाल कर भी छेद दिया गया था। अपने घर को बन्द करके छुप गये लोगों के घर में पानी भर के उसमें करेंट छोड़ दिया गया था। इन घटनाओं को कोई कितनी भी विनम्रता से लिखे, पर किसी के भी खिलाफ सजा न पाने से सरकार की नेकनामी तो नहीं हो सकती। हो सकता है कि आप और आपके लोगों पर लगाये गये आरोप गलत हों और गवाहों को निर्भय, तथा सबूतों को निर्दोष मान कर अदालतें आपको मुक्त कर दें किंतु इतनी बड़ी संख्या में एक ही समुदाय के लोगों के नरसंहार के किसी भी अपराधी को सजा नहीं मिलेगी तो जनता केरल के सरकार को दोष देने तो नहीं जायेगी। दोष तो उसी सरकार को दिया जायेगा जिसका नेतृत्व आप कर रहे हैं।
  •  आप इस फैसले से अपने ऊपर लगे आरोपों पर खतरा कम हो जाने की कल्पना से मुदित हैं और सुषमा स्वराज से बधाइयाँ पा रहे हैं पर इस अवसर पर आपको शर्म क्यों नहीं महसूस हो रही कि गुजरात में ये कैसा शासन है कि आपके राज्य में इतने बड़े बड़े नरसंहार भी हो रहे हैं और दस साल तक किसी को सजा भी नहीं मिल रही।
  • आप पर जब भी आँच आती है तब तब आप उसे गर्वीले गुजरात और उसकी पाँच करोड़ जनता की ओट लेकर अपने पाप ढकने की कोशिश करते हैं, पर गोधरा में साबरमती एक्सप्रैस की बोगी नम्बर 6 की आग में मरने वाले दो कार सेवकों समेत 59 लोग ही गुजराती नहीं थे अपितु बाद में मार डाले गये वे तीन हजार लोग भी गुजरात में पैदा हुये थे, गुजराती भाषा बोलते थे। अंतर केवल इतना था कि उनकी पूजा पद्धति और पूजा स्थल कुछ भिन्न थे। पिछले दस सालों में आपको उनका दर्द कभी क्यों नहीं सताया! यहाँ तक कि आपने साबरमती एक्सप्रैस की बोगी नम्बर 6 में मरे लोगों के परिवार वालों को दो लाख और बाकी गुजरात में मिली लाशों के परिवार वालों को एक लाख रुपये मुआवजा देने की घोषणा करके भी शर्म महसूस नहीं की थी।
  • साबरमती एक्सप्रैस की बोगी नम्बर 6 को आग लगाने वाले आक्रोशित लोगों की दृष्टि साम्प्रदायिक नहीं रही होगी क्योंकि बन्द बोगी में किसी भी जाति धर्म के लोग हो सकते थे पर शेष गुजरात में जो लोग मारे गये वे चुन चुन कर एक ही समुदाय के लोग थे। उन्हीं के घर और दुकानें लूटी गयीं थीं। अब आप शांति और सद्भाव का मुखौटा ओढ कर कह रहे हैं कि जनता के लोग आपके विरोधियों की बात का भरोसा नहीं करेंगे। महोदय आप जनता को इतना अन्धा क्यों समझ रहे हैं। वह तंत्र की कमजोरियों के कारण मजबूर हो सकती है, पर इतनी मूर्ख नहीं हो सकती जितना कि आप मान कर चल रहे हैं। क्या अमर सिंह के साथ हुए घटनाक्रम से आपने कोई सबक नहीं लिया है।
     फिर भी आपकी खुशफहमी आपको मुबारक हो। दुष्यंत कुमार ने कहा था-
वे मुतमईन हैं पत्थर पिघल नहीं सकता
                  मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए
आपकी जनता


वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, सितंबर 14, 2011

अडवाणीजी की रथयात्रा- बहुत देर कर दी मेहरवाँ आते आते


अडवाणीजी की रथयात्रा
                     बहुत देर कर दी मेहरवाँ आते आते
                                                             वीरेन्द्र जैन 

      वैसे तो अडवाणीजी पार्टी संगठन या सदन में किसी पद पर नहीं हैं, पर अटलजी को भुला दिये जाने, व मुरली मनोहर जोशी को हाशिये पर कर दिये जाने के बाद वे भाजपा के सुप्रीमो बन गये हैं। अध्यक्ष कोई भी बना रहे पर उनकी उपेक्षा करके भाजपा में कुछ भी नहीं हो सकता। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की इस घोषणा के बाद कि अगले चुनाव में किसी को भी भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश नहीं किया जायेगा, उन्होंने एक बार फिर रथयात्रा निकालने का फैसला किया है और यह रथ यात्रा भ्रष्टाचार के विरोध के नाम पर करेंगे। उल्लेखनीय है कि गत दिनों उज्जैन में आयोजित राष्ट्रीय सवयं सेवक संघ के शिखर मंडल की बैठक में भाजपा नेतृत्व से पूछा गया था कि भ्रष्टाचार के विरोध में जो राष्ट्रव्यापी हलचल अन्ना हजारे ने पैदा की वह भाजपा क्यों नहीं कर सकी। यह रथयात्रा उसी झिड़की का प्रतिफल प्रतीत होती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अन्ना हजारे द्वारा बनाये गये माहौल का राजनीतिक लाभ उठाने की एक और अवसरवादी कोशिश है।
      भाजपा हमेशा ही दूसरों के अभियानों में घुसकर उसकी लोकप्रियता के सहारे अपना श्रंगार करने वाली पार्टी रही है क्योंकि वे जानते हैं कि उनके मूल चेहरे को देश का बहुमत पसन्द नहीं करता इसलिए वे कारवाँ में शामिल होकर उसे ही रास्ते में लूट लेने की नीति पर चलते हैं। स्मरणीय है वे अपने जनसंघ स्वरूप से ही संविद सरकारों के प्रमुख घटक रहे हैं और प्रत्येक संविद सरकार में सम्मलित होने के लिए सदैव आगे रहे हैं। इसी तरकीब से किसी समय के सक्रिय समाजवादी आन्दोलन को अब तक उन्होंने पूरी तरह पचा लिया है और बिना किसी राजनीतिक अभियान के देश में प्रमुख विपक्षी दल बन गये हैं। जनता पार्टी बनने पर उन्होंने झूठमूठ अपनी पार्टी का विलय कर दिया था और बाद में पहचान लिए जाने के बाद वैसे के वैसे समूचे बाहर आ गये थे। वह केन्द्र में देश की पहली गैरकांग्रेसवाद के आधार पर गठित सरकार थी जो इन्हीं की दुहरी सदस्यता के सवाल पर टूटी थी। बाद में 1989 में वीपी सिंह की लोकप्रियता से जुड़ कर इन्होंने उनकी सरकार में सम्मलित होने की भरपूर कोशिश की किंतु बामपंथ के विरोध के कारण इन्हें बाहर रहना पड़ा तो इन्होंने आरक्षण विरोधियों को पिछले रास्ते से मदद करके व रामजन्म भूमि के नाम साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा कर उनकी सरकार गिरवा दी क्योंकि वह सरकार बामपंथ और भाजपा दोनों के सहयोग के बिना नहीं चल सकती थी। दोनों ही स्थितियों में ये लाभ में रहे और लोकप्रिय व्यक्तियों से राजनीतिक सौदा व दलबदल को प्रोत्साहित करते करते सबसे बड़े विपक्षी दल बन गये, जिसके फलस्वरूप इन्हें छह साल केन्द्र में एक गठबन्धन सरकार चलाने का अवसर मिला।
       अपनी पिछली बहुचर्चित रथयात्रा अडवाणीजी ने किसी राजनीतिक मुद्दे पर नहीं निकाली थी अपितु वहीं राम जन्मभूमि मन्दिर बनाने के नाम अयोध्या की ऎतिहासिक बाबरी मस्जिद ध्वंस करने के लिए निकाली थी। इस यात्रा से एक ओर तो लोगों की भावनाओं को उभारने की कोशिश थी तो दूसरी ओर साम्प्रदायिकता भड़का कर धार्मिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश थी। इनके समर्थक सोची समझी रणनीति के अंतर्गत मुसलमानों के खिलाफ उत्तेजित और अपमानजनक नारे लगाते हुए मुस्लिम बस्तियों से यात्रा निकालते थे जिससे टकराव बढता था और दंगे हो जाते थे। इन दंगों और उसके बाद की प्रतिक्रिया में दोनों ही समुदाय के सैकड़ों लोग मारे गये थे जिससे बने गैरराजनीतिक ध्रुवीकरण का इन्हें जबरदस्त लाभ मिला और संसद में इनकी संख्या दो से दोसौ तक पहुँच गयी।
      प्रस्तावित रथयात्रा उसी मानक पर निकालने की भूल है जबकि तब से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है, बहुत से खुलासे हो चुके हैं, लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट आ चुकी है, और परिस्तिथियों में बहुत सारा बदलाव आ गया है।
      इसमें कोई सन्देह नहीं कि नई आर्थिक नीतियां लागू होने के बाद राजनीतिक संरक्षण में प्रशासनिक भ्रष्टाचार बहुत बढ गया है और आम जनता उससे पीड़ित है। इस भ्रष्टाचार में बामपथियों के एक छोटे से हिस्से को छोड़, चुनावों में भरी राशि खर्च करने वाले भाजपा समेत सभी राजनीतिक दल लिप्त हैं। जहाँ जहाँ भाजपा की सरकारें हैं या जहाँ से उनके जनप्रतिनिधि चुने गये हैं वहाँ वहाँ ये भ्रष्टाचार में दूसरे किसी भी दल से पीछे नहीं है। ऐसी दशा में अडवाणीजी की यात्रा भ्रष्टाचार के विरोध में न होकर सीधे सीधे सत्तारूढ दल के खिलाफ एक राजनीतिक अभियान है। यह अभियान इसलिए निष्प्रभावी रहने वाला है क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ दुहरे मापदण्ड अपनाने से इनकी अपील का अन्ना हजारे की अपील से बेहतर असर नहीं होने वाला। इन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव में भी स्विस बैंकों में जमा धन का मुद्दा उछाला था जिसे चुनाव के बाद बिल्कुल ही भुला दिया। अन्ना हजारे तो क्या ये तो बाबा रामदेव के आवाहन से भी पीछे रहे और अब जो कुछ भी करेंगे उसे नकल ही माना जायेगा।
      इस जनसम्पर्क यात्रा का नाम रथयात्रा रखना बिडम्बनापूर्ण है। जो यात्रा पैट्रोल या डीजल वाहन से की जा रही है उसे रथ नहीं कहा जा सकता क्योंकि रथ एक प्राचीन कालीन वाहन होता था जो पशुओं के सहारे चलता था। आखिर क्या कारण है कि वे वाहन शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहते, और उसे रथ कहते हैं। रथ पौराणिक ग्रंथों से निकला शब्द है और हमें उसी काल की याद दिला देता है जिस काल में वे ग्रन्थ रचे गये थे इस तरह रथ कहने से मामला कुछ कुछ धार्मिक सा भी हो जाता है। जब रामजन्म भूमि मन्दिर के लिए यात्रा निकाली थी तब रामलीला के मंच जैसे वाहन के लिए रथ शब्द का प्रयोग कुछ सामंजस्य भी बिठा लेता था पर एक राजनीतिक सामाजिक आन्दोलन के लिए प्रचलित भाषा और प्रतीकों का प्रयोग ही करना होता है। भाजपा का प्रयास देश के इतिहास से मुगलकाल और उस दौर में विकसित भाषा और संस्कृति को बिल्कुल मिटा देना रहा है। वे ताजमहल और कुतुबमीनार जैसी सैकड़ों इमारतों का इतिहास बदल देना चाहते हैं, वे लखनउ को लखनपुर और भोपाल को भोजपाल बना शहरों के नाम बदल देना चाहते हैं, यहाँ तक कि मुगलकाल के संज्ञा, सर्वनाम और क्रियाएं तक को नकारना चाहते हैं, ड्रैस उनके यहाँ गणवेश हो जाती है, और लाठी दंड बन जाती है, स्कूल शिशु मन्दिर बन जाते हैं ताकि उस मन्दिर में गैर हिन्दू झाँकने की भी कोशिश न करें। वे हिन्दी की जगह संस्कृत को जन भाषा बनाना चाहते हैं जो अपने समय में भी केवल पुरोहितों और अभिजात्य की ही भाषा रही है। डीजल/ पैट्रोल वाहन को रथ कहना भी उसी का हिस्सा है, जिसे अब उनके घेरे से बाहर की जनता स्वीकार करने को तैयार नहीं हो सकती।
      अडवाणीजी ने जब पिछली रथयात्रा निकाली थी तब टीवी का केवल एक ही चैनल होता था जो सरकारी था इसलिए वही बात, अलग अलग जाकर कहना पड़ती थी किंतु अब कई सैकड़ा प्राइवेट चैनल अस्तित्व में हैं जो लाइव प्रसारण करके एक साथ पूरे देश तक सन्देश दे सकते हैं। रही सही कसर पाँच करोड़ की संख्या में छपने वाले समाचार पत्र और इंटरनेट पूरी कर सकते हैं, इसलिए रथयात्रा की सफलता के लिए बहुप्रचारित सभाएं भी भीड़ नहीं जुटा सकतीं।
      यदि सचमुच भ्रष्टाचार का विरोध करना है तो उसकी शुरुआत अपने दल से करनी होगी और भ्रष्ट नेताओं को एक साथ निकालकर ही वे विश्वास पैदा कर सकते हैं पर दुर्भाग्य यह है कि उत्तराखण्ड के निशंक को हटाकर दुबारा से खण्डूरी को मुख्य मंत्री बना देने पर राजनाथ सिंह कहते हैं कि निशंक निष्कलंक हैं और उन्हें तो बिना किसी आरोप के बदला गया है। यदि मध्य प्रदेश में कार्यवाही करें तो आधा मंत्रिमण्डल पहले ही दिन बाहर हो जायेगा और संगठन में भी आधे नेता बचेंगे। इसलिए ऐसी कार्यवाही का दिन कभी नहीं आयेगा। हो सकता है कि यह यात्रा किसी बहाने से स्थगित भी हो जाये, क्योंकि नोट फार वोट मामले में उन्होंने खुद ही जिम्मेवारी ले ली है और यात्रा की घोषणा पूरी पार्टी का ध्यान आकर्षित करने का तरीका भर हो, ताकि पूछ ताछ को टाला जा सके।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, सितंबर 05, 2011

जाँच से पहले सन्देही की पक्षधरता के खतरे

                 जाँच से पहले सन्देही की राजनीतिक पक्षधरता के खतरे  
                                                               वीरेन्द्र जैन
      भाजपा और गैर भाजपा राजनीति में एक अंतर यह भी है कि अपनी पार्टी के किसी राजनेता की अनियमितताओं का खुलासा होने पर भाजपा के नेता अपने कुतर्कों से उसका बचाव करने लगते हैं, और कहीं न कहीं उसमें खुद भी संलग्न नजर आने लगते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि भाजपा की राजनीति भावनाओं और छवियों के सहारे चुनाव जीतने की राजनीति है। वे न तो कठोर यथार्थ को सहन कर पाते हैं और न ही अपने उपयोग के लोगों की छवि पर आये छींटों को ही सहन कर पाते हैं।
      भूल किसी से भी हो सकती है और पूंजीवादी समाज के इस फिसलन भरे धरातल पर कोई भी फिसल सकता है। अपनी भूल के लिए उसे दण्ड मिलना ही चाहिए ताकि वह भविष्य में वैसी भूल न दुहराये व दूसरे उसको मिले दण्ड से सबक ले सकें। किसी को दण्ड देने वाली व्यवस्था परोक्ष में अपने आप को भी दण्डित करती है कि उसकी लापरवाही के कारण सम्बन्धित व्यक्ति और गलती की पहचान वे उचित समय पर नहीं कर सकी। गत दिनों भोपाल में शेहला मसूद नामक आर टी आई कार्यकर्ता की दिन दहाड़े हत्या कर दी गयी और हत्यारे इतने निर्भय थे कि यह काम उन्होंने सुबह के दस बजे नगर की एक सम्भ्रांत कालोनी में किया इससे लगता है कि उन्हें अपने संरक्षण का पूरा भरोसा रहा होगा। घटना के कई दिन बाद जब मृतक के मोबाइल के काल डिटेल निकाले गये तो पता चला कि घटना से एक घंटे पहले ही उसने भाजपा के सांसद तरुण विजय से काफी देर बात की थी। आगे की जाँच में यह भी पता चला कि उक्त सांसद से मृतक की गहरी मित्रता रही है व सांसद द्वारा भाजपा शासित राज्यों से अर्जित सहायता से कई परियोजनाएं हाथ में ली गयी थीं जिनका इवेंट मैनेजमेंट शहला द्वारा किया गया था। कहा जाता है कि सरकारी कार्यक्रमों में होने वाले घपले घोटालों से ये कार्यक्रम भी अछूते नहीं थे और शहला के तरुण विजय के साथ वित्तीय सम्बन्ध भी थे। उन्होंने उसके साथ पिछले दिनों स्वित्जरलेंड की यात्रा भी की थी जहाँ के स्विस बैंक और उनमें जमा भारतीयों की अवैध धनराशि इन दिनों देश को आन्दोलित किये हुए है। आर के करंजिया के ब्लिट्ज़ से पत्रकारिता का पाठ पढे तरुण विजय ने दो दशक पहले ही कुल छह हजार रुपये मासिक वेतन पर पाँच्यजन्य की सम्पादकी सम्हाली थी पर गत वर्ष राज्य सभा के लिए पर्चा भरते समय उन्होंने जो अपनी सम्पत्ति घोषित की वह चालीस लाख की सीमा छूती है। इतनी घनिष्ठ मित्र की हत्या के बाद भी उन्होंने संवेदना के दो शब्द कहना और उसके घरवालों को सांत्वना देना जरूरी नहीं समझा। वे जाँच से जनित सूचनाओं के सामने आने तक गुप्त बने रहे। आगे की बहुत सारी बातें एक हत्या के प्रकरण में विस्तृत जाँच का विषय हैं किंतु इस बीच मध्य प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष प्रभात झा का यह कहना कि तरुण विजय भाजपा के प्रवक्ता होने के साथ साथ लेखक भी हैं और जिनकी हत्या हुयी है वे इवेंट मैनेजर भी थीं। इसी सिलसिले में बात हुयी होगी।
       घटना को हल्का करने का यह प्रयास तब और भी गम्भीर मालूम देता है जबकि उनको पूरा ज्ञान रहा होगा कि शेहला ने भाजपा के ही राज्य सभा सदस्य अनिल दवे, जो अविवाहित हैं, और जिनकी कुल घोषित सम्पत्ति दो लाख से भी कम है, से सम्बन्धित एक आर टी आई याचिका लगायी थी जिससे वे नर्मदा नदी से सम्बन्धित परियोजना के लिए उन्हें मिले अनुदान में हुयी सम्भावित गड़बड़ियों को खँगालना चाहती थीं। कहा जा रहा है कि इस जानकारी के दबाव में श्री तरुण विजय मध्यप्रदेश सरकार से अपनी योजनाओं हेतु बड़ी अनुदान राशि स्वीकृत कराना चाहते थे। क्या श्री झा पुलिस या सीबीआई की रिपोर्ट आने तक अपने बयान से रुक नहीं सकते थे! रोचक यह है कि श्री तरुण विजय अब स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए शेहला से घनिष्ठ मित्रता की बात स्वीकार कर चुके हैं।
      यही हाल प्रज्ञा सिंह और दया नन्द पाण्डे आदि से जुड़े खुलासों में भी हुआ। जब निरंतर आतंकवाद के खिलाफ आन्दोलन खड़ा करने के नाम एक वर्ग विशेष के खिलाफ उत्तेजना फैलाने का काम किया जा रहा था तब प्राप्त ठोस संकेतों और सबूतों के आधार पर साधु, साध्वी का भेष धारण किये हुए लोग पकड़ में आये तो भाजपा ने उनके बचाव में उनके बाने को आधार बना कर गफलत फैलाने की कोशिश की। भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष उनसे मिलने गये और भाजपा में सम्मलित होने के लिए प्रतीक्षारत उमा भारती को भी उनसे जेल में मिलने को भेजा। इससे सरकार को कहने को हो गया कि जब हम  आतंकवादियों के खिलाफ काम करते हैं तब वे ही लोग उनके बचाव में आकर जाँच को भटकाने लगते हैं। यदि आरोपी निर्दोष हैं तो क्या अदालत उन्हें सजा दे देगी, जबकि देश में न्याय इस सिद्धांत पर काम कर रहा है कि चाहे निन्नानवे दोषी छूट जायें लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं होना चाहिए। संयोग यह भी रहा कि इसके बाद देश में आतंकी घटनाएं थम गयीं।
      गुजरात में 2002 के नरसंहार से सम्बन्धित जाँचों के बारे में भी ऐसे ही भटकाव पैदा किये गये। नरसंहार के समानांतर गुजरात के औद्योगिक विकास आदि की बातें उछाली गयीं, अडवाणीजी ने उन्हीं दिनों मोदी को देश का सर्वोत्तम मुख्यमंत्री घोषित किया। एक ही समुदाय के तीन हजार लोगों की नृशंश हत्या के बाद जिस सरकार पर मानव अधिकार आयोग, महिला आयोग, अल्पसंख्यक आयोग ने गम्भीर आरोप लगाये व सुप्रीम कोर्ट ने बहुत प्रतिकूल टिप्पणी की, जिस मुख्य मंत्री को अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने वीजा देने से इंकार कर दिया, उसके पक्ष में भाजपा के नेता लाज शर्म छोड़ खुल कर बयान दे रहे थे।
      स्वयं अडवाणी पर जब हवाला काण्ड के आरोप लगे थे, जिसमें बाद में वे सबूतों के अभाव में दोष मुक्त हो गये थे, तब अटल बिहारी वाजपेयी का ये कहना कि अडवाणी जी ने अगर कोई राशि ली होगी तो पार्टी के लिए ली होगी, इतने वरिष्ठ नेता का एक असामायिक और अस्पष्ट बयान था। ऐसा ही बयान उन्होंने दिवंगत प्रमोद महाजन के पुत्र राहुल महाजन द्वारा अपने पिता की हत्या के कुछ ही दिन बाद नार्कोटिक्स के सेवन से जुड़े आरोप के बाद दिया था जिसमें प्रमोद महाजन के पूर्व सचिव की मृत्यु भी हो गयी थी। उन्होंने कहा था कि जवानी में ऐसी भूल हो ही जाती है।       
      विश्व हिन्दू परिषद के नेता दारा सिंह द्वारा एक आस्ट्रेलियन ईसाई मिशनरी फादर स्टेंस को उसके दो मासूम बच्चों के साथ जिन्दा जला देने के मामले में भी संघ परिवार का कोई हाथ न होने की घोषणा तत्कालीन गृह मंत्री अडवाणीजी द्वारा तुरंत कर दी गयी थी जबकि उसके संघ परिवार से जुड़े होने की पुष्टि भी हुयी और बाद में अदालत ने उसे दोषी पाया और सजा दी। दारा सिंह को बचाने के लिए जिन जूदेव ने जी जान एक कर दिया था उन्हें बाद में राज्यसभा के लिए टिकिट देकर नवाजा गया था जबकि इससे पूर्व वे पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं है के डायलाग के साथ कैमरे में कैद हो चुके थे।
      कोई दल बिना पूरी जाँच के अगर अपने दल के किसी आरोपी को बचाने की कोशिश करता है तो वो परोक्ष में पूरे दल को ही उस के घेरे में ला देता है। भाजपा को यह बात कब समझ में आयेगी!
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, सितंबर 04, 2011

सामाजिक परिवर्तन की संकेतक एक और महत्वपूर्ण फिल्म -बोल

     सामाजिक परिवर्तन की संकेतक एक और महत्वपूर्ण फिल्म बोल
                                                             वीरेन्द्र जैन
      हिन्दी के बहुत महत्वपूर्ण कवि कथाकार उदय प्रकाश की एक कविता है-
मर जाने के बाद आदमी
कुछ नहीं सोचता
मर जाने के बाद आदमी
कुछ नहीं बोलता
कुछ नहीं सोचने और
कुछ नहीं बोलने से
आदमी मर जाता है।

      पिछले चार दशक तक वह सिनेमा बाक्स आफिस पर पिटता रहा था जिसे कलात्मक, समानांतर, आफबीट या सार्थक सिनेमा जैसा ही कुछ नाम दिया जा सकता है, यह आम आदमी की जिन्दगी और उस जिन्दगी की पेचीदगियों को उजागर करने वाला सिनेमा है। हिन्दी में श्याम बेनेगल के बाद आये आमिरखान ने जिस तरह से फिल्में बनायी हैं वे न केवल जनता को सम्वेदनशीलता के साथ जागरूक बनाती हैं, अपितु बाक्स आफिस पर भी सफल होती हैं। जब कोई फिल्म अपनी लागत निकाल लेती है और उसे प्रशंसा व पुरस्कार मिलते हैं तो उसे इस दिशा में और आगे जाने का उत्साह मिलता है। जहाँ हमारे देश में रंग दे बसंती, तारे जमीं पर, थ्री ईडियट, पीपली लाइव, चक दे इंडिया, नो वन किल्लड जेसिका, स्वदेश, आदि फिल्में आयीं तो फिल्म जगत को वापिस राजकपूर, और गुरुदत्त का जमाना याद आ गया, जब सामाजिक चेतना की फिल्में बनायी जाती थीं। हमारे देश के सहोदर पाकिस्तान में भी जहाँ इन दिनों धार्मिक कट्टरवाद प्रति दिन खून की होली खेल रहा है वहाँ शोएब मंसूर ने खुदा के लिए जैसी श्रेष्ठ फिल्म बनाने के बाद बोल बना कर दुनिया भर की प्रशंसा बटोरी है।
      इस फिल्म में विभाजन के बाद पाकिस्तान गये एक हकीम जो कट्टर धार्मिक भी हैं, कठमुल्लावाद के शिकार होकर पुत्र प्राप्ति के चक्कर में निरंतर आठ बेटियां पैदा करते जाते हैं और उनकी नवीं संतान तीसरे जेंडर में पैदा होती है जो न निगलते बनती है और न उगलते। वे उसे मार देने तक का विचार मन में लाते हैं पर परिवार के कारण उसे बड़ा करना पड़ता है। जब गरीबी का शिकार होकर उसकी यह संतान जिसे वे छुपा कर रखते हैं चोरी से काम पर जाती है तो उसके साथ जो हादसा होता है उसकी शर्म से बचने के लिए वे उसकी हत्या कर देते हैं। इस अपराध से बचने में उन्हें और उनके परिवार को बड़े अर्थ संकट से गुजरना पड़ता है और उनकी बेटियां विद्रोहिणी हो जाती हैं। सदैव चुप और आतंकित रहने वाली ये बेटियां जब बोलने लगती हैं तब ही वे अपना अस्तित्व बचा पाती हैं। फिल्म में  धर्मान्धता और सामाजिक यथार्थ के बीच कंट्रास्ट दिखाया गया है जिसमें पड़ोसी ने समझदारी से अपना परिवार नियंत्रित रख कर अपने घर में खुशियां बोयी हैं व वे लोग ही इस परिवार को संकट से उबारते हैं।
      गत दिनों हंस में प्रकाशित होने वाले शीबा असलम फहमी के कुछ लेखों के बारे में दिल्ली के एक पत्रकार मित्र अनीस अहमद खान से मेरी बात हो रही थी तो उनका कहना था कि समाज को ये बहुत गलतफहमी है कि मुस्लिम समाज में सारे लोग ही कूड़मगज ही होते हैं और वहाँ प्रगतिशील चेतना काम नहीं कर रही। आज दुनिया छोटी हो गयी है और मुस्लिम समाज में भी नौजवानों का हिस्सा सवाल खड़े करके प्रगतिशील समाज में आ रहा है। पाकिस्तान में फिल्म खुदा के लिए के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति मुशर्रफ ने सहयोग किया था और इस फिल्म को भी लाहौर के नेशनल स्कूल आफ आर्ट के फिल्म डिवीजन के छात्रों ने भरपूर मदद की है। ये दोनों ही फिल्में पाकिस्तान में उग्रवादियों की धमकी के बाबजूद व्यावसायिक रूप से भी सफल हुयी हैं जो समाज की पसन्दगी का संकेत देती हैं।
      यह फिल्म जितना पाकिस्तानी समाज पर लागू होती है उतनी ही हिन्दुस्तानी समाज पर भी लागू होती है। भले ही कहानी का स्थान नाम के लिए लाहौर है, पर उसे दिल्ली या भोपाल भी कहा जा सकता है। अनियंत्रित ढंग से बच्चे पैदा करके अपनी गरीबी को न्योतने का काम केवल मुस्लिम समाज का पिछड़ा हुआ हिस्सा ही नहीं कर रहा अपितु अपने को राष्ट्रवादी कहने वाले एक हिन्दूवादी संगठन के प्रमुख ने भी बिना उनके जीवन यापन का उपाय बताये हिन्दुओं को चार चार बच्चे पैदा करने का आवाहन किया था।
      अंतर्वस्तु पहले बदलती है और उसके बाह्य परिणाम बाद में सामने आते हैं। इन फिल्मों के सफल होने से समाज के अन्दर ही अन्दर एक हलचल के संकेत मिल रहे हैं। इस फिल्म के शीर्षक में एक आवाहन भी है जो, बोल कि लव आजाद हैं तेरे, बोल मजूरा हल्ला बोल, से लेकर जोर से बोलो दिल्ली ऊंचा सुनती है की ध्वनियां भी नजर आती हैं।
वीरेन्द्र जैन
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