रविवार, सितंबर 04, 2011

सामाजिक परिवर्तन की संकेतक एक और महत्वपूर्ण फिल्म -बोल

     सामाजिक परिवर्तन की संकेतक एक और महत्वपूर्ण फिल्म बोल
                                                             वीरेन्द्र जैन
      हिन्दी के बहुत महत्वपूर्ण कवि कथाकार उदय प्रकाश की एक कविता है-
मर जाने के बाद आदमी
कुछ नहीं सोचता
मर जाने के बाद आदमी
कुछ नहीं बोलता
कुछ नहीं सोचने और
कुछ नहीं बोलने से
आदमी मर जाता है।

      पिछले चार दशक तक वह सिनेमा बाक्स आफिस पर पिटता रहा था जिसे कलात्मक, समानांतर, आफबीट या सार्थक सिनेमा जैसा ही कुछ नाम दिया जा सकता है, यह आम आदमी की जिन्दगी और उस जिन्दगी की पेचीदगियों को उजागर करने वाला सिनेमा है। हिन्दी में श्याम बेनेगल के बाद आये आमिरखान ने जिस तरह से फिल्में बनायी हैं वे न केवल जनता को सम्वेदनशीलता के साथ जागरूक बनाती हैं, अपितु बाक्स आफिस पर भी सफल होती हैं। जब कोई फिल्म अपनी लागत निकाल लेती है और उसे प्रशंसा व पुरस्कार मिलते हैं तो उसे इस दिशा में और आगे जाने का उत्साह मिलता है। जहाँ हमारे देश में रंग दे बसंती, तारे जमीं पर, थ्री ईडियट, पीपली लाइव, चक दे इंडिया, नो वन किल्लड जेसिका, स्वदेश, आदि फिल्में आयीं तो फिल्म जगत को वापिस राजकपूर, और गुरुदत्त का जमाना याद आ गया, जब सामाजिक चेतना की फिल्में बनायी जाती थीं। हमारे देश के सहोदर पाकिस्तान में भी जहाँ इन दिनों धार्मिक कट्टरवाद प्रति दिन खून की होली खेल रहा है वहाँ शोएब मंसूर ने खुदा के लिए जैसी श्रेष्ठ फिल्म बनाने के बाद बोल बना कर दुनिया भर की प्रशंसा बटोरी है।
      इस फिल्म में विभाजन के बाद पाकिस्तान गये एक हकीम जो कट्टर धार्मिक भी हैं, कठमुल्लावाद के शिकार होकर पुत्र प्राप्ति के चक्कर में निरंतर आठ बेटियां पैदा करते जाते हैं और उनकी नवीं संतान तीसरे जेंडर में पैदा होती है जो न निगलते बनती है और न उगलते। वे उसे मार देने तक का विचार मन में लाते हैं पर परिवार के कारण उसे बड़ा करना पड़ता है। जब गरीबी का शिकार होकर उसकी यह संतान जिसे वे छुपा कर रखते हैं चोरी से काम पर जाती है तो उसके साथ जो हादसा होता है उसकी शर्म से बचने के लिए वे उसकी हत्या कर देते हैं। इस अपराध से बचने में उन्हें और उनके परिवार को बड़े अर्थ संकट से गुजरना पड़ता है और उनकी बेटियां विद्रोहिणी हो जाती हैं। सदैव चुप और आतंकित रहने वाली ये बेटियां जब बोलने लगती हैं तब ही वे अपना अस्तित्व बचा पाती हैं। फिल्म में  धर्मान्धता और सामाजिक यथार्थ के बीच कंट्रास्ट दिखाया गया है जिसमें पड़ोसी ने समझदारी से अपना परिवार नियंत्रित रख कर अपने घर में खुशियां बोयी हैं व वे लोग ही इस परिवार को संकट से उबारते हैं।
      गत दिनों हंस में प्रकाशित होने वाले शीबा असलम फहमी के कुछ लेखों के बारे में दिल्ली के एक पत्रकार मित्र अनीस अहमद खान से मेरी बात हो रही थी तो उनका कहना था कि समाज को ये बहुत गलतफहमी है कि मुस्लिम समाज में सारे लोग ही कूड़मगज ही होते हैं और वहाँ प्रगतिशील चेतना काम नहीं कर रही। आज दुनिया छोटी हो गयी है और मुस्लिम समाज में भी नौजवानों का हिस्सा सवाल खड़े करके प्रगतिशील समाज में आ रहा है। पाकिस्तान में फिल्म खुदा के लिए के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति मुशर्रफ ने सहयोग किया था और इस फिल्म को भी लाहौर के नेशनल स्कूल आफ आर्ट के फिल्म डिवीजन के छात्रों ने भरपूर मदद की है। ये दोनों ही फिल्में पाकिस्तान में उग्रवादियों की धमकी के बाबजूद व्यावसायिक रूप से भी सफल हुयी हैं जो समाज की पसन्दगी का संकेत देती हैं।
      यह फिल्म जितना पाकिस्तानी समाज पर लागू होती है उतनी ही हिन्दुस्तानी समाज पर भी लागू होती है। भले ही कहानी का स्थान नाम के लिए लाहौर है, पर उसे दिल्ली या भोपाल भी कहा जा सकता है। अनियंत्रित ढंग से बच्चे पैदा करके अपनी गरीबी को न्योतने का काम केवल मुस्लिम समाज का पिछड़ा हुआ हिस्सा ही नहीं कर रहा अपितु अपने को राष्ट्रवादी कहने वाले एक हिन्दूवादी संगठन के प्रमुख ने भी बिना उनके जीवन यापन का उपाय बताये हिन्दुओं को चार चार बच्चे पैदा करने का आवाहन किया था।
      अंतर्वस्तु पहले बदलती है और उसके बाह्य परिणाम बाद में सामने आते हैं। इन फिल्मों के सफल होने से समाज के अन्दर ही अन्दर एक हलचल के संकेत मिल रहे हैं। इस फिल्म के शीर्षक में एक आवाहन भी है जो, बोल कि लव आजाद हैं तेरे, बोल मजूरा हल्ला बोल, से लेकर जोर से बोलो दिल्ली ऊंचा सुनती है की ध्वनियां भी नजर आती हैं।
वीरेन्द्र जैन
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