सोमवार, सितंबर 27, 2010

ऊपर वाले से कुछ नहीं होगा नीचे वालों के साथ आइये


इस ऊपर वाले से कुछ नहीं होगा नीचे वालों के साथ आइये
वीरेन्द्र जैन
मेरे एक मित्र पिछले दिनों छह महीने के लिए अपनी बेटी दामाद के पास लन्दन में रहे। वहाँ के प्रवास पर अपने संसमरणों में उन्होंने बताया कि अखबारों में चर्च भवनों की बिक्री के बारे में आये दिन विज्ञापन छपते रहते हैं। इसी सन्दर्भ में उन्होंने एक लतीफा भी सुनाया-
एक चर्च के पादरी को जब लगा कि लोगों ने चर्च में आना कम कर दिया है, तो उन्होंने चर्च के ग्लास डोर पर लिख दिया कि अगर आप पाप से ऊब गये हों तो कृपया हमारे चर्च में पधारें। अगले दिन उस के नीचे लिपिस्टिक से लिखा मिला कि अगर आप नहीं ऊबे हों तो फोन नम्बर 9889978562 पर फोन करें।
मुझे भी लगता है कि मन चाही मुराद पूरी करने, नौकरी संतान आदि माँगने वालों, धन और स्वास्थ चाहने वालों की भीड़ जो धर्म स्थलों पर धक्के खाती फिरती है और आये दिन कुचली जाती है, के लिए एक ऐसा ही विज्ञापन दूं कि अगर आप धर्मस्थलों पर माथा घिसते घिसते खुद ही घिस गये हों और तब हू दीन दयाल के कानों में भनक नहीं पड़ रही हो तो जन संघर्षों से अपना अधिकार माँगने वालों के किसी मंच पर आयें और अपने हक के लिए संघर्ष करें। नौकरी उतनों को ही मिलती है जितनी जगहें होती हैं और वे प्रचलित व्यवस्था के अनुसार उन्हें भी मिलती रहती हैं जो कहीं मत्था घिसने नहीं जाते या जो आपके आराध्य के अलावा दूसरे आराध्यों के यहाँ भी मत्था रगड़ते हैं। यदि मत्था घिसने के कारण मिल रही हो तो सबको मिलना चाहिए थी और उन्हें तो बिल्कुल भी नहीं मिलना चाहिए थी जो कहीं नहीं जाते।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

रविवार, सितंबर 26, 2010

उस फोड़े की पीड़ा जो नहीं फूटा


उस फोड़े की पीड़ा जो नहीं फूटा

वीरेन्द्र जैन
फोड़ा शरीर में कहीं पर भी हो वह दर्द करता है। डाक्टर पहले कोशिश करता है कि फोड़ा दवाइयों से सूख जाये, इसलिए वह नाम बदल बदल कर दवाइयां लिखता रहता है। जब दवाइयों से फोड़ा ठीक नहीं होता तब उसकी शल्य चिकित्सा करनी होती है। शल्य चिकित्सा में मवाद निकल जाता है, कुछ रक्त भी बहाना पड़ता है, पर ठीक होने की सम्भावनाएं बढ जाती हैं। फोड़ा जब तक नहीं फूटता तब तक तकलीफ देता है। एक बार जी कड़ा कर के शल्य चिकित्सा के लिए तैयार होते ही उसकी जुगुप्सापूर्ण कार्यवाही के सम्पन्न हो जाने के बाद बहुत आराम मिलता है।
लगभग ऐसा ही अनुभव 24 सितम्बर 10 को पूरा देश अनुभव कर रहा था। अयोध्या के राम जन्मभूमि मन्दिर और बाबरी मस्जिद की जमीन के मालिकाना हक का विवाद गत साठ वर्षों से अदालत में लम्बित था किंतु उसके फैसले की तिथि पास आते आते संघ परिवारियों को अपने पक्ष के कमजोर होने का अहसास होने लगा और वे फैसला आने से पहले ही से कहने लगे थे कि यह आस्था का सवाल है और आस्था के सवालों का हल अदालत से नहीं हो सकता। वे सरकार से माँग करने लगे थे कि वह उनका पक्ष ले और उनके पक्ष में नया कानून बनाये। वे यह सब यह जानते हुए भी कह रहे थे कि संसद में कानून कैसे बनते हैं और उसके लिए कितने सदस्यों का समर्थन चाहिए होता है तथा इस मुद्दे पर उनके साथ कितने सांसद हैं। परोक्ष में यह शांति के लिए सौदेबाजी थी। संघ परिवार के राजनीतिक दल भाजपा को पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 16% मत मिले थे। ये मत भी उन्हें अकेले हिन्दुत्व के नाम पर नहीं अपितु शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, स्मृति ईरानी, दारा सिंह, धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी, नवजोत सिंह सिद्धु, दीपिका चिखलिया, अरविंद त्रिवेदी, वसुन्धरा राजे, यशोधरा राजे, आदि आदि आदि तरह तरह से लोकप्रिय माडलों द्वारा जुटायी गयी भीड़ के चुनाव प्रचार के आधार पर अनेक दलों के साथ गठबन्धन बना के बटोरे गये थे। साठ साल तक मुकदमा लड़ने के बाद, मुकदमे का फैसला आने के करीब यह माँग कितनी हास्यास्पद है कि अदालत से फैसला नहीं हो सकता और सरकार को इकतरफा उनके पक्ष में कानून बना कर विवादित जमीन उन्हें सौंप देना चाहिए। यदि आस्था का सवाल भाजपाई हिन्दुओं के लिए है, तो यह मुसलमानों, बौद्धों, जैनों आदि के लिए क्यों नहीं है? सुना तो यह भी गया है कि कुछ शैव, और शाक्त भी सामने आकर उस जमीन पर वैष्णवों के मालिकाना हक को चुनौती दे सकते हैं। अम्बेडकरवादी भी कह रहे हैं कि 6 दिसम्बर का दिन उन्होंने इसलिए चुना था क्योंकि उस दिन बाबा साहब का निर्वाण दिवस है और सवर्ण जातियों की पार्टियां सारे देश का ध्यान बाबा साहब पर केन्द्रित नहीं होने देना चाहती थीं।
इस विविधिता वाले देश में अलग अलग काल खण्डों में भिन्न भिन्न संस्कृतियां रही हैं और उन पर भिन्न भिन्न पूजा पद्धतियों वाले लोग अपनी अपनी पूजा उपासना करते रहे हैं। कभी विचार परिवर्तन से तो कभी राजतंत्र में राज्य की ताकत से भी लोगों की पूजा पद्धतियां और पूजा स्थलों के स्वरूप भी बदलते रहे हैं। इतिहास और पुरातत्व गवाह है कि कितने हजार बौद्ध मन्दिरों और मठों को ध्वस्त कर के हिन्दू मन्दिरों में बदल दिया गया है। दक्षिण के एक सुप्रसिद्ध शिव मन्दिर की पिण्डी भी एक बौद्ध शिलालेख को काट कर स्थापित की गयी है। इसलिए यदि किसी काल में किसी स्थल पर किसी धर्म विशेष का पूजा स्थल रहा भी हो और बाद में वह बदला भी गया हो तो भी उसके मालिकाना हक का फैसला एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायालय से ही सम्भव है जिसके निर्णय को सभी को मानना चाहिए। अब राजतंत्र के बर्बर युग में फिर से तो लौटा नहीं जा सकता जहाँ त्रिशूल, लाठी, भालों के आधार पर फैसला हो। यदि कोई ऐसा करने की कोशिश करेगा तो आश्चर्य नहीं कि बन्दूकें, बम और आणविक हथियार पूरे देश का वैसा ही नुकसान करें जैसा पाकिस्तान में हो रहा है।
स्मरणीय है कि 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद अडवाणीजी ने संसद में कहा था कि बाबरी मस्जिद का टूटना उनके लिए सबसे दुख का दिन था तथा वे उन लोगों को रोक रहे थे जो मस्जिद तोड़ रहे थे किंतु मराठी भाषी होने के कारण वे हमारी भाषा समझ नहीं सके। बाद में उन्होंने यह भी कहा था कि लोगों का गुस्सा इसलिए फूट पड़ा क्योंकि अदालत ने फैसले को इतने अधिक समय तक लटका कर रखा। वही आडवाणीजी फैसले को सुनाने की तारीख तय होने के बाद कहने लगे कि यह आस्था का सवाल है और इसका फैसला अदालत से नहीं हो सकता। जब एक से अधिक आस्थाएं टकरा रही हों और एक धर्म निरपेक्ष देश में कानून बनाने वाली शक्तियाँ किसी एक आस्था के पक्ष में न हों तब फैसले का अदालत के अलावा दूसरा रास्ता केवल हिंसा का ही रास्ता होता है। जो लोग भी अदालत के फैसले को अमान्य कर रहे हैं वे परोक्ष में हिंसा का समर्थन कर रहे हैं। सवाल यह है कि इस हिंसा का परिणाम क्या होगा और क्या देश इस हिंसा के लिए तैयार है? आतंकवादियों ने देश में जगह जगह बम विस्फोट करके जो निरपराध लोगों को मारा था और मडगाँव बम विस्फोट की योजना बनायी थी जो अपने ही धर्म के लोगों को मारकर उन्हें हिंसा के लिए उकसाने की थी, तो क्या देश के लोग उत्तेजित हुए थे? यह साफ संकेत थे कि लोग हिंसा और हिंसा फैलाने वाले लोगों को पसन्द नहीं करते, तथा लाख भड़काने के बाद भी वे शांति और कानून के रास्तों को पसन्द करते हैं। आज देश यह भी जानता है कि सरकार के पास किसी भी संगठन से अधिक हिंसक ताकत होती है,और हिंसा को लम्बा नहीं खींचा जा सकता। देश में लाखों की संख्या में वैध और उससे भी कई गुना अवैध धर्मस्थल बने हैं जिन्हें सुप्रीम कोर्ट के आदेश और फटकार के बाद भी अभी तक हटाया नहीं जा सका है। ऐसी अवस्था में यह कहना कि अयोध्या में सरकार मन्दिर नहीं बनने देना चाहती हास्यास्पद है। राजनीति के लिए अफवाह फैलाने वालों ने राम जन्मभूमि मन्दिर विवाद को राम जन्मभूमि विवाद कह कर प्रचारित किया है। राम जन्मभूमि मन्दिर एक मन्दिर की पहचान के लिए विशिष्ट नाम है इससे यह कहीं तय नहीं होता कि राम का जन्म इसी स्थल पर हुआ था। अयोध्या में राम का विशाल मन्दिर बनने के लिए कौन मना कर सकता है! किंतु जब मामला वोटों के लिए बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों में ध्रुवीकरण का बना दिया जाये और केवल विवादित मन्दिरों पर संघर्ष उकसाने को धर्म बताया जाने लगे तो बात दूसरी हो जाती है। यह सवाल क्यों है कि यह भव्य मन्दिर बिल्कुल उसी स्थान पर बनना चाहिए जहाँ बाबरी मस्जिद बनी हुयी थी। स्मरणीय है कि मुम्बई के एक आर्कीटेक्ट ने कहा था कि वह ऐसी डिजायन बना सकता है जिसमें मस्जिद भी खड़ी रहे और उसके ऊपर या भूमिगत मन्दिर भी बन जाये तो भी विवाद बढाने में ही अपना लक्ष्य देखने वालों ने कहा था कि हमें तो बिल्कुल उसी स्थल पर मन्दिर चाहिए और वह भी मस्जिद को हटा कर।
पता नहीं ये राजनेता यह क्यों नहीं समझ रहे हैं कि यह सोलहवीं शताब्दी तो क्या 1992 भी नहीं है और आज मीडिया की ताकत ने पारदर्शिता को इतना बढाया है कि अब षड़यंत्रों को कूटनीति नहीं अपितु अपराध माना जाने लगा है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

गुरुवार, सितंबर 23, 2010

दहशत के समय में आशंकाओं के भूत


दहशत के समय में आशंकाओं के भूत
22 सितम्बर की रात में तीन बजे शोर से आँख खुल गयी। बालकनी में बाहर निकला तो “जय श्री राम” का सम्मिलित घोष और शंख ध्वनि जैसी आवाजें सुनायी दीं। दरवाजा खोल कर सडक तक बाहर आया तो पाया कि गणेश विसर्जन करके लौटे किशोर जय श्री राम के घोष के साथ लौट रहे थे और उनके पास ऐसी पीपियाँ थीं जिनमें से शंख से मिलती जुलती ध्वनि निकलती थी। किसी ने बड़े शातिराना ढंग से गणेश विसर्जन कर लौट रहे उन किशोरों को वे पीपियाँ और गणपति बप्पा मोरिया की जगह जय श्री राम का नारा दे दिया था।
साठ वर्ष से लटके फैसले को घोषित किये जाने की तिथि का संयोग भी क्या विचित्र है। किंतु तिथि कोई भी हो हमारे यहाँ हिन्दू मुस्लिम सब मिलाकर इतने ज्यादा त्योहार हैं कि कोई भी तिथि कहीं न कहीं त्योहारों से जुड़ ही जाती और उनकी आड़ में भीड़ की सामूहिकता में भ्रम पैदा करने का काम समाज विरोधी शक्तियाँ करने की कोशिश करतीं। जब तक धर्मनिरपेक्ष ताकतें साम्प्रदायिक ताकतों से मजबूत नहीं होंगी समाज में भय का वातावरण कभी भी बन सकता है।

शुक्रवार, सितंबर 17, 2010

.........दंगा होगा कि नहीं ?


...................दंगा होगा कि नहीं?
वीरेन्द्र जैन
कहा जाता है कि सट्टा खेलने वाले इस बात पर भी लाखों रुपयों का सट्टा लगा लेते हैं कि तय तिथि को दंगा होगा कि नहीं, और अपने दाँव को जीतने के लिए वे दंगा कराने वाली दोनों तरफ की ताकतों को यथा सम्भव मदद करते हैं ताकि वे लागत से ज्यादा कमा सकें। सत्ता का सट्टा खेलने वाले राजनीतिक दल भी अपनी जीत के लिए ऐसे ही प्रयास करते रहते हैं व सीधे सरल धर्मान्ध उनके जाल में फँसते रहते हैं।
राम जन्म भूमि व बाबरी मस्जिद भूमि विवाद से सम्बन्धित गत साठ वर्षों से चल रहे मुकदमे का फैसला सुनाया जाने वाला है जिसके आने से पहले ही देश के वे सारे राज्य जहाँ जहाँ संघ परिवार की प्रभावी उपस्तिथि है, दंगों की आशंकाओं से भर गये हैं। उत्तर पश्चिम व मध्य भारत के कुछ राज्यों में संघ सबसे अधिक सक्रिय और विध्वंसक क्षमताओं वाले संगठनों का नियंत्रक संगठन है। 1984 के चुनावों में जब उनकी राजनीतिक संस्था भाजपा लोकसभा की कुल दो सीटें जीत सकी थी तब सत्ता में आने के लिए इसने राम जन्म भूमि मन्दिर व बाबरी मस्जिद भूमि विवाद को राजनीतिक मुद्दा बना कर जनता के बीच पेश किया, जबकि वे 1967 में उत्तर प्रदेश में और 1977 में केन्द्र की सत्ता में भागीदार रहे थे पर तब इन्हें कभी राम जन्म भूमि मन्दिर की याद नहीं आयी थी। इसके लिए भाजपा के दो वरिष्ठ नेताओं में से एक लाल कृष्ण आडवाणी एक मिनि ट्रक डीसीएम टोयटा को रथ का नाम देकर व उस पर अपने दल का चुनाव चिन्ह कमल का फूल पेंट करा के देश भर की यात्राओं पर निकल पड़े थे और अपने उत्तेजक भाषणों से अपने पीछे पीछे रक्त रंजित राह बनाते चले थे। जब एक ओर से हमला प्रारम्भ होता है तो सरकारी न्याय से उम्मीद न रखने वाले लोग उसकी प्रतिक्रिया भी करते हैं जो दंगों में परिवर्तित होता जाता है।
राजनीतिक रूप से चुनावों में पराजित होंने पर भाजपा इस विश्वास के अनुसार काम करती है कि जब भी जनता का अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच ध्रुवीकरण होता है तो राजनीतिक चेतना विहीन क्षेत्र में उसका लाभ बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता करने वाले दल को मिलता है। उक्त क्षेत्रों में धर्म निरपेक्षता केवल एक आदर्श भर है और साम्प्रदायिकताओं से टकराने लायक संगठनात्मक जुझारू ताकत धर्म निरपेक्षता के पक्षधर दलों के पास नहीं है। बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता इसी स्तिथि का लाभ उठाने के प्रयास में रहती है। [जहाँ यह ताकत है वहाँ साम्प्रदायिकता सफल नहीं हो पाती और उसका प्रयोग करने वाले राजनीतिक दल सफल नहीं हो पाते]। सन 1989 के बाद से भाजपा परिवार का विस्तार इसी तरकीब से हुआ है और अब यह उसके लिए आजमाई हुयी तरकीब हो गयी है।
हिंसक भीड़ को उकसा कर बाबरी मस्जिद तुड़वाये जाने की जब दुनिया भर में निन्दा हुयी तब श्री आडवाणी ने कहा था कि यह घटना इसलिए हुयी क्योंकि सम्बन्धित विवाद का फैसला इतने अधिक समय से लम्बित रहा है जिससे लोगों का सब्र टूट गया और इसका परिणाम उक्त भवन के ध्वंस में सामने आया। किंतु अब जैसे जैसे उसके फैसले के दिन नजदीक आते गये वैसे वैसे संघ परिवार के बयान आते गये कि यह आस्था का मामला है और आस्था का फैसला अदालत से नहीं हो सकता। फैसला आने से पहले ही उन्होंने 16 अगस्त से धर्म की ओट लेकर पूरे उत्तर भारत के हनुमान मन्दिरों में हनुमत जागरण के नाम पर लोगों को एकत्रित करके अपनी ताकत को आंकने के प्रयास प्रारम्भ कर दिये। उनकी तैयारियाँ कैसी हैं इसका अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश ने अपने सारे आईएएस आईपीएस अधिकारियों की छुट्टियां रद्द करने के बाद भी केन्द्र से सी आर पी एफ की छह सौ से अधिक कम्पनियां मांगी हैं। दूसरी ओर भाजपा शासित मध्य प्रदेश ने भी अपने अधिकारियों की छुट्टियां रद्द करने के बाद केन्द्र से अधिक से अधिक कम्पनियां शायद इसलिए भी मांगी हैं ताकि दूसरे राज्यों को समुचित संख्या में आवश्यक फोर्स न मिल सके। दूसरी तरफ आडवाणी ने एक बार फिर प्रधान मंत्री प्रत्याशी बनने की उम्मीद में भले ही इस विषय पर होंठ न खोलने की रणनीति अपना रखी हो किंतु परिवार के शेष नेता लगातार अदालत का अपमान सा करते हुये बयान दे रहे हैं। इस पार्टी ने 18-19 सितम्बर को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलवायी है और इसके एक दिन पूर्व पार्टी महा सचिवों की बैठक होगी।
• इन्दौर में संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक ने कहा है कि यदि हमारे पक्ष में फैसला नहीं आया तो 26 सितम्बर को भारत बन्द का आवाहन किया जायेगा और 25 सितम्बर को पूरे देश में चक्का जाम किया जायेगा। यदि पक्ष में फैसला आया तो दीवाली मनेगी [ अर्थात अल्पसंख्यकों के खिलाफ उत्तेजित करने वाली घटनाएं होंगीं]। इन्दौर में ही भगवा ब्रिग्रेड में हिन्दू योद्धा भरती के लिए हजारों पोस्टर लगाये गये हैं।
• अशोक सिंघल कहते हैं कि कोर्ट से चाहे जो कुछ भी फैसला हो लेकिन अयोध्या में राम मन्दिर बनना चाहिए और सरकार को इस बाबत संसद में कानून बनाना चाहिए [गोया समस्या अयोध्या में राम मन्दिर बनाने की हो जबकि समस्या तो ठीक “उसी स्थान” पर राम मंदिर बनाने की बनायी गयी थी जहाँ पर बाबरी मस्जिद बनी हुयी थी, ताकि मुसलमानों से टकराव करने को एक धार्मिक रूप देकर बहुसंख्यकों की भावनाओं को भड़काया जा सके।]
• कल्याण सिंह भी यही बात दुहराने लगे हैं। वे आडवाणी की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि जिन्हें 6 दिसम्बर 1992 की घटना पर शर्म आती हो वे नदी में जाकर डूब मरें, मुझे तो कोई शर्म नहीं है।
• विनय कटियार कहते हैं कि आस्था और विश्वास जैसे संवेदनशील विषयों का समाधान अदालत में नहीं किया जा सकता। विहिप के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुरेन्द्र जैन कहते हैं कि विहिप को पूरे देश में कहीं भी बाबरी मस्जिद मंजूर नहीं है।
• विहिप के आचार्य धर्मेन्द्र ने कहा है कि यदि फैसला हिन्दुओं के प्रतिकूल होगा तो वे उसे नहीं मानेंगे [ जैसे वे पूरे देश के हिन्दुओं के प्रवक्ता हों]
• इस मुकदमे के पक्षकार निर्मोही अखाड़े के 82 वर्षीय भाष्कर दास ने कहा यदि फैसला उनके पक्ष में नहीं आया तो वे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे।
यह सब देखते हुए लगता है कि संगठित संघ परिवार, धर्मनिरपेक्षता को असंगठित देखते हुए एक बार फिर उत्तर-मध्य भारत में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हेतु दंगों को अपने राजनीतिक लाभ की रणनीति के रूप में देख रहा है। अदालत का फैसला चाहे पक्ष में हो या विपक्ष में उसने अपनी योजनाएं तैयार कर ली हैं। यह बात उनके अनुकूल जा रही है कि देश की सुरक्षा एजेंसियां माओवादियों और अलगाववादियों से देश की रक्षा में लगी हुयी हैं इसलिए बहुत सीमित मात्रा में ही उपलब्ध हैं दूसरी ओर कई राज्यों में भाजपा की राज्य सरकारें है इसलिए वे उनके इशारे पर वैसा ही काम करेंगीं जैसा कि 2002 में गुजरात में हुआ था जिसके दोषियों को आज की तारीख तक सजा नहीं मिल सकी है। यह देखते हुए लगता है कि कुछ क्षेत्रों में दंगे अवश्याम्भावी हैं। यदि सीमित लक्ष्य के लिए समस्त गैर भाजपा ताकतें इसके विरुद्ध एक मंच पर आ सकेंगीं तभी इनको रोकना सम्भव हो सकेगा।



वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

बुधवार, सितंबर 15, 2010

झांकियों के पण्डालों में ब्राम्हण पुजारी क्यों?


झांकी के पण्डालों में ब्राम्हण पुजारी क्यों?
वीरेन्द्र जैन
कल मैं अपने एक दलित लेखक मित्र के साथ कहीं जा रहा था तो रास्ते में भक्तों के गणपत्ति बप्पा की झांकियाँ जगह जगह रास्ता जाम किये हुये मिल रही थीं। एक जगह मजदूरों दलितों की बस्ती में देखा कि एक झांकी में पूजा चल रही थी और पूजा कराने वाला ब्राम्हण था जिसे मेरे मित्र जानते थे। उन्होंने मुझ से कहा कि गणपति की झांकियों में होने वाली पूजा में बाहर से पुजारी बुलाये जाने की जरूरत नहीं होना चाहिए। चौराहों पर गणपति की झांकी सजाने की परम्परा को अभी सौ साल भी नहीं हुये हैं और उत्तर भारत में गैर मराठी लोगों के बीच इसका प्रसार तो नब्बे के दशक में फैलायी गयी साम्प्रदायिकता के दौरान ही हुआ है। तिलक ने आजादी के लड़ाई में सबकी भागीदारी बनाने के लिए इनका स्तेमाल किया था। दलितों का मन्दिर में प्रवेश वर्जित था इसलिए उन्होंने गणपति की छोटी छोटी मिट्टियों की मूर्तियों की घरों में स्थापना की परम्परा को चौराहों पर सजाने और सभी जातियों को एक साथ भागीदार बनाने के लिए सार्वजनिक झांकियों की नई परम्परा डाली। इसका एक लक्ष्य जातिगत भेदभाव दूर करना भी रहा है इसलिए इसमें पूजा की ऐसी विधि जिससे जातिभेद प्रकट होता हो इसके महान लक्ष्य को दूषित कर सकती है। होना यह चाहिए कि इन पण्डालों में आयोजन समिति के अध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष, आदि ही जातिभेद भुला कर क्रमशः पूजा करें। उन्होंने एक दलित कवि की बहुत ही अच्छी कविता सुनायी। कविता हूबहू तो मुझे याद नहीं किंतु उसका आशय कुछ कुछ ऐसा था-
अजान हुयी
तो सभी मुसलमान उठे और
नमाज पढने के लिए मस्जिद में चले गये,
चर्च की घंटियां बजीं
तो सभी ईसाई उठे और
प्रार्थना के लिए गिररिजाघर में प्रवेश कर गये
मन्दिर का शंख बजा
तो हिन्दू उठे और
मन्दिर की ओर गये
उनमें से कुछ मन्दिर के अन्दर चले गये
और बहुत सारे मन्दिर के बाहर रह गये
उनका प्रवेश वहाँ वर्जित था।
मेरा अनुरोध है कि मेरे मित्र द्वारा उठाये इस विषय पर आप लोग अपने विचार अवश्य ही प्रकट करें और यदि ये विचार इस पोस्ट की टिप्पणी से अलग अपनी साइट पर करें तो मुजे इसकी सूचना अव्श्य दें।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

मंगलवार, सितंबर 14, 2010

स्टिंग आपरेशन के पक्ष में हैं जैन संत तरुण सागर


स्टिंग आपरेशन के पक्ष में हैं जैन संत तरुणसागर
वीरेन्द्र जैन
भोपाल में इन दिनों अपने तीखे तेवर के लिए जाने जाने वाले युवा दिगम्बर जैन संत तरुण सागर का चातुर्मास चल रहा है। कई वर्षों से टीवी पर बुलन्द और भेदती आवाज में प्रवचन देने की उनके शैली ने देश भर हिन्दी श्रोताओं/ दर्शकों का ध्यान खींचा है। वे अपने कथन में तुकांतों का युग्म ही नहीं बनाते, अपितु प्रवचन के विषयों की परम्परागत शैली में सुधार करके अत्याधुनिक मनोरंजक प्रतीकों के साथ अपनी बात कहते हैं। वीआइपियों और सैलीब्रिटीज को अपने प्रवचन में खींच लाने का कौशल रखने वाले युवा संत ने इस वर्ष विधान सभा, और एमएसीटी में जाकर भी प्रवचन दिये हैं और नेताओं के खिलाफ खरी खरी बातें कहने से परहेज नहीं किया। यही कारण है कि मीडिया ने भी उनकी उपेक्षा नहीं की व उन्हें पर्याप्त कवरेज मिला। टीवी चैनलों ने उनके साक्षात्कार प्रसारित किये। सारे समाचार पत्र उनके कथनों को लगातार फोटो सहित छापते रहे हैं।
गत दिनों उन्होंने कुछ तीखे बयान दिये जिससे उनकी दृष्टि और साहस के प्रति आम जनता का ध्यान आकर्षित करते हैं।
गत दिनों धार जिले में एक बड़े श्रध्येय संत का निधन हो गया था, किंतु उनको कन्धा देने के लिए बोलियाँ लगीं और बाइस करोड़ रुपये एकत्रित किये गये। इसकी निन्दा करते हुए उन्होंने कहा कि अंतिम संस्कार में बोली लगाना एक गलत परम्परा है।
आशाराम बापू द्वारा अमेरिका से फरार बतायी गयी महिला को आश्रम में सुरक्षा से सम्बन्धित स्टिंग आपरेशन का समाचार प्रकाशित होने के अगले दिन ही उनका बयान था कि देश में दस प्रतिशत संत भ्रष्ट हैं अर्थात हर दसवाँ संत बगुला भगत बना बैठा है। आज देश के चर्चित संतों पर हत्या, बलात्कार, धोखाधड़ी और जालसाजी जैसे गम्भीर आरोपों ने सिद्ध कर दिया है कि कुछ लोग धर्म की आड़ में अपने गोरख धन्धों में जुटे हैं। इन्हें संत नहीं अपितु घोंघा बसंत कहना चाहिए। ये संतत्व को बदनाम करने वाले धर्म के दुश्मन हैं। स्टिंग आपरेशन के लिए टीवी चैनल को धन्यवाद देते हुए उन्होंने कहा कि इन नकाबपोश लोगों के असली चेहरे को उजागर कर श्रद्धालुओं को सचेत करने का काम किया है। उमाभारती के राजनीति में भाग लेने के सवाल पर उन्होंने कहा था कि संत की वेशभूषा में राजनीति करना ठीक नहीं है।
उक्त समाचार पढ कर मेरे एक पड़ोसी मुझे जैन धर्म का अन्ध अनुआयी समझकर पहली बार मेरे घर आये और तरुण सागर की तारीफ करते हुए बोले अगर ये दिगम्बर साधु न हुए होते तो आज पूरी दुनिया में इनके नाम का डंका पिट रहा होता, पर दिगम्बर अवस्था में रहने के कारण दूसरे धर्मों के मानने वाले या विदेशी उन्हें नहीं आमंत्रित कर सकते। मैंने उक्त सज्जन को सिर से लेकर पैर तक देखने के बाद विनम्रता पूर्वक कहा पूछा कि दर्शन और आध्यात्म के क्षेत्र में उन्होंने और किन किन को पढा है, तो वे बोले कि मैंने तो ऐसा कुछ खास तो किसी को भी नहीं पढा है। मैंने कहा कि यही बात है, अगर वे बिना दिगम्बर साधु हुए इतने अच्छे विचार व्यक्त कर रहे होते तो भी न तो इतने नेता उनकी कढुवी बातें सुन रहे होते और ना ही अखबार वाले उन्हें छाप कर आपके पास तक पहुँचा रहे होते। ध्यान आकर्षित करने के लिए कुछ असामान्य तो होना ही पड़ता है और ज्यादा ध्यान आकर्षित करने के लिए ज्यादा असामान्य होना पड़ता है। पूजा करने के बाद घंटी, शंख, झालर, बजाना पड़ती है तब लोगों को पता चलता है कि आप पूजा कर रहे थे। वैसे एक बात बताऊँ कि वे स्वयं दिगम्बर हैं इसी लिए तो दूसरों का “दिगम्बर” होना उन्हें पसन्द आ रहा है और आप भी इसीलिए उनकी तारीफ कर रहे हैं। वे चुपचाप उठ कर चले गये।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

गुरुवार, सितंबर 09, 2010

आरोप की एक और खुद की और उठी तीन उंगलियाँ


अस्वीकृति में उठा हाथ
-----------------------
आरोप की एक और खुद की ओर उठी तीन उंगलियां
वीरेन्द्र जैन
राजतंत्र में कभी कहा गया था कि ' यथा राजा तथा प्रजा' जिसे लोकतंत्र आने के बाद उलट कर 'यथा प्रजा तथा राजा' हो जाना चाहिये था। पर क्या ऐसा हुआ है?
हमारे यहाँ जैसा लोकतंत्र आया है वैसा ही बदलाव भी आयेगा। सच तो यह है कि हमने अब तक राजतंत्र को समाप्त नहीं कर पाया है तथा आजादी के कुछ ही दिन बाद सारे राजे महराजे अपना नाम सांसद विधायक रख कर फिर से सत्ता पर काबिज हो गये हैं। सच तो यह भी है कि अंग्रेजों ने हमें गुलाम नहीं बनाया था अपितु हमारे राजा महाराजाओं को गुलाम बनाया था जिनके गुलाम होने के कारण ही हम अंग्रेजों के गुलाम भी हो गये। आजादी हमें नहीं अपितु राजे महाराजाओं को मिली पर हम में से बहुत सारे तो यथावत गुलाम बने रहे। [चुनावों में राज परिवारों की लगातार जीत इसका प्रमाण देती है] चूंकि पूर्व व्यवस्था को निर्मूल किये बिना ही हमें नई व्यवस्था का भ्रम दे दिया गया इसलिए हम शासक की तरह राजतंत्र की सारी बुराइयाँ भोग लेने को उतावले हो गये किंतु अतीत में राजतंत्र के शासकों ने राज्य पाने और उसे बचाये रखने के लिए जो संघर्ष किये थे, जो युद्ध लड़े थे, वैसी लड़ाई की जिम्मेवारी हमने नहीं ली। हम यह भूल गये कि दुनिया में मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता, और हर चीज की कीमत चुकाना पड़ती है। चाहे उस भुगतान का स्वरूप कुछ भी क्यों न हो।
अब हमारे लोकतंत्र के नये राजा पुराने राजाओं की सोहबत में जनता का नये ढंग से शोषण करते हैं जिसमें वे जनता से सीधे नहीं टकराते अपितु उनके बीच में तथाकथित सरकार रहती है जो सीधे टैक्स के अलावा वस्तुओं और सेवाओं पर मनमाने टैक्स थोप कर जनता की कमाई में से बड़ा हिस्सा उगाहती है। सरकार पर सवार नेता व्यवस्था के नाम पर, योजना के नाम पर, रक्षा के नाम पर या विकास के नाम पर वसूले गये धन में से बड़े हिस्से को अफसरों के साथ मिल कर हड़प जाते हैं। चूंकि पॉच साल बाद उन्हें जनता से वोट भी लेने होते हैं इसलिए वे वोटों के दलालों को भी थोड़ी सी बेईमानी की छूट दे देते हैं। यही कारण है कि लुटेरे नेता जनता के एक हिस्से द्वारा निर्भयता से की जा रही अनियमताओं के खिलाफ बोलने की जरूरत नहीं समझते। हम लूट रहे हैं तो तुम भी थोड़ा सा लूट लो।
ऐसे ही लोगों के सहारे अपराध की प्रत्येक विधा के अपराधी संसद तक पहुँच जाते हैं। इनमें हत्यारों से लेकर डकैतों चोरों और बलात्कार के आरोपी ही नहीं सजायाफ्ता तक सम्मलित हैं। जिन लोगों को जनता ने तथाकथित लोकतांत्रिक ढंग से चुना है उन्हें बाद में दुनिया की सबसे बड़ी सजा फाँसी तक हुयी है। सवाल पूछने के लिए पैसे लेने, सांसद/विधायक निधि की अनुमति को बेचने और अपने पासपोर्टों पर दूसरों की पत्नियों को विदेश ले जाने के पैसे लेना आदि तो वे पद पर आने के बाद ही सीखे हैं। पर जनता ऐसे लोगों को ऐसे ही नहीं चुन देती है अपितु उसका एक हिस्सा उन्हें चुनने के लिए पैसे रखा लेता है। यह सोचने का विषय है कि जब कुल मतदान के बहुसंख्यक मत बिके हुये मत हों तो उस बहुमत को कितना लोकतांत्रिक कहा जा सकता है! यह और भी मनोरंजक होता है जब राजनीतिक दल अपनी जीत हार पर सैद्धांतिक मुलम्मा चढाते हैं।
जिस तरह आजादी भी हमें बिना किसी अधिक रक्तपात के शार्टकट से मिल गयी उसी तरह जनता भी संघर्ष के रास्ते से अपने हक नहीं पाना चाहती अपितु वह भी अपने हकों को चुराने लगी है। छोटी छोटी झुग्गियों से लेकर बड़े बड़े बंगलों तक बिजली की चोरी चलती है तथा जिनके जीवन में बिजली की जितनी अधिक जरूरत होती है वहाँ चोरी भी उतनी ही अधिक होती है। उद्योग जगत में भी बहुमत बिजली चोरो का है और जो जितना बड़ा उद्योग चला रहा है वह उतनी अधिक बिजली चोरी कर रहा है ऐसा स्वयं विद्युत विभाग के अधिकारियों ने व्यक्तिगत बातचीत में स्वीकारा है। विद्युत विभाग में जिसे परिचालन हानि मानी जाती है उसका बड़ा हिस्सा बिजली चोरी का ही दूसरा नाम है। मन्दी के दौर में कई लघु उद्यमियों ने बताया कि वे तो बिजली चोरी के दम पर ही उद्योग चला पा रहे हैं अन्यथा कभी का बन्द कर देना पड़ा होता।
बिना कानून के ही लाखों लोग जंगलों में खेती करते रहे हैं । करोड़ों की संख्या में झुग्गियाँ बनी हुयी हैं जो कानूनन अवैध हैं वे सरकार से अपना हक नहीं माँगते अपितु सरकार के साथ संघर्ष की नौबत तभी आती है जब उन्हें झुग्गी से भी हटाया जाता है। जिन लोगों के पास अपने घर मकान हैं उनमें से बहुत सारों ने अपनी पात्रता से अधिक जगह घेर कर रखी हुयी है। पुरानी बस्तियों में चबूतरे बढा रखे हैं तो नई कालोनियों में फेन्सिंग या हरितिमा के नाम पर अतिक्रमण कर लिया गया है। बड़े बड़े बंगलों के मालिक अपने बंगलों को किराये पर चढाये रहते हैं और सरकारी बंगलों में कम किराये या मुफ्त में रह रहे हैं।

मध्यमवर्ग के ज्यादातर लोग किस्तों पर कार तो ले आते हैं पर उसे चलाने के लिए पैट्रोल नहीं खरीद पाते और उनकी कार गाहे बगाहे चलाने के लिए घर के आगे बंधे हाथी की तरह शोभा बढाती रहती है। यह हाथी भी बांधने की जगह चाहता है जिसके लिए उन्हें सरकारी रास्ते में अतिक्रमण करना पड़ता है। पुराने मकानों को बनवाने की अनुमति आमतौर पर लोग नहीं लेते। उसमें किसी भी तरह की तोड़फोड़ और मरम्मत बिना अनुमति के चलती है। घर के आगे सड़क के ऊपर बारजा (बालकनी) निकालना कस्बों में आम बात है और उनमें से अधिकांश अवैध ढंग से बने हैं। रिहायशी इलाकों को व्यावसायिक इलाकों में बदल दिया जाता है और अनुमत्य मंजिलों से अधिक बना ली जाती हैं। बाजार में दुकानदार अपनी दुकान से ज्यादा सड़क तक अपना माल फैलाये रखता है। सड़क पर कचरा फेंकना नाली में बदबूदार गटर का पानी बहाना नाली में बच्चों को टट्टी फिराना और घर का कचरा फेंक कर उनका प्रवाह रोक देना आम बात है। वे अपने अनाधिकार कार्य मे दूसरों की असुविधाओं की चिन्ता नहीं करते जो लोकतंत्र विरोधी प्रवृत्ति है। पूरे देश की नगर पालिकाओं/ निगमों आदि के टैक्स जितनी मात्रा में लम्बित होते हैं वे जनता की वृत्ति को प्रकट करते हैं। जलापूर्ति के बिल समय पर न चुकाने वाले जल समस्या की सबसे अधिक मुखर चिन्ता करते हैं। कस्बों में जलापूर्ति एक समस्या है वहाँ शायद ही किसी घर में मुख्य पाइपलाइन के नल में टोंटी मिले। जल तो वैसे भी आवश्यकता से कम मिलता है पर जहाँ जरूरत से या संग्रह क्षमता से अधिक आता है वहाँ वह टोंटी के अभाव में बेकार बहता रहता है।
टैक्सी टैम्पो ट्रक बस आदि सार्वजनिक वाहनों के चलाने वालों में से बहुत कम ऐसे हैं जिनके पास पार्किंग की सुविधा है। वे चलने वाली सड़क पर ही अपने वाहन खड़े करते हैं। वाहन चालकों द्वारा अपनी सुविधा और लाभ की खातिर ट्रैफिक नियमों की धज्जियाँ उड़ाना तो आम बात है। किसी भी पब्लिक पार्किंग में जिस अन्दाज से वाहन खड़े किये जाते हैं वे इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि अनुशासन को हम ठेंगे पर रखते हैं और हमें अपने स्वार्थ में अपने भाई बन्धुओं की चिन्ता नहीं है।
विकास हेतु ऋण योजनाएं और अनुदान आदि चलाये जाते हैं जो ऊंट के मुँह में जीरे की तरह होती रही है जिन्हें यथार्थ परक बनाये जाने की जरूरत थी पर ज्यादातर लोगों ने उन योजनाओं से प्राप्त अपर्याप्त ऋणों को लेकर उन्हें चुकाया नहीं व योजनाओं को असफल घोषित कराके राहें ही बन्द करवा दीं। अनुदान का पैसा अपात्र लोग पी गये।
सिर्फ सुनिश्चित वेतन पाने वालों, जिनके वेतनभुगतान में से ही आयकर काट लिया जाता है, ऐसे कितने लोग हैं जो पूरी ईमानदारी से आयकर चुकाते हैं। हम उन दुकानदारों की शिकायत करने की जगह उनसे सामान खरीदना ज्यादा ठीक समझते हैं जो बिक्री कर की चोरी को खुले बाजार की प्रतियोगिता का आधार बनाते हैं और बिना बिल के सस्ते में बता कर हमें मौसेरा भाई बना लेते हैं। हम लोग ये नहीं सोच पाते कि रिश्वत लेकर सरकारी विभाग की आय का नुकसान कर हमें जो फायदा पहुंचाते हैं वे दूसरों को भी यही सुविधा देते होंगे और सरकार इस कमी की आपूर्ति नये टैक्स लगा कर करती होगी जो अंतत: हमारे ऊपर ही पड़ता है। जब हम लोकतांत्रिक हैं तो इसका अर्थ है कि हम राजा हैं और हम ऐसे राजा हैं जो अपने ही राज्य को चूना लगा रहे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग और सहकारिता क्षेत्र के संचालन में हमारी असफलताएं अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसी घटनाएं हैं। होना तो यह चाहिये था कि इन क्षेत्रों को असफल करने वाली सरकारों के खिलाफ एक बड़ा जन आन्दोलन होता पर हम इन क्षेत्रों को ठीक करने के लिए दबाव बनाने की जगह सार्वजनिक क्षेत्र की निन्दा करने वालों की मंडली में बिना सोचे समझे शामिल होते जाते हैं।
रोजगार का अधिकार मांगने की जगह हम रिश्वत देकर नौकरी पाने में लग गये और दी गयी रिश्वत का पैसा निकालने के लिए खुद रिश्वतखोर हो गये। इस तरह एक जहरीले वृत्त में फंस कर सम्पूर्ण देश को फंसाते चले गये। जातिवाद साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयतावाद भाषावाद आदि भी व्यक्तिवाद का थोड़ा सा विस्तारित रूप ही हैं क्योंकि व्यक्तिगत हित साधन हेतु सत्ता से जुड़ाव आवश्यक है जो बहुमत से मिलती है। इसलिए हमने उस सीमा तक घेरा बड़ा करने का प्रयास किया है। लोकतंत्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सीमा होती है तथा सार्वजनिक जिम्मेवारी अधिक होती है वहाँ वैचारिक मतभेद भी सर्वजन सुखाय होते हैं न कि व्यक्तिगत हित में। पर हमने इसका उल्टा व्यवहार किया है।
हमारी व्यवस्था ऐसे मेले की तरह है जिसमें देखने वालों से ज्यादा जेबकतरे घूम रहे हें और वे एक दूसरे की जेबें काटते फिर रहे हैं। नुकसान में वही है जिसे जेब काटना नहीं आता जिसके लिए वह दुखी भर है। हमारे अपने आचरण हमें गलत को गलत कहने से रोकते हैं।

वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425श74श29 4

बुधवार, सितंबर 08, 2010

एक जन प्रतिनिधि ऐसे भी चुनें


एक जनप्रतिनिधि ऐसे भी चुनें
वीरेन्द्र जैन
अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दल अपने दलों की नीतियों, कार्यक्रमों, घोषणा पत्रों, उम्मीदवार के व्यक्तित्व आदि के आधार पर वोट माँगने का दिखावा करते हैं किंतु यथार्थ में धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, वादे, रिश्ते, गैर राजनीतिक कारणों से प्राप्त लोकप्रियता, और वैध-अवैध ढंग से कमाये धन के आधार पर गला काट प्रतियोगिता कर वोट जुगाड़ते रहते हैं। राज्य सभा में कुछ सीटों पर विभिन्न तरह के समाज सेवियों, जैसे डाक्टरों, पत्रकारों, लेखकों, कलाकारों वैज्ञानिकों, शिक्षकों आदि के शिखर व्यक्तित्वों को मनोनीत करते हैं। यह मनोनयन आम तौर पर सत्तारूढ दल से जुड़े लोगों का ही किया जाता है। कितना अच्छा हो अगर हम संसद के लिए केवल एक विशेष प्रतिनिधि चुनने के लिए पूरे देश से और विधान सभा के लिए एक विशेष विधायक चुनने के लिए निम्न पात्रताओं के नागरिकों हेतु एक अतिरिक्त निर्वाचन क्षेत्र का गठन करें और उसके लिए क्रमशः देश और सम्बन्धित राज्य के मान्यता प्राप्त दलों के उम्मीदवारों के बीच पोस्टल मतदान से उस प्रतिनिधि का चुनाव करें। इससे समाज सेवा का दावा करने वाले दलों की पहचान होगी और उनमें एक समाज हितैषी स्वस्थ प्रतियोगिता होने से समाज का कुछ भला हो सकेगा।

मतदान के लिए मतदाता की न्यूनतम दो पात्रताएं [निर्धारित अवधि में]
• वह नागरिक जिसने सम्बन्धित चुनाव अवधि में एकाधिक बार रक्तदान किया हो।
• वह नागरिक जिसने प्रेरित करके कम से कम पाँच लोगों की नसबन्दी करायी हो।
• वह नागरिक जिसने प्रेरित करके कम से कम पाँच लोगों की आंखों का आपरेशन कराया हो
• वह ग्रह प्रमुख नागरिक जिसने अपने परिवारीजनों की मृत्यु पर उनका शवदाह विद्युत शवदाहग्रह में किया हो।
• वे दम्पत्ति जिन्होंने अंतर्जातीय विवाह किया हो।
• वे खिलाड़ी जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हों।
• वे फिल्म निर्माता जिनकी फिल्मों को राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हों।
• वे वैज्ञानिक जिनकी खोजों को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली हो।
• वे लेखक जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हों।
• वे नागरिक जिन्हें पद्म पुरस्कारों से सम्मानित किया गया हो।
• वह नागरिक जिसने नेत्रदान का संकल्प पत्र भरा हो।
• वह नागरिक जिसने देहदान का संकल्प पत्र भरा हो।
• कुछ अन्य ऐसी ही पात्रताएं जिनके बीच मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों में प्रतियोगिता बढने से ठोस और प्रमाणित समाज सेवा के कार्यों में वृद्धि हो, तथा जिनमें गलत पात्रता पाने की सम्भावना न हो।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

रविवार, सितंबर 05, 2010

आतंक की जगह रंग पर बहस



आतंक की जगह रंग पर बहस
वीरेन्द्र जैन
हमारे देश के झंडे में तीन रंग हैं। यही तीन रंग कांग्रेस के झंडे में भी हैं। ऐसी मान्यता है कि ये तीन रंग हिन्दू मुस्लिम और ईसाई का प्रतिनिधित्व करते हुए उनको एक झंडे में रख कर अनेकता में एकता का सन्देश देते हैं। भाजपा के झंडे में दो रंग हैं जिसमें भगवा हिस्सा बड़ा और हरा हिस्सा छोटा रखा जाता है। बहरहाल सवाल रंगों का उठा और इसलिए उठा कि देश के गृह मंत्री चिदम्बरम ने आतंकियों की एक श्रेणी को भगवा आतंकवाद कह दिया। भगवा रंग हिन्दुत्व का प्रतीक भी रहा है, इसलिए संघ परिवार के लोगों ने तुरंत आपत्ति की और इस आपत्ति से उन्होंने आस्थावान हिन्दू समाज को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की। ये वे ही लोग हैं जो नित प्रति आतंकवाद को इस्लामी आतंकवाद कह्ते रहते हैं ताकि देश की एक पूरी पूरी कौम को ही आतंकवादी ठहरा कर वोटों का ध्रुवी करण कर सकें, जबकि इनके द्वारा कथित “इस्लामी आतंकवादी” विदेशी धन से संचालित ही नहीं अपितु विदेश से आये हुये भी होते हैं। धन के लालच में उनके जो स्थानीय मददगार बन जाते हैं उनके साथ भी उनकी कौम के दूसरे लोग नहीं होते। किंतु भगवा वस्त्रधारी साधु साध्वियों के भेष में रहने वाले जो लोग आतंकी गतिविधियों में पकड़े गये हैं वे न केवल स्थानीय हैं अपितु उनका पक्ष लेकर जो लोग उन्हें निर्दोष बता इसे पूरे हिन्दुओं को परेशान करने का सरकारी अभियान बताते रहे हैं वे भी स्थानीय हैं। मुख्य धारा के किसी भी मुस्लिम संगठन ने ना तो आतंकी गतिविधियों का समर्थन किया है और ना ही आतंकी गतिविधियों में पकड़े गये लोगों के पक्ष में बयानबाजी ही की है।
उल्लेखनीय है कि चिदम्बरम की पार्टी के ही कुछ बड़े नेताओं ने उनके द्वारा प्रयुक्त शब्द से असहमति व्यक्त करते हुये कहा है कि भगवा पर किसी संगठन या दल का एकाधिकार नहीं है और इस शब्द के प्रयोग से ऐसा लग सकता है कि कथित आतंकी पूरे हिन्दू समाज के प्रतिनिधि हैं। आतंकी सिर्फ आतंकी हैं। जो दल उनके चोले के रंग के आधार पर उनका समर्थन करता है उसे अपने कदम पर गम्भीरता से पुनर्विचार करना चहिए ताकि जाने अनजाने वह अपराधियों और देशद्रोहियों की कतार में न माना जाये। सवाल यह है कि चिदम्बरम ने इस शब्द का प्रयोग क्यों किया? शायद यह प्रयोग इसलिए हो गया है क्योंकि संघ परिवार आतंकी घटनाओं से उतपन्न जनता के गुस्से को निरंतर एक साम्प्रदायिक रंग देता आ रहा था, जो उनकी रणनीति का एक हिस्सा था। वे देश की एक ज्वलंत समस्या को राजनीतिक रंग देकर अपना दलीय हित साधने की लगातार कोशिश कर रहे थे। मालेगाँव, मडगाँव, पुणे, अजमेर, हैदराबाद,और समझौता एक्सप्रैस की घटनाओं के लिए पकड़ में आये लोगों में से कुछ साधु साध्वियों पर आरोप है कि एक ओर वे भगवा लिबास में रह कर आस्थावान लोगों को धोखा दे रहे थे तथा दूसरी ओर ऐसे चिन्ह छोड़ रहे थे जिससे जाँच एजेंसियाँ भटक जायें। उनके पकड़ में आने से पूरा परिदृश्य ही बदल गया। इससे हिन्दू साम्प्रदायिक दलों का यह तर्क ही भौंतरा हो गया कि आतंकवाद का सम्बन्ध एक धर्म विशेष और उसके मानने वालों की धार्मिक आस्थाओं से जुड़ा है। इससे यह सच सामने आ गया कि आतंकवाद का धर्मों से कोई सम्बन्ध नहीं है और वह देशी विदेशी धन के लालच, धर्मान्धता, या विचार दोष के कारण भी सम्भव है। इससे एक सम्प्रदाय के खिलाफ विष वमन करके साम्प्रदायिकता फैलाने वालों को मुँह छुपाने के लिए मजबूर होना पड़ा है। यही कारण है कि चिदम्बरम का समर्थन करते हुये भी उनके शब्दों पर आपत्ति करके कांग्रेस के बड़े नेताओं ने सही समय पर सही कदम उठाया है।
होना तो यह चाहिए था कि आतंकवाद के खिलाफ सारे दल एक मंच पर आकर उनका संगठित मुकाबला करके यह सन्देश देते कि देश की समस्याओं का हल लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही निहित है किंतु छुद्र राजनीतिक स्वार्थों में वे एक दूसरे पर दोषारोपण करके आतंकियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष मददगार बन रहे हैं। यदि लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों की आस्था टूट गयी और उन्होंने आतंकी गतिविधियों में भरोसा करना शुरू कर दिया तो फिर कोई सुरक्षित नहीं होगा। आग जब फैलती है तो उसका कोई दोस्त नहीं होता।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शुक्रवार, सितंबर 03, 2010

हिन्दी दिवस् से अलग हिन्दी की बात


हिन्दी दिवस से अलग हिन्दी की बात
वीरेन्द्र जैन

क्या ज़रूरी है कि हिन्दी की बात हिन्दी दिवस पर ही की जाये!
एक होता है हिन्दी दिवस जो भारत वर्ष के हिन्दीभाषी प्रांतों में 14 सितम्बर को होली दिवाली दशहरा की तरह मनाया जाता है। इस दिन विद्वान के भेष में दिखने वाले लोग सरकारी गैरसरकारी कार्यालयों में हिन्दी की अवनति पर आँसू बहा कर इस आयोजन के लिए तय बज़ट का व्यय कराने में सहयोगी होते हैं।
हम पिछले पचासेक वर्षों से ऐसा करते आ रहे हैं और अगले पचासों हिन्दी दिवसों तक हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं के सामाजिक व प्रशासनिक उपयोग में कमी होते जाने का रोना रोयेंगे जो और अधिक एक अवसरगत परम्परा का स्वरूप लेता जायेगा। ऐसा करने वालों में धन्धेवाज़ पत्रकार और हिन्दी भाषा के नाम पर कमाई करने वाले प्रोफेसरनुमा लेखक प्रमुख होंगे जो राजस्थान के रुदालों की तरह अपने अपने रूमाल आँखों से लगाने से पहले फोटोग्राफरों और मीडिया कर्मियों को अपने प्रायोजित कार्यक्रम की सूचना देने में नहीं चूकेंगे। जैसा कि ‘अपने अपने’ की भावुकता को भुनाने के लिए भाजपा [पूर्व जनसंघ] के जनक हिन्दूवादी संघ परिवार ने ‘हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान’ का नारा उछाल कर देश विभाजन का सूत्रपात किया था, वैसे ही भावुकता के आधार पर हिन्दी के लिए नकली आंसू बहाने वाले भी करने जा रहे हैं। ये दोनों तरह के रोने वाले भाषा के जन्म, प्रचलन, और भविष्य के बारे में वैज्ञानिक दृष्टि से नहीं सोचते।
भाषा को संवाद की ज़रूरत पैदा करती है तथा जब तक वह सहज संवाद को बनाने व बनाये रखने में सक्षम रहती है तब तक वह जीवित रहती है और जब हमारे संवाद के पात्र और विषय बदलने लगते हैं तो उसका स्थान कोई नई भाषा लेने लगती है जो आवश्यक संवाद को अधिक सुविधाजनक बना सके। काल चक्र में क्रमशः संस्कृत का स्थान हिन्दी और बोलियों का स्थान खड़ी बोली लेती गयी। हम सब जब अपने मूल निवास की ओर जाते हैं तो अपने पुराने मिलने जुलने वालों से वहीं की बोली में बतिया कर खुश होते हैं पर नगर में वापिस आने पर फिर से खड़ी बोली बोलने लगते हैं। जब से नई आर्थिक नीतियों के अंतर्गत हम वैश्वीकरण की ओर बढने लगे हैं तभी से हिन्दी का स्थान अंग्रेज़ी लेने लगी है , जो स्वाभाविक है। हमें जब जिससे संवाद की निरंतरता बनाये रखनी होगी तो उसको सहज रूप से समझ में आ जाने वाली भाषा का प्रयोग करना होगा। विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण प्राप्त करने के लिए अंग्रेज़ी की ही ज़रूरत पड़ेगी जबकि देश के राष्ट्रीयकृत बंकों से ऋण लेने वालों को हिन्दी में फार्म उपलब्ध कराये जाते हैं। स्मरणीय है कि 1970 से बाद के दो दशकों में सरकारी कार्यालयों में हिन्दी का तेज़ी के साथ विकास हुआ। यह वह दौर था जब श्रीमती इन्दिरा गान्धी को कांग्रेस के अंदर अमेरिका परस्त गुट से मुक़ाबला करना पड़ा व आत्मरक्षार्थ उन्हें कांग्रेस से बाहर निकालना पड़ा। इस विभाजन से आये अभाव को पूरा करने के लिए उन्हें बामपंथियों से समर्थन माँगना पड़ा, जिन्होंने बैंकों, बीमा कम्पनियों, समेत अनेक जनौपयोगी संस्थानों का राष्ट्रीयकरण चाहा और सार्वजनिक क्षेत्र के विकास को प्राथमिकता पर रखने की सलाह दी। बैंक आदि जब आम आदमी के हितार्थ गाँव गाँव पहुँचे व अनेक तरह की गरीबी उन्मूलन वाली योजनाओं के सहयोगी बने तो उन्हें आम आदमी की भाषा में काम करने के लिए विवश होना पड़ा। यही वह समय था जब बहुत बड़ी संख्या में हिन्दी अधिकारी और अनुवादक नियुक्त हुये। प्रत्येक कार्यालय में हिन्दी के टाइपराइटर आये और परिपत्र हिन्दी में ज़ारी होने लगे। आम आदमी की योजना से जुड़े विज्ञापन हिन्दी में ज़ारी करने पड़े। सरकारी कार्यालयों में नौकरी पाने के इच्छुक लोगों ने हिन्दी सीखना चाही। कुल मिला कर कहने का अर्थ यह कि जब सरकार ने जनता से संवाद करना चाहा तब उसे उसकी भाषा को अपनाना पड़ा। आगे भी जब सरकार को जनोन्मुखी होना पड़ेगा तो उसे हिन्दी और दूसरी लोक भाषाओं की ओर आना पड़ेगा। नई आर्थिक नीतियों के अंतरगत वैश्वीकरण आने के बाद प्रभु वर्ग को सारी दुनिया से बातें करने की ज़रूरत आ गयी है जिसके लिए अंग्रेज़ी का जानना ज़रूरी है। उनके लिए आर्थिक विकास की दर प्रगति पर है। दूसरी ओर किसान हज़ारों की संख्या में आत्महत्याएं कर रहे हैं व भूख से मौतें हो रही हैं, ये मरने वाले अंग्रेज़ीदाँ लोग नहीं हैं। समाज से कुछ युवकों को माडल बना कर उन्हें देश और विदेश में नौकरियां दी जा रही हैं व इन नमूनों को जोर शोर से प्रचार दिया जा रहा है। इसका परिणाम यह निकल रहा है कि लाखों मध्यम वर्गीय परिवार अपने बच्चों को मँहगे मँहगे अंग्रेज़ी स्कूलों में भेज रहे हैं और ऐसे तथाकथित अंग्रेज़ी स्कूल कुकरमुत्तों की तरह गली गली में खुल रहे हैं। इन वर्गों में फिर से सब कुछ वैसे ही अंग्रेज़ी में होने लगा है जैसे बीच में लोग हिन्दी के प्रति उन्मुख हुये थे।
राजनीति अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है और अर्थव्यवस्था समाज की भाषा और संस्कृति को।
यह नया भाषायी रुझान देश में एक और विभाजन पैदा कर रहा है जो निम्नवर्ग और मध्यमवर्ग के बीच है। कुछ दिनों बाद एक की भाषा अंग्रेज़ी होगी और दूसरे की हिन्दी। दूसरे अर्थों में हिन्दी भाषी होने का अर्थ निम्नवर्गीय होना होगा। हिन्दी दिवस के दिन प्रलाप करने वालों ने कभी समस्या के मूल में जाने की ज़रूरत नहीं समझी। उन्हें तो प्रलाप के पैसे लेने हैं ताकि अंग्रेज़ी स्कूल जाने वाले अपने बच्चे की फीस । इसलिए ज़रूरी है कि हिन्दी की बात हिन्दी दिवस के सरकारी शोर से दूर रह कर की जाये।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

गुरुवार, सितंबर 02, 2010

घर में नगदी रखने की सीमा को तय किया जाना जरूरी


घर में नगदी रखने की सीमा को तय किया जाना जरूरी वीरेन्द्र जैन
एक समय था जब न तो बैंक होते थे और ना ही लाकरों की सुविधाएं ही थीं तब लोगों को अपना धन और जेवर सुरक्षित रखने के लिये उन्हें जमीनों में गाड़ना पड़ता था। उस समय ज्यादातर घर भी ऐसे होते थे जहाँ कच्ची मिट्टी वाली जगहें हुआ करती थीं जिनमें कहीं घड़ा या धातु के कलशों में जेवर गाड़े जाते थे। ये काम कई बार घरों के बाहर जंगलों में सुनसान जगहों में भी किया जाता था और पहचान के लिए वहां किसी देवता का स्थान जैसा चिन्ह बना दिया जाता था। मन्दिर आदि भी धन गाड़ने के सुरक्षित स्थान माने जाते थे और जिन मुगल शासकों पर मन्दिर तोड़ने के आरोप लगाये जाते हैं उनमें धार्मिक साम्प्रदायिक भावनाओं से अधिक धन की लूट का उद्देश्य होता था। इतिहासकार बताते हैं कि सोमनाथ मन्दिर पर जो हमला किया गया था उसके पीछे वहाँ छुपी अटूट दौलत थी जिसे हमले के बाद मुगल सेना ने लूटा था। देश में तिजोरियों का इतिहास भी बहुत पुराना नहीं है। बहुत सारे साहूकार तो लोगों द्वारा उनके पास सुरक्षा के लिए रखे गये धन को हड़प कर ही सम्पत्तिशाली बने थे।
देश में बैंकों का प्रारम्भ अंग्रेजों के आने के भी बहुत बाद प्रारम्भ हुआ। अंग्रेजों द्वारा स्थापित इलाहाबाद बैंक ने दो दशक पहले और लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित पंजाब नैशनल बैंक ने पन्द्रह वर्ष पहले ही अपनी स्थापना की शताब्दी मनायी है। बैंकों में लाकरों की सुविधा प्रारम्भ हुये कुल पचास साठ साल हुये हैं और देश में बैंक शाखाओं के तीव्र विस्तार का काम 1969 में 14 बड़े बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद ही शुरू हुआ। 1955 तक सभी बैंक प्राइवेट थे और वे सब देश के औद्योगिक घरानों के हाथों में थे। सेंट्रक बैंक टाटा का था, तो यूको बैंक बिड़ला का था, बैंक आफ बड़ोदा बालचन्द हीरानन्द् का था तो ओरंटियल कामर्स बैंक थापर का था, इंडियन बैंक चेटियार का था तो, सिंडीकेट बैंक पइयों का था और दूसरे भी इसी तरह थे। इनके अलावा भी अनेक छोटे छोटे रईसों के बैंकों को मिला कर कुल 566 बैंक थे जो जनता द्वारा जमा धन अपनी मन मर्जी के हिसाब से उपयोग करते थे और बैंकों के डूबने के साथ ही जनता का जमा धन भी डूब जाता था। ये बैंक धीरे धीरे जनता द्वारा जमा धन के साथ डूबते गये और 1969 में इनकी कुल संख्या 89 बची थी। मजबूर होकर सरकार को 1968 में बैंकों पर सोशल कंट्रोल और 1969 में 14 बड़े बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कदम उठाने पड़े। इसी समय बैंकों में जमा धन के लिए डिपाजिट इंस्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कार्पोरेशन द्वारा बीमा कराने की व्यवस्था हुयी। 1969 में जहाँ कुल बैंक शाखाएं 8262 थीं वहीं आज यह संख्या 65000 के आस पास है। औसतन प्रति 15000 की आबादी पर एक बैंक शाखा है और उनका विस्तार दूर दराज के गावों तक है। अधिकतम 18 किलोमीटर की परधि में बैंक सुविधा उपलब्ध है। इसके अलावा सहकारी बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, और पोस्ट आफिसों में भी धन जमा करने की सुविधाओं में विस्तार हुआ है। पिछले पाँच सालों में देश भर में 4000 से अधिक एटीएम स्थापित होने के बाद नगरों और कस्बों में तथा हाईवे पर चौबीसों घंटे धन निकासी की सुविधा उपल्ब्ध हुयी है। इन एटीएम मशीनों और डेबिट क्रेडिट कार्डों एवं मोबाइल बैंकिंग सेवा से रेल के टिकिटों से लेकर विभिन्न प्रकार की खरीदों और बिलों आदि को जमा करने की सुविधा ने अपनी जेबों और घरों में नकदी रखने की मजबूरी से छुट्टी दिलायी है। सीबीएस अर्थात कोर बैंकिंग सिस्टम आने के बाद किसी भी बैंक की किसी भी सीबीएस शाखा से धन का लेन देन किया जा सकता है। पिछले दो दशकों में देश में भ्रष्टाचार में बहुत तेजी देखने को मिली है। इससे परेशान देश की बेचैनी जब तीव्र होने लगी तो पिछले कुछ वर्षों में आयकर विभाग द्वारा छापा मारने की गति में भी तेजी आयी है। राजनेताओं के निकटस्थ लोगों से लेकर, चुनिन्दा नौकरशाहों, निरीक्षकों, पुलिस और फौज के अधिकारियों, ठेकेदारों, व्यापारियों, दलालों, के यहाँ पड़े छापों में करोड़ों रुपयों की मुद्रा और सोना मिलना आम बात हो गयी है। किंतु यह भी देखने को मिलता है कि एक बार ये छापे अखबार की सुर्खियाँ बन जाने के बाद दोषियों को कोई कठोर सजा या दण्ड नहीं मिलता है और वे यथावत अपनी जिन्दगी ऐश के साथ गुजारते देखे जाते हैं। कहा जाता है कि ये लोग थोड़ा टैक्स और जुर्माना अदा करने के बाद आसानी से छूट जाते हैं क्योंकि इनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते हैं और मिले हुए समय में वे झूठे सच्चे हिसाब किताब बनाकर उसे वैध बना लेते हैं। सवाल यह है कि इतनी अधिक बैंक सुविधाओं के बीच इतनी बड़ी मात्रा में मिली धन राशि अपने आप में सबूत क्यों नहीं बनती। क्या यह पर्याप्त सबूत नहीं है कि एक आईएएस अधिकारी या मंत्री को नोटों की गिड्डियां बिस्तरों के नीचे रखने को विवश क्यों होना पड़ता है। उचित दण्ड न मिलने के कारण आर्थिक अपराधियों के बीच कोई भय नहीं व्यापता। वे स्पोर्टमेन स्प्रिट से भ्रष्टाचार का खेल खेलते रहते हैं।
यदि ऐसा कोई कानून नहीं है तो क्या यह उचित समय नहीं है जब लोगों को अपने घरों, व्यापारिक संस्थाओं, और कार्यालयों में निश्चित मात्रा से अधिक नकदी रखे होने की सूचना उसके कारण सहित स्थानीय पुलिस स्टेशन को देना अनिवार्य बनायी जाये, जिसकी अवधि भी अधिकतम एक या दो दिन हो। जब चेक का बिना भुगतान के वापिस होना अपने आप में एक अपराध है तो फिर सीमा से अधिक राशि का घरों में पाया जाना अपराध क्यों नहीं बनाया जाता। इस नियम के कुछ और भी दूसरे लाभ होंगे, जैसे
• घर में सीमा से अधिक धन की सूचना देने वाले के निवास को पुलिस विशेष निगरानी में रख कर उसे सुरक्षा दे सकेगी।
• छापों के दौरान सीमा से अधिक पकड़े जाने पर उसकी आमद की जानकारी की तारीख बतानी होगी जिसे देने वाले के साथ क्रास चेक किया जा सकता है
• ज्यादातर लेन देन चेक और बैंक के माध्यम से होने के कारण नकली मुद्रा के खतरों को कम किया जा सकता है, और अधिक धन प्रचलन में आने के कारण अर्थव्यवस्था को गति दे सकता है
• हिसाब किताब पर नियंत्रण रखा जा सकता है, और टैक्स चोरी का पता लगने की सम्भावनाएं बढ सकती हैं
• हवाला, आतंकवाद, सट्टा, जुआ, आदि अवैध गतिविधियों पर जिनमें अधिकतर नगद का ले देन होता है, अंकुश रखा जा सकता है।
• दहेज, अपहरण, फिरौती आदि के बारे में संकेत मिल सकते हैं
• बड़ी रिश्वतों, चुनावों और दलबदल के लिए धन के प्रयोग आदि पर लगाम लग सकती है। आदि
इसलिए इतनी अधिक बैंक सुविधाओं के होते हुए अकारण एक सीमा से अधिक पुलिस को बिना बताये नकदी रखे जाने को प्रतिबन्धित करना व्यक्ति, समाज, लोकतंत्र और देश के हित में होगा। स्मरणीय है कि पिछ्हले दिनों भाजपा के मुख्यालय की तिजोरी से डेढ करॉड़ रुपये गायब हो गये थे और उन्होंने पुलिस की जाँच कराना भी जरूरी नहीं समझा। बसपा को भी अपने कई रज्यों के अध्यक्षों को अमानत में खयानत के कारण ही हटाना पड़ा था। चुनावों में व्यय जब पारदर्शी होगा तो लोकतंत्र सफल होने की ओर बढेगा तथा सदन में करोड़ पतियों की जगह सिद्धांतवादी कर्मठ राजनीतिज्ञ अधिक पहुँचेंगे। बैंकों में भी जो गोपनीयता का कानून है उसके अंतर्गत भी अदालत, पुलिस और आयकर विभाग द्वारा मांगी गयी जानकारी सम्मलित नहीं होती। किसी भी व्यवस्था के कानून जनहित में सुधारे भी जा सकते हैं और जिन्हें व्यक्तिहितों के ऊपर ही होना चाहिए।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

बुधवार, सितंबर 01, 2010

मध्य प्रदेश में भाजपा की प्रवचन पाठ्शाला सम्पन्न्


भाजपा की प्रवचन पाठशाला
पहाड़ खोदने के बाद निकली चुहिया
वीरेन्द्र जैन
देश के राज्यों की राजधानियों, और सारे बड़े बड़े नगरों में बाबा लोगों के प्रवचन सतत चलते रहते हैं। एक का पंडाल उठ नहीं पाता कि दूसरे की जाजम बिछने लगती है। इन बाबाओं के टेंट और शामियाने ही दसियों लाख किराये के होते हैं जो उनके साथ चलते हैं और आयोजनकर्ता को बाबा के आदेशानुसार उसी का टेंट लगवाना जरूरी होता है। इन बाबाओं की पब्लीसिटी ही कई लाख की होती है जिसमें पेशाबघर से लेकर सड़क के इंडीकेशन बोर्डों तक बाबा ही बाबा और उनके आयोजक चिपके मिलते हैं। जहाँ जरूरी होता है वहाँ बैनर और होर्डिंगों का जम कर प्रयोग होता है। समाचार पत्रों के सम्पादकों और सम्वाददाताओं के लिए एक एक किलो की परसादी के डिब्बे पहुँचाये जाते हैं। वैसे तो ये प्रवचन पंडाल सबके लिए खुले होते हैं किंतु समाज के सबसे भ्रष्ट और लुटेरे लोगों को बाबाओं का विशेष आशीर्वाद रहता है इसलिए उन्हें सबसे आगे जगह मिलती है। ऐसे लोगों को आशीर्वाद देते समय बाबा की खुशी देखते ही बनती है। रिटायर्ड फालतू बूढे, और बहुओं द्वारा घर से हकाली गयी सासें इन आयोजनों में भीड़ बढाने का प्रमुख आधार बनती हैं जो कभी कभी अपनी साड़ियाँ और सौन्दर्य प्रदर्शन की इच्छुक अपनी बहुओं और नाती पोतों को भी साथ घसीट लाती हैं। इन प्रवचन कर्ताओं के साथ दवा, धार्मिक पुस्तकों, पूजन सामग्री, कार्य सिद्धि यंत्रों, रत्नों, आदि की दुकानें भी साथ चलती हैं। हवाई जहाज से सफर करने वाले बाबाओं के पास अति आधुनिक लक्जरी के सारे सामान और उपकरण उपलब्ध होते हैं। भ्रष्ट नौकरशाह और राजनेता इन पर खुले हाथ से पैसा लुटाते हैं और मध्यम वर्ग अपनी मूर्खता में ही पिस जाता है। आज तक इस बात का कोई मूल्यांकन कहीं नहीं हुआ कि प्रति वर्ष एक ही नगर से करोड़ों रुपयों के बजट वाले इन आयोजनों से समाज के किस वर्ग का कितना भला हुआ या समाज में कितना सुधार आया। ये भी कोई नहीं पूछता कि बाबा द्वारा बोले गये दस पाँच चुटीले चुटकलों और पुराने पिष्ट पेषण के आधार पर बघारे गये उपदेशों से कितने लोगों के जीवन में परिवर्तन दृष्टिगोचर हुआ। लगभग ऐसी ही कहानी भोपाल में गत 26-27 अगस्त को आयोजित भाजपा के विधायकों के लिए लगाये गये अभ्यास वर्ग की भी है। उक्त अभ्यास वर्ग में प्रवचननुमा उपदेशकों ने भाजपा के विधायकों और मंत्रियों के बारे में जो भी आलोचनाएं कीं वे उससे अलग नहीं थीं, जो पहले ही प्रैस के द्वारा जनता तक पहुँच चुकी हैं। उन्होंने उन आलोचित दोषो में से कुछ से पीछे हट जाने और सावधानी पूर्वक काम करने की सलाह दी । दरसल यह चरित्र नहीं अपितु छवि सुधारने का आयोजन था। रोचक यह है कि पहले दिन जम कर शराब पीने और ऐयाशी करने वालों को सावधान किया गया किंतु भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, कमीशनखोरी, सरकारी जमीनों को मुफ्त या कोड़ियों के मोल हड़पने, भाई भतीजावाद करने आदि के बारे में कुछ नहीं कहा गया। इससे ऐसा लगा कि प्रवचन करने आये नेताओं को इन बुराइयों से कोई गुरेज नहीं है। इस का प्रमाण इस बात से भी मिलता है कि शाम को ये प्रवचन कर्ता उस मंत्री के यहाँ चाय पान के लिए गये जिसके दलाल के पास से ही करोड़ों की दौलत नहीं अपितु उसके ड्राइवर के लाकर से ही सवा करोड़ का सोना आयकर के छापों में मिल चुका है, किंतु चुनाव निबटने के बाद वह पुनः मंत्रिपद को ही नहीं सुशोभित कर रहा अपितु मुख्यमंत्री का दाहिना हाथ बना हुआ है। दो दिन के इस अभ्यास पर्व में सारा जोर इस बात पर रहा कि किस प्रकार अपनी सरकार को बचाने के लिए साम दाम दण्ड भेद के द्वारा अपनी सीट सुरक्षित की जाये और पार्टी के प्रति बढती नफरत को बदलने के लिए कैसे चेहरे को आकर्षक बनाया जाये। जिस तरह बाबा लोग नर्क की भयावह तस्वीर दिखा कर भक्तों को अपने द्वारा सुझायी गयी राह पर चलने का सन्देश देते हैं उसी तरह राष्ट्रीय अध्यक्ष ने यह कह कर कि “पद से उतरने के दस मिनिट के अन्दर मिला हुआ गार्ड भी गायब हो जाता है,” सन्देश दिया कि सुविधाएं भोगना है तो अपनी अपनी सीट बचा कर सरकार बचाने की जुगत में जुट जाओ। उनके पूरे उपदेश में जनता की भलाई और उसकी सेवा की जगह क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं को किसी भी तरह संतुष्ट रखने की प्रेरणा दी गयी। जिन बुराइयों से दूर रहने की सलाह दी गयी उसके पीछे भी उनके अनैतिक होने की ध्वनि नहीं थी अपितु छवि बिगड़ने से कार्यकर्ताओं और मतदाताओं के नाराज होने से सीट और सरकार के जाने का भय ही बताया गया। यह नहीं कहा गया कि हमारी राजनीति किन मूल्यों पर आधारित है और इन मूल्यों की रक्षा में सरकारें आती जाती हैं तो सौ बार चली जायें। दरअसल ऐसी भावुकता भरी बातों से तो वे जनता को बरगलाने का काम करते हैं। स्मरणीय है कि छह दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहा देने के बाद हुये साम्प्रदायिक दंगों के बाद जब भाजपा की चार राज्य सरकारें भंग कर दी गयी थीं तब ये कहते थे कि राम मन्दिर के लिए हमने चार राज्य सरकारें कुर्बान कर दीं। वे विधायकों से, वकीलों की तरह किसी भी झूठे तर्कों-कुतर्कों से मुकदमा जिताने के अनुरोध की तरह का आवाहन करते हैं। इसका प्रमाण इससे भी मिलता है कि इनके नेतृत्व में दिनों दिन जनता के बीच काम करने वाले नेताओं की जगह वकील या वकीलनुमा पक्षपाती पत्रकारों को अधिक से अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिये जा रहे हैं।
भाजपा में प्रशिक्षण का प्रस्ताव भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष गडकरी के मित्र किरीट सोमैय्या ने मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के सदस्यों के लिए निरंतर चलने वाली कक्षाओं से प्रेरित होकर रखा था। इस नकल में वे यह भूल गये कि सीपीएम व्यवस्था बदलने के लिए काम करने वाली एक कैडर वाली पार्टी है और उनकी कक्षाएं उम्मीदवार सदस्य बनने के कार्यकाल से ही चलने लगती हैं जब कि भाजपा इसी व्यवस्था में एक सत्ता लोलुप पार्टी है और उसमें सभी तरह की पार्टियों के प्रभावशाली असंतुष्टों को खुलकर प्रवेश ही नहीं दिया जाता अपितु बिना प्रशिक्षण टिकिट भी अर्पित किया जाता है। वे सर्वाधिक फिल्मी टीवी कलाकार, साधु-साध्वियों का स्वांग भरने वाले, क्रिकेट खिलाड़ी, मंच के फूहड़ कवि, पूर्व राज परिवारों के सदस्य, आदि की लोकप्रियता को साम्प्रदायिकता से मिला कर सत्ता हस्तगत करने वाले गिरोह हैं। सत्ता पाने के बाद उनके विधायक सांसद क्या क्या करते हैं यह प्रशिक्षण देने वालों के प्रवचनों और प्रैस में नित्य आ रही खबरों से स्वयं ही स्पष्ट है।
रोचक यह है कि जब एक मित्र पत्रकार ने प्रशिक्षण प्राप्त पन्द्रह विधायकों से प्रशिक्षण के बाद उनमें आये परिवर्तन के बारे में पूछा तो उनमें से बारह तो हँस दिये और तीन ने तोता रटंत की तरह “यशस्वी मुख्यमंत्री” द्वारा घोषित सरकारी योजनाओं की सूची गिनाते हुए कहा कि वे इनको जनता के बीच प्रचारित करने के लिए और अधिक ताकत से जुट जायेंगे।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629