बुधवार, अगस्त 31, 2016

क्या न्यायिक प्रकरणों का बढता विलम्बन आपराधिक षड़यंत्र है?

क्या न्यायिक प्रकरणों का बढता विलम्बन आपराधिक षड़यंत्र है?
वीरेन्द्र जैन
इन दिनों न्याय व्यवस्था पर खतरा बढ गया हैं क्योंकि उसकी कमियों कमजोरियों का लाभ लेकर कार्यपालिका और विधायिका में कुछ ऐसे लोग प्रमुख स्थानों पर पहुँच गये हैं, जो स्वतंत्र न्यायपालिका नहीं चाहते। वे नहीं चाहते कि वह न्यायपालिका मजबूत हो जो उनसे अलग विचार रखती है। लगभग ऐसी ही स्थिति इमरजैंसी के दौरान पैदा हो गयी थी और तब प्रतिबद्ध न्यायपालिका जैसे शब्द और व्याख्याएं प्रचलन में आयी थीं। पिछले दिनों जो लोग दिन दहाड़े किये गये कारनामों पर कानून की कमजोरियों के कारण सजा न मिल पाने को निर्दोष होने के प्रमाण की तरह बताते रहे हैं, वे ही अब न्यायपालिका से कह रहे हैं कि वे किन किन क्षेत्रों में दखल न दें और कार्यपालिका/विधायिका को अपनी मनमानी करने दें।
दुनिया भर में प्रचलित कथन है कि ‘देर से किया गया न्याय अन्याय के बराबर होता है’। हमारी न्याय प्रणाली में भी न्याय में लगने वाले समय को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इतने जनहितैषी संविधान के बावजूद यह अन्याय प्रणाली में बदलती जा रही है। न्यायालयों में लम्बित बहुत कम प्रकरण ही ऐसे होंगे जो सचमुच न्यायालयीन व्याख्या चाहते हों, अन्यथा अधिकांश में दोनों ही पक्ष यह जानते हैं कि कौन दोषी है, और उनमें से एक त्वरित न्याय चाहता है और दूसरा उसे लम्बित करा के लाभ की स्थिति में बने रहना चाहता है। ऐसी दशा में यह बहुत साफ है कि ज्यादातर मामलों में न्याय का विलम्बन दोषी पक्ष को ही लाभ पहुँचाता है।   
आपराधिक मामलों में न्याय में होने वाली देरी समाज में अपराधों को बढावा देती है, क्योंकि न्याय का काम केवल दोषी को सजा देकर समाज की ओर से बदला लेना भर नहीं होता अपितु ऐसा मानक स्थापित करना भी होता है ताकि दूसरे सजा के भय से वैसा काम करने से बचें। जब दोषी समाज में सिर उठाये ससम्मान घूमते हों तथा चुनाव प्रणालियों की कमजोरियों के कारण विधायिका में सम्मलित हो जाते हों तब स्वाभाविक है कि लोग अपना फैसला खुद करने के प्रति प्रेरित हों। विलम्बित न्याय व्यवस्था और हिंसक अपराधों में वृद्धि समानुपाती होती है। यह एक ऐसा दुष्चक्र होता है जिसमें प्रकरणों के लम्बन से प्रकरणों की संख्या बढती जाती है और संख्या बढने से न्याय में देरी के कारण प्रकरण बढते जाते हैं। इससे लाभान्वित होने वाला एक दोषी वर्ग है जो प्रकरणों के लम्बन को बढाना चाहता है। कर्मचारियों की वेतन विसंगतियों में साधारणतयः देखा गया है कि कर्मचारी बातचीत से प्रकरण हल कर लेना चाहते हैं किंतु नियोजक चाहते हैं कि मामला न्यायाधीन हो जाये जिसके नाम पर लम्बे समय तक सबका मुँह बन्द किया जा सके। स्पष्ट है कि लम्बन आमतौर पर शोषकों के हित में होता है और वे ही चाहते हैं कि अदालतों में लम्बित मामले बढते रहें। प्रतिक्रिया में जब शोषक वर्ग नियमों कानूनों के उल्लंघन पर उतर आता है तो उस पर दोहरी मार पड़ती है।
दोषियों ने अधिवक्ताओं का एक ऐसा वर्ग भी पैदा कर दिया है जो न्याय में देरी कराने की विशेषज्ञता हासिल कर चुका है। उन वकीलों के पास लोग प्रकरणों को लम्बित कराने के लिए ही जाते हैं, जिसके लिए वे असीमित फीस वसूल करते हैं। आमचुनावों में उतरने वाले लोगों को अपनी सम्पत्ति की घोषणा करना जरूरी होता है व ऐसे कुछ वकीलों की आय में अकूत वृद्धि के आंकड़े चौंकाते हैं। एक ऐसा भी जनविश्वास है कि मँहगा वकील करने वाला स्वयं ही अपने अपराधबोध का संकेत दे देता है। 
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने न्यायालयों में न्यायाधीशों की पदस्थापना में हो रही देरी पर सार्वजनिक टिप्पणी की है, जो ध्यान आकर्षित करती है। वह कौन सा वर्ग है जो लोक अदालतों का विरोध करता है ताकि अदालतों का बोझ कम न हो। एक संविधान सम्मत समाज की स्थापना के लिए  ऐसे सारे तत्वों को सामने लाया जाना चाहिए जो न्याय के रास्ते में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रोड़ा बन रहे हैं। इतिहास से सबक लेते हुए हमें सीखना चाहिए कि न्यायपालिका की आँखों में आँसू होना देश के भविष्य के लिए शुभ नहीं हो सकता। संविधान में आस्था रखने वाले सभी लोगों को  न्यायपालिका का सम्मान बनाये रखना होगा।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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मंगलवार, अगस्त 09, 2016

गुजरात में मंत्रिमण्डल परिवर्तन और भाजपा में लोकतंत्र

गुजरात में मंत्रिमण्डल परिवर्तन और भाजपा में लोकतंत्र
वीरेन्द्र जैन

दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनावों में मिली हार तथा उत्तराखण्ड व अरुणाचल प्रदेश में दलबदल के सहारे सत्ता बदलने को न्यायालय द्वारा अनुचित ठहराये जाने के बाद गुजरात ने मोदी को बेचैन कर दिया है और उन्हें वहाँ मुख्यमंत्री या कहें मंत्रिमण्डल बदलने का अप्रिय निर्णय लेना पड़ा है। वे भले ही इसे आनन्दी बेन के 75 की उम्र के रिटायरमेंट से जोड़ कर प्रदर्शित कर रहे हों, पर उनकी इस बात पर विश्वास न करते हुए सब लोग समझ रहे हैं कि यह पिछले दिनों हार्दिक पटेल के नेतृत्व में हुए पटेलों के हिंसक आन्दोलन और ऊना के दलितों पर निर्भीकता पूर्वक किये गये दमन और अपमान से उपजे प्रतिरोध व राजनीति के उपचार का प्रयास है। यदि केवल आनन्दीबेन के 75 पार का सवाल होता तो पुराने मंत्रिमण्डल के शेष सारे चेहरे यथावत रखे गये होते, पर यहाँ तो लगभग सभी को बदल दिया गया है।  
दुनिया के कम्युनिष्ट आन्दोलन में सोवियत रूस की जो भूमिका थी लगभग वैसा ही गुजरात भाजपा के लिए एक माडल राज्य है। मोदी के सहारे भारतीय जनता पार्टी ने जो झांकी सजाई थी वह गुजरात के माडल के आधार पर ही सजी थी और उसके पतन से बिखर सकती है। यही कारण है कि उस पर विपक्ष के साथ साथ सबकी पैनी निगाहें लगी हुयी हैं। गुजरात बहुत पहले से औद्योगिक रूप से विकसित राज्य रहा है जिसे भाजपा की मोदी सरकार ने न केवल बचाये रखा था, अपितु उसमें होने वाली वृद्धि की दर को भी कम नहीं होने दिया। प्रशासनिक साफ सुथरापन और मुख्यमंत्री की ईमानदार छवि ने भी भाजपा शासित दूसरे भ्रष्ट राज्यों की तुलना में गुजरात राज्य की छवि को सुधारा था। इसी छवि के अतिरंजित प्रचार ने मोदी के नेतृत्व को मान्यता दी। गोधरा में साबरमती एक्सप्रैस में हुए हादसे के बाद जिस त्वरित गति से मुसलमानों के खिलाफ हिंसा हुयी उसकी निन्दा भले ही पूरी दुनिया में हुयी हो किंतु साम्प्रदायिकता के दुष्प्रचार से प्रभावित गुजरात के व्यापारी मानसिकता के लोगों को मोदी सरकार एक दृड़ सरकार नजर आई थी जो कठोर और अप्रिय फैसले लेने का खतरा मोल ले सकती थी।
भले ही भारतीय जनता पार्टी देश के मध्य और पश्चिमी राज्यों की प्रमुख पार्टी है अपितु उसका संगठन इन राज्यों में सक्रिय अन्य दलों से बहुत अच्छा रहा है। इस पार्टी में समान कद के बहुत सारे महात्वाकांक्षी नेता हैं पर गुजरात राज्य के माडल और संघ को प्रिय लगने वाले कठोर फैसले ले कर मोदी ने संघ नेतृत्व के सामने अपना कद बहुत बढा लिया था.। अब वे भाजपा के बादशाह है, जिन्होंने सभी वरिष्ठों को किनारे कर दिया है व लोकसभा के कुशल चुनाव प्रबन्धन से समकालीनों को नेतृत्व स्वीकारने को मजबूर कर दिया है। वे आपस में भले ही प्रतिद्वन्दिता करते रहें किंतु सत्ता और संगठन दोनों में अब मोदी का प्रतिद्वन्दी कोई नहीं है।
गुजरात के ऊना में सामंती मानसिकता के साथ दलितों की अकारण पिटाई और उस घटना का  वीडियो बना कर उसे चुनौती पूर्ण ढंग से वायरल करने को रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद से उत्तेजित दलितों और विपक्षियों ने गम्भीरता से लिया व गुजरात के दलित आन्दोलनरत हुये। पाटीदारो के हिंसक आन्दोलन के बाद यह मोदी के राज्य में उनके लिए दूसरी बड़ी चुनौती थी। उल्लेखनीय है कि इस विषय पर भाजपा नेतृत्व में दलित सांसदों समेत किसी की कोई प्रतिक्रिया देने की हिम्मत नहीं हुयी। स्वयं मोदी ने एक सप्ताह तक स्थिति का गहन परीक्षण करने के बाद आनन्दीबेन से त्यागपत्र दिला दिया। यह घटनाक्रम वर्तमान भाजपा में लोकतंत्र की असली तस्वीर प्रस्तुत करता है।
गुजरात के नये मुख्यमंत्री का चयन, जिसे मनोनयन कहना अधिक उचित होगा, भी ध्यान देने योग्य है। आनन्दीबेन के त्यागपत्र के ट्वीट होने के दो दिन तक पूरे विधायक दल में कहीं कोई सुगबुगाहट दिखाई नहीं दी, जब तक की पार्टी ने नितिन पटेल को मुख्यमंत्री बनाने के संकेत नहीं दिये। इसके आधार पर उन्होंने भावी मुख्यमंत्री की तरह मीडिया से संवाद भी शुरू कर दिया। मोदी के राज्य में उनके स्थान को भरने वाले व्यक्ति की यह आज़ादी उन्हें पसन्द नहीं आयी और चौबीस घंटे के अन्दर फैसला बदल दिया गया व विजय रूपानी को राजसिंहासन देने की राजाज्ञा को सुना दिया गया। आम तौर पर मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पसन्द को हाईकमान व्यक्त करता जिस पर विधायक दल मुहर लगाता है और फिर मुख्यमंत्री अपने मंत्रिमण्डल का गठन करता है जिसमें उपमुख्यमंत्री भी सम्मलित होता है। उल्लेखनीय है कि उपमुख्यमंत्री जैसा कोई पद संविधान में नहीं है और न ही उसके अधिकार कहीं वर्णित हैं, यह शुद्ध रूप से तुष्टीकरण का पद है। पर उपमुख्यमंत्री का फैसला भी नरेन्द्र मोदी के अभिन्न अमितशाह ने पहले ही कर दिया और नितिन पटेल को पहले से ही मंच पर जगह दे दी गयी। वैसे तो स्वयं विजय रूपानी को भी शपथ लेने के बाद ही राज्यपाल के बगल वाली कुर्सी पर बैठने का अधिकार बनता है किंतु वे भी पहले से बैठे हुए थे। मोदी के राजतंत्र में सारे नियमों और परम्पराओं को बदला जा रहा है।
रूपानी के मनोनयन के बाद वे आनन्दीबेन और नितिन पटेल के साथ दोनों उंगलियों से अंग्रेजी अक्षर ‘वी’ का प्रदर्शन करते नजर आये। ये चिन्ह किसी प्रतियोगिता में मिली जीत पर प्रदर्शित किया जाता है। उक्त आचरण उन खबरों को पुष्ट करता है कि आनन्दीबेन चाहती थीं कि नितिन पटेल को ही उनका उत्तराधिकार मिले किंतु मोदी से फोन पर बात करने के बाद विजय रूपानी का नाम तय हुआ, अर्थात मोदी के वीटो से वे मुख्यमंत्री बने व मीडिया को दिखाने के लिए एक साथ ‘वी’ बनाते नजर आये। 
यह सारा सत्ता परिवर्तन किसी रियासत के सत्ताधीश का अपनी गद्दी को सौंपने जैसा था। कथित गौसेवकों के दुराचरण पर, जिनके कारण यह सारा घटनाक्रम हुआ, बाद में मोदी ने माय गोव एप्प के जारी करते समय प्रतिक्रिया दी। उनकी गोलमोल प्रतिक्रिया के अनुसार गौसेवकों के असंवैधानिक आचरण तो ठीक हैं बशर्ते वे असली गौसेवक हों। अब राज्य सरकारें तय करें कि कौन असली है और कौन नकली है, जबकि सच्चाई यह है कि यह कानून व्यवस्था का मामला है। दूसरी ओर हैदराबाद के एक भाजपा विधायक ने खुले आम दलितों की पिटाई का समर्थन किया है तथा अखलाख की हत्या के मामले में भाजपा नेता हत्यारों के पक्ष में बयान देते रहे हैं। अडवाणी जी ने जिस इमरजैंसी की बात की थी वह भाजपा में निर्विरोध तानाशाही की स्वीकरोक्ति से साफ नजर आने लगी है।   
वीरेन्द्र जैन
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