गुरुवार, दिसंबर 24, 2015

जैटली प्रसंग के कुछ और आयाम

जैटली प्रसंग के कुछ और आयाम
वीरेन्द्र जैन
भाजपा नेतृत्व अपने वोटरों के एक बड़े वर्ग को नासमझ मानता है और तमाम ऐसी झूठे व अनर्गल वादे करता रहता है जिन पर उसका खुद भी भरोसा नहीं रहता है। वे अपने लक्ष्य को पाने के लिए संसदीय व्यवस्था की ओर बहुत उम्मीद लगाये रहे हैं व किसी भी तरह चुनाव जीतने व सरकार बना कर संस्थाओं पर अधिकार करने के लिए सिद्धांतहीन समझौते करने, गैरजिम्मेवार बयान देने व वादे करने से परहेज नहीं करते रहे। इतना सब करने के बाद भी उन्हें भरोसा नहीं रहता था कि वे अपनी दम पर सरकार बना सकेंगे और उनसे वादों का हिसाब भी मांगा जायेगा। मोदी के नेतृत्व में स्पष्ट बहुमत के साथ 2014 का लोकसभा का चुनाव जीतना उनके लिए बड़ी सुखद दुर्घटना की तरह था और पूर्व में उनके द्वारा विपक्षी दल के रूप में निभायी गयी भूमिका व बयान अब उन्हें परेशानी में डाल रहे हैं। वे अपने विपक्ष से वे ही सारी अपेक्षाएं कर रहे हैं जिन पर उन्होंने कभी आचरण नहीं किया। जिन मुद्दों का उन्होंने हमेशा विरोध किया वे ही अब उन्हें लागू करवाना चाहते हैं। विडम्बना यह है कि कानून बनाने के लिए उनके पास राज्य सभा में बहुमत नहीं है और तमाम तरह की अवैध सुविधाएं देने के वादे पर भी कोई विपक्षी पार्टी राजनीतिक नुकसान की कीमत पर उनसे कोई सौदा नही कर सकती। कुछ विशेष परिस्तिथियों में सफल हुये चुनावी प्रबन्धन को उन्होंने जीत का फार्मूला समझ लिया और दिल्ली व बिहार में धोखा खाया। इससे लोकसभा में उनका बहुमत तो रहा पर उनकी चमक उतर गयी।
अरुण जैटली का प्रकरण ऐसे ही समय में सामने आया है जिसमें विपक्ष के अलावा सत्तापक्ष के कुछ सांसदों की प्रत्यक्ष और कुछ की परोक्ष भूमिका है। इसमें कोई विवाद नहीं है कि देश में क्रिकेट, हाकी, फुटबाल आदि के मैच मनोरंजन, उत्तेजना, और सट्टे के रूप में जुये के साथ साथ लोकप्रिय हो गये  खिलाड़ियों सहित सीधे प्रसारण के दौरान दिखाये जाने वाले विज्ञापनों के सहारे समुचित धन जुटाते हैं, जिसके व्यय करने का खुला अवसर बोर्ड के अधिकारियों को मिलता है। यही कारण है कि देश में विभिन्न सत्तारूढ दलों के नेता अपने अति व्यस्त समय के बाद भी इन बोर्डों को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं, भले ही उन्हें खेलों में कोई रुचि न हो। अनेक टीवी की बहसों में खिलाड़ियों द्वारा इस पर बात की जा चुकी है कि राजनेताओं का इन बोर्डों में सम्मिलित होना अच्छा नहीं है। परोक्ष में अजय माकन द्वारा खेल बोर्डों के गठन के सम्बन्ध में प्रस्तावित बिल को समर्थन न मिलना भी सवाल खड़े कर गया था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि खेल बोर्डों के धन का कुशल या अकुशल तरीके से दुरुपयोग होता है। यदि जैटली प्रकरण में भी न्यायिक दाँव उल्टा बैठा तो उनके विपरीत परिणाम आ सकता है और वे मोदी की उम्मीदों के अनुसार बेदाग भी निकल सकते हैं। उल्लेखनीय है कि श्री राम जेठमलानी ने मोदी के बयान के बाद कहा था कि श्री अडवाणी हवाला काण्ड में इसलिए बेदाग बरी हो सके क्योंकि उनकी पैरवी उन्होंने की थी। यह बयान बतलाता है कि न्यायिक निर्णय तो वकालत पर निर्भर होते हैं। उनके कहने का दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि अगर उन्होंने वकालत नहीं की होती तो फैसला विपरीत भी आ सकता था।
इस पूरे प्रकरण में डीडीसीए का भ्रष्टाचार या उसमें जैटली की सम्ब्द्धता इतना महत्व नहीं रखती जितना कि भाजपा के अन्दर चल रही अन्दरूनी गुटबाजी के संकेत महत्व रखते हैं। उल्लेखनीय है कि श्री कीर्ति आज़ाद गत नौ वर्षों से इस सवाल को उठाते रहे हैं, फिर भी राज्यसभा में विपक्ष के नेता रहे व प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के दावेदार श्री जैटली उनका टिकिट नहीं कटवा सके थे। श्री आज़ाद ने सुषमा स्वराज ललित मोदी प्रकरण में सार्वजनिक बयान दिया था कि इसमें किसी आस्तीन के साँप की भूमिका है और उस समय भी बात सामने आयी थी कि उनका इशारा श्री जैटली की तरफ था। उल्लेखनीय है कि वे श्री राजनाथ सिंह की मंत्रिमण्डल में नम्बर दो की भूमिका से खुश नहीं थे और राजनाथ के पुत्र के किसी उद्योगपति के साथ सम्भावित सौदे की खबर के पीछे भी उन्हीं की भूमिका अनुमानित की गयी थी। इस प्रकरण में प्रधानमंत्री कार्यालय से सफाई भी दी गयी थी। मार्गदर्शक मण्डल के नाम पर रिटायर कर दिये गये पार्टी के वरिष्ठ नेता भी उनसे खुश नहीं हैं। जब सुश्री उमा भारती ने टीवी चैनलों के सामने अटल बिहारी और अडवाणी जी को खरी खोटी सुनाते हुए कहा था कि एक वरिष्ठ नेता अखबारों में खबरें प्लांट करवाता है तब उनका संकेत अरुण जैटली की तरफ ही था। कहा जाता है कि दुबारा मुख्यमंत्री न बनाये जाने की दशा में उमाजी द्वारा जहर खा लेने की धमकी वाली खबर की सूचना श्री जैटली के माध्यम से ही प्रैस तक पहुँची थी।
      प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी भी अपने मंत्रिमण्डल में अगर किसी को प्रतियोगी समझ सकते हैं तो वह अब श्री जैटली ही हैं, जो मोदी के चुने जाने तक पीएम पद प्रत्याशी की दौड़ में रहे थे। मोदी द्वारा उनके बेदाग होने की सम्भावना व्यक्त करते समय श्री अडवाणी का उदाहरण देना भी इस सम्भावना को बल देता है कि वे चाहते थे कि श्री जैटली भी अडवाणी की तरह त्यागपत्र देकर न्यायिक लड़ाई जीतें। इसमें उनको निर्दोष मानने के कोई संकेत नहीं हैं अपितु न्यायिक विजय की सम्भावना भर व्यक्त की गयी है, जो उनके अच्छे वकील होने व साधन सम्पन्न होने के कारण सहज सम्भव है। वित्तमंत्री बनने के आश्वासन का संकेत पाकर ही भाजपा में सम्मलित होने वाले सुब्रम्यम स्वामी चाहते हैं कि वित्तमंत्री का पद जल्दी खाली हो यही कारण है कि उन्होंने कीर्ति आज़ाद को निलम्बन नोटिस का जबाब लिखवाने का प्रस्ताव तुरंत दिया। जैटली लम्बे समय से राज्यसभा में इसलिए ही हैं क्योंकि जनता के बीच से न निकलने के कारण वे लोकसभा का चुनाव नहीं जीत सके। राज्यसभा में रहते हुए भी उन्होंने वकालत का अपना काम जारी रखा था और पिछले आठ वर्षों में ही उनकी आय में सौ करोड़ से अधिक की वृद्धि दिखायी गयी है। अरविन्द केजरीवाल और उनके सहयोगियों के खिलाफ लगाये गये मानहानि के मुकदमे को लड़ने का प्रस्ताव राम जेठमलानी ने स्वय़ं दिया है। भाजपा के साथ जो नया युवा वर्ग जुड़ा था वो ऐसा आपसी संघर्ष देख देख कर भ्रमित हो रहा है।  
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यूपीए सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच ऐसे आरोपों से मुक्त नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को मिले समर्थन के कारण ही लोकसभा में भाजपा की बड़ी जीत सम्भव हो सकी थी। उन्होंने देश और विदेश में भी अपने मंत्रिमण्डल के साफसुथरे होने की बार बार शेखी बघारी थी। अब जब कटु भाषा में आरोप पार्टी के अन्दर से ही सामने आ रहे हैं तो मोदी अपनी छवि सुधारने के लिए कितना प्रबन्धन करेंगे और प्रवक्ता ललित गेट से लेकर व्यापम, खनन और चावल घोटाले के साथ कब तक ढीठता दिखा सकेंगे। अगर वे पिछले पन्द्रह साल से जुड़े कीर्ति आज़ाद को काँग्रेस की परम्परा से जोड़ कर गाली देते हैं तो अब तो एक सौ सोलह से ज्यादा लोकसभा सदस्य ऐसे हैं जो दूसरे दलों से आये हैं। जब सत्तारूढ दल में राजनीतिक संकट पैदा होता है तो उसका असर देश पर भी पड़ता है। ऐसी समस्याओं के दूरगामी हल निकालने पर विचार होना चाहिए, ताकि स्पष्ट बहुमत वाली सरकार अपना कार्यकाल तो पूरा कर सके।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, दिसंबर 02, 2015

स्वाभिमान शेष भाजपायी कब तक ढोयेंगे अमित शाह को?

स्वाभिमान शेष भाजपायी कब तक ढोयेंगे अमित शाह को?
वीरेन्द्र जैन

       अमित शाह भाजपा के ऐसे अध्यक्ष हैं जिन्हें नरेन्द्र मोदी के अलावा किसी भी दूसरे ऐसे व्यक्ति ने नहीं चुनना चाहा था जो इस पद के चुनाव के लिए अपना मत व्यक्त करने का अधिकार रखता है। उनसे पहले जो कम राष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति नितिन गडकरी, वैक्य्या नायडू, बंगारू लक्षमण आदि इस पद पर पहुँचे हैं उनकी कोई नकारात्मक पहचान नहीं रही थी जबकि अमित शाह के खिलाफ न केवल गम्भीर आरोप थे अपितु उन्हें गुजरात हाईकोर्ट ने अपने प्रदेश में प्रवेश से प्रतिबन्धित कर दिया था। उन्हें अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित करने के पीछे केवल नरेन्द्र मोदी द्वारा सरकार और संगठन दोनों पर पूर्ण अधिकार कर लेने की योजना थी और अमितशाह उनके सबसे विश्वसनीय और समर्पित साथियों में से एक थे।
       श्री शाह की प्रतिभा को यह कह कर महिमा मण्डित किया गया कि उनकी योजनाओं और प्रबन्धन के कारण ही 2014 में सम्पन्न लोकसभा चुनावों में अभूतपूर्व विजय मिली। जबकि सच यह था कि पूंजीपतियों द्वारा साधनों के खुले प्रवाह से मीडिया का प्रबन्धन, पहली बार संघ का खुल कर समर्थन में आना, और आधुनिक तकनीक का भरपूर व बेहतर स्तेमाल ही अन्दर से कमजोर व बदनाम यूपीए सरकार को हराने में काम आया। इस दौरान भाजपा में शिखर के कुछ नेता मोदी के समर्थन में नहीं थे इसलिए उन्होंने अपने खास लोगों के हाथों में चुनाव का वह काम सौंपना चाहा जिसमें बहुत कुछ गोपनीय होता है और अमित शाह मोदी के लिए सबसे उपयोगी माने गये थे। बाद में इसी भरोसे पर ही श्री नरेन्द्र मोदी ने अध्यक्ष पद उनके नाम पर अपने ही पास रखा। इन परिस्तिथियों में जब शाह से बेहतर और वरिष्ठ सैकड़ों लोग पार्टी में हों और उन्हें छोड़ कर अमित शाह को अध्यक्ष बनाया गया हो तब श्री लाल कृष्ण अडवाणी को इमरजैन्सी जैसे हालात की याद आना स्वाभाविक ही था क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने भी उक्त दौर में दोनों पद अपने पास ही रखे थे। ध्यान आकर्षित करने वाली बात यह भी है कि बिहार चुनाव के बीचों बीच देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह को यह बयान देने की क्या जरूरत पड़ी थी कि श्री शाह चुनाव के बाद भी पार्टी के अध्यक्ष बने रहेंगे।
       मोदी मंत्रिमण्डल में आपसी तनाव के समाचार प्रैस जगत में रिसते रहते हैं। कहा जाता है कि वित्त मंत्री श्री अरुण जैटली राज्यसभा में विपक्ष के नेता पद पर रहते हुए खुद को अडवाणी के बाद सबसे उपयुक्त प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी मानते थे और नरेन्द्र मोदी को इस पद का प्रत्याशी स्वीकारने में उन्होंने समुचित समय लिया था। वे कहते रहे थे कि भाजपा में इस पद के योग्य दस से अधिक लोग हैं। जब उन्होंने जीतने की परिस्तिथियां देखते हुए मोदी का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था तब उनका बयान था कि भाजपा को हिट विकेट होने से बचने के लिए जल्दी से जल्दी प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित कर देना चाहिए। इसी दौर में तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष के रूप में श्री राजनाथ सिंह की अपनी अलग हैसियत थी। लोकसभा चुनाव में राजनाथ सिंह जीत गये थे और जैटली हार गये थे फिर भी पराजित जैटली को वित्त और रक्षा जैसे दो सबसे बड़े विभाग दिये गये थे व प्रधानमंत्री पद की समानांतर प्रतियोगी रही सुषमा स्वराज को बड़े मंत्रालयों में सबसे छोटा मंत्रालय दिया गया था। परम्परा के अनुसार प्रधानमंत्री के बाद दूसरे नम्बर का मंत्रालय गृह ही माना जाता रहा है जिसे संघ के इशारे पर राजनाथ सिंह को दिया गया था भले ही जैटली को यह फैसला अच्छा नहीं लगा हो क्योंकि वे मंत्रिमण्डल में प्रधान मंत्री के बाद दूसरे नम्बर पर रहना चाहते थे। शायद वे अभी भी मानते हैं कि अपनी सम्बोधन शैली और संवाद क्षमता के कारण जनता के बीच भले ही मोदी सर्वमान्य लोकप्रिय नेता हों किंतु प्रशासनिक क्षमता में वे सबसे आगे हैं। राजनाथ सिंह के पुत्र से सम्बन्धित एक अफवाह फैली थी जिस पर प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से सफाई भी दी गयी थी पर जब उस सफाई का आधार पूछा गया था तो उस पर कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया गया था। संघ गृह मंत्रालय में श्री राजनाथ सिंह को ही पसन्द करता है क्योंकि उनके यहाँ समर्पण को सदैव ही क्षमताओं से आगे माना जाता है।
दिल्ली के बाद बिहार विधानसभा चुनावों की बागडोर भी अमितशाह के हाथों में रही और नरेन्द्र मोदी इकलौते चुनाव प्रचारक रहे। इन दोनों ही चुनावों में अमितशाह ने दो तिहाई सीटों पर जीतने का दावा किया किंतु दोनों ही जगह भाजपा की जो दुर्दशा हुयी उससे उनकी चुनावी प्रबन्धन की इकलौती प्रचारित क्षमता गलत साबित हो चुकी है। दिल्ली चुनाव के बाद उनकी गलत नीतियों के कारण भितरघात के आरोप लगे थे तो बिहार चुनाव के दौरान ही सांसद श्री आर के सिंह ने सार्वजनिक आरोप लगाया कि दो करोड़ रुपये लेकर शातिर अपराधियों को टिकिट बेचे गये हैं इसलिए वे उनके लिए चुनाव प्रचार नहीं करेंगे। श्री आर के सिंह एक व्यक्ति नहीं अपितु अपने शानदार रिकार्ड के कारण एक संस्था का दर्ज़ा रखते हैं। यह स्मरणीय है कि श्री सिंह आईएएस थे और भाजपा की ओर से लोकसभा प्रत्याशी बनने से पूर्व तक देश के गृह सचिव थे। अगर उन्होंने भाजपा की ओर से आया यह प्रस्ताव स्वीकार न किया होता तो नितिश कुमार का बिहार में विशेष कर्तव्य अधिकारी का प्रस्ताव उनके पास था। वे उस समय बिहार में आरा के कलैक्टर थे जब अपनी रथयात्रा के दौरान श्री अडवाणी को गिरफ्तार किया गया था। बाद में जब श्री अडवाणी गृहमंत्री बने तो उन्होंने अपने मंत्रालय में उन्हें उप सचिव नियुक्त किया था। मुख्य सचिव के रूप में उन्होंने बिहार के रोड ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन के अध्यक्ष के रूप में बिहार में सड़कों का जाल बिछा दिया तो चिदम्बरम ने उन्हें गृह सचिव के रूप में पदस्थ किया। कहने का अर्थ यह है कि अपनी कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी के कारण वे दलों के ऊपर सबको स्वीकार हैं और उनका कथन कुछ मतलब रखता है। स्थानीय पार्टी सदस्यों के प्रति चुनाव में उपेक्षा भाव रखने की जो शिकायत बिहार में छोटे वाजपेयी के रूप में जाने जाने वाले भोला सिंह ने बाद में की उसे सांसद शत्रुघ्न सिन्हा पहले ही व्यक्त करते रहे हैं और कीर्ति आज़ाद उससे भी बहुत पहले बोल कर चुप हो गये थे। यशवंत सिन्हा जैसे वरिष्ठ नेता तो बहुत पहले ही कह चुके थे कि अब पार्टी के पचहत्तर पार नेताओं को ब्रेन डैड समझा जा रहा है।
अमित शाह भाजपा में अध्यक्ष जैसे सर्वोच्च पद के लिए मोदी के अलावा न किसी की पसन्द थे न किसी की पसन्द हैं। उन्हें चुनाव प्रबन्धन की जिस कथित प्रतिभा के नाम पर थोपा गया था उसकी कलई उतर चुकी है इसलिए आगामी अध्यक्ष के रूप में उनका समर्थन केवल मोदी के अन्ध चापलूस ही कर सकते हैं। लगातार मिली चुनावी पराजयों और गुजरात के पटेल आन्दोलन के साथ साथ वादों की पूर्ति की दिशा में कोई ठोस काम न दिखने के कारण मोदी की लोकप्रियता में गिरावट आयी है। ऐसी दशा में अमितशाह को अध्यक्ष पद पर और सहन करना भाजपा के सदस्यों के बीच विचारवान और स्वाभिमानी हिस्से को स्वीकार नहीं होगा।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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