बुधवार, दिसंबर 02, 2015

स्वाभिमान शेष भाजपायी कब तक ढोयेंगे अमित शाह को?

स्वाभिमान शेष भाजपायी कब तक ढोयेंगे अमित शाह को?
वीरेन्द्र जैन

       अमित शाह भाजपा के ऐसे अध्यक्ष हैं जिन्हें नरेन्द्र मोदी के अलावा किसी भी दूसरे ऐसे व्यक्ति ने नहीं चुनना चाहा था जो इस पद के चुनाव के लिए अपना मत व्यक्त करने का अधिकार रखता है। उनसे पहले जो कम राष्ट्रीय ख्याति के व्यक्ति नितिन गडकरी, वैक्य्या नायडू, बंगारू लक्षमण आदि इस पद पर पहुँचे हैं उनकी कोई नकारात्मक पहचान नहीं रही थी जबकि अमित शाह के खिलाफ न केवल गम्भीर आरोप थे अपितु उन्हें गुजरात हाईकोर्ट ने अपने प्रदेश में प्रवेश से प्रतिबन्धित कर दिया था। उन्हें अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित करने के पीछे केवल नरेन्द्र मोदी द्वारा सरकार और संगठन दोनों पर पूर्ण अधिकार कर लेने की योजना थी और अमितशाह उनके सबसे विश्वसनीय और समर्पित साथियों में से एक थे।
       श्री शाह की प्रतिभा को यह कह कर महिमा मण्डित किया गया कि उनकी योजनाओं और प्रबन्धन के कारण ही 2014 में सम्पन्न लोकसभा चुनावों में अभूतपूर्व विजय मिली। जबकि सच यह था कि पूंजीपतियों द्वारा साधनों के खुले प्रवाह से मीडिया का प्रबन्धन, पहली बार संघ का खुल कर समर्थन में आना, और आधुनिक तकनीक का भरपूर व बेहतर स्तेमाल ही अन्दर से कमजोर व बदनाम यूपीए सरकार को हराने में काम आया। इस दौरान भाजपा में शिखर के कुछ नेता मोदी के समर्थन में नहीं थे इसलिए उन्होंने अपने खास लोगों के हाथों में चुनाव का वह काम सौंपना चाहा जिसमें बहुत कुछ गोपनीय होता है और अमित शाह मोदी के लिए सबसे उपयोगी माने गये थे। बाद में इसी भरोसे पर ही श्री नरेन्द्र मोदी ने अध्यक्ष पद उनके नाम पर अपने ही पास रखा। इन परिस्तिथियों में जब शाह से बेहतर और वरिष्ठ सैकड़ों लोग पार्टी में हों और उन्हें छोड़ कर अमित शाह को अध्यक्ष बनाया गया हो तब श्री लाल कृष्ण अडवाणी को इमरजैन्सी जैसे हालात की याद आना स्वाभाविक ही था क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने भी उक्त दौर में दोनों पद अपने पास ही रखे थे। ध्यान आकर्षित करने वाली बात यह भी है कि बिहार चुनाव के बीचों बीच देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह को यह बयान देने की क्या जरूरत पड़ी थी कि श्री शाह चुनाव के बाद भी पार्टी के अध्यक्ष बने रहेंगे।
       मोदी मंत्रिमण्डल में आपसी तनाव के समाचार प्रैस जगत में रिसते रहते हैं। कहा जाता है कि वित्त मंत्री श्री अरुण जैटली राज्यसभा में विपक्ष के नेता पद पर रहते हुए खुद को अडवाणी के बाद सबसे उपयुक्त प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी मानते थे और नरेन्द्र मोदी को इस पद का प्रत्याशी स्वीकारने में उन्होंने समुचित समय लिया था। वे कहते रहे थे कि भाजपा में इस पद के योग्य दस से अधिक लोग हैं। जब उन्होंने जीतने की परिस्तिथियां देखते हुए मोदी का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था तब उनका बयान था कि भाजपा को हिट विकेट होने से बचने के लिए जल्दी से जल्दी प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित कर देना चाहिए। इसी दौर में तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष के रूप में श्री राजनाथ सिंह की अपनी अलग हैसियत थी। लोकसभा चुनाव में राजनाथ सिंह जीत गये थे और जैटली हार गये थे फिर भी पराजित जैटली को वित्त और रक्षा जैसे दो सबसे बड़े विभाग दिये गये थे व प्रधानमंत्री पद की समानांतर प्रतियोगी रही सुषमा स्वराज को बड़े मंत्रालयों में सबसे छोटा मंत्रालय दिया गया था। परम्परा के अनुसार प्रधानमंत्री के बाद दूसरे नम्बर का मंत्रालय गृह ही माना जाता रहा है जिसे संघ के इशारे पर राजनाथ सिंह को दिया गया था भले ही जैटली को यह फैसला अच्छा नहीं लगा हो क्योंकि वे मंत्रिमण्डल में प्रधान मंत्री के बाद दूसरे नम्बर पर रहना चाहते थे। शायद वे अभी भी मानते हैं कि अपनी सम्बोधन शैली और संवाद क्षमता के कारण जनता के बीच भले ही मोदी सर्वमान्य लोकप्रिय नेता हों किंतु प्रशासनिक क्षमता में वे सबसे आगे हैं। राजनाथ सिंह के पुत्र से सम्बन्धित एक अफवाह फैली थी जिस पर प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से सफाई भी दी गयी थी पर जब उस सफाई का आधार पूछा गया था तो उस पर कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया गया था। संघ गृह मंत्रालय में श्री राजनाथ सिंह को ही पसन्द करता है क्योंकि उनके यहाँ समर्पण को सदैव ही क्षमताओं से आगे माना जाता है।
दिल्ली के बाद बिहार विधानसभा चुनावों की बागडोर भी अमितशाह के हाथों में रही और नरेन्द्र मोदी इकलौते चुनाव प्रचारक रहे। इन दोनों ही चुनावों में अमितशाह ने दो तिहाई सीटों पर जीतने का दावा किया किंतु दोनों ही जगह भाजपा की जो दुर्दशा हुयी उससे उनकी चुनावी प्रबन्धन की इकलौती प्रचारित क्षमता गलत साबित हो चुकी है। दिल्ली चुनाव के बाद उनकी गलत नीतियों के कारण भितरघात के आरोप लगे थे तो बिहार चुनाव के दौरान ही सांसद श्री आर के सिंह ने सार्वजनिक आरोप लगाया कि दो करोड़ रुपये लेकर शातिर अपराधियों को टिकिट बेचे गये हैं इसलिए वे उनके लिए चुनाव प्रचार नहीं करेंगे। श्री आर के सिंह एक व्यक्ति नहीं अपितु अपने शानदार रिकार्ड के कारण एक संस्था का दर्ज़ा रखते हैं। यह स्मरणीय है कि श्री सिंह आईएएस थे और भाजपा की ओर से लोकसभा प्रत्याशी बनने से पूर्व तक देश के गृह सचिव थे। अगर उन्होंने भाजपा की ओर से आया यह प्रस्ताव स्वीकार न किया होता तो नितिश कुमार का बिहार में विशेष कर्तव्य अधिकारी का प्रस्ताव उनके पास था। वे उस समय बिहार में आरा के कलैक्टर थे जब अपनी रथयात्रा के दौरान श्री अडवाणी को गिरफ्तार किया गया था। बाद में जब श्री अडवाणी गृहमंत्री बने तो उन्होंने अपने मंत्रालय में उन्हें उप सचिव नियुक्त किया था। मुख्य सचिव के रूप में उन्होंने बिहार के रोड ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन के अध्यक्ष के रूप में बिहार में सड़कों का जाल बिछा दिया तो चिदम्बरम ने उन्हें गृह सचिव के रूप में पदस्थ किया। कहने का अर्थ यह है कि अपनी कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी के कारण वे दलों के ऊपर सबको स्वीकार हैं और उनका कथन कुछ मतलब रखता है। स्थानीय पार्टी सदस्यों के प्रति चुनाव में उपेक्षा भाव रखने की जो शिकायत बिहार में छोटे वाजपेयी के रूप में जाने जाने वाले भोला सिंह ने बाद में की उसे सांसद शत्रुघ्न सिन्हा पहले ही व्यक्त करते रहे हैं और कीर्ति आज़ाद उससे भी बहुत पहले बोल कर चुप हो गये थे। यशवंत सिन्हा जैसे वरिष्ठ नेता तो बहुत पहले ही कह चुके थे कि अब पार्टी के पचहत्तर पार नेताओं को ब्रेन डैड समझा जा रहा है।
अमित शाह भाजपा में अध्यक्ष जैसे सर्वोच्च पद के लिए मोदी के अलावा न किसी की पसन्द थे न किसी की पसन्द हैं। उन्हें चुनाव प्रबन्धन की जिस कथित प्रतिभा के नाम पर थोपा गया था उसकी कलई उतर चुकी है इसलिए आगामी अध्यक्ष के रूप में उनका समर्थन केवल मोदी के अन्ध चापलूस ही कर सकते हैं। लगातार मिली चुनावी पराजयों और गुजरात के पटेल आन्दोलन के साथ साथ वादों की पूर्ति की दिशा में कोई ठोस काम न दिखने के कारण मोदी की लोकप्रियता में गिरावट आयी है। ऐसी दशा में अमितशाह को अध्यक्ष पद पर और सहन करना भाजपा के सदस्यों के बीच विचारवान और स्वाभिमानी हिस्से को स्वीकार नहीं होगा।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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