बुधवार, नवंबर 28, 2012

कसाव को फाँसी, भाजपा के गले की फाँस


कसाब को फाँसी भाजपा के गले की फाँस  
वीरेन्द्र जैन 
            जो लोग झूठ के हथियारों से लड़ाई लड़ते हैं, उन्हें पराजय के साथ शर्मिन्दगी भी झेलेना पड़ती है। कसाब को फाँसी के बाद भाजपा की हालत कुछ ऐसी ही हो गयी है।
       दर असल भाजपा के पास हमेशा से ही राजनैतिक मुद्दों का अभाव रहा है और वह अपने जनसंघ स्वरूप के समय से ही ऐसे मुद्दों का सहारा लेती रही है जो परम्परावादी लोगों के बीच भावुकता भड़का कर चुनाव जीतने  वाले मुद्दे थे और जिनका जनहित से दूर दूर का भी नाता नहीं रहा। 1967 में उन्होंने गौहत्या विरोध के नाम पर साधुओं के भेष में रहने वाले भिक्षुकों को एकत्रित करके संसद पर हमला करवा दिया था, जो भारतीय संसद पर हुआ पहला हमला था, पर इसके योजनाकारों को कभी कोई सजा नहीं मिली। सुरक्षा में मजबूरन पुलिस को गोली चलाना पड़ी थी जिसमें छह सात निरीह भावुक लोग मारे गये थे। इस गोली कांड का सहारा लेकर उन्होंने पूरे देश के लोगों को भड़काने की कोशिश की थी जिसमें वे काफी हद तक सफल रहे थे और सीधे सरल आस्थावान हिन्दुओं के बीच जनसंघ उत्तर भारत में एक प्रमुख वोट बटोरू दल के रूप में उभर आया था। बाद में तो राम मन्दिर, रामसेतु, राम वनगमन मार्ग, ही नहीं काशी मथुरा समेत साढे तीन सौ धर्मस्थलों की सूची तैयार कर ली थी जहाँ पर मुस्लिमों से टकराहट लेकर मतों का ध्रुवीकरण कराया जा सकता था। राम जन्मभूमि मन्दिर के नाम पर कराये गये दंगों का इतिहास अभी पुराना नहीं हुआ है, और बाबरी मस्जिद को ध्वंस करने वालों को अभी तक सजा नहीं मिल सकी है। 1984 से 1992 तक कभी रामशिला पूजन और कभी अस्थिकलश यात्रा के बहाने पैदा किये गये दंगों से जनित ध्रुवीकरण ने उन्हें दो सीटों से दो सौ तक पहुँचा दिया था। यही कारण रहा कि वे हमेशा ही ऐसे मुद्दे तलाशते रहे। सोनिया गान्धी के राजनीति में सक्रिय होते ही उन्होंने धर्म परिवर्तन के नाम पर ईसाई धर्मस्थलों और उनके स्कूलों व अस्पतालों पर अकारण हमले शुरू कर दिये थे, व ईसाई मिशनरियों को जिन्दा जलाने लगे थे, ताकि इस बहाने सीधे सरल आस्थावानों को ईसाइयत विरोध के नाम पर कांग्रेस के विरुद्ध किया जा सके। ईसाई विरोध के नये नये आयाम तलाशने के चक्कर में उन्होंने दो रुपये के उस सिक्के को भी अपना हथियार बनाना चाहा जिस पर चार रेखायें एक दूसरे को काट रही थीं जिसे उन्होंने ईसाइयों के क्रास की तरह प्रचारित करते हुए बड़ा विरोध किया जैसे कि इस सिक्के पर बने क्रास जैसे चिन्ह के कारण हिन्दू चर्च में जाकर ईसाई धर्म अपना लेगा।   
      यह दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्ज़िद ध्वंस की ही प्रतिक्रिया थी कि जनवरी 1993 में पूरी मुम्बई में विस्फोट हुए व दर्जनों जानें जाने के साथ अरबों रुपयों की सम्पत्ति नष्ट हुयी। बाद में ऐसी ही प्रतिक्रियाएं दिल्ली, जम्मू, गुजरात, बनारस, कानपुर, पुणे, आदि पचासों जगहों पर हुयीं और जन धन का नुकसान हुआ। इस प्रतिक्रिया के बहाने हुए ध्रुवीकरण को तेज करने के लिए संघ-भाजपा परिवार के संघटनों से जुड़े लोगों ने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में सफाई के साथ आतंकी घटनाएं कीं व मीडिया मैनेजमेंट द्वारा सारा सन्देह मुस्लिमों की ओर मोड़ दिया गया था, जिसके बारे में प्रैस परिषद के अध्यक्ष बनने के बाद जस्टिस काटजू ने बहुत स्पष्ट ढंग से मीडिया की निन्दा की थी। यदि मालेगाँव, मडगाँव, कानपुर आदि में निर्माणाधीन बमों में असमय विस्फोट होने की दुर्घटनाएं नहीं हुयी होतीं तो किसी को पता भी नहीं चलता कि अजमेर, हैदराबाद, समझौता एक्सप्रैस आदि में विस्फोट की घटनाओं के पीछे वे लोग नहीं थे जो प्रचारित किये गये थे, और वर्षों से जेलों में बन्द थे।
      मुम्बई में पाकिस्तान से आये हुए तालिबानी आतंकवादियों द्वारा ताज, ओबेराय, ट्राईडेंट होटलों तथा इजरायलियों की बस्ती वाले नरीमन प्वाइंट वाले स्थान पर किये गये हमलों में चुन चुन कर अमेरिकियों को मारने व रेलवे स्टेशन पर और एक अस्पताल पर अँधाधुन्ध फायरिंग से सुरक्षा बलों का ध्यान भटकाने की योजना को पूरा करते हुए जिस हमलावर को जीवित पकड़ा गया था उसका नाम कसाब था। शायद यह सन्योग ही हो कि इन घटनाओं में आतंकवाद विरोधी सैल के वे महत्वपूर्ण अधिकारी भी मारे गये थे जिन्होंने आतंकी घटनाओं में हिन्दुत्ववादी आतंकियों को पकड़ा था और जल्दी ही कोई बड़ा रहस्य उजागर करने वाले थे। जीवित पकड़े गये आतंकी को जल्दी से जल्दी मार देने के लिए, नेतृत्व में वकीलों के बाहुल्य वाला दल भाजपा सर्वाधिक उतावला था, व इस माँग को वह अपनी राष्ट्रभक्ति की नकाब से में लपेट कर उठा रहा था। ऐसा करते हुए वह भारतीय न्याय प्रक्रिया के प्रावधानों के प्रति भी आँखें बन्द किये हुए था। उसने एक ऐसे कैदी के बारे में अतिरंजित व्ययों का प्रचार करना शुरू किया जिसमें किसी सम्वेदनशील कैदी को दी गयी सुरक्षा का खर्च भी सम्मलित था। ऐसा करके वे और सभी तरह के मीडिया में फैले हुए उनके प्रचारक यह दुष्प्रचार करने में लगे हुए थे कि देश की सरकार, पुलिस, और न्याय व्यवस्था इस दुर्दांत हमलावर को बचाने में लगी है व उसे विशिष्ट स्वादिष्टतम भोजन और सुख सुविधाएं उपलब्ध करा रही है। सुरक्षा व्यवस्था व न्याय व्यवस्था के ऊपर आने वाले सारे व्यय को उसके ऊपर हुए व्यय के रूप में प्रचारित किया जा रहा था व कसाब को सरकार के दामाद के रूप में बता कर पूरे देश की व्यवस्थाओं का अपमान किया जा रहा था। सच यह था कि कसाब के खाने पर चार साल में 42,313 रूपये, कसाब के कपडों पर 1,878 रूपये और चिकित्सा पर 39,829रूपये मात्र खर्च किए गए।इन प्रचारकों ने इस दौरान कभी भी इस मापदण्ड से साध्वी के भेष में रहने वाली प्रज्ञा सिंह ठाकुर, दयानन्द पाँडे आदि पर हुए व्यय का हिसाब नहीं लगाया और लगाया हो तो उसे सार्वजनिक नहीं किया। उल्लेखनीय यह भी है कि जब तक ये हिन्दू आतंकवादी नहीं पकड़े गये थे तब तक आतंकवाद सरकार के खिलाफ भाजपा का मुख्य मुद्दा हुआ करता था पर इन आतंकियों के पकड़ में आने के बाद भाजपा ने आतंकवाद का विरोध करना बन्द कर दिया क्योंकि वह तो आतंकवाद के नाम पर पूरे मुस्लिम समाज को कटघरे में खड़ा कर ध्रुवीकरण ही कराना चाहती थी जो अब सम्भव नहीं रह गया था। अब जब कसाब पर हुए खर्च के आँकड़े सामने आ गये हैं तब भी इन्होंने अपने दुष्प्रचार पर शर्मिन्दा होकर क्षमा माँगने की जरूरत नहीं समझी।
      देश में सब जानते और चाहते थे कि कसाब को फाँसी ही होगी और होना भी चाहिए थी क्योंकि किसी भी न्याय के पास इससे बड़ी कोई दूसरी सजा नहीं है। वह एक क्रूरतम अपराध का औजार था और अधिकतम सम्भव दण्ड का पात्र था। एक लोकतांत्रिक देश की न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान करते हुए यह सजा हुयी भी, किंतु संघ परिवार ने जिस तरह से इस स्वाभाविक प्रक्रिया के बीच में जो दुष्प्रचार किया वह परोक्ष में बहुत कपटपूर्ण था। प्रचारित यह किया गया कि यूपीए सरकार वोट बैंक के चक्कर में कसाब जैसे दुर्दांत अपराधी की सजा को टाल रही है और उस पर करोड़ों फूंक रही है। जाहिर है कि वोट बैंक से उनका मतलब मुस्लिम वोट बैंक से था और इस तरह वे परोक्ष में देश के पूरे मुस्लिम समाज को पाकिस्तान के इस आतंकी से सहानिभूति रखने वाला बताते हुए उन्हें गद्दार बता रहे थे, जबकि पूरे देश में कहीं भी किसी मुस्लिम संगठन ने इन आतंकियों के प्रति सहानिभूति नहीं दिखायी थी। मुम्बई के मुस्लिम समाज ने तो मारे गये आतंकियों को अपने कब्रिस्तान में दफनाने से ही मना कर दिया था। पर ध्रुवीकरण से अपने दल का विस्तार करने वाले इनके संगठक ऐसा कोई भी अवसर नहीं छोड़ते हैं अपितु जो नहीं होता है उसे भी अपने झूठ के सहारे पैदा करने की कोशिश करते हुए इससे होने वाले देश के नुकसान के बारे में भी नहीं सोचते।
      उल्लेखनीय है कि कसाव और उसके स्थानीय सहयोगी बताये गये लोगों का मुकदमा लड़ने वाले वकील की गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी जिस के कारण उन दो लोगों को अदालत ने ससम्मान बरी कर दिया था जिन पर सहयोग का आरोप बनाया गया था। यदि उन लोगों को यह वकील नहीं मिला होता तो शायद उन्हें भी आरोपानुसार सजा मिल गयी होती, पर उस वकील की हत्या किसने की यह अभी तक रहस्य बना हुआ है, इस हत्या की जाँच की माँग भाजपा ने करना जरूरी नहीं समझा क्योंकि न्याय और अन्याय की उनकी अपनी परिभाषाएं या मान्यताएं हैं जो भारतीय संवैधानिक न्याय व्यवस्थाओं से भिन्न हैं। बहरहाल कसाब की फाँसी से इकलौते बच रहे आतंकी का अंत भी हो गया है, पर भाजपा के हाथ से दुष्प्रचार का एक बड़ा कार्ड छिन गया है और वे यह भी नहीं बता पा रहे हैं कि अगर अपनी न्याय व्यवस्था को धता बताते हुए यही काम कुछेक महीने पहले हो जाता तो देश का कितना भला हो जाता! कोई आश्चर्य नहीं कि ये लोग कोई और नया मुद्दा तलाश लें पर जैसे जैसे इनकी कलई खुलती जा रही है इनके मुद्दे भी मुर्दों में बदलते जा रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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सोमवार, नवंबर 19, 2012

दिवंगत बाला साहेब ठाकरे- जिन्होंने हमेशा भाजपा पर अंकुश रखा


दिवंगत बाला साहब ठाकरे -जिन्होंने हमेशा भाजपा पर अंकुश रखा
वीरेन्द्र जैन
       बाला साहब ठाकरे ने हिन्दुत्व और मराठी जातीयता की राजनीति को आधार बनाया था, व इस के आधार पर उन्होंने जो संगठन खड़ा किया था उससे देश की आर्थिक राजधानी में व्यापार कर रहे कुबेरों की नस दबाने में सफल रहे थे। जिस दौरान मुम्बई में जो बड़े स्मगलर और माफिया गिरोह थे उनके सरगना कुछ मुस्लिम थे इसलिए उन्होंने अपना संगठन बनाने के लिए हिन्दुत्व का सहारा लिया तथा कुछ साउथ इंडियन थे जिनसे टकराने के लिए उन्होंने महाराष्ट्र में मराठी का नारा उछाला। उनके काम से सुरक्षा पाने वाले धनपतियों ने उन्हें धन और साधन दोनों ही उपलब्ध कराये तथा इस तरह अर्जित धन को उन्होंने संगठन के लिए खर्च किया और पूरी मुम्बई में जगह जगह शिवसेना के स्थानीय कार्यालय बनाये जहाँ एक भयानक शेर के चित्र के नीचे कैरम व शतरंज खेलते हुए बाहुबली युवा देखे जा सकते थे। ये उनकी सेना थे और इसीलिए उन्होंने अपने संगठन का नाम शिवसेना रखा जो लगभग भारतीय पुलिस और न्याय व्यवस्था के समानांतर कार्यरत रही। प्रारम्भ में उन्होंने युवाओं को खर्च दिया पर बाद में अपनी संगठन की दम पर ये स्थानीय कार्यालय आत्म निर्भर होते गये थे। क्षेत्र में प्रत्येक अवैध काम करने वालों को इन संगठनों को वैसे ही हफ्ता देना पड़ता था जैसे कि पूरे देश की पुलिस वसूल करती है। बड़े स्तर पर व्यवसाय करने वालों को भी अपनी सुरक्षा के नाम पर मोटी रकम चुकानी पड़ती थी। क्रमशः उनकी संगठन क्षमता बढती गयी और देश के सबसे महत्वपूर्ण नगर निगम पर अधिकार करने से प्रारम्भ कर उन्होंने प्रदेश की राजनीति में अपने पैर फैला लिये, तथा भाजपा के साथ मिलकर एक बार प्रदेश में सरकार भी बनायी। गठबन्धन की राजनीति में क्षेत्रीय दलों की पूछ परख बढ जाने से राष्ट्रीय राजनीति में भी दखल देने लगे थे।
       महाराष्ट्र की राजनीति में अपना स्थान बना कर बाला साहब ठाकरे ने राष्ट्रीय दल भाजपा की राजनीति को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया क्योंकि उन्होंने जो साम्प्रदायिक आधार लिया था उसी पर भाजपा काम करती है और इस तरह वे महाराष्ट्र में भाजपा के प्रतियोगी रहे। दूसरी ओर उन्होंने भाजपा के साथ जब भी गठबन्धन किया तब अपनी शर्तों पर किया, और बड़ा हिस्सा अपने लिए सुरक्षित रखा। जल्दी से जल्दी सत्ता हथियाने के लालच में भाजपा ने स्वाभिमान बेच कर देश भर में जो समझौते किये हैं उनमें बाला साहब के साथ किये गये समझौतों में सबसे अधिक नीचा देखना पड़ा है। इसका कारण यह था कि शिवसेना की कार्यनीति और दल का आधार उन्हें महाराष्ट्र से बाहर के सपने नहीं देखने देता था, और महाराष्ट्र में उन्होंने इतना बड़ा संगठन खड़ा कर लिया था कि भाजपा को उनके साथ समझौता करने को मजबूर होना पड़ता था। दूसरी ओर बाला साहब की कोई मजबूरी नहीं होती थी कि वे झुक कर समझौता करें। उनका सिद्धांत था कि -
दोस्ती हो तो मेरे तौर पै हो
बरना ये मेहरबानी किसी और पै हो
       उल्लेखनीय है कि भाजपा ने अपनी सत्ता लोलुपता में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबन्धन किया। यहाँ पर भी उनके गठबन्धन साथी को उस समय सत्ता में आने की बहुत जल्दी नहीं थी तथा वे भी झुकना नहीं चाहते थे इसलिए बसपा से अधिक विधायक होने के बाद भी भाजपा ने छह छह महीने मुख्यमंत्री बनने का बेहद हास्यास्पद समझौता किया। भाजपा बड़ी और राष्ट्रीय पार्टी थी फिर भी पहला मुख्यमंत्री बनने की शर्त बहुजन समाज पार्टी की मानने को मजबूर हुए। उस समय पहली बार मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और धर्म बहिन बनीं थी तथा वह जातिवाद पर आधारित बहुजन समाज पार्टी की नेतृत्व वाली पहली सरकार थी जो भाजपा की मदद से बनी थी। इस पर भाजपा का मजाक उड़ाते हुए कार्टूनिस्ट रहे बाला साहब ठाकरे ने कहा था कि यह छह छह महीने की सरकार क्या होती है? अगर कुछ पैदा ही करना था तो कम से कम नौ नौ महीने की सरकार तो बनाते।  उनके इस बयान के बाद से भाजपा की बहुत ही छीछालेदर हुयी थी और बाद में तो मायावती ने छह महीने बाद भी स्तीफा देने से इंकार कर दिया था। पाकिस्तान के प्रति अपनी नफरत का मुखर प्रदर्शन करने वाले बाला साहब ने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मुशर्रफ की भारत यात्रा के दौरान सुषमा स्वराज का उनको आदाब करते हुए चित्र के प्रकाशन पर कहा था कि यह मुद्रा तो मुजरे की मुद्रा है तथा सुषमा जी को इसकी क्या जरूरत पड़ गयी थी। वे अपने मित्र शरद पवार को भी आलू का बोरा कहा करते थे।
       पिछले राष्ट्रपति चुनाव के दौरान उन्होंने अपने बड़े गठबन्धन पार्टनर भाजपा के उम्मीदवार के खिलाफ कांग्रेस की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल का खुला समर्थन किया था जिसे उनकी मराठी राजनीति की मजबूरी बताया गया था किंतु इस चुनाव के दौरान भी उन्होंने कांग्रेसी उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का समर्थन करके यह बता दिया था कि वे भाजपा के पिछ्लग्गू नहीं हैं। महाराष्ट्र में जहाँ संघ का मुख्यालय है, भाजपा की बड़त को रोक कर उन्होंने देश को भाजपा की जकड़ में आने से बहुत हद तक रोके रखा है। उनकी विचारधारा और कार्य प्रणाली से बहुत से लोगों को असहमतियां रही हैं पर कभी विषस्य विष औषधिम की तरह उनके अंकुश के परिणाम सकारात्मक भी रहे हैं। अटल बिहारी की सरकार को तो उन्होंने इतना मजबूर कर रखा था कि अपने पिता के नाम पर भी डाक टिकिट जारी करवा लिया था। आज जहाँ जहाँ भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली राज्य सरकारें हैं वहाँ की मानव अधिकारों के दमन की खबरें रोंगटे खड़े कर देती हैं, तब ऐसा लगता है कि अगर कोई सार्थक विरोध पैदा नहीं हो पा रहा हो तो कम से कम कोई प्रतियोगी ही पैदा हो जाये जो इन निरंकुश सरकारों पर लगाम लगा सके। बाला साहब के सारे दबावों के बाद भी भाजपा कभी उनके खिलाफ मुँह खोलने की हिम्मत नहीं जुटा सकी, उनके निधन से भाजपा पर लगाम लगाये रखने वाला एक महत्वपूर्ण सवार नहीं रहा है। दुखद यह है कि उनकी विरासत जिन लोगों के हाथों में जाने वाली है उनकी रीड़ मजबूत नजर नहीं आती।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, नवंबर 02, 2012

त्योहारों को मनाने की परतंत्रताएं


समाज
त्योहारों को मनाने की परतंत्रताएं
वीरेन्द्र जैन
            त्योहार खुशियों से जुड़े होते हैं। कहा जाता हैं कि त्योहार आते हैं,खुशियां लाते हैं। भले ही त्योहारों का खुशियों से सीधा सम्बन्ध जोड़ा जाता है पर सदैव ऐसा होता नहीं है। हिन्दी के एक सर्वाधिक लोकप्रिय कवि गोपालदास नीरज ने कहा है- ''खुशी जिसने खोजी वो धन ले के लौटा''। त्योहारों  का सम्बन्ध धन से है तब ही वे खुशियां ला पाते हैं।
            खुशियों के लिए धन इसलिए जरूरी होता है क्योंकि खुशियां मनायी जाती हैं और खुशियां मनाने का काम अकेले नहीं हो सकता। अकेले बैठे बैठे अगर आप हँसते मुस्कराते हैं तो पागल समझे जा सकते हैं। ठहाकों के लिए मित्र रिशतेदार परिवार या कुछ अन्य लोगों का होना जरूरी है। खुशी का प्रतीक पटाखों वाला अनार बताया जाता है या फव्वारा- क्योंकि खुशियां फूटती हैं वैसे ही जैसे कि अनार फूटता है या फव्वारा अपनी नन्हीं नन्हीं बूंदें बिखेरता है। यह फूटना और बिखेरना इकतरफा नहीं होता अपितु बहुआयामी होता है- अपना पैगाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे - की तरह खुशियां फैल और बिखर जाना चाहती हैं। यह दान का उफान होता है जो खुशी की ऊष्मा से आता है। अगर हम खुश हैं तो मन कुछ बांटने को, कुछ लुटा देने को करेगा। उसके लिए जरूरी है आपके पास कुछ होना चाहिये। बड़ा आदमी मिठाई बांटता है तो छोटा आदमी इलाइचीदाने या गुड़ चने का प्रसाद चढा कर प्रसाद के नाम पर बांट देता है। यह फैलना और बिखरना कोई निवेश नहीं होता है कि और अधिक पाने की आशा में बीज बोया जा रहा हो। ईसाई धर्म में शायद इसीलिए कहा गया होगा कि एक ऊंट भी सुई के छेद से गुजर सकता है किंतु एक कंजूस आदमी को स्वर्ग में प्रवेश नहीं मिल सकता। कंजूस आदमी कभी खुश होता नहीं देखा जाता क्योंकि उसे लगता हे कि हँसे तो फॅसे। खुश होने के अवसरों पर भी वह विगत या सम्भावित दुखों की कल्पना से अपने को संतुलित कर खुश होने से बच लेता है।

            त्योहारों की तिथियां निर्धारित रहती आयी हैं क्योंकि वे हमारी उत्पादन व्यवस्था से जुड़े होते थे। उनकी परम्परा की स्थापना के समय कृषि ही मुख्य उत्पादन था जो मौसमों पर आधारित थी व मौसम का समय चक्र निर्धारित था। जब फसल आती थी तो त्योहार मनाये जाने की स्थितियां पैदा होती थीं। नये कपड़े गहने आदि को खरीदने की क्षमता तभी आती थी। यह वही समय होता था जब नित्य के एकरस भोजन से ऊबा मन स्वादिष्ट ऊर्जायुक्त खाद्य सामग्री खरीद सकता था, खा सकता था, खिला सकता था।

            जैसे जैसे उत्पादन के साधन बदले वैसे वैसे कृषि आदि परंपरागत साधनों पर हमारी निर्भरता कम होती गयी। जमीनों पर कारखाने लगे भवन बने व किसान श्रमिकों में बदलता गया। साल भर तपाने के बाद समुच्य में आने वाली खुशियों के पल छोटे छोटे होकर साल की बारह 'पहली' तारीखों में बंट गये। वेतन वालों को फसल पकने कटने और बिकने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।

            कृषि में भी सिंचाई के साधन आये, जल्दी व अधिक फसल देने वाले बीज आये, खाद और खरपतवार व कीटनाशक आये तथा ट्रैक्टर हार्वेंस्टर आदि आये जिनकी मदद से कम समय में अधिक फसलें मिलने लगीं। मंडियों की व्यवस्थाएं सुधरीं जिससे जल्दी ही नहीं, अपितु कभी कभी तो एडवांस भुगतान भी मिलने लगे और इस तरह धन प्रवाह के समय में परिवर्तन हुआ। खुशियों के आने की सामूहिकता भंग हुयी। फसलें महाजनों के दबाव से नहीं अपितु बाजार भाव देख कर अपनी अपनी सुविधाओं से बेची जाने लगीं।

            दूसरी ओर खुशियों की अभिव्यक्ति के प्रतीक तो वे त्योहार बना लिये गये थे जिन्हें पुराण कथाओं से निकाल कर लाया गया था जिस कारण उनकी तिथियां निश्चित थीं। इन तिथियों पर त्योहार मनाते मनाते वे एक आदत का हिस्सा हो गये थे। और आदतें आसानी से नहीं छूटतीं। गांव की अन्य सेवाओं से जुड़े लोग भी किसानों के धनप्रवाह की व्यवस्था पर ही निर्भर थे व उसी के अनुसार त्योहार मनाने के अभ्यस्त हो गये थे पर अब उनके पास भी धन का प्रवाह एक मुश्त होने की जगह क्रमश: होने लगा था। लोग कभी भी नये कपड़े बनवाने लगे थे व बरतन गहने खरीदने लगे थे। सेवा क्षेत्र से जुड़े ये लोग त्योहार तो तिथियों पर ही मनाते पर कर्ज लेकर मनाते और ब्याज देकर किश्तों में चुकाते। त्योहार जिन्दा तो रहे पर उनकी चमक कम हुयी क्योंकि ये आदतों और लोक लिहाज से मनाये जाने लगे। वहां त्योहार तो रह गये  पर खुशियां नहीं हैं केवल एक लकीर पीटना भर है।

            विकास के साथ एक नव धनाडय वर्ग उदित हुआ जिसके पास उसकी मूलभूत आवश्यकताओं से बहुत अधिक पैसा आ गया। उसे खर्च करने के लिये अवसर तलाशे गये, जिसकी पूर्ति में नये नये उत्सव या तो पैदा किये गये, आयात किये गये या भूले बिसरे उत्सवों में नयी जान फूंकी गयी। जन्मदिन मनाने की परम्परा जो बच्चों तक सीमित थी बूढों तक पहुंच गयी। विवाह की वर्षगांठ मनायी जाने लगी। विवाह के पच्चीस साल होने पर सिल्वर जुबली के रूप में पुर्नविवाह  जैसे आयोजन होने लगे। करवा चौथ में भव्यता जुड़ने के साथ साथ वैलन्टाइन डे, मदर्सडे, फादर्सडे, न्यू इयर्स डे आदि भी मनाये गये। पर ये सभी उस उच्चमध्यमवर्ग और उससे ऊपर ही रहे। ये नये त्योहार निम्न आयवर्ग  तक नहीं पहुंच सके।

            निम्नमध्यमवर्ग और निम्नवर्ग सबसे दुखी अवस्था में है जहां एक ओर से उसकी गरदन परंपरागत सामंती समाज की सोच दबोचे हुये है वहीं दूसरी ओर से पूंजीवाद ने दबोच रखी है। धर्मिक आतंक से डराता सामंती सोच उसे परंपरागत ढंग से त्योहार मनाने को विवश किये हुये है तो पूंजीवादी सोच ने उसे मनाये जाने के ढंग बदल कर उसकी पहुंच से दूर कर दिया है। पूंजीवादी व्यवस्था में त्योहार भी आदमी की  व्यक्तिगत खुशी का आयोजन है जिसे उसको अपनी जेब  देख कर ही मनाना चाहिये। त्योहार के लिए वेतन के बदले उसे एडवांस तो मिल सकता है पर भत्ता नहीं। जो एडवांस मिला है वह वेतन से कटेगा। अगर कोई व्यक्ति नहीं मनाता है तो समाज की उंगलियां उठती हैं और मनाने पर महाजन की।

            हम दो युगों के संक्रमणकाल में जी रहे हैं और हमारा चरित्र क्रान्तिकारी नहीं है। ऐसा बहुत कुछ है जिसे हम (मध्यमवर्गीय) सही समझते हैं किंतु उसे अपनाने का साहस नहीं है। हमारे हाथ नया आसमान छूना चाहते हैं पर हमने अपने ही पांवों में बेड़ियां डाल रखी हैं। हम इस पार से उस पार जाना चाहते हैं पर जा नहीं पाते। शरीर से यहां होते हुये भी मन से वहां हैं। त्योहार फिर आ रहे हैं और हम बिना कोई प्रश्न किये हुये उन्हें मनाने के लिए फिर जुट जायेंगे । नई नई विदेशी कम्पनियों द्वारा उत्पादित सामग्री के विज्ञापन हमें बतायेंगे कि हम अपना त्योहार कैसे मनायें। देश के नामी गिरामी सितारे माडल बन कर हमारी प्रथाओं में महीन परिवर्तन करते चले जायेंगे  जिसे हम स्वीकार करते चले जायेंगें। ये परिवर्तन इतने अधिक हो रहे हैं कि हमारे त्योहारों के स्वरूप ही बदल गये पर हमें कोई शिकायत नहीं हुयी। हमारी दीवाली में गोबर चूने की जगह डिस्टेम्पर आ गये, दीपों की जगह विद्युत झालरों ने ले ली और हम मेहमानों का स्वागत गुझिया पपड़िया की जगह कोका कोला से करने लगे। उत्तर भारत में चौराहों पर बड़े बड़े पंडाल लगाकर दानवाकार मूर्तियों की स्थापना कर इस्लामिक संस्कृति की तरह सामूहिक पूजा प्रार्थना ने कब प्रवेश कर अपनी पक्की जगह बना ली हमें पता ही नहीं चला। आज क्या मजाल हैं कि मुहल्ला स्तरीय नेतृत्व विकसित करने के अभियान में चंदाखोर बाहुबलियों के आगे कोई ये कह सके कि इसका हमारी परंपरा से कुछ भी लेना देना नहीं है क्योंकि हमारी पूजा अर्चना विधिवत स्थापित देवालयों में व्यक्तिगत ही होती रही है। यह सोची समझी नीति है जो आज गरवा के आयोजनों का काम बड़ी बड़ी कम्पनियां करवा रही हैं।

            पता नही हम अपनी संस्कृति स्वयं निर्मित करने और उस पर अमल करने लायक स्वतंत्रता कब पा सकेंगे।

वीरेन्द्र जैन
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