रविवार, जुलाई 28, 2019

सैंया भये कुतवाल, 49-62 , माबलिंचिंग


सैंया भये कुतवाल, 49-62 , माबलिंचिंग
वीरेन्द्र जैन

जब बेहूदगियों का नंगा नाच हो रहा हो तो किसी लेख का ऐसा ही शीर्षक सूझता है।
जब पूरा देश ऐसे वीडियो देख कर दहशत में जा रहा हो जिसमें किसी अकेले आदमी को पकड़ कर एक समूह इतनी निर्ममता से पीटता दिखता है कि उसकी जान चली जाये, जिसे दर्जनों भयभीत लोग तटस्थ भाव से देखते रहने को मजबूर हों, या चोरी छुपे वीडियो बना रहे हों तो देश की सम्वेदनशील मेधा उसे चुपचाप नहीं देख सकती। एक समय तक वह आपराधिक घटना मानकर कानून की रखवाली करने वाली सरकार की कार्यवाही की प्रतीक्षा कर सकती है किंतु जब एक ही तरह की घटनाएं देश भर में होने लगें और निष्क्रिय सरकार अपराधियों के बचाव में दिखने लगे तो बुद्धिजीवी चुप कैसे बैठ सकता है। यही कारण था कि देश के जाने माने लेखकों, इतिहासकारों, वैज्ञानिकों, और पत्रकारों की नृशंस हत्या के विरोध में विभिन्न क्षेत्रों में देश के शिखर सम्मान प्राप्त लोगों ने अपने सम्मान वापिस कर दिये थे। उल्लेखनीय है कि ऐसा करके उन्होंने रवीन्द्र नाथ टैगोर जैसे लोगों का अनुशरण किया था जिन्होंने जलियांवाला हत्याकांड के विरोध में अंग्रेजों द्वारा दी गयी उपाधि वापिस कर दी थी। उनके साथ देश भर के अनेक लोगों ने ‘सर’ की उपाधि वापिस की थी किंतु अंग्रेजों ने कभी उन्हें अवार्ड वापिसी गैंग कह कर नहीं पुकारा था। एक बार फिर देश के प्रमुख कला जगत के लोगों ने सरकार का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की है।
उक्त घटनाएं न केवल खराब कानून व्यवस्था का उदाहरण थीं अपितु एक खास विचारधारा के लोगों को हमलों का निशाना बनाया गया था। इन हमलों का आरोप भी उन लोगों पर लगा था जो अलग अलग नामों से सत्तारूढ दल की विचारधारा के समान सोच की संस्थाओं से थे। यही कारण रहा कि कानून व्यवस्था की इस टूटन पर सत्ताधारी दल के लोग चुप्पी साधे रहे। अगर वे इसे किसी असम्बद्ध का आपराधिक कर्म मानते तो उन लोगों के साथ खड़े होते जो इसका विरोध कर रहे थे या जाँच कार्यवाही में युद्धस्तर की कार्यवाही करते अथवा ऐसा बयान ही देते। उसकी जगह उन्होंने अपने पालतू मीडिया या सत्ता से लाभ लोभ के आकांक्षी कमतर लोगों को अधिक संख्या में बुद्धिजीवियों के विरोध में उतार दिया। इन लोगों के कथनों और बयानों में घटनाओं के सम्बन्ध में कहने को कुछ नहीं था किंतु घटनाओं के विरोध में आवाज उठाने वालों को देने के लिए गालियों का भंडार था। खेद की बात है कि इन्हीं की भाषा लेकर देश के प्रधानमंत्री पद पर बैठ व्यक्ति ने भी उन्हें अवार्ड वापिसी गैंग या टुकड़े टुकड़े गैंग अर्बन नक्सल व पेशेवर निराशावादी कह कर अपनी वैचारिक दरिद्रता का परिचय दिया। ऐसे में 49 बुद्धिजीवियों के अनुरोध पत्र के उत्तर में सरकार 62 सिर गिनाने लगती है भले ही 49 में से किसी एक के मुकाबले पूरे 62 कहीं नहीं ठहरते हों।  
हमारी न्याय व्यवस्था और जाँच व्यवस्था के दोषों के कारण बहुत सारे आरोपियों को सजा नहीं मिल पाती या इतनी देर से मिलती है कि वह ‘विलम्बित न्याय अर्थात अन्याय’ के कथन के अंतर्गत आ जाती है। किंतु जनता की आंखों देखी घटनाओं में बाइज्जत बरी हुआ आरोपी भी बरी नहीं होता है। न जाने कितने न्यायिक फैसलों में कोर्ट को लिखना पड़ा है कि आरोपी को इसलिए बरी करना पड़ रहा है क्योंकि प्रासीक्यूशन ने उचित तरीके से केस प्रस्तुत नहीं किया, सबूत पेश नहीं किये या गवाह पलट गये।
घटित घटनाओं पर सम्वेदनशील बुद्धिजीवियों की ईमानदार भावुक अपील पर भाड़े के लोग प्रतिकथन करते हैं कि ये लोग फलां घटना पर नहीं बोले थे पर यह नहीं बताते हैं कि कथित घटना पर वे स्वयं क्यों इसी तरह से नहीं बोले। और यदि बोले हों तो क्या इन बुद्धिजीवियों ने उनकी तरह से उनका विरोध किया! बुद्धिजीवी जिन घटनाओं पर बोले, उन पर क्या ये भाड़े के बुद्धिजीवी और चैनलों के एंकर बोले? ये केवल बोलने की प्रतिक्रिया में ही क्यों बोलते हैं? दायित्व तो यह है कि जिसको जहाँ गलत दिख रहा हो वह उसके खिलाफ बोले और एक दूसरे का सहयोग करे किंतु सरकार की गलतियों का बचाव करने वाले ये लोग घटनाओं को इंगित करने वालों का ही कुत्सित विरोध करके गलत घटनाओं के दोषियों के पक्ष में खड़े नजर आते हैं। किसी भी व्यक्ति को कानून के विरुद्ध हिंसा में सहयोग करना भी अपराध है। पीड़ित व्यक्ति यदि दलित, महिला, या अल्पसंख्यक जैसे कमजोर वर्ग का है तो हमारा संविधान भी उन्हें विशेष अभिरक्षण देने की बात करता है। इन वर्गों के प्रति विशेष सहानिभूति होना किसी सुशिक्षित सम्वेदनशील व्यक्ति का प्राथमिक कर्तव्य होता है। संविधान में आरक्षण व्यवस्था का भी यही आधार है।
निरंतर दुष्प्रचार से इन्होंने समाज के एक वर्ग के मन में यह बैठा दिया है कि मुसलमान विदेशी है, हिंसक है, आतंकियों का मददगार है, पाकिस्तान का पक्षधर है, आबादी में वृद्धि करके देश के संसाधनों का दोहन कर रहा है और एक दिन बहुसंख्यक हो जायेगा। इस दुष्प्रचार का तत्कालीन सत्तालोभियों ने कभी प्रभावी विरोध नहीं किया। यही कारण है कि एक वर्ग उन्हें दुश्मन मानता है और उनके किसी भी नुकसान पर अपनी विजय देखता है। मुसलमानों के अपने राजनीतिक दल भी वोट बैंक के लालच में ऐसी हरकतें करते हैं जिससे इस वर्ग की सोच को बल मिलता है। अखलाख की सरे आम हत्या हो या मुज़फ्फरनगर के दंगे हों उनमें गहराई तक बो दिये गये इस दुष्प्रचार ने मदद की। राजस्थान में शम्भू रैगर द्वारा वीडियो बना कर एक बंगाली मजदूर की गयी हत्या के बाद उसकी पत्नी के खाते में लाखों रुपये भेजने वाले कौन थे? उसके पक्ष में न्यायालय के शिखर पर भगवा झंडा फहराने वाले पचासों नौजवानों को किसने तैयार किया था? उस घटना के विरोध में इन भाड़े के लोगों में से कितने लोग बोले थे? माब लिंचिंग करते समय पीड़ित से जयश्री राम बुलवाना किस बात का प्रतीक है?
सच तो यह है कि दुष्प्रचार से प्रभावित यह वर्ग मोदीशाह वाली भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार आ जाने से ‘सैंया भये कुतवाल’ वाली मानसिकता में आ गया है और गुजरात से लेकर मुजफ्फरनगर तक विभिन्न आरोपियों के बरी होते जाने से प्रोत्साहित हो रहा है। आरोपियों के बचाव में जो लोग आते हैं वे एक ही नाल नाभि से जुड़े लोग हैं। राज्यों में सारी नैतिकताओं को तिलांजलि देकर सरकारें बनायी जा रहे हैं, ताकि दमनकारी ताकतों पर नियंत्रण बना रहे और अभियोजन अपने हाथ में रहे। आरटीआई जैसे कानूनों को बदलकर जनता के हाथों से बचीखुची ताकत छीनी जा रही है। एनएसए जैसी संस्थाओं की ताकत बढाई जा रही है सीबीआई को और पालतू तोतों से भरा जा रहा है।  शायद ऐसी ही स्थिति में इमरजैंसी के दौरान दुष्यंत कुमार ने लिखा था-
कैसे मंजर सामने आने लगे हैं
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629


   

शनिवार, जुलाई 13, 2019

क्या यह दो संविधानों का टकराव है

क्या यह दो संविधानों का टकराव है
वीरेन्द्र जैन

गत दिनों उत्तर प्रदेश के एक ब्राम्हण विधायक की बेटी ने एक दलित युवक से विवाह कर लिया और अपने पिता के डर से नव दम्पत्ति नगर से भाग गया। इतना ही नहीं विधायक और उसके बाहुबलियों के डर से युवक के परिवार को भी नगर से भागना पड़ा। विधायक भाजपा के हैं और उसी पार्टी की प्रदेश और देश में सरकार है। इसी घटना के कुछ दिन पूर्व गुजरात में ऐसी ही शादी हुयी थी तब घर आये हुये दामाद को उसके ससुर और सालों ने मार डाला था जबकि लड़की गर्भवती थी। इसी दौरान उत्तर प्रदेश के औरैया में प्रेम विवाह करने वाले लड़के लड़की को मार कर पेड़ पर लटका दिया गया। ऐसे ही भय से ग्रस्त होकर पत्रकारिता की पढाई कर चुकी उत्तर प्रदेश के विधायक की शहर छोड़ कर भागी हुयी बेटी ने जब अपने प्रवास स्थल के बाहर पिता के परिचित कुछ लोगों को सन्दिग्ध अवस्था में घूमते पाया तो उसने न केवल अपना फोटो वायरल किया अपितु स्वेच्छा से अपनी शादी की घोषणा करते हुए अपने पिता से अपनी जान को खतरा बताया व पुलिस कप्तान से मदद मांगी। इस कहानी को न्यूज चैनलों ने उठा लिया और कुछ ही समय में इसे नैशनल न्यूज में बदल दिया। उल्लेखनीय है कि देश में इसी तरह के अंतर्जातीय विवाहों से नाराज परिवारियों द्वारा प्रतिवर्ष सैकड़ों सम्भावनाशील युवाओं की हत्याएं हो रही हैं जिन्हें प्रैस के लोग आनर किलिंग कह कर हत्याओं की निर्ममता को कम करने की कोशिश करते हैं। इतनी बड़ी संख्या में हो रही इन देशव्यापी हत्याओं पर हर मंच पर विस्तार से बात होना चाहिए।  
उत्तरप्रदेश के विधायक की इस बेटी ने साहस करके जान पर खेल अपने पिता और उनके सहयोगियों को चुनौती दी है। औपचारिक रूप से तो विधायक अपनी बेटी के बालिग होने के आधार पर उसका वैधानिक अधिकार बता रहे हैं, किंतु उस शादी को स्वीकारने के सवाल पर ‘नो कमेंट’ कह कर बात को टाल जाते हैं। यह उनकी बेटी द्वारा अपने सवैधानिक अधिकार के स्तेमाल पर सहमत न होने के संकेत हैं क्योंकि ज्यादा पूछने पर वे अपनी पत्नी सहित आत्महत्या की धमकी दे कर सामने वाले को चुप करा देते हैं। बेटी की बातें बताती हैं कि वे प्रतिशोध से भरे हुये होंगे।
यह संक्रमण काल है। इसमें दो संविधानों का टकराव चल रहा है। हम एक ओर तो चन्द्रमा पर यान उतारने की तैयारी करते हुये ट्रिलियन डालर में बजट प्रस्तुत कर रहे आधुनिक युग में प्रवेश करते जा रहे हैं किंतु दूसरी ओर हम अभी भी पुराने सामंती युग को जी रहे हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने दस साल में हजारों साल पुराने जातिवादी समाज के समाप्त हो जाने का खतरा देखा था किंतु सत्तर साल में भी हम समुचित आगे नहीं बढ सके हैं। उल्लेखनीय है कि संविधान सभा के गठन के समय आरएसएस के नेताओं ने कहा था कि जब हमारे पास मनुस्मृति है तो नया संविधान बनाने की क्या जरूरत है। संविधान निर्माता डा. अम्बेडकर भी इस बात को महसूस करते थे कि मनुस्मृति से मुक्ति पाये बिना नया संविधान अपना उचित स्थान नहीं बना सकेगा। शायद यही कारण रहा होगा कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति के दहन का आयोजन किया था और लाखों लोगों को अपना पुराना धर्म त्याग कर दूसरे धर्म को अपनाने के लिए प्रेरित किया था। उनका जोर नये धर्म को अपनाने के प्रति कम और पुराने धर्म को त्यागने के प्रति अधिक था जिससे नये समाज के नागरिक बदलाव को स्वीकार करने की आदत डाल सकें। इसका संकेत इस बात से मिलता है कि उन्होंने कहा था कि मैं हिन्दू धर्म में पैदा जरूर हुआ हूं किंतु हिन्दू धर्म में मरूंगा नहीं।
संविधान के अनुसार युवाओं को अंतर्जातीय, अंतर्धार्मिक विवाह करने का अधिकार है और विवाह की उम्र होने पर वे इस अधिकार का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं। मनोरंजन और शिक्षण के लिए सबसे सशक्त दृश्य माध्यम में जिन फिल्मों, नाटकों और सीरियलों को करोड़ों लोग देखते हैं उनमें भी युवाओं को अपनी मर्जी से जीवन साथी चुनने की कहानियों को अंकित किया जाता है। ऐसी कहानियां पूरे परिवार के साथ देखी जाती हैं और जीवन साथी के मिल जाने पर पूरा परिवार एक साथ बैठ कर ताली बजाता है, खुशी व्यक्त करता है। ऐसी फिल्मों की लोकप्रियता और व्यावसायिक सफलता बताती है कि ये भावना कितनी गहराई तक घर कर चुकी है। इसके विपरीत जब संवैधानिक अधिकार प्राप्त घर का कोई नागरिक अंतर्जातीय, अंतर्धार्मिक विवाह का सवाल उठाता है तो पूरा परिवार मनुस्मृति से संचालित होने लगता है और जाति ही नहीं अपितु गोत्र, उपगोत्र तक के सवाल उठाये जाने लगते हैं। मनुस्मृति और भारतीय संविधान दोनों साथ साथ नहीं चल सकते। भारतीय संविधान के अनुसार जाति, धर्म, रंग, लिंग, भाषा, और क्षेत्र के बिना सभी समान नागरिक हैं और तयशुदा उम्र के बाद उन्हें विवाह का अधिकार है जबकि कभी संघ  द्वारा भारतीय संविधान के विकल्प के रूप में प्रस्तावित मनु स्मृति में ऐसा नहीं है। तय करना होगा कि देश में कौन सा संविधान चलेगा? तय करना होगा कि भारत के संविधान की शपथ लेने वाली सत्तारूढ भाजपा के अब मनुस्मृति के बारे में क्या विचार हैं? विवाह के बारे में परिवार, जाति समाज, व धार्मिक गुरुओं का संविधान विरोधी दखल रोकना होगा और युवाओं को संवैधानिक अधिकार से वंचित करने वालों पर देशद्रोह जैसा आरोप लगाना होगा, क्योंकि देश भारत के संविधान से ही चलेगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल के प्रारम्भ में संविधान के आगे सिर झुका कर प्रतीकात्मक रूप से एक संकेत दिया था जिसके सच करने का समय है।
 युवाओं को अपनी मर्जी से विवाह के अधिकार के बारे में किसी घटना के घटित होने के अलावा भी बातचीत होना चाहिए, कालेजों आदि शिक्षण संस्थाओं व कार्यस्थलों पर इस विषय पर जानकारी देने के कार्यक्रम आयोजित होने चाहिए व राजनीतिक दलों को वोटों की राजनीति से ऊपर उठ कर इसका प्रचार करना चाहिए। इससे जातिवादी राजनीति से ऊपर उठने में भी मदद मिलेगी, साम्प्रदायिकता घटेगी। उल्लेखनीय है कि अभी लोकसभा चुनावों के बाद श्री नरेन्द्र मोदी इस बात को रेखांकित कर चुके हैं कि इस बार लोगों ने जातिवाद से ऊपर उठ कर मतदान किया, तथा सबका विश्वास जीतने की इच्छा व्यक्त करते हुए साम्प्रदायिकता से मुक्ति की कामना की है। किसी भी धर्म की कोई भी पुस्तक अगर जनता के संवैधानिक अधिकारों से टकराती हैं तो संविधान की बात ही मानी जाना चाहिए। एक देश में एक संविधान के नारे को इस तरह से भी देखा जाना चाहिए।
उत्पादन के साधन बदलने और नई आर्थिक नीति लागू होने के साथ साथ उक्त घटनाओं में बढोत्तरी हो सकती है। अगर हमने आज सचेत होकर जरूरी तैयारी कर ली तो भविष्य में पछताना नहीं पड़ेगा।
 वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

       

सोमवार, जुलाई 08, 2019

सबका विश्वास, किसका विश्वास


सबका विश्वास, किसका विश्वास
वीरेन्द्र जैन

नरेन्द्र मोदी ने सबका साथ, सबका विकास में एक और टुकड़ा जोड़ा है ‘सबका विश्वास’। यह टुकड़ा उन्होंने अपने दूसरे कार्यकाल में जोड़ा है जिसका अर्थ है कि वे स्वीकार करते हैं कि स्पष्ट बहुमत वाली सीटें जीत कर भी दोनों बार ही उन्हें देश में सबका विश्वास प्राप्त नहीं था।
हमारे बहुदलीय लोकतंत्र में सरकार बनाने वाले दल को सबका विश्वास सम्भव भी नहीं होता, इसमें मिले हुए समर्थन से भी बड़ा किंतु बिखरा विपक्ष सामने रहता है। दोनों ही बार स्पष्ट बहुमत वाली सदस्य संख्या से सरकार बना लेने के बाद भी भाजपा के पक्ष में क्रमशः 31% और 37% मत ही उन्हें मिले हैं। दक्षिण के राज्यों से उन्हें वैसी जीत नहीं मिली है जैसी मध्य और पश्चिमी राज्यों में मिली है।
असल में सबका विश्वास से उनका आशय सभी जातियों और धर्मों के लोगों का विश्वास प्राप्त करने से लगाया गया है। चूंकि भाजपा एक हिन्दूवादी सवर्ण पार्टी के रूप में जानी जाती है और अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों का समर्थन भाजपा को नहीं मिलता। इतना ही नहीं अपितु माना जाता है कि मुसलमानों का वोट उस पार्टी को जाता है जो भाजपा को हराता हुआ नजर आती है। इस तरह से देश की लगभग बीस प्रतिशत आबादी का मत गैर राजनीतिक आधार पर लुट जाता है। शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार, मंहगाई, सुरक्षा आदि के सवाल उनकी पहचान और अस्तित्व की रक्षा के पीछे छुप जाते हैं। जिन्हें ये वोट मिल जाते हैं वे अपने मूल वोटों से मिला कर अपने कमजोर या बिना मुद्दों के भी चुनाव जीत जाते हैं। काँग्रेस, समाजवादी, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल काँग्रेस ही नहीं कुछ हद तक वामपंथियों को भी इसका चुनावी लाभ मिला है। इसके विपरीत जनसंघ के नये रूप भाजपा को कट्टर हिन्दूवादी वोट भी ऐसे ही मिल जाते हैं।
लोकतंत्र को नुकसान पहुँचाने वाले ध्रुवीकरण से दोनों तरफ लाभ होता है किंतु हिन्दूवादी दलों को उसका अधिक लाभ मिलता है क्योंकि वे बहुसंख्यक हैं। यही कारण है कि विभिन्न निष्पक्ष जाँच आयोगों ने पाया है कि प्रायोजित दंगों में हिंसा किसी भी पक्ष की ओर से अधिक हुयी हो, पर साम्प्रदायिकता फैलाने का प्रारम्भ बहुसंख्यकों के दलों से जुड़े संगठन ही करते हैं। वे ही नफरत फैलाने और बनाये रखने के लिए मासूम किशोरों व बच्चों को जोड़ कर नियमित बैठकें करते रहते हैं, उन्हें असत्य इतिहास सिखाते हैं व नफरत के बीज बोते हैं। 1992 के बाद इसी होड़ में कुछ मुस्लिम संगठन भी यही काम करके परोक्ष में उनकी मदद करने लगे हैं। इससे वातावरण ज्वलनशील बना रहता है, जिसमें आग लगाने के लिए एक छोटी सी चिनगारी ही काफी होती है। भाजपा इसका उपयोग करने में सिद्धहस्त हो चुकी है। अब तो उसके पास कम्प्यूटराइज्ड आंकड़े और सोशल मीडिया भी दुरुपयोग के लिए उपलब्ध हैं। उल्लेखनीय है कि ताज़ा चुनावों में लगभग नब्बे प्रतिशत सदस्य करोड़पति हैं और 40% से अधिक लोग गम्भीर अपराधों के दागी हैं। ऐसा इसलिए सम्भव हुआ है क्योंकि चुनाव के मुद्दे वे नहीं थे जो होना चाहिए थे। ध्रुवीकरण, धनबल और बाहुबल ने साथ आकर लोकतंत्र का स्वरूप ही बदल दिया है।
सवाल उठता है कि जब सरकारी दल पिछले चुनावों की तुलना में अधिक समर्थन पाकर अधिक सीटों के साथ पुनः सत्तारूढ हो गया है तो सबका विश्वास क्या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छवि सुधारने का जुमला है या सचमुच का बदलाव है? सन्देह इसलिए भी होता है क्योंकि जब तक कि वे एक मध्यम मार्गी राजनीतिक दल के रूप में खुद को स्थापित नहीं कर लेते, ध्रुवीकरण से दूरी कैसे बना सकते हैं, जो उनकी सफलता का मूल आधार है और उसे छोड़ना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होगा। भाजपा का जो मूल वोट है वह मुसलमानों के प्रति नफरत से ही जुड़ा हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर घटित आतंकी घटनाओं का स्तेमाल अपने देश के मुसलमानों के प्रति नफरत बढाने में किया जाता है। कश्मीर के अलगाववादियों को भी साम्प्रदायिक दृष्टि से देखा जाता है और प्रचारित किया जाता है। दूसरी तरफ कुछ मुस्लिम राजनीतिक दल मुसलमानों के बीच इस बात को प्रचारित करने में लगे हैं कि उनका हित धर्मनिरपेक्ष दलों की जगह उनके साथ आने में सुरक्षित है। इन दलों को तेलंगाना, असम, केरल और महाराष्ट्र में समर्थन बढता भी जा रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि स्वभावतः धर्मनिरपेक्षता की पक्षधर वामपंथी पार्टियों को समर्थन घटा है। अवसरवादी धर्मनिरपेक्ष दलों के सदस्य कब सत्तारूढ दल की गोदी में बैठ जायें इसकी कोई गारंटी नहीं है।
भाजपा भी अब पुरानी भाजपा नहीं है अपितु वह और अधिक चतुर मोदीशाह जनता पार्टी है, जो अटल बिहारी वाजपेयी तक की रीति नीतियों को सम्मान के साथ याद नहीं करती, अपितु उनके कार्यकाल को भी काँग्रेस शासन से जोड़ कर देखती है। पुराने सारे लोगों को किनारे लगा दिया गया है और उनका भी विश्वास इन्हें हासिल नहीं है। जो लोग चुन कर लाये गये हैं वे चुनाव जिता देने के लिए उपकृत भक्त तो हैं किंतु विश्वसनीय नहीं हैं इसलिए उन्हें सत्ता से दूर रखा जा रहा है। राजनाथ सिंह जैसे इक्के दुक्के पुराने मंत्री भी सत्ता में प्रतीक की तरह हैं और सत्ता के प्रमुख फैसलों के लिए नौकरशाही से लोग लाये गये हैं। यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, राम जेठमलानी, आदि का विश्वास तो पहले ही हार चुके थे, अब तो अडवाणी, जोशी, शांता कुमार ही नहीं, सुषमा स्वराज और अरुण जैटली का विश्वास भी प्राप्त नहीं है। सुब्रम्यम स्वामी जैसे लोग तो पहले भी आलोचक रहे हैं और अब तो सारे अर्थशास्त्री भी उन जैसी भाषा बोलने लगे हैं। एनडीए के साथियों में से सबसे प्रमुख दल जेडी[यू] उनसे विमुख हो गया है व शिवसेना भी संतुष्ट नहीं हो पा रही है। अपना दल रूठा हुआ है, तो बीजू जनता दल तो सदा से दूरी बना कर चलता रहा है। तृणमूल काँग्रेस के लिए भरपूर कोशिश की गयी थी किंतु ममता बनर्जी भी फिलहाल दुश्मनी दिखा कर चल रही हैं।
जिन लोगों की हरकतों के कारण दुनिया भर में बदनामी हो रही है, उनके खिलाफ भी केवल जुबानी जमा खर्च चल रहा है, किसी के प्रति भी प्रभावी अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं हुयी है। कहा तो यह भी जा रहा है कि आरएसएस भी मोदीजी के कद को जरूरत से ज्यादा बढने में खतरा महसूस कर रहा है और छवि निखारने वाले किसी भी कदम को वापिस लेने का दबाव बना सकता है, जैसा कि प्रारम्भ में कथित गौरक्षकों के खिलाफ दिये गये अपने बयान से मोदी को पीछे हटना पड़ा था। उनका यह कहना भी जुमला ही साबित हुआ कि किसी दलित को मारने की जगह मुझे मारो। अब भी दलित उनके गुजरात में ही घोड़ों से उतार उतार पीटे जा रहे हैं।
क्या सबका विश्वास जीतने का जुमला केवल कुछ मुख्तार अबास नकवी, और शाहनवाज जोड़ने तक सीमित होकर रह जायेगा?   
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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