मंगलवार, जुलाई 30, 2013

मोदीमय होती भाजपा की बदलती भाषा और प्रतीक

मोदीमय होती भाजपा की बदलती भाषा और प्रतीक

वीरेन्द्र जैन
        जैसे जैसे भाजपा मोदीमय होती जा रही है वैसे वैसे उसके छोटे बड़े नेता वाणी का संयम खोते हुए ऊल जुलूल बोलने लगे हैं। उल्लेखनीय है कि भरतीय संस्कृति का मुखौटा पहिने भाजपा एक लम्बे समय तक चतुराईपूर्ण भाषा व प्रतीकों के माध्यम से साम्प्रदायिकता के कुटिल प्रयोग करती रही है, तब अनेक चालाक भाषा शास्त्री उसकी योजनाएं बनाते थे। ऐसा करते समय वे भले ही दादा कौणकेनुमा बहुअर्थी बातों का प्रयोग करते रहे हों किंतु उनकी भाषा में वक्त जरूरत के लिए एक शिष्ट अर्थ भी होता था। स्मरणीय है कि एक पैट्रोल डीजल चलित वाहन को रथ का नाम संघ परिवार की ओर से ही दिया गया और भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवाणी जिस डीसीएम टोयटा वाहन द्वारा सोमनाथ से अयोध्या की ओर चले थे उसे रथ और उनकी इस राजनीतिक यात्रा को रथयात्रा कहा गया था। संज्ञा का यह परिवर्तन बहुत बारीक खेल था। रथ, पशुओं द्वारा खींचा जाने वाला एक प्राचीन सामंती वाहन था जिसके उपयोग के उदाहरण हमारी पुराण कथाओं में मिलते हैं। महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ को श्रीकृष्ण द्वारा सारथी की भूमिका में संचालित किये जाने का वर्णन और उस आशय के अनेक चित्र लोगों की स्मृतियों में बसे हुए हैं। उड़ीसा में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा भी बहुत प्रसिद्ध है। जब अडवाणीजी द्वारा रथ का नाम देकर यात्रा निकाली गयी थी तब उस मोटर वाहन को रथ का रूप भी दिया गया था। उस दौर की पूरी राजनीतिक परिस्तिथि, साम्प्रदायिक घनत्व, को देख कर इस यात्रा की पटकथा, रास्ता, और उत्तेजक नारे तय किये गये थे। वाहन पर उनकी पार्टी का बड़ा सा चुनाव चिन्ह भी अंकित था किंतु सावधानीवश पार्टी का नाम नहीं था। आवश्यकतानुसार वे कमल के फूल को भारतीय और हिन्दू संस्कृति से जोड़ कर अर्थ बदल सकते थे। कथित राम जन्मभूमि मन्दिर के पुनर्निर्माण से शुरू करके उन्होंने चतुराई से उसे अयोध्या में भव्य राम मन्दिर निर्माण के अभियान में बदल दिया था और बड़े नाटकीय भोलेपन से सवाल करते थे कि अयोध्या में भगवान राम का मन्दिर नहीं बनेगा तो कहाँ बनेगा? जबकि सच यह था कि वे अयोध्या में रामजन्म भूमि मन्दिर के स्थान पर बनी बतायी मस्ज़िद को तोड़ने के लिए एक सम्प्रदाय की भावनायें उकसाना और दूसरे समुदाय की भावनाओं को भड़काना ही उनका लक्ष्य था, ताकि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से बहुसंख्यक वोट बटोरे जा सकें। अपने शोर शराबे भरे धुआँधार प्रचार में वे एक ऐसी विशाल तस्वीर का दुष्प्रचार कर रहे थे जिसमें भगवान राम एक सलाखों वाली कोठरी में कैद से प्रदर्शित हो रहे थे। जबकि सच यह था कि बाबरी मस्ज़िद में कई दशकों से नमाज नहीं पड़ी जा रही थी और जब से 1949 में तत्कालीन जिलाधीश द्वारा षड़यंत्र पूर्वक रामलला की मूर्ति स्थापित कर दी गयी थी तब से वहाँ उनकी पूजा हो रही थी। असंख्य अन्य मन्दिरों की तरह वहाँ भी सुरक्षा और दर्शन की सुविधा एक साथ देने के लिए सामने से सलाखों वाले पट लगे हुए थे। उक्त जिलाधीश बाद में जनसंघ के टिकिट पर लोकसभा का चुनाव भी लड़े थे।   
       उक्त उदाहरण उस दौर की, जिसे अटल-अडवाणी दौर कहा जा सकता है, की भाषागत चतुराई के उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। आज जब सब कुछ मोदी अर्पित किया जा रहा है तब आज की भाषा अपेक्षाकृत अशिष्ट और अधिक फासीवादी है। सोशल मीडिया पर अनेक बेनामी या छद्म नाम और पहचान वाले सेवक नियुक्त कर दिये गये हैं जो मोदी की अन्धभक्ति व सच को तोड़ मरोड़, झूठ का दुष्प्रचार करने के लिए अपने विरोधियों के खिलाफ जिस तरह की गन्दी भाषा, अश्लील गालियों, और प्रतीकों का प्रयोग कर रहे हैं, उसे देख कर लग रहा है कि यह भाजपा में मोदी युग का बदलाव है। नोबल पुरस्कार एक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार है जो पुरस्कृत के कामों की अंतर्राष्ट्रीय मान्यता का संकेत होता है। इसे भाजपा ने भी स्वीकारा है जब एनडीए के शासन काल में वह इसी पुरस्कार से पुरस्कृत  होने पर भारतीय मूल के लेखक नायपाल को बुलाकर सम्मानित करती है जिनका कथन है कि माथे पर टीका लगा होना दिमाग के खोखले होने का प्रमाण होता है। यह भी एक संयोग होता है कि उस समय उनका स्वागत करने वालों में मुरली मनोहर जोशी ही प्रमुख थे जिनका माथा सदैव ही टीके से सज्जित रहता है।
       सोशल मीडिया के छद्मनामी शिखण्डियों द्वारा किये जाने अश्लील भाषायी आक्रमण को दरकिनार भी कर दें तो एक बुद्धिजीवी सम्पादक द्वारा अमृत्य सेन के बारे में जो कहा गया उसे आज की बदलती भाजपायी वृत्ति के रूप में देखा जाना चाहिए। राज्य सभा का एक और कार्यकाल पाने के लिए मोदी की अन्ध चापलूसी में उनका यह कहना कि मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए पसन्द न करने पर भाजपा शासन आने पर वे उनका भारत रत्न वापिस ले लेंगे, एक ऐसा बयान था जो सोचने के तरीकों के पीछे की कहानी कहता है। मोदी के छद्मनामी सोशल मीडिया सेवकों द्वारा अमृत्य सेन ही नहीं उनकी अभिनेत्री बेटी की फिल्मी भूमिकाओं से चित्र निकाल कर उन पर अश्लील टिप्पणियां यह बताती हैं कि यह केवल चन्दन मित्रा तक ही सीमित भूल नहीं थी अपितु इस पूरे नये वर्ग को इसी मानसिकता के लिए तैयार कर दिया गया है। परोक्ष में यह मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के रूप में नापसन्द करने वाले शत्रुघ्न सिन्हा के लिए भी एक धमकी थी जिनकी अभिनेत्री बेटी फिल्मों में कहानी के अनुसार सभी तरह की कुशल भूमिकाएं कर रही है। कल के दिन वे उसके द्वारा अभिनीत भूमिकाओं के चित्र भी इसी तरह डाल सकते हैं। 
       गुजरात के चुनाव में रिपोर्टिंग के लिए गये भाजपा समर्थक पत्रकारों की टीम ने लौट कर अटल बिहारी और उनकी टीम के खिलाफ लगातार ऐसी ही भाषा में लिखना शुरू कर दिया जिससे कि भाजपा समर्थकों में उनकी व अडवाणी की छवि को धूसरित किया जा सके। किसी समय भाजपा के थिंक टैंक माने गये गोबिन्दाचार्य ने जब मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए अयोग्य घोषित किया तो मोदी की इसी टीम ने उनके चरित्र पर वैसी ही कीचड़ उछालनी शुरू कर दी जैसी वे कांग्रेस के लोकप्रिय नेताओं के खिलाफ उछालते रहते थे। जब पानी सर से ऊपर हो जाता है तो पार्टी के सत्तालोलुप नेता अपने को केवल अलग कर लेते हैं, या यह कह देते हैं कि यह पार्टी का मत नहीं है। वे सम्बन्धित और उसके कथन या कार्य की आलोचना नहीं करते और न ही कार्यवाही की माँग करते हैं, जैसा कि चन्दन मित्रा जैसे मामलों में हुआ है।
       मोदीयुग की भाजपा ने मोदी की वह भाषा और ढीठता सीख ली है जो वे 2002 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त लिंगदोह, सोनिया गान्धी, राहुल गान्धी, मुसलमानों, नरसंहार में पीड़ितों को मरहम लगाने की जगह क्रिया की प्रतिक्रिया या कार के नीचे आये पिल्ले जैसे बयानों में बोलते रहे हैं। मोदी के कार्यकाल में हुए एनकाउंटर या दूसरी हत्याएं भी संघ परिवार की साम्प्रदायिक हिंसा से वैसी ही भिन्न हैं। इसी का परिणाम है कि राज्य स्तरीय नेता भी ऐसी ही भाषा बोलने लगे हैं। गत दिनों गुना जिले के मधुसूदन गढ में मध्य प्रदेश के परिवहन मंत्री जगदीश देवड़ा ने कहा कि अगर कोई पार्टी की बुराई करे तो उसकी जुबान खींच लो।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, जुलाई 23, 2013

धार्मिक पहचान का बढता प्रयोग और धर्मनिरपेक्षता की चुनौती

धार्मिक पहचान का बढता प्रयोग और धर्मनिरपेक्षता की चुनौती
वीरेन्द्र जैन

       इस दौर में धर्मनिरपेक्षता ऐसा मानवीय मूल्य है जिसे कट्टर से कट्टर व्यक्ति भी नकार नहीं पाता और उसके दाँएं बाँएं होकर अपनी बचत करता है। देश में अपनी साम्प्रदायिक गतिविधियों के लिए जानी जाने वाली भारतीय जनता पार्टी भी अपने को ‘सच्चा धर्मनिरपेक्ष’ बतलाती है व अपने विरोधियों को ‘छद्म धर्मनिरपेक्ष’ कहती है। धर्म निरपेक्षता को गाली की तरह प्रयोग करने के बाद भी उसकी मूल्यवत्ता को वे भी नकार नहीं पाते। पर जो लोग धार्मिक प्रतीक चिन्हों का जानबूझ कर ऐसा प्रदर्शन करते हैं, जिससे कि बचा जा सकता है, वे अपनी धर्म निरपेक्षता के छद्म को स्वयं ही प्रकट कर रहे होते हैं।
       हमारे संत कवियों ने इन्हीं प्रतीक चिन्हों के प्रदर्शन पर गहरे प्रहार किये हैं किंतु आज जाने अनजाने हम इन्हें भूलते जा रहे हैं या बहुत कुटिल तरीके से समाज में साम्प्रदायिकता बोने वाले लोगों का शिकार बनते जा रहे हैं। स्मरणीय है कि कबीर दास ने बहुत मुखर होकर कहा था –
‘मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा’ या
‘मूड़ मुढाये हरि मिलें तो सब कोई लेय मुढाय, बार बार के मूढते, भेड़ न वैकुंठ जाय’
 ‘माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर, कर का मनका छांड़ि के मन का मनका फेर।
       प्रसिद्ध सूफी संत बुल्लेशाह कहते हैं-
चल बुल्लया अब उत्थे चलिए, जित्थे सारे अन्ने, ना कुई साढी जात पिचाने ना कुई सानूं मन्ने
– अर्थात कि अब तो वहाँ चल कर रहा जाये जहाँ पर सारे लोग अन्धे हों और जहाँ न तो कोई तुम्हारी जाति को पहचानता हो और न ही धर्म को। गुरु नानक देव ने भी अनेक तरह से उन आचरणों का विरोध किया है जिनसे कि किसी की ऊपरी धार्मिक पहचान टपकती हो और धर्म के मानवीय मूल्य पीछे छूटते जाते हों।
       हमारे समाज की सामाजिक संस्थाएं जिनमें राजनीतिक दल भी शामिल हैं, निरंतर धर्मभीरु संस्थानों में बदलते जा रहे हैं और वे अपने भय के कारण धार्मिक साइन बोर्ड वाले निहित स्वार्थों के दबाव में निरंतर चुप्पियां साधने लगे हैं, जिससे छद्म धार्मिक लोगों के हौसले बढते हैं। वे सर्वधर्म सम्भाव के नाम पर सर्वधर्म भयभीत समाज बनाते जा रहे हैं जो सारे धर्मों के बीच चल रहीं बेहूदगियों और भोंड़े प्रदर्शन की प्रतियोगिताओं पर मौन साधे रहते हैं, या प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष में उनमें सहयोग करते रहते हैं। अपने धर्म और समाज की पुरानी कुरीतियों को तो छोड़िये नई नई घर करती जा रही कुरीतियों का विरोध करने वाले लोग भी दिखायी नहीं देते। इसके विपरीत उन कुरीतियों से लाभ उठाने वाले लोग अधिक मुखर संगठित, और साधन सम्पन्न हैं व अपने स्वार्थों की रक्षा में किसी भी तरह के अनैतिक आचरणों से पीछे नहीं हटते।  
       पिछले दिनों से हमारे समाज में धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग इस तरह से बढ गया है कि आप किसी भी वाहन में बैठते ही यह जान सकते हैं कि इस वाहन मालिक या उसके चालक का धर्म क्या है। घर के दरवाजे पर लटके तरह तरह के प्रतीकों या बने चिन्हों से घर में रहने वालों के धर्म का पता चल जाता है भले ही बाहर नेम प्लेट न लगी हो। दाढियां, चोटियां, तिलक, कलावे, बुर्के, जालीदार गोल टोपियां, आदि एक अलग पहचान बनाते हैं और जब यह पहचान किसी सरकारी संस्थान में कार्यरत कोई कर्मचारी बनाता है तो हमारा धर्मनिरपेक्षता का दावा कमजोर होता है। आज भ्रष्टाचार के कारण सरकारी कार्यालय प्रारम्भिक रूप से आम लोगों के काम अटकाने वाले संस्थानों के रूप में जाने जाते हैं, जहाँ जाने की जरूरत पड़ने पर आम आदमी को एक दहशत सी महसूस होती है व वह अपने मित्रों से पूछता है कि सम्बन्धित कार्यालय में क्या कोई परिचित व्यक्ति कार्यरत है। विकल्प के रूप में वह सम्बन्धित कर्मचारी अधिकारी की धर्म जाति या क्षेत्र की खोज करके उससे किसी तरह अपना काम निकलवाना  चाहता है। थानों और कई कार्यालयों तक में धर्मस्थल बना दिये गये हैं. जिनका धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। धार्मिक काम, पूजा नमाज आदि के नाम पर कार्यालयीन समय से काम चोरी के रास्ते तलाशे जाते हैं और ये लोग कथित धार्मिक कार्यों के लिए चुराये गये ऐसे समय की भरपाई अतिरिक्त काम से नहीं करते। धर्म के डर से किये गये ये समझौते कार्यालयों की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। व्रत, उपवास, रोजे आदि में कार्यालय आने वाले व्यक्ति अधिकार पूर्वक अपने साथ विशेष रियायत चाहते हैं और अपने अर्जित अवकाशों का नकदीकरण करा लेते हैं या उनका अलग उपयोग करते हैं, अपने धार्मिक कार्यों के लिए वे इन अवकाशों का उपयोग नहीं करते। सवाल उठता है कि जब सरकारी वेतन लेकर काम के समय में कथित धार्मिक कार्य सम्पन्न हो रहे हैं तो धार्मिक कट्टरता को उभरने से कथित धर्मनिरपेक्ष प्रशासन कैसे रोकेगा ! अपनी माँगों के हेतु भी अपने कर्मचारी संगठनों को मजबूत करने की जगह वे अपने धर्म या जाति के अधिकारी का प्रश्रय अधिक तलाशते हैं। कथित धार्मिक कर्मी अपने चरित्र में नैतिक नहीं होते यह भ्रष्टाचार के आंकड़ों से पता चलता है।
       एक कमजोर धर्मनिरपेक्ष प्रशासन साम्प्रदायिकता के लिए अनुकूलताएं पैदा करता है, अतः धर्म निरपेक्ष समाज की स्थापना के लिए व्यवस्था के सभी अंगों से कुछ राष्ट्रीय आदर्शों का कठोरता पूर्वक पालन सुनिश्चित कराना होगा, तथा जिनके लिए यह सम्भव न हो उनको अपने धार्मिक कर्तव्यों को पूरा करनेके लिए स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का अवसर देना होगा। आज धर्मनिरपेक्षता देश की राजनीति का एक प्रमुख मुद्दा है किंतु केवल मौखिक उच्चारण भर से धर्म निरपेक्ष समाज और व्यवस्था नहीं बन सकती, उसके लिए जड़ों से काम करना होगा, तब ही दूसरे ‘गुजरात 2002’ होने से रोके जा सकेंगे, जिसकी तैयारियां साफ दिखायी दे रही हैं ।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, जुलाई 18, 2013

नरेन्द्र मोदी के नाम खुला खत

नरेन्द्र मोदी के नाम खुला खत
वीरेन्द्र जैन
प्रिय मोदीजी,
       भाजपा की सर्वोच्च कार्यकारिणी ने आपको चुनाव प्रचार समिति का चेयरमैन चुना है। मैं मानता हूं कि कार्यकारिणी ने उक्त पद के लिए सही चुनाव किया है क्योंकि प्रचार या दुष्प्रचार के लिए आप भाजपा में सर्वोत्तम व्यक्तियों में से एक हैं। पिछले दिनों आप जिस तरह से असली नकली समर्थन और विरोध के सहारे भाजपा और देश की राजनीति के केन्द्र में आये हैं यह लगभग उसी तरह से है जिस तरह कि निरंतर सुर्खियों में बनी रहने वाली राखी सावंत ने तत्कालीन लोकप्रिय बाबा रामदेव से विवाह का प्रस्ताव रख कर उनकी लोकप्रियता में से भी अपनी चर्चा का कुछ हिस्सा चुरा लिया था। वैसे तो भाजपा जिसका पूर्वनाम जनसंघ रहा है, का सारा विकास ही प्रचार व्यवस्था पर आधारित है अन्यथा हिन्दू साम्प्रदायिकता से प्रभावित और पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को मिला कर बने एक छोटे से वोट बैंक के अलावा आपकी पार्टी ज्यादा ध्यान आकर्षित नहीं करती थी। इसके उलट गान्धी जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के नेता की हत्या पर आपकी पार्टी  के पितृ संगठन आरएसएस पर प्रतिबन्ध लगने के कारण लोग उसे नकारात्मक रूप से लेते थे। चीन के साथ सीमा विवाद होने और लड़ाई छिड़ने से पहले तक देश की संसद में कम्युनिष्ट पार्टी और समाजवादी ही मुख्य विपक्ष की भूमिका में रहे। स्मरणीय है कि 1977 में केन्द्र में पहली गैर-कांग्रेस सरकार बनते समय जनता पार्टी में नकली रूप से विलीन आपकी पार्टी ने सूचना प्रसारण मंत्रालय लेने की ही ज़िद की थी और कभी फिल्मी पत्रकार रहे लाल कृष्ण अडवाणी ने यह मंत्रालय हथियाया था। उस दौरान संघ की विचारधारा से जुड़े सर्वाधिक लोग सूचना माध्यमों में प्रविष्ट हुए जिनकी लिंक अभी तक चली आ रही है।
       दुष्प्रचार के मामले में आपके संगठन का यह हाल है कि कभी आरएसएस को रियूमर स्पोंसरिंग संघ अर्थात अफवाह फैलाने वाला संघ के नाम से जाना गया था। जो है, उसकी जानकारी देना प्रचार कहलाता है किंतु जो नहीं है उसकी स्थापना करने के प्रयास को अफवाह कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि आज़ादी के बाद देश में हुए अधिकांश साम्प्रदायिक दंगों में अफवाहों की मुख्य भूमिका रही है जिसके लिए आप का संगठन बदनाम है। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का राजनीतिक लाभ हमेशा स्थान विशेष के बहुसंख्यक वर्ग को मिलता है और चुनावी लाभ बहुसंख्यकों की पार्टी को मिलता है, यही कारण है कि फैलायी गयी साम्प्रदायिकता में सम्बन्धित क्षेत्र के बहुसंख्यकों के राजनीतिक संगठनों का हाथ होता आया है। भाजपा के फैलाव का लम्बे समय तक यही आधार रहा है इसलिए जब भी भाजपा अपने विस्तार के बारे में सोचती है तब उसे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण सक्षम व्यक्ति की याद आती है। मोदीजी आपके चयन के पीछे आपकी इसी क्षमता को आधार बनाया गया है जिसे आप भी जानते हैं, व पार्टी की नजरों में सुपात्र बने रहने के प्रयास में रहते हैं। संयोग से आप एक औद्योगिक क्षेत्र में तेजी से विकसित होते रहे राज्य के मुख्यमंत्री भी हैं अतः प्रचार के सहारे उसका मुखौटा लगा कर उसे अपने पक्ष में रखने का भी एक अवसर मिला हुआ है।
       मुझे लगता है कि आपका संगठन बदलते समय की पहचान करने में कुछ भूल कर रहा है। यह सूचनाक्रांति और तकनीक का युग है जिसने अपने दौर को अधिक यथार्थवादी और पारदर्शी बनाया है किंतु आपका संगठन अभी भी उसी पुराने अफवाहें फैलाने, गलत बयानियां करने, और सच्ची खबरों को दबाने के लिए मीडिया को खरीदने पर भरोसा कर रहा है। यही कारण है कि सूचना माध्यमों पर इतना धन लुटाने के बाद भी आपको फेंकू के नाम से जाना पहचाना जा रहा है, और अपनी पार्टी के पुराने सदस्यों की सक्रियता बढाने के अलावा आप अभी तक कोई नई ज़मीन नहीं तोड़ सके हैं और न ही किसी नये वर्ग का समर्थन हासिल कर सके हैं जबकि आपके केन्द्रीय भूमिका में पदार्पण से एनडीए निरंतर घटता जा रहा है । गुजरात में विकास की सारी सच्चाइयां सामने आ चुकी हैं व आर्थिक आंकड़ों के समानांतर मानव विकास सूचकांक की दयनीय दशा भी सामने आती जा रही है। कुपोषित लड़कियों के लिए आपके इस कथन पर कि वे अपनी फिगर बनाने के लिए डायटिंग कर रही हैं, आपकी पार्टी तक के लोग शर्मिन्दगी महसूस कर चुके हैं। उद्योगों को आकर्षित करने के लिए आपने जिस तरह से सुविधाएं लुटायी हैं उससे जनहित में लगने वाले बजट में कमी होना स्वाभाविक है और उस पर भी आपने प्रदेश को सर्वाधिक कर्ज़ वाला राज्य बना कर छोड़ दिया है। आपके मंत्रियों पर भ्रष्टाचार सिद्ध हो रहे हैं और आप उनसे त्यागपत्र लेने में भी हिचक रहे हैं। ये बातें अब इस पारदर्शी समय में अधिक दिनों तक छुपी नहीं रह सकतीं। संवाद के साधनों के रूप में अब मोबाइल और इंटरनेट आ गये हैं, व जगह जगह सीसीटीवी कैमरे लगे हैं, जिससे सारे षड़यंत्रों के अंतर्सम्बन्ध अधिक आसानी से तलाशे जा सकते हैं। चाहे 2002 के नर संहार हों या सोहराबुद्दीन, उसकी पत्नी, तुलसी प्रजापति, की हत्याएं, हरेन पांड्या की हत्या, या इशरतजहाँ एनकाउंटर आदि, इन सबकी असलियत सामने आ सकती है और निष्पक्ष जाँच एजेंसियों व विशेष अदालतों के सहारे अपराध की जड़ों तक पहुँचना सम्भव हो सकता है। यदि आपकी इन अपराधों के अपराधियों के साथ सहानिभूति नहीं थी तो आपको अपने गर्वीले गुजरात में हुए इन अपराधों के प्रति चिंतित, दुखी, और अपराधियों को सजा दिलवाने के प्रति संकल्पित क्यों नहीं पाया गया। 
       पता नहीं ऐसे पारदर्शी समय में आप अपने समर्थकों को इतना अधिक नासमझ क्यों समझते हैं कि आप किसी भी तरह बरगलाते रहें पर वे सच्चाई तक नहीं पहुँच सकेंगे जबकि चौबीस घंटे के समाचार चैनलों की संख्या भी इतनी बढ चुकी है कि उनमें कम से कम कुछ दो तो ऐसे होते हैं जो बिकने के लिए तैयार नहीं होंगे और सचाई को सामने ला ही देंगे। विधानसभा चुनाव के दौरान आपने इंटरनेट पर अपने नकली प्रशंसक बनवाये पर उसकी सचाई सामने आ गयी। , गत अक्टूबर में लन्दन की एक कम्पनी ने ट्विटर के आंकड़ों का पर्दाफाश करते हुए यह गड़बड़ी पकड़ी थी और बताया था कि दस लाख फालोअर्स का दावा करने वाली साइट के आपके आधे से अधिक फालोअर्स नकली हैं। यह सचाई भी सामने आ चुकी है कि आप अपना प्रचार अभियान अमेरिका की प्रचार कम्पनी से चलवाते हैं और उत्तराखण्ड की आपदा के समय 15000 गुजरातियों को बचा कर लाने के दुष्प्रचार पर आपके राष्ट्रीय अध्यक्ष को भी सफाई देनी पड़ी थी, तथा पूरे देश में मजाक बना था। आपने कार के ड्राइवर की गलती से मारे गये पिल्लों के प्रतीक से जो बात कहने की कोशिश की थी वह भी गलत प्रतीक के चयन के कारण आपकी नफरत को प्रकट कर गयी व आपको सफाई देना पड़ी थी। पर सवाल यह बना रहा कि आपने ऐसे ड्राइवर को सजा देने या हटाने की जगह उन्हें बने क्यों रहने दिया और उनकी रक्षा क्यों करते रहे। आरोपी माया कोडनानी, अमित शाह, या कुछ वरिष्ठ पुलिस अधिकारी आपके चहेते क्यों बने रहे? अपनी लोकप्रियता की झूठी हवा बनाने के लिए अपनी आमसभा में पाँच पाँच रुपयों का टिकिट लगाने की नाटकीयता भी फेल हो गयी और उस योजना को वापिस लेना पड़ा।
       सच तो यह है कि आपको सम्भावित प्रधान मंत्री पद प्रत्याशी के रूप में प्रचारित करने का यह खेल आपके गरेवान तक पहुँच सकने वाले कानून के हाथों को कुछ और देर तक भटकाने के प्रयास भर हैं, पर देर ही हो सकती है अब अन्धेर नहीं हो सकता। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश में आपकी ही पार्टी के मंत्री उसी थाने और जेल में जाने लगे हैं जिनका उन्होंने ही उद्घाटन किया था।            
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, जुलाई 16, 2013

दागी के परिवरियों का पार्टीप्रवेश, मुलायम सिंह की भाजपायी हरकत

दागी के परिवारियों का पार्टीप्रवेश,  मुलायम सिंह की भाजपाई हरकत 
वीरेन्द्र जैन

पुरानी कथा कहानियों में ऐसा जिक्र आता है जिसमें निरवंशिया राजा के निधन पश्चात नगरवासी ऐसा भी तय कर लेते हैं कि किसी तय तिथि पर नगर की सीमा में सबसे पहले प्रवेश करने वाले व्यक्ति को ही राजा बना दिया जाये। सामंती अवशेषों के प्रभाव वाले लोकतंत्र में भी कुछ विचित्र संयोगों से उभरे व्यक्तियों को सरकारें चलाने के अवसर मिल जाते हैं। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ऐसे ही नेता हैं, जो वैसे तो अच्छे प्रशासक नहीं हैं पर आगामी अवसरों की कल्पना कर एच. डी. देवगौड़ा की तरह देश के प्रधानमंत्री बनने तक के सपने देखने लगे हैं। उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत भले ही समाजवादी आन्दोलन में राम मनोहर लोहिया के सिपाही की तरह हुयी हो किंतु उनकी वर्तमान राजनीति से उस अतीत का कोई सम्बन्ध नहीं है। वे अगर सैद्धांतिक समाजवादी रहे होते तो अब तक उसी दशा में पहुँच गये होते जिसमें शेष सारे समाजवादी पहुँच गये हैं, पर आज उनकी पार्टी की उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में पूर्ण बहुमत वाली सरकार चल रही है। उनका उभार हिन्दू साप्रदायिकता की प्रतिक्रिया में उभरी मुस्लिम एकजुटता के साथ मण्डल दौर में बने मुस्लिम यादव गठजोड़ का परिणाम था जिसे अमर सिंह जैसे चतुर व्यापारी की सौदेबाज़ी का कूटनीतिक लाभ मिला। यह परिस्थितिजन्य संयोग ही है कि वे प्रदेश की राजनीति में प्रथम दो दलों में से एक हैं।
मुलायम सिंह समाजवादी विचारधारा के इतिहास, भाजपायी अवसरवाद, कांग्रेसी गवर्नेंस, मण्डलवाद जनित पिछड़ों की जातिवादी एकजुटता, कार्पोरेट जगत से गठजोड़ की अमर सिंही शैली, अल्पसंख्य्कों को बरगलाने वाले बयानों, अमिताभ परिवार की लोकप्रियता को भुनाने, आदि से निर्मित व्यक्तितत्व हैं, जो अपने खानदान और निकट रिश्तेदारों के संगठन से अपनी व्यक्तिवादी पार्टी चला रहे हैं जिसमें उनके बेटे, बहू, भाई, भतीजे, रिश्तेदारों, जाति भाइयों से बचे स्थानों पर समर्थकों, और अन्य लाभार्थियों को जगह दी जाती है। कभी किसी कालेज में चल रहे कवि सम्मेलन के दौरान किसी कवि द्वारा सरकार विरोधी कविता सुनाये जाने से विचलित स्थानीय थानेदार द्वारा मना किये जाने पर उस थानेदार को उठाकर पटक देने वाले युवा, छात्र पहलवान मुलायम सिंह ही थे जो उस समय समाजवादी युवजन सभा के जुझारू सदस्य थे। संविद सरकारों के दौर में उन्हें उभरने का अवसर मिला और वे नेता बन गये। कहते हैं कि सत्ता भ्रष्ट करती है और सम्पूर्ण सत्ता सम्पूर्ण भ्रष्ट करती है, जो उन पर क्रमशः लागू होती गयी। जब उन्हें समर्थन मिला, सत्ता मिली तो उस जन समर्थन को भुनाने और सत्ता के लाभों का विदोहन करने की सलाह देने वाले लोग भी मिलते गये और वे समाजवादी नाम से जुड़े रह कर भी चरित्र में भाजपायी होते गये जिसकी पुष्टि उनके निकटतम सहयोगी रहे बेनी प्रसाद वर्मा पिछले दिनों बहुत तल्खी से करते रहे हैं। आजकल वे अडवाणी जी को सत्यभाषी हरिश्चन्द्र बताने लगे हैं और 18 वर्ष पूर्व अयोध्या में कानून व्यवस्था बनाये रखने की कार्यवाही के लिए माफी माँगने लगे हैं।  
उत्तरप्रदेश का दुर्भाग्य यह रहा कि जैसे ही लोकतांत्रिक व्यवस्था विकसित होती गयी वैसे ही मतदाताओं को भावनात्मक रूप से बरगलाने का सिलसिला बढता गया। कभी मन्दिर बनवाने के नाम, कभी दलितों के उत्थान के नाम, कभी पिछड़ों के नाम, तो कभी किसानों के नाम पर वोट निकलवाये जाते रहे किंतु उन वोटों से शोषित पीड़ित वर्गों का भला कभी नहीं हुआ। एक बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक वोट तो उनकी सुरक्षा के नाम पर ही हथियाया जाता रहा। देश का सबसे बड़ा ऎतिहासिक प्रदेश सबसे अधिक निरक्षरों, कुपोषित बच्चों, अन्धविश्वासियों, , सर्वाधिक बेरोजगारों, अपराधियों, यौन अत्याचारों, दलित उत्पीड़न, और भ्रष्टाचार से ग्रस्त प्रदेश है। विकास योजनाओं, व सशक्तिकरण के नाम पर जो बन्दरबाँट होती है उसी को जीमने के लिए सारी राजनीतिक कुश्तियां चलती हैं। सारी लड़ाई गलत काम के विरोध की नहीं अपितु लूट में हिस्सेदारी के लिए होती है। सभी तरह के आर्थिक अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण चाहिए होता है जिसके लिए सत्तारूढ दल उनकी प्राथमिकता में होता है, यही कारण है कि सारे आर्थिक अपराधी सत्ता बदलने के बाद सत्तारूढ दल की जयजयकार करते और नये मंत्रिमण्डल के अभिनन्दन में बड़े बड़े विज्ञापन और होर्डिंग लगवाते हुए देखे जाते हैं।         
उत्तर प्रदेश की पिछली बसपा सरकार में परिवार कल्याण मंत्री बाबूलाल कुशवाहा पर राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ अभियान [एन आर एच एम] में करोड़ों के घपले का आरोप है और वे अभी जेल में हैं। यह घोटाला उजागर होने के बाद अनेक सम्बन्धित अधिकारियों की कारावास में सन्दिग्ध मौतें हो चुकी हैं। भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से पहले बाबूलाल कुशवाहा को अपनी पार्टी में सदस्यता दे दी थी जिसकी व्यापक निन्दा हुयी थी। इस निन्दा से प्रभावित होने वाले चुनाव परिणामों की आशंका को देखते हुए भाजपा ने अपनी पार्टी के अन्दर से भी श्री कुशवाहा का विरोध करवा दिया था और उनसे फिलहाल अपनी सदस्यता स्थगित करने का बयान दिलवा दिया था। समाजवादी पार्टी ने चुनावों के दौरान भाजपा द्वारा एक ओर तो भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान छेड़ने और दूसरी ओर दागियों को पार्टी में सम्मलित करने के दुष्कृत्य की कड़ी आलोचना की थी। बिडम्बना यह है कि अब मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी ने जेल में बन्द इन्हीं बाबू लाल कुशवाहा की पत्नी और भाई को गाजे बाजे के साथ समाजवादी पार्टी में सम्मलित कर लिया है जो परोक्ष में घोटाले के अभियुक्त को ही सदस्य बनाने के समान है। स्मरणीय है कि यह भाजपा के अनुशरण की तरह है जिसके विरोध के नाम पर मुलायम सिंह अल्पसंख्यकों के वोटों के समीकरण बना कर चुनाव जीतते हैं। रोचक यह है कि अब डील विशेषज्ञ भाजपा भी मुलायम सिंह की वैसी ही कठोर निन्दा कर रही है और पूछ रही है कि यह डील कितने में हुयी। तय है कि कभी समाजवादी पार्टी की सबसे बड़ी विरोधी बहुजन समाज पार्टी सरकार में मंत्री रहे अभियुक्त का पहले भाजपा में शामिल होने का प्रयास और फिर राज्य में सत्तारूढ समाजवादी पार्टी में सम्मलित होने के लक्ष्य बहुत साफ हैं जो इस इतने बड़े आर्थिक भ्रष्टाचार और इससे सम्बन्धित हत्या जैसे अपराध की जाँच को प्रभावित करने से कम कुछ भी नहीं हो सकता।
यह घटना उसी समय घटी है जब सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग संसद व विधानसभाओं में अपराधियों की बढती संख्या पर अपनी चिंताएं व्यक्त कर रहे हैं। सत्तारूढ समाजवादी पार्टी का झंडा लगा कर सरे आम गुंडागर्दी और लूटपाट करने के मामले में तथा अधिकांश थानों में पदस्थ जाति विशेष के पुलिस इंस्पेक्टर न केवल जातिवादी आग्रह रखने अपितु स्थानीय समाजवादी पार्टी के स्थानीय नेता की अनुमति से संचालित होने के आरोपों से घिरे हैं जिससे प्रदेश में भयानक असंतोष है जिसके दर्शन हाल ही में इलाहाबाद में हुये हैं। ऐसी दशा में एक बड़े अपराध के अभियुक्त की पत्नी व भाइयों को पार्टी में सम्मलित करके पहलवान मुलायम सिंह ने भाजपानुमा बेशर्मी जैसी बड़ी भूल की है जिसका राजनीतिक नुकसान उन्हें उठाना पड़ेगा।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, जुलाई 12, 2013

लोकतंत्र में लोकप्रियतावाद के साथ सार्वजनिक जीवन में शुचिता के सवाल

लोकतंत्र में लोकप्रियतावाद के साथ सार्वजनिक जीवन में शुचिता के सवाल
वीरेन्द्र जैन

       1985 में जब संसद ने दल बदल विरोधी कानून पास किया तो उन लोगों को बड़ा धक्का लगा था जो अपनी खरीद फरोख्त की ताकत की दम पर सरकारों को बनाने बिगाड़ने का खेल खेलते थे और इसी की दम पर कई सरकारों को अपने पास गिरवी रख कर अपनी मनमर्जी के कानून और नीतियां बनवाते रहते थे। यह कानून सचमुच में एक क्रांतिकारी कानून था क्योंकि इससे देश में व्यक्तियों के प्रतिनिधित्व की जगह दलों को महत्व मिला था और जिस दल के कार्यक्रम और घोषणापत्र के आधार पर कोई व्यक्ति चुन कर सदन में पहुँचता था उसके अनुशासन में रहना जरूरी हो गया था। कानून बनते समय इसका सीधा विरोध तो कोई भी राजनीतिक दल नहीं कर पाया था पर जो लोग पैसे वालों की दम पर सत्ता के खेल खेलते हैं, वे विचलित हो गये थे। यह कानून बनने से पहले चुनावों में धन का प्रयोग कम होता था क्योंकि निहित स्वार्थ अपना सारा जोर चुन कर आने वाले प्रतिनिधि पर केन्द्रित रखते थे, पर अब अपने व्यक्ति को जितवाने के लिए चुनाव के समय से ही धन का प्रवाह किया जाने लगा है। राजनीतिक दल अपनी सरकार बनने की स्थिति में मुफ्त उपहार देने के लुभावने वादे करने लगे हैं। इससे न केवल चुनाव ही मँहगे हो गये हैं अपितु सभी सदनों में करोड़पति उम्मीदवारों और प्रतिनिधियों की संख्या दिन प्रतिदिन बढती ही जा रही है।
       पिछले कुछ दिनों से यह देखा जा रहा है कि एक वर्ग दल बदल कानून के बाद से अर्जित, संसद में दलों की विशिष्ट भूमिका की आलोचना करने लगा है। वे यह कहते हैं कि हमारे संविधान में दलों को महत्व नहीं दिया गया है और चुन कर आया प्रत्येक सदस्य अपनी मनमर्जी से फैसला लेने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। वे इसे दलीय गुलामी बताते हुए लोकतंत्र विरोधी भी बताते हैं। सच तो यह है कि इस तरह की माँग उठाने वाले लोग खरीद-फरोख्त की दम पर सरकार चलाने वाले लोगों का ही हित साधन कर रहे हैं। स्मरणीय कि लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद मोरारजी देसाई ने किसी कार्यक्रम में खुद को प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद देश की विदेशनीति में आने वाले परिवर्तनों से सम्बन्धित कोई बयान दे दिया था तब देश के प्रसिद्ध उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला ने किसी पत्रकार से कहा था कि मोरारजी कैसे प्रधानमंत्री बन जायेंगे जबकि दो सौ सांसद तो मेरे हैं। प्रधानमंत्री तो वही बनेगा जिसे मैं चाहूंगा। उनका यह कथन प्रकाशित भी हो गया था।
देश में चुनाव सुधारों की प्रक्रिया निरंतर जारी है जो सकारात्मक है पर इस दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। सही दलीय लोकतंत्र तो तभी स्थापित हो सकेगा जब व्यक्ति की जगह सुस्पष्ट राजनीतिक कार्यक्रम वाले दलों को ही महत्व मिलेगा और उसकी नीतियों व कार्यक्रमों के आधार पर मतदान होगा। अभी तो देखा जाता है कि कई दलों में चुनाव का नामांकन भरने से दो दिन पहले दल में आये व्यक्ति को टिकिट मिल जाता है, क्योंकि उस क्षेत्र विशेष में उसकी व्यक्तिगत लोकप्रयता या जातिवादी समीकरणों के आधार पर उसके जीतने की सम्भावनाएं अधिक होती हैं। जब दल की जगह व्यक्ति को वोट मिलते हैं तो इससे जातिवाद और साम्प्रदायिकता को भी बल मिलता है। किसी अन्य गुण के आधार पर लोकप्रिय व्यक्ति अपनी लोकप्रियता को वोटों में बदलने के सौदे करता है और दल उसका चुनाव नहीं करता अपितु वह दल का चुनाव करता है। इस दुष्प्रवृत्ति को रोकने के लिए जरूरी है कि उम्मीदवारी हेतु मान्यताप्राप्त दलों में कुछ न्यूनतम पात्रता तय की जाये जिसमें सदस्यता की वरिष्ठता भी सम्मलित हो। इसके लिए दल के संगठन और उसके संविधान अनुसार होने वाले संगठनात्मक चुनावों पर चुनाव आयोग की निगरानी जरूरी होगी।  
जब दल की जगह व्यक्ति और उसकी लोकप्रियता महत्वपूर्ण होती है तो विरोध में व्यक्ति की अलोकप्रियता भी चुनावी भूमिका निभाती है। यही कारण है कि चुनावों के दौरान उम्मीदवारों के चारित्रिक पतन के किस्से तेजी से प्रकाश में आने लगते हैं। इसलिए जरूरी है कि सार्वजनिक जीवन में रहने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति का जीवन उस जनसमुदाय की नैतिक मान्यताओं के अनुरूप हो जिनका वह नेतृत्व कर रहा है या करना चाहता है। सार्वजनिक जीवन जीने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को समाज द्वारा वर्जित जीवन शैली से चलने की आज़ादी नहीं होती। जो दल एक स्पष्ट सांस्कृतिक दृष्टि और जीवनशैली को अपने दल के संविधान में शामिल किये होते हैं उन्हें तो यह और भी जरूरी होता है कि उसके सदस्य दल की नैतिकता के अनुसार ही आचरण करें।    
        नैतिकता से विचलन के सर्वाधिक किस्से संघ परिवार या भारतीय जनता पार्टी में ही देखने को मिलते हैं क्योंकि वह एक ओर तो परम्परा का मुखौटा लगा कर सामंती युग में जी रहे वर्ग को बरगलाना चाहती है वहीं दूसरी ओर पश्चिमी हवाओं से प्रभावित नवधनाड्य वर्ग का जीवन जीना चाहती है। यही कारण है कि भाजपा की राजनीति में चारों ओर दोहरापन देखने को मिलता है। वे निरंतर असत्य वाचन, षड़यंत्रकारी आचरण, और आपराधिक कर्मों के आरोपों से लिप्त पाये जाते हैं। उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष देश के सुरक्षा के लिए काल्पनिक उपकरण खरीदवाने की सिफारिश के लिए रिश्वत लेने की सजा पाते हैं तो दूसरे राष्ट्रीय अध्यक्ष पर किसी धर्मस्थल को तोड़ने के लिए षड़यंत्र रचने के मुकदमे चलते हैं। मंत्रियों को साम्प्रदायिक हिंसा के लिए आजीवन कारावास की सजा होती है, तो मुख्यमंत्रियों और ग्रह मंत्रियों को एनकाउंटर के नाम निर्दोषों की हत्या करवाने के आरोप लगते हैं। एक मुख्यमंत्री खनिज के क्षेत्र में हुए भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में जाते हैं तो एक केन्द्रीय मंत्री रहे राष्ट्रीय नेता को अवैध धन में हिस्सेदारी न करने के लिए अपने ही भाई द्वारा मरना पड़ता है। एक महिला मुख्यम्ंत्री का भाई बयान देता है कि अगर मैंने सच बोल दिया तो उसकी बहिन को पंखे से लटकना पड़ेगा। एक वरिष्ठ एडवोकेट कहते हैं कि वे पार्टी के सबसे बड़े नेताओं की सारी पोल पट्टी और समझौतों से परिचित हैं तो गठबन्धन से अलग हुए दल के नेता भी ऐसी ही चेतावनी देते हैं। मध्यप्रदेश के वित्तमंत्री रहे सबसे बुजर्ग नेता का आचरण तो हांड़ी का एक चावल है जिसे उन्हीं की पार्टी के एक महत्वपूर्ण नेता ने समझौते का मौका दिये बिना सप्रमाण उजागर कर दिया है बरना तो अपनी आदत अनुसार भाजपा के लोग इसे विरोधियों पर षड़यंत्र का आरोप लगाते हुए गुजरात के नेताओं की तरह उनकी रक्षा में जुट जाते।
       घुन लगी कमजोर सीड़ी के सहारे शिखर तक पहुँचने की कोशिश करने वालों को कभी भी धाराशायी होना पड़ सकता है चाहे उनका नाम भाजपा हो, मुलायम हो, मायावती हो, जयललिता हो, करुणानिधि हो, ममता बनर्जी हो या कुछ और...।    
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मंगलवार, जुलाई 02, 2013

राष्ट्रीय दल की मान्यता और संकीर्ण चरित्र

राष्ट्रीय दल की मान्यता और संकीर्ण चरित्र
वीरेन्द्र जैन     
       इसे देश की बिडम्बना ही कहा जायेगा कि भारतीय जनता पार्टी जैसा दल आज एक राष्ट्रीय दल ही नहीं अपितु जोड़ तोड़ के सहारे मुख्य विपक्षी दल भी बना हुआ है, जिसके साथ यह आशंका निहित रहती है कि सत्तारूढ दल की अलोकप्रियता की स्थिति में वह केन्द्र में सरकार बनाने के लिए किसी गठबन्धन का नेतृत्व कर सकता है। वैसे यह एक सुखद संयोग ही है कि कभी इस दल को स्वतंत्र रूप से केन्द्र की सरकार चलाने का मौका नहीं मिला, और न ही भविष्य में ऐसी कोई सम्भावनाएं हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आनुषंगिक संगठनों में चुनावी राजनीति के लिए बनाये गये इस संगठन के विस्तार की अपनी सीमाएं रही हैं जिनके चलते इसे कभी भी व्यापक समर्थन नहीं मिला क्योंकि भिन्न भिन्न संस्कृतियों के इस देश की जनता अवैज्ञनिक और संकीर्ण सोच के किसी कट्टर साम्प्रदायिक संगठन को सत्ता नहीं सौंपना चाहती। सत्ता पाने के लिए संघ ने इसे तरह तरह के समझौते करने के लिए अनुमतियां दीं जिसके परिणाम स्वरूप इसने एक भिन्न तरह की पार्टी होने के दावे को केवल एक खोखला दावा ही रखा है। सत्ता पाने के लिए इसने देश के दूसरे सत्तारूढ दलों और सहयोगियों की अच्छाइयां तो ग्रहण नहीं कीं पर उनकी सारी बुराइयों को आत्मसात कर लिया। इन बुराइयों को अपनाने के लिए संघ ने कभी भी इनकी आलोचना नहीं की जबकि वह इसके छोटे से छोटे काम पर निगाह रख कर अपना नियंत्रण बनाये रखता है।  
       अभी हाल ही में उत्तराखण्ड में भयानक त्रासदी घटित हुयी जिसमें मृतकों की संख्या का अनुमान दस हजार से अधिक लगाया जा रहा है। इसके अलावा सैकड़ों भवनों, होटलों, धर्मशालाओं के अलावा हजारों गाँवों सड़कों व पुलों को व्यापक नुकसान हुआ। इस त्रासदी के लिए प्राकृतिक प्रकोप के अलावा अनियंत्रित अविवेकपूर्ण विकास और पर्यावरण को पहुँचाये गये नुकसान को भी जिम्मेवार माना जा रहा है। इसमें से अनेक योजनाएं पिछले दिनों रहे भाजपा शासनकाल में भी या तो प्रारम्भ हुयीं अथवा पूर्ण हुयीं हैं। यद्यपि इस त्रासदी के कारणों पर विचार विमर्श अभी जारी है और उम्मीद है कि जल्दी ही कोई जाँच समिति भी स्थापित होगी जो भविष्य में ऐसी दुर्घटनाओं को रोकने के लिए कुछ सुधारात्मक उपाय भी सुझायेगी। किंतु दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस राष्ट्रीय पार्टी ने अपनी वरिष्ठ उपाध्यक्ष उमा भारती के माध्यम से दुर्घटना के बाद बयान दिलवाया कि यह त्रासदी उत्तराखण्ड में धारादेवी के मन्दिर को विस्थापित करने के पाप से जनित दैवीय कोप के कारण घटित हुयी। तीन साल पहले भी जब उत्तराखण्ड में ऐसी ही त्रासदी घटित हुयी थी तब भी पाँच सौ गाँव प्रभावित हुये थे जिनके पुनर्वास के लिए अबतक भी कुछ सार्थक नहीं किया गया, उल्टे तत्कालीन भाजपायी मुख्यमंत्री ने तबाही से पीड़ित लोगों को भजन-संकीर्तन करने की सलाह दी थी। स्मरणीय है कि परमाणु परीक्षण करते समय भाजपा के तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लाल बहादुर शास्त्री के प्रसिद्ध नारे ‘जय जवान जय किसान’ में ‘जय विज्ञान’ जोड़ते हुए वैज्ञानिक सोच को नमन किया था, जिस पर संघ परिवार ने कभी अमल नहीं किया। इस पार्टी ने सदैव ही अन्धविश्वास को बढा कर उसका चुनावी लाभ लेने की कोशिश की है।      
       भाजपा के ही एक दूसरे बड़े नेता सांसद योगी आदित्यनाथ ने कहा कि यह त्रासदी चीन द्वारा हिमालय में की गयी छेड़छाड़ का परिणाम हो सकती है। उन्होंने कहा कि वर्ष 1998-99 के दौरान हिमाचल प्रदेश में इसी तरह की तबाही लाने के लिए चीन इस तरह की हरकतें पहले भी कर चुका है। कोई आश्चर्य नहीं कि उसने केदारनाथ से ऊपर पहाड़ियों में प्राकृतिक संसाधनों से छेड़छाड़ कर प्राकृतिक आपदा जैसे हालात पैदा कर दिए हों। वैसे भी केदारनाथ धाम से थोड़ी ऊंचाई पर वासुकी झील स्थित है, जहां कोई भी छेड़छाड़ होने से आपदा जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। भाजपा के विद्वान सांसद यह भूल गये कि 1998-99 के दौरान देश में किसकी सरकार थी और इस तरह के हास्यास्पद आरोपों के बारे में उस सरकार के क्या विचार थे!
       भाजपा के नेता यदाकदा ऐसे बयान देते ही रहते हैं जिससे उनके सोच विचार का स्तर प्रकट होता रहता है। एनडीए के शासन काल में ही अस्पतालों में मंत्र चिकित्सा स्थापित करने का विचार सामने आया था और विश्वविद्यालयों में ज्योतिष के पाठ्यक्रम प्रारम्भ किये गये थे। अभी भी वे धर्मस्थलों में जमा बेशुमार दौलत को जनहित या धार्मिक आयोजनों की व्यवस्था में लगाने की मांग के साथ खड़े दिखाई नहीं देते, न ही इसका उपयोग शिक्षा और स्वास्थ के लिए किये जाने के पक्षधर हैं। नदियों की सुरक्षा और स्वच्छता की जगह वे केवल धार्मिक महत्व की नदियों के प्रति भावनात्मक आन्दोलन उभारने के लिए पार्टी के कुछ अनचाहे लोगों को जिम्मेवारी सौंप कर अलग हो जाते हैं व उन्हीं की सरकारें उन नदियों को प्रदूषित करवाती रहती हैं। उनकी पूरी पार्टी ने मिलकर कभी भी निरंतर गन्दे नाले में बदलती जा रही गंगा नदी की स्वच्छता के लिए कोई अभियान नहीं छेड़ा, अपितु उसे उमाभारती को सौंप कर मुक्त हो गयी।
       जब हत्या आदि अपराधों के प्रकरण भगवा भेषधारियों पर चलते हैं तो पूर्व प्रधानमंत्री समेत भाजपा के वरिष्ठ नेता न्याय पर भरोसा न कर धरने पर बैठ जाते हैं और जब आतंकवाद के खिलाफ भगवा धार्मिक भेष में छुपे लोग पकड़े जाते हैं तो आतंकवाद को देश की मुख्य समस्या बताने वाले इस दल के नेता उमा भारती और राजनाथ सिंह उनसे मिलने के लिए जेल में जाते हैं। दूसरी ओर दूसरे धर्मों से जुड़े अनेक निर्दोष लोगों के जेल में रहने के खिलाफ कभी आवाज़ भी नहीं उठाते।
       पिछले वर्षों में भाजपा शासित मध्य प्रदेश में कम वर्षा से निबटने के लिए सरकारी खर्च पर यज्ञों का आयोजन करवाया गया था। इसी प्रदेश में कानून व्यवस्था के लिए पुलिस हैड क़्वार्टर में यज्ञों का आयोजन होता है व ज्यादातर थानों में मन्दिर बनवा दिये गये हैं, पर कानून व्यवस्था की हालत दिन प्रति दिन खराब होती जा रही है। हिन्दू विधि से भूमि पूजन और शिलान्यास आदि प्रत्येक सरकारी कार्यक्रम का हिस्सा बन चुका है जिसमें बड़ी राशि व्यय की जाती है। सरकारी स्कूलों में प्रवेश से पूर्व तिलक लगाने की नई परम्परा डाली जा रही है जिससे दूसरे धर्म के छात्रों को या तो अनचाहे सम्मलित होना पड़ता है या स्कूल से ही छात्रों-छात्रों के बीच धार्मिक आधार पर भेद पैदा हो जाते हैं। प्रदेश में मुफ्त तीर्थयात्रा योजना के पीछे भी ऐसी ही सोच रही है।     
       किसी भी राष्ट्रीय दल को संविधान की मूल भावना अर्थात धर्म, जाति, रंग, भाषा, और लिंग भेद के बिना कार्य करना चाहिए किंतु राष्ट्रीय दलों में भाजपा एक ऐसा दल है जो सत्ता पाने की जल्दी में सभी तरह के अनैतिक कदमों को अपनाने और फिर आरोपों को कुतर्कों के सहारे गलत वकालत करने के लिए जाना जाता है। उनके बड़े बड़े नेताओं के बयान किसी मुहल्ले स्तर के नेताओं की तरह उद्दण्ड और गैरज़िम्मेवार होते हैं जिसके लिए वे कभी खेद भी प्रकट नहीं करते।   
वीरेन्द्र जैन
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