रविवार, दिसंबर 30, 2018

श्रद्धांजलि ; शिवमोहन लाल श्रीवास्तव वह बाजी जीत कर चला गया


श्रद्धांजलि ; शिवमोहन लाल श्रीवास्तव



वह बाजी जीत कर चला गयाImage may contain: Shiv Mohan Lal Shrivastav, eyeglasses
वीरेन्द्र जैन
जिस बात के अनेक सिरे होते हैं तो समझ नहीं आता कि बात कहाँ से शुरू करूं। आज मेरे सामने भी यही मुश्किल है। मैं कम्प्यूटर और इंटरनैट से 2008 में जुड़ा, और लगातार इस बात का अफसोस रहा कि क्यों कम से कम पाँच साल पीछे रह गया। बहरहाल जब जुड़ा तो मेरे हाथ में कारूं का खजाना लग गया था। यही ऐसा उपकरण था जो मुझे चाहिए था। मेरा कीमती समय इतना इंटरनैट को अर्पित हो गया कि पुस्तकें और पत्रिकाएं पढने की आदत छूट गयी। इसी दौरान नैट पर एक ‘डैथ मीटर’ की साइट मिली। इसमें कुछ कालम भरने पर मृत्यु के वर्ष की घोषणा की जाती थी। इन कालमों में जन्मतिथि, लम्बाई, बजन, बाडी मास इंडेक्स, सिगरेट, शराब, तम्बाखू की आदतें, अब तक हो चुकी व साथ चलने वाली बीमारियां, आपरेशन, जाँच रिपोर्टों के निष्कर्ष, पैतृक रोग, मां बाप की मृत्यु के समय उम्र, आदि पचास से अधिक कालम थे और इस आधार पर मृत्यु के वर्ष की घोषणा की जाती थी। उत्सुकतावश मैंने भी उक्त कालम भरे और निष्कर्ष निकाला। मेरी मृत्यु का वर्ष 2018 निकला। मैं इससे संतुष्ट था क्योंकि अपेक्षाकृत अच्छी आदतों वाले मेरे पिता भी 65 वर्ष ही जिये थे।
शिवमोहन के जीवन और याद करने वाली घटनाओं पर अगर जाऊंगा तो यह टिप्पणी कभी खत्म ही नहीं हो पायेगी पर संक्षिप्त में बता दूं कि शिव के पिता और मेरे पिता न केवल परिचित लोगों में थे अपितु 25000 की आबादी वाले नगर दतिया में एक दौर के सुपरिचित बौद्धिक लोगों में गिने जाते थे। छोटे नगर में वैसे तो सब एक दूसरे को जानते ही हैं, पर मेरा शिवमोहन से निकट का परिचय तब हुआ जबकि मैं बीएससी करने के बाद शौकिया एमए कर रहा था और मेडिकल में प्रवेश से बहुत किनारे से चूकने के बाद पढाई के प्रति बिल्कुल भी गम्भीर नहीं था। हम लोगों का ना तो कोई भविष्य था और ना ही उसके प्रति कोई चिंता ही थी। मुझे पत्रकारिता व साहित्य आकर्षित करता था और एक दबी इच्छा थी कि पत्रिकाओं में लिख कर पहचान बनाऊं और उसके सहारे कवि सम्मेलनों के मंच से जीवन यापन लायक धन कमाऊं। कस्बाई राजनीति समेत नाम रौशन करने वाली हर गतिविधि में शामिल होने की कोशिश करता था, पत्र पत्रिकाएं पढता था और उनके सहारे मंच पर छोटा मोटा भाषण भी दे लेता था। धर्मनिरपेक्षता और नास्तिकता घर से मिली थी इसलिए जनसंघ को पसन्द नहीं करता था। वाम की ओर झुकाव वाली राजनीति पसन्द थी क्योंकि मैं हिन्दी ब्लिट्ज़ का नियमित पाठक था। चौराहे के होटल हम जैसे युवाओं के स्थायी अड्डे थे जहाँ पर राजनीतिक चर्चा के अलावा रेडियो पर क्रिकेट की कमेंट्री व बिनाका गीतमाला भी सुनी जाती थी। कभी किसी विषय पर कोई बयान दिया तो अखबार वाले ने मेरे नाम के साथ ‘छात्रनेता ने कहा’, लिख कर छापा तो अच्छा लगा। इसी काल में मेरी कुछ छोटी छोटी कविताएं भी राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में छप चुकी थीं और कवि गोष्ठियों में बुलाया जाने लगा था। शिवमोहन बड़े बड़े सुन्दर व स्पष्ट अक्षरों में लिखते थे और उनका गद्य हर तरह की पत्र पत्रिकाओं में खूब छपता था। मुझे उनसे ईर्षा होती थी। याद नहीं कि किस तरह हम दोनों का ही अहंकार टूटा और हम लोग साथ साथ बैठने लगे।
नगर में एक दो स्थानीय अखबार थे जो साप्ताहिक थे और नियमित भी नहीं थे किंतु दो तीन क्षेत्रीय अखबार आते थे। इनके हाकर ही इनके सम्वाददाता हुआ करते थे जो या तो जनसम्पर्क के प्रैसनोटों को ही सीधे भेज देते थे या किसी दूसरे से खबरें लिखवाते थे। कुछ ऐसा हुआ कि हम लोग उनकी खबरें लिखने लगे। इस काम का मेहनताना इस तरह वसूलते थे कि एकाध खबर अपने नाम की भी डाल कर खुश हो जाते थे। युवा थे इसलिए   मजे के लिए कुछ लड़कियों के शार्ट नाम भी उनमें जोड़ देते थे। खबर बनाने में मरने वाले सेलीब्रिटीज बहुत काम आते थे। इनकी कपोल कल्पित शोकसभा आयोजित होती थी जिसकी खबरों में अध्यक्षता कभी मैं करता था तो कभी शिवमोहन, कभी अवधेश पुरोहित तो कभी अशोक खेमरिया। इस तरह हम लोगों के नाम अखबार में छपा करते थे। नगर के सब महत्वपूर्ण लोग हम लोगों के नाम से परिचित हो चुके थे। इतना ही नहीं हम लोग अपने नाम के आगे कुछ विशेषण भी लगाते रहते थे।
वक्त बीता मैं बैंक की नौकरी पर निकल आया और शिवमोहन स्कूल टीचर होते हुए स्कालरशिप पर रूस चले गये। वहाँ से लौट कर फिर सेंट्रल गवर्नमेंट में राजभाषा अधिकारी होते हुए भिलाई, रावतभाटा [राजस्थान], शिवपुरी, इन्दौर, कलप्पकम [तामिलनाडु] हैदराबाद में डिप्टी डायरेक्टर आफीसियल लेंगवेज के पद से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। उसके लिखे हुए पत्रों और प्राप्त पत्रों की संख्या लाखों में होगी और उसी तरह हर स्तर के विशिष्ट व सामान्य व्यक्तियों से उनके परिचय का दायरा देश विदेश में फैला हुआ है। लेखक, पत्रकार, सम्पादक, संयोजक, मंच संचालक, विदेशी भाषा के ज्ञाता, सामाजिक कार्यकर्ता, ज्योतिषी, से लेकर सनकी, झगड़ालू, मुँहफट आदि अनेकानेक विशेषण उनके साथ लगते रहे हैं। एक अध्यापिका से प्रेमविवाह किया जो पंजाबी हैं, बड़ी संतान बेटी जो आस्ट्रेलिया पढने गयी तो वहीं की होकर रह गयी, बेटे ने कोई नौकरी नहीं करना चाही तो फ्रीलाँस है। उन्होंने भी यायावरों की तरह मनमर्जी का जीवन जिया तो कभी दतिया, कभी इन्दौर, कभी भोपाल, कभी विशाखापत्तनम, कभी हैदराबाद पड़े रहे। ज्योतिष और तंत्र में भरोसा न होने पर भी उसकी प्रैक्टिस करते रहे और बड़े बड़े लोग उनके क्लाइंट रहे। [बाद में हम लोग उन नासमझों पर हँसते भी रहे] उनके सोते सोते दुनिया छोड़ देने तक पूरा जीवन घटना प्रधान रहा।
अब भूमिका की बात। जब मैंने उनसे कहा कि मेरा डैथ मीटर बोल रहा है कि मैं 2018 में नहीं रहूंगा तो मेरा श्रद्धांजलि लेख तुम्हें लिखना होगा। वे कहते कि मैं उम्र में तुम से बड़ा हूं इसलिए मेरा श्रद्धांजलि लेख तुम्हें ही लिखना होगा। 2018 शुरू होते ही जब फोन पर या चैटिंग से बात होती थी तब वे याद दिलते थे कि अठारह चल रहा है। मैं कहता था कि अभी बीता तो नहीं है, और फिर यह तो एक बिना जाँचा परखा कैलकुलेशन है कोई तुम्हारा ज्योतिष तो नहीं है कि इसमें विद्या की बेइज्जती हो जायेगी।  
शिवमोहन मेरे जीवन का एक हिस्सा थे। सच तो यह है कि वे साहित्यकार नहीं थे अपितु साहित्यिक पत्रकार थे। वे उत्प्रेरक थे। उन्होंने कविता कहानी व्यंग्य आदि में हाथ जरूर आजमाया होगा किंतु उसे मान्यता नहीं मिली। किंतु उन्होंने विभिन्न विषयों पर खूब लेख लिखे, खूब छपे और साहित्य की मुख्यधारा में बने रहे। उनका जीवन लगातार उन संघर्षों में बीता जिन्हें वे खुद आमंत्रित करते थे। गालिब के शब्दों में –
मेरी हिम्मत देखिए, मेरी तबीयत देखिए
जब सुलझ जाती है गुत्थी, फिर से उलझाता हूं मैं
यही उनकी भी प्रकृति थी।
विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए वादा करता हूं कि समय मिलने पर उनके जीवन के बारे में भी जरूर लिखूंगा। 
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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रविवार, दिसंबर 16, 2018

म.प्र. में शिवराज के एकाधिकार का टूटना


म.प्र. में शिवराज के एकाधिकार का टूटना
वीरेन्द्र जैन

गत विधानसभा चुनावों में भाजपा सरकारों का पतन न केवल मोदी-शाह के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को रोका जाना है अपितु इस पराजय के कई आयाम हैं और दूरगामी परिणाम होंगे। इन चुनाव परिणामों से न केवल मोदी-शाह की अलोकतांत्रिकता आहत हुयी है अपितु उनके अहंकार पर गहरी चोट हुयी है। इनमें से म.प्र. में सबसे ज्यादा नुकसान शिवराज सिंह के एकाधिकार का हुआ है।
उल्लेखनीय है कि शिवराज सिंह को नेतृत्व मध्य प्रदेश भाजपा के कद्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सुन्दरलाल पटवा के परम प्रिय शिष्य होने के कारण विरासत में मिला था। जब श्री पटवा अस्वस्थ होकर लकवाग्रस्त हो गये तो प्रदेश के नेतृत्व में उनकी दावेदारी पर प्रश्नचिन्ह लग गया, भले ही वे कहते रहे कि मैं स्वस्थ हो रहा हूं। इसी दौरान उन्होंने अपना राजनीतिक वारिस शिवराज को घोषित किया और केन्द्रीय नेतृत्व को उनके स्थान पर नेतृत्व सौंपने का सुझाव दिया। भले ही भाजपा संगठन को संघ के समर्पित कार्यकर्ताओं द्वारा संचालित किये जाने के कारण पहले कैडर वाली पार्टी माना जाता रहा हो किंतु सत्ता का स्वाद लगते ही वह काँग्रेस कल्चर की पार्टी बन चुकी थी। तमाम तरह की राजनीतिक अनियमितताओं के लिए सर्वाधिक बदनाम इस पार्टी को इसके नियंत्रक संघ ने कभी नहीं टोका, क्योंकि किसी भी तरह से मिली सत्ता उनके लक्ष्यों को पूरा करने में मददगार थी। यही कारण रहा कि सबसे पहले, सर्वाधिक दल बदल कराने वाली तथा सैलीब्रिटीज को चुनाव में स्तेमाल करने वाली पार्टी भाजपा ही रही। इसी पार्टी ने चुनावों में धन के स्तेमाल से सत्ता हथियाने की शुरुआत की। इसी तरह पद व सत्ता के लिए आपसी मतभेद और चुनावों में भितरघात भी शुरू हो गया था। जब पटवा जी के गुट ने शिवराज को प्रदेश अध्यक्ष के पद पर बैठाना चाहा तो विक्रम वर्मा की दावेदारी ने चुनौती दी थी व शिवराज सिंह के साथ विधिवत चुनाव हुये थे। इस चुनाव में शिवराज हार गये थे।  
2003 के विधानसभा चुनाव का सीधा सामना करने में काँग्रेस के धुरन्धर नेता दिग्विजय सिंह के सामने भाजपा खुद को कमजोर पा रही थी क्योंकि उसके पास उस कद का कोई प्रादेशिक नेता नहीं था। यही कारण था कि उन्होंने साध्वी के भेष में रहने वाली तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री पर दाँव लगाया, जो खुद भी अपना पद छोड़ कर नहीं आना चाहती थीं। उन्होंने नानुकर करने के बाद केन्द्रीय नेतृत्व के सामने अनेक शर्तें रखीं जिनमें से एक थी कि अधिकतम टिकिट वितरण में उनकी मर्जी ही चलेगी। विवश और नाउम्मीद नेतृत्व ने उनकी यह शर्त मान ली। उल्लेखनीय है कि सुश्री उमा भारती का सुन्दरलाल पटवा और उनके समर्थकों से सदैव छत्तीस का आंकड़ा रहा था इसलिए उन्होंने सुनिश्चित पराजय वाली सीट पर दिग्विजय सिंह के खिलाफ शिवराज सिंह को चुनाव लड़वाना तय किया जिससे एक तीर से दो शिकार किये जा सकें। शिवराज सिंह चुनाव हार गये।
बाद के घटनाक्रम में जब उमा भारती को हुबली कर्नाटक के ईदगाह मैदान पर जबरन झंडा फहराने और परिणामस्वरूप हुये गोलीकांड में सजा सुनायी गयी तो भाजपा नेतृत्व ने इसे एक अवसर के रूप में लिया और उनसे स्तीफा लेने में किंचित भी विलम्ब नहीं किया। यद्यपि उमाभारती ने नेतृत्व के आदेश के खिलाफ पर्याप्त देर की और जमानत के प्रयास करती रहीं, जब जमानत नहीं मिली तो केन्द्र ने अरुण जैटली के साथ शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री चुनने के प्रस्ताव के साथ भेजा था, पर उमा भारती ने साफ इंकार कर दिया व वरिष्ठ और सरल श्री बाबूलाल गौर को मुख्यमंत्री चुनवा दिया जिन्होंने उनसे वादा किया था कि अवसर आने पर, उमा भारती के पक्ष में वे अपना पद छोड़ने में किंचित भी देर नहीं करेंगे। शिवराज सिंह को एक बार फिर मायूस होकर वापिस लौटना पड़ा था। बाद में कर्नाटक की काँग्रेस सरकार ने कूटनीति से सम्बन्धित मुकदमा वापिस ले लिया व उमा भारती अपनी छोड़ी हुयी सीट वापिस पाने के लिए उतावली हो गयीं, पर अब मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर केन्द्रीय नेतृत्व के निर्देश पर काम कर रहे थे, जिसने उन्हें पद छोड़ने से साफ रोक दिया था। उमाजी ने तरह तरह से दबाव बनाना शुरू किया,  तिरंगा यात्रा निकाली पर दबाव नहीं बना। फिर उन्होंने सरकार की आलोचना शुरू कर दी तो नेतृत्व ने सरकार बदलना तय कर दिया। अबकी बार उन्होंने शिवराज सिंह को जबरदस्ती थोप दिया जबकि उमा भारती लोकतंत्र की दुहाई देते देते विधायकों के मत लेने की बात करती रहीं। वे बैठक से बाहर भागीं पर उनके साथ कुल ग्यारह विधायक बाहर आये और अंततः कुल चार रह गये। उन्होंने रामरोटी यात्रा निकाली और अलग पार्टी के गठन की घोषणा कर दी। विधायक सत्ता के साथ ही रहे क्योंकि उमा भारती पर से केन्द्रीय नेतृत्व का वरद हस्त हट चुका था। नियमानुसार छह महीने के अन्दर शिवराज सिंह को विधायक का चुनाव लड़ना पड़ा और कई तरह की चुनौतियों को देखते हुए उन्होंने जिलाधिकारी से इतने पक्षपात कराये कि चुनाव आयोग को चुनाव स्थगित करना पड़ा व जिलाधिकारी को स्थानांतरित करना पड़ा। इस सब घटनाक्रम में शिवराज को केन्द्रीय नेतृत्व का समर्थन मिलता गया व अलग पार्टी बना चुकी उमा भारती खलनायक बनती गयीं। 2008 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने समुचित संख्या में उम्मीदवार उतारे और बारह लाख वोट लेकर भाजपा को यथा सम्भव नुकसान पहुँचाया, भले ही उनके कुल पाँच विधायक जीत सके। उमा भारती को हराने के लिए शिवराज ने पार्टी और सरकार की पूरी ताकत झौंक दी थी और चुनाव जीतने के लिए अपनाये जाने वाले सारे हथकण्डे अपनाये जिसके परिणाम स्वरूप वे खुद भी चुनाव हार गयी थीं। चुनाव प्रचार के दौरान उन पर असामाजिक तत्वों ने हमला भी किया था व उन्हें एक मन्दिर में छुपना पड़ा था। वहाँ से उन्होंने फोन कर के प्रैस को बताया था कि शिवराज के इशारे पर उनकी जान लेने की कोशिश की गयी थी। इसके बाद वे हिम्मत हार गयी थीं और उन्होंने भाजपा में वापिस आने के तेज प्रयास शुरू कर दिये थे। किंतु उतनी ही तेजी से शिवराज ने उनकी वापिसी का विरोध भी शुरू कर दिया था। उन्होंने कहा था कि उनकी वापिसी के साथ ही वे अपने पद से त्यागपत्र दे देंगे। यह मामला दो साल तक लटका रहा। उमा भारती बाबरी मस्जिद टूटने के प्रकरण में संयुक्त अभियुक्त हैं और उनका अलग होना संघ अपने परिवार के हित में नहीं देखता इसलिए उसने दबाव डाल कर वापिसी का यह फार्मूला तैयार किया कि उमा भारती मध्य प्रदेश में प्रवेश नहीं करेंगीं। उन्हें उत्तर प्रदेश से विधायक का चुनाव लड़वाया गया और जीत की व्यवस्थाएं की गयीं। वे मुख्यमंत्री रह चुकी थीं इसलिए उन्हें उ.प्र. में मुख्यमंत्री प्रत्याशी भी घोषित किया गया।
शिवराज ने एकाधिकार का महत्व समझ लिया था इसलिए अपनी राह के सारे कांटे दूर करना शुरू कर दिये थे। कैलाश विजयवर्गीय सबसे बड़े प्रतिद्वन्दी थे। एक समय तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी जान को खतरा बताया था और राजनीतिक पंडितों के अनुसार उनका इशारा कैलाश विजयवर्गीय की ओर ही था। केन्द्रीय नेतृत्व ने धीरे से उन्हें मध्य प्रदेश से हटा लिया और पार्टी महासचिव बना कर प्रदेश की राजनीति से दूर कर दिया। इसी तरह दिन में सपने देखने लगे तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा को भी अचानक पद मुक्त करवा कर  अपने निकटस्थ नन्द किशोर चौहान को बैठा दिया। प्रभात झा की तरह ही अरविन्द मेनन को भी झटके के साथ संगठन के पद भार से मुक्त कर दिया गया। अब सब शिवराज की कठपुतलियों के हाथ में था। मीडिया को विज्ञापनों से इस तरह से पाट दिया गया था कि प्रदेश में व्यापम जैसा कांड हो या पेटलाबाद जैसा विस्फोट, बड़वानी का आँख फोड़ने वाला कांड हो या मन्दसौर का गोलीकांड सब दब कर रह गये। विज्ञापनों में भी शिवराज का इकलौता चेहरा ही उभरता हुआ नजर आता था। किसानपुत्र, मामा, बेटी बचाओ, कन्यादान, कुम्भ, नर्मदा, तीर्थयात्रा, आशीर्वाद यात्रा, आदि आदि सब व्यक्ति केन्द्रित होता जा रहा था। यहाँ तक कि चुनाव प्रचार सामग्री में भी अटल अडवाणी तो क्या मोदी और शाह को भी दूर रख कर ‘ हमारा नेता शिवराज’ का नारा उछाला गया था।
तय है कि चुनाव में पराजय के बाद उनका यह कहना कि मैं कहीं नहीं जाऊंगा, यहीं रहूंगा, यहीं जिऊंगा, यहीं मरूंगा, स्वाभाविक ही है किंतु पद के साथ मिलने वाला समर्थन और सहयोग अब नहीं मिलेगा। सारे विरोध सामने आने लगेंगे। सबके सत्ता सुख छिन जाने का दोष भी अब अकेले झेलना होगा। आभार यात्रा के दो चार कार्यक्रमों की असफलता ही आइना दिखा देगी। यह बात अलग है कि अडवाणी, सुषमा गुट का यह नेता सैकड़ों अन्य मोदी शाह जैसे भाजपा नेताओं की तुलना में अच्छा था।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, नवंबर 22, 2018

फिल्म समीक्षा मार्क्सवाद की एक अनौपचारिक क्लास – मोहल्ला अस्सी


फिल्म समीक्षा
मार्क्सवाद की एक अनौपचारिक क्लास – मोहल्ला अस्सी
वीरेन्द्र जैन

मोहल्ला अस्सी मूवी के लिए इमेज परिणाम
काशीनाथ सिंह हिन्दी के सुपरिचित कथाकार हैं। उन्होंने कभी हंस में धारावाहिक रूप से बनारस के संस्मरण लिखे थे जिनका संकलन ‘काशी के अस्सी’ नाम से प्रकाशित हुआ था। यह पुस्तक मध्य प्रदेश के पाठक मंच में भी खरीदी गयी थी और हजारों लोगों द्वारा पढी व सराही गयी थी। बनारस में सच्चे हिन्दुस्तान के दर्शन होते हैं। कबीरदास की इस नगरी में हिन्दू, मुसलमान, काँग्रेसी, संघी और कम्युनिष्ट वर्षों से एक साथ लोकतांत्रिक रूप से अपने विचारों के हथियारों से लड़ते भिड़ते हुए भी भाई भाई की तरह रहते हैं। जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ। बनारसी साड़ी को बुनने वाले लाखों मुस्लिम मजदूरों के साथ बाबा विश्वनाथ के लाखों भक्त रह कर साथ साथ गंगा स्नान करते हैं। यहाँ विस्मिल्लाह खाँ जैसे प्रसिद्ध शहनाई वादक, तो गुदईं महाराज से लेकर किशन महाराज तक जग प्रसिद्ध तबला वादक व गायक हुये हैं। यहाँ समाजवादी आन्दोलन भी चला और बीएचयू में सभी धाराओं के राजनीतिक विचारों को जगह भी मिली। जितने वामपंथी बुद्धिजीवी अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में पैदा हुये उतने ही बनारस हिन्दू यूनीवर्सिटी में भी पैदा हुये, जिन्होंने देश भर को दिशा दी। बनारस ने सभी विचारधाराओं को अपनी चौपाल में जगह दी और वहाँ के चाय के ढाबों में वैसी बहसें हुयीं जैसी अंतर्राष्ट्रीय सेमीनारों में भी नहीं होती होंगीं। जिसे प्रभु वर्ग [इलीट क्लास] में असभ्य या अश्लील समझा जाता होगा वैसी गालियां यहाँ मुहावरों की तरह प्रयुक्त होती हैं और उनके प्रयोग में लिंग भेद भी बाधा नहीं बनता।
इस फिल्म का कथानक पुस्तक ‘काशी का अस्सी’ के एक अध्याय ‘ पांड़े कौन कुमति तोहि लागी’ से उठाया गया है। इस संस्मरण का काल पिछली सदी के आठवें, नौवें दशक का है जब भाजपा ने संसद में अपनी सदस्य संख्या दो तक सीमित हो जाने के बाद अपने राजनीतिक अभियान को राम जन्म भूमि विवाद के साथ जोड़ दिया था। यह वह काल था जब काशी के पंडों की आमदनी सिकुड़ रही थी और वे जीवन यापन के लिए अपने ही बनाये मूल्यों के साथ समझौता करने के लिए मजबूर हो रहे थे। पप्पू की चाय की दुकान बनारस की वह प्रसिद्ध जगह है जहाँ बैठ कर लोग खूब बहसते हैं और मजाक करते हैं। कथानक केवल इतना है कि गंगा किनारे बसे पंडितों के मुहल्ले में ब्राम्हण सभा का अध्यक्ष धर्मपाल शास्त्री किसी भी पंडे को अपने यहाँ विदेशी किरायेदार नहीं रखने देता क्योंकि उसके अनुसार मांसाहारी होने के कारण वे अपवित्र होते हैं और गन्दगी फैलाते हैं। दूसरी ओर विदेश से बनारस आये हुए पर्यटक अच्छा किराया देते हैं। वैकल्पिक रूप से स्थानीय मल्लाह, नाई आदि अपने घर की कोठरियां किराये से देकर अच्छी कमाई कर रहे होते हैं और अपने सुधरे रहन सहन से ब्राम्हणों के श्रेष्ठता बोध को चुनौती देने लगते हैं। मार्क्सवाद के अनुसार समाज का मूल ढांचा अर्थ व्यवस्था बनाती है व उसी के अनुसार व्यक्ति की संस्कृति अर्थात सुपर स्ट्रेक्चर तय होता है। जब कथा नायक आर्थिक तंगी से जूझता है तो वह अपने घर में स्थापित शिव जी की कोठरी को विदेशी किरायेदार को देने को मजबूर हो जाता है और रात्रि में शिवजी के सपने में आकर आदेश देने का बहाना बना कर उन्हें गंगा में विसर्जित कर देता है। उससे प्रेरणा पाकर उस मुहल्ले के सभी पंडे अपने अपने घरों में स्थापित शिव मूर्तियों को अन्यत्र स्थापित कर खाली हुयी कोठरियों को विदेशी पर्यटकों को किराये से देने लगते हैं। इकानामिक स्ट्रक्चर, सुपर स्ट्रक्चर को बदल देता है। दूसरी तरफ चाय की दुकान में बैठे बुद्धिजीवी इन्हीं विषयों पर लम्बी लम्बी चर्चायें चलाते हैं। इसे देख कर फिल्म पार्टी की याद आ जाती है। एक पात्र कहता है 1992 के बाद जितने मुसलमान नमाज पढने जाने लगे और टोपियां लगाने लगे उतने पहले कभी नहीं जाते थे। दोनों तरफ से घेटो बनने लगे। रामजन्म भूमि पर भी अच्छी बहस सामने आयी।
वहीं नाई का काम करने वाला एक युवा एक अमेरिकन युवती को घुमाते घुमाते व्यवहारिक ज्ञान अर्जित कर लेता है व थोड़ा सा योग सीख कर उसके साथ अमेरिका भाग जाता है। वह वहाँ से बारबर बाबा बन कर लौटता है। वह अपने पुराने सहयोगियों को बताता है कि दुनिया एक बाज़ार है, जिसमें वह योग बेचने लगा है। कभी बनारस को रांड़, सांड़, सीढी, सन्यासी से याद किया जाता था किंतु अब फिल्म में किरायेदारी की दलाली करने वाला एक ब्रोकर कहता है कि अस्सी-भदैनी में ऐसा कोई भी घर नहीं जिसमें पंडे, पुरोहित, और पंचांग न हों और ऐसी कोई गली नहीं जिसमें कूड़ा, कुत्ते और किरायेदार न हों”।
फिल्म के मुख्य किरदार धर्मपाल शास्त्री [पांडे] की भूमिका सनी देवल ने निभायी है तो उनकी पत्नी की भूमिका साक्षी तंवर ने निभायी है। गाइड कम ब्रोकर की भूमिका भोजपुरी फिल्मों के नायक रवि किशन की है तो सौरभ शुक्ला आदि की भी भूमिकाएं हैं। बुद्धिजीवी गया सिंह की भूमिका उन्होंने खुद ही निभायी है। सनी देवल ने अच्छा अभिनय किया है किंतु उनकी भूमिका के अनुरूप उनका चयन ठीक नहीं था वे धुले पुछे बाहरी व्यक्ति ही लगते रहे जबकि साक्षी तंवर और सौरभ शुक्ला ने अपने को बनारसी रंग ढंग में ढाल लिया था। फिल्म में कहानी और घटनाक्रम देखने के अभ्यस्त दर्शकों को लम्बे लम्बे डायलाग वाली राजनीतिक बहस पसन्द नहीं आयेगी। पर वह ज्ञनवर्धक है।
इस फिल्म की दो अन्य उपलब्धियां सेंसर बोर्ड के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट का 36 पेज का फैसला और साहित्यिक संस्मरणों पर फिल्म बनने की शुरुआत होना भी है। उम्मीद की जाना चहिए कि दूसरे निर्माता निर्देशक भी साहस करेंगे।  
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, नवंबर 21, 2018

फिल्म समीक्षा संक्रमण काल में सामाजिक अवधारणाओं की चुनौतियां पर मनोरंजक फिल्म – बधाई हो


फिल्म समीक्षा
संक्रमण काल में सामाजिक अवधारणाओं की चुनौतियां पर मनोरंजक फिल्म – बधाई हो
वीरेन्द्र जैन

बधाई हो के लिए इमेज परिणाम
टीवी इंटरनैट के आने से पहले कालेज के दिनों में जब अंग्रेजी फिल्में देखने का फैशन चलन में था, तब तीन घंटे की फिल्म के अभ्यस्त हम लोगों को दो घंटे की फिल्म देख कर कुछ कमी सी महसूस होती थी, पर अब नहीं लगता क्योंकि बहुत सारी हिन्दी फिल्में भी तीन घंटे से घट कर दो सवा दो घंटे में खत्म हो जाती हैं। पहले फिल्में उपन्यासों पर बना करती थीं अब कहानियों या घटनाओं पर बनती हैं और उनमें कई कथाओं का गुम्फन नहीं होता। पिछले कुछ दिनों से इसी समय सीमा में किसी विषय विशेष पर केन्द्रित उद्देश्यपरक फिल्में बनने लगी हैं। कुशल निर्देशक उस एक घटनापरक फिल्म में भी बहुत सारे आयामों को छू लेता है। अमित रवीन्द्रनाथ शर्मा के निर्देशन में बनी ‘बधाई हो’ इसी श्र्ंखला की एक और अच्छी फिल्म है।
       यौन सम्बन्धों के मामले में हम बहुत दोहरे चरित्र के समाज में रह रहे हैं। वैसे तो सुरक्षा की दृष्टि से सभी गैर पालतू प्रमुख जानवर यौन सम्बन्धों के समय एकांत पसन्द करते हैं और सारी दुनिया की मनुष्य जाति में भी यह प्रवृत्ति पायी जाती है पर हमारी संस्कृति में ब्रम्हचर्य को इतना अधिक महत्व दिया गया है कि पति पत्नी के बीच के यौन सम्बन्धों को स्वीकारने में भी पाप बोध की झलक मिलती है। भले ही विवाह के बाद पूरा परिवार शिशु की प्रतीक्षा करने लगता है, दूधों नहाओ पूतों फलो के आशीर्वाद दिये जाते रहे हैं जिसके के लिए यौन सम्बन्धों से होकर गुजरना होता है, किंतु उसकी समस्याओं पर सार्वजनिक चर्चा नहीं की जा सकती। पैडमैन फिल्म बताती है कि यौन से सम्बन्धित सुरक्षा सामग्री भी अश्लीलता समझी जाती रही है। प्रौढ उम्र में गर्भधारण इसी करण समाज में उपहास का आधार बनता है भले ही यौन सम्बन्धों की उम्र दैहिक स्वास्थ के अनुसार दूर तक जाती हो।
यह संक्रमण काल है और हम धीरे धीरे एक युग से दूसरे युग में प्रवेश कर रहे हैं। यह संक्रमण काल देश की सभ्यता, नैतिकिता, और अर्थ व्यवस्था में भी चल रहा है। हमारा समाज आधा तीतर आधा बटेर की स्थिति में चल रहा है। फिल्म का कथानक इसी काल की विसंगतियों से जन्म लेता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मूल निवासी कथा नायक [गजराव राव] रेलवे विभाग में टीसी या गार्ड जैसी नौकरी करता है, व दिल्ली की मध्यम वर्गीय कालोनी में रहता है, जहाँ पुरानी कार सड़क पर ही पार्क करना पड़ती है। दिल्ली में बढे हुये उसके लगभग 20 और 16 वर्ष के दो बेटे हैं। उसकी माँ [सुरेखा सीकरी] भी उसी छोटे से फ्लेट में उसके साथ रहती है और कमरे की सिटकनी बन्द करने की आवाज तक महसूस कर लेती है। वह परम्परागत सास की तरह बहू [नीना गुप्ता] को ताना मारते रहने में खुश रहती है। कविता लिखने का शौकीन भला भोला मितव्ययी कथा नायक भावुक क्षणों में भूल कर जाता है और लम्बे अंतराल के बाद उसकी पत्नी फिर गर्भवती हो जाती है जिसका बहुत समय बीतने के बाद पता लगता है। वह गर्भपात के लिए सहमत नहीं होती।
उसका बड़ा बेटा [आयुष्मान खुराना] भी किसी कार्पोरेट आफिस में काम करता है व उसका प्रेम सम्बन्ध अपने साथ काम करने वाली एक लड़की [सान्या मल्होत्रा] से चल रहा होता है। लड़के के परिवार के विपरीत माँ [शीबा चड्ढा ] के संरक्षण में पली बड़ी पिता विहीन लड़की अपेक्षाकृत सम्पन्न मध्यमवर्गीय परिवार से है व उनके रहन सहन में अंतर है। लड़की की माँ आधुनिक विचारों की है तदानुसार लड़की अपना मित्र व जीवन साथी चुनने के लिए स्वतंत्र है। वे साझे वाहन से कार्यालय जाते हैं, और अवसर मिलने पर दैहिक सम्बन्ध बना लेने को भी अनैतिक नहीं मानते।
लड़के की माँ के गर्भधारण के साथ ही उसके परिवार में व्याप्त हो चुका अपराधबोध सबको गिरफ्त में ले लेता है। पड़ोसियों की मुस्कराती निगाह और तानों में सब उपहास के पात्र बनते हैं और इसी को छुपाने के क्रम में लड़का और लड़की के बीच तनाव व्याप्त हो जाता है जो दोनों के बीच एकांत मिलन का अवसर मिलने के बाद तब टूटता है जब वह लड़का अपनी चिंताओं के कारण को स्पष्ट करता है। लड़की के लिए यह हँसने की बात है किंतु लड़के के लिए यह शर्म की बात है।
जब लड़की अपनी माँ को सच बताती है तो माँ अपनी व्यवहारिक दृष्टि से सोचते हुए कहती है कि रिटायरमेंट के करीब आ चुके लड़के के पिता की नई संतान का बोझ अंततः उसे ही उठाना पड़ेगा। लड़का यह बात सुन लेता है और गुस्से में उन्हें कठोर बातें सुना देता है, जिससे आहत लड़की से उसका मनमुटाव हो जाता है। इसी बीच लड़के की बुआ के घर में शादी आ जाती है जिसमें शर्मिन्दगी के मारे दोनों लड़के जाने से मना कर देते हैं। उनके माँ बाप और दादी जब वहाँ जाते हैं तो सारे मेहमान भी उन्हीं की तरफ उपहास की दृष्टि से देखते हैं। यह बात दादी को अखर जाती है और वह गुस्से में अपनी बेटी और बड़ी बहू को लताड़ते हुए कहती है कि जिन संस्कारों को भूलने की बात कर रहे हो उनमें वृद्ध मां बाप की सेवा करना भी है जो कथा नायिका गर्भवती बहू को तो याद है पर उपहास करने वाले भूल गये हैं, जो कभी भूले भटके भी उससे मिलने नहीं आते। बीमार होने पर इसी बहू ने उनको बिस्तर पर शौच कर्म कराया है जब कि वे लोग देखने तक नहीं आये। वह विदा होती नातिन के यह कहने पर कि वह अमेरिका जाकर नानी को फोन करेगी, कहती है कि उसने मेरठ से दिल्ली तक तो फोन कभी किया नहीं अमेरिका से क्या करेगी। इसे सुन कर एक पुरानी फिल्म ‘खानदान’ में भाई-भाई के प्रेम के लिए रामायण को आदर्श बताने वाले नायक के आदर्श वाक्य का उत्तर देते हुए का प्राण द्वारा बोला गया वह डायलाग याद आता है, जब वह कहता है ‘ कौन सी रामायण पढी है तुमने? हमारी रामायण में तो यह लिखा हुआ है कि बाली को उसके सगे भाई सुग्रीव ने मरवा दिया और रावण को उसके सगे भाई सुग्रीव ने’।
अंग्रेजी में कहावत है कि मोरलिटी डिफर्स फ्रोम प्लेस टु प्लेस एंड एज टु एज। लगता है इसके साथ यह भी जोड़ लेना चहिए कि क्लास टु क्लास।     
            लड़के की माँ को जब पता लगता है कि उसके कारण उसका उसकी गर्ल फ्रेंड से मनमुटाव हो गया है तो वह लड़के को गोद भराई का कार्ड देने के बहाने भेजती है और लड़की की माँ से माफी मांगने की सलाह देती है। यही बात उनके मन का मैल दूर कर देती है। और एक घटनाक्रम के साथ फिल्म समाप्त होती है।
इस मौलिक कहानी को बुनने और रचने में पर्याप्त मेहनत की गयी है व पश्चिमी उत्तर प्रदेश की स्थानीयता और दिल्ली की आधुनिकता के बीच की विसंगतियों को सफलता से उकेरा गया है। पान की दुकान को युवा क्लब बनाये रखने, घर में अपनी बोली में बोलने, पड़ोसियों द्वारा ताक झांक करने व दूसरी ओर आधुनिक परिवार में माँ बेटी का एक साथ ड्रिंक करना पार्टियां देना आदि बहुत स्वाभाविक ढंग से व्यक्त हुआ है। सारी शूटिंग स्पाट पर की गयी है और डायलाग में व्यंग्य डाला गया है, जिसका एक उदाहरण है कि जब माँ के गर्भवती होने पर हँसती हुयी लड़की से नाराज लड़का कहता है कि अगर ऐसी ही स्थिति तुम्हारी माँ के साथ हुयी होती तो तुम्हें कैसा लगता। लड़की कहती है, तब तो बहुत बुरा लगता।.......... क्योंकि मेरे पिता नहीं हैं। चुस्त कहानी और पटकथा लेखन के लिए अक्षर घिल्डियाल, शांतुन श्रीवास्तव, और ज्योति कपूर बधाई के पात्र हैं। फिल्म की व्यावसायिक सफलता ऐसी फिल्मों को आगे प्रोत्साहित करेगी जो बदलते समय के समानांतर सामाजिक मूल्यों में बदलाव को मान्यता दिलाती हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629


          

रविवार, अक्तूबर 21, 2018

कथित धार्मिक परम्पराओं में विभ्रमित मध्यम वर्ग


कथित धार्मिक परम्पराओं में विभ्रमित मध्यम वर्ग
वीरेन्द्र जैन

ईसा मसीह ने सूली पर चढते समय कहा था कि हे प्रभु इन्हें माफ कर देना ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। आज जो कुछ भी धर्म संस्कृति के नाम पर हो रहा है वह ऐसा ही है। एक ऐसी अन्धी भेड़ चाल में मध्यम वर्ग भागा जा रहा है कि उसे होश ही नहीं है कि वह क्या कर रहा है। रावण को जलते हुए देखने को वह धर्म समझ रहा है और दुर्घटनाओं में मर जाने तक में वह दूसरों की भूल तलाशता है और अपनी भूल पर पश्चाताप नहीं करता।  
केवल एक अमृतसर में रावण दहन के दौरान घटी घटना ही अकेली दुर्घटना नहीं है अपितु प्रति वर्ष हजारों लोग किसी विशेष दिन पर किसी विशेष धर्मस्थल में पहुँचने में न केवल सड़क दुर्घटनाओं के शिकार हो जाते हैं अपितु भीड़ की भगदड़ में कुचल कर मर जाते हैं। वे जल्दी जल्दी कथित धर्मलाभ लेने के चक्कर में इतने स्वार्थी और अमानवीय हो जाते हैं कि भगदड़ में कोई व्यक्ति एक बार गिर जाता है तो वह दुबारा उठ ही नहीं पाता अपितु सैकड़ों लोग उसे कुचलते हुए आगे बढते जाते हैं। वे नहीं जानते कि ऐसी अमानवीयता धर्म की मूल भावना के ही खिलाफ है। किसी दर्शन पूजा से पुण्य लाभ का सन्देश देने वाले धर्म ने ही मानवीयता के सन्देश भी दिये हैं।
सभी धर्मों में उपवास के लिए कहा गया है और उसका प्रमुख उद्देश्य जीवन में अनुशासन लाना व इन्द्रियों की दासता से मुक्त होना होता है। किंतु पहले धर्मस्थल तक पहुँचने की कोशिश में वे सारे अनुशासन भूल जाते हैं। वे केवल दूसरे की देखादेखी किसी दिन विशेष को पहुंच कर वह सब कुछ करना चाहते हैं जिसे उनके वर्ग के दूसरे लोग करते आ रहे हैं और वे उससे पीछे नहीं रहना चाहते। किसी समय संतोषी माता का व्रत शुक्रवार को करने वाली लाखों महिलाओं ने एक दूसरे की नकल में यह किया था पर आज कोई व्रत करता नजर नहीं आता। उन्हें याद ही नहीं कि वे कब क्या और क्यों कर रहे थे। उच्च मध्यम वर्ग की नकल में निम्न मध्यम वर्ग भी जानवरों की तरह रेल के डिब्बों में ठुंसे हुये, भूखे प्यासे, जागे, या अधसोये गन्दा पानी और बासा भोजन खाते हुए वहाँ तक पहुँचते हैं और वैसी ही अवस्था में वापिस लौटते हैं। वे कभी इस बात का परीक्षण नहीं करते कि इससे उन्हें क्या हासिल हुआ है। पिछले दिनों विकसित उच्च मध्यम वर्ग के पास निजी वाहनों की संख्या भी बड़ी है किंतु मार्गों का विकास व सुधार उस अनुपात में नहीं हुआ है, जिसका परिणाम यह हुआ कि खराब मार्गों पर एक साथ अत्यधिक वाहनों के बीच होने वाली जल्दी पहुँचने की प्रतियोगिता में पचासों दुर्घटनाएं घटती हैं जिनमें न केवल सैकड़ों लोग मरते हैं अपितु हजारों जीवन भर के लिए विकलांग हो जाते हैं जो फिर भी यह मानते हैं कि देवता की कृपा से वे जीवित बच गये। मन्दिर बनवाने के लिए एक दिन में ही लाखों करोड़ों जोड़ लेने वाला समाज धर्मस्थल तक की सड़क बनवाने के लिए कुछ नहीं करता।  
किसी उद्देश्य विशेष के लिए झांकियों को किसने कब शुरू किया था यह अधिकांश लोग नहीं जानते व उनके वर्तमान स्वरूप को ही वे सदियों पुराना परम्परागत धार्मिक कार्य समझते हैं और उसमें आने वाले किसी भी व्यवधान के विरुद्ध जान देने की हद तक उत्तेजित हो सकते हैं। वे इनके लिए न केवल दूसरे धर्म वालों से उलझ सकते हैं अपितु अपने धर्म के दूसरे झांकी वालों से भी टकरा सकते हैं। विज्ञान की नई से नई उपलब्धि को भी वे अपनी परम्परा में समाहित मान लेते हैं और उसके लिए लड़ मर जाते हैं। झांकियों में लाउडस्पीकर, डीजे, बुरी फिल्मी धुनों पर रिकार्डिड भजन, रंगीन लाइटें, बड़े बड़े पंडालों में प्लास्टर आफ पेरिस की विशालकाय मूर्तियां और उनकी मँहगी सजावट के स्तेमाल को शुरू हुए बहुत दिन नहीं हुये किंतु उनकी रक्षा, धर्म की रक्षा की तरह की जाने लगी है। कागज का रावण जलाने और उसमें बारूद के पटाखों के स्तेमाल सहित आतिशबाजी को भी सैकड़ों साल नहीं हुये किंतु उसको इतना जरूरी माना जाने लगा है जैसे यह पौराणिक काल से चला आ रहा हो। दीपावली का नाम ही दीपों की श्रंखला को जलाने के कारण ही पड़ा था किंतु अगर आज किसी शहर में दीवाली के दिन बिजली न आये तो शहर में विद्युत मंडल का कार्यालय तक फूंका जा सकता है। दूसरी ओर खील बताशों के त्योहार में चाकलेट और शराब की बिक्री अपने रिकार्ड तोड़ने लगी है, पर खील बताशे भी अपनी जगह यथावत हैं। विडम्बना यह है कि हम पुराने को छोड़े बिना नई नई चीजें अपनाते जा रहे हैं और जीवन को कबाड़ से भरते जा रहे हैं। मध्यम वर्ग की नकल निम्न मध्यम वर्ग करता है और वह उसमें अपनी अर्थ व्यवस्था को बिगाड़ लेता है। तीर्थयात्रा और पर्यटन का ऐसा घालमेल होता जा रहा है कि दोनों में से कोई भी ठीक तरह से नहीं हो पा रहा है। लोग अकारण मँहगे होते जा रहे पैट्रोल, डीजल, गैस आदि के बारे में एकजुट प्रतिरोध के बारे में सोचे बिना उनका स्तेमाल बढाते जा रहे हैं , एक स्तम्भकार ने सही लिखा है कि कम से कम झांकियों में तो समाज का सही चित्रण करते हुए गलत के प्रति अपना प्रतिरोध दर्शाया जा सकता है, पर उसमें वही पौराणिक दृश्य दिखाये जा रहे हैं।
आयोजन स्थलों पर स्वच्छता, वृक्षारोपण, जल के स्तेमाल की मितव्यता का कोई सन्देश नहीं दिया जाता इसे किसी भी भंडारे के बाद उस स्थल को देख कर समझा जा सकता है। धर्म के नाम पर होने वाले इन बेतरतीब तमाशों में अनुशासन हीन भीड़ के बढते जाने और व्यवस्थाओं के प्रति ध्यान न दिये जाने के कारण भविष्य में भी दुर्घटनाएं बढने ही वाली हैं। इन दुर्घटनाओं के लिए भले ही राजनीतिक दल इस या उस सरकार या नेता को दोष देकर अपना उल्लू साधने की कोशिश करें पर अगर समय से नहीं चेते तो जान से हाथ तो जनता ही धोयेगी।
वीरेन्द्र जैन
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मो. 09425674629



सोमवार, अक्तूबर 15, 2018

मी टू का प्रभाव दूरगामी है


मी टू का प्रभाव दूरगामी है
वीरेन्द्र जैन

जिस दिन मी टू आन्दोलन की खबर आयी थी मैं बहुत खुश था क्योंकि इससे मेरे ही एक विचार को बल मिला था। जब और लोग भी आपकी तरह सोचने लगते हैं तो आपको अपने विचार पर भरोसा बढता है।
       यौन अपराधों की संख्या रिपोर्ट होने वाले अपराधों की संख्या से कई कई गुना अधिक होती है क्योंकि इसमें पीड़िता न केवल शारीरिक मानसिक चोट ही भुगतती है अपितु बदनामी भी उसी के हिस्से में आती है। यह ऐसा अपराध होता है जिसमें अपराधी को तो पौरुषवान समझा जाता है और पीड़िता को चरित्रहीन समझा जाता है। ऐसे अपराध से जुड़े पुरुष के लिए रिश्तों की कमी नहीं रहती जबकि निर्दोष पीड़िता से शादी करने के लिए कोई सुयोग्य तैयार नहीं होता। खबर सुनने वालों से लेकर प्रकरण दर्ज होने तक पुलिस, डाक्टर, वकील और अदालत से जुड़े अनेक लोग किसी पोर्न कथा का मजा लेते हैं। घर में बैठ कर अखबार में खबर पढने वाले भी इन्हीं कारणों से अधिक रुचि लेकर पढते हैं। इस तरह की घटना से सम्बन्धित किसी विरोध जलूस में भी घर परिवार से जुड़ी लड़कियां या महिलाएं हिस्सा नहीं ले पातीं। बड़े शहरों में भी हास्टल में रहने वाली लड़कियां या एनजीओ व राजनीतिक दलों में काम करने वाली महिलाएं ही नजर आती हैं। अगर किसी को पता न चला हो तो पीड़िता और उसके माँ बाप भी दूरदृष्टि से बात को दबाने की कोशिश करते हैं। यह अपराध आर्थिक सामाजिक रूप से कमजोर महिलाओं के प्रति अधिक होते हैं जिसका मतलब एक ओर उनकी आवाज न उठा पाने की कमजोरी तो दूसरी ओर आवाज उठाने पर दूसरे सामाजिक नुकसान की आशंका में उनको चुप रहने को मजबूर होना होता है। यह कमजोरी इसलिए है कि प्रभावकारी संख्या में पीड़िताएं एकजुट नहीं हो पातीं। इस पृष्ठभूमि में मेरा सुझाव था कि किसी एक तय दिन को दुनिया की सेलीब्रिटीज समेत सारी महिलाएं एक साथ अपने साथ हुए शोषण या उसके प्रयास का खुलासा करें जिससे किसी को हीनता बोध महसूस न हो और महिलाओं की व्यापक एकजुटता बने। इसके लिए मैंने 14 फरबरी का दिन सुनिश्चित करने का सुझाव दिया था जो वेलंटाइन डे होने के कारण पूर्व से ही चर्चित और सम्वेदनशील दिन होता है। मेरे प्रस्ताव पर तो किसी का ध्यान नहीं गया था किंतु समानांतर रूप से प्रारम्भ हुये मी टू कैम्पैन की खबर मुझे अच्छी लगी थी।
हाल ही में हुए खुलासों में हमने देखा है कि सुशिक्षित और सक्रिय महिलाओं ने भी साहस जुटाने में कितने वर्ष लगा दिये। इसमें केवल सम्बन्धित व्यक्तियों का ही दोष नहीं है अपितु यह सामाजिक दोष है जिसे पूरे समाज को बदल कर ही ठीक किया जा सकता है। यदि हम सामूहिक खुलासे का एक दिन निश्चित करने में सफल होते हैं तो उस दिन पुरुषों को भी इस बात के लिए तैयार होना पड़ेगा कि वे अपने घर परिवार की महिलाओं द्वारा दबा दिये गये मामलों को सहानिभूति के साथ लेंगे और दोषी को क्षमा याचना या दण्ड तक पहुंचाने में सहयोगी बनेंगे। हमें अपनी उन पौराणिक कथाओं से जनित नैतिकिताओं का भी पुनर्मूल्यांकन करना होगा जिन कथाओं में पीड़ित महिलाओं को ही शपित या दण्डित होना पड़ा था। मी टू अभियान के बाद जितने बड़े पैमाने पर एक साथ खुलासे होंगे उसके बाद हमें यौन शुचिता के नये मापदण्ड बनाने होंगे। ह्रदय की पवित्रता और समर्पण को देह की पवित्रता से अधिक महत्व देने की मानसिकता का वातावरण बनाना होगा।
हम लोग सबसे अधिक दोहरे मापदण्डों वाले लोग होते हैं। इससे कुण्ठित रहते हुए सामाजिक फैसले करते हैं। सच तो यह है कि परिवार नियोजन से सम्बन्धित सामग्री की व्यापक उपलब्धता के बाद नारी गर्भ धारण की मजबूरी से मुक्त हुयी है जिससे स्त्री पुरुष के बेच की ज़ेंडर असमानता कम हुयी है। अब वह समान रूप से शिक्षित है और लगभग हर वह काम करने में सक्षम है जो पुरुषों के लिए ही सुरक्षित माने जाते थे, किंतु यौन अपराधों का भय उसे अकेले बाहर निकलने, देर से न लौटने आदि मामलों में कमजोर बनाता है। इसका परिणाम यह होता है कि लड़कियां पढती तो थीं किंतु अपनी पढाई के अनुरूप समाज को योगदान नहीं दे पाती हैं। जैसे ही यौन अपराधों के अपराधियों को दण्ड और सामाजिक अपमान मिलने लगेगा वैसे ही अपराधों में कमी आयेगी। महिलाओं की शिक्षा भी बढेगी, रोजगार बढेगा।
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट से यौन सम्बन्धों से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण फैसले भी आये हैं। ये फैसले उच्च स्तर पर सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन लाने वाले हैं। यह सही समय है जब यौन अपराधों में भी पीड़िता की लुकाछुपी द्वारा अपराधी को मदद मिलने का सिलसिला समाप्त हो। अपराधियों की मदद करने वाले लोग समय की सीमा का सवाल उठा रहे हैं जो अनुचित है। जब कोई महिला अब सवाल उठा रही है तो परिस्तिथियां अनुकूल होने पर तब भी उठा सकती थी, किंतु तब परिस्तिथियां अनुकूल नही थीं। पौराणिक कथाएं भी कुछ संकेत देती हैं, हमारे देश का नाम जिस भरत के नाम पर भारत पड़ा बताया जाता है उसकी माँ शकुंतला भी न्याय मांगने दुश्यंत के पास तब गयी थी जब भरत इतना बड़ा हो गया था कि शेर के बच्चों के साथ खेलते हुए उनके दांत गिनने लगा था। तब दुष्यंत ने समय की शिकायत नहीं की थी बस सबूत मांगा था।  
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, अक्तूबर 10, 2018

बहुजन समाज पार्टी [मायावती] और राजनीति की विडम्बनाएं


बहुजन समाज पार्टी [मायावती] और राजनीति की विडम्बनाएं
वीरेन्द्र जैन

बहुजन समाज पार्टी के साथ कोष्ठक में मायावती लिखा होने के कारण यह सोचा जा सकता है जैसे यह एक अलग पार्टी है। ऐसा होते हुये भी नहीं है। यह पहेली नहीं एक सच्चाई है। एक बहुजन समाज पार्टी थी जिसे कांसीराम जी ने स्थापित किया था। उसकी विकास यात्रा बामसेफ, डीएसफोर से होती हुयी बहुजन समाज पार्टी नामक आन्दोलन तक गयी थी जिसने बाद में उस राजनीतिक दल का स्वरूप ग्रहण किया जिसे सत्ता में आने की कोई जल्दी नहीं थी और जो अपने सिद्धांतों से किसी तरह का समझौता नहीं करता था। अब ऐसा नहीं है, कांसीराम जी के निधन के बाद अब सुश्री मायावती के नेतृत्व में चल रही इस पार्टी के लक्ष्य और तौर तरीके बिल्कुल बदल गये हैं, इसलिए कहा जा सकता है यह एक नई बहुजन समाज पार्टी [मायावती] है। 
बहुजन समाज पार्टी उर्फ बीएसपी के गठन से पहले बामसेफ का गठन हुआ था। संविधान ने जब अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोगों को आरक्षण दिया तो प्रारम्भ में तो समुचित संख्या में सरकारी नौकरी के लिए सुपात्र लोग ही नहीं मिले क्योंकि समुदाय में वांछित संख्या में शिक्षित लोग थे ही नहीं। आरक्षण के बाद भी कुछ वर्षों तक ये स्थान गैर आरक्षित लोगों से भरे जाते रहे, और कुछ मामलों में तो सुपात्रों को भी अपात्र बना दिया गया तब यह नियम बनाना पड़ा कि आरक्षित पदों में भरती गैर आरक्षित वर्ग से नहीं होगी, भले ही स्थान रिक्त रखे जायें। जो लोग आरक्षण के आधार पर सरकारी सेवाओं में आये थे उन्हें भी जात-पांत से ग्रस्त सहयोगी और अधिकारी वर्ग का एक हिस्सा स्वीकार नहीं कर रहा था। न उनके साथ समान रूप से उठना बैठना होता था और न ही सामाजिक व्यवहार होता था। कार्यस्थलों में उनकी सामान्य भूलों के प्रति भी उनकी जाति से जोड़ कर अपमान किया जाता था। ट्रेड यूनियनों तक के अनेक पदाधिकारी भी जाति की मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाये थे या जातिवाद मानने वाले अपने बहुसंख्यक सदस्यों के साथ थे। यही कारण रहा कि अम्बेडकर के जीवन और विचारों से प्रभावित होकर सरकारी नौकरी में आये लोगों ने अपना अलग घेरा बनाना शुरू कर दिया। कांसीराम भी ऐसे ही लोगों में से थे जिन्होंने बाद में घेरे को संगठन का रूप देकर इस वर्ग का नेतृत्व किया और इसी अलगाव की भावना को अपने संगठन की ताकत बनाया। यही सफर बामसेफ से डीएसफोर और बाद में बहुजन समाज पार्टी तक ले गया। बामसेफ कर्मचारी संगठन था तो डीएसफोर पिछड़ों व मुस्लिमों को मिला कर गैरसवर्ण लोगों की व्यापक एकता का मंच था जो बाद में बहुजन समाज पार्टी की ओर गया।
चुनावी पार्टी बनते ही इस भावनात्मक आन्दोलन को दूसरी जातियों के सहयोग और संसाधनों की जरूरत पड़ी जो नौकरीपेशा आरक्षित वर्ग द्वारा की जा रही सहायता से सम्भव नहीं था इसलिए उन्होंने अपने दल को विस्तार दिया, भले ही दलितों और पिछड़ों में भी एकता सहज नहीं थी। प्रारम्भ में तो जातिवादी भावना के कारण उक्त वर्ग साथ में नहीं आया किंतु दलित वर्ग की एकजुटता से अर्जित शक्ति को हथियाने के लिए उन्होंने कुछ राजनीतिक समझौते किये। कांसीराम जी ने अपने लोगों की सामूहिक वोटशक्ति को पहचान कर उसे ही संसाधन जुटाने का माध्यम भी बनाया। उनका फार्मूला बना कि जहाँ वे अपने वर्ग के प्रतिनिधियों को चुनाव जिता सकते हैं वहाँ तो किसी से कोई समझौता नहीं करेंगे किंतु जहाँ नहीं जिता पा रहे हैं वहाँ अपनी वोटशक्ति को ट्रांसफर करके संसाधन जुटाने के लिए स्तेमाल करेंगे। उन्होंने दलित वर्ग को जाति स्वाभिमान की लड़ाई के लिए हर तरह का बलिदान देने के लिए तैयार कर लिया था।  
इसी के समानांतर जनता पार्टी से बाहर की गयी जनसंघ ने भाजपा का गठन किया। इस दल के पास देश भर में विस्तारित संघ का एक ढांचा तो था किंतु वह इतना सीमित था कि अपनी दम पर चुनाव नहीं जिता सकता था। उनको सवर्ण समाज और व्यापारी वर्ग की सहानिभूति तो प्राप्त थी किंतु जीतने के लिए कुछ अतिरिक्त सहयोग की जरूरत थी। कांसीराम ने जिन दलित वर्ग के मतों को कांग्रेस के बंधुआ होने से मुक्त करा लिया था वे उनकी पूंजी बन गये थे, और पिछड़े वर्ग की समाजवादी पार्टी से समझौता फेल हो गया था। सत्ता के लिए किसी भी स्तर पर सौदा करने को तैयार भाजपा ने अतिरिक्त मतों का सौदा बहुजन समाज पार्टी से करना तय किया और कभी गठबन्धन के नाम पर तो कभी उनके सदस्यों से दलबदल करा के सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करती गयी। कांसीराम के अस्वस्थ होते ही पूरी ताकत मायावती के हाथों में आ गयी जिन्होंने उनका संघर्ष नहीं देखा था पर राजनीतिक सौदेबाजी जरूर देखी थी, इसलिए उन्होंने दो काम किये, एक तो जाति स्वाभिमान के नाम पर अपने वोटों के बड़े हिस्से को सुरक्षित रखा, दूसरे इसी नाम पर उन वोटों को उचित सौदे के साथ स्थानांतरित करने की ताकत बनाये रखी।
दलितों का अन्धसमर्थन पाकर, बहुजन समाज पार्टी में पार्टी लोकतंत्र कभी नहीं रहा। कांसीराम कहते थे कि हमारी पार्टी के पास कोई आफिस नहीं है, कोई फाइल नहीं है, कोई हिसाब किताब नहीं है, कोई चुनाव नहीं होते। वे जिस कमरे में पार्टी की बैठक करते थे उसमें केवल एक कुर्सी होती थी और बाकी सब को नीचे बैठना पड़ता था। वे सूचनाएं प्राप्त करते थे किंतु किसी से सलाह नहीं करते थे। उनकी पार्टी में उनके कद का कोई नहीं था। जो उनके पास आता था उसे कद घटा कर आना पड़ता था। यही कारण रहा कि मायावती के आने के बाद लोगों ने झुका हुआ सिर उठाना शुरू कर दिया। जो लोग विभिन्न पदों पर रह कर सम्मान व सत्तासुख प्राप्त कर  चुके थे वे उनके आगे कांसीराम युग की तरह झुकने को तैयार नहीं हुये और पार्टी छोड़ते चले गये। उनमें से अनेक तो अपने साथ बिना हिसाब किताब वाली पार्टी द्वारा अर्जित संसाधनों को भी साथ लेते गये।
अब मायावती अपने शेष बचे समर्थन की दुकान चला रही हैं। वे 2009 में 6.17% वोटों के साथ 21 सीटें जीतने के बाद अब 4.19 प्रतिशत वोट और शून्य सीटों तक आ चुकी हैं। उनके अपने वर्ग का समर्थन घट कर भी बहुत बचा हुआ है और मत प्रतिशत में वे अब भी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी हैं। उनके घटते समर्थन को देखते हुए आगामी आम चुनावों में देखना होगा कि महात्वाकांक्षी और सुविधाभोगी होती जा रही दूसरी पंक्ति कब तक उनके अनुशासन में रह पाती है।
मायावती ने राजनीतिक सौदों से जो संसाधन जोड़े वे पार्टी के नाम से नहीं अपितु निजी या रिश्तेदारों के नाम पर रखे। उन पर आय से अधिक सम्पत्ति के प्रकरण सीबीआई में चल रहे हैं और केन्द्र में शासित दल उस आधार पर दबाव बनाते रहते हैं। गत लोकसभा चुनाव में जब कोई भी सीट नहीं जीत सकी थीं, तब समाचार पत्रों में कहा गया था कि हाथी [चुनाव चिन्ह] ने अंडा [शून्य] दिया है । देश के दूसरे दलित दल व नेता उनके बड़े आलोचक हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि दलित और कमजोर वर्ग के पक्ष में बिना कोई उल्लेखनीय कार्य किये, बिना कोई आन्दोलन चलाये वे केवल जाति स्वाभिमान के नाम पर कैसे अपना समर्थन बचाये हुये हैं और उसका भी सौदा करने में समर्थकों की कोई सलाह नहीं लेतीं। उनके इकलौते सबसे बड़े सलाहकार उस ब्राम्हण वर्ग से हैं जिससे नफरत को बनाये रखना उनकी पार्टी का मूलाधार रहा है। राज्यसभा के टिकिट का सौदा करने में भी वे जातिवाद नहीं देखतीं। आगामी पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में फैसला लेते समय उन्होंने न अपने वर्ग का हित सोचा है न देश का हित सोचा है। देश के प्रमुख दलों ने भी उनके समर्थकों से सम्वाद करने के कभी प्रयास नहीं किये।
वीरेन्द्र जैन
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