शुक्रवार, जून 22, 2012

भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व और उसके विरोधाभास


भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व और उसके विरोधाभास  
वीरेन्द्र जैन
      देश में भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या है और यही कारण है कि जब भी कोई भ्रष्टाचार के खिलाफ उठ खड़ा होता हुआ दिखता है तो उसके पीछे बहुत सारे लोग यह सोचे बिना ही आ जाते हैं कि जब तक यह समर्थन किसी सार्थक परिवर्तनकारी राजनीति और राष्ट्रव्यापी संगठन के साथ नहीं जुड़ता तब तक किसी परिणिति तक नहीं पहुँच पाता। जय प्रकाश नारायण का आन्दोलन हो या वीपी सिंह का अभियान हो वे व्यापक राजनीतिक दृष्टि और संगठन के बिना चलाये गये थे इसलिए बिना कोई परिवर्तन किये बड़ी घटनाएं बन कर रह गये। आज अन्ना का आन्दोलन हो या रामदेव का वे भी इसी दोष के शिकार हैं इसलिए उनकी परिणिति भी तय है। स्मरणीय है कि विदेशों में जमा धन को वापिस लाने को भाजपा ने अपना चुनावी मुद्दा बनाया था किंतु उसे आन्दोलन का रूप देने की कोई कोशिश नहीं की। जब रामदेव और अन्ना हजारे ने इस समस्या पर आन्दोलन प्रारम्भ किये तो कई राजनीतिक दल तो इनके पीछे इसलिए आ गये ताकि इनके अभियान से उठी लहर में वे अपनी नैय्या पार लगा सकें।
       भाजपा से जुड़े संगठनों ने तो साफ साफ कहा कि अन्ना के अनशन के दौरान उन्होंने न केवल संसाधनों में मदद की थी अपितु भीड़ एकत्रित करने में योगदान भी किया था। उनका यह बयान अन्ना टीम के लिए नुकसान दायक साबित हुआ था। अपनी सोच और अतीत में किये गये कारनामों के कारण भाजपा और उससे जुड़े जनसंगठन इस तरह से बदनाम हैं कि उनके सहयोग की भनक भर आन्दोलन को कमजोर करने के लिए काफी होती है इसलिए वे विपक्ष में रहते हुए भी इस विषय पर आन्दोलन नहीं छेड़ते पर उसका सम्भावित लाभ लेने के लिए परदे के पीछे से प्रयास करते हैं। स्मरणीय है कि जब अन्ना हजारे के आन्दोलन के प्रति लोगों में तीव्र आकर्षण पैदा हुआ था तब संघ ने भ्रष्टाचार के खिलाफ पहले आन्दोलन न छेड़ने के लिए भाजपा नेताओं को फटकार लगायी थी। रामदेव तो परोक्ष रूप से भाजपा से जुड़े ही रहे हैं और उनके ट्रष्ट भाजपा को विधिवत चन्दा देते आये हैं। यह अलग बात है कि उसे सार्वजनिक रूप से स्वीकारने में तब तक कतराते रहे जब तक मीडिया में प्रमाण सहित सच सामने नहीं आ गया।
      एक बार असफल हो जाने के बाद अन्ना हजारे और रामदेव ने सन्युक्त होकर पुनः आन्दोलन छेड़ने की योजनाएं तैयार की हैं और भाजपा जैसे दल उसके समर्थन को लपक लेने की तैयारी करने लगे हैं। असल में यह भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोशित जनता के साथ एक और धोखा है कि उसकी भावनाओं को उस दल को बेच दिया जाये जिसे जनता पसन्द नहीं करती। इस आन्दोलन में कहीं भी चुनाव प्रणाली, कार्यपालिका व न्यायपालिका में वांछित परिवर्तन का नक्शा नहीं है जिनके चलते वर्तमान में जो भी कानून हैं वे निष्प्रभावी हैं, और उनके होते हुए भी भ्रष्टाचार ने इतना बड़ा स्वरूप ग्रहण कर लिया है।
      अभी हाल ही में घटित घटनाओं पर इन संगठनों ने जो टिप्पणियां की हैं उनसे इनकी कूटनीति का पता चलता है। अल्पसंख्यकों के मन में भाजपा के प्रति जो सन्देह हैं वही सन्देह भाजपा के जनसंगठनों से सहायता लेने वाले इन आन्दोलनकारियों के प्रति न रहें इसलिए इन्होंने कुछ वैसे ही टोटके किये हैं जैसे कि राजनीतिक दल करते रहते हैं। पिछले वर्ष अन्ना हजारे ने जब अनशन तोड़ा था तो एक मुस्लिम और एक दलित कन्या के हाथों से जल ग्रहण करने का ड्रामा किया था। विदेशों में जमा पैसा वापिस लाने का आन्दोलन चलाने वाले आयुर्वेद दवाओं के उद्योगपति रामदेव ने अपनी आन्ध्रा यात्रा के दौरान पृथक तेलंगाना राज्य की माँग का समर्थन किया था जिसे भाजपा अपना समर्थन दे रही है। पिछले महीने रामदेव ने आल इंडिया यूनाइटिड मुस्लिम मोर्चे के बैनर तले नई दिल्ली के इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में आयोजित सम्मेलन में कहा कि अगर हिन्दू दलितों को आरक्षण मिलता है तो मुस्लिम दलितों को क्यों नहीं मिलना चाहिए? संविधान के अनुच्छेद 341 के अंतर्गत धार्मिक आधार पर पाबन्दी पूरी तरह गलत है, इस अनुच्छेद में बदलाव आना चाहिए। मैं इसके खिलाफ लड़ाई का ऐलान करता हूं। इस अवसर पर उन्होंने ‘बिसिमिल्लाह’ से शुरुआत करते हुए कुरान की आयत भी पढी। उन्होंने यह भी कहा कि मुसलमान देशभक्त हैं और देश पर जान कुर्बान करने के लिए तैयार रहते हैं। स्मरणीय है कि मुस्लिम विरोधी भाजपा मुसलमानों और ईसाइयों को आरक्षण देने के पक्ष में नहीं है पर उसने रामदेव के इस कूटनीतिक बयान पर कोई टिप्पणी नहीं की, जबकि कांग्रेस द्वारा यही बयान देने पर आसमान सिर पर उठा लेती। स्मरणीय है पिछले वर्ष रामदेव अपना राष्ट्रीय स्वाभिमान दल बनाकर उस बैनर से पूरे देश में चुनाव लड़ने की समय पूर्व घोषणा कर चुके थे, तथा भाजपा से झिड़की खाने के बाद उसे वापिस ले लिया था।
      गत दिनों यूपीए द्वारा प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाये जाने के बाद टीम अन्ना ने उन पर लगाये गये पुराने आरोपों को उसी तरह से उकेरा जैसे कि श्रीमती प्रतिभादेवी सिंह पाटिल को उम्मीदवार बनाये जाने पर भाजपा ने उनके परिवार वालों के खिलाफ लगाये थे। जो अपने आन्दोलन को गैर राजनीतिक प्रचारित करते हैं उनके द्वारा ऐसे समय कथित आरोप लगाये जाने से उनके राजनीतिक लक्ष्यों की झलक मिलती है। उल्लेखनीय है कि हजारों करोड़ के भ्रष्टाचार के आरोप में जिन जगन मोहन रेड्डी को सीबीआई कैद में रख कर पूछ्ताछ कर रही है, उनकी जेबी पार्टी द्वारा उपचुनावों में सारी सीटें जीत लिए जाने के बाद भी भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलनरत टीम अन्ना ने न तो उन पर टिप्पणी करने की जरूरत समझी और न ही चुनाव प्रणाली के दोषों पर ही कोई टिप्पणी की। जब तक जगन मोहन रेड्डी कांग्रेस से अलग नहीं हुए थे तब तक भाजपा की ओर से उन पर और उनके पिता वाय एस रेड्डी पर अनगिनित आरोप ही नहीं लगाये जाते थे अपितु वे उनके ईसाई होने के कारण सोनिया गान्धी के संरक्षण मिले होने का आरोप भी लगाते थे। पर अब भाजपा नेता मनेका गान्धी जगन मोहन की माँ से सहानिभूति व्यक्त करती हैं और भाजपा उनके साथ गठबन्धन के प्रति वैसे ही लालायित है, जैसा कभी सुखराम और जयललिता के साथ कर चुकी है।  
      अन्ना हजारे और बाबा रामदेव दोनों को ही राजनीतिक दल बनाने, या गठबन्धन करने का पूरा अधिकार है पर वे जिस नैतिकता की दुहाई देते हुए अपना आन्दोलन चला रहे हैं उसके  आधार पर जनता को मूर्ख बनाने का अधिकार नहीं है। रामदेव कई लाख करोड़ डालरों के स्विस बैंकों में जमा होने की बात कहते रहे हैं किंतु स्विट्जरलेंड के केन्द्रीय बैंक स्विस नैशनल बैंक ने अपने सालाना विवरण में जानकारी दी है कि सन 2011 के अंत तक भारतीयों के 218 करोड़ स्विस फ्रैंक अर्थात कुल 12740 करोड़ रुपये जमा थे। पर राजनीतिक दलों की तरह आन्दोलन चलाने वाली यह जोड़ी बिना किसी जिम्मेवारी के मनमाने  आरोप लगा रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने आँकड़ों को कहीं सिद्ध नहीं करना है अपितु सत्तारूढ दल के खिलाफ माहौल बनाना है। उल्लेखनीय है कि इस प्रक्रिया में वे आपस में भी एक दूसरे को ठगने लगते हैं। रामदेव टीम अन्ना के नाभिक अरविन्द केजरीवाल को मंच पर ही डाँट देते है और उनकी अभिव्यक्ति को रोक देते हैं तो खुद जाकर शरद पवार समेत सभी नेताओं से मिलते हैं। टीम अन्ना के प्रमुख लोग खुद भी अन्ना के अनशन इतिहास के कारण उन्हें मुखौटा बनाये हुए हैं और विसंगति आने पर कहते हैं कि डाकूमेंट अंग्रेजी में होने के कारण उनके नेता अन्ना को समझ में नहीं आया। ये लोग एक दूसरे का समर्थन हड़प लेना चाहते हैं, और भाजपा जैसे दल इनके द्वारा पैदा किये गये जनउभार से राजनीतिक लाभ उठाने की फिराक में उनके मददगार हैं। पिछले साल भर में इस क्षेत्र में जैसी जैसी घटनाएं हुयी हैं उसमें कहा नहीं जा सकता कि कब किसका सच सामने आ जाये और आन्दोलन की हवा निकल जाये या कितने अग्निवेष और निकलें।  कुछ लोग इसे आन्दोलन न कह कर तमाशा कहते हैं और लगता है कि वे गलत भी नहीं हैं।  
 वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629

  

शुक्रवार, जून 15, 2012

मोदी के सामने रीढ विहीन होती जाती भाजपा


                                 मोदी के सामने रीढ विहीन होती जाती भाजपा  
                                                                                    वीरेन्द्र जैन
      जैसे कि सुब्रम्यम स्वामी उस जनता पार्टी के प्रमुख हैं जिस नाम की पार्टी ने कभी इमरजैन्सी लगाये जाने से आक्रोशित जनता का समर्थन हासिल करते हुए केन्द्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनायी थी, पर  सुब्रम्यम स्वामी की यह जनता पार्टी, आज वही जनता पार्टी नहीं है केवल उसका साइनबोर्ड भर है। वैसे ही अब भाजपा रूपी जनसंघ वह पार्टी नहीं रह गयी है जो आज से कुछ दशक पहले थी, या अपने जनसंघ रूप में जन्म लेने के समय थी। इसकी रीढ टूट चुकी है और अब यह एक अपंग पार्टी हो गयी है।
      भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राजनीतिक शाखा है जो संघ के लक्ष्य को पाने के लिए उसके 62 अन्य संगठनों की तरह चुनावी मोर्चे पर इस उद्देश्य से काम करती है ताकि सरकार बना के आंतरिक सुरक्षा बलों, और आर्थिक संसाधनों पर अधिकार किया जा सके और अंततः संघ के हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। देश की बहुसंख्यक जनता संघ परिवार और उसकी साम्प्रदायिक नीतियों को पसन्द नहीं करती इसलिए जनता को  भ्रमित करने के लिए उन्हें जनसंघ व भाजपा के माध्यम से उदारतावादी मुखौटे लगा कर आना पड़ा। पर जब इन मुखौटों के बाद भी उनका समर्थन  मतदान में दस प्रतिशत से आगे नहीं गया तब उन्होंने अपनी नीतियों पर पुनार्विचार की जगह दूसरे दूसरे तरीकों से जनता को भरमाने और संख्याबल बढाने की हरसम्भव कोशिश की। ऐसा करके वे या तो सत्तारूढ हुए हैं या प्रमुख विपक्षी दल बन कर, सत्तारूढ पार्टी की अलोकप्रियता के समय नकारात्मक समर्थन मिलने की ताक में रहते हैं।  जोड़ तोड़ की दम पर यह पार्टी न केवल राज्यों में सफल भी हुयी अपितु  1998 से 2004 के बीच उसने देश के केन्द्र में गठबन्धन सरकार चलायी।
      सच तो यह है कि भाजपा ने अपनी पार्टी का शरीर कृत्रिम हवा भर कर फुलाया। संविद सरकारों के दौर में वे बिना किसी न्यूनतम कार्यक्रम के प्रत्येक संविद सरकार में सप्रयास सम्मलित हुये व भितरघात करते रहे। संघ की अनुमति से अपने संख्या विस्तार के लिए उसने बड़े पैमाने पर दलबदल को प्रोत्साहन दिया व कांग्रेस समेत किसी भी पार्टी से आने वाले किसी भी उपयोगी व्यक्ति को पार्टी में प्रवेश देने या टिकिट देने में कोई संकोच नहीं किया, भले ही वह गैर कानूनी, आपराधिक कार्यों में लिप्त रहने के कारण निकाला गया हो। उसके सारे फैसले संघ के इशारों पर होते रहे हैं क्योंकि हर स्तर के संगठन सचिव संघ के प्रचारकों को ही नियुक्त किये जाने का नियम है और इस तरह उसका पूरा नियंत्रण रहता है, पर बात बात में हस्तक्षेप करने वाले संघ ने कभी भी इस दलबदल को हतोत्साहित करने की कोशिश नहीं की। कभी अपने को सैद्धांतिक और अन्य पार्टियों से भिन्न बताने वाली यह पार्टी आज दलबदल की ईंटों से खड़ी पार्टियों में सबसे प्रमुख पार्टी है। दलबदल के खिलाफ कानून बनने तक उन्होंने इसी अनैतिक कदम के द्वारा ही सरकारें बनायीं। इससे उसके वोट प्रतिशत का भी विस्तार हुआ। जिस नेहरू-गान्धी परिवार के लोगों को वे पानी पी पी कोसते हैं, उसी परिवार के दो सदस्यों मनेका गान्धी और वरुण गान्धी को अपने पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करके सादर टिकिट दिया आज वे न केवल अपनी मर्जी से ही अपना टिकिट तय करते हैं अपितु वरुण की पत्नी को भी चुनाव लड़ाने जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि विधानसभा चुनावों में उनके द्वारा चयनित और समर्थित प्रत्याशियों की करारी हार के बाद मनेका पीलीभीत से और वरुण सुल्तानपुर से इस विश्वास के साथ चुनाव लड़ने का मन बना चुके हैं, कि पार्टी को तो टिकिट देना ही पड़ेगा। अपना बड़ा समर्थन दिखाने के लिए उन्होंने क्रिकेट खिलाड़ी, फिल्म स्टार, आदि को भर्ती किया जो उनकी सभाओं में भीड़ जुटाने के भरपूर पैसे लेते हैं जो उनकी एक दिन की शूटिंग के पारिश्रमिक से कई गुना होते हैं। इसी तरह साधु साध्वियों के भेष में रहने वाले प्रवचनकर्ताओं को लालच देकर उन्हें उनके धार्मिक काम की जगह धर्मभीरु लोगों के वोट खींचने के लिए नियुक्तियां दीं, जिनमें से कुछ को तो उन्हें विधायक, सांसद और मुख्यमंत्री तक बनाना पड़ा। रामजन्मभूमि मन्दिर विवाद को उन्होंने साम्प्रदायिक रूप देकर ध्रुवीकरण कराया व साम्प्रदायिक दंगों की श्रंखला खड़ी करके ध्रुवीकरण द्वाराअपनी जीत का माहौल बनाया।
      राज्यों में जहाँ जहाँ उनकी सरकारें बनीं उन्होंने संघ की संस्थाओं के नाम पर जमीनों और भवनों का कौड़ियों के मोल में अधिग्रहण किया तथा विभिन्न अवैध और अनैतिक तरीकों से अटूट धन संग्रहीत किया। संघ की ओर से इन विकृत्तियों को रोके जाने या भ्रष्ट लोगों को मंत्रिमण्डल से हटाये जाने के कभी निर्देश नहीं दिये गये। परिणाम यह हुआ कि भाजपा के संगठन और संसद में  कमाऊ पूत ही स्थान पाते गये। दिवंगत प्रमोद महाजन को तो नागपुर अधिवेशन में अटलबिहारी वाजपेयी ने अपना लक्षमण बतलाया था। आज भी वे पहले उसके बेटे, फिर बेटी को राजनीति से जोड़े रखने के भरपूर प्रयास करने में लगे हुए हैं। नितिन गडकरी के अध्यक्ष बनते समय कभी पार्टी छोड़ देने की धमकी देने वाले गोपीनाथ मुंडे को लोकसभा में उपनेता बनाना पड़ा था। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह द्वारा उठाये गये इस सवाल का कि गडकरी के पास इतना पैसा कहाँ से आया, आज तक कोई उत्तर नहीं दिया गया।              
            भाजपा सदैव से ही ऐसी नहीं थी। अपने पूर्व नाम जनसंघ के प्रारम्भिक दौर में कुछ सिद्धांतवादिता शेष थी। स्मरणीय है कि ; प्रथम, जमींदारी और जागीरदरी के खिलाफ जब वैचारिक माहौल बन रहा था और राजस्थान विधान सभा में इसे हटाने के लिए विधेयक आया तब जनसंघ के पास तेरह विधायक थे. उनमे ग्यारह विधायक ज़मींदारी के समर्थक थे. जनसंघ ने उन्हें दल से निकाल दिया और पार्टी के पास मात्र दो विधायक रह गए। जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के दौरान विपक्ष ने विधान सभा से इस्तीफा देने का निर्णय लिया. इस पर जनसंघ के पच्चीस विधायकों में से चौदह ने विरोध किया. पार्टी ने उन सबको निकाल दिया। किंतु आज येदुरप्पा से लेकर मोदी तक और वसुन्धरा से लेकर उमाभारती तक के मामलों में भाजपा दृड़ता नहीं दिखा सकी। इसका प्रमुख कारण उसकी सत्ता लोलुपता है। कुर्सी के लिए उन्होंने जनसंघ को जनता पार्टी में विलीन करने से लेकर कैसे कैसे गलत और अनैतिक समझौते किये हैं उनकी सूची बहुत लम्बी और सर्वज्ञात है। आज भाजपा के रूप में जनसंघ का केवल नाम चल रहा है, जहाँ अवैध पैसे की दम पर वोट खरीदे जाते हैं तथा झूठ और षड़यंत्र के सहारे चुनाव के समय साम्प्रदायिकता फैला कर ध्रुवीकरण किया जाता है। हिन्दू एकता का ढोंग करने वाले आज चुनावों में  जातिवाद  का भरपूर सहारा लेते हैं और अपने राजनीतिक आर्थिक हितों के लिए जातिवादी दलों के साथ गलबहियां करते हैं। वे वोटों के लालच में सारे सांसदों को गालियाँ देने वाले  बाबा रामदेव से लेकर अन्ना हजारे तक किसी भी आन्दोलन में घुसने की कोशिश करते हैं जबकि एक बड़े आकार का दल होने के कारण ये राजनीतिक आन्दोलन उन्हें स्वयं चलाने चाहिए थे।
           
आज भाजपा चुनावी सौदेबाजी में माहिर और सिद्धांतहीन गठजोड़ के लिए सदैव उतावली संस्था के रूप में सत्ता के लिए टकटकी लगाये रहती है। आज यह उस संस्था के रूप में जानी जाती है जिसमें मूल्य और लोकतंत्र की जगह जिद और दबाव के आगे बार बार झुकने के दृष्य सामने रहे हैं। आज भाजपा सिद्धांतों के लिए सत्ता का दाँव इसलिए नहीं खेल पा रही क्योंकि वो रीढहीन हो चुकी है जो भ्रष्टाचार के आरोप में कैमरे के सामने आये राष्ट्रीय अध्यक्ष को तब तक पार्टी में ढोती है जब तक कि उसे सजा नहीं हो जाती उसकी गैर राजनीतिक पत्नी को लोकसभा में भेजने को विवश होती है।
      अपने षड़यंत्रकारी तरीकों के कारण वे हर सहभागी से डरते हैं जो उनकी पोल खोल सकता है, वे राज्यों के हर उस मुख्यमंत्री और मंत्री से डरते हैं जो उनके खजाने को निरंतर भर रहे हैं और इसी के सहारे अपने खजाने को भी कुबेर का खजाना बना लेते हैं। आज उनकी सबसे बड़ी ताकत पैसा, अवसरवादिता, सैद्धांतिक लोच, और विकल्प हीनता वाले क्षेत्र ही हैं। यही कारण है कि आज अनुशासन नाम का भी नहीं रह गया है और इसी के अनुसार उसके नेतृत्व की छवि भी प्रभावित हुयी है  इस रीढहीनता के चलते वे कभी भी विलुप्त जातियों की सूची में सम्मलित हो सकते हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
       

गुरुवार, जून 07, 2012

पाँचजन्य और आर्गनाइजर, मुखपत्र या मुखौटापत्र






पाँचजन्य और आर्गनाइजर, मुख पत्र या मुखौटा पत्र

वीरेन्द्र जैन
       

 गत दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सम्पर्क प्रमुख राम माधव ने भोपाल में कहा कि पांचजन्य और आर्गनाइजर का संचालन स्वयंसेवक करते हैं लेकिन उनमें प्रकाशित लेखों में व्यक्त विचार संघ के विचारों से मेल खाएं यह जरूरी नहीं है। वे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में आरएसएस के दो मुखपत्रों में छपे अलग अलग विचारों के बारे में सफाई दे रहे थे।
       विकीपीडिया पर बताया गया है कि आर्गनाइजर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का इन-हाउस पब्लिकेशन/न्यूज पेपर है, जिसे ही हिन्दी में मुख पत्र कहा जाता है। यही सूचना पांचजन्य के बारे में है। दोनों ही साप्ताहिक पत्र एक ही स्थान से मुद्रित व प्रकाशित होते हैं और दोनों का कार्यालय संस्कृति भवन देशबन्धु गुप्ता मार्ग झंडेवालान दिल्ली में स्थित है। जो संघ के दिल्ली कार्यालय के समीप है। दोनों साप्ताहिकों के समाचारों के सूचना माध्यम एक ही होते हैं, व दोनों के ही लेखों के लेखक भले ही अलग अलग होते हों किंतु विषय और विचार एक ही होते रहे हैं। दोनों साप्ताहिकों का पाठक वर्ग भी संघ समर्थक मध्यम वर्ग है। महात्मा गान्धी की हत्या के बाद और इमरजैंसी में जब संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया तब इन समाचार पत्रों का प्रकाशन भी प्रभावित हुआ और ये डूबा साध कर बैठ गये। दोनों के सम्पादक संघ से जुड़े लोग रहे हैं।
       देश के स्वतंत्र होने के बाद प्रकाशित इन दोनों साप्ताहिकों के जीवन में यह पहली बार हुआ है जब इनके सम्पादकीय लेखों के विचारों में वैसा ही भेद नजर आया जैसा कि संघ समर्थित अडवाणी और मोदी के विचारों में दृष्टिगोचर हुआ। अपनी कमजोरी पर विचार करने, उसे समझने, भूल स्वीकारने व उसके लिए क्षमाप्रार्थी होने, की परम्परा संघ में नहीं रही है। वे दोषी व्यक्ति से अपने सम्बन्ध को ही नकार देते रहे हैं, जैसा कि महात्मा गान्धी के हत्यारे गोडसे के मामले में किया था। इन्हीं से प्रशिक्षित होकर निकले भाजपा के नेता भी इसी तरकीब का अनुसरण करते हैं। अडवाणीजी ने बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के बाद कहा था कि उसे तोड़ने वाले तो मराठी लोग थे जिन्हें मैं रोकता रहा पर मेरी भाषा न समझने के कारण मेरी अपील का कोई असर नहीं हुआ। कर्नाटक के खनन माफिया रेड्डी बन्धुओं से उपकृत और उन्हें आशीर्वाद देने वाली सुषमा स्वराज उनके फँस जाने के बाद उनसे कोई भी सम्बन्ध होने से इंकार कर देती हैं। मध्य प्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष रोहाणी से लेकर ऐसे सैकड़ों अन्य प्रकरण गिनाये जा सकते हैं। साध्वी की वेषभूषा धारण करने वाली प्रज्ञा सिंह और उसकी टीम से अपने सम्बन्ध भी संघ परिवार ने साफ नकार दिये थे और सीडी सामने आने के बाद संजय जोशी से तुरंत दूरी बना ली थी। इसलिए पाँचजन्य और आर्गनाइजर को संघ का मुख पत्र होने से इंकार करने पर अचम्भित लोगों को सम्पादकों  से संघ के विचारों की असहमति वाले बयान से कोई आश्चर्य नहीं हुआ होगा।
        विडम्बनापूर्ण स्थिति आ जाने पर संघ के बयानवीर कहने लगते हैं कि हम भाजपा के कार्यों में कोई दखल नहीं देते, केवल माँगने पर उन्हें सलाह देते हैं। इसके विपरीत सच यह है कि भाजपा में संघ की अनुमति के बिना कुछ भी नहीं होता रहा और उसकी छोटी से छोटी घटना पर भी उसकी निगाह रहती रही है, जिसके लिए प्रत्येक स्तर के संगठन मंत्री का पद संघ प्रचारक के लिए आरक्षित रखा गया है। भारतीय लोकतंत्र में इस दूसरे सबसे बड़े दल की कार्यप्रणाली में संघ ही सबसे बड़ी बाधा रहा है। जनसंघ के सबसे पहले अध्यक्ष मौल्लिचन्द्र शर्मा ने संघ के अनावश्यक हस्तक्षेप से दुखी होकर ही स्तीफा दिया था। देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार संघ के साथ दुहरी सदस्यता के कारण ही बिखरी थी जिससे विकसित हो रही लोकतांत्रिक प्रणाली को बड़ा धक्का लगा था। एनडीए के गठबन्धन में और बाद में उसके निरंतर कमजोर होते जाने में सबसे बड़ा कारण संघ का हस्तक्षेप ही रहा है। संघ के कारण ही तेलगुदेशम अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में सम्मलित नहीं हुयी थी अपितु उसे अपनी शर्तों पर बाहर से समर्थन देना मंजूर किया था जिससे सरकार लगातार अस्थिरचित्त रही। लाल कृष्ण अडवाणी जैसे वरिष्ठ नेता को अपना अध्यक्ष पद संघ के दबाव में ही छोड़ना पड़ा था जबकि कार्यकारिणी के दस प्रतिशत सदस्य भी ऐसा नहीं चाहते थे। यही कारण रहा कि
आडवाणी ने 2005 सितंबर में चेन्नई में आयोजित बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ये कहते हुए संघ को आईना दिखाने की कोशिश की थी कि, बीजेपी के बारे में ये धारणा बन गई है कि इसके कोई राजनीतिक या सांगठनिक निर्णय आरएसएस की सहमति के बगैर नहीं होते, ऐसी धारणा से बीजेपी के साथ संघ का भी नुकसान हो रहा है।भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के अध्यक्ष बनने की कल्पना तक किसी भाजपा सदस्य ने नहीं की थी किंतु उन्हें न केवल संघ ने पूरी पार्टी पर थोप दिया अपितु राज्यों के चुनावों में खराब प्रदर्शन की बाबजूद दुबारा अध्यक्ष बनाये जाने का रास्ता साफ कर दिया गया है।
      संघ परिवार का इस समय मूल संकट ही यह है कि इस अति का विरोध प्रारम्भ हो गया है राजस्थान में वसुन्धरा राजे ने संघ के सबसे चहेते गुलाब चन्द्र कटारिया की प्रस्तावित जनजागरण यात्रा को धूल चटा दी व संघ को अपनी हरी झंडी को लाल में बदलना पड़ा। नरेन्द्र मोदी स्वयं को गुजरात का प्रधानमंत्री समझते हैं और कुछ उद्योगपतियों द्वारा स्वार्थवश उनकी अतिरंजित प्रशंसा कर देने के कारण वे अपने काल्पनिक पद का विस्तार करने के सपने देखने लगे हैं। वे भी अपनी उम्मीदवारी में पहली चुनौती संघ को मान रहे हैं इसीलिए उन्होंने समय रहते उसे चुनौती दे दी है व उसके द्वारा नियुक्त संजय जोशी को निकालने के लिए अपने वीटो का प्रयोग कर दिया। उत्तर प्रदेश में तो योगी आदित्यनाथ अपने क्षेत्र में अपने स्वयं की आरएसएस चलाते हैं। उत्तराखण्ड और हिमाचल में भी सुगबुगाहट है क्योंकि इन क्षेत्रों में साम्प्रदायिकता का असर कमजोर है जो आरएसएस की जीवनी शक्ति है। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में भी किसान संगठन के लोग संघ की पकड़ से निकल भागे हैं।
      प्रत्येक मतभेद को आंतरिक लोकतंत्र कहने का तरीका अब घिस चुका है और प्रभावित नहीं करता। संघ के लोगों को स्पष्ट करना चाहिए कि जिस विषय पर ये आंतरिक लोकतंत्र कौंध रहा है उस विषय पर उनका कहना क्या है और वे किस तरफ हैं। उन्हें यह भी बताना चाहिए कि अगर ये दोनों पत्र केवल मुखौटापत्र हैं त्तो उनके संगठन के मूल फैसले कहाँ पर उपलब्ध होते हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629




शुक्रवार, जून 01, 2012

अडवाणीजी अब तो सच्चाई स्वीकारिये


अडवाणीजी अब तो सच्चाई स्वीकारिये
वीरेन्द्र जैन
       दर्शन शास्त्र के एक प्रोफेसर को साधारण भौतिक वस्तुएं भूल जाने की बीमारी थी। बरसात की एक शाम जब वे भीगे हुए अपने घर के दरवाजे पर पहुँचे तो घर में प्रवेश से पहले ही तेज याददाश्त वाली उनकी पत्नी ने पूछा छाता कहाँ है?
वह तो कहीं खो गया प्रोफेसर ने बताया
...पर कहाँ? पत्नी ने क्रोधपूर्ण जिज्ञासा की
वह तो पता नहीं वे बोले
आखिर आपको कब पता चला कि छाता खो गया है? पत्नी का अगला प्रश्न था
जब बरसात बन्द हो गयी और मैंने छाता बन्द करने के लिए हाथ ऊपर किया तो पता चला कि छाता तो है ही नहीं प्रोफेसर ने बताया।        
       भाजपा के वरिष्ठतम नेता पूर्व प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी लाल कृष्ण आडवाणी को भी भाजपा से जनता के निराश होने का ज्ञान तब हुआ जब उन्हें सारी उम्मीदवारियों से मुक्त कर दिया गया अर्थात उनकी आशाओं पर न केवल पानी फेर दिया गया अपितु पौंछा भी लगा दिया गया। इतना ही नहीं गडकरी ने अपने चहेते भामाशाह अंशुमान मिश्रा द्वारा जो अपने पैसे की दम पर भाजपा अध्यक्ष को जेब में डाले हुए है, उनका अपमान भी करा दिया जिसने भारतीय राजनीति के इस सबसे वरिष्ठ नेता को रिटायर होकर नाती पोतों को खिलाने की सलाह दे डाली है और इस रामलीला पार्टी में राजनीतिक भूमिकाओं को अभिनेताओं की भूमिकाओं से तुलना करते हुए कहा है कि देश को ए.के. हंगल नहीं आमिर और रणवीर कपूर की जरूरत है। स्थिति की बिडम्बना यह भी है कि भरी पूरी पार्टी में उन लोगों का अकाल दिखा जो अपने नेता के इस अपमान का विरोध करते क्योंकि सारी ही पार्टी लालचियों और चापलूसों के गिरोह में बदल गयी है, जो गडकरी जैसी कठपुतली को सलाम कर सकते हैं पर अडवाणी के अपमान पर अफसोस भी नहीं कर सकते। जब अडवाणी के सहारे सत्ता तक पहुँचने की सम्भावनाएं थीं तब इन्हीं लोगों ने रथ यात्रा के दौरान उनको गिरफ्तार किये जाने पर पूरे देश में हिंसक उपद्रव कर दिये थे।
       वैसे अडवाणी ने भाजपा के प्रति जनता के रुख का सार्वजनिक खुलासा अभी किया हो पर जहाँ जहाँ भाजपा की सरकारें हैं या वह किसी क्षेत्रीय पार्टी के नीचे किसी राज्य सरकार में सम्मलित है वहाँ वहाँ जनता की निराशा के पर्याप्त संकेत सूचना माध्यमों पर उपलब्ध हैं। उन्हें छुपाने के लिए सम्बन्धित राज्यों के जनसम्पर्क विभाग द्वारा पर्याप्त मात्रा में खैरातें बाँटी जा रही हैं, पर वे फिर भी रोके नहीं रुक रहीं। निराश जनता ने एनडीए का शासन भी भोग लिया है और वह जानती है कि सरकार के सहारे लूटखसोट करने में ये सबसे आगे रहते हैं इसलिए जनता अब इन्हें विकल्प के रूप में नहीं देख रही। जहाँ तक बाबूलाल कुशवाहा समेत उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी से निकाले गये मंत्रियों को भाजपा में सम्मलित करने का सवाल है, वह भाजपा के लिए कोई नया हथकण्डा नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार चलाने के लिए उन सुखराम से गलबहियाँ करने से गुरेज नहीं किया गया था जिन पर छापा पड़ने पर इन्होंने छह दिन तक संसद नहीं चलने दी थी। शिबू सोरेन समेत दागी मंत्रियों को हटाने के नाम पर इन्होंने सदन के कई महत्वपूर्ण दिन बरबाद करवा दिये थे उन्हीं के साथ आज झारखण्ड में सरकार बनाये हुए हैं और वही शिबू सोरेन अपने लड़के के नाम पर सरकार चला रहे हैं और अपनी सरकार में भाजपा अपना राज्य सभा का उम्मीदवार तक नहीं जितवा पाती। जिन जयललिता के भ्रष्टाचार के खिलाफ इन्होंने संसद में तूफान मचा दिया था उन्हीं के सहारे अटल बिहारी ने एनडीए की सरकार चलायी तथा इतनी चिरौरियां करते हुए चलायी कि जयललिता अटलजी के रक्षा मंत्री को घंटों बाहर बिठाये रखती थीं। टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले की शुरुआत भी एनडीए शासन काल में ही हो गयी थी, जिसमें अडवाणीजी उपप्रधानम्ंत्री थे व ‘प्रधान मंत्री के सारे काम’ देख रहे थे।      
       सत्ता के लिए सारे अनैतिक हथकण्डे अपनाना व सभी तरह के समझौते करना गडकरी ने अपने पूर्ववर्तियों से ही सीखा है। टिकिट न मिलने या किसी अन्य असंतोष की वजह से अपनी पार्टी छोड़ने वाले सारे प्रमुख नेताओं को भाजपा ने आगे बढकर गले लगाया है और उसका एक बड़ा हिस्सा दलबदलुओं या लोकप्रिय सितारों को किराये से लेकर से भरा हुआ है। दलबदल करा के पूरे विधायक दल को किसी पर्यटन स्थल पर कैद करने की परम्परा भी भाजपा ने ही शुरू की थी व दलबदल में सौदेबाजी की शुरुआत भी मध्यप्रदेश में संविद शासन के लिए विजया राजे सिन्धिया द्वारा थैली खोल देने से ही हुयी थी। उत्तर प्रदेश में मायावती के साथ छह छह महीने सरकार चलाने का बेहद हास्यस्पद प्रयोग भी भाजपा की देन है। इस पर इनके सहयोगी बाल ठाकरे ने व्यंग किया था कि अगर कुछ पैदा करना था तो छह छह महीने क्यों कम से कम नौ नौ महीने  का समझौता तो करना चाहिए था। समस्त दलबदलुओं समेत सौ लोगों का मंत्रिमण्डल बनाने का अजीब प्रयोग भी उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह सरकार में किया गया था जिसके मंत्रियों का यहाँ तक कहना था कि मंत्री बने छह महीने हो गये पर हमारे पास आज तक एक भी फाइल दस्तखत होने नहीं आयी। पूर्व डकैतों को टिकिट देने की शुरुआत भी भाजपा ने ही की थी जब उन्होंने मुलायम सिंह के खिलाफ मलखान सिंह को खड़ा किया था, बाद में तो यह फार्मूला ही चल निकला था। आज भी प्रत्येक चुनाव में आत्मसमर्पित दस्यु या जमानत पर छूटे अपराधी टिकिट माँगते देखे जाते हैं। नगर निकायों या पंचायती राज में तो उनमें से कई अभी भी विभिन्न पदों पर कब्जा किये हुए हैं। अभी हाल ही में हरियाणा के उपचुनाव में इन्होंने उन्हीं भजनलाल के बेटे के साथ समझौता किया था जिन्हें भ्रष्ट और अवसरवादी बताते हुए इन्होंने लम्बा समय गुजारा है।
       अवसरवादी, समझौता परस्ती का यह दोष भले ही भाजपा में अब अपने चरम पर पहुँच गया हो किंतु इसकी शुरुआत बहुत पहले ही हो गयी थी और कोई भी ऐसा काम अडवाणी की जानकारी के बिना सम्भव ही नहीं था। कर्नाटक के रेड्डी बन्धुओं को इस दशा तक पहुँचाने में अडवाणी की परम शिष्य श्रीमती सुषमा स्वराज के आशीर्वाद का ही हाथ रहा है जिन्हें श्रीमती सोनिया गान्धी के खिलाफ चुनाव में उतारा गया था और चुनाव की पूरी व्यवस्था रेड्डी बन्धुओं ने की थी। यदि उम्र के इस पड़ाव पर अडवाणीजी सचमुच ही अपने किये पर पछता रहे हों तो उन्हें चाहिए कि वे अब एक सच्ची आत्मकथा लिखें और पूरे राजनीतिक जीवन में अपने द्वारा किये या देखे गये उन कामों का खुलासा करें जो अभी तक जनता के सामने नहीं आये हैं। यदि उन्होंने ऐसा करने का साहस जुटाया तो वे प्रधानम्ंत्री बनने की तुलना में इतिहास में अमर हो सकते हैं और भारतीय लोकतंत्र को अपना आत्मावलोकन करने व सुधरने का अवसर मिल सकता है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629