शुक्रवार, जून 15, 2012

मोदी के सामने रीढ विहीन होती जाती भाजपा


                                 मोदी के सामने रीढ विहीन होती जाती भाजपा  
                                                                                    वीरेन्द्र जैन
      जैसे कि सुब्रम्यम स्वामी उस जनता पार्टी के प्रमुख हैं जिस नाम की पार्टी ने कभी इमरजैन्सी लगाये जाने से आक्रोशित जनता का समर्थन हासिल करते हुए केन्द्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनायी थी, पर  सुब्रम्यम स्वामी की यह जनता पार्टी, आज वही जनता पार्टी नहीं है केवल उसका साइनबोर्ड भर है। वैसे ही अब भाजपा रूपी जनसंघ वह पार्टी नहीं रह गयी है जो आज से कुछ दशक पहले थी, या अपने जनसंघ रूप में जन्म लेने के समय थी। इसकी रीढ टूट चुकी है और अब यह एक अपंग पार्टी हो गयी है।
      भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राजनीतिक शाखा है जो संघ के लक्ष्य को पाने के लिए उसके 62 अन्य संगठनों की तरह चुनावी मोर्चे पर इस उद्देश्य से काम करती है ताकि सरकार बना के आंतरिक सुरक्षा बलों, और आर्थिक संसाधनों पर अधिकार किया जा सके और अंततः संघ के हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। देश की बहुसंख्यक जनता संघ परिवार और उसकी साम्प्रदायिक नीतियों को पसन्द नहीं करती इसलिए जनता को  भ्रमित करने के लिए उन्हें जनसंघ व भाजपा के माध्यम से उदारतावादी मुखौटे लगा कर आना पड़ा। पर जब इन मुखौटों के बाद भी उनका समर्थन  मतदान में दस प्रतिशत से आगे नहीं गया तब उन्होंने अपनी नीतियों पर पुनार्विचार की जगह दूसरे दूसरे तरीकों से जनता को भरमाने और संख्याबल बढाने की हरसम्भव कोशिश की। ऐसा करके वे या तो सत्तारूढ हुए हैं या प्रमुख विपक्षी दल बन कर, सत्तारूढ पार्टी की अलोकप्रियता के समय नकारात्मक समर्थन मिलने की ताक में रहते हैं।  जोड़ तोड़ की दम पर यह पार्टी न केवल राज्यों में सफल भी हुयी अपितु  1998 से 2004 के बीच उसने देश के केन्द्र में गठबन्धन सरकार चलायी।
      सच तो यह है कि भाजपा ने अपनी पार्टी का शरीर कृत्रिम हवा भर कर फुलाया। संविद सरकारों के दौर में वे बिना किसी न्यूनतम कार्यक्रम के प्रत्येक संविद सरकार में सप्रयास सम्मलित हुये व भितरघात करते रहे। संघ की अनुमति से अपने संख्या विस्तार के लिए उसने बड़े पैमाने पर दलबदल को प्रोत्साहन दिया व कांग्रेस समेत किसी भी पार्टी से आने वाले किसी भी उपयोगी व्यक्ति को पार्टी में प्रवेश देने या टिकिट देने में कोई संकोच नहीं किया, भले ही वह गैर कानूनी, आपराधिक कार्यों में लिप्त रहने के कारण निकाला गया हो। उसके सारे फैसले संघ के इशारों पर होते रहे हैं क्योंकि हर स्तर के संगठन सचिव संघ के प्रचारकों को ही नियुक्त किये जाने का नियम है और इस तरह उसका पूरा नियंत्रण रहता है, पर बात बात में हस्तक्षेप करने वाले संघ ने कभी भी इस दलबदल को हतोत्साहित करने की कोशिश नहीं की। कभी अपने को सैद्धांतिक और अन्य पार्टियों से भिन्न बताने वाली यह पार्टी आज दलबदल की ईंटों से खड़ी पार्टियों में सबसे प्रमुख पार्टी है। दलबदल के खिलाफ कानून बनने तक उन्होंने इसी अनैतिक कदम के द्वारा ही सरकारें बनायीं। इससे उसके वोट प्रतिशत का भी विस्तार हुआ। जिस नेहरू-गान्धी परिवार के लोगों को वे पानी पी पी कोसते हैं, उसी परिवार के दो सदस्यों मनेका गान्धी और वरुण गान्धी को अपने पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करके सादर टिकिट दिया आज वे न केवल अपनी मर्जी से ही अपना टिकिट तय करते हैं अपितु वरुण की पत्नी को भी चुनाव लड़ाने जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि विधानसभा चुनावों में उनके द्वारा चयनित और समर्थित प्रत्याशियों की करारी हार के बाद मनेका पीलीभीत से और वरुण सुल्तानपुर से इस विश्वास के साथ चुनाव लड़ने का मन बना चुके हैं, कि पार्टी को तो टिकिट देना ही पड़ेगा। अपना बड़ा समर्थन दिखाने के लिए उन्होंने क्रिकेट खिलाड़ी, फिल्म स्टार, आदि को भर्ती किया जो उनकी सभाओं में भीड़ जुटाने के भरपूर पैसे लेते हैं जो उनकी एक दिन की शूटिंग के पारिश्रमिक से कई गुना होते हैं। इसी तरह साधु साध्वियों के भेष में रहने वाले प्रवचनकर्ताओं को लालच देकर उन्हें उनके धार्मिक काम की जगह धर्मभीरु लोगों के वोट खींचने के लिए नियुक्तियां दीं, जिनमें से कुछ को तो उन्हें विधायक, सांसद और मुख्यमंत्री तक बनाना पड़ा। रामजन्मभूमि मन्दिर विवाद को उन्होंने साम्प्रदायिक रूप देकर ध्रुवीकरण कराया व साम्प्रदायिक दंगों की श्रंखला खड़ी करके ध्रुवीकरण द्वाराअपनी जीत का माहौल बनाया।
      राज्यों में जहाँ जहाँ उनकी सरकारें बनीं उन्होंने संघ की संस्थाओं के नाम पर जमीनों और भवनों का कौड़ियों के मोल में अधिग्रहण किया तथा विभिन्न अवैध और अनैतिक तरीकों से अटूट धन संग्रहीत किया। संघ की ओर से इन विकृत्तियों को रोके जाने या भ्रष्ट लोगों को मंत्रिमण्डल से हटाये जाने के कभी निर्देश नहीं दिये गये। परिणाम यह हुआ कि भाजपा के संगठन और संसद में  कमाऊ पूत ही स्थान पाते गये। दिवंगत प्रमोद महाजन को तो नागपुर अधिवेशन में अटलबिहारी वाजपेयी ने अपना लक्षमण बतलाया था। आज भी वे पहले उसके बेटे, फिर बेटी को राजनीति से जोड़े रखने के भरपूर प्रयास करने में लगे हुए हैं। नितिन गडकरी के अध्यक्ष बनते समय कभी पार्टी छोड़ देने की धमकी देने वाले गोपीनाथ मुंडे को लोकसभा में उपनेता बनाना पड़ा था। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह द्वारा उठाये गये इस सवाल का कि गडकरी के पास इतना पैसा कहाँ से आया, आज तक कोई उत्तर नहीं दिया गया।              
            भाजपा सदैव से ही ऐसी नहीं थी। अपने पूर्व नाम जनसंघ के प्रारम्भिक दौर में कुछ सिद्धांतवादिता शेष थी। स्मरणीय है कि ; प्रथम, जमींदारी और जागीरदरी के खिलाफ जब वैचारिक माहौल बन रहा था और राजस्थान विधान सभा में इसे हटाने के लिए विधेयक आया तब जनसंघ के पास तेरह विधायक थे. उनमे ग्यारह विधायक ज़मींदारी के समर्थक थे. जनसंघ ने उन्हें दल से निकाल दिया और पार्टी के पास मात्र दो विधायक रह गए। जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के दौरान विपक्ष ने विधान सभा से इस्तीफा देने का निर्णय लिया. इस पर जनसंघ के पच्चीस विधायकों में से चौदह ने विरोध किया. पार्टी ने उन सबको निकाल दिया। किंतु आज येदुरप्पा से लेकर मोदी तक और वसुन्धरा से लेकर उमाभारती तक के मामलों में भाजपा दृड़ता नहीं दिखा सकी। इसका प्रमुख कारण उसकी सत्ता लोलुपता है। कुर्सी के लिए उन्होंने जनसंघ को जनता पार्टी में विलीन करने से लेकर कैसे कैसे गलत और अनैतिक समझौते किये हैं उनकी सूची बहुत लम्बी और सर्वज्ञात है। आज भाजपा के रूप में जनसंघ का केवल नाम चल रहा है, जहाँ अवैध पैसे की दम पर वोट खरीदे जाते हैं तथा झूठ और षड़यंत्र के सहारे चुनाव के समय साम्प्रदायिकता फैला कर ध्रुवीकरण किया जाता है। हिन्दू एकता का ढोंग करने वाले आज चुनावों में  जातिवाद  का भरपूर सहारा लेते हैं और अपने राजनीतिक आर्थिक हितों के लिए जातिवादी दलों के साथ गलबहियां करते हैं। वे वोटों के लालच में सारे सांसदों को गालियाँ देने वाले  बाबा रामदेव से लेकर अन्ना हजारे तक किसी भी आन्दोलन में घुसने की कोशिश करते हैं जबकि एक बड़े आकार का दल होने के कारण ये राजनीतिक आन्दोलन उन्हें स्वयं चलाने चाहिए थे।
           
आज भाजपा चुनावी सौदेबाजी में माहिर और सिद्धांतहीन गठजोड़ के लिए सदैव उतावली संस्था के रूप में सत्ता के लिए टकटकी लगाये रहती है। आज यह उस संस्था के रूप में जानी जाती है जिसमें मूल्य और लोकतंत्र की जगह जिद और दबाव के आगे बार बार झुकने के दृष्य सामने रहे हैं। आज भाजपा सिद्धांतों के लिए सत्ता का दाँव इसलिए नहीं खेल पा रही क्योंकि वो रीढहीन हो चुकी है जो भ्रष्टाचार के आरोप में कैमरे के सामने आये राष्ट्रीय अध्यक्ष को तब तक पार्टी में ढोती है जब तक कि उसे सजा नहीं हो जाती उसकी गैर राजनीतिक पत्नी को लोकसभा में भेजने को विवश होती है।
      अपने षड़यंत्रकारी तरीकों के कारण वे हर सहभागी से डरते हैं जो उनकी पोल खोल सकता है, वे राज्यों के हर उस मुख्यमंत्री और मंत्री से डरते हैं जो उनके खजाने को निरंतर भर रहे हैं और इसी के सहारे अपने खजाने को भी कुबेर का खजाना बना लेते हैं। आज उनकी सबसे बड़ी ताकत पैसा, अवसरवादिता, सैद्धांतिक लोच, और विकल्प हीनता वाले क्षेत्र ही हैं। यही कारण है कि आज अनुशासन नाम का भी नहीं रह गया है और इसी के अनुसार उसके नेतृत्व की छवि भी प्रभावित हुयी है  इस रीढहीनता के चलते वे कभी भी विलुप्त जातियों की सूची में सम्मलित हो सकते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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