रविवार, मई 29, 2011

श्रद्धांजलि ; चन्द्रबली सिंह


श्रद्धांजलि ; चन्द्रबली सिंह
उनकी चिंता थी कि लेखक अब डरने लगे हैं
वीरेन्द्र जैन
गत 23 मई को सुप्रसिद्ध जनवादी आलोचक चन्द्रबली सिंह का वराणसी में निधन हो गया। वे 87 वर्ष के थे। जनवादी लेखक संघ के संस्थापक सदस्यों में से एक श्री सिंह लम्बे समय तक उसके महासचिव रहे। गत पैसठ वर्षों से वे हिन्दी आलोचना को दिशा देते रहे हैं। उन्हें हिन्दी आलोचना के दो प्रमुख स्तम्भ डा. राम विलास शर्मा और डा. नामवर सिंह का भी ज्ञानगुरु माना जाता है। पाब्लो नेरूदा, नाजिम हिकमत, व्हिटमैन, और एमिली डिकंसन की कविताओं का हिन्दी अनुवाद करने वाले डा. सिंह की आलोचना की दो पुस्तकें ‘आलोचना का जनपक्ष’, और ‘लोकदृष्टि और हिन्दी साहित्य’ बहुत चर्चा में रहीं। उनके सम्पादन में कविताओं के कई संकलन भी प्रकाशित हुये हैं।
लेखक संगठनों के बारे में उनके विचारों को आज से दो वर्ष पूर्व दिये गये उनके एक साक्षात्कार से समझा जा सकता है। प्रस्तुत हैं उनके साक्षात्कार के से लिए गये कुछ वाक्यांश-
'' लेखक संगठन जो काम कर रहे हैं, बहुत संतोषजनक तो नहीं है,उनका अस्‍ति‍त्‍व औपचारि‍क हो गया है। ''
[हिन्दी के तीन बड़े लेखक संगठनों की समंवित कार्यप्रणाली के सम्बन्ध में पूछे गये प्रश्न के उत्तर में]
'' कुछ को ऑर्डि‍नेशन राजनीति‍क तौर पर हुआ है, पर उनकी राजनीति‍ से जुड़े जो सांस्‍कृति‍क संगठन हैं उनमें कोई समन्‍वय नहीं हुआ है। जहॉं तक कि‍ साहि‍त्‍यि‍क मतभेदों का सवाल है वह तो हर बौद्धि‍क संगठन में होना चाहि‍ए।... लेखकों का संगठन राजनैति‍क संगठन की तर्ज पर नहीं चल सकता।''
'' राजनैति‍क पार्टी में तो डेमोक्रेटि‍क सेन्‍ट्रलि‍ज्‍म के नाम पर जो तय हो गया, वह हो गया। पर लेखक संगठनों में तो यह नहीं हो सकता कि‍ फतवा दे दें कि‍ जो ऊपर तय हो गया तो हो गया। दि‍क्‍कत तो है। सम्‍प्रति‍ कोई ऐसी संस्‍था नहीं है कि‍ समन्‍वय की ओर बढ़ सके। हम तो यह महसूस करते हैं कि‍ इन संगठनों में जो नेतृत्‍व है उस नेतृत्‍व को भी जो वि‍चार-वि‍मर्श करना चाहि‍ए, वह नहीं करता है। पार्टी को इतनी फुर्सत नहीं है कि‍ इन समस्‍याओं की ओर ध्‍यान दें।“
'' मैंने समन्‍वय समि‍ति‍ का, नामवर ने जो प्रस्‍ताव रखा था कि‍ यदि‍ एक न हों तो समन्‍वय समि‍ति‍ हो जाए। पार्टियॉं जो हैं उनमें तो समन्‍वय समि‍ति‍ बनी ही है‍। पर लेखक संगठन व्‍यवहार में यह स्‍वीकार नहीं करते हैं कि‍ वे पार्टियों से जुडे हैं। समन्‍वय की प्रक्रि‍या शुरू करने के लि‍ए जब तक दबाव नहीं बनाया जाएगा तब तक यह सम्‍भव नहीं है। बि‍ना दबाव के यह हो नहीं पाएगा।''
'' ऐसा लगता नहीं है कि‍ जैसी पहले मोर्चाबंदी हुई थी एक जमाने में, वैसी अब होती हो। वैसी अब दि‍खाई नहीं देती।वैसा वैचारि‍क संघर्ष दि‍खाई नहीं देता। गड्ड-मड्ड की स्‍थि‍ति‍ है। खास तौर से जो पत्र- पत्रि‍काएँ नि‍कलती हैं उनमें उस तरह की स्‍पष्‍टता और मोर्चाबंदी नजर नहीं आती। कभी -कभी ऐसा लगता है कि‍ लेखक मंच पर भी व्‍यक्‍ति‍यों के साथ आता है। उसके सारे गुण और दोष इन संगठनों में वह ग्रहण करता है।
“लीडरशि‍प के नाम पर लेखकों में एक सैक्‍टेरि‍यन दृष्‍टि‍कोण पनपता है।पतनशील प्रवृत्‍ति‍यों से कोई संघर्ष नहीं है। ये प्रवृत्‍ति‍यॉं मौजूद रहती हैं।''
'' मैं तो यहाँ जलेस से कहता हूँ‍, जि‍समें ज्‍यादातर कवि‍ ही हैं। वे कवि‍ता सुना जाते हैं। उनसे कहता हूँ कि‍ अपनी कवि‍ताऍं, जनता के बीच में जाओ, उन्‍हें सुनाओ।फि‍र देखो क्‍या प्रति‍क्रि‍या होती है। जनता समझती है या नहीं। पाब्‍लो नेरूदा जैसा कवि‍ जनता के बीच जाकर कवि‍ता सुनाता था। जनता को उसकी कवि‍ताऍं याद हैं। जनता को जि‍तना मूर्ख हम समझते हैं वह उतनी मूर्ख नहीं है। यदि‍ वह तुलसी और कबीर को समझ सकती है तो तुम्‍हें भी तो समझ सकती है। बशर्ते उसकी भाषा में भावों को व्‍यक्‍त कि‍या जाए।''
'' कहते तो हैं अपने को प्रगति‍शील और जनवादी पर कहीं न कहीं कलावादि‍यों का प्रभाव उन पर है। आज के शीर्षस्‍थ जो आलोचक हैं, नामवरसिंह, उनके जो प्रति‍मान हैं, वे सारे प्रति‍मान लेते हैं, वि‍जयनारायण देव साही से।''
'' लेखक अब डर गए हैं।''

लेखकों के भय के कारणों को समझना और उनके भय को निकालने की कोशिश ही चन्द्रबली सिंह को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शनिवार, मई 28, 2011

भगवा पर भड़कने वाले अब कहाँ हैं?


भगवा पर भड़कने वाले अब कहाँ हैं?
वीरेन्द्र जैन
यदि देश विदेश में जाने जाने वाले भगवाभेषधारी सन्यासी को अपमानित करने के लिए किसी सार्वजनिक स्थान पर चाँटा मार दिया जाता है तब भगवा रंग की चिंताओं पर एकाधिकार प्रकट करने वाले धार्मिक संगठनों को क्या चुप रहना चाहिए? यह सवाल उन हिन्दू संगठनों की कलई खोलता है जो देश के गृहमंत्री द्वारा आतंकवाद के आरोप में पकड़े गये उन व्यक्तियों को भगवा आतंकी कहने पर भड़क गये थे जो भगवा भेष में रह कर अपनी आतंकी गतिविधियां संचालित कर रहे थे व अपने ही धार्मिक समाज को धोखा देकर उन्हें दंगों की आग में झोंके जाने का षड़यंत्र रच रहे थे। यद्यपि यह तय है कि जब कोई रंग या भेष किसी सम्प्रदाय विशेष की पहचान करा रहा तो उसके उल्लेख में सावधानी बरतना चाहिए ताकि उस सम्प्रदाय के निर्दोष लोग आरोपों की चपेट में आकर आहत न हों। पर यह सावधानी इकतरफा नहीं हो सकती। देश के जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता सुप्रसिद्ध आर्यसमाजी स्वामी अग्निवेश पर मोदी के राज्य गुजरात में जो हमला किया गया उस पर संघ परिवार से जुड़े हिन्दू संगठन न केवल मौन रहे अपितु उनमें से अनेक ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमलावरों का समर्थन किया। इससे भगवा की ओट में की जा रही राजनीति अपने नग्न रूप में प्रकट हुयी। इसके अनुसार वही भगवा श्रद्धेय है जो भाजपा या संघ परिवार के साथ है, वे चाहे प्रज्ञा सिंह हों, दयानन्द पांडे हों, योगी आदित्यनाथ हों, उमाश्री भारती हों, या दूसरे छोटे बड़े ढेर सारे भगवा भेषधारी राजनीतिज्ञ हों। स्मरणीय है कि हमारे देश में तेरहवीं शताब्दी में माधवाचार्य ने जिन षडदर्शनों की चर्चा की है उनमें शैव, शाक्त और वैष्णव, तीन आस्तिक और जैन, बौद्ध व लोकायत तीन नास्तिक दर्शन हैं जिन्हें एक साथ समेट कर आज की हिन्दू राजनीति अपना बल प्रकट करती है। किसी समय इन दर्शनों के पंडितों के बीच में खुला शास्त्रार्थ चलता था और सिद्धांतों के आधार तीव्र मतभेद प्रकट होते थे। इन शास्त्रार्थों से प्रभावि हो कर लोग अपने विश्वासों और पूजा पद्धतियों को बदलते रहते थे। विभिन्न समयों में भिन्न भिन्न आस्थाओं का बाहुल्य इस बात का प्रमाण है हमारे यहाँ आस्थाओं और पूजा पद्धतियों के सम्बन्ध में एक लोकतंत्र जिन्दा था जिसे अब कट्टरता द्वारा नष्ट करने की कोशिश की जा रही है व वैचारिक स्वतंत्रता पर हमले किये जा रहे हैं। बिडम्बनापूर्ण यह है कि ये हमले वही लोग कर रहे हैं जो इमरजैंसी में विचारों की स्वतंत्रता को सीमित किये जाने के खिलाफ किये गये राजनैतिक प्रतिरोध की पैंशन ले रहे हैं। रामकथा के प्रतीक बताते हैं कि साधु स्वरूप के प्रति जो श्रद्धा जनमानस में थी उसका दुरुपयोग भी होता था। इस कथा में सीताहरण का प्रसंग ऐसा ही प्रसंग है जो परोक्ष में सन्देश देता है कि साधु की परीक्षा उसके स्वरूप से नहीं अपितु उसके बारे में जानकर ही की जा सकती है। संघ परिवार इसके विपरीत चल रहा है और उसके अनुसार उनके पक्ष के साधु भेषधारी चाहे जो कुछ भी कर रहे हों और उनके ज्ञान व कर्म का क्षेत्र कुछ भी हो, वे सम्मानीय माने जाने चाहिए। दूसरी ओर किसी अन्य राजनीतिक धारा के लोगों या सामाजिक कार्य से जुड़े साधु भेषधारी चाहे जितना भी समाज हितैषी और उल्लेखनीय कार्य कर रहे हों वे उनसे असहमति रखने वाले विचारों के लिए थप्पड़ के पात्र हैं। आतंकवाद के आरोप में कैद प्रज्ञा सिंह से भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह और भाजपा में प्रवेश के लिए निरंतर लालायित उमा भारती जेल में मिलने जाती हैं और उसको जेल में मिलने वाली सुविधाओं के सम्बन्ध में अतिरंजित बयान देकर लोगों में भ्रम पैदा करने की कोशिश करती हैं। कोई नहीं जानता कि प्रज्ञा सिंह का धार्मिक ज्ञान त्याग और तपस्या कितनी है कि भाजपा शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री ही उसे मेहमान बनाते हैं और सपरिवार उसके साथ बैठ कर फोटो खिंचवाते हैं। उसके इस ज्ञान, तपस्या और त्याग की खबर दूसरे दलों में कार्य करने वाले धार्मिक हिन्दू नेताओं को नहीं होती और न वे उसके ज्ञान का लाभ लेते हैं न उसके साथ सपरिवार फोटो खिंचवाते हैं। यदि किसी धार्मिक व्यक्ति का कद उसकी राजनीतिक सम्बद्धता से तय किया जाने लगे तो सवाल उठता है कि धर्म और उसके प्रतिनिधियों का अपमान कौन कर रहा है? गत दिनों मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री देवास में एक साध्वी की कथा सुनने चले गये थे जिसका आयोजन कांग्रेस के किसी नेता ने करवाया था, तो उन्हें अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं से अपमानित होना पड़ा और खरी खोटी सुननी पड़ीं, जबकि उक्त साध्वी गाहे बगाहे भाजपा और संघ परिवार की मददगार के रूप में जानी जाती हैं व भाजपा ने अपने शासन के दौरान उन्हें अनेक स्थानों पर आश्रमों के नाम पर बड़ी बड़ी जमीनें आवंटित की हैं। धार्मिक नेताओं को राजनीति के आधार पर बाँटने का माहौल किसने बनाया है। उपरोक्त घटना में जिसने भगवा भेषधारी सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश का अपमान किया वह उन्हें माला पहिनाने के बहाने उनके पास तक पहुँचा था और उन पर हमला कर दिया था। इसे संघ परिवार के समर्थक उचित प्रसाद देना बतला रहे हैं। स्मरणीय है कि यही तरकीब नाथूराम गोडसे ने भी अपनायी थी और वह भी हाथ जोड़ते हुये बापू को प्रणाम करने के बहाने पिस्तौल छुपा कर आया था व सीने में नजदीक से तीन गोलियां उतार दी थीं। जो व्यक्ति अपने दुस्साहस के लिए जिम्मेवारी तक लेने और अपने किये को स्वीकारने के लिए भी तैयार न हों उनके प्रति क्या धर्मान्ध भी श्रद्धा रख सकते हैं! सारे देश में घूम घूम कर बाबरी मस्जिद ध्वंस का वातावरण तैयार करने वाले लाल कृष्ण आडवाणी जब कहते हैं कि वे तो मस्जिद तोड़ने वालों को रोक रहे थे पर वे मराठीभाषी होने के कारण उनकी बात नहीं समझ सके, तो क्या उनकी बात विश्वसनीय कही जा सकती है। इसी घटनाक्रम को सम्हालने के लिए दिल्ली भेज दिये गये अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में कहा था कि मुझे बताया गया है कि इस अवसर पर आडवाणीजी बहुत दुखी थे और उनका चेहरा आँसुओं से भरा हुआ था, तो क्या उनके समर्थकों ने भी अपने प्रिय नेता की बात का भरोसा किया होगा। विश्वसनीयता का यह संकट कौन पैदा कर रहा है!
विस्मरणीय यह भी नहीं है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे को जो समर्थन मिला है उसको दो फाड़ करने के लिए बाबा रामदेव को अनशन पर बैठने हेतु भाजपा नेताओं ने ही उत्प्रेरित किया है तथा उनकी छवि के अनुसार मिलने वाले समर्थन में अन्ना के सबसे बड़े सहयोगी स्वामी अग्निवेश रामदेव की काट बन रहे थे। इसलिए उनके एक विचार को मुद्दा बना के उनके भेष को बदनाम करने के प्रयास किये गये हैं।
शगूफे बुलबुलों की तरह होते हैं उनकी उम्र लम्बी नहीं होती। लोकतंत्र शगूफों पर ज्यादा नहीं चल सकता अंततः सच्चाई ही बचती है। कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविता है-
कागज की नावें हैं तैरेंगीं, तैरेंगीं
लेकिन वे डूबेंगीं डूबेंगीं डूबेंगीं
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

शुक्रवार, मई 20, 2011

बामपंथ की तथाकथित चुनावी हार


बामपंथ की तथाकथित चुनावी हार
वीरेन्द्र जैन
पश्चिम बंगाल और केरल के विधानसभा चुनावों में बामपंथी दलों की चुनावी हार के प्रति गैरबामपंथी दल और संगठन मुक्त बुद्धिजीवी कुछ अधिक ही संवेदनशील हो रहे हैं। उन्हें ऐसा लगता है जैसे कि बामपंथ भी दूसरे दक्षिणपंथी दलों की तरह चुनाव लड़ने, सरकार बनाने और सत्तासुख लूटकर घर भरने वाले दल हों व सरकार जाने से वे विधवा विलाप कर रहे होंगे। दूसरी ओर बामपंथियों का ही एक वर्ग चुनाव लड़ने वाले बामपंथी दलों को बामपंथी मानने तक से इंकार करता है। दर असल ये गैरबामपंथी बुद्धिजीवी, और हिन्दी के कई नये पत्रकार बामपंथी दलों के बारे में बिल्कुल ही अनपढ हैं और उन्हें चुनाव लड़ने वाले बामपंथी दलों, उनकी घोषणाओं, और कार्यक्रमों के बारे में प्रारम्भिक जानकारी भी नहीं है।
बामपंथी दलों के लिए चुनाव लड़ना इस पूंजीवादी सामंतवादी समाज में केवल जनता के बीच जाने और उनके बीच अपनी बात कहने का मंच भर होते हैं। संयोग से यदि चुनाव के सहयोगी दलों के साथ सरकार बनाने लायक बहुमत आ जाता है तो भी वे सरकारों में तब ही शामिल होते हैं जब वे स्वतंत्र रूप से अपने कार्यक्रमों को लागू कर सकें। पिछले दिनों जब सीपीएम को प्रधानमंत्री पद तक थाली में रख कर पेश किया गया था तब भी सीपीएम की केन्द्रीय समिति ने उसे दो बार बहुमत से ठुकरा दिया था। क्या कोई दक्षिणपंथी पार्टी ऐसा कर सकती थी! चन्द्रशेखर, देवगौडा, ही नहीं मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, नरसिंहाराव और अटल बिहारी बाजपेयी तक कैसे कैसे समझौते करके और बहुमत की गलतबयानी तक करके अधिकतम सम्भव समय के लिए कुर्सी से चिपके रहे हैं, या रहना चाहते थे। इसके विपरीत ज्योति बसु ने उक्त महानुभावों की तुलना में अपेक्षाकृत बेहतर स्वास्थ और बेहतर समर्थन होते हुये भी एक उम्र के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी थी। बामपंथी पार्टियों में नेता कितना भी बड़ा हो उसे नेतृत्व के बहुमत की बात स्वीकारना होती है, जबकि दक्षिणपंथी दलों में से अधिकांश तो नेता आधारित दल ही हैं जिनमें ‘नेता-वाक्य’ ही अंतिम होता है। ताजा विधानसभा चुनावों में जीतने वाली जयललिता और ममता बनर्जी ऐसे ही उदाहरण हैं तथा हारने वालों में करुणानिधि भी भिन्न नहीं थे। शिव सेना, बहुजन समाज पार्टी, बीजू जनता दल, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, राष्ट्रीय लोकदल, तेलगूदेशम, आदि सब नेता आधारित पार्टियां हैं, जहाँ पार्टी लोकतंत्र दूर दूर तक भी नहीं पाया जाता। कांग्रेस तक में सारे बड़े फैसले सोनिया गान्धी पर छोड़ दिये जाते हैं, जिन्हें कांग्रेस के बारे में दूसरे महत्वपूर्ण कांग्रेसियों से अधिक ज्ञान नहीं है। कहा जा रहा है कि इन चुनावों में बामपंथ के जनसमर्थन में कमी आयी है और यह उनके सिद्धांतों, विचारों के प्रति लोगों के मोह का टूटना है। इसके लिए चुनाव परिणाम में प्राप्त मतों पर निगाह डालनी होगी। पाँच विधानसभा के लिए हुए चुनावों में सारे पूंजीवादी मीडिया का ध्यान केवल बंगाल पर केन्द्रित था जैसे केवल एक ही राज्य में चुनाव हो रहे हों। इसमें भी मतदान के दिन तक भी बामपंथ के पराजय की पूर्व घोषणाएं गुंजायी जा रही थीं जो यथार्थ नहीं अपितु अपने मालिकों की चापलूसी में उनकी आकांक्षाओं की प्रतिध्वनियां थीं। प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी ने एक बार लिखा था कि किसी भी व्यक्ति से पूछो कि वो किसको वोट देगा तो वह कभी भी साफ नहीं बताता, पर ये मीडिया वाले व्यक्ति तो छोड़िए पूरे चुनाव क्षेत्र, जिले और पूरे प्रदेश तक के बारे में आश्चर्यजनक घोषणा कर देते हैं कि प्रदेश में किसका जोर है। पिछले कई चुनावों से वे ऐसा ही कर रहे थे और हर बार उनकी घोषणाएं बुरी तरह गलत साबित हुयी थीं। इस बार अगर मीडिया के एक वर्ग का तुक्का लग गया तो वे अपनी पिछली पूर्व घोषणाओं की ओर क्यों नहीं देखते जो पूरी तरह गलत साबित हुयी थीं। पिछली बार भी उन्होंने अपनी आकांक्षाएं ही प्री पोल की तरह घोषित कर डाली थीं। अभी भी क्या किसी मीडिया ने इस सच को कहीं बतलाया है कि बामपंथ को 2009 के लोकसभा चुनावों में मिले मतों में कोई कमी नहीं आयी है अपितु उनके वोटों की संख्या ग्यारह लाख बढ गयी है। उनको मिले मतों का प्रतिशत कुल एक प्रतिशत घटा है जबकि कुल मतदान में कई प्रतिशत की बढोत्तरी हुयी है। क्या 35 साल से किसी आन्दोलनकारी पार्टी का सत्ता में बना रहना और 40 प्रतिशत से ऊपर मत पाते रहना कम महत्वपूर्ण है जबकि आन्ध्रा, महाराष्ट्र समेत कांग्रेस शासित किसी महत्वपूर्ण राज्य की सरकार के पास इतना समर्थन नहीं है। यहाँ तक कि नीतीश कुमार के जिस शासन को अन्ना हजारे समेत अनेक लोग सराहते हैं, को भी चालीस प्रतिशत से अधिक मत नहीं मिलते। इस बार भी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के गठबन्धन को पिछले चुनावों से कुल चौंतीस लाख वोट अधिक मिले पर सीटें जरूर दो तिहाई से ज्यादा मिल गयीं।
बामपंथी दलों में सीपीआई और सीपीएम चुनाव आयोग से राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल ही नहीं हैं अपितु राष्ट्रव्यापी दल भी हैं। वे जम्मू कश्मीर राज्य से लेकर तामिलनाडु और अंडमंड निकोबार तक अपनी उपस्तिथि रखते हैं व एक ही सिद्धांत और कार्यक्रम को स्वीकारते हैं। यही कारण है कि उनके संगठन और कार्यक्रम में क्षेत्र या भाषा के आधार पर कोई फर्क नहीं पढता। बंगाल के ज्योति बसु, केरल के नम्बूदरिपाद या प्रकाश करात, पंजाब के हरकिशन सिंह सुरजीत, आन्ध्र के सीताराम येचुरी, महाराष्ट्र के बीटी रणदवे, सब एक ही कार्यक्रम पर सहमत होते हैं। उनकी बैंकों, जीवन बीमा निगमों, रेलों, एयर लाइनों के कर्मचारियों की यूनियनें पूरे देश में एक आवाज के साथ उठ खड़ी होती हैं। यदि उनके पूर्वजों द्वारा रखे गये नामों को छोड़ दिया जाये तो उनकी पहचान एक भारतीय की पहचान होकर ही उभरती है। उन्होंने ही सबसे ज्यादा अंतर्जातीय और अंतर्क्षेत्रीय विवाह किये हैं। नई पीढी के कम्युनिष्टों को तो उनके क्षेत्र के आधार पर नहीं पहचाना जा सकता। इसके विपरीत राष्ट्रवाद के ढोंग से दल चलाने वाले अपने अपने क्षेत्रों के आधार पर अपनी अलग पहचान रखते हैं। बामपंथियों में न धर्म का भेद है न जाति का। न उनके नेता फिल्मी कलाकार बनते हैं, न क्रिकेट खिलाड़ी। उनके उम्मीदवारों में न तो पूर्व राजा रानी होते हैं न धार्मिक भेषधारी। न उद्द्योगपति होते हैं न पूर्व प्रशासनिक, पुलिस या सेना के अधिकारी। वे अपने राजनीतिक विचार और कार्यक्रम के आधार पर जनता के बीच जाते हैं। वे चुनाव में काले धन वालों से पैसे लेकर नहीं उतरते हैं। स्मरणीय है कि उक्त चुनावों में कुल ग्यारह करोड़ रुपया पकड़ा गया था जो मतदाताओं में बाँटने के लिए ले जाया जा रहा था और न जाने कितना तो बाँटा जा चुका होगा। पर ऐसा आरोप बामपंथी दलों पर कभी नहीं लगा। उनका कोई सांसद विधायक न तो दल बदल का शिकार हुआ, न ही सांसद निधि बेचते पकड़ा गया। न उन्होंने सवाल पूछने के लिए पैसे माँगे और ना ही कबूतरबाजी जैसे काले कारनामों से अपना मुँह काला करवाया। इसके बाद भी अगर कहीं किसी विकृत्ति की भनक लगी तो उनके खिलाफ कठोर कार्यवाहियां कीं।
इन चुनावों में जो लोग पश्चिम बंगाल में बामपंथ की हार और उसकी जगह तृणमूल कांग्रेस की अभूतपूर्व विजय से गददायमान हैं उनके लिए यह जानना भी जरूरी है कि जहाँ 2006 के चुनावों में कुल दो प्रतिशत करोड़ पति थे वहीं 2011 के चुनावों में 16 प्रतिशत करोड़पति विधायक हैं और इनमें भी शतप्रतिशत करोड़पति विधायक ममता बनर्जी कांग्रेस गठजोड़ के हैं जो ममता की सादगी और कम सम्पत्ति रखने की पोल खोलते हैं। सबसे अधिक सम्पत्ति रखने वाले पहले तीन विधायक स्वप्न कांति घोष, नूर आलम चौधरी और कस्तूरी दास तृणमूल कांग्रेस के ही हैं। चुनावों के दिनों में एक चार्टर्ड विमान से यात्रा कर रहे जिस व्यक्ति के पास से 57 लाख नकद बरामद किये गये थे वे और कोई नहीं राज्यसभा सदस्य केडी सिंह थे जो वैसे तो हरियाणा के उद्योगपति हैं पर निर्दलियों पर विशेष स्नेह लुटाने वाले राज्य झारखण्ड से पहले निर्दलीय सांसद के रूप में चुने गये और बाद में सोची समझी योजना के तहत तृणमूल कांग्रेस में सम्मलित हो गये थे। लम्बित गम्भीर अपराधों वाले विधायकों की संख्या में भी इस बार विकास हुआ है। 2006 में जहाँ ऐसे विधायक ग्यारह प्रतिशत थे वहीं अब छब्बीस प्रतिशत हैं। तृणमूल कांग्रेस इनमें भी आगे है और सर्वाधिक गम्भीर अपराध वाले तीन विधायक उसीके टिकिट पर चुने गये हैं। केतुग्राम विधायक शेख शहवाज पर एक हत्या, तीन हत्या की कोशिश, और एक हत्या के लिए अपहरण का मुकदमा लम्बित है। हरिपाल के विधायक बेचाराम मन्ना पर हत्या की कोशिश के कुल आठ प्रकरण चल रहे हैं, तो वहीं भाटापारा के अर्जुन सिंह पर हत्या की कोशिश का एक, आत्महत्या के लिए विवश करने का एक और दबंगई का एक प्रकरण लम्बित है। इसी पार्टी की ओर से पूर्व आईएएस, आइपीएस, और उद्योग मंडल के पदाधिकारी जीते हैं
कुल मिला कर इस सच को समझा जाना चाहिए कि बामपंथियों का मूल्यांकन दूसरे दक्षिणपंथी दलों के मापदण्डों पर नहीं किया जा सकता। हो सकता है कि उन्होंने खराब सरकार चलायी हो, अधिकारों को समय से पूर्व अधिक विकेन्द्रीकृत कर दिया हो। नौकरशाही को अधिक छूट दे दी हो या समय के अनुसार अनिवार्य परिवर्तन को जनता के बीच में ले जाने में असफल हो गये हों, जिसके लिए उन्हें सरकार से अपदस्थ होने की सही सजा मिली हो, किंतु यदि उनका विकल्प उनसे बेहतर शासन देने में सक्षम नहीं हुआ तो बाममोर्चे को हरादेने वाले जागरूक चेतन्न लोग उसे भी अपदस्थ करने में देर नहीं कर सकते हैं।



वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

रविवार, मई 15, 2011

विधान सभा चुनाव परिणामों में राष्ट्रिय दल और राष्ट्रीय एकता का प्रश्न



विधानसभा चुनाव परिणामों में राष्ट्रीय दल और राष्ट्रीय एकता का प्रश्न
वीरेन्द्र जैन
पाँच राज्यों में हुए चुनाव के परिणामों से देश में किसी सुचिंतित राजनीतिक धारा का संकेत नहीं मिलता है जो देश के लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से चिंता का विषय होना चाहिए। चालू मीडिया की सतही दृष्टि भले ही इसे कांग्रेस की विजय और बामपंथ की हार के रूप में चित्रित कर रही हो किंतु यथार्थ में ऐसा नहीं है। इन चुनावों में जो मुद्दे उभरे थे वे भ्रष्टाचार, मँहगाई, बदलाव [पोरवोरतन], नक्सलवाद का उभार, विदेशी शरणार्थी, आदि थे, जिनमें से कुछ राष्ट्रीय स्तर के थे तो कुछ क्षेत्रीय स्तर की मामूली बातों, और किसी पार्टी के लम्बे शासन से उपजी ऊब से जन्मे थे। खेद की बात है कि साठ साल हो जाने के बाद लोकतंत्र में राजनीतिक परिपक्वता आनी चाहिए थी किंतु उसकी जगह सतही स्थानीयता और सतही उत्तेजना के सहारे देश का भविष्य लिखा जा रहा है।
इन चुनाव परिणामों में राष्ट्रीय दलों को हुए नुकसान में सबसे निराशा जनक प्रदर्शन बसपा और भाजपा का ही हुआ है। भाजपा जो संसद में मुख्य विपक्षी दल है और पिछले दिनों केन्द्र में जिसके नेतृत्व में सरकार बन चुकी है, की उपस्तिथि असम को छोड़ कर कहीं दर्ज नहीं हुयी। भाजपा ने कुल 824 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे पर केवल असम में उसे पाँच सीटें बहुत कम अंतर की जीत से मिल सकीं। बाकी राज्यों में यह हिन्दूवादी दल शून्य पर ही रहा। इससे भी बुरा हाल बसपा का रहा जो कोई सीट नहीं जीत सकी। बंगाल और केरल में उनके मतों के प्रतिशत में ह्रास हुआ है। शायद यही कारण है कि चिदम्बरम जैसे नेता उत्तर-पश्चिम के राज्य विहीन भारत की स्वर्णिम कल्पना करते हैं और अमेरिकन राजदूत के सामने उत्तर दक्षिण मिला कर एक देश होने का दुखड़ा रोते हैं। राष्ट्रीय कहलाने वाले जो दल अपने अपने कोने पकड़े बैठे हैं वे अपना प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित करके अपनी और अपने नेता दोनों की ही खिल्ली उड़वाते हैं।

कांग्रेस को चुनाव परिणामों से खुश बताया जा रहा है पर उसके खुश होने का कोई कारण नहीं है। तामिलनाडु में उसे कुल पाँच सीटें ही मिल सकी हैं, और उसका गठबन्धन बुरी तरह हार गया है। टीवी के चुनाव विश्लेषण में उसके नेता इसे उसके गठबन्धन के साथी डीएमके के भ्रष्टाचार को दोषी बता रहे हैं किंतु जो एआईडीएमके जीती है उसकी छवि भी इस मामले में कोई खास अच्छी नहीं है। यही हाल पद्दुचेरी[पाण्डुचेरी] राज्य में भी हुआ जहाँ उसे सत्ता से दूर होना पड़ा। केरल में जो उसका गठबन्धन जीता है वह बहुत ही कम मार्जिन से जीत पाया है। इस गठबन्धन में भी 49प्रतिशत सीटें दूसरे दलों की हैं इनमें से कई उसके साथ केवल चुनावी साथी की तरह ही गठबन्धन में सम्मिलित हुए थे और उन्हें हर अवसर पर अपनी मित्रता का नवीनीकरण कराना होगा जो उसके सहयोगी दलों की शर्तों पर ही होगा। इस गठबन्धन में भी 20 सीटें तो मुस्लिम लीग की हैं तथा उनका बैलेंस बिगाड़ सकने की क्षमता रखने वाले और भी कई दल हैं। इसके विपरीत बामपंथी मोर्चे की मजबूती यह है कि सीपीआई, सीपीएम और आरएसपी को मिला कर ही उनकी 60 सीटें होती हैं। इनको प्राप्त कुल मतों का भी यही अनुपात है। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस ने अपनी सीटें पिछले चुनाव से दुगनी कर ली हैं किंतु वे ममता बनर्जी के जूनियर पार्टनर बन कर और बने रहकर ही रहना होगा क्योंकि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को अकेले ही 184 अर्थात 61 प्रतिशत से अधिक सीटें मिली हैं। इससे कांग्रेस को केन्द्र में भी दबाव का सामना करना पड़ेगा। स्मरणीय है कि ममता बनर्जी कभी कभी बेहद बचकानी जिद पर उतर आती हैं और स्तीफा फेंक मारने में देर नहीं लगातीं। इस तरह कांग्रेस को चाहे केरल हो या बंगाल दोनों ही राज्यों में राजनीतिक दृष्टि से कमजोर ही होना पड़ा है। उसे अगर लाभ हुआ है तो वह असम में हुआ है जहाँ पर उसकी सीटें 53 से 78 हो गयी हैं। इससे उसकी स्वतंत्रता में बढोत्तरी हुयी है। उत्तर पूर्व के इस राज्य में आल इंडिया यूनाइटिड डेमोक्रेटिक फ्रंट जो इस्लामी तत्ववादियों का दल है, अभी भी बना हुआ है जो भविष्य में कभी भी दुखदायी हो सकता है। दूसरे राज्यों के उपचुनावों में भी कांग्रेस को झटका लगा है वह आन्ध्र प्रदेश में कांग्रेस के विद्रोही जगन मोहन से लोकसभा और उसकी माँ से विधानसभा सीट हार कर आन्ध्र प्रदेश में कमजोर हुयी है तो छत्तीसगढ में लोकसभा की सीट हारकर और कर्नाटक उत्तर प्रदेश व नागालेंड में विधानसभा की सीटें हार कर पिछड़ गयी है। सीपीआई सीपीएम जैसे राष्ट्रीय दलों से बने बाम मोर्चे को दो राज्यों की सरकारों से हाथ धोना पड़ा है और चुनावी राजनीति करने वाले दलों के बीच इसे उन्हें मिले बड़े धक्के के रूप में लिया जा रहा है जबकि ये दल और इनका नेतृत्व अपने तथाकथित शुभचिंतकों से कम चिंतित है। इन दलों ने सत्ता में रहते हुए सत्ता के कम से कम लाभ लिये इसलिए सत्ता का जाना उनका व्यक्तिगत नुकसान न होकर राजनीतिक नुकसान है जब कि उनके दुश्मन और कई दोस्त चुनावी दलों की तरह से ही सोच कर खुश और दुखी होते हैं। वैसे भी कांग्रेस के 170, भाजपा के 5, बसपा के शून्य, की तुलना में उनके 150 से अधिक विधायक जीते हैं। इस चुनावी जीत हार के बाद भी अगर कोई दल राजनीतिक रूप से सर्वाधिक निरंतर सक्रिय रहेगा तो वे बामपंथी दल ही होंगे।
कुल मिला कर इन चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के 185 एआईडीएमके के 155 और डीएमके के 25 विधायक मिल कर राष्ट्रीय दलों को मुँह चिड़ा रहे हैं। यदि चुनावों में इसी तरह क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों पर हावी होते गये तो राष्ट्रीय एकता को चुनौती मिलेगी क्योंकि क्षेत्रीय दलों और नेताओं की अपनी सीमित सोच और स्वार्थ होते हैं। ममता बनर्जी ने केन्द्र की राजनीति करते हुए भी कभी भी बंगाल से बाहर नहीं सोचा और जयललिता तो तामिलनाडु में रहकर भी अपने महल से दूर से दर्शन देती रही हैं। उनकी सरकार में उनके गठबन्धन सहयोगी सीपीआई और सीपीएम सम्मलित नहीं होंगे क्योंकि जब तक वे अपने फैसले लागू कराने की स्तिथि में नहीं होते तब तक सरकार में सम्मलित होना पसन्द नहीं करते। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से राष्ट्रीय दलों को इस स्तिथि पर मंथन करना चाहिए।



वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

बुधवार, मई 11, 2011

कृपया सम्पन्न धर्मस्थलों को और धन का दान न दें



कृपया सम्पन्न धर्मस्थलों को और धन का दान न दें
वीरेन्द्र जैन

यह तो तय है कि कोई भी अपने देवता या गुरू को निर्धन, व्यापारी या लालची तो नहीं ही मानता होगा। आम तौर पर हर धर्म के धर्मस्थलों में जो चढावे की परम्परा विकसित हुयी है वह किसी धर्मस्थल के रख रखाव, जीर्णोद्धार,या उसके पण्डे पुजारी, कर्मचारी आदि के वेतन तथा पूजा अर्चना की सामग्री के लिए ही हुयी होगी। चढाये हुए धन से धर्मस्थल में स्थापित उसकी आस्था, आराधना के प्रतीकों को कुछ भी लेना देना नहीं होता और ना ही इस धन से चढाने वाले के भाग्य बदलने का ही कोई सम्बन्ध होता है। अनुभव बताता है कि चढाये हुए धन का आधिक्य उक्त धर्मस्थल के चरित्र में वैसा ही नकारात्मक परिवर्तन लाता है, जैसा कि नवधनाड्यों में देखने को मिलता है। कुछ लोगों को ये गलतफहमी रहती है कि बाजार में बिकते सामानों की तरह चढाये हुए धन के अनुपात में ही उन्हें पुण्य मिलेगा और प्राकृतिक दण्ड विधान में यह राशि किसी घूस की तरह काम करके उन्हें उनके पापों से मुक्ति दिला देगी। किंतु यह बात निहित स्वार्थों ने जानबूझकर फैलायी है जिसके परिणाम स्वरूप सारे ही आर्थिक और सामाजिक अपराधी अपनी अवैध कमाई का एक हिस्सा धर्मस्थलों में लगा कर परोक्ष में पाप धुल जाने का भ्रम पाल लेते हैं। ये अपराधी यदि कानून व्यवस्था की कमजोरियों के कारण बच निकलते हैं तो इसे अपने दान का प्रभाव मानने लगते हैं और अपने धर्म स्थलों को अवैध धन से पोषित करने लगते हैं। प्रत्येक अदालत के आसपास आवश्यक रूप से धर्मस्थल मिल जायेंगे जिनमें वादी और प्रतिवादी दोनों ही अपने पक्ष को बल दिलाने के भ्रम में माथा टेकते हैं और प्रतियोगिता के साथ चढावा चढाते हैं किंतु न्याय न्यायिक व्यवस्था के अनुसार ही होता है।
धर्मस्थलों के पास अतिरिक्त धन जमा होने के दुष्परिणाम से ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब समाचार पत्रों में धर्मस्थलों में चल रही गैर कानूनी गतिविधियां या गम्भीर किस्म के अपराधों की खबरें न छ्पें। पिछले दिनों की कुछ खबरें इस प्रकार हैं-
• गोधरा के पंचमहल में स्थित जैन आश्रम में एक नाबालिग जैन साध्वी ने अपनी गुरु जैन साध्वी निर्मल प्रभा पर आरोप लगाया कि राजस्थान के खिचाड़ा जैन उपाश्रय में उसकी गुरु ने पाँच लोगों से गैंगरेप करवाया।
• लखनउ. अयोध्या के सबसे प्राचीन मन्दिरों में शामिल शेषावतार श्री लक्षमण से 250 वर्ष पुरानी अष्टधातु से निर्मित 10 मूर्तियों, चाँदी के दो विशाल क्षत्रों, 10 मुकुटों व सोने के हार की चोरी हो गई है। इनकी कीमत करोड़ों रुपये है।
• लन्दन । सेक्स स्केंडल में फँसे चेन्नई के स्वयंभू स्वामी नित्यानन्द की तरह ब्रिटेन के 52 वर्षीय माइकिल लियोंस उर्फ मोहन सिंह को दुष्कृत्य के आरोप में दस साल कैद की सजा सुनायी गयी। वे इससे पहले 2002 में भी एक उभरती हुयी अभिनेत्री के साथ दुष्कृत्य के दोषी पाये गये थे। ब्रिटेन, अमेरिका, और न्यूजीलेंड की 11 महिलाओं ने यौन उत्पीड़न के सबूत पेश किये थे।
• नासिक , जिले के वाडेल गाँव स्थित अशाराम बापू के आश्रम में संघर्ष होने के बाद एक अनुयायी द्वारा गोलिया चला देने से एक व्यक्ति घायल हो गया जो वहाँ निर्देशक का काम कर रहा था।
• धर्मशाला। करमा बौद्ध पंथ के 17वें करमापा उग्येन त्रिनेले दोर्जे के अस्थायी निवास से करीब 6 लाख अमरीकी डालर [2.73 करोड़ रुपये] बरामद किये हैं।
• नई दिल्ली। दिल्ली पुलिस ने मदरसे के एक मौलाना को बच्चे से दुष्कर्म के आरोप में गिरफ्तार किया है। इस्लाम की दीनी तालीम देने वाले मौलाना ने ही इस्लाम के उसूलों से खिलवाड़ करते हुए बच्चों के साथ अनैतिक सेक्स किया।
• मुज्जफर नगर । सहरनपुर जिले में एक मन्दिर में रहने वाली 90 साल की बुढिया और उसके सहायक ज्ञान गिरि पर हमला किया जिसमें बुढिया की तो मृत्यु हो गयी और सहायक को गम्भीर हालत में भरती कराया गया।
• ह्यूस्टन। अमेरिकी अदालत ने दो लड़कियों के साथ यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों में दोषी करार देते हुए एक धर्मगुरु प्रकाशानन्द सरस्वती को 14 वर्ष के कारावास और दो लाख डालर के अर्थदण्ड की सजा दी। स्वामी के एक भक्त पीटर स्पीगल द्वारा दी गयी एक करोड़ डालर की जमानत भी जब्त कर ली गयी है। टेक्सास में इस स्वामी का आश्रम 200 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है।
• अमेरिका के फिलाडेल्फिया में बच्चों के यौन शोषण मामले के मद्देनजर 21 रोमन कैथोलिक पादरी निलम्बित कर दिये गये हैं।
• तिरुपति\ कड़ी सुरक्षा को धता बताते हुए चोरों ने तिरुपति बालाजी मन्दिर के स्वर्ण रथ से करीब एक लाख रुपये का सामान चुरा लिया। यह देश का ही नहीं दुनिया का सबसे धनी मन्दिर है। एक अनुमान के अनुसार इसकी कुल सम्पत्ति 55 हजार करोड़ रुपये है। 12 टन सोना, चाँदी और अन्य आभूषणों का विशाल भंडार है। मन्दिर की सालाना आमदनी 800 करोड़ है।
• शिरडी स्थित प्रसिद्ध साँई मन्दिर के पास 32 करोड़ के आभूषण हैं और चार अरब 27 करोड़ 17 लाख रुपये का निवेश कर रखा है।
• पुरी। ओडिशा में पुरी के प्रसिद्ध कगन्नाथ मन्दिर के सामने स्थित प्राचीन एमार मठ से 90 करोड़ रुपये कीमत की 18000 किलो चाँदी की 522 ईंटें लकड़ी के चार सन्दूकों से बरामद की गयीं। इन पर यूईए, जापान, चीन व दुबई की सीलें लगी हुयी हैं। इसकी जानकारी ढाँकनाल में चोरी की चान्दी की ईंट बेचते हुए दो लोगों की गिरफ्तारी से लगी थी।
• हाल ही में पुट्टपर्थी के सत्य साईं बाबा के निधन के बाद उनकी 53000 करोड़ की सम्पत्ति की विरासत विवाद में है।

प्रतिदिन प्रकाश में आने वाले सैकड़ों समाचारों में से नमूने के तौर पर लिये गये उक्त समाचारों का धर्मस्थलों से जुड़ी सम्पत्तियों से सीधा अनुपात रहता है। शंकराचार्यों से लेकर पादरियों और मौलानाओं तक सब इनमें शामिल पाये जाते हैं। इस भेष का दुरुपयोग करके जो लोग सीधे सीधे सत्ता से जुड़ गये हैं वे धन लेकर दलबदल करने से लेकर सांसद निधि बेचने तक हर तरह के अपराधों में कैमरे के सामने पकड़े भी जा चुके हैं। धर्मस्थलों को आयकर की धारा 80जी के अंतर्गत मिली सुविधाओं का दुरुपयोग करते हुए दर्जन भर से अधिक संत भेषधारी काले धन को सफेद करने के अपने रेट बतलाते हुए स्टिंग आपरेशन में फँस चुके हैं।
धर्म के हित में, धर्म के नाम पर धर्म के विपरीत की जाने वाली, इन विकृतियों पर रोक लगायी जा सकती है अगर धर्म स्थलों में अतिरिक्त धन का एकत्रित होना रुक सके। इसलिए जरूरी है कि सारे दान किसी एक उच्च संस्था द्वारा ही ग्रहण किये जाएं और जो संस्था ही धर्मस्थलों के सुचारु संचालन हेतु धन की व्यवस्था करे जिससे यह धन किसी व्यक्ति के हाथ में न जाकर संस्था के घोषित उद्देश्यों हेतु व्यय हो सके और जर्जर तथा कामजोर आर्थिक स्थिति वाले धर्मस्थलों का भी जीर्णोद्धार हो सके। सम्पन्न धर्मस्थलों के आय व्यय पर निगाह रखने वाली कोई केन्द्रीय समिति होना चाहिए जो इस धन को आपराधिक कामों में जाने से रोक सके।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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शनिवार, मई 07, 2011

ओसामा बिन लादेन की मौत- आइए सन्देह करें


ओसामा बिन लादेन की मौत
आइये सन्देह करें
वीरेन्द्र जैन

आइये सन्देह करें।
यह विश्वास, या कहें अन्धविश्वास करने से ज्यादा अच्छा है।
दार्शनिक रजनीश ने कहा है कि आस्तिकों की तुलना में नास्तिकों ने ही ईश्वर को जिन्दा रखा है, यदि उसे आस्तिकों के भरोसे छोड़ दिया जाता तो वह कभी का खत्म हो गया होता। अर्थात सन्देह सत्य के अन्वेषण के लिए प्रेरित करता है, सन्देह ही तर्क जुटाता है। सन्देह ही सबूत तलाशता है।
अमेरिका ने अपने सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक और सैनिक ठिकानों पर दिन के उजाले में किये गये चुनौतीपूर्ण हमलों के नौ-दस साल बाद इन हमलों के मुख्य योजनाकार ओसामा बिन लादेन को देर रात में पकिस्तान की राजधानी से लगभग साठ किलोमीटर की दूरी पर मार देने और उसकी लाश को किसी समुद्र के किसी अघोषित स्थान पर दफनाने का समाचार दिया है। इस समाचार पर दुनिया ने वैसे ही आँख मूंद कर भरोसा कर लिया जैसा कि उसने अमरीका के कहने पर ईराक में रासायनिक हथियार होने पर कर लिया था। वे हथियार तो कभी नहीं मिले किंतु अपने समय के सबसे मुखर अमरीका विरोधी सद्दाम हुसैन को फाँसी पर लटका दिया गया, पूरे ईराक को बरबाद कर दिया गया और उसके सबसे महत्वपूर्ण संस्थानों पर अमरीकी फौज ने अधिकार कर लिया।
स्मरणीय है कि अमरीका की तुलना में एक बहुत छोटे देश ईराक के तत्कालीन राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन से जो भी मिलने जाता था उसे फर्श पर बिछे उस कालीन पर पैर रखकर गुजरना होता था जिस पर अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश का चित्र बना हुआ था। ऐसे व्यक्ति को स्वयंभू दुनिया का दादा अमरीका कैसे स्वीकार करता इसलिए तेल के कुँओं की ताकत से सम्पन्न ईराक पर रासायनिक हथियारों के नाम पर अधिकार कर लिया, और पूरी दुनिया चुपचाप देखती रही। ओसामा बिन लादेन की जिन बुराइयों के लिए उसे मार देने का दावा किया गया है वे उसमें तब भी थीं जब उसे अमरीका ने अफगानिस्तान में सोवियत सैनिकों के खिलाफ विद्रोही कार्यवाहियां करने के लिए भरपूर हथियारों और संसाधनों के साथ भेजा था। पर तब वह अमेरिका का काम कर रहा था इसलिए उसका दोस्त था पर जब उसने अमेरिका की ही खिलाफत शुरू कर दी तब से वह आतंकवादी प्रचारित कर दिया गया था। तब अमरीका की हर बात को स्वामिभक्तों की तरह मान लने वाली हमारे देश की सरकारों ने भी उसे तब से ही आतंकवादी माना, और अपने यहाँ घटी आतंकी घटनाओं को भी उसके साथ जोड़ लिया। वैसे हमारी जाँच एजेंसियों ने तो हर आतंकवादी घटना के बाद उन्हें ही जिम्मेवार मान लिया जिसे संघ परिवारियों और उनके पालतू मीडिया ने बिना किसी पड़ताल के बता दिया। यह तो बाद में साध्वी भेष में रहने वाली प्रज्ञा के पकड़ में आने के बाद मामला पलटा, कि और कौन कौन क्या क्या कर रहा था और किसके भेष में कर रहा था। हमने नासमझी में कश्मीर के अलगाववादियों को भी उसी श्रेणी में रखना शुरू कर दिया जबकि उनकी हिंसा का तेवर बिल्कुल अलग था। हम 1993 में हुए बम विस्फोटों को ज्यादा याद नहीं करते क्योंकि वे 1992 में बाबरी मस्जिद को ध्वंस करने के बाद हुए दंगों और उसमें पुलिस द्वारा की गयी पक्षपाती कार्यवाही के विरोध में हुये थे जिनके लिए जिम्मेवार 50 से अधिक लोगों को फाँसी की सजा हो चुकी है किंतु जस्टिस श्री कृष्ण आयोग की रिपोर्ट अभी भी धूल खा रही है।
आज कट्टरताबाद से जन्मे इस आतंकवादी के मर जाने की खबर पर जितनी खुशी अमेरिका की सरकार प्रकट कर रही है उतनी ही खुशी हमारे देश की सरकार और उससे ज्यादा मुख्य विपक्षी दल भी कर रहा है, जबकि हमारे पास ऐसा करने का कोई ठोस कारण नहीं है। भाजपा तो खुले आम पाकिस्तान पर दाउद, और मुम्बई के ताज होटल को निशाना बनाने आये हमलावरों के सरगना के नाम पर ऐसा ही हमला करने का आवाहन कर रही है। जबकि न तो हम अभी तक दाउद का ठिकाना तलाश पाये हैं और ना ही मुम्बई कांड के हमलावरों के सरगना का।
सच तो यह है कि जितना भरोसा उसके मरने की खबर पर किया जा सकता है उतना ही अविश्वास भी किया जा सकता है।
• पिछले दिनों पाकिस्तान में कट्टरवादियों द्वारा निरंतर जो आतंकी हरकतें की गयी हैं, वे हमारे देश में घटित आतंकी घटनाओं से कई गुना अधिक हैं और उनमें जन धन व नेतृत्व की हानि भी अधिक हुयी है। ऐसे में यह मान लेना कि पाकिस्तान जानबूझ कर इस आतंकी को छुपा कर रखे था और अपने यहाँ आतंकी घटनाएं होने दे रहा था, तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता।
• पाकिस्तान पूरी तौर पर अमरीका के टुकड़ों पर पल रहा है, और उसकी कोई भी सरकार अमरीकी सरकार की इच्छा के खिलाफ किसी लादेन को संरक्षण नहीं देना चाहेगी, भले ही उसे सुरक्षित बाहर जाने का रास्ता दे दे। इस दौरान पाकिस्तान में हलचलों भरा सत्ता पलट होता रहा है, और सारी सत्ताओं का रवैया एक सा नहीं हो सकता। 18 जनवरी 2002 को पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने अपना अनुमान प्रकट करते हुए कहा था मैं अब समझता हूं कि वह मर चुका है क्योंकि किडनी का मरीज था। 11 जनवरी 2008 को पाक सेना के प्रमुख अशफाक परवेज कयानी ने कहा कि लादेन का पता नहीं लगा पाने पर आलोचना ठीक नहीं है, उसकी तलाश की कार्यवाही के ट्रेक रिकार्ड देखें। 28 अप्रैल 2009 को पाक राष्ट्रपति जरदारी ने बयान दिया कि हमारी खुफिया एजेंसी के अनुसार लादेन का वजूद नहीं है वो मर चुका है। 3 दिसम्बर 2009 को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने बताया कि हमारे देश में लादेन मौजूद नहीं है। 11 मई 2010 को पाक राष्ट्रपति के प्रवक्ता फरहतुल्ला बाबर ने कहा कि हमें भी नहीं मालूम कि लादेन जिन्दा है या मर चुका है।
• तय है कि इस बीच में भले ही उसकी देह जिन्दा रही हो किंतु उसका आतंक तो मर ही चुका था क्योंकि जब देश या लोग आतंकित होना बन्द कर दें तो आतंक का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।
• जब अमेरिका ने सद्दाम को फाँसी पर चढाया था तब न केवल उसके फोटो ही जारी करवाये थे अपितु उसका वीडियो भी लोगों के सामने आया था, पर क्या कारण है कि इस इतने बड़े बताये जा रहे आतंकी की मृत्यु का कोई भी असली फोटो [अखबारों में छपा फोटो बाद में नकली बताया गया] नहीं छपवाया गया और उसकी लाश को किसी अज्ञात समुद्र के अज्ञात स्थान पर दफनाये जाने की सूचना दी गयी। यह सामान्य मनोविज्ञान है कि जब भी किसी डाकू को मारा जाता है तो चारपाई से बाँध कर उसकी लाश को पुलिस दिखाती है ताकि आतंकित जनता भय मुक्त हो सके। इसी तरह नामी गुंडे को सड़कों पर जूते मारते हुए घुमाया जाता रहा है।
• एक ने सवाल किया कि तुम्हारे सिर पर कितने बाल हैं, तो दूसरे ने तुरंत उत्तर दिया कि एक लाख आठ हजार सात सौ सोलह। पहले ने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है तो दूसरे ने कहा कि तुम गलत सिद्ध करके बताओ। अब जब तक कोई ओसामा के जिन्दा रहने, या दूसरे समय पर दूसरी तरह से हुयी मौत का सबूत नहीं दे सकता तब तक यही मानना पड़ेगा कि वह इसी कार्यवाही में मारा गया।
• अमरीका ने अपनी फौजें 2011 में हटाने की घोषणा कर रखी थी और उसके सैनिकों के परिवार बेसब्री से उनकी वापिसी की प्रतीक्षा में हैं। अफगानिस्तान में अपनी फौजें भेजने से पहले अमरीका ने भारत से अपनी फौजें भेजने का प्रस्ताव किया था जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री बाजपेयी ने विपक्ष से बात करने के बाद अस्वीकार कर दिया था। बाद में निर्माण कार्यों के बहुत सारे ठेके हमारे देश को मिले जिनके पूरा होने में अभी लम्बा समय लगेगा। तय है कि अमरीकी फौजें हटने के बाद अलकायदा के लोग उग्र होकर हमारे द्वारा संचालित होने वाले कार्यों पर हमला करें जैसा कि वे बीच बीच में करते रहे हैं, तब मजबूरन हमें अपनी फौजें वहाँ भेजना होंगीं। शायद यही अमेरिका भी चाह्ता रहा है और हमें दिये आश्वासन के बाद वह कह सकता है कि हम लादेन के सफाये के बाद ही वहाँ से हटे हैं।
• क्या विक्कीलीक्स के खुलासों के बाद हमारी आँखें नहीं खुली हैं जो बताते हैं कि राजनीतिक सच वही नहीं होते जो बताये जाते हैं अपितु बिटवीन दि लाइंस होते हैं। आखिर सबूतों को दबाने वाली इस सूचना पर हम सन्देह क्यों न करें !
• क्या उद्देश्य की दृष्टि से यह विचारणीय नहीं है कि मुम्बई के ताज और ओबेराय होटल पर हमला किस के खिलाफ था? भारत के या अमरीका के?
इसलिए क्या यह जरूरी नहीं है कि हम अपने हाजमे के अनुसार ही साम्राज्यवादी पूंजीवादी देशों की सूचनाओं को हजम करें और जो हजम नहीं हो रही हों उन पर सन्देह करते हुए सत्य की तलाश को उन्मुख रहें। विमर्श करें। वादे वादे जायते तत्वबोधः।

वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, मई 04, 2011

एक नहीं लाखों अन्नाओं की जरूरत पड़ेगी


एक नहीं लाखों अन्नाओं की जरूरत पड़ेगी

वीरेन्द्र जैन

अन्ना हजारे के सन्देशप्रद अनशन के कारण पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो माहौल बना था वह जनलोकपाल विधेयक बनाने के लिए सिविल सोसाइटी के सदस्यों सम्मलित करने की माँग मान लेने के बाद ऐसा ठंडा पड़ गया है, जैसे लक्ष्य हासिल कर लिया गया हो। असंतोष का यह भाव पीड़ित जनता में पहले से मौजूद था जिसे अन्ना के अनशन ने एक सूत्र में पिरोने का काम किया। अवतारवाद में भरोसा रखने वाले देश के मध्यमवर्ग को इसमें उजाले की एक किरण दिखाई दी। लोग भ्रष्टाचार का माहौल बदलना चाहते थे किंतु उन्हें कोई नेता नजर नहीं आ रहा था। वे जिस पर भी उम्मीदें टिकाते थे उसके अंतरंग की गन्दगी बाहर झलकने लगती थी। ऐसे में उन्होंने सादा जीवन बिताने वाले और अपने गाँव में विकास का मानक स्थापित करने के साथ साथ प्रदेश के कुछ भ्रष्ट मंत्रियों को हटाने के लिए प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके व्यक्ति को सामने देखा तो अपना पूरा समर्थन उढेल दिया। यह सब कुछ एक भावुकता में किया गया और बिना यह देखे किया गया कि जर्जरित हो चुकी व्यवस्था में कैसे और किस तरह की मरम्मत की जरूरत होती है।
जिन्हें इसी तरह की कई कमियों वाली लोकतांत्रिक प्रणाली द्वारा परिवर्तन लाने का भरोसा है तो उन्हें जानना चाहिए कि इसके लिए इसी संसद और इन्हीं राजननितिक दलों का सहयोग लेना पड़ेगा। आज की संसद का बहुमत वैसा कोई भी परिवर्तन अपने हित में नहीं समझता है जैसा कि अन्ना की शुभेक्षाएं चाहती हैं, तीन सौ करोड़पतियों और डेढ सौ से अधिक गम्भीर अपराधों के अभियुक्तों से बनी संसद के सदस्य अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारेंगे। इसलिए भ्रष्टाचार से मुक्ति का कोई भी प्रयास संसद के स्वरूप में परिवर्तन की माँग करेगा या व्यवस्था परिवर्तन चाहेगा। परिणाम यह होगा कि यथास्थिति से लाभांवित होने वालों और परिवर्तन कामियों के बीच टकराव अवश्यम्भावी है।
गहराई में जाकर देखा जाये तो लोकतांत्रिक सरकार के खिलाफ किया गया कोई भी आमरण अनशन भले ही ह्रदय परिवर्तन का प्रयास बतलाया जाता हो किंतु असल में यह उदासीन लोगों की भावुकता को जगा कर उन्हें मांगों के पक्ष में सक्रिय करने की एक कोशिश होती है जो परोक्ष में वैकल्पिक हिंसा की चेतावनी होती है।
अन्ना हजारे के अनशन से जो चेतना जगी थी वह कार्यक्रम के अभाव में धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है क्योंकि यदि यही हाल रहा तो बहुत सम्भव है कि लोग अपनी पुरानी उदासीन दशा को पहुँच जायें। इसलिए जो लोग इस अनशन के प्रभाव से जागे हैं उन्हें इसकी गति बनाये रखने के लिए किसी कार्यक्रम को हाथ में लेना होगा। कानून बनने तक नमूने के तौर पर तहसील और जिला स्तर पर कुछ इस तरह के कार्यक्रम हाथ में लिये जा सकते हैं-
• स्थानीय स्तर पर अन्ना के आन्दोलन का सक्रिय समर्थन करने वालों की सूची तैयार करना और उसमें सन्दिग्धों को अलग से रेखांकित करके रखना।
• अपने क्षेत्र में सादगी और ईमानदारी के प्रतीक के रूप में पहचाने जाने वाले अन्ना जैसे आदर्श और जनसेवा में रुचि रखने वाले व्यक्तियों की पहचान करना व उनके द्वारा किये गये विकास के कामों को सूचीबद्ध करना, स्थानीय समितियां बनाना, जो एक से अधिक हो सकती हैं।
• अपनी ईमानदारी के लिए विख्यात व्यक्तियों, विशेष रूप से सेवा निवृत्त बड़े अधिकारियों की सूची तैयार करना।
• प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन काल में किसी नेता, अफसर या बाबू को दी गयी या देनी पड़ी रिश्वत की सूची तैयार करे और अगर याद हो तो उसका नाम और उसके द्वारा अपनाये गये दबावों का भी उल्लेख तैयार कर रखे।
• स्थानीय स्तर पर आन्दोलन में सक्रिय रहे लोगों द्वारा किस किस विभाग में किस किस सीट पर किस तरह से रिश्वत ली जाती है [मोडस ओपरेंडी] इसका एक खाका तैयार किया जाना चाहिए।
• जिन व्यापारियों, ठेकेदारों, नेताओं, अफसरों, विधायकों, मंत्रियों, न्यायाधीशों, या किसी भी लाभ के पद पर रहे लोगों की सम्पत्ति में यदि कम समय में अकल्पनीय वृद्धि हुयी है तो स्थानीय स्तर पर उन व्यक्तियों और उनकी ज्ञात सम्पत्ति की सूची तैयार करना। इनमें कुख्यात विभागों के अफसरों पर विशेष ध्यान केन्द्रित करना।
• पिछले कुछ वर्षों में विदेश यात्रा करने वाले सन्दिग्धों की सूची तैयार करना, विशेष रूप से जो व्यक्ति स्वित्जरलेंड की यात्रा पर गये हों।
• कभी किसी मंत्री, नेता, या अफसर के दलाल रहे किंतु अब असंतुष्ट लोगों की सूची तैयार करना।
• जहाँ वांछित हो सूचना के अधिकार के अंतर्गत जानकारी एकत्रित करना।
• इत्यादि...............
जो लोग भी भ्रष्टाचार के खिलाफ सचमुच गम्भीर और सक्रिय रहे हैं उनके चुप बैठने का समय अभी नहीं आया है, उन्हें बनने वाले कानून और उसका पालन कराने वाले सरकारी तंत्र के भरोसे नहीं बैठ जाना चाहिए। इस व्यवस्था का मौजूदा तंत्र कभी नहीं चाहेगा कि जनलोकपाल विधेयक आये, और अगर आ भी जाये तो सफलता पूर्वक लागू भी हो जाये। अगर आ भी गया तो या तो सारे भ्रष्ट एक हो जायेंगे या फिर पहले ये, या पहले वे, के नाम पर मामले को उलझाएंगे। किसी भी नयी पहल का पहले विरोध किया जाता है, विरोध सफल न होने पर उसका विकृतिकरण किया जाता है, और वह भी सफल न होने पर उसका विलीनीकरण करने की कोशिशें होती हैं। सबसे भ्रष्ट सबसे आगे आकर मोर्चा सम्हालने की कोशिश करेंगे या साम्प्रदायिक शक्तियाँ धर्मस्थलों के नये विवाद खड़े करने और नयी विवादास्पद धार्मिक यात्राओं को लेकर उसे देश की प्रमुख समस्या की तरह उभारने की कोशिश करेंगे। इसी आन्दोलनों में से कई रामदेव अपनी दुकानें अलग खोल कर बैठ सकते हैं। अगर व्यवस्था परिवर्तन करने में सक्षम एक अपेक्षाकृत अधिक निरंतर सक्रिय, मजबूत और संगठित शक्ति नहीं होगी तो कोई भी कानून समस्याओं को हल नहीं कर सकेगा। इसका हाल भी वही हो जायेगा जो अभी तक के सुधारवादी कानूनों का हुआ है। इस जनअसंतोष को एक सार्थक दिशा देने के लिए एक अन्ना की नहीं लाखों अन्नाओं की जरूरत होगी। मोमबत्ती जलाने वाले हाथों को हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठ जाना चाहिए और ना ही उनसे मदद की उम्मीद रखनी चाहिए जिनके खिलाफ यह कल्पित कानून बनने की सम्भावनाएं बनीं हैं।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

सोमवार, मई 02, 2011

आदमखोर बना कर दाल खिलाने की कोशिशें


म.प्र. में भाजपा का क्लास रूम
आदमखोर बना के दाल खिलाने की कोशिशें
वीरेन्द्र जैन
भोपाल में पिछले दिनों प्रदेश भाजपा के विधायकों और जिला अध्यक्षों के प्रशिक्षण की पाठशाला सम्पन्न हुयी जिसे पार्टी के प्रदेश प्रभारी संचार मंत्रालय घोटाले की प्रसिद्धि वाले अनंत कुमार ने सम्बोधित किया। इन दिनों भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ दिनों दिन गिरता जा रहा है जिससे ऊपर से नीचे तक हड़कम्प मचा हुआ है। इसका असर यह हुआ है कि पहले से ही अपने दोहरेपन के लिए मशहूर पार्टी को आम जनता और अपने पदाधिकारियों के बीच द्वन्द से निरंतर गुजरना पड़ता है। एक ओर वे कहते हैं कि हमारी पार्टी बहुत संगठित और अनुशासित है तो दूसरी ओर अपनों के बीच उन्हें कहना पड़ता है जिस अनुशासनहीनता और लालच की अति से विधायक और जिलाध्यक्ष गुजर रहे हैं उससे अगला चुनाव किसी तरह नहीं जीता जा सकता।
इस पार्टी ने प्रारम्भ से ही येन केन प्रकारेण सत्ता हथियाने और जमीनों, भवनों पर वैध अवैध तरीकों से कब्जा जमाने का लक्ष्य सामने रखा है। ये ऐसी पार्टी रही है जो संविद शासन के दौर से प्रत्येक संविद शासन में शामिल रही है भले ही उसका रंग कुछ भी रहा हो। ऐसा करते समय इस पार्टी ने नैतिकता और राजनैतिक शुचिता के सारे मानकों को निरंतर ध्वस्त किया है। किसी भी जीत सकने वाले राजनेता को दलबदलवा कर अपनी पार्टी में शामिल करने और उसे टिकिट देने में इसने कभी भी गुरेज नहीं किया। यही कारण है कि आज इस पार्टी में विभिन्न पार्टियों से दलबदलकर आये विधायक सांसद सर्वाधिक हैं। जिस नेहरू-गान्धी परिवार को ये पानी पी पी कर कोसते रहते हैं उसी परिवार के दो सदस्यों को सांसद चुनवाकर ये अपनी ताकत बताते रहते हैं। इनको वैचारिक रूप से सर्वाधिक तार्किक आधार पर चुनौती देने वाले दिग्विजय सिंह के भाई, जो कांग्रेस के सांसद रहे हैं, को न केवल पार्टी में ही शामिल किया अपितु टिकिट देकर सांसद भी बनवाया। ऐसे सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं।
चुनाव जीतने के लिए जब दलबदल और प्रायोजित साम्प्रदायिक तनावों से भी सम्भावनाएं बनती नजर नहीं आतीं तो ये किसी भी क्षेत्र में लोकप्रिय लोगों के साथ सौदा करते हैं और उनकी लोकप्रियता को वोटों में बदलने के लिए उनकी सेवाएं प्राप्त करते हैं। ऐसे सर्वाधिक सांसद इसी पार्टी से हैं जो न तो सदन की कार्यवाही में सक्रिय भाग लेते हैं और ना ही संगठन के कामों में आते हैं। वे केवल चुनावी सभाओं और सदन में मतदान करने के लिए ही अनुबन्धित किये जाते हैं। यह जानना रोचक है कि जितने भी फिल्मी कलाकार या क्रिकेट खिलाड़ी इस पार्टी में सम्मलित हुए उन सबको टिकिट दिया गया और चुनाव लड़वाया गया। पिछले दिनों इस पार्टी के विधायक, मंत्री और जिला स्तर के पदाधिकारी अपने अपने क्षेत्र के असामाजिक तत्वों को पार्टी से जोड़ने में लगे हुये हैं। समझौता हो जाने पर जो जेल में बन्द हैं उनकी जमानतें करवायी जा रही हैं और जिनके प्रकरण चल रहे हैं उनके प्रकरणों को कमजोर कराया जा रहा है। पुलिस अधिकारी हतप्रभ रह जाते हैं जब वे देखते हैं कि मंत्री और विधायक ऐसे अपराधियों के गले में हाथ डाले घूम रहे हैं जिनकी तस्वीर थाने में लगी है। जिनसे समझौता नहीं हो पाता उनके प्रति कठोरतम कार्यवाही के लिए पुलिस पर दबाव बनाया जाता है। जिस एक अधिकारी के घर से इनकम टैक्स के छापे में तीन सौ करोड़ के काला धन मिला उसी का पिता प्रदेश में होने वाले हिन्दू संगम का अध्यक्ष बनाया गया था। तय है कि यह सब अनजाने में नहीं हुआ होगा। कोई सप्ताह ऐसा नहीं जाता जब प्रदेश में कहीं न कहीं कोई न कोई भ्रष्ट अधिकारी कर अपवंचन में छापे का शिकार न होता हो और उसकी तिजोरियां और बेड करोड़ों रुपयों की नकदी या जमा पालिसियां न उगलते हों। आज इस पार्टी का प्रत्येक सक्रिय कार्यकर्ता दलाली, अवैध ठेकेदारी, या सरकारी सप्लाई में लगा हुआ है। इन कार्यकर्ताओं के हाल के रहन सहन को पिछले रहन सहन से तौलने पर किसी अन्य सबूत की जरूरत नहीं पड़ती। अवैध खनन, शराब की दुकानों के ठेकों, आदि पर पार्टी का एकाधिकार सा हो गया है। सहकारिता की सारी संस्थाओं पर पार्टी ने अधिकार करने के लिए कुछ भी करने से गुरेज नहीं किया। पिछले पखवाड़े में ही एक संघ के कार्यकर्ता की जहर खाने से मौत हो गयी जो एक मंत्री के पीए को काम करवाने के लिए पैसे दे चुका था और काम न होने पर पैसे मांगने गया था। इस मृत्यु को आत्म हत्या बताया गया जबकि उसके घर वाले इसे हत्या बता रहे हैं।
जमीनों पर कब्जे, सरकार के मलाईदार संस्थानों पर अपने लोगों को बैठाने के बाद पुलिस थानों में केवल स्वामिभक्त पुलिस अधिकारियों को ही पदस्थ किया गया है जिससे निर्भय होकर प्रदेश को चरा जा रहा है। पार्टी के अनुषांगिक संगठनों के पदाधिकारी पूर्व घोषणा कर के प्रदेश की राजधानी में हफ्ता न देने वाले ट्रांस्पोर्टर की हत्या कर देता है और फरार हो जाता है। जब बिना मेहनत के अकूत कमाई घर में आती है तो वह अपने साथ कई तरह की विकृत्तियां भी साथ लाती है, यही कारण है कि आज भाजपा के पदाधिकारियों के गिरते चरित्र के कारण ऊपर तक चिंता व्याप्त है। गत दिनों उक्त प्रदेश प्रभारी ने हिकारत से मंत्रियों को अय्याश और दारूखोर बतलाया था तो इस बार विधायकों और जिला अध्यक्षों से कहा कि अनैतिक कर्म आप लोग करते हो और भुगतना पार्टी को पड़ता है। स्मरणीय है कि इसी दौरान एक जिला अध्यक्ष की अश्लील सीडी सार्वजनिक हो गयी और एक जिला अध्यक्ष को घर में घुस कर मारपीट करने के आरोप में दो साल की सजा हो गयी। रोचक यह है कि प्रदेश प्रभारी की बात को किसी ने गम्भीरता से नहीं लिया क्योंकि एक तो सारे ही लोग उनके केन्द्रीय मंत्री होते हुए संचार मंत्रालय के कार्यकलापों से अवगत थे तो दूसरी ओर देश के शीर्षस्थ नेताओं के कारनामों के बारे में भी सुन रखा है। एक विधायक ने तो साफ कहा कि जब हम जनता के बीच में जाते हैं तो लोग कर्नाटक के येदुरप्पा कांड के बारे में पूछते हैं तो हमें जबाब देते नहीं बनता। एक ने तो पूछा कि जब राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष टूजी मामले में डीबी रियल्टी से 15 करोड़ लेना स्वीकारते हैं तो हम भ्रष्टाचार का विरोध कैसे करें। किस्सा कोताह यह कि जब पूरी भरती ही मीठे मीठे सपने दिखा कर की गयी हो और दाढ से खून लगवा दिया गया हो तब दाल रोटी खाने की सलाह को कौन मानेगा!
अब इसे स्थिति की बिडम्बना ही कहेंगे कि इस प्रशिक्षण के तुरंत बाद ही एक जिले के भाजपा अध्यक्ष के खिलाफ पार्टी की एक महिला पदाधिकारी के पति ने थाने में शिकायत दर्ज करायी कि उसकी पत्नी को जिलाध्यक्ष ने गायब कर दिया है। अखबारों में प्रकाशित खबरों के अनुसार उस महिला के पति की पीड़ा को एक मंत्री समझ रहे हैं और वे उसे उसकी पत्नी वापिस दिलाने के लिए हनुमत प्रयास कर रहे हैं क्योंकि उन्हें जिले में अपनी पसन्द का जिलाध्यक्ष बैठाने की जल्दी है। राम भक्त पार्टी में ऐसी रामलीलाएं पूरे प्रदेश में हो रही हैं।

वीरेन्द्र जैन
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