गुरुवार, जुलाई 30, 2009

आगामी चंदाग्रहण से मुक्ति के उपाय

आगामी 'चन्दाग्रहण' के प्रभाव से मुक्ति के उपाय
वीरेन्द्र जैन
आजकल त्योहारों का मौसम गुन्डों का भी मौसम होता है विशेषरूप से उन गुन्डों का जो अपने परिवेश से धन वसूली के लिए धर्मान्धता और ईश्वरीय प्रकोप के आतंक का लाभ उठा कर जगह जगह झांकी सजाने के नाम पर अकूत धन उगाते हैं। ये धंधे विशेष रूप से उन बाजारों के आस पास ज्यादा पनपते हें जहाँ बड़े बड़े बाजार होते हें या जो उच्च आय वर्ग की रिहायशी कालोनियां होती हैं जिनमें जड़ों से उखड़े हुये लोग अकेलेपन से भयभीत रह कर प्रत्येक चन्दा वसूलक को कुछ दे दिला कर राहत की सांस लेना चाहता है।
ये लोग झांकी स्थापित करने से पहले किसी से सलाह नहीं लेते।
पदाधिकारी बनने के लिए कोई बैठक नहीं करते अपितु स्वयंभू पदाधिकारी बन जाते हैं।
आयोजन के बजट के बारे में कोई विर्मश नहीं करते
आयोजन के कार्यक्रम के बारे में चन्दादायकों से सलाह लेने की जरूरत नहीं महसूस करते
आयोजन स्थल के बारे में अपने आप फैसला लेते हैं जो आम तौर पर चलने वाली सड़क को घेर कर बनाया जाता है जिससे उस स्थान पर रहने या व्यापार करने वालों को ही तकलीफ पहुँचाता है
अपनी अपनी झांकियों की दुकानें सजाने के चक्कर में झांकियों के घनत्व का कोई ध्यान नहीं रखा जाता जिससे एक ही स्थल पर आस पास अनेक झांकियां सज जाती हैं। ऐसा खास तौर पर बाजारों में अधिक होता है जहॉं जनता से ज्यादा मुनाफा लेने वाले व्यापारी अधिक संख्या में होते हें और उन्हें सभी को चन्दा 'देना पड़ता है'।
चन्दा मांगने वालों में आम तौर पर सत्तारूढ राजनीतिक दल की युवा वाहिनियों के नाम पर काम करने वाले गुन्डे या बेरोजगार युवक एकत्रित हो जाते हैं जिसमें स्थानीय पार्षद या पार्षद प्रत्याशी रहे लोग विशेष सक्रियता दिखाते हैं जिनके दबाव में चन्दा वसूला जाता है। जिन सब्जी बेचने वालों तक को उनके धर्म से असम्बंधित होने पर भी आयोजन के लिए चन्दा देना पड़ता है वे अपने जिंसों के दाम बढ़ाने को विवश हो जाते हैं जिसका असर आम लोगों और विशेष रूप से ईमानदारी से मेहनत मजदूरी करने वालों पर पड़ता है।
अब सवाल उठता है कि इस समस्या से कैसे निबटा जा सकता है! तो इसका उत्तर यह है कि समस्या से सामूहिक रूप से ही निबटा जा सकता है तथा बाजारों में व्यापारी संघ और कालोनियों में सोसाइटियां, या मुहल्ला समितियां ही इस समस्या से मुक्ति दिला सकती हैं। कुछ प्रमुख कदम निम्न प्रकार के हो सकते हैं।
झांकियों का मौसम प्रारंभ होने और चन्दा वसूली से पहले व्यापारी संघ और मुहल्ला समितियां अपनी इस विषय पर बैठकें करें या इस दौरान होने वाली सामान्य बैठकों में इसे एक एजेन्डे के रूप में सम्मिलित करें।
बैठकों में तय करें कि झांकी कमेटी में व्यापारी संघ या मुहल्ला समितियों के पदाधिकारी को कमेटी का पदाधिकारी बनाना अनिवार्य होगा
चन्दे की राशि या तो संध/समिति स्वयं तय करेगी या स्वयं सामूहिक रूप से एकत्रित करके देगी
किसी भी दुकान या मकान वाले से चन्दे के लिए कोई दबाव नहीं डाला जायेगा व यह पूर्ण रूप से स्वैच्छिक होगा।
किसी भिन्न धार्मिक विश्वास वाले से चन्दा नहीं मांगा जायेगा पर यदि वह स्वयं ही आगे आकर चन्दा देगा तो स्वीकार कर लिया जायेगा।
आयोजन स्थल का निर्घारण करने में संघसमिति की सलाह सर्वोपरि होगी जिससे स्थान की सामान्य दैनिंदिन गति विधियों में कोई व्यवधान ना पड़े
आयोजन में होने वाले सांस्कृतिक आयोजनों पर संघ/समिति के सदस्य की अनुमति अनिवार्य होगी ताकि कोई अपसंस्कृति प्रवेश न कर सके। रात्रि दस बजे के बाद शोर नहीं किया जायेगा
लाउडस्पीकर की जगह स्पीकर लगाये जायेंगे तथा उनका स्वर इतना रखा जायेगा कि आयोजन स्थल से बाहर किसी को तकलीफ न पहुँचा सकें।
झांकी के लिए विधिवत बिजली कनेक्शन लिया जायेगा तथा स्थानीय पुलिस स्टेशन में उसकी सूचना दी जायेगी
कमेटी के किसी कार्यकर्ता द्वारा अनैतिक आचरण करने जैसे शराब आदि पीकर आने पर कठोर प्रतिबंध रहेगा व नहीं मानने पर कानूनी कार्यवाही की जा सकेगी
आयोजन के आय व्यय का हिसाब ठीक तरह रखा जायेगा व वह प्रत्येक चन्दा देने वाले को देखने के लिए प्रदशित/प्रकाशित किया जायेगा। वे आपसे चन्दा मांग सकते हें तो क्या आप उनसे हिसाब नहीं मांग सकते। बची हुयी राशि को अगले साल के लिए बैंक खाते में जमा किया जायेगा।
जिलों के जिलाधीशों और पुलिस अधीक्षकों को चाहिये कि उपरोक्त सुझावों से मिलते जुलते सुझावों को एकत्रित कर नगरों में झांकी स्थापित करने की इच्छुक कमेटियों की बैठक बुला कर निर्देशित करें जिससे झांकियों की संख्या नियंत्रित रहेगी नगरों में शांति रहेगी व सुरक्षा बढने के साथ साथ आम नागरिक चन्दे के आतंक से मुक्त रह सकेगा
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

सोमवार, जुलाई 27, 2009

वे हिन्दुस्तानी के लेखक थे और पक्षधर भी

प्रेमचन्द की जयंती पर
वे हिन्दुस्तानी के लेखक थे और पक्षधर भी
वीरेन्द्र जैन

जब समाज को बांटने वाली शक्तियां अपना काम कर रही होती हैं तो वे उसे कई स्तरों पर बांटती हैं। दूसरी ओर समाज को एकता के सूत्र में बांधने वाली शक्तियां उसे सभी स्तरों पर बंटने से रोकती हैं हमारे देश के संदर्भ में मुंशी प्रेमचन्द समाज को एकता के सूत्र में बांधने वाली भाषा में साहित्य रचने वाले सबसे सटीक उदाहरण की तरह सामने आते हैं। एक धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था में ऐसा ही लेखक साहित्य का सर्वोच्च प्रतीक बन सकता है। उनकी प्रासंगिकता का यह सबसे बड़ा कारण है।

प्रेमचन्द हिन्दी के नहीं हिन्दुस्तानी के लेखक हैं जिन्होंने सबसे पहले अपनी हिन्दुस्तानी कहानियों को उर्दू लिपि में लिखा और बाद में नागरी लिपि में। यही कारण है कि उनका संपूर्ण साहित्य साथ ही साथ उर्दू लिपि में भी अनुवादित या कहें लिप्यांतर हुआ है। उनके भाषा सम्बन्धी विचार इस बात की पुष्टि करते हैं। वे कहते हैं कि ''राष्ट्रभाषा के नाम से हमारी कोई बहस नहीं है इसे हिन्दी कहिये, हिन्दुस्तानी कहिये, या उर्दू कहिये, चीज एक है। राष्ट्रभाषा केवल रईसों और अमीरों की भाषा नहीं हो सकती। उसे किसानों और मजदूरों की भी बनना पड़ेगा। जैसे रईसों और अमीरों से राष्ट्र नहीं बनता उसी तरह उनकी गोद में पली हुई भाषा ही राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती।''

प्रेमचन्द न केवल कहानियों के विषय के कारण अपितु उनमें प्रयुक्त अपनी बोलचाल की भाषा के कारण भी जन-जन के प्रिय कथाकार बने हैं। वे कहते हैं कि ''लिखित भाषा की यह खूबी है कि बोलचाल की भाषा से मिले। इस आर्दश से वह जितनी दूर जाती है इतनी ही अस्वाभाविक हो जाती है''। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए एक जगह वे कहते हैं कि '' सवाल यह उठता है कि जिस कौमी भाषा पर इतना जोर दिया जा रहा है उसका स्वरूप क्या है। हमें खेद है कि अभी तक हम इसकी कोई खास सूरत नहीं बना सके हैं, इसलिए कि जो लोग उसका रूप बना सकते थे वे अंग्रेजों के पुजारी थे और हैं, मगर उसकी कसौटी यही है कि उसे ज्यादा से ज्यादा लोग समझ सकें। हमारी कोई सूबे वाली भाषा इस कसौटी पर पूरी नहीं उतरती। सिर्फ हिंदुस्तानी उतरती है, क्योंकि मेरे खयाल में हिन्दी और उर्दू एक ज़बान है। क्रिया और कर्ता, फेल और फाइल जब एक हैं, तो उनके एक होने में कोई सन्देह नहीं हो सकता। उर्दू वह हिन्दुस्तानी जबान है जिसमें अरबी फारसी के लफ्ज ज्यादा हों, उसी तरह हिंदी वह हिंदुस्तानी है जिसमें संस्कृत के शब्द ज्यादा हों। लेकिन जिस तरह अंग्रेजी में चाहे लेटिन या ग्रीक शब्द अधिक हों या एंग्लो सैक्सन, दोनों ही अंग्रेजी हैं, उसी भांति हिन्दुस्तानी भी अन्य भाषाओं के शब्दों के मिल जाने से कोई भिन्न भाषा नहीं हो जाती। साधारण बातचीत में तो हम हिंदुस्तानी का व्यवहार करते ही हैं। थोड़ी सी कोशिश से हम इसका व्यवहार उन सभी कामों में कर सकते हैं जिनसे जनता का सम्बन्ध है।

प्रेमचन्द ग्रामीण जीवन के सबसे बड़े चितेरे थे किंतु उनकी निगाह में पूरा देश और पूरा समाज रहता था इसलिए उन्होंने अपनी भाषा को बोलचाल की सरल भाषा रखते हुये भी आंचलिक नहीं होने दिया। दक्षिण भारत राष्ट्रभाषा प्रचार सभा के एक व्याख्यान में उन्होंने कहा था '' जीवित भाषा तो जीवित देह की तरह बनती रहती है। भाषा सुंदरी को कोठरी में रख कर आप उसका सतीत्व तो बचा सकते हैं,लेकिन उसके स्वास्थ का मूल्य देकर। उसकी आत्मा इतनी बलवान बनाइये कि वह अपने सतीत्व और स्वास्थ की रक्षा कर सके। बेशक हमें ऐसे ग्रामीण शब्दों को दूर रखना होगा जो किसी खास इलाके में बोले जाते हें। हमारा आर्दश तो यह होना चाहिए कि हमारी भाषा अधिक से अधिक आदमी समझ सकें। अगर इस आर्दश को हम अपने सामने रखें तो लिखते समय भी हम शब्द चातुरी के मोह में न पड़ेंगे।

एक धर्मनिरपेक्ष लेखक में ही यह शक्ति हो सकती है कि वह हर तरह की संकीर्णता को नकार कर उन्हें डांट पिला सके। प्रेमचन्द हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ बनाकर शुद्ध हिंदी बनाने वालों पर ही अपना गुस्सा व्यक्त नहीं करते अपितु उर्दू वालों को भी उसी अधिकार से फटकारते हैंं ''इधर तो हम राष्ट्र राष्ट्र का गुल मचाते हैं, उधर अपनी ज़बानों के दरवाजे पर संगीन लिए खड़े रहते हैं कि कोई उनकी तरफ आंख न उठा सके। हिन्दी में हम उर्दू शब्दों को बिना तकल्लुफ स्थान देते हैं, लेकिन उर्दू के लेखक संस्कृत के मामूली शब्दों को भी अंदर नहीं आने देतें वह चुन चुन कर हिन्दी की जगह फारसी और अरबी शब्दों का स्तेमाल करते हैं। जरा जरा से मुजक्कर और मुअन्नस के भेद पर तूफान मच जाया करता है। उर्दू ज़बान सिरात का पुल बन कर रह गयी है जिससे जरा सा इधर उधर हुए और जहन्नुम में पहुंचे।

प्रेमचन्द के कथन की आत्मा को फिल्मी जगत ने पहचाना और माना है। यही कारण है कि आज सिनेमा, साहित्य से अधिक लोकप्रिय और सम्प्रेषणीय होता है क्योंकि उसकी भाषा न हिन्दी होती है और न उर्दू होती है अपितु हिन्दुस्तानी होती है। इसी तरह हिन्दुस्तानी फिल्म (भले ही उसका लोकप्रिय नाम हिन्दी फिल्म हो) के र्दशकों में भी कोई भाषा और धर्म का भेद भाव नहीं होता। समाज को बांटने के लाख प्रयत्नों के बाद भी आज तक हमारा संगीत हिंदुस्तानी संगीत है और वह हिंदी संगीत या उर्दू संगीत नहीं बना। प्रेमचन्द इस बात को समझते थे, मानते थे और व्यवहार में लाते थे। जनता की एकता का सच्चा पक्षधर उसकी एकजुट अभिव्यक्ति तथा उस अभिव्यक्ति के लिए एक भाषा का पक्षधर भी होगा। प्रेमचन्द ऐसे ही थे इसलिए महान थे और बने रहेंगे।

शनिवार, जुलाई 25, 2009

अशोक चक्रधर के अपमान का हक नहीं अर्चना वर्मा को

अशोक चक्रधर का अपमान करने का हक नहीं अर्चना वर्मा को
जनसत्ता २४ जुलाई के अंक में अशोक चक्रधर को हिंदी अकादमी का उपाध्याक्छ बनाये जाने के खिलाफ अर्चना वर्मा द्वारा स्तीफा देने के साथ जो कारण दिए गए हैं वे सार्वजनिक होने से अशोक के सम्मान और कवि सम्मलेन के धंधे पर जो असर पड़ेगा वह बड़ा नुकसान होगा . यह तय है कि साहित्य में विधाओं के आधार पर जो स्तरीकरण कर दिया गया है उसके अनुसार विश्वनाथ त्रिपाठी नित्यानंद तिवारी हिमांशु जोशी लीलाधर मंडलोई का एक सदस्य कि तरह कम करना हास्यास्पद होता और उन्हें अपना सम्मान बचाने के लिए स्तीफा दे देना चाहिए पर वे १२४ राज परिवारों के सदस्यों से बनी सरकारों से लोकतंत्र कि आशा रखते हों तो वह उनकी नासमझी होगी इस शासन में तो इसी तरह जागीरें बांटी जाती रही हैं और बाँटीं जाती रहेंगी . पिछले दिनों भोपाल में भी क्या कम नंगा नाच होता रहा है? धर्मवीर भारती और चिरंजीत को तथा हरी शंकर परसाई और काका हाथरसी को एक साथ पद्मश्री देने वाली सरकारों से क्या आशा कि जा सकती है . वैसे हास्य रस भी एक रस है .उर्दू के मुश्ताक अहमद युसुफी का "आबे गुम" जिन्होंने पढी है वे जान सकते हैं कि हास्य भी कद्दावर साहित्य का हिस्सा हो सकता है

शुक्रवार, जुलाई 24, 2009

इंदिरा गाँधी की हत्या से भी भीषण हत्या

इंदिरा गाँधी की हत्या से भी भीषण हत्या
हरियाणा में कोर्ट द्वारा सुरक्छा देने के स्पष्ट आदेश के बाबजूद सगोत्र विवाह करने वाले युवक की सरे आम पीट पीट कर हत्या कर देने से हरियाणा में किसी सरकार के न होने का प्रमाण मिलता है और उस सरकार को अब एक पल भी बने रहने का अधिकार नहीं है क्योंकि वह न तो नागरिक अधिकारों की रक्छा करने में सफल हुयी है और न ही कोर्ट का आदेश पालन करवाने में ही सक्छम सिद्ध हुयी है । वैसे तो यह घटना हरियाणा की सरकार को बर्खास्त करने के लिए काफी है किन्तु अमेरिका की गुलामी में लगी सरकार को इतना होश कहाँ की वह नागरिक अधिकारों और न्यायलय के आदेशों के परिपालन पर ध्यान दे . लालगढ़ में जिस तरह राज्य सरकार की असमर्थता पर केंद्र ने सी आर ऍफ़ भेज कर आतंकियों पर हमले किये लगभग वैसे ही हालात इस समय भी हैं . यह समय है की जब देश के सारे सुशिक्छित आधुनिक और पढ़े लिखे लोगों को एक साथ उठ कर विरोध करना चाहिए क्योंकि भाजपा जैसे पोंगापंथी दल तो चुप्पी साध जायेंगे

गुरुवार, जुलाई 23, 2009

८३ वें जन्म दिन पर - सरोज जी गीत के गुलेरी थे

स्व मुकुट बिहारी सरोज के 83वें जन्म दिवस 26 जुलाई के अवसर पर-
सरोज जी गीत के गुलेरी थे
मुकुट बिहारी सरोज का हिन्दी साहित्य में जो स्थान है वह केवल उनके दो संग्रहों के आधार पर बना है। दूसरा संग्रह भी पहले संग्रह के अप्राप्य हो जाने व उनके 75वें जन्मदिन पर आयोजित होने वाले समारोह में विमोचित होने के लिए उनके प्रशंसकों ने प्रकाशित कराया था जिसमें तीन चौथाई रचनाएं तो पहले स्रंगह की रचनाओं में से ली गयी हैं। इस तरह कह सकते हें कि वे केवल एक ही काव्य संकलन के आधार पर कविता की दुनिया में अपनी छाप छोड़ गये हैं। इस आधार पर उन्हें चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के समकक्ष रखा जा सकता है जिनकी कुल चार कहानियों ने या कहें कि कुल एक कहानी 'उसने कहा था' ने उन्हें हिन्दी कथा साहित्य का सिरमौर बना दिया है। हिन्दी गीत काव्य के क्षेत्र में सरोज जी के इकलौते संकलन 'किनारे के पेड़' जो अपने नवीनीकृत रूप में 'पानी के बीज' के नाम से आया उन्हें अमर कर गया। अभी हाल ही में दिवंगत हुये डा सीता किशोर खरे ने कभी उनके गीतों पर टिप्पणियाँ लिखी थीं, (जो ग्वालियर के एक साप्ताहिक में नियमित स्तंभ की तरह प्रकाशित हुयी थीं व गत दिनों ग्वलियर के ही श्री माताप्रसाद शुक्ल के सौजन्य से उनका संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है।) व इस स्तंभ का नाम रखा था 'सूत्र सरोज के टीका सीताकिशोर की'। स्मरणीय है कि ये वही सीता किशोर हैं जिन्हें पहला मुकुट बिहारी सरोज सम्मान दिया गया था। सीता किशोर जी का अपने स्तंभ का यह नामकरण बिल्कुल उपयुक्त ही था क्योंकि सरोज जी ने जो कविताएं लिखी हैं वे सूत्र ही हैं व एक एक सूत्र से कई महाकाव्य पैदा होते हैं। मेरे मित्र वेणुगोपाल कहा करते थे कि कवि को अपने पाठकश्रोता को मूर्ख समझने की भूल नहीं करना चाहिये, कविता तो जनमानस के अन्दर प्र्रवाहमान रहती है कवि को तो केवल इशारे करना होते हैं। सरोज जी की कविता ऐसे ही इशारों की कविता है। उन्होंने स्वयं ही लिखा है-
प्रशन बहुत लगते हैं, लेकिन थोड़े हैं
मेंने खूब हिसाब लगा कर जोड़े हैं
उत्तर तो कब के दे देता शब्द मगर
अधरों के घर आना जाना छोड़े हैं
कविता की सफलता का एक मापदण्ड उसका मुहावरा बन जाना भी होता है। रहीम, कबीर के दोहे, तुलसी की चौपाइयां, सूर के पद और मीर गालिब आदि के शेर ऐसी कविताएं हैं, जिनके माध्यम से हम आज भी अपनी बात कहते हैं। समकालीन हिन्दी साहित्य में सरोजजी और दुष्यंत कुमार ऐसे ही कवियों में आते हैं जिन्होंने इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीच पनप रही विसंगतियों पर अपनी काव्य टिप्पणियों द्वारा आम जन की सोच को शब्दों में ढाला है। वे कहते हैं-
क्योंजी, ये क्या बात हुयी?
ज्यों ज्यों दिन की बात की गयी
त्यों त्यों रात हुयी
क्योंजी ये क्या बात हुयी?
जितना शोर मचाया घर में सूरज पाले का
उतना काला और हो गया वंश उजाले का
धूप गयी, सो गयी, किरण की कोर नहीं मिलती
उस पर ये आनन्द कि चारों ओर नहीं मिलती
जैसे कोई खुशी किसी मातम के साथ हुयी
क्योंजी ये क्या बात हुयी?
सरोजजी के ऐसे ही अनगिनित गीतों में हम आजादी के बाद की राजनीति, एक स्वप्नदर्शी प्रधानमंत्री द्वारा जनता को दिखाये गये सपनों का टूटना महसूस कर सकते हैं, और इस भंजन का क्रम अभी टूटा नहीं है। यही कारण है कि आज भी सरोजजी के गीत जनता की भावनाओं को वाणी देते हुये लगते हैं। हम हर बार ठगे जा रहे हैं और जो, जब होता है तब तक गंगा में बहुत सारा पानी बह चुका होता है। सरोज जी के शब्दों में ही देखें तो-
निर्माणों की कथा, बहुत संक्षिप्त हमारी है
जो पूरा हो जाना था, उसकी तैयारी है
यह परिणाम हुआ है संसद के प्रस्तावों का
अंतिम अंगारा तक बुझने लगा अलावों का
यों ही हवा हिमानी थी, उस पर बरसात हुयी
क्योंजी, ये क्या बात हुयी?
अब कौन कह सकता है कि ये साठ के दशक की कविता है! यदि हम इसे आज के सन्दर्भ में देखें तो हो सकता है कि हमें ये आज और अधिक सटीक लगे। अब इस गीत में जो घबराहट अकुलाहट और छटपटाहट है क्या उसे किसी खास काल की बेचैनी कहा जा सकता है जबकि ये बेचैनी आज और भी अधिक तात्कालिक लगती है-
कोई सुनता नहीं भीड़ में
और लगी है आग नीड़ में
कितनी ऊंची और करूं आवाज बताओ

कैसे काम बनेगा कुछ तो करो इशारा
में तो अपनी हर कोशिश कर कर के हारा
शक्ति लगा कर बोली की सीमा तक बोला
बहरे कोलाहल ने लेकिन कान न खोला
ऐसी उलझन आन पड़ी है
आफत में हर जान पड़ी है
कहाँ बचेंगे प्राण, जगह का कोई तो अन्दाज बताओ
कितनी ऊंची और करूं आवाज बताओ
सरोज जी के गीतों की हर एक पंक्ति आज भी जीवंत है प्राणवान है क्योंकि वह मनुष्यता के दर्द को बयान करती है व आदमी को आदमी से जोड़ने का काम करती है जिससे कि वे एक साथ होकर अपने समय के शत्रुओं की पहचान कर सकें और उनसे लोहा ले सकें। वे कहते हैं-
कल ऐसी बात नहीं होगी
ऐसी बरसात नहीं होगी
इसलिए कि दुनिया में रोने का आम रिवाज नहीं
सब प्रश्नों के उत्तर दूँगा, लेकिन आज नहीं

बुधवार, जुलाई 22, 2009

अवैग्यानिकों को विज्ञान की नौकरी से निकालो

इन अवैग्यानिकों को नौकरी से निकालो
देखा गया है की पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान कुछ डाक्टर इंजिनियर व विज्ञान के प्रोफेसर भी घरों से बाहर नहीं निकले या नदियों आदि में स्नान करने गए . इन्होंने पका हुआ खाना फेंक दिया और इस दौरान कुछ भी न खाया और न ही बच्चों को खाने दिया . ऐसे लोग निरे अवैज्ञानिक हैं और जिस डिग्री के आधार पर लाखों रुपये साल का वेतन डकार रहे हैं उसके योग्य नहीं हैं . वे विज्ञान के आधार पर नौकरी करके भी साधारण अशिक्छितों की तरह व्यवहार कर रहे हैं .जब ये अपने नौकरी के आधार की अयोग्यता को स्वयं ही प्रमाणित कर रहे हैं तब इन्हें विज्ञान से सम्बंधित नौकरी में बनाये रखने की क्या जरुरत है? स्मरणीय है की भारतीय वैज्ञानिकों ने आजादी के बाद कोई भी महत्वपूर्ण आविष्कार नहीं किया है और जब ऐसे लोग नौकरी में रहेंगे तो कर भी नहीं सकते . जरुरत है देश में वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न वैज्ञानिकों की तभी देश का कुछ उद्धार हो सकेगा

मंगलवार, जुलाई 21, 2009

भाजपा की भाषा प्रयोग कराने के भटकाव

रीता बहुगुणा-मायावती प्रकरण
भाजपा की भाषा प्रयोग करने के भटकाव
वीरेन्द्र जैन
उत्तर प्रदेश काँग्रेस पार्टी की अध्यक्ष श्रीमती रीता बहुगुणा जोशी ने कुमारी मायावती के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया वह काँग्रेस की भाषा नहीं है। रोचक यह है कि बदले समय और परिस्तिथियों में ये आज की मायावती की भी भाषा नहीं है जो कि श्रीमती सोनिया गांधी की तरह अब सारे वक्तव्य 'किसी' वकील और भाषाविद के द्वारा देख लेने व सुधार कर देने के बाद ही 'पढती' हैं।
दर असल उत्तेजना की इस भाषा का सर्वाधिक प्रयोग भाजपा और शिवसेना जैसी पार्टियां करती रहती हैं। उत्तरप्रदेश में अपने खोये गौरव को जल्दी वापिस पाने की हड़बड़ी में कुछ काँग्रेस नेता भी भाजपा के शार्टकट को अपनाने लगे हैं। भाजपा अपने एक धड़ और कई मुखों से संवाद करती है जिससे उसे आवश्यकता पढने पर इंकार कर देने की सुविधा रहती है। अपने नाम के आगे साध्वी लगाने वाली ऋतंभरा, अपने को विश्व के हिंदुओं की संस्था मानने वाली विश्व हिंदू परिषद के स्वयं भू अंर्तराष्ट्रीय महा सचिव तोगड़िया, अशोक सिंघल, गिरिराज किशोर, आचार्य धर्मेंन्द्र, आदि ऐसी ही भाषा का प्रयोग करते रहे हैं। स्मरणीय है कि बाबरी मस्जिद तोड़ने के लिए वातावरण बनाने वाले अभियान के दौरान, धर्म की ओट ले ये लोग जगह जगह जाकर जो विषवमन करते थे उसे धार्मिक रूप देने के लिए चारों ओर भगवा रंग के झन्डे भी लगवा देते थे। ऋतंभरा ने तो कई सभाओं में खुला आवाहन करते हुये कहा था कि हिन्दू युवा वीरों में से प्रत्येक को किसी मुस्लिम युवती से एक हिन्दू संतान पैदा करना चाहिये। वरूण गांधी को जिस तरह के भाषणों के लिए कानून की गिरफ्त में आना पड़ा है वैसे भाषण तो नब्बे के दशक में बहुत आम थे, पर उस समय ना तो कमजोर बहुजन समाज पार्टी को सीधी सत्ता की चुनौती थी और ना ही कॉंग्रेस के पास सक्षम एकजुट नेतृत्व था जो इसका कानूनी और राजनीतिक मुकाबला कर पाता इसलिए ये सारे भाषण अलक्षित रह गये व आये दिन होने वाली हिंसा से भयभीत सुनने वाले अल्पसंख्यक खून का घूंट पी कर रह गये थे या टकराहट पर उतर कर अपना ही नुकसान कर लेते थे। ये ऋतंभरा ही थीं जो भीड़ में पूछा करती थीं कि जब हिंदू चोटी रखता है तो मुसलमान दाढी रखता है, जब हिंदू हाथ सीधे धोता है तो मुसलमान कोहनी से धोता है, हिंदू मुर्दा जलाया जाता है तो मुसलमान गाड़ा जाता है तो बताओ कि जब हिंदू मुँह से खाना खाता है तो मुसलमान को कहाँ से खाना चाहिये? ये केवल कुछ अपेक्षाकृत शिष्ट नमूने हैं पर यदि इनके पुराने भाषणों को देखा जाये तो पता लगेगा कि देश में साम्प्रदायिक विषवमन कर समाज का ध्रुवीकरण करने और उस ध्रुवीकरण को वोटों में बदलने का जो काम थोक में उस समय किया गया था उसी ने भाजपा को दो की संख्या से अस्सी और फिर दोसौ तक पहुँचने में मदद की थी।
उत्तेजक भाषा से मिली इस चुनावी सफलता ने न केवल पूरे संघ परिवार की ही भाषा बदल दी थी अपितु दूसरे कई चुनावी दलों को भी ये शार्ट कट ललचाने लगा था। यही वह समय था जब कभी सचमुच समाजवादी रहे मुलायमसिंह को अमरसिंह का हाथ थामना पड़ा था व लालूप्रसाद ने राजनीतिक भाषा में सस्ता विनोद व देशी प्रतीकों का समन्वय स्थापित किया था। स्मरणीय है कि गोधरा में साबररमती एक्सप्रैस की बोगी नम्बर 6 में हुये अग्नि कांड के बाद पूरे गुजरात में जिस तरह से मुसलमानों का नरसंहार किया गया था व उनकी सम्पत्ति लूटी गयी थी उसके ठीक बाद ही गुजरात विधानसभा के चुनाव भी होने थे। मुख्य चुनाव आयुक्त लिंग्दोह, जो अपनी अनुशासन प्रियता, ईमानदारी और निष्पक्षता के लिए विख्यात थे, ने साम्प्रदायिक ध्रुवी करण को देखते हुये चुनावों की तिथि को आगे बढाने का फैसला लिया था। आमतौर पर ऐसी स्थिति में विपक्षी दल को शिकायत होती है पर सत्तारूढ दल स्वीकार कर लेता है किंतु इस अवसर पर गुजरात के सत्तारूढ दल को ही चुनाव आयुक्त से शिकायत रही क्योंकि वे साम्प्रदायिक उत्तेजना के आधार पर चुनाव जीतना चाहते थे, और उत्तेजना कैसी भी हो वह एक सीमित समय से अधिक नहीं खींची जा सकती। चुनाव स्थगित होने से आतंकित होकर मोदी ने श्रीमती सोनिया गांधी, राहुल गांधी, और मुख्य चुनाव आयुक्त लिंग्दोह के खिलाफ जिस भाषा और प्रतीकों का स्तेमाल किया था वह बेहद गंदा था जिसमें श्रीमती गांधी को जर्सी गाय और राहुल को बछड़ा तक कहा था व मुख्य चुनाव आयुक्त के एवं श्रीमती गांधी के ईसाई होने के कारण उनके बारे में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया था जिन्हें लिखा नहीं जा सकता। चुनाव की नई तिथि तक समाज में उत्तेजना बनाये रखने के लिए मोदी ने प्रदेश में रथ यात्रा का कार्यक्रम बना लिया था और मुसलमानों के खिलाफ पाँच बीबियाँ पच्चीस बच्चे जैसी बातें प्र्रचारित करने की कोशिश की थी।
श्रीमती रीता बहुगुणा जोशी जो काँग्रेस में आने से पहले समाजवादी पार्टी में भी रह चुकी हैं, व भाजपा नेता और उत्त्राखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खण्डूरी जिनके ममेरे भाई हैं, ने उत्तेजक भाषा का सहारा लेने की प्रेरणा भाजपा से ही सीखी हुयी लगती है। उत्तेजक भाषण एक तरह की चालाकी होती है जो अपने ही लोगों के खिलाफ की जाती है। यह खुद पीछे रह कर अपने संगठन के कम समझदार प्रशांसकों को उत्तेजित कर हिंसक होने के लिए उकसाने का काम करता है। भाजपा जब जब हिंसा फैलाती है तो उस हिंसा में उसके छोटे बड़े नेताओं का कोई नुकसान नहीं होता पर उसके गैर समझदार कार्यकर्ता अपनी उत्तेजना में अपना व दूसरों का नुकसान काफी कर लेते हैं। यह तो अच्छा है कि काँग्रेस के वरिष्ठ नेतृत्व ने उचित समय पर इस भूल को पहचान लिया तथा अपनी ही प्र्रदेश अध्यक्ष की उत्तेजक भाषा को उनकी भूल बताया।
इस अवसर पर भी भाजपा अपने अवसरवादी चरित्र से बाज नहीं आयी और वरूण मामले पर सुश्री मायावती के खिलाफ की गयी सारी टिप्पणियों को दरकिनार करते हुये श्रीमती सुषमा स्वराज ने कहा कि रीता बहुगुणा ने जो कहा वह ऐसा ही है जैसे कि कोई कहे कि अगर तुम्हारी हत्या हो जाये तो मैं मुआवजा दूंगीं। श्रीमती स्वराज यह बात भूल गयीं कि कुछ ही दिनों पहले ही उनकी ही पार्टी के ही एक पूर्व सांसद रामविलास वेदांती ने रामसेतु वाले मामले पर डीएमके के नेता एम करूणानिधि की हत्या करने वाले को उसके बजन के बराबर सोना देने की घोषणा की थी, पर पूरी भाजपा में से किसी ने भी इसे गलत नहीं ठहराया था। इतना ही नहीं हाल के विवाद में उन्होंने बीएसपी के सांसदों द्वारा सदन में हंगामा करने को उनकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया बतलाया जबकि पिछले साल जब मायावती ने कहा था कि वे भाजपा को जूते की नोक पर रखती हैं तो भाजपा के पार्टी मुखपत्र 'कमल संदेश' ने मायावती की जाति की ओर इशारा करते हुये सम्पादकीय में लिखा था कि मायावती शायद भूल गईं हैं कि चमड़े का सिक्का कुछ दिन तो चलता है पर बाद में चाबुक बन कर स्वयं को ही चोटिल करने लगता है(जनसत्ता 22 फरबरी 2008)। स्मरणीय है कि वरूण की गिरफ्तारी के मामले पर इन्हीं भाजपा नेताओं ने मायावती की सरकार को बरखास्त करने की मांग भी की थी। पर भाजपा के साथ तीन तीन बार सरकार बना चुकी मायावती ने इस अवसर पर साम्प्रदायिक दलों की निंदा करते हुये यूपीए की सरकार को बाहर से समर्थन जारी रखने की घोषणा करते हुये समझदारी से चाल चली है।
लगता है कि इस घटना से काँग्रेस ने भी सबक सीखा है और वह भी भविष्य में उधार की भाषा के प्रयोग से बचेगी व इसीसे उसकी सरकार भी बची रहेगी।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

रविवार, जुलाई 19, 2009

नज़्म - ये शहर छोड़ के गया था जब

नज्म
ये शहर छोड़ कर गया था जब
मेरे सारे ही बाल काले थे
रंग की बात क्या करे कोई
आज लौटा हूं सिर पै बाल बिना
नौकरी पी गयी जवानी को

बैंक में फन्ड का जमा पैसा
पेंशन हर महीने मिलती है
है मना पर मिठाई का खाना
खोया खाओ तो गैस बनती है
पानी हरदम उबाल कर पीना

ये शहर भी बदल गया कितना
घर के बाहर चबूतरे होते
सब सुबह बैठ के दातुन करते
संग संग हाल चाल लेते थे
अब नहीं खोलता है द्वार कोई
अब किवाड़ों में आंख होती है
और भी संकरीं हो गयीं गलियां
सारी सड़कें भरी भरी रहतीं
जिन पर हम हाथ डाल चलते थे

लड़कियों वाले कुछ मकान भी थे
जिनमें से खुशबुएं सी आती थीं
आज भी उनकी याद बाकी है

लड़कियां बूढी हो गयीं होंगीं
और जाने कहां कहां होंगीं
क्यों नहीं भूला इन मकानों को
अब भी वह राह गुदगुदाती है

सारे मंजर नये नये से है
पर खड़ा जो महल था टीले पर
आज भी वैसा ही खड़ा है वो
चार सौ साल हो गये उसको
चौदह पीढीं भुगत चुका है वो
उसकी रंगत भी न खराब हुयी
रश्क होता है इस अमरता पर
हम चले जायेंगे मगर इसकी
एक दीवार भी न कांपेगी

शायद उम्रें दराज करने को
सारे इंसान हो रहे पत्थर

शुक्रवार, जुलाई 17, 2009

सब्जी की मंहगाई का रहस्य

सब्जी की मंहगाई का रहस्य
आज जब मैनें अपने सब्जी वाले से पूछ कि भैया अब तो बरसात भी आ गयी है आखिर ये सब्जी कब सस्ती होगी?उसका उत्तर दहशत भर देने वाला था . वह बोला _- बाबूजी अब ये सब्जी कमी की वज़ह से मंहगी नहीं है । "तो काहे की वज़ह से मंहगी है" मैनें पूछा । उसने उत्तर दिया कि अब तो यह आदत की वज़ह से मंहगी है. जब आपको मंहगी खरीदने की आदत ही पढ़ गयी है और किसान तथा व्यापारी को मुनाफा मिल रहा है तो अब वे क्यों सस्ती करेंगे . अब या तो सारे बाबू लोग सब्जी खाने की हड़ताल करें या सरकार राशन की दुकानों से बेचने लगे जैसे बंगाल में सरकार आलू बेच रही है , तभी यह सस्ती होगी

बुधवार, जुलाई 15, 2009

एक और रामदास की हत्या

प्रोफेसर सभरवाल की हत्या के फैसले पर
फैसले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था
सामने थी लाश लेकिन कोई हत्यारा न था
एक दहशत की तरह सब कुछ था सबके सामने
जानता हर कोई था पर बोलता कोई न था
गीदडों के देश में हर इक जुबां खामोश थी
थे सभी सुखराम इनमें भगत सिंह कोई न था

मंगलवार, जुलाई 14, 2009

बाबरी मस्जिद ध्वंस -अपराध के गुरुत्व को पहचानने का समय

बाबरी मस्जिद घ्वंस
अपराध के गुरूत्व को पहचानने का समय
वीरेन्द्र जैन
क्या सजा देने से किये को अनकिया किया जा सकता है?
तो फिर सजा क्यों दी जाती है?
प्रत्येक समाज अपने अपने दौर में समाज को संचालित करने की दृष्टि से कुछ नियम कानून और अनुशासन तय करता रहा है और जब कोई उन नियमों या अनुशासनों को भंग करता है तो उसे अपराध कहा जाता है। जब समाज में होने वाले अपराध, अगर उसे करने वाले खुल कर समाज के सामने उसे स्वीकार करते हैं और समाज से टकराने को तैयार रहते हैं तो समाज के खिलाफ एक तरह का विद्रोह होते हैं । इसलिए समाज या सरकार का दायित्व होता है कि ऐसे विद्रोहों को रोके। इसके लिए एक ओर तो प्राथमिक रूप से उसे न होने देने के लिए सुरक्षा व्यवस्था की जाती है व दूसरी ओर हो गये अपराध के अपराधियों को पकड़ने व उनको ऐसी सजा देने की व्यवस्था की जाती है जिससे कि वे अपराधी दुबारा और दूसरे लोग भविष्य में वह अपराध करने के बारे में नहीं सोचें। सजायें नियमों और कानूनों का परिपालन सुनिशचित करने हेतु भय स्थापित करने का काम करती हैं।
जब अपराध का आरोपी अपराध करने से इंकार करता है (जिसे चोरी की श्रेणी में रखा जा सकता है) तो वह जाँच का विषय बन जाता है। ऐसे मामले का आरोपी प्रत्यक्ष में नियमों और कानूनों के प्रति विशवास व्यक्त करता नजर आता है इसलिए उसे विद्रोही नहीं कहा जा सकता और जाँच व फैसले के बाद यदि वह दोषी पाया जाता है तो उसे अपेक्षाकृत अधिक कड़ी सजा का हकदार होना चाहिये क्योंकि वह न केवल पूरे समाज को धोखा दे रहा होता है अपितु न्यायिक व्यवस्था का समय व देश का धन भी बरबाद करने का दोषी होता है।
बाबरी मस्जिद को टूटे सत्तरह साल हो गये। उसे तोड़ने के लिए उकसाने हेतु रथ यात्राएं किसने की थीं, भड़काऊ भाषण किसने दिये थे, दूसरे सम्प्रदाय के पूजा स्थलों और मुहल्लों में जाकर उत्तेजना फैलाने वाले गाली गलौज भरे नारे किसके समर्थक लगाते थे और फिर उस उत्तेजक माहौल में साम्प्रदायिक दंगे कौन फैलाता था, ये सारी बातें जग जाहिर थीं फिर भी नियमानुसार जाँच बैठायी गयी और उसे सत्त्रह साल तक खींचा भी गया व सैंतालीस बार उसके समय में विस्तार किया गया। आरोपियों द्वारा उसके खिलाफ वातावरण बनाया गया व असहयोग किया गया, तथा यह पूरी कोशिश की गयी कि जाँच आयोग का फैसला कभी नहीं आये और अगर आये भी तो जैसा आरोपी चाहें वैसा ही आये। एक आरोपी सुश्री उमा भारती ने अपनी गवाही मैं कहा कि उन्हें कुछ भी याद नहीं है कि उस दिन क्या हुआ था। जिसकी याद्दाश्त कभी इतनी तेज रही हो कि बचपन में उसे पूरी रामायण याद हो और वह उस पर प्रवचन करती हो व उन्हीं प्रवचनों की दम पर उसने राष्ट्रीय राजनीति में शिखर का स्थान पाया हो, उसे उस ऐतिहासिक दिन की कोई घटना याद नहीं थी जो अखबारों में भरी पड़ी थी। मस्जिद गिरने की प्रसन्नता में मुरली मनोहर जोशी के कंधों पर सवार हो जाने के दृश्य सारे अखबारों में छपे थे। वे ही अब कह रही हैं कि उसके लिए फंासी पर चढने को तैयार हैं और छोड़ चुकी पार्टी भाजपा के नेताओं को सलाह दे रही हैं कि उन्हें भी इस सच को स्वीकारना चाहिये। लालकृष्ण आडवाणी की पूर्वबहू गौरी आडवाणी ने जो रथ यात्रा काल में उनकी सेक्रेटरी रही थी, आयोग को महत्वपूर्ण खुलासा करने वाला पत्र दिया था जो 'ऐशियन एज' समेत सभी महत्वपूर्ण समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था पर बाद में उन्हें मैनेज कर लिया गया। अब जब आयोग ने अपनी रिपोर्ट तैयार कर के सरकार को सौंप दी है व सरकार ने उसका खुलासा भी नहीं किया है पर आरोपियों के संगठन ने चिल्लपों मचाना प्रारंभ कर दिया है। काँग्रेस प्रवक्ता ने सही कहा है कि चोर की दाढी में तिनका बोल रहा है। जिस घटना की निंदा देश के सभी राजनीतिक दल एक स्वर से करते हों उस घटना को संघ परिवार के संगठन 'शौर्य दिवस' के रूप में मनाते हों तो कहने के लिए और क्या रह जाता है!
दर असल बाबरी मस्जिद का टूटना केवल एक ऐसी चार सौ साल पुरानी इमारत का टूटना भर नहीं है जो उस स्थल निर्मित बतायी जाती है जिस पर पूर्व में कभी राम मंदिर होने का अनुमान था, अपितु वह देश के संविधान में वर्णित धर्म निरपेक्षता, धार्मिक स्वतंत्रता, और मिलीजुली संस्कृति पर हमला था। यह आपसी सद्भाव और राष्ट्रीय एकता पर भी हमला था। इतना ही नहीं उसके आरोपी लगातार घटना की उत्तेजना से राजनीतिक लाभ उठाते और सत्ता की लूट के खेल खेलते घूम रहे हैं, जिससे लोकतंत्र की मूल दिशा भी प्रभावित हुयी है। सरकारें चुनने का जो काम शांतचित्त से होना चाहिये वह धार्मिक भावनाओं में पगी उत्तेजनाओं के प्रभाव में होने से लोकतंत्र के मूल लक्ष्य से भटक कर हुये। इस प्रभाव में इतनी बड़ी संख्या में वे लोग भी पवित्र संसद के अन्दर पहुँच गये जिन्हें उसके बाहर खड़े होने का भी हक नहीं था। लोकतंत्र को भटकाने का षड़यंत्र हमारे पूरे देश की उस आजादी के खिलाफ भी था जिसे हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों की बाजी लगा कर पायी है। यह सचमुच देश द्रोह है।
सवाल उस एक पुरानी इमारत का नहीं है जिसमें 22/23 दिसम्बर 1949 की रात्रि में मूर्तियाँ लाकर रख दी गयीं थीं और जिस कलैक्टर केक़े नैयर ने साम्प्रदायिक उपद्रव का डर दिखा कर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोबिन्द बल्लभ पंत की सलाह मानने से भी मना कर दिया था। (उसी कलैक्टर और उसकी पत्नी को बाद में जनसंघ ने टिकिट देकर संसद सदस्य बनवाया था।) उस इमारत में मूर्तियाँ रख दिये जाने के बाद से उसमें नवाज पढना बंद हो गया था। असल में उस मस्जिद को जो एक मंदिर की तरह ही प्रयोग में लायी जा रही थी को तोड़ने के लिए उकसाने के पीछे केवल साम्प्रदायिकता फैलाना और उस साम्प्रदायिकता के प्रभाव में सत्ता हथियाना था। यदि मुसलमान उसे छोड़ने को तैयार भी हो जाते तो मथुरा के कृष्ण मंदिर और बनारस के विश्वनाथ मंदिर के पास बनी ज्ञानवापी मस्जिद के बहाने वही काम करने का लक्ष्य बनाया हुआ था। इतना ही नहीं विश्व हिंदू परिषद ने तो ऐसी साढे तीन सौ इमारतें चिन्हित कर लीं थीं जिनके बहाने स्थानीय साम्प्रदायिकता पैदा की जा सकती हो और उसे वोटों में बदला जा सकता हो। मध्यप्रदेश में भोजशाला भी उनमें से एक है जिसका स्तेमाल वे जरूरत के हिसाब से करते रहते हैं। उनका लक्ष्य भव्य राम मंदिर का निर्माण नहीं था और यदि होता तो वह अयोध्या में कहीं भी बन सकता था, पर उन्हें तो उत्तेजना फैलाना थी इसलिए बिल्कुल उसी स्थान पर बनाना था जहाँ मस्जिद बनी हुयी थी। इसे समझा जाना चाहिये। मुबंइ के एक आर्कीटैक्ट ने उस दौरान कहा था कि वह ऐसे नक्शो बना कर दे सकता है जिसमें मस्जिद को तोड़ने की जरूरत नहीं पड़े व उसी के ऊपर भव्य मंदिर उसी जगह पर बन जायेगा और यदि नीचे चाहें तो अन्डर ग्राउन्ड बन जायेगा। पर उसका प्रस्ताव संघ परिवारियों ने ठुकरा दिया क्यों कि तब उत्तेजना का मसाला नहीं मिलता इसलिए उन्हें मस्जिद तोड़ कर ठीक उसी स्थान पर मंदिर चाहिये था। सच तो यह है कि इन लोगों ने कभी भी कोई मंदिर नहीं बनाया और ना ही वे कभी कहीं मंदिर बनाना ही चाहते हैं, पर उनकी रूचि उसी में होती है जिस पर विवाद हो। उस में ही उन्हें धर्म नजर आने लगता है।
अब जरूरत इस बात की है कि मस्जिद के बहाने लोकतंत्र भाईचारा और राष्ट्रीय एकता को तोड़ने वालों को कठोर से कठोर सजा मिले ताकि भविष्य में कोई ऐसा अपराध न कर सके व उससे पूर्व जनता के सामने सच्चाई रखे जाने के ईमानदार प्रयास भी होने चाहिये ताकि अपराधी जनता की भावनाओं को साम्प्रदायिकता में न बदल सकें।

शुक्रवार, जुलाई 10, 2009

चौथे खम्भे भी संपत्ति की घोषणा करें

लोकतंत्र के चौथे खम्भे वालों की सम्पत्ति भी घोषित होनी चाहिये
वीरेन्द्र जैन
सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों(कार्यपालिका) के लिए अपनी सम्पत्ति की घोषणा करने का नियम बहुत पहले से ही लागू रहा है पर पिछले कुछ वर्षों के दौरान चुनाव लड़ रहे नेताओं(विधायिका) को अपना उम्मीदवारी का पर्चा दाखिल करते समय अपनी सम्पत्ति की घोषणा करने के साथ उनके ऊपर चल रहे आपराधिक प्रकरणों की जानकारी देना भी अनिवार्य कर दिया गया था। गत दिनों केन्द्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने प्रैस एसोसियेशन की ओर से आयोजित मुलाकात में कहा कि सरकार सौ दिनों के अन्दर न्यायाधीशों की ओर से सम्पत्तियों और देनदारियों की घोषणा से सम्बंधित एक विधेयक संसद में पेश करेगी। उन्होंने स्पष्ट किया कि इस मामले में वे न्यायपालिका को पूरे विश्वास में लेकर ही यह कदम उठायेंगे, हम उनसे टकराव के रास्ते पर नहीं हैं। स्मरणीय है कि कलकत्ता हाईकोर्ट के मौजूदा न्यायधीश सौमित्र सेन के खिलाफ दुराचरण के आरोप लगने के बाद ऐसे कानून की जरूरत महसूस की जा रही थी। श्री मोइली का कहना था कि सरकार सौमित्र सेन के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही पूरी करवा कर जनता के बीच पनप रही यह धारणा समाप्त करेगी कि कुछ नहीं होता है। सौमित्र के खिलाफ लगे आरोपों की जाँच के लिए एक समिति का गठन किया गया है जिसमें पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्यन्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर और प्रख्यात अधिवक्ता फाली एस नरीमन के साथ सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बी सुर्दशन रेड्डी को शामिल किया गया है।
ऐसा लगता है कि अब न्यायाधीशों को भी अपनी सम्पत्ति की घोषणा करना ही पड़ेगी। पिछले दिनो सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने सार्वजनिक रूप से यह मान कर कि तीस प्रतिशत जज भ्रष्ट हैं, सारे ही जजों को कटघरे में खड़ा कर दिया था। देश के समस्त न्यायधीशों में से कौन तीस प्रतिशत में आता है और कौन सत्तर प्रतिशत में आता है, यह कहा नहीं जा सकता। यद्यपि यह भी सच है कि केवल सम्पत्ति की घोषणा भर कर देने से ना तो भ्रष्टाचार पर ही लगाम लगेगी और ना ही उनकी सही सम्पत्ति ही सामने आ पायेगी, किंतु अगर गलत सूचना देंगे तो भ्रष्ट जज एक गलती और करेंगे जो उन्हें कानून की गिरफ्त में लाने में मदद देगी। वैसे तो अधिकारियों और नेताओं की सम्पत्ति की घोषणा होने के बाद भी इनका भ्रष्टाचार कम नहीं हआ, अपितु दिन दूना रात चौगुना बढ ही रहा है। हाँ इतना अवशय ही हुआ है कि इससे नेताओं में एक भय व्याप्त हुआ और उन्होंने जरूरी सावधानियाँ लेना प्रारंभ कर दिया।
दूसरी ओर जब लोकतंत्र के तीन स्तंभों द्वारा अर्जित सम्पत्ति को सार्वजनिक घोषणाओं के दायरे में लाया जा रहा है तो चौथे स्तंभ को ही क्यों मुक्त रखा जाये। पिछले दिनों प्रैस के बारे में जो सूचनाएं आयी हैं और जनसत्ता सहित अनेक वेव पत्रिकाओं ने इस विषय में जो कुछ भी छापा है उससे पता चलता है कि इस बहती गंगा में प्रैस के एक हिस्से के हाथ भी सूखे नहीं हैं। कोई समय था जब प्रैस में छपी खबर का कोई सम्मान था पर इसके व्यवसायीकरण के बाद इस संस्था का जो पतन हुआ है इससे इसे दलाल का दर्जा मिलता गया है। एक सेमिनार में तो मीडियाकर्मियों को 'मीडिया के मीडियेटर' कह कर याद किया गया था। मीडिया के जो संस्थान बकायदा कम्पनी अधिनियमों के अर्न्तगत रजिस्टर्ड हैं और आइ पी ओ लाकर बाजार से पूंजी एकत्रित करते हैं वे केवल एक उद्योग भर हैैंं! उनके पास समाज हितैषी कोई आर्दश होने का कोई सवाल ही नहीं है अपितु वे तो उसे लगायी गयी पूंजी की वापिसी और असीमित धन कमाने के साधन के रूप में ही देखेंगे! दरअसल वे प्रकाशन का उद्योग चला रहे हेैं और उत्पाद का व्यापार कर रहे हैं। इसके लिए वे अखबार को किसी भी स्तर पर गिर कर बेचेंगे तथा जनता के बीच अपनी पहुँच सकने की क्षमता की पूरी कीमत वसूलना चाहेंगे। यह कुछ ऐसा है जैसे किसी ने दवाइयों की दुकान में जूतों की दुकान खोल ली हो पर बोर्ड वही पुराना ही लगा रखा हो। जब मालिक चुनावों में पैकेज बेचेंगे तो पत्रकार भी अपने हाथ कैसे साफ रख सकते हैं क्योंकि मालिक तो शब्द जोड़ने और भाषा चित्र बनाने का काम करता नहीं है उसे तो वह काम पत्रकारों से ही कराना पड़ता है। भोपाल में जब एक पत्रकार ने अखबार मालिक से कम तनख्वाह के बारे में शिकायत की तो उसका कहना था कि तुम्हें इतना बड़ा बैनर तो दे दिया है, क्या अब भी तुम्हें ज्यादा वेतन की जरूरत है? बुन्देली में एक कहावत है- सौ के नब्बे कर दो, नाव दरोगा धर दो- अर्थात भले ही वेतन सौ की जगह नब्बे रूप्ये महीने कर दो पर पदनाम दरोगा का मिल जाये तो फिर पैसे तो बनाये ही जा सकते हैं। अच्छे बैनर के लिए लोग इसी कारण से लालायित रहने लगे हैं। अकेले भोपाल में ही ऐसे पचास से अधिक पत्रकार हैं जो आज से पच्चीस-तीस साल पहले साइकिल से चलते थे पर आज वे न केवल करोड़पति हैं अपितु उनके बंगलों में एकाधिक गाड़ियाँ हैं। अपने कर्तव्य के प्रति न्याय न करने के बदले में ही उन्होंने किसी न किसी संस्थान के पद हथिया लिये हैं व प्रमुख स्थलों पर स्थित लाखों रूप्यों की कीमत के सरकारी बंगले उनके अधिकार में हैं जिसका किराया भी वे ठीक से नहीं चुकाते पर कोई भी अधिकारी उनके खिलाफ चूँ भी नहीं करता।
प्रैस मालिकों ने सरकार से प्रैस के नाम पर प्रमुख बाजार में प्लाट ले लिये हैं व अपने प्रभाव का स्तेमाल कर बैंकों से भरपूर ऋण ले उन पर बड़े बड़े भवन बना लिए हैं जिन्हें वे प्रैस से भिन्न कामों के कार्यालयों को किराये पर उठाये हुये हैं। प्रैस का दबाव बना कर वे भवन निर्माण आदि ऐसे अनेक तरह के व्यवसायों में लिप्त हैं जहाँ सरकारी हस्तक्षेप अधिक रहता है तथा अपने प्रभाव का स्तेमाल कर कानून का पालन कराने वाले अधिकारियों को धमका कर स्थिति अपने पक्ष में करते रहते हैं। इससे भी वे अटूट काला धन पैदा कर रहे हैैं।
कभी कमलेश्वर ने लिखा था कि प्रैस की स्वतंत्रता का मतलब प्रैस मालिकों की स्वतंत्रता नहीं होता अपितु पत्रकार की स्वतंत्रता होती है। प्रैस मालिकों ने प्रैस की सुविधाओं को अपनी व्यापारिक सुरक्षा में बदल लिया है व उनके पास समुचित मात्रा में दो नम्बर के पैसे एकत्रित होते जा रहे हैं इसलिए उनके लिए भी जजों की तरह सम्पत्ति की घोषणा को अनिवार्य किया जाना जरूरी हो गया है।

गुरुवार, जुलाई 09, 2009

कहाँ जाता है डकैतों का धन ?

कहाँ जाता है डकैतों का धन
वीरेन्द्र जैन

उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा गत तीस बरस से आतंक के पर्याय बने सवा पांच लाख रूपये के इनामी डकैत ददुआ को मार गिराया गया। ददुआ इस इलाके में पूरी राजनीति को अपने आतंक की दम पर नियंत्रित करता आ रहा था। उसका बेटा वीरसिंह अभी भी चित्रकूट से सपा के टिकिट पर जिला पंचायत का अध्यक्ष है व उसका भाई पिछली बार बसपा से विधायक का चुनाव लड़ा था तथा बाद में सपा की सरकार बनने के बाद वह सपा में शामिल हो गया था इस बार सपा के टिकिट पर चुनाव लड़ा था पर हार गया था। ददुआ के मारे जाने के बाद बदले में छह एसटीएफ के जवानों को मार डालने वाले डकैत ठोकिया की माँ भी गत विधानसभा का चुनाव लड़ चुकी है और अच्छी संख्या में वोट पा चुकी है।

------पिछले दिनों ग्वालियर लोकसभा क्षेत्र हेतु हुये उपचुनाव में जहां भाजपा ने अपनी लाज बचाने के लिये प्रदेश की पर्यटनमंत्री श्रीमती यशोधरा राजे सिंधिया को चुनाव में उतारा था वहीं कांग्रेस में चल रहे पार्टी मरम्मत के कार्यक्रम अनुसार सिंधिया परिवार के वैधानिक उत्तराधिकारी ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपने परिवार की परम्परा से हट कर प्रचार में सक्रिय दिखना पड़ा था। अरबों की सम्पत्ति के मालिक इन लोगों ने चुनाव में करोड़ों रूपये खर्च करवाये होंगे। पर इन दोनों ही दलों के उम्मीदवारों को दो लाख के आसपास ही वोट मिल सके। वहीं प्रदेश के नामी डकैत रामबाबू गड़रिया की बहिन ने एक इनामी डाकू की बहिन हो कर भी पचास हजार से अधिक वोट प्राप्त कर लिये जबकि उसकी राजनीतिक सक्रियता का कोई पूर्व इतिहास नहीं रहा। विशवस्त सूत्रों के अनुसार उसने भी खर्च में कोई कमी नहीं की।
------ एक लम्बे अंतराल और करोड़ों रूपये फूंकने के बाद दक्षिण में वीरप्पन मारा गया था जिसकी विधवा ने पिछले दिनों चुनाव लड़ने की घोषणा की थी.
------कुछ ही समय पूर्व रामबाबू-दयाराम गड़रिया में से एक का कंकाल मिलने व दूसरे की गोली लगने से मृत्यु हो गयी। इनके सहयोगी रहे प्रताप गड़रिया, जो एक लाख रूपये का इनामी डकैत था को एनकाउन्टर में मार गिराया गया था।
------ देश की आर्थिक राजधानी मानी जाने वाली मुम्बई में दया नायकों जैसे पुलिस इन्सपैक्टरों के हाथों माफिया सरगना मारे जाते हेैं जो वहां के सम्पन्न लोगों की एक नम्बर- दो नम्बर की आमदनी में से डरा धमका व मौत का भय दिखा अपना हिस्सा वसूलते रहते हैं।

किसी अपराधी को गोली मार कर खत्म कर देने से उस क्षेत्र में अपराध की घटनाएं बन्द नहीं हो जातीं अपितु वे उपयुक्त समय पर कई जगहों से धीरे धीरे अंकुरित होने लगती हेैं। ऐसा लगता है कि सरकार का इरादा धन अपहरण के अपराधों को रोकना नहीं है अपितु वर्सीम घास की तरह नये उत्पादन हेतु उसे समय समय पर कतरते रहना है ताकि उनके पालते पशु चरते रहें और वे दूध दुहते रहें। गुना शिवपुरी क्षेत्र में सक्रिय गड़रिया गिरोह के प्रमुख सदस्यों को मार गिराने का दावा कर खुशियां मनाने व इनाम की राशि पाने के बाद ऐसा लगता है कि पुलिस अपने कर्तव्य की इतिश्री मान बैठी है। पुलिस को यह जानने की चिंता क्यों नहीं होती कि मृत डाकू ने अपने जीवन काल में जो दौलत लूटी थी, वह कहां है और उस धन का क्या व कैसा उपयोग हो रहा है। यही उदासीनता, वह आत्मसमर्पण के नाम पर मुठभेड़ से सुरक्षा पा लेने वाले डकैतों के प्रति भी दशर्ााती है।इस प्रकार से संचित राशि ही दूसरे डाकुओं को पैदा करती है व पालती है। मृत अपराधियों के घरवालों का तेजी से राजनीति की ओर झुकाव यह दर्शााता है कि वे राजनीति और राजनीतिज्ञों से पूर्व परिचित रहे हैं तथा उसे वे अपनी शरणस्थली मानते हैं। अपने धन व आतंक की दम पर चुने जाकर ये लोग देश के लोकतंत्र की भावना को हास्यास्पद बना देते हेैं। क्या एक डाकू के अंत के समानान्तर उसके अर्थतंत्र को भेदा जाना जरूरी नहीं है? क्या पुलिस का यह कर्तव्य नहीं होना चाहिये कि लूटी गयी या फिरौती के रूप में वसूली गयी रकम को बरामद करने के प्रयास हों और वह राशि पीड़ित परिवार के लोगों तक पहुंचायी जाये। पीड़ितों द्वारा रिपोर्ट की गयी राशि से अधिक बरामद होनें पर उस राशि का उपयोंग डाकुओं के साथ मुठभेड़ में मारे जाने वाले या घायल हो जाने वाले पुलिस परिवारों के सहायार्थ भी काम आ सकती है। डाकुओं की देह के अंत के साथ साथ जब उनके अर्थतंत्र को मजबूत करने वाले भी दण्डित होने लगेंगे तो नये डाकुओं के उदय में कठिनाई आयेगी जबकि अभी ऐसा होता है कि मृत डाकू के स्थापित तंत्र को सम्हालने के लिये नया उत्तराधिकारी जल्दी से सामने आ जाता है।

आयकर विभाग भी जब छापा मार कर आय से अधिक अर्जित की गयी राशि को पकड़ता है तो वह उस राशि पर लगाये जाने वाले टैक्स और दण्ड तक ही सीमित रहता है । उसके यह प्रयास नहीं होते कि वह उसके अर्जित किये जाने वाले स्त्रोतों की गहराई से पड़ताल कर पूरे जाल को ही नष्ट करे। ऐसी राशियों में बहुत सारी राशियां हिंसक-आर्थिक अपराधियों द्वारा अर्जित राशियों का भी भाग होना सम्भव है। सच तो यह है कि सरकार आर्थिक अपराधियों व सामाजिक अपराधियों में बड़ा भेद मान कर चलती है। आर्थिक अपराधियों के अपराधों को वह लाड़ले बच्चे की शौतानियां मानती है जबकि सामाजिक अपराधियाें के अपराधों को वह शत्रु के सिपाहियों द्वारा की गयी कार्यवाही मानकर उनकी जान ले लेने को तैयार रहती है। सच तो यह हेै कि बिना आर्थिकतंत्र के सहयोग के कोई डाकू कभी वीरप्पन या गड़रिया की हैसियत तक नहीं पहुंच सकता। आज राजनीति और राजनेता इसीलिये तो अविशवसनीय होते जा रहे हैं क्योंकि उनके द्वारा दिये गये भाषणों और किये गये उपायों में कौई तालमेल नहीं होता।
वीरेन्द्रजैन 2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
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गुरुवार, जुलाई 02, 2009

सम्लेंगिकिता और ज़न्नत

समलेंगिकिता और ज़न्नत
जो मज़हबी विद्वान् सम्लेंगिकिता के संभावित कानून पर टीका टिप्पणी कर रहे हैं वे क्या यह बताने का कष्ट करेंगे कि ज़न्नत में गिलमे मिलने का जो लालच धर्मग्रंथों में दिया गया है वह क्या सम्लेंगिकता की श्रेणी में आता है या नहीं आता