गुरुवार, जून 28, 2018

श्रद्धांजलि हिन्दुस्तानी के सबसे बड़े हास्य लेखक थे मुस्ताक अहमद यूसिफी


श्रद्धांजलि
हिन्दुस्तानी के सबसे बड़े हास्य लेखक थे मुस्ताक अहमद यूसिफी  
वीरेन्द्र जैन













मैं अपने को हिन्दी हास्य व्यंग्य का ठीकठाक पाठक मानता हूं और उसके आधार पर कह सकता हूं कि उर्दू के लेखक मुस्ताक अहमद यूसिफी के बराबर का हास्य लेखक  अब तक मेरी नजरों से नहीं गुजरा। यह भी तब जब कि मैंने उन्हें केवल उस सब कुछ के माध्यम से जाना है जो देवनागरी में प्रकाशित हुआ है। मैंने इस विषय के अन्य अध्येताओं से भी बात की और वे सभी मेरी बात से सहमत थे। वे ऐसे लेखक थे जो पाकिस्तान में अविभाजित हिन्दुस्तान का प्रतिनिधित्व करते थे। उनके पूरे लेखन से आप पता ही नहीं लगा सकते कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान अलग अलग मुल्क हो चुके हैं। साहित्य से जुड़े जितने भी पाकिस्तान के श्रेष्ठ सम्मान हैं वे सब उन्हें मिले हैं, जैसे 1999 में पाकिस्तान के प्रैसीडेंट द्वारा सितारा-ए- इम्तियाज, 2002 में पाकिस्तान के प्रैसीडेंट द्वारा हिलाल-ए- इम्तियाज, कायदे आज़म मैमोरियल मैडल, 1990 में श्रेष्ठ किताब के लिए दिया जाने वाला पुरस्कार पाकिस्तान अकादमी आफ लैटर्स, हिजरा अवार्ड, व अदमजी अवार्ड फर बैस्ट बुक, आदि।  ऐसा कैसे सम्भव हो सका यह बात उनके जीवन परिचय को पढ कर समझ में आ जाती है।
यूसिफी जी का जन्म 4 सितम्बर 1923 को राजस्थान के टोंक में हुआ था। उनके पिता पठान थे और यूसुफजई जनजाति से आते थे। उनकी वंश परम्परा उन लोगों से जुड़ती है जो महमूद गज़नवी के साथ इस क्षेत्र में आये थे और लम्बे समय तक शासक वर्ग से सम्बन्धित रहे।  उनके पिता जो जयपुर के पहले पढे लिखे मुसलमान थे पहले जयपुर नगर निगम के चेयरमैन और बाद में जयपुर विधानसभा के अध्यक्ष रहे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा राजपूताने में हुयी तथा बाद में उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से बीए किया। आगे उन्होंने अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से फिलोस्फी में एमए और एलएलबी किया। विभाजन के बाद उनका परिवार कराची में रहने लगा था। 1950 में उन्होंने मुस्लिम कामर्सियल बैंक में सेवायें प्रारम्भ की और डिप्टी जनरल मैनेजर हो गये। 1965 में वे एलाइड बैंक लिमिटेड में मैनेजिंग डायरेक्टर नियुक्त हुये। 1974 में वे यूनाइटिड बैंक लि. के प्रैसीडेंट बने, व 1977 में पाकिस्तान बैंकिंग काउंसिल के चेयरमैन चुने गये। अपनी श्रेष्ठ बैंकिंग सेवाओं के लिए उन्हें कायदे आज़म मैमोरियल मैडल प्रदान किया गया।
एक बार में मुम्बई गया तो रामावतार चेतन ने कहा कि शरद जोशी से मिल कर अपनी किताब दे आना। मैंने यही किया तो शरद जी ने पूछा कि मुम्बई कैसे आये थे। मैंने कहा कि यूं ही बिना किसी काम के आया था। वे बोले कि आते रहना चाहिए। क्योंकि जीवन शैली का जो कंट्रास्ट सामने आता है वह व्यंग्य को बल देता है। उन्होंने मुम्बई और भोपाल के आदमी की गति के अंतर का रोचक चित्रण कर के समझाया। जिसके जीवन में जितनी विविधता होगी उसका व्यंग्य भी उतना ही तेज होगा।
यूसिफी जी ने अध्य्यन, और नौकरी में जितनी विविधिता का सामना किया उन्हें उतने ज्यादा चरित्र मिले। कानपुर की ग्वालिन से लेकर अमृतसर के सिखों, व वलूची पठानों से लेकर मुहाजिरों तक के वर्णन बताते हैं कि उन्होंने कितनी निरपेक्षता के साथ सूक्ष्म निरीक्षण किया हुआ है। हास्य व्यंग्य के लेखक को जनक जैसे सन्यासी की तरह समस्त रागों से असम्पृक्त होकर देखना होता है। उनके छोटे छोटे वाक्यों में जो चुटीले जुमले होते हैं, वे मुस्कराने और खिलखिलाने के लिए विवश कर देते हैं। मजहबियों पर कुछ उदाहरण देखिए-
·        जो मुल्क जितना गरीब होगा, उतना ही आलू और मजहब का चलन ज्यादा होगा
·        मुसलमान किसी ऐसे जानवर को मुहब्बत से नहीं पालते जिसे जिबह करके खा न सकें।

·        नाई की जरूरत सारी दुनिया को रहेगी जब तक कि सारी दुनिया सिक्ख धर्म ना अपना ले और सिक्ख ऐसा कभी होने नहीं देंगे।

·        इस्लाम के लिए सबसे ज्यादा कुर्बानी बकरों ने दी है।

·        इस्लाम की दुनिया में आज तक कोई बकरा स्वाभाविक मौत नहीं मरा

·        कुछ लोग इतने मजहबी होते हैं कि जूता पसन्द करने के लिए भी मस्जिद का रुख करते हैं

वैवाहिक सम्बन्धों और प्रेम से सम्बन्धित कुछ जुमले देखिए –
·        हमारे जमाने में तरबूज इस तरह खरीदा जाता था जैसे आजकल शादी होती है, सिर्फ सूरत देख कर।
·        जो ज़हर देकर मारती तो दुनिया की नजर में आ जाती, अन्दाज-ए-कातिल तो देखो, हमसे शादी कर ली.
·        मर्द की आंख और औरत की जबान का दम सबसे आखिर में निकलता है
·        उस शहर की गलियां इतना तंग थीं कि अगर मुख्तलिफ जिंस आमने-सामने आ जायें तो निकाह के अलावा कोई गुंजाइश नहीं रहती.
·        मुहब्बत अंधी होती है, लिहाजा औरत के लिए खूबसूरत होना जरूरी नहीं, बस मर्द का अंधा होना काफी होता है।
·        बुढ़ापे की शादी और बैंक की चौकीदारी में जरा भी फर्क नहीं, सोते में भी एक आंख खुली रखनी पड़ती है।
कुछ अन्य उदाहरण देखिए-

·        लफ्जों की जंग में फतह किसी भी फरीक की हो, शहीद हमेशा सच्चाई होती है।
·        दुश्मनों के तीन दर्जे हैः दुश्मन, जानी दुश्मन और रिश्तेदार।
·        आदमी एक बार प्रोफेसर हो जाए तो उम्र भर प्रोफेसर ही रहता है, चाहे बाद में समझदारी की बातें ही क्यों ना करने लगे।
·        सिर्फ 99% पुलिस वालों की वजह से बाकी एक प्रतिशत भी बदनाम हैं।

हिन्दी में लफ्ज़ सम्पादक तुफैल चतुर्वेदी ने न केवल उनकी पुस्तकों के अनुवाद ही किये हैं अपितु उन्हें प्रकाशित भी किया है। ये किताबें हाथों हाथ बिक भी गयीं। उनकी 1961 में किताब ‘चिराग तले’ आयी तो 1969 में ‘खाकम बा दहन’ 1976 में ‘जर्गुरस्त’ तो 1990 में ‘आब-ए-गुम’ , 2014 में ‘शामे-ए- सैरे यारां’ आयी।अनेक पुस्तकों के अनुवाद अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में हुये हैं। स्वस्थ होने और समय रहते वे सेमिनारों और विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रमों में भागीदारी करते रहे।  
गत 20 जून 2018 को वे नहीं रहे और उर्दू व हिन्दी का या कहें कि हिन्दुस्तानी भाषा और संस्कृति का बहुत बड़ा लेखक विदा हो गया। 
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629


 



शनिवार, जून 16, 2018

चमत्कार की उम्मीद से भ्रमित समाज में बाबा


चमत्कार की उम्मीद से भ्रमित समाज में बाबा  

वीरेन्द्र जैन
लगभग एक दशक पहले मीडिया में एक फोटो आयी थी जिसमें भगवा वस्त्रों में प्रज्ञा सिंह जिन्हें बाद में साध्वी प्रज्ञा के नाम से प्रचारित किया गया, बीच में विराजमान हैं और उनके दोनों तरफ क्रमशः राजनाथ सिंह और शिवराज सिंह चौहान अपनी पत्नी सहित श्रद्धा की मुद्रा में बैठे हैं। यह फोटो तब ज्यादा प्रसारित हुयी जब प्रज्ञा सिंह को आतंकी गतिविधियों और उससे जुड़ी हत्याओं के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था। अनेक लोगों से पूछने पर भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला कि देश के इतने बड़े बड़े नेता जो देश के प्रतिष्ठित धर्म गुरुओं के सम्पर्क में भी रहते हैं, इन कथित साध्वी की किस प्रतिभा से प्रभावित होकर श्रद्धानवत बैठे दिख रहे हैं। क्या केवल वस्त्रों के रंग और माथे पर लगे तिलक टीके ही श्रद्धा का आधार बन जाते हैं!
तब से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है व हर दूसरे तीसरे महीने कोई न कोई बाबा, स्वामी, संत, महंत कहलाने वाला व्यक्ति किसी न किसी अनैतिक कर्म से जुड़ा पाया जा रहा है। इसके साथ ही यह बात भी प्रकाश में आती है कि उसके पास कितनी जमीन, बंगले, बगीचे, आश्रम, और दौलत के खजाने मौजूद हैं, व उनके पास कितने नामी गिरामी लोग श्रद्धापूर्वक आते हैं। जब इतने सारे धर्म हैं और उनकी अनेक शाखाएं उपशाखाएं हैं तो उनके गुरु तो होंगे ही किंतु उन सब के अलग होने के पीछे कुछ सिद्धांत, नीति नियम भी होंगे, उपासना की भिन्न विधियां भी होंगीं। अनेक मामलों में ऐसा है भी। किंतु जब अस्पष्ट दर्शन, सिद्धांतों, या आचरणों के बाबजूद कोई धर्मगुरु बहुत बड़ी संख्या में अनुयायी बना लेता है, उनसे ढेर सारा धन निकलवा लेता है व संदिग्ध जीवन जीता है तब सरकार और उसके अनुयायियों को सन्देह क्यों नहीं होता! धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को धर्म की ओट में मनमानी करने का अधिकार क्यों बना लिया गया है। धर्मस्थलों की पवित्रता अपराधियों के प्रवेश से भंग नहीं होती किंतु पुलिस के प्रवेश से भंग हो जाती है।  
महेश योगी, ओशो रजनीश, श्री श्री रविशंकर, गायत्री पीठ के श्रीराम शर्मा, रामदेव, आदि की स्थापनाएं समझ में आती हैं जिन्होंने विचारों, आचरणों, या प्रयोगों में कुछ नया कर के अपने अभियान को मौलिक रूप देकर आगे बढाया है, किंतु आसाराम, राम रहीम, रामपाल, निर्मल बाबा, राधे माँ, आदि आदि से लेकर दाती महाराज तक अपने अनुयायी किस आधार पर बना लेते हैं जो अपने मूल इष्ट को छोड़ कर नई आस्था की भीड़ बना लेते हैं। इस भीड़ के लोग  किसी भी सामान्य बुद्धि के व्यक्ति को प्रथम दृष्ट्या हास्यास्पद लगने वाला आचरण करते हुए लगते हैं। उनके इन गुरुओं के आपराधिक कृत्य सामने आने, उनके गिरफ्तार हो जाने के बाद भी कुछ भक्तों की आस्था कम नहीं होती। रोचक यह है कि वे इस विषय पर बात भी नहीं करना चाहते हैं। खेद इस बात का भी है कि इस अन्ध आस्था से होने वाले खतरों के प्रति शासन प्रशासन भी उदासीन है और कोई भी जनता को तब भी शिक्षित नहीं करना चाहता, जब कि सम्बन्धित धर्मगुरु के भेष में रहने वाला पुलिस की गिरफ्त में आ चुका होता है। इन कथित आश्रमों या धार्मिक संस्थानों में एकत्रित धन का बड़ा हिस्सा काला धन होता है और बहुत सारे मामलों में अवैध ढंग से कमाया हुआ होता है। घटनाक्रम बताता है कि लगभग सभी डाकुओं ने मन्दिर बनवाये हैं और पुजारियों व बाबाओं को पाला है, भले ही यह काम उन्होंने अपनी भयमुक्ति के लिए किया हो। समस्त काले धन वाले लोग अपनी कमाई का एक हिस्सा धार्मिक संस्थानों को देते हैं। इस प्रकार ये संस्थान देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रहे हैं और सरकार की सतत निगाह इन पर रहनी चाहिए।
 धार्मिक संस्थानों की वित्तीय व्यवस्था को पारदर्शी बनाये बिना अर्थव्यवस्था में सुधार सम्भव नहीं है। जिस तरह बड़े कार्पोरेट घरानों, पब्लिक सेक्टर आदि को अपनी आडिट की हुयी बैलेंस शीट को सार्वजनिक करना अनिवार्य होता है उसी तरह एक निश्चित राशि से अधिक लेन देन वाली हर सार्वजनिक संस्था को अपनी बैलेंस शीट सार्वजनिक करना जरूरी होना चाहिए।  
साधु भेष में धोखा देने की परम्परा सबसे प्रसिद्ध रामकथा से शुरू होती है जिसमें रावण ने साधु भेष रख कर ही सीता का हरण किया था। इसी कथा में कालनेमि ने ही साधु का भेष रख कर हनुमान को धोखा देने का प्रयास किया था। कबीर ने झूठे साधुओं के लिए ही कहा है कि मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा। “पानी पीजे छान कर और गुरु कीजे जानकर” भी इसीलिए कहा गया है क्योंकि गलत लोग भी धर्मगुरु के रूप में आ जाते हैं और लूट कर चल देते हैं। “ मुँह में राम, बगल में छुरी’ भी ऐसे ही नकली भक्तों के लिए कहा गया होगा, जैसे कि “बगुला भगत” शब्द आया है।
सच यह भी है कि बिना श्रम किये उपलब्धि पाने की इच्छा रखने वाले लोग चमत्कार की उम्मीदों में ऐसे बाबाओं के चक्कर में फँस जाते हैं और संयोगवश लाभ हो जाने से वे उनके स्थायी गुलाम बन जाते हैं। दूसरे जिन कार्यों में परिणाम अनिश्चित होता है या कहें कि जहाँ दाँव होता है वहाँ भी लोग अन्धविश्वासी हो जाते हैं और बाजी जीतने पर वे गलत विश्वासों के शिकार हो जाते हैं। सभी राजनीतिक दलों, मीडिया व सामाजिक संस्थाओं सहित सच्ची धार्मिक संस्थाओं को चाहिए कि प्रत्येक धार्मिक संस्थानों पर निगाह रखे जाने की मांग करें, व उसका समर्थन करें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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गुरुवार, जून 07, 2018

मनमोहन वैद्य की मनमानी बात अन्दर के भय का संकेत


मनमोहन वैद्य की मनमानी बात अन्दर के भय का संकेत
वीरेन्द्र जैन

फैज़ अहमद फैज़ का एक शे’र है जिसने पाकिस्तान की तात्कालीन सरकार को आग बबूला कर दिया था। वह शे’र था-
वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है
संघ की तरकीब रही है कि वे पहले अपने विरोधियों के मुँह में अपने शब्द डाल देते हैं और फिर उनका विरोध शुरू कर देते हैं। संघ के सरकार्यवाह मनमोहन वैद्य ने प्रणव मुखर्जी के संघ मुख्यालय जाने पर समाचार पत्रों में एक लेख लिखा है। उन्हें उम्मीद रही होगी कि प्रणव मुखर्जी के संघ कार्यालय जाने पर वामपंथी विरोध करेंगे इसलिए उन्होंने वाम पंथियों के बहाने वामपंथ पर हमला करने के लिए पहले से ही लेख तैयार कर लिया था। किंतु जब वामपंथ की ओर से इसे काँग्रेसियों का निजी पतन मानते हुए किसी तरह की टिप्पणी की जरूरत नहीं समझी तो खीझ कर अपनी मन की बात में मनमोहन वैद्य जी कहते हैं कि “यदि विरोध करने वालों का वैचारिक मूल देखेंगे तो आश्चर्य नहीं होगा। भारत का बौद्धिक जगत उस साम्यवादी विचारों के ‘कुल’ और ‘मूल’ के लोगों द्वारा प्रभावित है, जो पूर्णतः अभारतीय विचार है। इसलिए उनमें असहिष्णुता और हिंसा का रास्ता लेने की वृत्ति है। साम्यवादी मित्र विचार के लोगों की बातें सुनने से न केवल इंकार करते हैं अपितु उनका विरोध भी करते हैं।.....”
वैद्यजी का यह बयान गलत और हास्यास्पद है। वे मानते हैं कि संघी विचार को छोड़ कर सारे विचारों का ‘कुल’ और ‘मूल’ साम्यवाद से प्रभावित है, क्योंकि देश में कोई अन्य कोई वैचारिक दल उनके विचार से सहमत नहीं दिखता। ऐसे में वैद्यजी को अपने विश्वासों पर पुनर्विचार करना चाहिए। विचारों का मूल्यांकन उनकी मनुष्यता के प्रति उपयोगिता से किया जायेगा या उनके उद्गम के राजनीतिक भूगोल से किया जायेगा। अगर वैद्यजी साम्यवादी विचारों के दिग्दिगंत प्रसार के आतंक में वेदों को न भूल गये हों तो उन्हें याद कराना जरूरी है कि ऋगवेद का एक सूत्र कहता है-
‘आ नो भद्राः क्रतवो यंतु विश्वतः’ अर्थात अच्छे विचार विश्व से सभी ओर से आना चाहिए।
जब वैद्य और उनके प्रचारक निशि दिन यह कहते हुए नहीं थकते हैं कि साम्यवादी विचारधारा सारी दुनिया से समाप्त हो गयी है तो फिर उस कथित मृत विचारधारा का इतना आतंक क्यों कि हर विचार में उसी का कुल और मूल देख रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि उस विचारधारा का भूत महसूस कर उससे डरते हुए कह रहे हैं कि नहीं है, कोई नहीं है और जरा सी सरसराहट होते ही चीख पढते हैं। राजस्थान के सीकर में किसानों का सप्ताह भर चला बन्द हो या महाराष्ट्र में पचास हजार किसानों का लांग मार्च हो ये इस विचारधारा कि मृत बताने वालों को डराते तो होंगे।
 उक्त लेख में वे एक गलत बात स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं कि साम्यवादी लोग विचारों के आदान प्रदान में विश्वास नहीं करते जबकि यह बात खुद उनके संगठन पर लागू होती है। विचारों के आदान प्रदान के मंचों पर सबसे अधिक सक्रिय रूप से भाग लेने वालों में वामपंथी ही रहे हैं। उन्होंने सबसे अधिक सभाओं, सेमिनारों में भाग लिया है, लेख और पुस्तकें लिखी हैं, वे शिक्षा जगत में सक्रिय हैं, साहित्यकारों, और कला के क्षेत्रों में वे सबसे अधिक हैं, संसद में सबसे समझदार, जिम्मेवार और भागीदारी करने वाले सांसद विधायक वामपंथी ही हैं, विभागों की समितियों में उनके सांसद ही सबसे समझदारी वाली सलाहें देते हैं व विषय की जानकारी के साथ आते हैं। उनकी उपस्थिति सर्वाधिक होती है। वे बहसों से इसलिए नहीं भागते क्योंकि उनके अन्दर कोई अपराध बोध नहीं होता जबकि वैद्य जी के संगठन षड़यंत्रों और असत्यों की राजनीति करते हैं व पोल खुल जाने के डर से  बहसों से बचते हैं।  
क्या बहसों की जगह वही हो सकती है जिसे संघी तय करें, जहाँ अज्ञानी, कुशिक्षित, और कुतर्की लोग बाँहें चढाते हुए बैठे हुए हों, और उनकी हाँ में हाँ मिलाने वाली प्रायोजित भीड़ पहले से जोड़ कर रखी गयी हो। जहाँ पर भी स्वस्थ बहस के साथ ज्ञान के आदान प्रदान के अवसर होंगे वहाँ वैज्ञानिक विचारधारा में भरोसा करने वाला बेदाग व्यक्ति कभी संकोच नहीं करेगा। आम तौर पर जब गाँव कस्बों में लड़ाई होती है तो एक गाली दी जाती है कि हम तुम्हारे बाप को भी जानते हैं, जिसका इशारा उक्त लेख में भी वैद्यजी ने प्रणव मुखर्जी के संघ कार्यालय जाने पर विरोध करने वालों के लिए कुल और मूल का प्रयोग करते हुए किया है। इसी को अगर संघ की विचारधारा के लिए प्रयोग किया जाये तो वह हिटलर मुसोलिनी से जुड़ती है और गोएबिल्स का तरीका अपनाती है। अगर किसी के मानस और व्यवहार का पता हो तो उसके साथ निरर्थक बहस में समय बर्बाद करना ठीक बात नहीं यह बात वामपंथी समझते हैं। उसके साथ यह भी तय है कि वे किसी भी संवाद से बचने की कोशिश नहीं करते और न ही किसी को अछूत समझते हैं। ऐसा करने का कोई कारण भी नहीं है। अगर फिर वेद का उल्लेख किया जाये तो उसमें कहा गया है – वादे वादे जायते तत्व बोधः अर्थात बातचीत से ही तत्व ज्ञान प्राप्त होता है/ हो सकता है। वैज्ञानिक विचारधारा ज्ञान का सदैव स्वागत करती है।
बहरहाल संघ कार्यालय में जाने का प्रणव मुखर्जी का कदम जितना खतरनाक था, उतना ही गलत उनका विरोध करना था और विरोध करने वाले गैर जिम्मेवार काँग्रेसियों के आचरण के नाम पर वामपंथ के विरोध का अवसर तलाशना भी उतना ही गलत है।
भारत में वामपंथ पर हिंसक होने के आरोप लगाये जाते रहे हैं किंतु लोकतांत्रिक ढंग से काम करने वाले वामपंथ ने कभी राजनीति के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष हिंसा का सहारा नहीं लिया। इसके उलट वे ही सबसे अधिक हिंसा का शिकार हुये हैं। हथियारों के प्रशिक्षण की शाखाएं कौन लगाता है। देवताओं के सद्गुणों को छोड़ कर उनके हथियारों को प्रतीक कौन बनाता है! भाजपा परिवार जिस तरह अफवाह फैला कर साम्प्रदायिकता फैलाती है, उससे जनित हिंसा किसके हिस्से में आयेगी। रथयात्रा के द्वारा दंगे किसने करवाये! 1984 में सिखों के खिलाफ हिंसा हो, गुजरात की हिंसा हो, बाबरी मस्जिद टूटने के बाद भड़के मुम्बई के दंगे हों, भाषा के दंगे हों, क्षेत्र के दंगे हों, ममता बनर्जी के तृणमूल काँग्रेस के लोगों द्वारा की गयी हिंसक कार्यवाही हो इनमें वामपंथ कभी शामिल नहीं रहा। यदा कदा हिंसा से पीड़ित वामपंथी परिवार के सदस्य  प्रतिक्रिया में या आवेश में  हिंसा में लिप्त हो जाते हों तो उस इक्की दुक्की घटना को सोची समझी राजनीतिक हिंसा नहीं कहा जा सकता। यद्यपि उनके विचार का समर्थन नहीं किया जा सकता, पर, हिंसा का आरोप झेलने वाले नक्सलवादी मानते हैं कि वे वर्ग युद्ध लड़ रहे हैं इसलिए वे उन पर हमला करने वाले सशस्त्र बलों पर या मुखबिरों पर हिंसा का प्रयोग करते हैं, क्योंकि उनका मानना रहता है कि अगर उन्होंने पहले हमला नहीं किया तो वे खुद हिंसा का शिकार हो जायेंगे। वे अपनी हिंसा को रक्षात्मक बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने लक्ष्य बना कर कभी किसी निर्दोष नागरिक को नहीं मारा।
वैद्य जी को चाहिए कि वे निष्पक्ष वैचारिक आदान प्रदान के मंचों पर वामपंथियों को आमंत्रित करें और खुद भी प्रतिनिधित्व करें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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