गुरुवार, जून 07, 2018

मनमोहन वैद्य की मनमानी बात अन्दर के भय का संकेत


मनमोहन वैद्य की मनमानी बात अन्दर के भय का संकेत
वीरेन्द्र जैन

फैज़ अहमद फैज़ का एक शे’र है जिसने पाकिस्तान की तात्कालीन सरकार को आग बबूला कर दिया था। वह शे’र था-
वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है
संघ की तरकीब रही है कि वे पहले अपने विरोधियों के मुँह में अपने शब्द डाल देते हैं और फिर उनका विरोध शुरू कर देते हैं। संघ के सरकार्यवाह मनमोहन वैद्य ने प्रणव मुखर्जी के संघ मुख्यालय जाने पर समाचार पत्रों में एक लेख लिखा है। उन्हें उम्मीद रही होगी कि प्रणव मुखर्जी के संघ कार्यालय जाने पर वामपंथी विरोध करेंगे इसलिए उन्होंने वाम पंथियों के बहाने वामपंथ पर हमला करने के लिए पहले से ही लेख तैयार कर लिया था। किंतु जब वामपंथ की ओर से इसे काँग्रेसियों का निजी पतन मानते हुए किसी तरह की टिप्पणी की जरूरत नहीं समझी तो खीझ कर अपनी मन की बात में मनमोहन वैद्य जी कहते हैं कि “यदि विरोध करने वालों का वैचारिक मूल देखेंगे तो आश्चर्य नहीं होगा। भारत का बौद्धिक जगत उस साम्यवादी विचारों के ‘कुल’ और ‘मूल’ के लोगों द्वारा प्रभावित है, जो पूर्णतः अभारतीय विचार है। इसलिए उनमें असहिष्णुता और हिंसा का रास्ता लेने की वृत्ति है। साम्यवादी मित्र विचार के लोगों की बातें सुनने से न केवल इंकार करते हैं अपितु उनका विरोध भी करते हैं।.....”
वैद्यजी का यह बयान गलत और हास्यास्पद है। वे मानते हैं कि संघी विचार को छोड़ कर सारे विचारों का ‘कुल’ और ‘मूल’ साम्यवाद से प्रभावित है, क्योंकि देश में कोई अन्य कोई वैचारिक दल उनके विचार से सहमत नहीं दिखता। ऐसे में वैद्यजी को अपने विश्वासों पर पुनर्विचार करना चाहिए। विचारों का मूल्यांकन उनकी मनुष्यता के प्रति उपयोगिता से किया जायेगा या उनके उद्गम के राजनीतिक भूगोल से किया जायेगा। अगर वैद्यजी साम्यवादी विचारों के दिग्दिगंत प्रसार के आतंक में वेदों को न भूल गये हों तो उन्हें याद कराना जरूरी है कि ऋगवेद का एक सूत्र कहता है-
‘आ नो भद्राः क्रतवो यंतु विश्वतः’ अर्थात अच्छे विचार विश्व से सभी ओर से आना चाहिए।
जब वैद्य और उनके प्रचारक निशि दिन यह कहते हुए नहीं थकते हैं कि साम्यवादी विचारधारा सारी दुनिया से समाप्त हो गयी है तो फिर उस कथित मृत विचारधारा का इतना आतंक क्यों कि हर विचार में उसी का कुल और मूल देख रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि उस विचारधारा का भूत महसूस कर उससे डरते हुए कह रहे हैं कि नहीं है, कोई नहीं है और जरा सी सरसराहट होते ही चीख पढते हैं। राजस्थान के सीकर में किसानों का सप्ताह भर चला बन्द हो या महाराष्ट्र में पचास हजार किसानों का लांग मार्च हो ये इस विचारधारा कि मृत बताने वालों को डराते तो होंगे।
 उक्त लेख में वे एक गलत बात स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं कि साम्यवादी लोग विचारों के आदान प्रदान में विश्वास नहीं करते जबकि यह बात खुद उनके संगठन पर लागू होती है। विचारों के आदान प्रदान के मंचों पर सबसे अधिक सक्रिय रूप से भाग लेने वालों में वामपंथी ही रहे हैं। उन्होंने सबसे अधिक सभाओं, सेमिनारों में भाग लिया है, लेख और पुस्तकें लिखी हैं, वे शिक्षा जगत में सक्रिय हैं, साहित्यकारों, और कला के क्षेत्रों में वे सबसे अधिक हैं, संसद में सबसे समझदार, जिम्मेवार और भागीदारी करने वाले सांसद विधायक वामपंथी ही हैं, विभागों की समितियों में उनके सांसद ही सबसे समझदारी वाली सलाहें देते हैं व विषय की जानकारी के साथ आते हैं। उनकी उपस्थिति सर्वाधिक होती है। वे बहसों से इसलिए नहीं भागते क्योंकि उनके अन्दर कोई अपराध बोध नहीं होता जबकि वैद्य जी के संगठन षड़यंत्रों और असत्यों की राजनीति करते हैं व पोल खुल जाने के डर से  बहसों से बचते हैं।  
क्या बहसों की जगह वही हो सकती है जिसे संघी तय करें, जहाँ अज्ञानी, कुशिक्षित, और कुतर्की लोग बाँहें चढाते हुए बैठे हुए हों, और उनकी हाँ में हाँ मिलाने वाली प्रायोजित भीड़ पहले से जोड़ कर रखी गयी हो। जहाँ पर भी स्वस्थ बहस के साथ ज्ञान के आदान प्रदान के अवसर होंगे वहाँ वैज्ञानिक विचारधारा में भरोसा करने वाला बेदाग व्यक्ति कभी संकोच नहीं करेगा। आम तौर पर जब गाँव कस्बों में लड़ाई होती है तो एक गाली दी जाती है कि हम तुम्हारे बाप को भी जानते हैं, जिसका इशारा उक्त लेख में भी वैद्यजी ने प्रणव मुखर्जी के संघ कार्यालय जाने पर विरोध करने वालों के लिए कुल और मूल का प्रयोग करते हुए किया है। इसी को अगर संघ की विचारधारा के लिए प्रयोग किया जाये तो वह हिटलर मुसोलिनी से जुड़ती है और गोएबिल्स का तरीका अपनाती है। अगर किसी के मानस और व्यवहार का पता हो तो उसके साथ निरर्थक बहस में समय बर्बाद करना ठीक बात नहीं यह बात वामपंथी समझते हैं। उसके साथ यह भी तय है कि वे किसी भी संवाद से बचने की कोशिश नहीं करते और न ही किसी को अछूत समझते हैं। ऐसा करने का कोई कारण भी नहीं है। अगर फिर वेद का उल्लेख किया जाये तो उसमें कहा गया है – वादे वादे जायते तत्व बोधः अर्थात बातचीत से ही तत्व ज्ञान प्राप्त होता है/ हो सकता है। वैज्ञानिक विचारधारा ज्ञान का सदैव स्वागत करती है।
बहरहाल संघ कार्यालय में जाने का प्रणव मुखर्जी का कदम जितना खतरनाक था, उतना ही गलत उनका विरोध करना था और विरोध करने वाले गैर जिम्मेवार काँग्रेसियों के आचरण के नाम पर वामपंथ के विरोध का अवसर तलाशना भी उतना ही गलत है।
भारत में वामपंथ पर हिंसक होने के आरोप लगाये जाते रहे हैं किंतु लोकतांत्रिक ढंग से काम करने वाले वामपंथ ने कभी राजनीति के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष हिंसा का सहारा नहीं लिया। इसके उलट वे ही सबसे अधिक हिंसा का शिकार हुये हैं। हथियारों के प्रशिक्षण की शाखाएं कौन लगाता है। देवताओं के सद्गुणों को छोड़ कर उनके हथियारों को प्रतीक कौन बनाता है! भाजपा परिवार जिस तरह अफवाह फैला कर साम्प्रदायिकता फैलाती है, उससे जनित हिंसा किसके हिस्से में आयेगी। रथयात्रा के द्वारा दंगे किसने करवाये! 1984 में सिखों के खिलाफ हिंसा हो, गुजरात की हिंसा हो, बाबरी मस्जिद टूटने के बाद भड़के मुम्बई के दंगे हों, भाषा के दंगे हों, क्षेत्र के दंगे हों, ममता बनर्जी के तृणमूल काँग्रेस के लोगों द्वारा की गयी हिंसक कार्यवाही हो इनमें वामपंथ कभी शामिल नहीं रहा। यदा कदा हिंसा से पीड़ित वामपंथी परिवार के सदस्य  प्रतिक्रिया में या आवेश में  हिंसा में लिप्त हो जाते हों तो उस इक्की दुक्की घटना को सोची समझी राजनीतिक हिंसा नहीं कहा जा सकता। यद्यपि उनके विचार का समर्थन नहीं किया जा सकता, पर, हिंसा का आरोप झेलने वाले नक्सलवादी मानते हैं कि वे वर्ग युद्ध लड़ रहे हैं इसलिए वे उन पर हमला करने वाले सशस्त्र बलों पर या मुखबिरों पर हिंसा का प्रयोग करते हैं, क्योंकि उनका मानना रहता है कि अगर उन्होंने पहले हमला नहीं किया तो वे खुद हिंसा का शिकार हो जायेंगे। वे अपनी हिंसा को रक्षात्मक बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने लक्ष्य बना कर कभी किसी निर्दोष नागरिक को नहीं मारा।
वैद्य जी को चाहिए कि वे निष्पक्ष वैचारिक आदान प्रदान के मंचों पर वामपंथियों को आमंत्रित करें और खुद भी प्रतिनिधित्व करें।
वीरेन्द्र जैन
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